भागसूचना
एकविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
व्यासजीका अपने पुत्र शुकदेवको वैराग्य और धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं निर्वेदमापन्नः शुको वैयासकिः पुरा।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे ॥ १ ॥
मूलम्
कथं निर्वेदमापन्नः शुको वैयासकिः पुरा।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! पूर्वकालमें व्यासपुत्र शुकदेवको किस प्रकार वैराग्य प्राप्त हुआ था? मैं यह सुनना चाहता हूँ। इस विषयमें मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तव्यक्ततत्त्वानां निश्चयं बुद्धिनिश्चयम् ।
वक्तुमर्हसि कौरव्य देवस्याजस्य या कृतिः ॥ २ ॥
मूलम्
अव्यक्तव्यक्ततत्त्वानां निश्चयं बुद्धिनिश्चयम् ।
वक्तुमर्हसि कौरव्य देवस्याजस्य या कृतिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! इसके सिवा आप मुझे व्यक्त और अव्यक्त तत्त्वोंका बुद्धिद्वारा निश्चित किया हुआ स्वरूप बतलाइये तथा अजन्मा भगवान् नारायणका जो चरित्र है, उसे भी सुनानेकी कृपा करें॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राकृतेन सुवृत्तेन चरन्तमकुतोभयम् ।
अध्याप्य कृत्स्नं स्वाध्यायमन्वशाद् वै पिता सुतम् ॥ ३ ॥
मूलम्
प्राकृतेन सुवृत्तेन चरन्तमकुतोभयम् ।
अध्याप्य कृत्स्नं स्वाध्यायमन्वशाद् वै पिता सुतम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! पुत्र शुकदेवको साधारण लोगोंकी भाँति आचरण करते और सर्वथा निर्भय विचरते देख पिता श्रीव्यासजीने उन्हें सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कराया और फिर यह उपदेश दिया॥३॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं पुत्र निषेवस्व सुतीक्ष्णौ च हिमातपौ।
क्षुत्पिपासे च वायुं च जय नित्यं जितेन्द्रियः ॥ ४ ॥
मूलम्
धर्मं पुत्र निषेवस्व सुतीक्ष्णौ च हिमातपौ।
क्षुत्पिपासे च वायुं च जय नित्यं जितेन्द्रियः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— बेटा! तुम सदा धर्मका सेवन करते रहो और जितेन्द्रिय होकर कड़ीसे कड़ी सर्दी, गर्मी, भूख-प्यासको सहन करते हुए प्राणवायुपर विजय प्राप्त करो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यमार्जवमक्रोधमनसूयां दमं तपः ।
अहिंसां चानृशंस्यं च विधिवत् परिपालय ॥ ५ ॥
मूलम्
सत्यमार्जवमक्रोधमनसूयां दमं तपः ।
अहिंसां चानृशंस्यं च विधिवत् परिपालय ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्य, सरलता, अक्रोध, दोषदर्शनका अभाव, इन्द्रिय-संयम, तप, अहिंसा और दया आदि धर्मोंका विधिपूर्वक पालन करो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्ये तिष्ठ रतो धर्मे हित्वा सर्वमनार्जवम्।
देवतातिथिशेषेण मात्रां प्राणस्य संलिह ॥ ६ ॥
मूलम्
सत्ये तिष्ठ रतो धर्मे हित्वा सर्वमनार्जवम्।
देवतातिथिशेषेण मात्रां प्राणस्य संलिह ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यपर डटे रहो तथा सब प्रकारकी वक्रता छोड़कर धर्ममें अनुराग करो। देवताओं और अतिथियोंका सत्कार करके जो अन्न बचे, उसीका प्राणरक्षाके लिये आस्वादन करो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फेनमात्रोपमे देहे जीवे शकुनिवत् स्थिते।
अनित्ये प्रियसंवासे कथं स्वपिषि पुत्रक ॥ ७ ॥
मूलम्
फेनमात्रोपमे देहे जीवे शकुनिवत् स्थिते।
अनित्ये प्रियसंवासे कथं स्वपिषि पुत्रक ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! यह शरीर जलके फेनकी तरह क्षणभंगुर है। इसमें जीव पक्षीकी तरह बसा हुआ है और यह प्रियजनोंका सहवास भी सदा रहनेवाला नहीं है। फिर भी तुम क्यों सोये पड़े हो?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रमत्तेषु जाग्रत्सु नित्ययुक्तेषु शत्रुषु।
अन्तरं लिप्समानेषु बालस्त्वं नावबुध्यसे ॥ ८ ॥
मूलम्
अप्रमत्तेषु जाग्रत्सु नित्ययुक्तेषु शत्रुषु।
अन्तरं लिप्समानेषु बालस्त्वं नावबुध्यसे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे शत्रु सर्वदा सावधान, जो हुए, सर्वथा उद्यत और तुम्हारे छिद्रोंको देखनेमें लगे हुए हैं; परंतु तुम अभी बालक हो, इसलिये समझ नहीं रहे हो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहःसु गण्यमानेषु क्षीयमाणे तथाऽऽयुषि।
जीविते लिख्यमाने च किमुत्थाय न धावसि ॥ ९ ॥
मूलम्
अहःसु गण्यमानेषु क्षीयमाणे तथाऽऽयुषि।
जीविते लिख्यमाने च किमुत्थाय न धावसि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी आयुके दिन गिने जा रहे हैं। आयु क्षीण होती जा रही है और जीवन मानो कहीं लिखा जा रहा है (समाप्त हो रहा है)। फिर तुम उठकर भागते क्यों नहीं हो? (शीघ्रतापूर्वक कर्तव्यपालनमें लग क्यों नहीं जाते हो?)॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐहलौकिकमीहन्ते मांसशोणितवर्धनम् ।
पारलौकिककार्येषु प्रसुप्ता भृशनास्तिकाः ॥ १० ॥
मूलम्
ऐहलौकिकमीहन्ते मांसशोणितवर्धनम् ।
पारलौकिककार्येषु प्रसुप्ता भृशनास्तिकाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अत्यन्त नास्तिक मनुष्य केवल इस लोकके स्वार्थको चाहते हुए शरीरमें मांस और रक्तको बढ़ाने-वाली चेष्टा ही करते रहते हैं। पारलौकिक कार्योंकी ओरसे तो वे सदा सोये ही रहते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माय येऽभ्यसूयन्ति बुद्धिमोहान्विता नराः।
अपथा गच्छतां तेषामनुयाताऽपि पीड्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
धर्माय येऽभ्यसूयन्ति बुद्धिमोहान्विता नराः।
अपथा गच्छतां तेषामनुयाताऽपि पीड्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बुद्धिके व्यामोहमें डूबे हुए मनुष्य धर्मसे द्वेष करते हैं, वे सदा कुमार्गसे ही चलते हैं। उनकी तो बात ही क्या है, उनके अनुयायियोंको भी कष्ट भोगना पड़ता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये तु तुष्टाः श्रुतिपरा महात्मानो महाबलाः।
धर्म्यं पन्थानमारूढास्तानुपास्स्व च पृच्छ च ॥ १२ ॥
मूलम्
ये तु तुष्टाः श्रुतिपरा महात्मानो महाबलाः।
धर्म्यं पन्थानमारूढास्तानुपास्स्व च पृच्छ च ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये जो महान् धर्मबलसे सम्पन्न महात्मा पुरुष संतुष्ट और श्रुतिपरायण होकर सर्वदा धर्मपथपर ही आरूढ़ रहते हैं, तुम उन्हींकी सेवामें रहो और उन्हींसे अपना कर्तव्य पूछो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपधार्य मतं तेषां बुधानां धर्मदर्शिनाम्।
नियच्छ परया बुद्ध्या चित्तमुत्पथगामि वै ॥ १३ ॥
मूलम्
उपधार्य मतं तेषां बुधानां धर्मदर्शिनाम्।
नियच्छ परया बुद्ध्या चित्तमुत्पथगामि वै ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन धर्मदर्शी विद्वानोंका मत जानकर तुम अपनी श्रेष्ठ बुद्धिके द्वारा अपने कुपथगामी मनको काबूमें करो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आद्यकालिकया बुद्ध्या दूरे श्व इति निर्भयाः।
सर्वभक्ष्या न पश्यन्ति कर्मभूमिमचेतसः ॥ १४ ॥
मूलम्
आद्यकालिकया बुद्ध्या दूरे श्व इति निर्भयाः।
सर्वभक्ष्या न पश्यन्ति कर्मभूमिमचेतसः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी केवल वर्तमान सुखपर ही दृष्टि रहती है, उस बुद्धिके द्वारा भावी परिणामको बहुत दूर जानकर जो निर्भय रहते और सब प्रकारके अभक्ष्य पदार्थोंको खाते रहते हैं, वे बुद्धिहीन मनुष्य इस कर्मभूमिके महत्त्वको नहीं देख पाते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं निःश्रेणिमास्थाय किंचित् किंचित् समारुह।
कोषकारवदात्मानं वेष्टयन्नानुबुध्यसे ॥ १५ ॥
मूलम्
धर्मं निःश्रेणिमास्थाय किंचित् किंचित् समारुह।
कोषकारवदात्मानं वेष्टयन्नानुबुध्यसे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम धर्मरूपी सीढ़ीको पाकर धीरे-धीरे उसपर चढ़ते जाओ। अभी तो तुम रेशमके कीड़ेकी तरह अपने-आपको वासनाओंके जालसे ही लपेटते जा रहे हो, तुम्हें चेत नहीं हो रहा है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्तिकं भिन्नमर्यादं कूलपातमिव स्थितम्।
वामतः कुरु विस्रब्धो नरं वेणुमिवोद्धृतम् ॥ १६ ॥
मूलम्
नास्तिकं भिन्नमर्यादं कूलपातमिव स्थितम्।
वामतः कुरु विस्रब्धो नरं वेणुमिवोद्धृतम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो नास्तिक हो, धर्मकी मर्यादा भंग कर रहा हो और किनारेको तोड़-फोड़कर गिरा देनेवाले नदीके महान् जल-प्रवाहकी भाँति स्थित हो, ऐसे मनुष्यको उखाड़े हुए बाँसकी तरह बिना किसी हिचकके त्याग दो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामं क्रोधं च मृत्युं च पञ्चेन्द्रियजलां नदीम्।
नावं धृतिमयीं कृत्वा जन्मदुर्गाणि संतर ॥ १७ ॥
मूलम्
कामं क्रोधं च मृत्युं च पञ्चेन्द्रियजलां नदीम्।
नावं धृतिमयीं कृत्वा जन्मदुर्गाणि संतर ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काम, क्रोध, मृत्यु और जिसमें पाँच इन्द्रियरूपी जल भरा हुआ है, ऐसी विषयासक्तिरूपी नदीको तुम सात्त्विकी धृतिरूप नौकाका आश्रय ले पार कर लो और इस प्रकार जन्म-मृत्युरूपी दुर्गम संकटसे पार हो जाओ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्युनाभ्याहते लोके जरया परिपीडिते।
अमोघासु पतन्तीषु धर्मपोतेन संतर ॥ १८ ॥
मूलम्
मृत्युनाभ्याहते लोके जरया परिपीडिते।
अमोघासु पतन्तीषु धर्मपोतेन संतर ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारा संसार मृत्युके थपेड़े खाता हुआ वृद्धावस्थासे पीड़ित हो रहा है। ये रातें प्राणियोंकी आयुका अपहरण करके अपनेको सफल बनाती हुई बीत रही हैं। तुम धर्मरूपी नौकापर चढ़कर भवसागरसे पार हो जाओ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिष्ठन्तं च शयानं च मृत्युरन्वेषते यदा।
निर्वृत्तिं लभते कस्मादकस्मान्मृत्युनाशितः ॥ १९ ॥
मूलम्
तिष्ठन्तं च शयानं च मृत्युरन्वेषते यदा।
निर्वृत्तिं लभते कस्मादकस्मान्मृत्युनाशितः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य खड़ा हो या सो रहा हो, मृत्यु निरन्तर उसे खोजती फिरती है। जब इस प्रकार तुम अकस्मात् मृत्युके ग्रास बन जानेवाले हो, तब इस तरह निश्चिन्त एवं शान्त कैसे बैठे हो?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संचिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम् ।
वृकीवोरणमासाद्य मृत्युरादाय गच्छति ॥ २० ॥
मूलम्
संचिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम् ।
वृकीवोरणमासाद्य मृत्युरादाय गच्छति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य भोगसामग्रियोंके संचयमें लगा ही रहता है और उनसे तृप्त भी नहीं होने पाता है कि भेड़के बच्चेको उठा ले जानेवाली बाघिनकी भाँति मौत उसे अपनी दाढ़में दबाकर चल देती है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रमशः संचितशिखो धर्मबुद्धिमयो महान्।
अन्धकारे प्रवेष्टव्यं दीपो यत्नेन धार्यताम् ॥ २१ ॥
मूलम्
क्रमशः संचितशिखो धर्मबुद्धिमयो महान्।
अन्धकारे प्रवेष्टव्यं दीपो यत्नेन धार्यताम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुम्हें इस संसाररूपी अन्धकारमें प्रवेश करना है तो हाथमें उस धर्म-बुद्धिमय महान् दीपकको यत्नपूर्वक धारण कर लो, जिसकी शिखा क्रमशः प्रज्वलित हो रही हो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्पतन् देहजालानि कदाचिदिह मानुषे।
ब्राह्मण्यं लभते जन्तुस्तत् पुत्र परिपालय ॥ २२ ॥
मूलम्
सम्पतन् देहजालानि कदाचिदिह मानुषे।
ब्राह्मण्यं लभते जन्तुस्तत् पुत्र परिपालय ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! जीव अनेक प्रकारके शरीरोंमें जन्मता-मरता हुआ कभी इस मानव-योनिमें आकर ब्राह्मणका शरीर पाता है, अतः तुम ब्राह्मणोचित कर्तव्यका पालन करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणस्य तु देहोऽयं न कामार्थाय जायते।
इह क्लेशाय तपसे प्रेत्य त्वनुपमं सुखम् ॥ २३ ॥
मूलम्
ब्राह्मणस्य तु देहोऽयं न कामार्थाय जायते।
इह क्लेशाय तपसे प्रेत्य त्वनुपमं सुखम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणका यह शरीर भोग भोगनेके लिये नहीं पैदा होता है। यह तो यहाँ क्लेश उठाकर तपस्या करने और मृत्युके पश्चात् अनुपम सुख भोगनेके लिये रचा गया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मण्यं बहुभिरवाप्यते तपोभि-
स्तल्लब्ध्वा न रतिपरेण हेलितव्यम्।
स्वाध्याये तपसि दमे च नित्ययुक्तः
क्षेमार्थी कुशलपरः सदा यतस्व ॥ २४ ॥
मूलम्
ब्राह्मण्यं बहुभिरवाप्यते तपोभि-
स्तल्लब्ध्वा न रतिपरेण हेलितव्यम्।
स्वाध्याये तपसि दमे च नित्ययुक्तः
क्षेमार्थी कुशलपरः सदा यतस्व ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत समयतक बड़ी भारी तपस्या करनेसे ब्राह्मणका शरीर मिलता है। उसे पाकर विषयानुरागमें फँसकर बरबाद नहीं करना चाहिये। अतः यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो कुशलप्रद कर्ममें संलग्न हो सदा स्वाध्याय, तपस्या और इन्द्रियसंयममें पूर्णतः तत्पर रहनेका प्रयत्न करो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तप्रकृतिरयं कलाशरीरः
सूक्ष्मात्मा क्षणत्रुटिशो निमेषरोमा ।
ऋत्वास्यः समबलशुक्लकृष्णनेत्रो
मासाङ्गो द्रवति वयोहयो नराणाम् ॥ २५ ॥
तं दृष्ट्वा प्रसूतमजस्रमुग्रवेगं
गच्छन्तं सततमिहाव्यपेक्षमाणम् ।
चक्षुस्ते यदि न परप्रणेतृनेयं
धर्मे ते भवतु मनः परं निशाम्य ॥ २६ ॥
मूलम्
अव्यक्तप्रकृतिरयं कलाशरीरः
सूक्ष्मात्मा क्षणत्रुटिशो निमेषरोमा ।
ऋत्वास्यः समबलशुक्लकृष्णनेत्रो
मासाङ्गो द्रवति वयोहयो नराणाम् ॥ २५ ॥
तं दृष्ट्वा प्रसूतमजस्रमुग्रवेगं
गच्छन्तं सततमिहाव्यपेक्षमाणम् ।
चक्षुस्ते यदि न परप्रणेतृनेयं
धर्मे ते भवतु मनः परं निशाम्य ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंका आयुरूप अश्व बड़े वेगसे दौड़ा जा रहा है। इसका स्वभाव अव्यक्त है। कला-काष्ठा आदि इसके शरीर हैं। इसका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है। क्षण, त्रुटि (चुटकी) और निमेष आदि इसके रोम हैं। ऋतुएँ मुख हैं। समान बलवाले शुक्ल और कृष्णपक्ष नेत्र हैं तथा महीने इसके विभिन्न अंग हैं। वह भयंकर वेगशाली अश्व यहाँकी किसी वस्तुकी अपेक्षा न रखकर निरन्तर अविराम गतिसे वेगपूर्वक भागा जा रहा है। उसे देखकर यदि तुम्हारी ज्ञानदृष्टि दूसरेके द्वारा चलानेपर चलनेवाली नहीं है; तो तुम्हारा मन धर्ममें ही लगना चाहिये। तुम दूसरे धर्मात्माओंपर भी दृष्टि डालो॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चात्र प्रचलितधर्मकामवृत्ताः
क्रोशन्तः सततमनिष्टसम्प्रयोगाः ।
क्लिश्यन्तः परिगतवेदनाशरीरा
बह्वीभिः सुभृशमधर्मकारणाभिः ॥ २७ ॥
मूलम्
ये चात्र प्रचलितधर्मकामवृत्ताः
क्रोशन्तः सततमनिष्टसम्प्रयोगाः ।
क्लिश्यन्तः परिगतवेदनाशरीरा
बह्वीभिः सुभृशमधर्मकारणाभिः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग यहाँ धर्मसे विचलित हो स्वेच्छाचारमें लगे हुए हैं, दूसरोंको बुरा-भला कहते हुए सदा अनिष्टकारी अशुभ कर्मोंमें ही लगे हुए हैं, वे मरनेके बाद यातनादेह पाकर अपने अनेक पापकर्मोंके कारण अत्यन्त क्लेश भोगते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा सदा धर्मपरः शुभाशुभस्य गोप्ता
समीक्ष्य सुकृतिनां दधाति लोकान्।
बहुविधमपि चरति प्रविशति
सुखमनुपगतं निरवद्यम् ॥ २८ ॥
मूलम्
राजा सदा धर्मपरः शुभाशुभस्य गोप्ता
समीक्ष्य सुकृतिनां दधाति लोकान्।
बहुविधमपि चरति प्रविशति
सुखमनुपगतं निरवद्यम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा सर्वदा धर्मपरायण रहकर उत्तम और अधम प्रजाका यथायोग्य विचारपूर्वक पालन करता है, वह पुण्यात्माओंके लोकोंको प्राप्त होता है। यदि वह स्वयं भी नाना प्रकारके शुभ कर्मोंका आचरण करता है तो उसके फलस्वरूप उसे अप्राप्त एवं निर्दोष सुख प्राप्त होता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वानो भीषणकाया अयोमुखानि वयांसि
बलगृध्रकुलपक्षिणां च संघाः ।
नरकदने रुधिरपा गुरुवचन-
नुदमुपरतं विशसन्ति ॥ २९ ॥
मूलम्
श्वानो भीषणकाया अयोमुखानि वयांसि
बलगृध्रकुलपक्षिणां च संघाः ।
नरकदने रुधिरपा गुरुवचन-
नुदमुपरतं विशसन्ति ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जो गुरुजनोंकी आज्ञाका उल्लंघन करते हैं, उनके मरणके पश्चात् नरकमें स्थित भयानक शरीरवाले कुत्ते, लौहमुख पक्षी, कौए-गीध आदि पक्षियोंके समुदाय तथा रक्त पीनेवाले कीट उनके यातना-शरीरपर आक्रमण करके उसे नोचते और काटते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मर्यादा नियताः स्वयम्भुवा य इहेमाः
प्रभिनत्ति दशगुणा मनोऽनुगत्वात् ।
निवसति भृशमसुखं पितृविषय-
विपिनमवगाह्य स पापः ॥ ३० ॥
मूलम्
मर्यादा नियताः स्वयम्भुवा य इहेमाः
प्रभिनत्ति दशगुणा मनोऽनुगत्वात् ।
निवसति भृशमसुखं पितृविषय-
विपिनमवगाह्य स पापः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य मनचाही करनेके कारण स्वायम्भुवमनुकी बाँधी हुई धर्मकी दस1 प्रकारकी मर्यादाओंको तोड़ता है, वह पापात्मा पितृलोकके असिपत्रवनमें जाकर वहाँ अत्यन्त दुःख भोगता रहता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो लुब्धः सुभृशं प्रियानृतश्च मनुष्यः
सततनिकृतिवञ्चनाभिरतिः स्यात् ।
उपनिधिभिरसुखकृत्स परमनिरयगो
भृशमसुखमनुभवति दुष्कृतकर्मा ॥ ३१ ॥
मूलम्
यो लुब्धः सुभृशं प्रियानृतश्च मनुष्यः
सततनिकृतिवञ्चनाभिरतिः स्यात् ।
उपनिधिभिरसुखकृत्स परमनिरयगो
भृशमसुखमनुभवति दुष्कृतकर्मा ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष अत्यन्त लोभी, असत्यसे प्रेम करनेवाला और सर्वदा कपटभरी बातें बनानेवाला और ठगाईमें रत है तथा जो तरह-तरहके साधनोंसे दूसरोंको दुःख देता है, वह पापात्मा घोर नरकमें पड़कर अत्यन्त दुःख भोगता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उष्णां वैतरणीं महानदी-
मवगाढोऽसिपत्रवनभिन्नगात्रः ।
परशुवनशयो निपतितो
वसति च महानिरये भृशार्तः ॥ ३२ ॥
मूलम्
उष्णां वैतरणीं महानदी-
मवगाढोऽसिपत्रवनभिन्नगात्रः ।
परशुवनशयो निपतितो
वसति च महानिरये भृशार्तः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे अत्यन्त उष्ण महानदी वैतरणीमें गोता लगाना पड़ता है। असिपत्रवनमें उसका अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जाता है और परशुवनमें उसे शयन करना पड़ता है। इस प्रकार महानरकमें पड़कर वह अत्यन्त आतुर हो उठता है और विवश होकर उसीमें निवास करता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महापदानि कत्थसे न चाप्यवेक्षसे परम्।
चिरस्य मृत्युकारिकामनागतां न बुध्यसे ॥ ३३ ॥
मूलम्
महापदानि कत्थसे न चाप्यवेक्षसे परम्।
चिरस्य मृत्युकारिकामनागतां न बुध्यसे ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम ब्रह्मलोक आदि बड़े-बड़े स्थानोंकी बातें तो बनाते हो, परंतु परमपदपर तुम्हारी दृष्टि नहीं है। भविष्यमें जो मृत्युकी परिचारिका वृद्धावस्था आनेवाली है, उसका तुम्हें पता ही नहीं है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रयायतां किमास्यते समुत्थितं महद् भयम्।
अतिप्रमाथि दारुणं सुखस्य संविधीयताम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
प्रयायतां किमास्यते समुत्थितं महद् भयम्।
अतिप्रमाथि दारुणं सुखस्य संविधीयताम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! चुपचाप क्यों बैठे हो? जल्दीसे आगे बढ़ो। तुम्हारे ऊपर हृदयको अत्यन्त मथ डालनेवाला, भयंकर एवं महान् भय उठ खड़ा हुआ है; अतः परमानन्दकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करो॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा मृतः प्रणीयते यमस्य राजशासनात्।
त्वमन्तकाय दारुणैः प्रयत्नमार्जवे कुरु ॥ ३५ ॥
मूलम्
पुरा मृतः प्रणीयते यमस्य राजशासनात्।
त्वमन्तकाय दारुणैः प्रयत्नमार्जवे कुरु ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हें मरनेपर यमराजकी आज्ञासे भयानक यमदूतोंद्वारा उनके सामने उपस्थित किया जाय, इसके पहले ही सरलतारूप धर्मके सम्पादनके लिये प्रयत्न करो॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा समूलबान्धवं प्रभुर्हरत्यदुःखवित् ।
तवेह जीवितं यमो न चास्ति तस्य वारकः ॥ ३६ ॥
मूलम्
पुरा समूलबान्धवं प्रभुर्हरत्यदुःखवित् ।
तवेह जीवितं यमो न चास्ति तस्य वारकः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमराज सबके स्वामी हैं। वे किसीका दुःख-दर्द नहीं समझते हैं। वे मूल और बन्धु-बान्धवोंसहित तुम्हारे प्राण हर लेंगे। उन्हें रोकनेवाला कोई नहीं है। वह समय आनेके पहले ही तुम अपनी रक्षाके लिये प्रबन्ध कर लो॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुराऽभिवाति मारुतो यमस्य यः पुरःसरः।
पुरैक एव नीयसे कुरुष्व साम्परायिकम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
पुराऽभिवाति मारुतो यमस्य यः पुरःसरः।
पुरैक एव नीयसे कुरुष्व साम्परायिकम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय यमराजके आगे-आगे चलनेवाला प्रचण्ड कालरूपी पवन चल पड़ेगा, उस समय वह अकेले तुम्हींको वहाँ ले जायगा; अतः तुम पहलेसे ही परलोकमें सुख देनेवाले धर्मका आचरण करो॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा स हि क्व एव ते प्रवाति मारुतोऽन्तकः।
पुरा च विभ्रमन्ति ते दिशो महाभयागमे ॥ ३८ ॥
मूलम्
पुरा स हि क्व एव ते प्रवाति मारुतोऽन्तकः।
पुरा च विभ्रमन्ति ते दिशो महाभयागमे ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वजन्ममें तुम्हारे सामने जो प्राणनाशक पवन चल रहा था, आज वह कहाँ है? अब भी जब मृत्युरूप महान् भय उपस्थित होगा, तब तुम्हें सम्पूर्ण दिशाएँ घूमती दिखायी देंगी; अतः पहलेसे ही सावधान हो जाओ॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतिश्च संनिरुध्यते पुरा तवेह पुत्रक।
समाकुलस्य गच्छतः समाधिमुत्तमं कुरु ॥ ३९ ॥
मूलम्
श्रुतिश्च संनिरुध्यते पुरा तवेह पुत्रक।
समाकुलस्य गच्छतः समाधिमुत्तमं कुरु ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! जब तुम इस शरीरको छोड़कर चलने लगोगे, उस समय व्याकुलताके कारण तुम्हारी श्रवणशक्ति भी नष्ट हो जायगी। इसलिये तुम सुदृढ़ समाधि प्राप्त कर लो॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभाशुभे पुरा कृते प्रमादकर्मविप्लुते।
स्मरन् पुरा न तप्यसे निधत्स्व केवलं निधिम् ॥ ४० ॥
मूलम्
शुभाशुभे पुरा कृते प्रमादकर्मविप्लुते।
स्मरन् पुरा न तप्यसे निधत्स्व केवलं निधिम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम पहले असावधानतावश जो अनुचितरूपसे शुभाशुभ कर्म कर चुके हो, उसे स्मरण करके उनके फलभोगसे संतप्त होनेके पहले ही अपने लिये केवल ज्ञानका भण्डार भर लो॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा जरा कलेवरं विजर्जरीकरोति ते।
बलाङ्गरूपहारिणी निधत्स्व केवलं निधिम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
पुरा जरा कलेवरं विजर्जरीकरोति ते।
बलाङ्गरूपहारिणी निधत्स्व केवलं निधिम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, बल, अंग और रूपका विनाश करनेवाली वृद्धावस्था एक दिन तुम्हारे शरीरको जर्जर कर डालेगी, उसके पहले ही तुम अपने लिये ज्ञानका भण्डार भर लो॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा शरीरमन्तको भिनत्ति रोगसारथिः।
प्रसह्य जीवितक्षये तपो महत् समाचर ॥ ४२ ॥
मूलम्
पुरा शरीरमन्तको भिनत्ति रोगसारथिः।
प्रसह्य जीवितक्षये तपो महत् समाचर ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रोग जिसका सारथि है, वह काल हठात् तुम्हारे शरीरको विदीर्ण कर डालेगा, इसलिये इस जीवनका नाश होनेसे पूर्व ही तुम महान् तपका अनुष्ठान कर लो॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा वृका भयंकरा मनुष्यदेहगोचराः।
अभिद्रवन्ति सर्वतो यतस्व पुण्यशीलने ॥ ४३ ॥
मूलम्
पुरा वृका भयंकरा मनुष्यदेहगोचराः।
अभिद्रवन्ति सर्वतो यतस्व पुण्यशीलने ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस मानव-शरीरमें रहनेवाले काम-क्रोध आदि भयंकर व्याघ्र तुमपर चारों ओरसे आक्रमण कर रहे हैं, इसलिये पहलेसे ही तुम पुण्यसंचयके लिये प्रयत्न करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरान्धकारमेककोऽनुपश्यसि त्वरस्व वै ।
पुरा हिरण्मयान् नगान् निरीक्षसेऽद्रिमूर्धनि ॥ ४४ ॥
मूलम्
पुरान्धकारमेककोऽनुपश्यसि त्वरस्व वै ।
पुरा हिरण्मयान् नगान् निरीक्षसेऽद्रिमूर्धनि ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मरनेके समय तुम्हें पहले घोर अन्धकार दिखलायी देगा। फिर पर्वतके शिखरपर सुनहरे वृक्ष दृष्टिगोचर होंगे। वह समय आनेसे पहले ही अपने कल्याणके लिये तुम शीघ्र प्रयत्न करो॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा कुसङ्गतानि ते सुहृन्मुखाश्च शत्रवः।
विचालयन्ति दर्शनाद् घटस्व पुत्र यत्परम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
पुरा कुसङ्गतानि ते सुहृन्मुखाश्च शत्रवः।
विचालयन्ति दर्शनाद् घटस्व पुत्र यत्परम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें दुष्ट पुरुषोंके संग तथा ऊपरसे मित्रभाव एवं भीतरसे शत्रुता रखनेवाले लोग दर्शनमात्रसे तुम्हें कर्तव्यपथसे विचलित कर देंगे, इसलिये तुम पहलेसे ही परम उत्तम पुण्यसंचयके लिये प्रयत्न करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनस्य यस्य राजतो भयं न चास्ति चोरतः।
मृतं च यन्न मुञ्चति समर्जयस्व तद् धनम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
धनस्य यस्य राजतो भयं न चास्ति चोरतः।
मृतं च यन्न मुञ्चति समर्जयस्व तद् धनम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस धनको न तो राजासे भय है और न चोरसे ही तथा जो मर जानेपर भी जीवका साथ नहीं छोड़ता है, उस धर्मरूपी धनका उपार्जन करो॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्र संवियुज्यते स्वकर्मभिः परस्परम्।
यदेव यस्य यौतकं तदेव तत्र सोऽश्नुते ॥ ४७ ॥
मूलम्
न तत्र संवियुज्यते स्वकर्मभिः परस्परम्।
यदेव यस्य यौतकं तदेव तत्र सोऽश्नुते ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने कर्मोंके अनुसार प्राप्त हुए उस धनको परलोकमें परस्पर बाँटना नहीं पड़ता है। वहाँ तो जो जिसकी निजी सम्पत्ति है, उसे ही वह भोगता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परत्र येन जीव्यते तदेव पुत्र दीयताम्।
धनं यदक्षरं ध्रुवं समर्जयस्व तत् स्वयम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
परत्र येन जीव्यते तदेव पुत्र दीयताम्।
धनं यदक्षरं ध्रुवं समर्जयस्व तत् स्वयम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! जिससे परलोकमें भी जीवन-निर्वाह हो सकता है तथा जो अविनाशी और अटल धन है, उसीका दान करो एवं उसीका स्वयं भी उपार्जन करते रहो॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यावदेव पच्यते महाजनस्य यावकम्।
अपक्व एव यावके पुरा प्रलीयसे त्वर ॥ ४९ ॥
मूलम्
न यावदेव पच्यते महाजनस्य यावकम्।
अपक्व एव यावके पुरा प्रलीयसे त्वर ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! घरपर आये हुए किसी समादरणीय अतिथिके लिये जितनी देरमें यावक (घृत और खाँड़ मिलाकर तैयार किया हुआ जौके आटेका पूआ) पकाया जाता है, उसके पकनेसे भी पहले तुम्हारी मृत्यु हो सकती है; अतः तुम ज्ञानरूपी धनके उपार्जनके लिये शीघ्रता करो॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मातृपुत्रबान्धवा न संस्तुतः प्रियो जनः।
अनुव्रजन्ति संकटे व्रजन्तमेकपातिनम् ॥ ५० ॥
मूलम्
न मातृपुत्रबान्धवा न संस्तुतः प्रियो जनः।
अनुव्रजन्ति संकटे व्रजन्तमेकपातिनम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव जब अकेला ही परलोकके पथपर प्रस्थान करता है, उस संकटके समय माता, पुत्र, भाई-बन्धु तथा अन्यान्य प्रशंसित प्रियजन भी उसके साथ नहीं जाते हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेव कर्म केवलं पुरा कृतं शुभाशुभम्।
तदेव पुत्र सार्थिकं भवत्यमुत्र गच्छतः ॥ ५१ ॥
मूलम्
यदेव कर्म केवलं पुरा कृतं शुभाशुभम्।
तदेव पुत्र सार्थिकं भवत्यमुत्र गच्छतः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्र! परलोकमें जाते समय अपना पहलेका किया हुआ जो शुभाशुभ कर्म होता है, केवल वही साथ रहता है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यरत्नसंचयाः शुभाशुभेन संचिताः ।
न तस्य देहसंक्षये भवन्ति कार्यसाधकाः ॥ ५२ ॥
मूलम्
हिरण्यरत्नसंचयाः शुभाशुभेन संचिताः ।
न तस्य देहसंक्षये भवन्ति कार्यसाधकाः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यके द्वारा अच्छे-बुरे सभी तरहके कर्म करके जो सुवर्ण और रत्नोंके ढेर इकट्ठे किये जाते हैं, वे भी उस मनुष्यके शरीरका नाश होनेपर उसके किसी काम नहीं आते हैं (क्योंकि वे सब यहीं रह जाते हैं)॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परत्रगामिकस्य ते कृताकृतस्य कर्मणः।
न साक्षि आत्मना समो नृणामिहास्ति कश्चन ॥ ५३ ॥
मूलम्
परत्रगामिकस्य ते कृताकृतस्य कर्मणः।
न साक्षि आत्मना समो नृणामिहास्ति कश्चन ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परलोककी यात्रा करते समय तुम्हारे किये और न किये हुए कर्मका साक्षी आत्माके समान मनुष्योंमें दूसरा कोई नहीं है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनुष्यदेहशून्यकं भवत्यमुत्र गच्छतः ।
प्रविश्य बुद्धिचक्षुषा प्रदृश्यते हि सर्वशः ॥ ५४ ॥
मूलम्
मनुष्यदेहशून्यकं भवत्यमुत्र गच्छतः ।
प्रविश्य बुद्धिचक्षुषा प्रदृश्यते हि सर्वशः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परलोकमें जाते समय इस मनुष्य-शरीरका अभाव हो जाता है अर्थात् यह यहीं छूट जाता है। जीव सूक्ष्म शरीरसे लोकान्तरमें प्रवेश करके अपने बुद्धिरूपी नेत्रसे वहाँ सब कुछ देखता है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहाग्निसूर्यवायवः शरीरमाश्रितास्त्रयः ।
त एव तस्य साक्षिणो भवन्ति धर्मदर्शिनः ॥ ५५ ॥
मूलम्
इहाग्निसूर्यवायवः शरीरमाश्रितास्त्रयः ।
त एव तस्य साक्षिणो भवन्ति धर्मदर्शिनः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस लोकमें अग्नि, वायु और सूर्य—ये तीन देवता जीवके शरीरका आश्रय करके रहते हैं। वे ही उसके धर्माचरणको देखनेवाले हैं और वे ही परलोकमें उसके साक्षी होते हैं॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहर्निशेषु सर्वतः स्पृशत्सु सर्वचारिषु।
प्रकाशगूढवृत्तिषु स्वधर्ममेव पालय ॥ ५६ ॥
मूलम्
अहर्निशेषु सर्वतः स्पृशत्सु सर्वचारिषु।
प्रकाशगूढवृत्तिषु स्वधर्ममेव पालय ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिन सब पदार्थोंको प्रकाशित करता है और रात्रि उन्हें छिपा लेती है। ये सर्वत्र व्याप्त हैं और सभी वस्तुओंका स्पर्श करते हैं, अतः तुम इनकी वेलामें सर्वदा अपने धर्मका ही पालन करो॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेकपारिपन्थिके विरूपरौद्रमक्षिके ।
स्वमेव कर्म रक्ष्यतां स्वकर्म तत्र गच्छति ॥ ५७ ॥
मूलम्
अनेकपारिपन्थिके विरूपरौद्रमक्षिके ।
स्वमेव कर्म रक्ष्यतां स्वकर्म तत्र गच्छति ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परलोकके मार्गपर बहुत-से लुटेरे और बटमार रहते हैं तथा विकराल एवं भयंकर डाँस एवं मक्खियाँ होती हैं। वहाँ केवल अपना किया हुआ कर्म ही साथ जाता है; अतः तुम्हें अपने सत्कर्मकी ही रक्षा करनी चाहिये॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्र संविभज्यते स्वकर्मणा परस्परम्।
तथा कृतं स्वकर्मजं तदेव भुज्यते फलम् ॥ ५८ ॥
मूलम्
न तत्र संविभज्यते स्वकर्मणा परस्परम्।
तथा कृतं स्वकर्मजं तदेव भुज्यते फलम् ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अपने कर्मके अनुसार जो फल प्राप्त होता है, उसका किसीके साथ बँटवारा नहीं होता। वहाँ तो अपने किये हुए कर्मोंका ही फल भोगना होता है॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाप्सरोगणाः फलं सुखं महर्षिभिः सह।
तथाऽऽप्नुवन्ति कर्मजं विमानकामगामिनः ॥ ५९ ॥
मूलम्
यथाप्सरोगणाः फलं सुखं महर्षिभिः सह।
तथाऽऽप्नुवन्ति कर्मजं विमानकामगामिनः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे महर्षियोंके साथ झुंड-करी-झुंड अप्सराएँ होती हैं और वे सब पुण्यके फलस्वरूप सुख भोगते हैं, उसी प्रकार वहाँ पुण्यात्मा लोग विमानोंपर चढ़कर इच्छानुसार विचरते और पुण्यकर्मजनित सुख भोगते हैं॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथेह यत् कृतं शुभं विपाप्मभिः कृतात्मभिः।
तदाप्नुवन्ति मानवास्तथा विशुद्धयोनयः ॥ ६० ॥
मूलम्
यथेह यत् कृतं शुभं विपाप्मभिः कृतात्मभिः।
तदाप्नुवन्ति मानवास्तथा विशुद्धयोनयः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप पुण्यात्मा पुरुषोंद्वारा इस लोकमें जो शुभ कर्म सम्पादित होता है, जन्मान्तरमें विशुद्ध योनिमें जन्म लेकर उसका वैसा ही फल पाते हैं॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतेः सलोकतां बृहस्पतेः शतक्रतोः।
व्रजन्ति ते परां गतिं गृहस्थधर्मसेतुभिः ॥ ६१ ॥
मूलम्
प्रजापतेः सलोकतां बृहस्पतेः शतक्रतोः।
व्रजन्ति ते परां गतिं गृहस्थधर्मसेतुभिः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थ-धर्मकी मर्यादाका पालन करनेवाले लोग प्रजापति, बृहस्पति अथवा इन्द्रके लोकमें उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रशोऽप्यनेकशः प्रवक्तुमुत्सहाम ते ।
अबुद्धिमोहनं पुनः प्रभुर्निनाय पावकः ॥ ६२ ॥
मूलम्
सहस्रशोऽप्यनेकशः प्रवक्तुमुत्सहाम ते ।
अबुद्धिमोहनं पुनः प्रभुर्निनाय पावकः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! मैं तुम्हारे सामने हजारों तथा उससे भी अधिक बार यह बात जोर देकर कह सकता हूँ कि सर्वशक्तिमान् तथा सबको पवित्र करनेवाले धर्मने, जिसकी बुद्धिपर मोह नहीं छा गया है, उस धर्मात्मा पुरुषको सदा ही पुण्यलोकमें पहुँचाया है॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गता त्रिरष्टवर्षता ध्रुवोऽसि पञ्चविंशकः।
कुरुष्व धर्मसंचयं वयो हि तेऽतिवर्तते ॥ ६३ ॥
मूलम्
गता त्रिरष्टवर्षता ध्रुवोऽसि पञ्चविंशकः।
कुरुष्व धर्मसंचयं वयो हि तेऽतिवर्तते ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! तुम्हारी आयुके चौबीस वर्ष बीत गये। अब निश्चय ही तुम पचीस सालके हो गये; अतः धर्मका संचय करो। तुम्हारी सारी आयु यों ही बीती जा रही है॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा करोति सोऽन्तकः प्रमादगोमुखां चमूम्।
यथागृहीतमुत्थितस्त्वरस्व धर्मपालने ॥ ६४ ॥
मूलम्
पुरा करोति सोऽन्तकः प्रमादगोमुखां चमूम्।
यथागृहीतमुत्थितस्त्वरस्व धर्मपालने ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, तुम्हारा जो प्रमाद है, उसमें निवास करनेवाला काल तुम्हारी इन्द्रियोंके समुदायको मुखरहित (भोगशक्तिसे हीन) कर रहा है। इनके असमर्थ हो जानेके पहले ही तुम खड़े हो जाओ और अपने शरीरसे धर्मका पालन करनेके लिये जल्दी करो॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा त्वमेव पृष्ठतस्त्वमग्रतो गमिष्यसि।
तथा गतिं गमिष्यतः किमात्मना परेण वा ॥ ६५ ॥
मूलम्
यथा त्वमेव पृष्ठतस्त्वमग्रतो गमिष्यसि।
तथा गतिं गमिष्यतः किमात्मना परेण वा ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय तुम शरीर छोड़कर परलोककी राह लोगे, उस समय तुम्हीं पीछे रहोगे और तुम्हीं आगे चलोगे—तुम्हारे सिवा दूसरा कोई वहाँ आगे-पीछे चलनेवाला न होगा। ऐसी दशामें किसी अपने या पराये व्यक्तिसे तुम्हारा क्या प्रयोजन है?॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेकपातिनां सतां भवत्यमुत्र गच्छताम्।
भयेषु साम्परायिकं निधत्स्व केवलं निधिम् ॥ ६६ ॥
मूलम्
यदेकपातिनां सतां भवत्यमुत्र गच्छताम्।
भयेषु साम्परायिकं निधत्स्व केवलं निधिम् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भय उपस्थित होनेपर अकेले यात्रा करनेवाले सत्पुरुषोंके लिये परलोकमें जो हितकर होता है, उस धर्म या ज्ञानकी निधिको शुद्धभावसे संचित करो॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकूलमूलबान्धवं प्रभुर्हरत्यसङ्गवान् ।
न सन्ति यस्य वारकाः कुरुष्व धर्मसंनिधिम् ॥ ६७ ॥
मूलम्
सकूलमूलबान्धवं प्रभुर्हरत्यसङ्गवान् ।
न सन्ति यस्य वारकाः कुरुष्व धर्मसंनिधिम् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वसमर्थ काल किसीके प्रति भी स्नेह नहीं करता। वह कूल और मूल अर्थात् आदि-अन्तसहित समस्त बन्धु-बान्धवोंको हर ले जाता है। उसको रोकनेवाले कोई नहीं हैं; इसलिये तुम धर्मका संचय करो॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं निदर्शनं मया तवेह पुत्र साम्प्रतम्।
स्वदर्शनानुमानतः प्रवर्णितं कुरुष्व तत् ॥ ६८ ॥
मूलम्
इदं निदर्शनं मया तवेह पुत्र साम्प्रतम्।
स्वदर्शनानुमानतः प्रवर्णितं कुरुष्व तत् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! मैंने अपने शास्त्रज्ञान और अनुमानके द्वारा इस समय तुम्हें जिस ज्ञानका उपदेश किया है, तुम उसीके अनुसार आचरण करो॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दधाति यः स्वकर्मणा ददाति यस्य कस्यचित्।
अबुद्धिमोहजैर्गुणैः स एक एव युज्यते ॥ ६९ ॥
मूलम्
दधाति यः स्वकर्मणा ददाति यस्य कस्यचित्।
अबुद्धिमोहजैर्गुणैः स एक एव युज्यते ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष अपने सत्कर्मोंद्वारा धर्मको धारण करता है और जिस किसीको भी निष्कामभावसे दान देता है, वह अकेला ही मोहरहित बुद्धिसे प्राप्त होनेवाले गुणोंसे संयुक्त होता है॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं समस्तमश्नुते प्रकुर्वतः शुभाः क्रियाः।
तदेतदर्थदर्शनं कृतज्ञमर्थसंहितम् ॥ ७० ॥
मूलम्
श्रुतं समस्तमश्नुते प्रकुर्वतः शुभाः क्रियाः।
तदेतदर्थदर्शनं कृतज्ञमर्थसंहितम् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो समस्त शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करता और तदनुसार शुभ कर्मोंके अनुष्ठानमें लगा रहता है, उसीके लिये इस ज्ञानका उपदेश किया गया है; क्योंकि कृतज्ञ पुरुषको जो भी उपदेश दिया जाता है, वही सफल होता है॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः।
छित्त्वैतां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः ॥ ७१ ॥
मूलम्
निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः।
छित्त्वैतां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य जब गाँवमें रहकर वहींके पदार्थोंसे प्रेम करने लगता है, वह उसे बाँधनेवाली रस्सी ही है। पुण्यात्मा लोग इसे काटकर उत्तम लोकोंमें चले जाते हैं, परंतु पापात्मा पुरुष इसे नहीं काट पाते हैं॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं ते धनेन किं बन्धुभिस्ते
किं ते पुत्रैः पुत्रक यो मरिष्यसि।
आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं
पितामहास्ते क्व गताश्च सर्वे ॥ ७२ ॥
मूलम्
किं ते धनेन किं बन्धुभिस्ते
किं ते पुत्रैः पुत्रक यो मरिष्यसि।
आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं
पितामहास्ते क्व गताश्च सर्वे ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! जब तुम्हें एक दिन मरना ही है, तब धन, बन्धु और पुत्र आदिसे तुम्हें क्या लेना है; अतः तुम हृदयरूपी गुफामें छिपे हुए आत्मतत्त्वका अनुसंधान करो। सोचो तो सही; आज तुम्हारे सारे पूर्वज—पितामह कहाँ चले गये?॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वास्य न वाकृतम्॥७३॥
मूलम्
श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वास्य न वाकृतम्॥७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो काम कल करना हो, उसे आज ही कर लेना चाहिये और जो दोपहर-बाद करना हो, उसे पहले ही पहरमें पूरा कर डालना चाहिये; क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम पूरा हुआ है या नहीं॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुगम्य विनाशान्ते निवर्तन्ते ह बान्धवाः।
अग्नौ प्रक्षिप्य पुरुषं ज्ञातयः सुहृदस्तथा ॥ ७४ ॥
मूलम्
अनुगम्य विनाशान्ते निवर्तन्ते ह बान्धवाः।
अग्नौ प्रक्षिप्य पुरुषं ज्ञातयः सुहृदस्तथा ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृत्युके बाद भाई-बन्धु, कुटुम्बी और सुहृद् श्मशान-भूमितक पीछे-पीछे जाते हैं और मृत पुरुषके शरीरको चिताकी आगमें डालकर लौट आते हैं॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्तिकान् निरनुक्रोशान् नरान् पापमते स्थितान्।
वामतः कुरु विस्रब्धं परं प्रेप्सुरतन्द्रितः ॥ ७५ ॥
मूलम्
नास्तिकान् निरनुक्रोशान् नरान् पापमते स्थितान्।
वामतः कुरु विस्रब्धं परं प्रेप्सुरतन्द्रितः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः तुम परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके इच्छुक हो आलस्य छोड़कर नास्तिक, निर्दय तथा पापबुद्धि मनुष्योंको बिना किसी हिचकके बायें कर दो—कभी भूलकर भी उनका साथ न दो॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमभ्याहते लोके कालेनोपनिपीडिते ।
सुमहद् धैर्यमालम्ब्य धर्मं सर्वात्मना कुरु ॥ ७६ ॥
मूलम्
एवमभ्याहते लोके कालेनोपनिपीडिते ।
सुमहद् धैर्यमालम्ब्य धर्मं सर्वात्मना कुरु ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब सारा संसार कालसे आहत और पीड़ित हो रहा है, तब तुम महान् धैर्यका आश्रय ले सम्पूर्ण हृदयसे धर्मका आचरण करो॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथेमं दर्शनोपायं सम्यग् यो वेत्ति मानवः।
सम्यक् स्वधर्मं कृत्वेह परत्र सुखमश्नुते ॥ ७७ ॥
मूलम्
अथेमं दर्शनोपायं सम्यग् यो वेत्ति मानवः।
सम्यक् स्वधर्मं कृत्वेह परत्र सुखमश्नुते ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य परमात्माके साक्षात्कारके इस साधनको भलीभाँति जानता है, वह इस लोकमें स्वधर्मका ठीक-ठीक पालन करके परलोकमें सुख भोगता है॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न देहभेदे मरणं विजानतां
न च प्रणाशः स्वनुपालिते पथि।
धर्मं हि यो वर्धयते स पण्डितो
य एव धर्माच्च्यवते स मुह्यति ॥ ७८ ॥
मूलम्
न देहभेदे मरणं विजानतां
न च प्रणाशः स्वनुपालिते पथि।
धर्मं हि यो वर्धयते स पण्डितो
य एव धर्माच्च्यवते स मुह्यति ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ऐसा जानते हैं कि शरीरका नाश हो जानेपर भी अपनी मृत्यु नहीं होती है और शिष्ट पुरुषोंद्वारा पालित धर्म-मार्गपर चलनेवालोंका कभी नाश नहीं होता है, वे ही बुद्धिमान् हैं। जो इन सब बातोंको सोच-विचारकर धर्मको बढ़ाता रहता है, वह विद्वान् है। जो धर्मसे गिर जाता है, वही मोहग्रस्त अथवा मूढ़ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रयुक्तयोः कर्मपथि स्वकर्मणोः
फलं प्रयोक्ता लभते यथाकृतम्।
निहीनकर्मा निरयं प्रपद्यते
त्रिविष्टपं गच्छति धर्मपारगः ॥ ७९ ॥
मूलम्
प्रयुक्तयोः कर्मपथि स्वकर्मणोः
फलं प्रयोक्ता लभते यथाकृतम्।
निहीनकर्मा निरयं प्रपद्यते
त्रिविष्टपं गच्छति धर्मपारगः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्मके मार्गपर प्रयोग (आचरण) में लाये गये जो अपने शुभाशुभ कर्म हैं, उनका फल कर्ताको उस कर्मके अनुसार प्राप्त होता है। नीच कर्म करनेवाला नरकमें पड़ता है और धर्माचरणमें पारङ्गत पुरुष स्वर्गलोकको जाता है॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोपानभूतं स्वर्गस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम्।
तथाऽऽत्मानं समादध्याद् भ्रश्यते न पुनर्यथा ॥ ८० ॥
मूलम्
सोपानभूतं स्वर्गस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम्।
तथाऽऽत्मानं समादध्याद् भ्रश्यते न पुनर्यथा ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह दुर्लभ मानव-शरीर स्वर्गलोकमें पहुँचनेके लिये सीढ़ीके समान है। इसे पाकर अपने-आपको इस प्रकार धर्ममें एकाग्र करे, जिससे फिर उसे स्वर्गसे नीचे न गिरना पड़े॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य नोत्क्रामति मतिः स्वर्गमार्गानुसारिणी।
तमाहुः पुण्यकर्माणमशोच्यं पुत्रबान्धवैः ॥ ८१ ॥
मूलम्
यस्य नोत्क्रामति मतिः स्वर्गमार्गानुसारिणी।
तमाहुः पुण्यकर्माणमशोच्यं पुत्रबान्धवैः ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वर्गलोकके मार्गका अनुसरण करनेवाली जिसकी बुद्धि धर्मका कभी उल्लंघन नहीं करती, उसको पुण्यात्मा कहते हैं। वह पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके लिये कदापि शोचनीय नहीं है॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य नोपहता बुद्धिर्निश्चये ह्यवलम्बते।
स्वर्गे कृतावकाशस्य नास्ति तस्य महद् भयम् ॥ ८२ ॥
मूलम्
यस्य नोपहता बुद्धिर्निश्चये ह्यवलम्बते।
स्वर्गे कृतावकाशस्य नास्ति तस्य महद् भयम् ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी बुद्धि दूषित न होकर दृढ़ निश्चयका सहारा लेती है, उसने स्वर्गमें अपने लिये स्थान बना लिया है। उसे नरकका महान् भय नहीं प्राप्त होता॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपोवनेषु ये जातास्तत्रैव निधनं गताः।
तेषामल्पतरो धर्मः कामभोगानजानताम् ॥ ८३ ॥
मूलम्
तपोवनेषु ये जातास्तत्रैव निधनं गताः।
तेषामल्पतरो धर्मः कामभोगानजानताम् ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग तपोवनोंमें पैदा हुए और वहीं मृत्युको प्राप्त हो गये, उन्हें थोड़े-से ही धर्मकी प्राप्ति होती है; क्योंकि वे काम-भोगोंको जानते ही नहीं थे (अतः उन्हें त्यागनेके लिये उनको कष्ट सहन नहीं करना पड़ता)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु भोगान् परित्यज्य शरीरेण तपश्चरेत्।
न तेन किंचिन्न प्राप्तं तन्मे बहु मतं फलम्॥८४॥
मूलम्
यस्तु भोगान् परित्यज्य शरीरेण तपश्चरेत्।
न तेन किंचिन्न प्राप्तं तन्मे बहु मतं फलम्॥८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भोगोंका परित्याग करके तपोवनमें जाकर शरीरसे तपस्या करता है, उसके लिये कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो प्राप्त न हो। वही फल मुझे अधिक जान पड़ता है॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
अनागतान्यतीतानि कस्य ते कस्य वा वयम् ॥ ८५ ॥
मूलम्
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
अनागतान्यतीतानि कस्य ते कस्य वा वयम् ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हजारों माता-पिता और सैकड़ों स्त्री-पुत्र पहले जन्मोंमें हो चुके हैं और भविष्यमें होंगे। वे हममेंसे किसके हैं और हम उनमेंसे किसके हैं?॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेको न मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित्।
न तं पश्यामि यस्याहं तन्न पश्यामि यो मम॥८६॥
मूलम्
अहमेको न मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित्।
न तं पश्यामि यस्याहं तन्न पश्यामि यो मम॥८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अकेला हूँ। न तो दूसरा कोई मेरा है और न मैं दूसरे किसीका हूँ। मैं ऐसे किसी पुरुषको नहीं देखता, जिसका मैं होऊँ तथा ऐसा भी कोई नहीं दिखायी देता, जो मेरा हो॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तेषां भवता कार्यं न कार्यं तव तैरपि।
स्वकृतैस्तानि यातानि भवांश्चैव गमिष्यति ॥ ८७ ॥
मूलम्
न तेषां भवता कार्यं न कार्यं तव तैरपि।
स्वकृतैस्तानि यातानि भवांश्चैव गमिष्यति ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न उनका तुम कुछ कर सकते हो और न वे तुम्हारे किसी काम आ सकते हैं। वे अपने कर्मोंके साथ चले गये और तुम भी चले जाओगे॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह लोके हि धनिनां स्वजनः स्वजनायते।
स्वजनस्तु दरिद्राणां जीवतामपि नश्यति ॥ ८८ ॥
मूलम्
इह लोके हि धनिनां स्वजनः स्वजनायते।
स्वजनस्तु दरिद्राणां जीवतामपि नश्यति ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें जो धनवान् हैं, उन्हींके स्वजन उनके साथ स्वजनोचित बर्ताव करते हैं; दरिद्रोंके स्वजन तो उनके जीते-जी ही उन्हें छोड़कर उनकी आँखसे ओझल हो जाते हैं॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संचिनोत्यशुभं कर्म कलत्रापेक्षया नरः।
ततः क्लेशमवाप्नोति परत्रेह तथैव च ॥ ८९ ॥
मूलम्
संचिनोत्यशुभं कर्म कलत्रापेक्षया नरः।
ततः क्लेशमवाप्नोति परत्रेह तथैव च ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य अपनी स्त्रीके लिये अशुभ कर्मका संचय करता है, फिर उसके फलरूपमें इहलोक और परलोकमें भी कष्ट उठाता है॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यति च्छिन्नभूतं हि जीवलोकं स्वकर्मणा।
तत् कुरुष्व तथा पुत्र कृत्स्नं यत् समुदाहृतम् ॥ ९० ॥
मूलम्
पश्यति च्छिन्नभूतं हि जीवलोकं स्वकर्मणा।
तत् कुरुष्व तथा पुत्र कृत्स्नं यत् समुदाहृतम् ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य अपने-अपने कर्मोंके अनुसार ही इस जीव-जगत्को छिन्न-भिन्न हुआ देखता है, अतः बेटा! मैंने जो कुछ कहा है, वह सब काममें लाओ॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेतत् सम्प्रदृश्यैव कर्मभूमिं प्रपश्यतः।
शुभान्याचरितव्यानि परलोकमभीप्सता ॥ ९१ ॥
मूलम्
तदेतत् सम्प्रदृश्यैव कर्मभूमिं प्रपश्यतः।
शुभान्याचरितव्यानि परलोकमभीप्सता ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इहलोक कर्मभूमि है—ऐसा समझकर इसकी ओर देखते हुए दिव्य लोकोंकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको शुभ कर्मोंका ही आचरण करना चाहिये॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मासर्तुसंज्ञापरिवर्तकेण
सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन ।
स्वकर्मनिष्ठाफलसाक्षिकेण
भूतानि कालः पचति प्रसह्य ॥ ९२ ॥
मूलम्
मासर्तुसंज्ञापरिवर्तकेण
सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन ।
स्वकर्मनिष्ठाफलसाक्षिकेण
भूतानि कालः पचति प्रसह्य ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कालरूपी रसोइया बलपूर्वक सब जीवोंको पका रहा है। मास और ऋतु नामक करछुलसे वह जीवोंको उलटता-पलटता रहता है। सूर्य उसके लिये आगका काम देते हैं और कर्मफलके साक्षी रात और दिन उसके लिये ईंधन बने हुए हैं॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनेन किं यन्न ददाति नाश्नुते
बलेन किं येन रिपुं न बाधते।
श्रुतेन किं येन न धर्ममाचरेत्
किमात्मना यो न जितेन्द्रियो वशी ॥ ९३ ॥
मूलम्
धनेन किं यन्न ददाति नाश्नुते
बलेन किं येन रिपुं न बाधते।
श्रुतेन किं येन न धर्ममाचरेत्
किमात्मना यो न जितेन्द्रियो वशी ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस धनसे क्या लाभ, जिसे मनुष्य न तो किसीको दे सकता और न अपने उपभोगमें ही ला सकता है? उस बलसे क्या लाभ, जिससे शत्रुओंको बाधित न किया जा सके? उस शास्त्रज्ञानसे क्या लाभ, जिसके द्वारा मनुष्य धर्माचरण न कर सके? और उस जीवात्मासे क्या लाभ, जो न तो जितेन्द्रिय है और न मनको ही वशमें रख सकता है?॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं द्वैपायनवचो हितमुक्तं निशम्य तु।
शुको गतः परित्यज्य पितरं मोक्षदैशिकम् ॥ ९४ ॥
मूलम्
इदं द्वैपायनवचो हितमुक्तं निशम्य तु।
शुको गतः परित्यज्य पितरं मोक्षदैशिकम् ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! व्यासजीके कहे हुए ये हितकर वचन सुनकर शुकदेवजी अपने पिताको छोड़कर मोक्षतत्त्वके उपदेशक गुरुके पास चले गये॥९४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पावकाध्ययनं नामैकविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३२१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पावकाध्ययन नामक तीन सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
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मनुजीने धर्मके दस भेद ये बताये हैं—‘‘‘धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥’’’‘धृति, क्षमा, मनोनिग्रह, पवित्रता, इन्द्रियसंयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध—ये धर्मके दस लक्षण हैं। ↩︎