३२० सुलभाजनकसंवादे

भागसूचना

विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा जनककी परीक्षा करनेके लिये आयी हुई सुलभाका उनके शरीरमें प्रवेश करना, राजा जनकका उसपर दोषारोपण करना एवं सुलभाका युक्तियोंद्वारा निराकरण करते हुए राजा जनकको अज्ञानी बताना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरित्यज्य गार्हस्थ्यं कुरुराजर्षिसत्तम ।
कः प्राप्तो विनयं बुद्ध्या मोक्षतत्त्वं वदस्व मे ॥ १ ॥

मूलम्

अपरित्यज्य गार्हस्थ्यं कुरुराजर्षिसत्तम ।
कः प्राप्तो विनयं बुद्ध्या मोक्षतत्त्वं वदस्व मे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— कुरुकुलराजर्षिशिरोमणि! जहाँ बुद्धिका लय हो जाता है, उस मोक्षतत्त्वको गृहस्थाश्रमका त्याग बिना किये कौन पुरुष प्राप्त हुआ है, यह मुझे बताइये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संन्यस्यते यथाऽऽत्मायं व्यक्तस्यात्मा यथा च यत्।
परं मोक्षस्य यच्चापि तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥

मूलम्

संन्यस्यते यथाऽऽत्मायं व्यक्तस्यात्मा यथा च यत्।
परं मोक्षस्य यच्चापि तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! यह मनुष्यशरीर जिस प्रकार स्थूल शरीरका त्याग करता है और जिस प्रकार स्थूल शरीरका आत्मा सूक्ष्म शरीरका त्याग करता है अर्थात् स्थूल और सूक्ष्म—इन दोनों शरीरोंके अभिमानसे जिस प्रकार रहित हो सकता है एवं उनके त्यागका जो स्वरूप है और जो मोक्षका तत्त्व है, वह मुझे बताइये॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
जनकस्य च संवादं सुलभायाश्च भारत ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
जनकस्य च संवादं सुलभायाश्च भारत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— भरतनन्दन! इस विषयमें जानकार मनुष्य जनक और सुलभाके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संन्यासफलिकः कश्चिद् बभूव नृपतिः पुरा।
मैथिलो जनको नाम धर्मध्वज इति श्रुतः ॥ ४ ॥

मूलम्

संन्यासफलिकः कश्चिद् बभूव नृपतिः पुरा।
मैथिलो जनको नाम धर्मध्वज इति श्रुतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन कालमें मिथिलापुरीके कोई एक राजा जनक हो गये हैं, जो धर्मध्वज नामसे प्रसिद्ध थे। उन्हें (गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी) संन्यासका जो सम्यग्‌ज्ञानरूप फल है, वह प्राप्त हो गया था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वेदे मोक्षशास्त्रे च स्वे च शास्त्रे कृतश्रमः।
इन्द्रियाणि समाधाय शशास वसुधामिमाम् ॥ ५ ॥

मूलम्

स वेदे मोक्षशास्त्रे च स्वे च शास्त्रे कृतश्रमः।
इन्द्रियाणि समाधाय शशास वसुधामिमाम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने वेदमें, मोक्षशास्त्रमें तथा अपने शास्त्र (दण्डनीति)-में भी बड़ा परिश्रम किया था। वे इन्द्रियोंको एकाग्र करके इस वसुन्धराका शासन करते थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य वेदविदः प्राज्ञाः श्रुत्वा तां साधुवृत्तताम्।
लोकेषु स्पृहयन्त्यन्ये पुरुषाः पुरुषेश्वर ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्य वेदविदः प्राज्ञाः श्रुत्वा तां साधुवृत्तताम्।
लोकेषु स्पृहयन्त्यन्ये पुरुषाः पुरुषेश्वर ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! वेदोंके ज्ञाता विद्वान् पुरुष उनकी उस साधुवृत्तिका समाचार सुनकर उन्हींके समान सज्जन होनेकी इच्छा करते थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ धर्मयुगे तस्मिन् योगधर्ममनुष्ठिता।
महीमनुचचारैका सुलभा नाम भिक्षुकी ॥ ७ ॥

मूलम्

अथ धर्मयुगे तस्मिन् योगधर्ममनुष्ठिता।
महीमनुचचारैका सुलभा नाम भिक्षुकी ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह धर्मप्रधान युगका समय था। उन दिनों सुलभा नामवाली एक संन्यासिनी योगधर्मके अनुष्ठानद्वारा सिद्धि प्राप्त करके अकेली ही इस पृथ्वीपर विचरण करती थी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तया जगदिदं कृत्स्नमटन्त्या मिथिलेश्वरः।
तत्र तत्र श्रुतो मोक्षे कथ्यमानस्त्रिदण्डिभिः ॥ ८ ॥

मूलम्

तया जगदिदं कृत्स्नमटन्त्या मिथिलेश्वरः।
तत्र तत्र श्रुतो मोक्षे कथ्यमानस्त्रिदण्डिभिः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस सम्पूर्ण जगत्‌में घूमती हुई सुलभाने यत्र-तत्र अनेक स्थानोंमें त्रिदण्डी संन्यासियोंके मुखसे मोक्षतत्त्वकी जानकारीके विषयमें मिथिलापति राजा जनककी प्रशंसा सुनी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सातिसूक्ष्मां कथां श्रुत्वा तथ्यं नेति ससंशया।
दर्शने जातसंकल्पा जनकस्य बभूव ह ॥ ९ ॥

मूलम्

सातिसूक्ष्मां कथां श्रुत्वा तथ्यं नेति ससंशया।
दर्शने जातसंकल्पा जनकस्य बभूव ह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके द्वारा कही जानेवाली अत्यन्त सूक्ष्म परब्रह्म-विषयक वार्ता दूसरोंके मुखसे सुनकर सुलभाके मनमें यह संदेह हुआ कि पता नहीं जनकके सम्बन्धमें जो बातें सुनी जाती हैं, वे सत्य हैं या नहीं। यह संशय उत्पन्न होनेपर उसके हृदयमें राजा जनकके दर्शनका संकल्प उदित हुआ॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र सा विप्रहायाथ पूर्वरूपं हि योगतः।
अबिभ्रदनवद्याङ्गी रूपमन्यदनुत्तमम् ॥ १० ॥
चक्षुर्निमेषमात्रेण लघ्वस्त्रगतिगामिनी ।
विदेहानां पुरीं सुभ्रूर्जगाम कमलेक्षणा ॥ ११ ॥

मूलम्

तत्र सा विप्रहायाथ पूर्वरूपं हि योगतः।
अबिभ्रदनवद्याङ्गी रूपमन्यदनुत्तमम् ॥ १० ॥
चक्षुर्निमेषमात्रेण लघ्वस्त्रगतिगामिनी ।
विदेहानां पुरीं सुभ्रूर्जगाम कमलेक्षणा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने योगशक्तिसे अपना पहला शरीर छोड़कर दूसरा परम सुन्दर रूप धारण कर लिया। अब उसका प्रत्येक अंग अनिन्द्य सौन्दर्यसे प्रकाशित होने लगा। सुन्दर भौंहोंवाली वह कमलनयनी बाला बाणोंके समान तीव्र गतिसे चलकर पलभरमें विदेहदेशकी राजधानी मिथिलामें जा पहुँची॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा प्राप्य मिथिलां रम्यां प्रभूतजनसंकुलाम्।
भैक्ष्यचर्यापदेशेन ददर्श मिथिलेश्वरम् ॥ १२ ॥

मूलम्

सा प्राप्य मिथिलां रम्यां प्रभूतजनसंकुलाम्।
भैक्ष्यचर्यापदेशेन ददर्श मिथिलेश्वरम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रचुर जनसमुदायसे भरी हुई उस रमणीय मिथिलानगरीमें पहुँचकर संन्यासिनी सुलभाने भिक्षा लेनेके बहाने मिथिलानरेशका दर्शन किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा तस्याः परं दृष्ट्वा सौकुमार्यं वपुस्तदा।
केयं कस्य कुतो वेति बभूवागतविस्मयः ॥ १३ ॥

मूलम्

राजा तस्याः परं दृष्ट्वा सौकुमार्यं वपुस्तदा।
केयं कस्य कुतो वेति बभूवागतविस्मयः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके परम सुकुमार शरीर और सौन्दर्यको देखकर राजा जनक आश्चर्यसे चकित हो उठे और मन-ही-मन सोचने लगे, ‘यह कौन है, किसकी है अथवा कहाँसे आयी है?’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्याः स्वागतं कृत्वा व्यादिश्य च वरासनम्।
पूजितां पादशौचेन वरान्नेनाप्यतर्पयत् ॥ १४ ॥

मूलम्

ततोऽस्याः स्वागतं कृत्वा व्यादिश्य च वरासनम्।
पूजितां पादशौचेन वरान्नेनाप्यतर्पयत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उसका स्वागत करके राजाने उसे सुन्दर आसन समर्पित किया और पैर धुलाकर उसका यथोचित पूजन करनेके पश्चात् उत्तमोत्तम अन्न देकर उसे तृप्त किया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ भुक्तवती प्रीता राजानं मन्त्रिभिर्वृतम्।
सर्वभाष्यविदां मध्ये चोदयामास भिक्षुकी ॥ १५ ॥

मूलम्

अथ भुक्तवती प्रीता राजानं मन्त्रिभिर्वृतम्।
सर्वभाष्यविदां मध्ये चोदयामास भिक्षुकी ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजन करके संतुष्ट हुई संन्यासिनी सुलभाने सम्पूर्ण भाष्यवेत्ता विद्वानोंके बीचमें मन्त्रियोंसे घिरकर बैठे हुए राजा जनकसे कुछ प्रश्न करनेका विचार किया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुलभा त्वस्य धर्मेषु मुक्तो नेति ससंशया।
सत्त्वं सत्त्वेन योगज्ञा प्रविवेश महीपतेः ॥ १६ ॥

मूलम्

सुलभा त्वस्य धर्मेषु मुक्तो नेति ससंशया।
सत्त्वं सत्त्वेन योगज्ञा प्रविवेश महीपतेः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुलभा मोक्षधर्मके विषयमें राजासे कुछ पूछना चाहती थी। उसके मनमें यह संदेह था कि राजा जनक जीवन्मुक्त हैं या नहीं। वह योगशक्तियोंकी जानकार तो थी ही, अपनी सूक्ष्म बुद्धिद्वारा राजाकी बुद्धिमें प्रविष्ट हो गयी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेत्राभ्यां नेत्रयोरस्य रश्मीन् संयम्य रश्मिभिः।
सा स्म तं चोदयिष्यन्ती योगबन्धैर्बबन्ध ह ॥ १७ ॥

मूलम्

नेत्राभ्यां नेत्रयोरस्य रश्मीन् संयम्य रश्मिभिः।
सा स्म तं चोदयिष्यन्ती योगबन्धैर्बबन्ध ह ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जनकसे प्रश्न करनेके लिये उद्यत हो उसने अपने नेत्रोंकी किरणोंद्वारा उनके नेत्रोंकी किरणोंको संयत करके योगबलसे उनके चित्तको बाँधकर उन्हें वशमें कर लिया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनकोऽप्युत्स्मयन् राजा भावमस्या विशेषयन्।
प्रतिजग्राह भावेन भावमस्या नृपोत्तम ॥ १८ ॥

मूलम्

जनकोऽप्युत्स्मयन् राजा भावमस्या विशेषयन्।
प्रतिजग्राह भावेन भावमस्या नृपोत्तम ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! तब राजा जनकने सुलभाके अभिप्रायको जानकर उसका आदर करते हुए मुस्कराकर अपने भावद्वारा उसके भावको ग्रहण कर लिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेकस्मिन्नधिष्ठाने संवादः श्रूयतामयम् ।
छत्रादिषु विमुक्तस्य मुक्तायाश्च त्रिदण्डके ॥ १९ ॥

मूलम्

तदेकस्मिन्नधिष्ठाने संवादः श्रूयतामयम् ।
छत्रादिषु विमुक्तस्य मुक्तायाश्च त्रिदण्डके ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर छत्र आदि राजचिह्नोंसे रहित हुए राजा जनक और त्रिदण्डरूप संन्यास-चिह्नसे मुक्त हुई सुलभाका एक ही शरीरमें रहकर जो संवाद हुआ था, उसे सुनो॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवत्याः क्व चर्येयं कृता क्व च गमिष्यसि।
कस्य च त्वं कुतो वेति पप्रच्छैनां महीपतिः ॥ २० ॥

मूलम्

भगवत्याः क्व चर्येयं कृता क्व च गमिष्यसि।
कस्य च त्वं कुतो वेति पप्रच्छैनां महीपतिः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने पूछा— भगवति! आपको यह संन्यासकी दीक्षा कहाँसे प्राप्त हुई है, आप कहाँ जायँगी? किसकी हैं और कहाँसे यहाँ आपका शुभागमन हुआ है? ये सब बातें राजा जनकने सुलभासे पूछीं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुते वयसि जातौ च सद्भावो नाधिगम्यते।
एष्वर्थेषूत्तरं तस्मात् प्रवेद्यं मत्समागमे ॥ २१ ॥

मूलम्

श्रुते वयसि जातौ च सद्भावो नाधिगम्यते।
एष्वर्थेषूत्तरं तस्मात् प्रवेद्यं मत्समागमे ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बोले, किसीसे पूछे बिना उसके शास्त्रज्ञान, अवस्था और जातिके विषयमें सच्ची बात नहीं मालूम होती; अतः मेरे साथ जो तुम्हारा समागम हुआ है, इस अवसरपर इन सब विषयोंकी जानकारीके लिये यथार्थ उत्तर जानना आवश्यक है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्रादिषु विशेषेषु मुक्तं मां विद्धि तत्त्वतः।
स त्वां सम्मन्तुमिच्छामि मानार्हा हि मतासि मे ॥ २२ ॥

मूलम्

छत्रादिषु विशेषेषु मुक्तं मां विद्धि तत्त्वतः।
स त्वां सम्मन्तुमिच्छामि मानार्हा हि मतासि मे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

छत्र आदि जो विशेष राजोचित चिह्न हैं, उन्हें इस समय मैं त्याग चुका हूँ; अतः अब आप मुझे यथार्थरूपसे जान लें। मैं आपका सम्मान करना चाहता हूँ; क्योंकि आप मुझे सम्मानके योग्य जान पड़ती हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्माच्चैतन्मया प्राप्तं ज्ञानं वैशेषिकं पुरा।
यस्य नान्यः प्रवक्तास्ति मोक्षं तमपि मे शृणु ॥ २३ ॥

मूलम्

यस्माच्चैतन्मया प्राप्तं ज्ञानं वैशेषिकं पुरा।
यस्य नान्यः प्रवक्तास्ति मोक्षं तमपि मे शृणु ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने पूर्वकालमें सर्वश्रेष्ठ मोक्षविषयक ज्ञान जिनसे प्राप्त किया था, जिसका उनके सिवा दूसरा कोई प्रतिपादन करनेवाला नहीं है, उस ज्ञान और ज्ञानदाता गुरुका भी परिचय आप मुझसे सुनो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पराशरसगोत्रस्य वृद्धस्य सुमहात्मनः ।
भिक्षोः पञ्चशिखस्याहं शिष्यः परमसम्मतः ॥ २४ ॥

मूलम्

पराशरसगोत्रस्य वृद्धस्य सुमहात्मनः ।
भिक्षोः पञ्चशिखस्याहं शिष्यः परमसम्मतः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराशरगोत्री संन्यास-धर्मावलम्बी वृद्ध महात्मा पंचशिख मेरे गुरु हैं। मैं उनका परम प्रिय शिष्य हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सांख्यज्ञाने च योगे च महीपालविधौ तथा।
त्रिविधे मोक्षधर्मेऽस्मिन् गताध्वा छिन्नसंशयः ॥ २५ ॥

मूलम्

सांख्यज्ञाने च योगे च महीपालविधौ तथा।
त्रिविधे मोक्षधर्मेऽस्मिन् गताध्वा छिन्नसंशयः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सांख्यज्ञान, योगविद्या तथा राजधर्म—इन तीन प्रकारके मोक्षधर्ममें मुझे गन्तव्य मार्ग गुरुदेवसे प्राप्त हो चुका है। इन विषयोंके मेरे सारे संशय दूर हो गये हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स यथाशास्त्रदृष्टेन मार्गेणेह परिभ्रमन्।
वार्षिकांश्चतुरो मासान् पुरा मयि सुखोषितः ॥ २६ ॥

मूलम्

स यथाशास्त्रदृष्टेन मार्गेणेह परिभ्रमन्।
वार्षिकांश्चतुरो मासान् पुरा मयि सुखोषितः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेकी बात है, वे आचार्यचरण शास्त्रोक्त मार्गसे चलते हुए घूमते-घामते इधर आ निकले और वर्षा-ऋतुके चार महीने मेरे यहाँ सुखपूर्वक रहे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनाहं सांख्यमुख्येन सुदृष्टार्थेन तत्त्वतः।
श्रावितस्त्रिविधं मोक्षं न च राज्याद्धि चालितः ॥ २७ ॥

मूलम्

तेनाहं सांख्यमुख्येन सुदृष्टार्थेन तत्त्वतः।
श्रावितस्त्रिविधं मोक्षं न च राज्याद्धि चालितः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सांख्यशास्त्रके प्रमुख विद्वान् हैं और सारा सिद्धान्त उन्हें यथावत् रूपसे प्रत्यक्षकी भाँति ठीक-ठीक ज्ञात है। उन्होंने मुझे त्रिविध मोक्षधर्म श्रवण कराया है, परंतु राज्यसे दूर हटनेकी आज्ञा नहीं दी है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं तामखिलां वृत्तिं त्रिविधां मोक्षसंहिताम्।
मुक्तरागश्चराम्येकः पदे परमके स्थितः ॥ २८ ॥

मूलम्

सोऽहं तामखिलां वृत्तिं त्रिविधां मोक्षसंहिताम्।
मुक्तरागश्चराम्येकः पदे परमके स्थितः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उपदेश पाकर मैं विषयोंकी आसक्तिसे रहित हो मुक्तिविषयक तीन प्रकारकी समस्त वृत्तियोंका आचरण करता हूँ और अकेला ही परमपदमें स्थित हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैराग्यं पुनरेतस्य मोक्षस्य परमो विधिः।
ज्ञानादेव च वैराग्यं जायते येन मुच्यते ॥ २९ ॥

मूलम्

वैराग्यं पुनरेतस्य मोक्षस्य परमो विधिः।
ज्ञानादेव च वैराग्यं जायते येन मुच्यते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैराग्य ही इस मुक्तिका प्रधान कारण है और ज्ञानसे ही वह वैराग्य प्राप्त होता है, जिससे मनुष्य मुक्त हो जाता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानेन कुरुते यत्नं यत्नेन प्राप्यते महत्।
महद् द्वन्द्वप्रमोक्षाय सा सिद्धिर्या वयोऽतिगा ॥ ३० ॥

मूलम्

ज्ञानेन कुरुते यत्नं यत्नेन प्राप्यते महत्।
महद् द्वन्द्वप्रमोक्षाय सा सिद्धिर्या वयोऽतिगा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य ज्ञानके द्वारा मुक्ति पानेके लिये यत्न करता है। उस यत्नसे महान् आत्मज्ञानकी प्राप्ति होती है। वह महान् आत्मज्ञान ही सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे छुटकारा दिलानेका साधन है, वही सिद्धि है, जो काल (मृत्यु)-को भी लाँघ जानेवाली है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेयं परमिका बुद्धेः प्राप्ता निर्द्वन्द्वता मया।
इहैव गतमोहेन चरता मुक्तसङ्गिना ॥ ३१ ॥

मूलम्

सेयं परमिका बुद्धेः प्राप्ता निर्द्वन्द्वता मया।
इहैव गतमोहेन चरता मुक्तसङ्गिना ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा मोह दूर हो गया है। मैं समस्त संसर्गोंका त्याग कर चुका हूँ; इसलिये मैंने इस गृहस्थधर्ममें रहते हुए ही बुद्धिकी परम निर्द्वन्द्वता प्राप्त कर ली है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा क्षेत्रं मृदूभूतमद्‌भिराप्लावितं तथा।
जनयत्यङ्कुरं कर्म नृणां तद्वत् पुनर्भवम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

यथा क्षेत्रं मृदूभूतमद्‌भिराप्लावितं तथा।
जनयत्यङ्कुरं कर्म नृणां तद्वत् पुनर्भवम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे जिस खेतको जोतकर खूब मुलायम बना दिया गया हो और यथासमय उसे पानीसे सींचा गया हो, वही बोये हुए बीजमें अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार मनुष्योंका शुभ-अशुभ कर्म ही पुनर्जन्मका उत्पादन करता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा चोत्तापितं बीजं कपाले यत्र तत्र वा।
प्राप्याप्यङ्कुरहेतुत्वमबीजत्वान्न जायते ॥ ३३ ॥
तद्वद् भगवतानेन शिखा प्रोक्तेन भिक्षुणा।
ज्ञानं कृतमबीजं मे विषयेषु न जायते ॥ ३४ ॥

मूलम्

यथा चोत्तापितं बीजं कपाले यत्र तत्र वा।
प्राप्याप्यङ्कुरहेतुत्वमबीजत्वान्न जायते ॥ ३३ ॥
तद्वद् भगवतानेन शिखा प्रोक्तेन भिक्षुणा।
ज्ञानं कृतमबीजं मे विषयेषु न जायते ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मिट्टीके खपरेमें या और किसी भी बर्तनमें भूना गया बीज बीज न रह जानेके कारण अंकुर उगाने योग्य खेतमें पड़कर भी नहीं जमता है, उसी प्रकार मेरे संन्यासी गुरु भगवान् पंचशिखने मुझे जो ज्ञान प्रदान किया है, वह निर्बीज है। इसलिये विषयोंके क्षेत्रमें अंकुरित नहीं होता है॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाभिरज्यति कस्मिंश्चिन्नानर्थे न परिग्रहे।
नाभिरज्यति चैतेषु व्यर्थत्वाद् रागरोषयोः ॥ ३५ ॥

मूलम्

नाभिरज्यति कस्मिंश्चिन्नानर्थे न परिग्रहे।
नाभिरज्यति चैतेषु व्यर्थत्वाद् रागरोषयोः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी बुद्धि किसी अनर्थमें अथवा भोगोंके संग्रहमें भी आसक्त नहीं होती है। स्त्री आदिके विषयमें जो अनुराग और शत्रु आदिके विषयमें जो क्रोध होता है, वह व्यर्थ होनेके कारण उसकी ओर मेरी बुद्धिकी प्रवृत्ति नहीं होती है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्च मे दक्षिणं बाहुं चन्दनेन समुक्षयेत्।
सव्यं वास्यापि यस्तक्षेत् समावेतावुभौ मम ॥ ३६ ॥

मूलम्

यश्च मे दक्षिणं बाहुं चन्दनेन समुक्षयेत्।
सव्यं वास्यापि यस्तक्षेत् समावेतावुभौ मम ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मेरी दाहिनी बाँहपर चन्दन छिड़के और जो बायीं बाँहको बँसूलेसे काटे तो ये दोनों ही मनुष्य मेरे लिये एक समान हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखी सोऽहमवाप्तार्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
मुक्तसङ्गः स्थितो राज्ये विशिष्टोऽन्यैस्त्रिदण्डिभिः ॥ ३७ ॥

मूलम्

सुखी सोऽहमवाप्तार्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
मुक्तसङ्गः स्थितो राज्ये विशिष्टोऽन्यैस्त्रिदण्डिभिः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आप्तकाम होकर सदा सुखका अनुभव करता हूँ। मेरी दृष्टिमें मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्ण सब एक-से हैं। मैं आसक्तिरहित होकर राजाके पदपर प्रतिष्ठित हूँ। अतः अन्य त्रिदण्डी साधुओंसे मेरा स्थान विशिष्ट है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोक्षे हि त्रिविधा निष्ठा दृष्टान्यैर्मोक्षवित्तमैः।
ज्ञानं लोकोत्तरं यच्च सर्वत्यागश्च कर्मणाम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

मोक्षे हि त्रिविधा निष्ठा दृष्टान्यैर्मोक्षवित्तमैः।
ज्ञानं लोकोत्तरं यच्च सर्वत्यागश्च कर्मणाम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अलौकिक जो ज्ञान है, अलौकिक जो संन्यास है तथा जो कर्मोंका अलौकिक अनुष्ठान है अर्थात् निष्काम भावसे कर्मोंका करना है—इन तीन प्रकारकी निष्ठाओंको ही मोक्षवेत्ता विद्वानोंने मोक्षका उपाय देखा और समझा है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञाननिष्ठां वदन्त्येके मोक्षशास्त्रविदो जनाः।
कर्मनिष्ठां तथैवान्ये यतयः सूक्ष्मदर्शिनः ॥ ३९ ॥

मूलम्

ज्ञाननिष्ठां वदन्त्येके मोक्षशास्त्रविदो जनाः।
कर्मनिष्ठां तथैवान्ये यतयः सूक्ष्मदर्शिनः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मोक्षशास्त्रका ज्ञान रखनेवाले एक श्रेणीके लोग कहते हैं कि ज्ञाननिष्ठा ही मोक्षका साधन है तथा दूसरे सूक्ष्मदर्शी यति लोग कर्मनिष्ठाको ही मुक्तिका उपाय बताते हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहायोभयमप्येव ज्ञानं कर्म च केवलम्।
तृतीयेयं समाख्याता निष्ठा तेन महात्मना ॥ ४० ॥

मूलम्

प्रहायोभयमप्येव ज्ञानं कर्म च केवलम्।
तृतीयेयं समाख्याता निष्ठा तेन महात्मना ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु उन महात्मा पंचशिखाचार्यने पूर्वोक्त केवल ज्ञान और केवल कर्म—इन दोनों पक्षोंका परित्याग करके एक तीसरी निष्ठा बतायी है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमे च नियमे चैव कामे द्वेषे परिग्रहे।
माने दम्भे तथा स्नेहे सदृशास्ते कुटुम्बिभिः ॥ ४१ ॥

मूलम्

यमे च नियमे चैव कामे द्वेषे परिग्रहे।
माने दम्भे तथा स्नेहे सदृशास्ते कुटुम्बिभिः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यम, नियम, काम, द्वेष, परिग्रह, मान, दम्भ तथा स्नेह करके उनसे होनेवाले लाभ और हानिमें संन्यासी भी गृहस्थोंके ही तुल्य है अर्थात् यम-नियम आदिका अभ्यास करनेपर गृहस्थ भी मोक्षलाभ कर सकते हैं और कामना तथा द्वेष होनेपर संन्यासी भी मुक्तिसे वंचित हो सकते हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिदण्डादिषु यद्यस्ति मोक्षो ज्ञानेन कस्यचित्।
छत्रादिषु कथं न स्यात् तुल्यहेतौ परिग्रहे ॥ ४२ ॥

मूलम्

त्रिदण्डादिषु यद्यस्ति मोक्षो ज्ञानेन कस्यचित्।
छत्रादिषु कथं न स्यात् तुल्यहेतौ परिग्रहे ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संन्यासी त्रिदण्ड आदि धारण करते हैं और गृहस्थ नरेश छत्र-चँवर आदि। यदि त्रिदण्ड धारण करनेपर किसीको ज्ञानद्वारा मोक्ष प्राप्त हो सकता है तो छत्र आदि धारण करनेपर दूसरेको उसी ज्ञानके द्वारा मोक्ष कैसे प्राप्त नहीं हो सकता? क्योंकि प्रतिबन्धका कारण परिग्रह दोनोंके लिये समान है—एक त्रिदण्ड आदिका संग्रह करता है और दूसरा छत्र आदिका॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन येन हि यस्यार्थः कारणेनेह कर्मणि।
तत्तदालम्बते सर्वः स्वे स्वे स्वार्थपरिग्रहे ॥ ४३ ॥

मूलम्

येन येन हि यस्यार्थः कारणेनेह कर्मणि।
तत्तदालम्बते सर्वः स्वे स्वे स्वार्थपरिग्रहे ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने-अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये जिस मनुष्यको जिस-जिस साधनभूत वस्तुसे प्रयोजन होता है, वे सभी अपना-अपना काम बनानेके लिये उन-उन वस्तुओंका आश्रय लेते हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोषदर्शी तु गार्हस्थ्ये यो व्रजत्याश्रमान्तरे।
उत्सृजन् परिगृह्णंश्च सोऽपि सङ्गान्न मुच्यते ॥ ४४ ॥

मूलम्

दोषदर्शी तु गार्हस्थ्ये यो व्रजत्याश्रमान्तरे।
उत्सृजन् परिगृह्णंश्च सोऽपि सङ्गान्न मुच्यते ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गृहस्थ-आश्रममें दोष देखकर उसका परित्याग करके दूसरे आश्रममें चला जाता है, वह भी कुछ छोड़ता है और कुछ ग्रहण करता है; अतः उसे भी संगदोषसे छुटकारा नहीं मिलता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आधिपत्ये तथा तुल्ये निग्रहानुग्रहात्मके।
राजभिर्भिक्षुकास्तुल्या मुच्यन्ते केन हेतुना ॥ ४५ ॥

मूलम्

आधिपत्ये तथा तुल्ये निग्रहानुग्रहात्मके।
राजभिर्भिक्षुकास्तुल्या मुच्यन्ते केन हेतुना ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीका निग्रह और किसीपर अनुग्रह करना ही आधिपत्य (प्रभुत्व) कहलाता है। यह जैसे राजामें है, वैसे संन्यासीमें भी है। इस दृष्टिसे जब संन्यासी भी राजाओंके ही समान हैं, तब केवल वे ही मुक्त होते हैं—ऐसा माननेका क्या कारण है?॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ सत्याधिपत्येऽपि ज्ञानेनैवेह केवलम्।
मुच्यन्ते सर्वपापेभ्यो देहे परमके स्थिताः ॥ ४६ ॥

मूलम्

अथ सत्याधिपत्येऽपि ज्ञानेनैवेह केवलम्।
मुच्यन्ते सर्वपापेभ्यो देहे परमके स्थिताः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यरूप उत्तम शरीरमें स्थित हुए प्राणी प्रभुत्व रखते हुए भी केवल ज्ञानके ही बलसे यहाँ समस्त पापोंसे मुक्त हो जाते हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काषायधारणं मौण्ड्यं त्रिविष्टब्धं कमण्डलुम्।
लिङ्गान्युत्पथभूतानि न मोक्षायेति मे मतिः ॥ ४७ ॥

मूलम्

काषायधारणं मौण्ड्यं त्रिविष्टब्धं कमण्डलुम्।
लिङ्गान्युत्पथभूतानि न मोक्षायेति मे मतिः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी तो यह धारणा है कि गेरुआ वस्त्र पहनना, मस्तक मुड़ा लेना तथा त्रिदण्ड और कमण्डलु धारण करना—ये सब उत्कृष्ट संन्यासमार्गका परिचय देनेवाले चिह्नमात्र हैं। इनके द्वारा मोक्षकी सिद्धि नहीं होती॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि सत्यपि लिङ्गेऽस्मिन् ज्ञानमेवात्र कारणम्।
निर्मोक्षायेह दुःखस्य लिङ्गमात्रं निरर्थकम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

यदि सत्यपि लिङ्गेऽस्मिन् ज्ञानमेवात्र कारणम्।
निर्मोक्षायेह दुःखस्य लिङ्गमात्रं निरर्थकम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि इन चिह्नोंके रहते हुए भी यहाँ दुःखसे सर्वथा मोक्ष पानेके लिये एकमात्र ज्ञान ही उपाय है तो जितने भी चिह्न धारण किये जाते हैं, वे सब निरर्थक हैं॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा दुःखशैथिल्यं वीक्ष्य लिङ्गे कृता मतिः।
किं तदेवार्थसामान्यं छत्रादिषु न लक्ष्यते ॥ ४९ ॥

मूलम्

अथवा दुःखशैथिल्यं वीक्ष्य लिङ्गे कृता मतिः।
किं तदेवार्थसामान्यं छत्रादिषु न लक्ष्यते ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यदि कहें कि त्रिदण्ड और गैरिक वस्त्र आदि धारण करनेसे कुछ सुविधा प्राप्त होती है और कष्ट कम होता है, इसलिये संन्यासियोंने उन चिह्नोंको धारण करनेका विचार किया है तो छत्र आदि धारण करनेमें भी इसी सामान्य प्रयोजनकी ओर क्यों न दृष्टि रखी जाय?॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकिंचन्ये न मोक्षोऽस्ति किंचन्ये नास्ति बन्धनम्।
किंचन्ये चेतरे चैव जन्तुर्ज्ञानेन मुच्यते ॥ ५० ॥

मूलम्

आकिंचन्ये न मोक्षोऽस्ति किंचन्ये नास्ति बन्धनम्।
किंचन्ये चेतरे चैव जन्तुर्ज्ञानेन मुच्यते ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

न तो अकिंचनता (दरिद्रता)-में मोक्ष है और न किंचनता (आवश्यक वस्तुओंसे सम्पन्न होने)-में बन्धन ही है। धन और निर्धनता दोनों ही अवस्थाओंमें ज्ञानसे ही जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् धर्मार्थकामेषु तथा राज्यपरिग्रहे।
बन्धनायतनेष्वेषु विद्ध्यबन्धे पदे स्थितम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

तस्माद् धर्मार्थकामेषु तथा राज्यपरिग्रहे।
बन्धनायतनेष्वेषु विद्ध्यबन्धे पदे स्थितम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये धर्म, अर्थ, काम तथा राज्यपरिग्रह—इन बन्धनके स्थानोंमें रहते हुए भी मुझे आप बन्धनरहित (जीवन्मुक्त) पदपर प्रतिष्ठित समझें॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यैश्वर्यमयः पाशः स्नेहायतनबन्धनः ।
मोक्षाश्मनिशितेनेह च्छिन्नस्त्यागासिना मया ॥ ५२ ॥

मूलम्

राज्यैश्वर्यमयः पाशः स्नेहायतनबन्धनः ।
मोक्षाश्मनिशितेनेह च्छिन्नस्त्यागासिना मया ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने मोक्षरूपी पत्थरपर रगड़कर तेज किये हुए त्याग-वैराग्यरूपी तलवारसे राज्य और ऐश्वर्यरूपी पाशको तथा स्नेहके आश्रयभूत स्त्री-पुत्र आदिके ममत्वरूपी बन्धनको काट डाला है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमेवंगतो मुक्तो जातास्थस्त्वयि भिक्षुकि।
अयथार्थं हि ते वर्णं वक्ष्यामि शृणु तन्मम ॥ ५३ ॥

मूलम्

सोऽहमेवंगतो मुक्तो जातास्थस्त्वयि भिक्षुकि।
अयथार्थं हि ते वर्णं वक्ष्यामि शृणु तन्मम ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संन्यासिनी! इस प्रकार मैं जीवन्मुक्त हूँ। आपमें योगका प्रभाव देखकर यद्यपि आपके प्रति मेरी आस्था और आदर-बुद्धि हो गयी है तथापि मैं आपके इस रूप और सौन्दर्यको योगसाधनाके योग्य नहीं मानता, अतः इस विषयमें मैं जो कुछ कहता हूँ, मेरे उस वचनको आप सुनिये॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौकुमार्यं तथा रूपं वपुरग्य्रं तथा वयः।
तवैतानि समस्तानि नियमश्चेति संशयः ॥ ५४ ॥

मूलम्

सौकुमार्यं तथा रूपं वपुरग्य्रं तथा वयः।
तवैतानि समस्तानि नियमश्चेति संशयः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुकुमारता, सौन्दर्य, मनोहर शरीर तथा यौवनावस्था—ये सारी वस्तुएँ योगके विरुद्ध हैं; फिर भी आपमें इन सब गुणोंके साथ-साथ योग और नियम भी हैं ही, यह कैसे सम्भव हुआ? यही मेरे मनमें संदेह है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चाप्यननुरूपं ते लिङ्गस्यास्य विचेष्टितम्।
मुक्तोऽयं स्यान्न वेति स्याद् धर्षितो मत्परिग्रहः ॥ ५५ ॥

मूलम्

यच्चाप्यननुरूपं ते लिङ्गस्यास्य विचेष्टितम्।
मुक्तोऽयं स्यान्न वेति स्याद् धर्षितो मत्परिग्रहः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जो त्रिदण्डधारणरूप चिह्न है, उसके अनुरूप आपकी कोई चेष्टा नहीं है। यह मुक्त है या नहीं, इसकी परीक्षा लेनेके लिये आपने मेरे शरीरको अभिभूत कर दिया है—उसपर बलात् अधिकार जमा लिया है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च कामसमायुक्ते युक्तेऽप्यस्ति त्रिदण्डके।
न रक्ष्यते त्वया चेदं न मुक्तस्यास्ति गोपना ॥ ५६ ॥

मूलम्

न च कामसमायुक्ते युक्तेऽप्यस्ति त्रिदण्डके।
न रक्ष्यते त्वया चेदं न मुक्तस्यास्ति गोपना ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य योगयुक्त होकर भी यदि कामभोगमें आसक्त हो जाय तो उसका त्रिदण्ड धारण करना अनुचित एवं व्यर्थ है। आप अपने इस बर्तावद्वारा संन्यास-आश्रमके नियमकी रक्षा नहीं कर रही हैं। यदि अपने स्वरूपको छिपानेके लिये आपने ऐसा किया हो तो जीवन्मुक्त पुरुषके लिये आत्मगोपन आवश्यक नहीं है॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्यक्षसंश्रयाच्चायं शृणु यस्ते व्यतिक्रमः।
आश्रयन्त्याः स्वभावेन मम पूर्वपरिग्रहम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

मत्यक्षसंश्रयाच्चायं शृणु यस्ते व्यतिक्रमः।
आश्रयन्त्याः स्वभावेन मम पूर्वपरिग्रहम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने स्वभावतः सोच-समझकर मेरे पूर्व-शरीरका आश्रय लेनेकी चेष्टा की है, अतः मेरे पक्षका आश्रय लेने—मेरे शरीरमें प्रवेश करनेके कारण आपसे जो व्यतिक्रम बन गया है, उसे बताता हूँ, सुनिये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवेशस्ते कृतः केन मम राष्ट्रे पुरेऽपि वा।
कस्य वा संनिकर्षात् त्वं प्रविष्टा हृदयं मम ॥ ५८ ॥

मूलम्

प्रवेशस्ते कृतः केन मम राष्ट्रे पुरेऽपि वा।
कस्य वा संनिकर्षात् त्वं प्रविष्टा हृदयं मम ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने किस कारणसे मेरे राज्य अथवा नगरमें प्रवेश किया है अथवा किसके संकेतसे आप मेरे हृदयमें घुस आयी हैं?॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णप्रवरमुख्यासि ब्राह्मणी क्षत्रियस्त्वहम् ।
नावयोरेकयोगोऽस्ति मा कृथा वर्णसंकरम् ॥ ५९ ॥

मूलम्

वर्णप्रवरमुख्यासि ब्राह्मणी क्षत्रियस्त्वहम् ।
नावयोरेकयोगोऽस्ति मा कृथा वर्णसंकरम् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्णोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी जो कन्याएँ हैं, उन सबमें आप प्रमुख हैं। आप ब्राह्मणी हैं और मैं क्षत्रिय हूँ; अतः हम दोनोंका एकत्र संयोग होना कदापि उचित नहीं है; इसलिये आप वर्णसंकर नामक दोषका उत्पादन न कीजिये॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्तसे मोक्षधर्मेण त्वं गार्हस्थ्येऽहमाश्रमे।
अयं चापि सुकष्टस्ते द्वितीयोऽऽश्रमसंकरः ॥ ६० ॥

मूलम्

वर्तसे मोक्षधर्मेण त्वं गार्हस्थ्येऽहमाश्रमे।
अयं चापि सुकष्टस्ते द्वितीयोऽऽश्रमसंकरः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप मोक्षधर्म (संन्यास-आश्रम)-के अनुसार बर्ताव करती हैं और मैं गृहस्थ-आश्रममें स्थित हूँ; अतः आपके द्वारा यह दूसरा आश्रमसंकर नामक दोषका उत्पादन किया जा रहा है, जो अत्यन्त कष्टप्रद है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगोत्रां वासगोत्रां वा न वेद त्वां न वेत्थ माम्।
सगोत्रमाविशन्त्यास्ते तृतीयो गोत्रसंकरः ॥ ६१ ॥

मूलम्

सगोत्रां वासगोत्रां वा न वेद त्वां न वेत्थ माम्।
सगोत्रमाविशन्त्यास्ते तृतीयो गोत्रसंकरः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं यह भी नहीं जानता कि आप सगोत्रा हैं या असगोत्रा। इसी प्रकार आप भी मेरे विषयमें कुछ नहीं जानतीं। अतः मुझ सगोत्रमें प्रवेश करनेके कारण आपके द्वारा तीसरा गोत्रसंकर नामक दोष उत्पन्न किया गया है॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ जीवति ते भर्ता प्रोषितोऽप्यथवा क्वचित्।
अगम्या परभार्येति चतुर्थो धर्मसंकरः ॥ ६२ ॥

मूलम्

अथ जीवति ते भर्ता प्रोषितोऽप्यथवा क्वचित्।
अगम्या परभार्येति चतुर्थो धर्मसंकरः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आपके पति जीवित हैं अथवा कहीं परदेशमें चले गये हैं तो आप परायी स्त्री होनेके कारण मेरे लिये सर्वथा अगम्य हैं। ऐसी दशामें आपका यह बर्ताव धर्मसंकर नामक चौथा दोष है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा त्वमेतान्यकार्याणि कार्यापेक्षा व्यवस्यसि।
अविज्ञानेन वा युक्ता मिथ्याज्ञानेन वा पुनः ॥ ६३ ॥

मूलम्

सा त्वमेतान्यकार्याणि कार्यापेक्षा व्यवस्यसि।
अविज्ञानेन वा युक्ता मिथ्याज्ञानेन वा पुनः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप कार्य-साधनकी अपेक्षा रखकर अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञानसे युक्त हो ये सब न करने योग्य कार्य कर डालनेको उद्यत हो गयी हैं॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवापि स्वतन्त्रासि स्वदोषेणेह कर्हिचित्।
यदि किंचिच्छ्रुतं तेऽस्ति सर्वं कृतमनर्थकम् ॥ ६४ ॥

मूलम्

अथवापि स्वतन्त्रासि स्वदोषेणेह कर्हिचित्।
यदि किंचिच्छ्रुतं तेऽस्ति सर्वं कृतमनर्थकम् ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यदि आप स्वतन्त्र हैं तो कभी आपके द्वारा यदि कुछ शास्त्रका श्रवण किया गया हो तो आपने अपने ही दोषसे वह सब व्यर्थ कर दिया है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमन्यच्चतुर्थं ते भावस्पर्शविघातकम् ।
दुष्टाया लक्ष्यते लिङ्गं विवृण्वत्याप्रकाशितम् ॥ ६५ ॥

मूलम्

इदमन्यच्चतुर्थं ते भावस्पर्शविघातकम् ।
दुष्टाया लक्ष्यते लिङ्गं विवृण्वत्याप्रकाशितम् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका जो दोष छिपा हुआ था, उसे आपने स्वयं ही प्रकाशित कर दिया। इससे आप दुष्टा जान पड़ती हैं। आपकी दुष्टताका यह और चौथा चिह्न स्पष्ट दिखायी दे रहा है, जो हृदयकी प्रीतिपर आघात करनेवाला है॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मय्येवाभिसंधिस्ते जयैषिण्या जये कृतः।
येयं मत्परिषत् कृत्स्ना जेतुमिच्छसि तामपि ॥ ६६ ॥

मूलम्

न मय्येवाभिसंधिस्ते जयैषिण्या जये कृतः।
येयं मत्परिषत् कृत्स्ना जेतुमिच्छसि तामपि ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अपनी विजय चाहती हैं। आपने केवल मुझे ही जीतनेकी इच्छा नहीं की है, अपितु यह जो मेरी सारी सभा बैठी है, इसे भी जीतना चाहती हैं॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथार्हतस्ततश्च त्वं दृष्टिं स्वां प्रतिमुञ्चसि।
मत्यक्षप्रतिघाताय स्वपक्षोद्‌भावनाय च ॥ ६७ ॥

मूलम्

तथार्हतस्ततश्च त्वं दृष्टिं स्वां प्रतिमुञ्चसि।
मत्यक्षप्रतिघाताय स्वपक्षोद्‌भावनाय च ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप मेरे पक्षकी पराजय और अपने पक्षकी विजयके लिये इन माननीय सभासदोंपर भी बारंबार अपनी दृष्टि फेंक रही हैं॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा स्वेनामर्षजेन त्वमृद्धिमोहेन मोहिता।
भूयः सृजसि योगांस्त्वं विषामृतमिवैकताम् ॥ ६८ ॥

मूलम्

सा स्वेनामर्षजेन त्वमृद्धिमोहेन मोहिता।
भूयः सृजसि योगांस्त्वं विषामृतमिवैकताम् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अपनी असहिष्णुताजनित योगसमृद्धिके मोहसे मोहित हो विष और अमृतको एक करनेके समान कामके साथ योगका सम्बन्ध जोड़ रही हैं॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छतोरत्र यो लाभः स्त्रीपुंसोरमृतोपमः।
अलाभश्चापि रक्तस्य सोऽपि दोषो विषोपमः ॥ ६९ ॥

मूलम्

इच्छतोरत्र यो लाभः स्त्रीपुंसोरमृतोपमः।
अलाभश्चापि रक्तस्य सोऽपि दोषो विषोपमः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री और पुरुष जब एक-दूसरेको चाहते हों, उस समय उन्हें जो संयोग-सुखका लाभ होता है, वह अमृतके समान मधुर है। यदि अनुरक्त नारीको अनुरक्त पुरुषकी प्राप्ति नहीं हुई तो वह दोष विषके समान भयंकर होता है॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा स्प्राक्षीः साधु जानीष्व स्वशास्त्रमनुपालय।
कृतेयं हि विजिज्ञासा मुक्तो नेति त्वया मम।
एतत् सर्वं प्रतिच्छन्नं मयि नार्हसि गूहितुम् ॥ ७० ॥

मूलम्

मा स्प्राक्षीः साधु जानीष्व स्वशास्त्रमनुपालय।
कृतेयं हि विजिज्ञासा मुक्तो नेति त्वया मम।
एतत् सर्वं प्रतिच्छन्नं मयि नार्हसि गूहितुम् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप मेरा स्पर्श न करें। मेरे चरित्रको उत्तम और निष्कलंक समझें और अपने शास्त्र (संन्यास-धर्म)-का निरन्तर पालन करती रहें। आपने मेरे विषयमें यह जाननेकी इच्छा की थी कि यह राजा जीवन्मुक्त है या नहीं। यह सारा भाव आपके हृदयमें प्रच्छन्नभावसे स्थित था, अतः इस समय आप मुझसे इसको छिपा नहीं सकतीं॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा यदि त्वं स्वकार्येण यद्यन्यस्य महीपतेः।
तत् त्वं सत्रप्रतिच्छन्ना मयि नार्हसि गूहितुम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

सा यदि त्वं स्वकार्येण यद्यन्यस्य महीपतेः।
तत् त्वं सत्रप्रतिच्छन्ना मयि नार्हसि गूहितुम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आप अपने कार्यसे या किसी दूसरे राजाके कार्यसे यहाँ वेष बदलकर आयी हों तो अब आपके लिये यथार्थ बातको गुप्त रखना उचित नहीं है॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न राजानं मृषा गच्छेन्न द्विजातिं कथंचन।
न स्त्रियं स्त्रीगुणोपेतां हन्युर्ह्येते मृषा गताः ॥ ७२ ॥

मूलम्

न राजानं मृषा गच्छेन्न द्विजातिं कथंचन।
न स्त्रियं स्त्रीगुणोपेतां हन्युर्ह्येते मृषा गताः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको चाहिये कि वह किसी राजाके पास या किसी ब्राह्मणके निकट अथवा स्त्रीजनोचित पातिव्रत्य गुणसे सम्पन्न किसी सती-साध्वी नारीके समीप छद्मवेष धारण करके न जाय; क्योंकि ये राजा, ब्राह्मण और पतिव्रता स्त्री उस छद्मवेषधारी मनुष्यके धोखा देनेपर उसपर कुपित हो उसका विनाश कर देते हैं॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञां हि बलमैश्वर्यं ब्रह्म ब्रह्मविदां बलम्।
रूपयौवनसौभाग्यं स्त्रीणां बलमनुत्तमम् ॥ ७३ ॥

मूलम्

राज्ञां हि बलमैश्वर्यं ब्रह्म ब्रह्मविदां बलम्।
रूपयौवनसौभाग्यं स्त्रीणां बलमनुत्तमम् ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंका बल ऐश्वर्य है, वेदज्ञ ब्राह्मणोंका बल वेद है तथा स्त्रियोंका परम उत्तम बल रूप, यौवन और सौभाग्य है॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत एतैर्बलैरेव बलिनः स्वार्थमिच्छता।
आर्जवेनाभिगन्तव्या विनाशाय ह्यनार्जवम् ॥ ७४ ॥

मूलम्

अत एतैर्बलैरेव बलिनः स्वार्थमिच्छता।
आर्जवेनाभिगन्तव्या विनाशाय ह्यनार्जवम् ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये इन्हीं बलोंसे बलवान् होते हैं। अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धि चाहनेवाले पुरुषको इनके पास सरलभावसे जाना चाहिये; क्योंकि इनके प्रति किया हुआ कुटिल भाव विनाशका कारण बन जाता है॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा त्वं जातिं श्रुतं वृत्तं भावं प्रकृतिमात्मनः।
कृत्यमागमने चैव वक्तुमर्हसि तत्त्वतः ॥ ७५ ॥

मूलम्

सा त्वं जातिं श्रुतं वृत्तं भावं प्रकृतिमात्मनः।
कृत्यमागमने चैव वक्तुमर्हसि तत्त्वतः ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः संन्यासिनि! आपको अपनी जाति, शास्त्रज्ञान, चरित्र, अभिप्राय, स्वभाव एवं यहाँ आगमनका प्रयोजन भी यथार्थरूपसे बताना उचित है॥७५॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतैरसुखैर्वाक्यैरयुक्तैरसमञ्जसैः ।
प्रत्यादिष्टा नरेन्द्रेण सुलभा न व्यकम्पत ॥ ७६ ॥

मूलम्

इत्येतैरसुखैर्वाक्यैरयुक्तैरसमञ्जसैः ।
प्रत्यादिष्टा नरेन्द्रेण सुलभा न व्यकम्पत ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! राजा जनकने इन दुःखजनक, अयोग्य और असंगत वचनोंद्वारा उसका बड़ा तिरस्कार किया, तो भी सुलभा अपने मनमें तनिक भी विचलित नहीं हुई॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तवाक्ये तु नृपतौ सुलभा चारुदर्शना।
ततश्चारुतरं वाक्यं प्रचक्रामाथ भाषितुम् ॥ ७७ ॥

मूलम्

उक्तवाक्ये तु नृपतौ सुलभा चारुदर्शना।
ततश्चारुतरं वाक्यं प्रचक्रामाथ भाषितुम् ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब राजाकी बात समाप्त हो गयी, तब परम सुन्दरी सुलभाने अत्यन्त मधुर वचनोंमें भाषण देना आरम्भ किया॥७७॥

मूलम् (वचनम्)

सुलभोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवभिर्नवभिश्चैव दोषैर्वाग्बुद्धिदूषणैः ।
अपेतमुपपन्नार्थमष्टादशगुणान्वितम् ॥ ७८ ॥
सौक्ष्म्यं सांख्यक्रमौ चोभौ निर्णयः सप्रयोजनः।
पञ्चैतान्यर्थजातानि वाक्यमित्युच्यते नृप ॥ ७९ ॥

मूलम्

नवभिर्नवभिश्चैव दोषैर्वाग्बुद्धिदूषणैः ।
अपेतमुपपन्नार्थमष्टादशगुणान्वितम् ॥ ७८ ॥
सौक्ष्म्यं सांख्यक्रमौ चोभौ निर्णयः सप्रयोजनः।
पञ्चैतान्यर्थजातानि वाक्यमित्युच्यते नृप ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुलभा बोली— राजन्! वाणी और बुद्धिको दूषित करनेवाले जो नौ-नौ दोष हैं, उनसे रहित, अठारह गुणोंसे सम्पन्न और युक्तिसंगत अर्थसे युक्त पदसमूहको वाक्य कहते हैं। उस वाक्यमें सौक्ष्म्य, सांख्य, क्रम, निर्णय और प्रयोजन-ये पाँच प्रकारके अर्थ रहने चाहिये॥७८-७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषामेकैकशोऽर्थानां सौक्ष्म्यादीनां स्वलक्षणम् ।
शृणु संसार्यमाणानां पदार्थपदवाक्यतः ॥ ८० ॥

मूलम्

एषामेकैकशोऽर्थानां सौक्ष्म्यादीनां स्वलक्षणम् ।
शृणु संसार्यमाणानां पदार्थपदवाक्यतः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये जो सौक्ष्म्य आदि अर्थ हैं, ये पद, वाक्य, पदार्थ और वाक्यार्थरूपसे खोलकर बताये जा रहे हैं। आप इनमेंसे एक-एकका अलग-अलग लक्षण सुनिये॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं ज्ञेयेषु भिन्नेषु यदा भेदेन वर्तते।
तत्रातिशायिनी बुद्धिस्तत् सौक्ष्म्यमिति वर्तते ॥ ८१ ॥

मूलम्

ज्ञानं ज्ञेयेषु भिन्नेषु यदा भेदेन वर्तते।
तत्रातिशायिनी बुद्धिस्तत् सौक्ष्म्यमिति वर्तते ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ अनेक भिन्न-भिन्न ज्ञेय (अर्थ) उपस्थित हों और ‘यह घट है, यह पट है’ इस प्रकार वस्तुओंका पृथक्-पृथक् ज्ञान होता हो, ऐसे स्थलोंमें यथार्थ निर्णय करनेवाली जो बुद्धि है, उसीका नाम सौक्ष्म्य है॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागतः।
कंचिदर्थमभिप्रेत्य सा संख्येत्युपधार्यताम् ॥ ८२ ॥

मूलम्

दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागतः।
कंचिदर्थमभिप्रेत्य सा संख्येत्युपधार्यताम् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ किसी विशेष अर्थको अभीष्ट मानकर उसके दोषों और गुणोंकी विभागपूर्वक गणना की जाती है, उस अर्थको संख्या अथवा सांख्य समझना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं पूर्वमिदं पश्चाद् वक्तव्यं यद् विवक्षितम्।
क्रमयोगं तमप्याहुर्वाक्यं वाक्यविदो जनाः ॥ ८३ ॥

मूलम्

इदं पूर्वमिदं पश्चाद् वक्तव्यं यद् विवक्षितम्।
क्रमयोगं तमप्याहुर्वाक्यं वाक्यविदो जनाः ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परिगणित गुणों और दोषोंमेंसे अमुक गुण या दोष पहले कहना चाहिये और अमुकको पीछे कहना अभीष्ट है। इस प्रकार जो पूर्वापरके क्रमका विचार होता है, उसका नाम क्रम है और जिस वाक्यमें ऐसा क्रम हो, उस वाक्यको वाक्यवेत्ता विद्वान् क्रमयुक्त कहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मकामार्थमोक्षेषु प्रतिज्ञाय विशेषतः ।
इदं तदिति वाक्यान्ते प्रोच्यते स विनिर्णयः ॥ ८४ ॥

मूलम्

धर्मकामार्थमोक्षेषु प्रतिज्ञाय विशेषतः ।
इदं तदिति वाक्यान्ते प्रोच्यते स विनिर्णयः ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके विषयमें किसी एकका विशेषरूपसे प्रतिपादन करनेकी प्रतिज्ञा करके प्रवचनके अन्तमें ‘यही वह अभीष्ट विषय है’ ऐसा कहकर जो सिद्धान्त स्थिर किया जाता है, उसीका नाम निर्णय है॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छाद्वेषभवैर्दुःखैः प्रकर्षो यत्र जायते।
तत्र या नृपते वृत्तिस्तत् प्रयोजनमिष्यते ॥ ८५ ॥

मूलम्

इच्छाद्वेषभवैर्दुःखैः प्रकर्षो यत्र जायते।
तत्र या नृपते वृत्तिस्तत् प्रयोजनमिष्यते ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इच्छा अथवा द्वेषसे उत्पन्न हुए दुःखोंद्वारा जहाँ किसी एक प्रकारके दुःखकी प्रधानता हो जाय, वहाँ जो वृत्ति उदय होती है, उसीको प्रयोजन कहते हैं॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्येतानि यथोक्तानि सौक्ष्म्यादीनि जनाधिप।
एकार्थसमवेतानि वाक्यं मम निशामय ॥ ८६ ॥

मूलम्

तान्येतानि यथोक्तानि सौक्ष्म्यादीनि जनाधिप।
एकार्थसमवेतानि वाक्यं मम निशामय ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! जिस वाक्यमें पूर्वोक्त सौक्ष्म्य आदि गुण एक अर्थमें सम्मिलित हों, मेरे वैसे ही वाक्यको आप श्रवण करें॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपेतार्थमभिन्नार्थं न्यायवृत्तं न चाधिकम्।
नाश्लक्ष्णं न च संदिग्धं वक्ष्यामि परमं ततः ॥ ८७ ॥

मूलम्

उपेतार्थमभिन्नार्थं न्यायवृत्तं न चाधिकम्।
नाश्लक्ष्णं न च संदिग्धं वक्ष्यामि परमं ततः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं ऐसा वाक्य बोलूँगी, जो सार्थक होगा। उसमें अर्थभेद नहीं होगा। वह न्याययुक्त होगा। उसमें आवश्यकतासे अधिक, कर्णकटु एवं संदेह-जनक पद नहीं होंगे। इस प्रकार मैं परम उत्तम वाक्य बोलूँगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न गुर्वक्षरसंयुक्तं पराङ्‌मुखसुखं न च।
नानृतं न त्रिवर्गेण विरुद्धं नाप्यसंस्कृतम् ॥ ८८ ॥

मूलम्

न गुर्वक्षरसंयुक्तं पराङ्‌मुखसुखं न च।
नानृतं न त्रिवर्गेण विरुद्धं नाप्यसंस्कृतम् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे इस वचनमें गुरु एवं निष्ठुर अक्षरोंका संयोग नहीं होगा; उसमें कोमलकान्त सुकुमार पदावली होगी। वह पराङ्‌मुख व्यक्तियोंके लिये सुखद नहीं होगा। वह न तो झूठ होगा न धर्म, अर्थ और कामके विरुद्ध और संस्कारशून्य ही होगा॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न न्यूनं कष्टशब्दं वा विक्रमाभिहितं न च।
न शेषमनु कल्पेन निष्कारणमहेतुकम् ॥ ८९ ॥

मूलम्

न न्यूनं कष्टशब्दं वा विक्रमाभिहितं न च।
न शेषमनु कल्पेन निष्कारणमहेतुकम् ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे उस वाक्यमें न्यूनपदत्व नामक दोष नहीं रहेगा, कष्टकर शब्दोंका प्रयोग नहीं होगा, उसका क्रमरहित उच्चारण नहीं होगा। उसमें दूसरे पदोंके अध्याहार और लक्षणकी आवश्यकता नहीं होगी। यह वाक्य निष्प्रयोजन और युक्तिशून्य भी नहीं होगा॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामात् क्रोधाद् भयाल्लोभाद् दैन्याच्चानार्यकात् तथा।
ह्रीतोऽनुक्रोशतो मानान्न वक्ष्यामि कथंचन ॥ ९० ॥

मूलम्

कामात् क्रोधाद् भयाल्लोभाद् दैन्याच्चानार्यकात् तथा।
ह्रीतोऽनुक्रोशतो मानान्न वक्ष्यामि कथंचन ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं काम, क्रोध, भय, लोभ, दैन्य, अनार्यता, लज्जा, दया तथा अभिमानसे किसी तरह कोई बात नहीं बोलूँगी॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्ता श्रोता च वाक्यं च यदा त्वविकलं नृप।
सममेति विवक्षायां तदा सोऽर्थः प्रकाशते ॥ ९१ ॥

मूलम्

वक्ता श्रोता च वाक्यं च यदा त्वविकलं नृप।
सममेति विवक्षायां तदा सोऽर्थः प्रकाशते ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! बोलनेकी इच्छा होनेपर जब वक्ता, श्रोता और वाक्य—तीनों अविकलभावसे सम-स्थितिमें आ जाते हैं, तब वक्ताका कहा हुआ अर्थ प्रकाशित होता है (श्रोताके समझमें आ जाता है)॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्तव्ये तु यदा वक्ता श्रोतारमवमन्य वै।
स्वार्थमाह परार्थं तत् तदा वाक्यं न रोहति ॥ ९२ ॥

मूलम्

वक्तव्ये तु यदा वक्ता श्रोतारमवमन्य वै।
स्वार्थमाह परार्थं तत् तदा वाक्यं न रोहति ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब बोलते समय वक्ता श्रोताकी अवहेलना करके दूसरेके लिये अपनी बात कहने लगता है, उस समय वह वाक्य श्रोताके हृदयमें प्रवेश नहीं करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यः स्वार्थमुत्सृज्य परार्थं प्राह मानवः।
विशङ्का जायते तस्मिन् वाक्यं तदपि दोषवत् ॥ ९३ ॥

मूलम्

अथ यः स्वार्थमुत्सृज्य परार्थं प्राह मानवः।
विशङ्का जायते तस्मिन् वाक्यं तदपि दोषवत् ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जो मनुष्य स्वार्थ त्यागकर दूसरेके लिये कुछ कहता है, उस समय उसके प्रति श्रोताके हृदयमें आशंका उत्पन्न होती है, अतः वह वाक्य भी दोषयुक्त ही है॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु वक्ता द्वयोरर्थमविरुद्धं प्रभाषते।
श्रोतुश्चैवात्मनश्चैव स वक्ता नेतरो नृप ॥ ९४ ॥

मूलम्

यस्तु वक्ता द्वयोरर्थमविरुद्धं प्रभाषते।
श्रोतुश्चैवात्मनश्चैव स वक्ता नेतरो नृप ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु नरेश्वर! जो वक्ता अपने और श्रोता दोनोंके लिये अनुकूल विषय ही बोलता है, वही वास्तवमें वक्ता है, दूसरा नहीं॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदर्थवदिदं वाक्यमुपेतं वाक्यसम्पदा ।
अविक्षिप्तमना राजन्नेकाग्रः श्रोतुमर्हसि ॥ ९५ ॥

मूलम्

तदर्थवदिदं वाक्यमुपेतं वाक्यसम्पदा ।
अविक्षिप्तमना राजन्नेकाग्रः श्रोतुमर्हसि ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः राजन्! आप स्थिरचित्त एवं एकाग्र होकर यह वाक्यसम्पत्तिसे युक्त सार्थक वचन सुनिये॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कासि कस्य कुतश्चेति त्वयाहमभिचोदिता।
तत्रोत्तरमिदं वाक्यं राजन्नेकमनाः शृणु ॥ ९६ ॥

मूलम्

कासि कस्य कुतश्चेति त्वयाहमभिचोदिता।
तत्रोत्तरमिदं वाक्यं राजन्नेकमनाः शृणु ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! आपने मुझसे पूछा था कि आप कौन हैं, किसकी हैं और कहाँसे आयी हैं? अतः इसके उत्तरमें मेरा यह कथन एकचित्त होकर सुनिये॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा जतु च काष्ठं च पांसवश्चोदबिन्दवः।
संश्लिष्टानि तथा राजन् प्राणिनामिह सम्भवः ॥ ९७ ॥

मूलम्

यथा जतु च काष्ठं च पांसवश्चोदबिन्दवः।
संश्लिष्टानि तथा राजन् प्राणिनामिह सम्भवः ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे काठके साथ लाह और धूलके साथ पानीकी बूंदें मिलकर एक हो जाती हैं, उसी प्रकार इस जगत्‌में प्राणियोंका जन्म कई तत्त्वोंके मेलसे होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दः स्पर्शो रसो रूपं गन्धः पञ्चेन्द्रियाणि च।
पृथगात्मान आत्मानं संश्लिष्टा जतुकाष्ठवत् ॥ ९८ ॥
न चैषां चोदना काचिदस्तीत्येष विनिश्चयः।

मूलम्

शब्दः स्पर्शो रसो रूपं गन्धः पञ्चेन्द्रियाणि च।
पृथगात्मान आत्मानं संश्लिष्टा जतुकाष्ठवत् ॥ ९८ ॥
न चैषां चोदना काचिदस्तीत्येष विनिश्चयः।

अनुवाद (हिन्दी)

शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तथा पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ—ये आत्मासे पृथक् होनेपर भी काष्ठमें सटे हुए लाहके समान आत्माके साथ जुड़े हुए हैं; परंतु इनमें स्वतन्त्र कोई प्रेरणा-शक्ति नहीं है। यही विद्वानोंका निश्चय है॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैकस्येह विज्ञानं नास्त्यात्मनि तथा परे ॥ ९९ ॥
न वेद चक्षुश्चक्षुष्ट्वं श्रोत्रं नात्मनि वर्तते।

मूलम्

एकैकस्येह विज्ञानं नास्त्यात्मनि तथा परे ॥ ९९ ॥
न वेद चक्षुश्चक्षुष्ट्वं श्रोत्रं नात्मनि वर्तते।

अनुवाद (हिन्दी)

इनमेंसे एक-एक इन्द्रियको न तो अपना ज्ञान है और न दूसरेका। नेत्र अपने नेत्रत्वको नहीं जानता। इसी प्रकार कान भी अपने विषयमें कुछ नहीं जानता॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव व्यभिचारेण न वर्तन्ते परस्परम् ॥ १०० ॥
प्रश्लिष्टं च न जानन्ति यथाऽऽप इव पांसवः।

मूलम्

तथैव व्यभिचारेण न वर्तन्ते परस्परम् ॥ १०० ॥
प्रश्लिष्टं च न जानन्ति यथाऽऽप इव पांसवः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह ये इन्द्रियाँ और विषय परस्पर एक-दूसरेसे मिल-जुलकर भी नहीं जान सकते। जैसे कि जल और धूल परस्पर मिलकर भी अपने सम्मिश्रणको नहीं जानते॥१००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्यानन्यानपेक्षन्ते गुणांस्तानपि मे शृणु ॥ १०१ ॥
रूपं चक्षुः प्रकाशश्च दर्शने हेतवस्त्रयः।

मूलम्

बाह्यानन्यानपेक्षन्ते गुणांस्तानपि मे शृणु ॥ १०१ ॥
रूपं चक्षुः प्रकाशश्च दर्शने हेतवस्त्रयः।

अनुवाद (हिन्दी)

शरीरस्थ इन्द्रियाँ विषयोंका प्रत्यक्ष अनुभव करते समय अन्यान्य बाह्य गुणोंकी अपेक्षा रखती हैं। उन गुणोंको आप मुझसे सुनिये। रूप, नेत्र और प्रकाश—ये तीन किसी वस्तुको प्रत्यक्ष देखनेमें हेतु हैं॥१०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैवात्र तथान्येषु ज्ञानज्ञेयेषु हेतवः ॥ १०२ ॥
ज्ञानज्ञेयान्तरे तस्मिन् मनो नामापरो गुणः।
विचारयति येनायं निश्चये साध्वसाधुनी ॥ १०३ ॥

मूलम्

यथैवात्र तथान्येषु ज्ञानज्ञेयेषु हेतवः ॥ १०२ ॥
ज्ञानज्ञेयान्तरे तस्मिन् मनो नामापरो गुणः।
विचारयति येनायं निश्चये साध्वसाधुनी ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे प्रत्यक्ष दर्शनमें ये तीन हेतु हैं, उसी प्रकार अन्यान्य ज्ञान और ज्ञेयमें भी तीन-तीन हेतु जानने चाहिये। ज्ञान और ज्ञातव्य विषयोंके बीचमें किसी ज्ञानेन्द्रियके अतिरिक्त मन नामक एक दूसरा गुण भी रहता है, जिससे यह जीवात्मा किसी विषयमें भले-बुरेका निश्चय करनेके लिये विचार करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वादशस्त्वपरस्तत्र बुद्धिर्नाम गुणः स्मृतः।
येन संशयपूर्वेषु बोद्धव्येषु व्यवस्यति ॥ १०४ ॥

मूलम्

द्वादशस्त्वपरस्तत्र बुद्धिर्नाम गुणः स्मृतः।
येन संशयपूर्वेषु बोद्धव्येषु व्यवस्यति ॥ १०४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं एक और बारहवाँ गुण भी है, जिसका नाम है बुद्धि। जिससे किसी ज्ञातव्य विषयमें संशय उत्पन्न होनेपर मनुष्य एक निश्चयपर पहुँचता है॥१०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ द्वादशके तस्मिन् सत्त्वं नामापरो गुणः।
महासत्त्वोऽल्पसत्त्वो वा जन्तुर्येनानुमीयते ॥ १०५ ॥

मूलम्

अथ द्वादशके तस्मिन् सत्त्वं नामापरो गुणः।
महासत्त्वोऽल्पसत्त्वो वा जन्तुर्येनानुमीयते ॥ १०५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बारहवें गुण बुद्धिमें सत्त्वनामक एक (तेरहवाँ) गुण है, जिससे महासत्त्व और अल्पसत्त्व प्राणीका अनुमान किया जाता है॥१०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं कर्तेति चाप्यन्यो गुणस्तत्र चतुर्दशः।
ममायमिति येनायं मन्यते न ममेति च ॥ १०६ ॥

मूलम्

अहं कर्तेति चाप्यन्यो गुणस्तत्र चतुर्दशः।
ममायमिति येनायं मन्यते न ममेति च ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सत्त्वमें ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसे अभिमानसे युक्त अहंकार नामक एक अन्य चौदहवाँ गुण है, जिससे जीवात्मा ‘यह वस्तु मेरी है और यह वस्तु मेरी नहीं है’ ऐसा मानता है॥१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पञ्चदशो राजन् गुणस्तत्रापरः स्मृतः।
पृथक्कलासमूहस्य सामग्र्‌यं तदिहोच्यते ॥ १०७ ॥
गुणस्त्वेवापरस्तत्र संघात इव षोडशः।

मूलम्

अथ पञ्चदशो राजन् गुणस्तत्रापरः स्मृतः।
पृथक्कलासमूहस्य सामग्र्‌यं तदिहोच्यते ॥ १०७ ॥
गुणस्त्वेवापरस्तत्र संघात इव षोडशः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस अहंकारमें वासना नामक एक गुण और माना गया है, जो पंद्रहवाँ है। वहाँ पृथक्-पृथक् कलाओंके समूहकी जो समग्रता है, वह एक अन्य गुण है। वह संघातकी भाँति यहाँ सोलहवाँ कहा जाता है॥१०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतिर्व्यक्तिरित्येतौ गुणौ यस्मिन् समाश्रितौ ॥ १०८ ॥

मूलम्

प्रकृतिर्व्यक्तिरित्येतौ गुणौ यस्मिन् समाश्रितौ ॥ १०८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें प्रकृति (माया) और व्यक्ति (प्रकाश)—ये दो गुण आश्रित हैं (यहाँतक सब अठारह हुए)॥१०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखासुखे जरामृत्यू लाभालाभौ प्रियाप्रिये।
इति चैकोनविंशोऽयं द्वन्द्वयोग इति स्मृतः ॥ १०९ ॥

मूलम्

सुखासुखे जरामृत्यू लाभालाभौ प्रियाप्रिये।
इति चैकोनविंशोऽयं द्वन्द्वयोग इति स्मृतः ॥ १०९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुख और दुःख, जरा और मृत्यु, लाभ और हानि तथा प्रिय और अप्रिय इत्यादि द्वन्द्वोंका जो योग है, यह उन्नीसवाँ गुण माना गया है॥१०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वं चैकोनविंशत्या कालो नामापरो गुणः।
इतीमं विद्धि विंशत्या भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ ११० ॥

मूलम्

ऊर्ध्वं चैकोनविंशत्या कालो नामापरो गुणः।
इतीमं विद्धि विंशत्या भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ ११० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस उन्नीसवें गुणसे परे काल नामक दूसरा गुण और है। इसे बीसवाँ गुण समझिये। इसीसे प्राणियोंकी उत्पत्ति और लय होते हैं॥११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विंशकश्चैष संघातो महाभूतानि पञ्च च।
सदसद्भावयोगौ तु गुणावन्यौ प्रकाशकौ ॥ १११ ॥

मूलम्

विंशकश्चैष संघातो महाभूतानि पञ्च च।
सदसद्भावयोगौ तु गुणावन्यौ प्रकाशकौ ॥ १११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन बीस गुणोंका समुदाय एवं पाँच महाभूत तथा सद्भावयोग1 और असद्भावयोग[^२]—ये दो अन्य प्रकाशक गुण, ये सब मिलकर सत्ताईस हैं॥१११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं विंशकश्चैव गुणाः सप्त च ये स्मृताः।
विधिः शुक्रं बलं चेति त्रय एते गुणाः परे॥११२॥

मूलम्

इत्येवं विंशकश्चैव गुणाः सप्त च ये स्मृताः।
विधिः शुक्रं बलं चेति त्रय एते गुणाः परे॥११२॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये जो बीस और सात गुण बताये गये हैं, इनके सिवा तीन गुण और हैं—विधि[^३], शुक्र[^४] और बल[^५]॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विंशतिर्दश चैवं हि गुणाः संख्यानतः स्मृताः।
समग्रा यत्र वर्तते तच्छरीरमिति स्मृतम् ॥ ११३ ॥

मूलम्

विंशतिर्दश चैवं हि गुणाः संख्यानतः स्मृताः।
समग्रा यत्र वर्तते तच्छरीरमिति स्मृतम् ॥ ११३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार गणना करनेसे बीस और दस तीस गुण होते हैं। ये सारे-के-सारे गुण जहाँ विद्यमान हैं, उसको शरीर कहा गया है॥११३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तं प्रकृतिं त्वासां कलानां कश्चिदिच्छति।
व्यक्तं चासां तथा चान्यः स्थूलदर्शी प्रपश्यति ॥ ११४ ॥

मूलम्

अव्यक्तं प्रकृतिं त्वासां कलानां कश्चिदिच्छति।
व्यक्तं चासां तथा चान्यः स्थूलदर्शी प्रपश्यति ॥ ११४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई-कोई विद्वान् अव्यक्त प्रकृतिको इन तीस कलाओंका उपादान कारण मानते हैं। दूसरे स्थूलदर्शी विचारक व्यक्त अर्थात् परमाणुओंको कारण मानते हैं तथा कोई-कोई अव्यक्त और व्यक्तको अर्थात् प्रकृति और परमाणु—इन दोनोंको उनका उपादान कारण समझते हैं॥११४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तं यदि वा व्यक्तं द्वयीमथ चतुष्टयीम्।
प्रकृतिं सर्वभूतानां पश्यन्त्यध्यात्मचिन्तकाः ॥ ११५ ॥

मूलम्

अव्यक्तं यदि वा व्यक्तं द्वयीमथ चतुष्टयीम्।
प्रकृतिं सर्वभूतानां पश्यन्त्यध्यात्मचिन्तकाः ॥ ११५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अव्यक्त हो, व्यक्त हो, दोनों हों अथवा चारों (ब्रह्म, माया, जीव और अविद्या) कारण हों, अध्यात्मतत्त्वका चिन्तन करनेवाले विद्वान् प्रकृतिको ही सम्पूर्ण भूतोंका उपादान कारण समझते हैं॥११५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येयं प्रकृतिरव्यक्ता कलाभिर्व्यक्ततां गता।
अहं च त्वं च राजेन्द्र ये चाप्यन्ये शरीरिणः॥११६॥

मूलम्

येयं प्रकृतिरव्यक्ता कलाभिर्व्यक्ततां गता।
अहं च त्वं च राजेन्द्र ये चाप्यन्ये शरीरिणः॥११६॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! यह जो अव्यक्त प्रकृति सबका उपादान कारण है, यही पूर्वोक्त तीस कलाओंके रूपमें व्यक्तभावको प्राप्त हुई है। मैं, आप तथा जो अन्य शरीरधारी हैं, उन सबके शरीरोंकी उत्पत्ति प्रकृतिसे ही हुई है॥११६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिन्दुन्यासादयोऽवस्थाः शुक्रशोणितसम्भवाः ।
यासामेव निपातेन कललं नाम जायते ॥ ११७ ॥

मूलम्

बिन्दुन्यासादयोऽवस्थाः शुक्रशोणितसम्भवाः ।
यासामेव निपातेन कललं नाम जायते ॥ ११७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणियोंकी वीर्यस्थापनासे लेकर रजोवीर्यसंयोग-सम्भूत कुछ ऐसी अवस्थाएँ हैं, जिनके सम्मिश्रणसे ही ‘कलल’ नामक एक पदार्थ उत्पन्न होता है॥११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कललाद्‌ बुद्‌बुदोत्पत्तिः पेशी च बुद्‌बुदात् स्मृता।
पेश्यास्त्वङ्गाभिनिर्वृत्तिर्नखरोमाणि चाङ्गतः ॥ ११८ ॥

मूलम्

कललाद्‌ बुद्‌बुदोत्पत्तिः पेशी च बुद्‌बुदात् स्मृता।
पेश्यास्त्वङ्गाभिनिर्वृत्तिर्नखरोमाणि चाङ्गतः ॥ ११८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कललसे बुद्‌बुदकी उत्पत्ति होती है। बुद्‌बुदसे मांसपेशीका प्रादुर्भाव माना गया है। पेशीसे विभिन्न अंगोंका निर्माण होता है और अंगोंसे रोमावलियाँ तथा नख प्रकट होते हैं॥११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्पूर्णे नवमे मासि जन्तोर्जातस्य मैथिल।
जायते नामरूपत्वं स्त्री पुमान् वेति लिङ्गतः ॥ ११९ ॥

मूलम्

सम्पूर्णे नवमे मासि जन्तोर्जातस्य मैथिल।
जायते नामरूपत्वं स्त्री पुमान् वेति लिङ्गतः ॥ ११९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथिलानरेश! गर्भमें नौ मास पूर्ण हो जानेपर जीव जन्म ग्रहण करता है। उस समय उसे नाम और रूप प्राप्त होता है तथा वह विशेष प्रकारके चिह्नसे स्त्री अथवा पुरुष समझा जाता है॥११९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातमात्रं तु तद्रूपं दृष्ट्वा ताम्रनखाङ्‌गुलि।
कौमारं रूपमापन्नं रूपतो नोपलभ्यते ॥ १२० ॥

मूलम्

जातमात्रं तु तद्रूपं दृष्ट्वा ताम्रनखाङ्‌गुलि।
कौमारं रूपमापन्नं रूपतो नोपलभ्यते ॥ १२० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय बालकका जन्म होता है, उस समय उसका जो रूप देखनेमें आता है, उसके नख और अंगुलियाँ ताँबेके समान लाल-लाल होती हैं, फिर जब वह कुमारावस्थाको प्राप्त होता है तो उस समय उसका पहलेका वह रूप नहीं उपलब्ध होता है॥१२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौमाराद् यौवनं चापि स्थावीर्यं चापि यौवनात्।
अनेन क्रमयोगेन पूर्वं पूर्वं न लभ्यते ॥ १२१ ॥

मूलम्

कौमाराद् यौवनं चापि स्थावीर्यं चापि यौवनात्।
अनेन क्रमयोगेन पूर्वं पूर्वं न लभ्यते ॥ १२१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार कुमारावस्थासे जवानीको और जवानीसे बुढ़ापेको वह प्राप्त होता है। इस क्रमसे उत्तरोत्तर अवस्थामें पहुँचनेपर पूर्व पूर्व अवस्थाका रूप नहीं देखनेमें आता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलानां पृथगर्थानां प्रतिभेदः क्षणे क्षणे।
वर्तते सर्वभूतेषु सौक्ष्म्यात् तु न विभाव्यते ॥ १२२ ॥

मूलम्

कलानां पृथगर्थानां प्रतिभेदः क्षणे क्षणे।
वर्तते सर्वभूतेषु सौक्ष्म्यात् तु न विभाव्यते ॥ १२२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी प्राणियोंमें विभिन्न प्रयोजनकी सिद्धिके लिये जो पूर्वोक्त कलाएँ हैं, उनके स्वरूपमें प्रतिक्षण भेद या परिवर्तन हो रहा है; परंतु वह इतना सूक्ष्म है कि जान नहीं पड़ता॥१२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैषामत्ययो राजन् लक्ष्यते प्रभवो न च।
अवस्थायामवस्थायां दीपस्येवार्चिषो गतिः ॥ १२३ ॥

मूलम्

न चैषामत्ययो राजन् लक्ष्यते प्रभवो न च।
अवस्थायामवस्थायां दीपस्येवार्चिषो गतिः ॥ १२३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! प्रत्येक अवस्थामें इन कलाओंका लय और उद्‌भव होता रहता है, किंतु दिखायी नहीं देता है; ठीक उसी तरह जैसे दीपककी लौ क्षण-क्षणमें मिटती और उत्पन्न होती रहती है, पर दिखायी नहीं देती॥१२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याप्येवंप्रभावस्य सदश्वस्येव धावतः ।
अजस्रं सर्वलोकस्य कः कुतो वा न वा कुतः॥१२४॥
कस्येदं कस्य वा नेदं कुतो वेदं न वा कुतः।
सम्बन्धः कोऽस्ति भूतानां स्वैरप्यवयवैरिह ॥ १२५ ॥

मूलम्

तस्याप्येवंप्रभावस्य सदश्वस्येव धावतः ।
अजस्रं सर्वलोकस्य कः कुतो वा न वा कुतः॥१२४॥
कस्येदं कस्य वा नेदं कुतो वेदं न वा कुतः।
सम्बन्धः कोऽस्ति भूतानां स्वैरप्यवयवैरिह ॥ १२५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दौड़ता हुआ अच्छा घोड़ा इतनी तीव्र गतिसे एक स्थानको छोड़कर दूसरे स्थानपर पहुँच जाता है कि कुछ कहते नहीं बनता, उसी प्रकार यह प्रभावशाली लोक निरन्तर वेगपूर्वक एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें जा रहा है, अतः उसके विषयमें यह प्रश्न नहीं बन सकता कि ‘कौन कहाँसे आता है और कौन कहाँसे नहीं आता है, यह किसका है? किसका नहीं है? किससे उत्पन्न हुआ है और किससे नहीं हुआ है? प्राणियोंका अपने अंगोंके साथ भी यहाँ क्या सम्बन्ध है?’ अर्थात् कुछ भी सम्बन्ध नहीं है॥१२४-१२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाऽऽदित्यान्मणेश्चापि वीरुद्भ‌्यश्चैव पावकः ।
जायन्त्येवं समुदयात् कलानामिव जन्तवः ॥ १२६ ॥

मूलम्

यथाऽऽदित्यान्मणेश्चापि वीरुद्भ‌्यश्चैव पावकः ।
जायन्त्येवं समुदयात् कलानामिव जन्तवः ॥ १२६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्यकी किरणोंका सम्पर्क पाकर सूर्यकान्त-मणिसे आग प्रकट हो जाती है, परस्पर रगड़ खानेपर काठसे अग्निका प्रादुर्भाव हो जाता है, इसी प्रकार पूर्वोक्त कलाओंके समुदायसे जीव जन्म ग्रहण करते हैं॥१२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मन्येवात्मनाऽऽत्मानं यथा त्वमनुपश्यसि ।
एवमेवात्मनाऽऽत्मानमन्यस्मिन्‌ किं न पश्यसि ॥ १२७ ॥

मूलम्

आत्मन्येवात्मनाऽऽत्मानं यथा त्वमनुपश्यसि ।
एवमेवात्मनाऽऽत्मानमन्यस्मिन्‌ किं न पश्यसि ॥ १२७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आप स्वयं अपने द्वारा अपनेहीमें आत्माका दर्शन करते हैं, उसी प्रकार अपने द्वारा दूसरोंमें आत्माका दर्शन क्यों नहीं करते हैं?॥१२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यात्मनि परस्मिंश्च समतामध्यवस्यसि ।
अथ मां कासि कस्येति किमर्थमनुपृच्छसि ॥ १२८ ॥

मूलम्

यद्यात्मनि परस्मिंश्च समतामध्यवस्यसि ।
अथ मां कासि कस्येति किमर्थमनुपृच्छसि ॥ १२८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आप अपनेमें और दूसरेमें भी समभाव रखते हैं तो मुझसे बारंबार क्यों पूछते हैं कि ‘आप कौन हैं और किसकी हैं?’॥१२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं मे स्यादिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य मैथिल।
कासि कस्य कुतो वेति वचनैः किं प्रयोजनम् ॥ १२९ ॥

मूलम्

इदं मे स्यादिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य मैथिल।
कासि कस्य कुतो वेति वचनैः किं प्रयोजनम् ॥ १२९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथिलानरेश! ‘यह मुझे प्राप्त हो जाय, यह न हो।’ इत्यादि रूपसे जो द्वन्द्वविषयक चिन्ता प्राप्त होती है, उससे यदि आप मुक्त हैं तो ‘आप कौन हैं? किसकी हैं? अथवा कहाँसे आयी हैं?’ इन वचनोंद्वारा प्रश्न करनेसे आपका क्या प्रयोजन है?॥१२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रिपौ मित्रेऽथ मध्यस्थे विजये संधिविग्रहे।
कृतवान्‌ यो महीपालः किं तस्मिन्‌ मुक्तलक्षणम् ॥ १३० ॥

मूलम्

रिपौ मित्रेऽथ मध्यस्थे विजये संधिविग्रहे।
कृतवान्‌ यो महीपालः किं तस्मिन्‌ मुक्तलक्षणम् ॥ १३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रु-मित्र और मध्यस्थके विषयमें, विजय, संधि और विग्रहके अवसरोंपर जिस भूपालने यथोचित कार्य किये हैं, उसमें जीवन्मुक्तका क्या लक्षण है?॥१३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिवर्गं सप्तधा व्यक्तं यो न वेदेह कर्मसु।
सङ्गवान्‌ यस्त्रिवर्गेण किं तस्मिन्‌ मुक्तलक्षणम् ॥ १३१ ॥

मूलम्

त्रिवर्गं सप्तधा व्यक्तं यो न वेदेह कर्मसु।
सङ्गवान्‌ यस्त्रिवर्गेण किं तस्मिन्‌ मुक्तलक्षणम् ॥ १३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म, अर्थ और कामको त्रिवर्ग कहते हैं। यह सात रूपोंमें अभिव्यक्त होता है। जो कर्मोंमें इस त्रिवर्गको नहीं जानता तथा जो सदा त्रिवर्गसे सम्बन्ध रखता है, ऐसे पुरुषमें जीवन्मुक्तका क्या लक्षण है?॥१३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रिये वाप्यप्रिये वापि दुर्बले बलवत्यपि।
यस्य नास्ति समं चक्षुः किं तस्मिन्‌ मुक्तलक्षणम् ॥ १३२ ॥

मूलम्

प्रिये वाप्यप्रिये वापि दुर्बले बलवत्यपि।
यस्य नास्ति समं चक्षुः किं तस्मिन्‌ मुक्तलक्षणम् ॥ १३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय अथवा अप्रियमें, दुर्बल अथवा बलवान्‌में जिसकी समदृष्टि नहीं है, उसमें मुक्तका क्या लक्षण है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदयुक्तस्य ते मोक्षे योऽभिमानो भवेन्नृप।
सुहृद्भिः संनिवार्यस्तेऽविरक्तस्येव भेषजम् ॥ १३३ ॥

मूलम्

तदयुक्तस्य ते मोक्षे योऽभिमानो भवेन्नृप।
सुहृद्भिः संनिवार्यस्तेऽविरक्तस्येव भेषजम् ॥ १३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! वास्तवमें आप योगयुक्त नहीं हैं तथापि आपको जो जीवन्मुक्तिका अभिमान हो रहा है, वह आपके सुहृदोंको दूर कर देना चाहिये अर्थात् यह नहीं मानना चाहिये कि आप जीवन्मुक्त हैं, ठीक उसी तरह जैसे अपथ्यशील रोगीको दवा देना बंद कर दिया जाता है॥१३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि तानि तु संचिन्त्य सङ्गस्थानान्यरिंदम।
आत्मनाऽऽत्मनि सम्पश्येत् किमन्यन्मुक्तलक्षणम् ॥ १३४ ॥

मूलम्

तानि तानि तु संचिन्त्य सङ्गस्थानान्यरिंदम।
आत्मनाऽऽत्मनि सम्पश्येत् किमन्यन्मुक्तलक्षणम् ॥ १३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंका दमन करनेवाले महाराज! नाना प्रकारके जो-जो पदार्थ हैं, उन सबको आसक्तिके स्थान समझकर अपने द्वारा अपनेहीमें अपनेको देखे। इसके सिवा मुक्तका और क्या लक्षण हो सकता है?॥१३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमान्यन्यानि सूक्ष्माणि मोक्षमाश्रित्य कानिचित्।
चतुरङ्गप्रवृत्तानि सङ्गस्थानानि मे शृणु ॥ १३५ ॥

मूलम्

इमान्यन्यानि सूक्ष्माणि मोक्षमाश्रित्य कानिचित्।
चतुरङ्गप्रवृत्तानि सङ्गस्थानानि मे शृणु ॥ १३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अपने मोक्षका आश्रय लेकर भी ये और दूसरे जो कुछ चार अंगोंमें प्रवृत्त आसक्तिके जो सूक्ष्म स्थान हैं, उनको भी अपना रखा है, उन्हें बताती हूँ, आप मुझसे सुनें॥१३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इमां पृथिवीं कृत्स्नामेकच्छत्रां प्रशास्ति ह।
एक एव स वै राजा पुरमध्यावसत्युत ॥ १३६ ॥

मूलम्

य इमां पृथिवीं कृत्स्नामेकच्छत्रां प्रशास्ति ह।
एक एव स वै राजा पुरमध्यावसत्युत ॥ १३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस सारी पृथ्वीका एकच्छत्र शासन करता है, वह एक ही सार्वभौम नरेश भी एकमात्र नगरमें ही निवास करता है॥१३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्पुरे चैकमेवास्य गृहं यदधितिष्ठति।
गृहे शयनमप्येकं निशायां यत्र लीयते ॥ १३७ ॥

मूलम्

तत्पुरे चैकमेवास्य गृहं यदधितिष्ठति।
गृहे शयनमप्येकं निशायां यत्र लीयते ॥ १३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नगरमें भी उसके लिये एक ही महल होता है, जिसमें वह निवास करता है। उस महलमें भी उसके लिये एक ही शय्या होती है, जिसपर वह रातमें सोता है॥१३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शय्यार्धं तस्य चाप्यत्र स्त्रीपूर्वमधितिष्ठति।
तदनेन प्रसङ्गेन फलेनैवेह युज्यते ॥ १३८ ॥

मूलम्

शय्यार्धं तस्य चाप्यत्र स्त्रीपूर्वमधितिष्ठति।
तदनेन प्रसङ्गेन फलेनैवेह युज्यते ॥ १३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस शय्याके भी आधे भागपर राजाकी स्त्रीका अधिकार होता है; अतः इस प्रसंगसे वह बहुत अल्प फलका ही भागी होता है॥१३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेवोपभोगेषु भोजनाच्छादनेषु च ।
गुणेषु परिमेयेषु निग्रहानुग्रहं प्रति ॥ १३९ ॥
परतन्त्रः सदा राजा स्वल्पेष्वपि प्रसज्जते।
संधिविग्रहयोगे च कुतो राज्ञः स्वतन्त्रता ॥ १४० ॥

मूलम्

एवमेवोपभोगेषु भोजनाच्छादनेषु च ।
गुणेषु परिमेयेषु निग्रहानुग्रहं प्रति ॥ १३९ ॥
परतन्त्रः सदा राजा स्वल्पेष्वपि प्रसज्जते।
संधिविग्रहयोगे च कुतो राज्ञः स्वतन्त्रता ॥ १४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार उपभोग, भोजन, आच्छादन तथा अन्यान्य परिमित विषयोंके सेवनमें और दुष्टोंके दमन एवं शिष्ट पुरुषोंके प्रति अनुग्रहके विषयमें भी राजा सदा ही परतन्त्र है। इसी प्रकार वह बहुत थोड़े कार्योंमें भी स्वतन्त्र नहीं है तो भी उनमें आसक्त रहता है। संधि और विग्रह करनेमें भी राजाको कहाँ स्वतन्त्रता प्राप्त है?॥१३९-१४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीषु क्रीडाविहारेषु नित्यमस्यास्वतन्त्रता ।
मन्त्रे चामात्यसमितौ कुतस्तस्य स्वतन्त्रता ॥ १४१ ॥

मूलम्

स्त्रीषु क्रीडाविहारेषु नित्यमस्यास्वतन्त्रता ।
मन्त्रे चामात्यसमितौ कुतस्तस्य स्वतन्त्रता ॥ १४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री-सहवास, क्रीड़ा और विहारमें भी उसे सदा परतन्त्रता रहती है। मन्त्रियोंकी सभामें बैठकर मन्त्रणा करते समय भी उसे कहाँ स्वतन्त्रता रहती है॥१४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा ह्याज्ञापयत्यन्यांस्तत्रास्योक्ता स्वतन्त्रता ।
अवशः कार्य ते तत्र तस्मिंस्तस्मिन् क्षणे स्थितः ॥ १४२ ॥

मूलम्

यदा ह्याज्ञापयत्यन्यांस्तत्रास्योक्ता स्वतन्त्रता ।
अवशः कार्य ते तत्र तस्मिंस्तस्मिन् क्षणे स्थितः ॥ १४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जिस समय दूसरोंको कुछ करनेकी आज्ञा देता है, उस समय वहाँ उसकी स्वतन्त्रता बतायी जाती है; परंतु ऐसे अवसरोंपर भी भिन्न-भिन्न क्षणोंमें राजासनपर बैठा हुआ नरेश सलाह देनेवाले मन्त्रियोंद्वारा अपनी इच्छाके विपरीत करनेके लिये विवश कर दिया जाता है॥१४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वप्नकामो न लभते स्वप्तुं कार्यार्थिभिर्जनैः।
शयने चाप्यनुज्ञातः सुप्त उत्थाप्यतेऽवशः ॥ १४३ ॥

मूलम्

स्वप्नकामो न लभते स्वप्तुं कार्यार्थिभिर्जनैः।
शयने चाप्यनुज्ञातः सुप्त उत्थाप्यतेऽवशः ॥ १४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सोना चाहता है, परंतु कार्यार्थी मनुष्योंद्वारा घिरा रहनेके कारण सोने नहीं पाता। शय्यापर सोये हुए राजाको भी लोगोंके अनुरोधसे विवश होकर उठना पड़ता है॥१४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नाह्यालभ पिब प्राश जुहुध्यग्नीन् यजेत्यपि।
ब्रवीहि शृणु चापीति विवशः कार्यते परैः ॥ १४४ ॥

मूलम्

स्नाह्यालभ पिब प्राश जुहुध्यग्नीन् यजेत्यपि।
ब्रवीहि शृणु चापीति विवशः कार्यते परैः ॥ १४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! स्नान कीजिये, तेल लगवाइये, पानी पीजिये, भोजन कीजिये, आहुति दीजिये, अग्निहोत्रमें संलग्न होइये, अपनी कहिये और दूसरोंकी सुनिये।’ इत्यादि बातें कह-कहकर दूसरे लोग राजाको वैसा करनेके लिये विवश कर देते हैं॥१४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिगम्याभिगम्यैवं याचन्ते सततं नराः।
न चाप्युत्सहते दातुं वित्तरक्षी महाजनान् ॥ १४५ ॥

मूलम्

अभिगम्याभिगम्यैवं याचन्ते सततं नराः।
न चाप्युत्सहते दातुं वित्तरक्षी महाजनान् ॥ १४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

याचक मनुष्य सदा निकट आ-आकर राजासे धनकी याचना करते हैं; किंतु जो लोग दानके श्रेष्ठ पात्र हैं, उनके लिये भी वह कुछ देनेका साहस नहीं करता। अपने धनको सर्वथा सुरक्षित रखना चाहता है॥१४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाने कोषक्षयोऽप्यस्य वैरं चास्याप्रयच्छतः।
क्षणेनास्योपवर्तन्ते दोषा वैराग्यकारकाः ॥ १४६ ॥

मूलम्

दाने कोषक्षयोऽप्यस्य वैरं चास्याप्रयच्छतः।
क्षणेनास्योपवर्तन्ते दोषा वैराग्यकारकाः ॥ १४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि सबको धनका दान करे तो उसका खजाना ही खाली हो जाय और किसीको कुछ न दे तो सबके साथ वैर बढ़ जाय। उसके सामने क्षण-क्षणमें ऐसे दोष उपस्थित होते हैं, जो उसे राज-काजसे विरक्त कर देते हैं॥१४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राज्ञान् शूरांस्तथैवाढ्यानेकस्थानपि शङ्कते ।
भयमप्यभये राज्ञो यैश्च नित्यमुपास्यते ॥ १४७ ॥

मूलम्

प्राज्ञान् शूरांस्तथैवाढ्यानेकस्थानपि शङ्कते ।
भयमप्यभये राज्ञो यैश्च नित्यमुपास्यते ॥ १४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वानों, शूरवीरों तथा धनियोंको भी जब वह एक स्थानपर जुटा हुआ देख लेता है, तब उसके मनमें उनके प्रति शंका उत्पन्न हो जाती है। जहाँ भयका कोई कारण नहीं है, वहाँ भी राजाको भय होता है। जो लोग सदा उसके पास उठते-बैठते या सेवामें रहते हैं, उनसे भी वह सशंक बना रहता है॥१४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा चैते प्रदुष्यन्ति राजन् ये कीर्तिता मया।
तथैवास्य भयं तेभ्यो जायते पश्य यादृशम् ॥ १४८ ॥

मूलम्

तथा चैते प्रदुष्यन्ति राजन् ये कीर्तिता मया।
तथैवास्य भयं तेभ्यो जायते पश्य यादृशम् ॥ १४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैंने जिनका नाम लिया है, वे विद्वान् और शूरवीर आदि अपने प्रति राजाकी आशंका देखकर सचमुच ही उसके प्रति दुर्भाव रखने लगते हैं और फिर उनसे राजाको जैसा भय प्राप्त होता है, उसको आप स्वयं ही समझ लें॥१४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वः स्वे स्वे गृहे राजा सर्वः स्वे स्वे गृहे गृही।
निग्रहानुग्रहान् कुर्वंस्तुल्यो जनक राजभिः ॥ १४९ ॥

मूलम्

सर्वः स्वे स्वे गृहे राजा सर्वः स्वे स्वे गृहे गृही।
निग्रहानुग्रहान् कुर्वंस्तुल्यो जनक राजभिः ॥ १४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनक! सब लोग अपने-अपने घरमें राजा हैं और सभी अपने-अपने घरमें गृहस्वामी हैं, सभी किसीको दण्ड देते और किसीपर अनुग्रह करते हैं; अतः वे सब लोग राजाओंके समान ही हैं॥१४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रा दारास्तथैवात्मा कोशो मित्राणि संचयाः।
परैः साधारणा ह्येते तैस्तैरेवास्य हेतुभिः ॥ १५० ॥

मूलम्

पुत्रा दारास्तथैवात्मा कोशो मित्राणि संचयाः।
परैः साधारणा ह्येते तैस्तैरेवास्य हेतुभिः ॥ १५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री, पुत्र, शरीर, कोष, मित्र तथा संग्रह—ये सब वस्तुएँ राजाओंकी भाँति दूसरोंके पास भी साधारणतया रहते ही हैं। जिन कारणोंसे वह राजा कहलाता है, उन्हीं युक्तियोंसे दूसरे लोग भी उसके समान ही कहे जा सकते हैं॥१५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतो देशः पुरं दग्धं प्रधानः कुञ्जरो मृतः।
लोकसाधारणेष्वेषु मिथ्याज्ञानेन तप्यते ॥ १५१ ॥

मूलम्

हतो देशः पुरं दग्धं प्रधानः कुञ्जरो मृतः।
लोकसाधारणेष्वेषु मिथ्याज्ञानेन तप्यते ॥ १५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! देश नष्ट हो गया, सारा नगर आगसे जल गया और वह प्रधान हाथी मर गया।’ यद्यपि ये सब बातें सब लोगोंके लिये साधारण हैं—सबपर समान रूपसे ये कष्ट प्राप्त होते हैं तथापि राजा अपने मिथ्याज्ञानके कारण केवल अपनी ही हानि समझकर संतप्त होता रहता है॥१५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमुक्तो मानसैर्दुःखैरिच्छाद्वेषभयोद्भवैः ।
शिरोरोगादिभी रोगैस्तथैवाभिनियन्तृभिः ॥ १५२ ॥

मूलम्

अमुक्तो मानसैर्दुःखैरिच्छाद्वेषभयोद्भवैः ।
शिरोरोगादिभी रोगैस्तथैवाभिनियन्तृभिः ॥ १५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इच्छा, द्वेष और भयजनित मानसिक दुःख राजाको कभी नहीं छोड़ते हैं। सिरदर्द आदि शारीरिक रोग भी उसे सब ओरसे नियन्त्रणमें रखकर व्याकुल किये रहते हैं॥१५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वन्द्वैस्तैस्तैस्त्वपहतः सर्वतः परिशङ्कितः ।
बहुप्रत्यर्थिकं राज्यमुपास्ते गणयन्निशाः ॥ १५३ ॥

मूलम्

द्वन्द्वैस्तैस्तैस्त्वपहतः सर्वतः परिशङ्कितः ।
बहुप्रत्यर्थिकं राज्यमुपास्ते गणयन्निशाः ॥ १५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह नाना प्रकारके द्वन्द्वोंसे आहत और सब ओरसे शंकित हो रातें गिनता हुआ अनेक शत्रुओंसे भरे हुए राज्यका सेवन करता है॥१५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदल्पसुखमत्यर्थं बहुदुःखमसारवत् ।
तृणाग्निज्वलनप्रख्यं फेनबुद्‌बुदसंनिभम् ॥ १५४ ॥
को राज्यमभिपद्येत प्राप्य चोपशमं लभेत्।

मूलम्

तदल्पसुखमत्यर्थं बहुदुःखमसारवत् ।
तृणाग्निज्वलनप्रख्यं फेनबुद्‌बुदसंनिभम् ॥ १५४ ॥
को राज्यमभिपद्येत प्राप्य चोपशमं लभेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें सुख तो बहुत थोड़ा, किंतु दुःख बहुत अधिक है, जो सर्वथा सारहीन है, जो घास-फूसमें लगी आगके समान क्षणस्थायी और फेन तथा बुद्‌बुदके समान क्षणभंगुर है, ऐसे राज्यको कौन ग्रहण करेगा? और ग्रहण कर लेनेपर कौन शान्ति पा सकता है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममेदमिति यच्चेदं पुरं राष्ट्रं च मन्यसे ॥ १५५ ॥
बलं कोशममात्यांश्च कस्यैतानि न वा नृप।

मूलम्

ममेदमिति यच्चेदं पुरं राष्ट्रं च मन्यसे ॥ १५५ ॥
बलं कोशममात्यांश्च कस्यैतानि न वा नृप।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! आप जो इस नगरको, राष्ट्रको, सेनाको तथा कोष और मन्त्रियोंको भी ‘ये सब मेरे हैं’ ऐसा कहते हुए अपना मानते हैं, वह आपका भ्रम ही है। मैं पूछती हूँ, ये सब किसके हैं और किसके नहीं हैं?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मित्रामात्यपुरं राष्ट्रं दण्डः कोशो महीपतिः ॥ १५६ ॥
सप्ताङ्गस्यास्य राज्यस्य त्रिदण्ड्यस्येव तिष्ठतः।
अन्योन्यगुणयुक्तस्य कः केन गुणतोऽधिकः ॥ १५७ ॥

मूलम्

मित्रामात्यपुरं राष्ट्रं दण्डः कोशो महीपतिः ॥ १५६ ॥
सप्ताङ्गस्यास्य राज्यस्य त्रिदण्ड्यस्येव तिष्ठतः।
अन्योन्यगुणयुक्तस्य कः केन गुणतोऽधिकः ॥ १५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मित्र, मन्त्री, नगर, राष्ट्र, दण्ड, कोष और राजा-ये राज्यके सात अंग हैं। जैसे मेरे हाथमें त्रिदण्ड है, वैसे आपके हाथमें यह राज्य स्थित है। आपका सात अंगोंवाला राज्य और मेरा त्रिदण्ड-ये दोनों परस्पर उत्कृष्ट गुणोंसे युक्त हैं। फिर इनमेंसे कौन किस गुणके कारण अधिक है?॥१५६-१५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषु तेषु हि कालेषु तत्तदङ्गं विशिष्यते।
येन यत् सिध्यते कार्यं तत् प्राधान्याय कल्पते ॥ १५८ ॥

मूलम्

तेषु तेषु हि कालेषु तत्तदङ्गं विशिष्यते।
येन यत् सिध्यते कार्यं तत् प्राधान्याय कल्पते ॥ १५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राज्यके जो सात अंग हैं, उनमें सभी समय-समयपर अपनी विशिष्टता सिद्ध करते हैं। जिस अंगसे जो कार्य सिद्ध होता है, उसके लिये उसीकी प्रधानता मानी जाती है॥१५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्ताङ्गश्चैव संघातस्त्रयश्चान्ये नृपोत्तम ।
सम्भूय दशवर्गोऽयं भुङ्क्ते राज्यं हि राजवत् ॥ १५९ ॥

मूलम्

सप्ताङ्गश्चैव संघातस्त्रयश्चान्ये नृपोत्तम ।
सम्भूय दशवर्गोऽयं भुङ्क्ते राज्यं हि राजवत् ॥ १५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! उक्त सात अंगोंका समुदाय और तीन अन्य शक्तियाँ (प्रभु-शक्ति, उत्साहशक्ति और मन्त्रशक्ति)—ये सब मिलकर राज्यके दस वर्ग हैं। ये दसों वर्ग संगठित होकर राजाके समान ही राज्यका उपभोग करते हैं॥१५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्च राजा महोत्साहः क्षत्रधर्मे रतो भवेत्।
स तुष्येद् दशभागेन ततस्त्वन्यो दशावरैः ॥ १६० ॥

मूलम्

यश्च राजा महोत्साहः क्षत्रधर्मे रतो भवेत्।
स तुष्येद् दशभागेन ततस्त्वन्यो दशावरैः ॥ १६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा महान् उत्साही और क्षत्रिय-धर्ममें तत्पर होता है, वह ‘कर’ के रूपमें प्रजाकी आयका दसवाँ भाग लेकर संतुष्ट हो जाता है तथा उससे भिन्न साधारण भूपाल दसवें भागसे कम लेकर भी संतोष कर लेते हैं॥१६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्त्यसाधारणो राजा नास्ति राज्यमराजकम्।
राज्येऽसति कुतो धर्मो धर्मेऽसति कुतः परम् ॥ १६१ ॥

मूलम्

नास्त्यसाधारणो राजा नास्ति राज्यमराजकम्।
राज्येऽसति कुतो धर्मो धर्मेऽसति कुतः परम् ॥ १६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधारण प्रजा न हो तो कोई राजा नहीं हो सकता। राजा न हो तो राज्य नहीं टिक सकता। राज्य न हो तो धर्म कैसे रह सकता है और धर्म न हो तो परमात्माकी प्राप्ति कैसे हो सकती है?॥१६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽप्यत्र परमो धर्मः पवित्रं राजराज्ययोः।
पृथिवी दक्षिणा यस्य सोऽश्वमेधेन युज्यते ॥ १६२ ॥

मूलम्

योऽप्यत्र परमो धर्मः पवित्रं राजराज्ययोः।
पृथिवी दक्षिणा यस्य सोऽश्वमेधेन युज्यते ॥ १६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ राजा और राज्यके लिये जो परम धर्म और परम पवित्र वस्तु है, उसे सुनिये। जिसकी पृथ्वी दक्षिणा-रूपमें दे दी जाती है अर्थात् जो अपनी राज्यभूमिका दान कर देता है, वह अश्वमेध यज्ञके पुण्यफलका भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहमेतानि कर्माणि राजदुःखानि मैथिल।
समर्था शतशो वक्तुमथवापि सहस्रशः ॥ १६३ ॥

मूलम्

साहमेतानि कर्माणि राजदुःखानि मैथिल।
समर्था शतशो वक्तुमथवापि सहस्रशः ॥ १६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथिलानरेश! जो राजाको दुःख देनेवाले हैं, ऐसे सैकड़ों और हजारों कर्म मैं यहाँ बता सकती हूँ॥१६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वदेहेनाभिषङ्गो मे कुतः परपरिग्रहे।
न मामेवंविधां युक्तामीदृशं वक्तुमर्हसि ॥ १६४ ॥

मूलम्

स्वदेहेनाभिषङ्गो मे कुतः परपरिग्रहे।
न मामेवंविधां युक्तामीदृशं वक्तुमर्हसि ॥ १६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी तो अपने ही शरीरमें आसक्ति नहीं है, फिर दूसरेके शरीरमें कैसे हो सकती है? इस प्रकार योगयुक्त रहनेवाली मुझ संन्यासिनीके प्रति आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये॥१६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु नाम त्वया मोक्षः कृत्स्नः पञ्चशिखाच्छ्रुतः।
सोपायः सोपनिषदः सोपासङ्गः सनिश्चयः ॥ १६५ ॥
तस्य ते मुक्तसङ्गस्य पाशानाक्रम्य तिष्ठतः।
छत्रादिषु विशेषेषु पुनः सङ्गः कथं नृप ॥ १६६ ॥

मूलम्

ननु नाम त्वया मोक्षः कृत्स्नः पञ्चशिखाच्छ्रुतः।
सोपायः सोपनिषदः सोपासङ्गः सनिश्चयः ॥ १६५ ॥
तस्य ते मुक्तसङ्गस्य पाशानाक्रम्य तिष्ठतः।
छत्रादिषु विशेषेषु पुनः सङ्गः कथं नृप ॥ १६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जब आपने महर्षि पंचशिखाचार्यसे उपाय (निदिध्यासन), उपनिषद् (उसके श्रवण-मनन), उपासंग (यम-नियम आदि योगाङ्ग) और निश्चय (ब्रह्म और जीवात्माकी एकताका अनुभव)—इन सबके सहित सम्पूर्ण मोक्षशास्त्रका श्रवण किया है, आप आसक्तियोंसे मुक्त हो गये हैं और सम्पूर्ण बन्धनोंको काटकर खड़े हैं, तब आपकी छत्र-चवँर आदि विशेष-विशेष वस्तुओंमें आसक्ति कैसे हो रही है?॥१६५-१६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं ते न श्रुतं मन्ये मृषा वापि श्रुतं श्रुतम्।
अथवा श्रुतसंकाशं श्रुतमन्यच्छ्रुतं त्वया ॥ १६७ ॥

मूलम्

श्रुतं ते न श्रुतं मन्ये मृषा वापि श्रुतं श्रुतम्।
अथवा श्रुतसंकाशं श्रुतमन्यच्छ्रुतं त्वया ॥ १६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं समझती हूँ कि आपने पंचशिखाचार्यसे शास्त्रका श्रवण करके भी श्रवण नहीं किया है अथवा उनसे यदि कोई शास्त्र सुना है तो उसे सुनकर भी मिथ्या कर दिया है; या यह भी हो सकता है कि आपने वेदशास्त्र-जैसा प्रतीत होनेवाला कोई और ही शास्त्र उनसे सुना हो॥१६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापीमासु संज्ञासु लौकिकीषु प्रतिष्ठसे।
अभिषङ्गावरोधाभ्यां बद्धस्त्वं प्राकृतो यथा ॥ १६८ ॥

मूलम्

अथापीमासु संज्ञासु लौकिकीषु प्रतिष्ठसे।
अभिषङ्गावरोधाभ्यां बद्धस्त्वं प्राकृतो यथा ॥ १६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेपर भी यदि आप ‘विदेहराज’ ‘मिथिलापति’ आदि इन लौकिक नामोंमें ही प्रतिष्ठित हो रहे हैं तो आप दूसरे साधारण मनुष्योंकी भाँति आसक्ति और अवरोधसे ही बँधे हुए हैं॥१६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वेनानुप्रवेशो हि योऽयं त्वयि कृतो मया।
किं तवापकृतं तत्र यदि मुक्तोऽसि सर्वशः ॥ १६९ ॥

मूलम्

सत्त्वेनानुप्रवेशो हि योऽयं त्वयि कृतो मया।
किं तवापकृतं तत्र यदि मुक्तोऽसि सर्वशः ॥ १६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आप सर्वथा मुक्त हैं तो मैंने जो बुद्धिके द्वारा आपके भीतर प्रवेश किया है, इसमें आपका क्या अपराध किया है?॥१६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नियमो ह्येषु वर्णेषु यतीनां शून्यवासिता।
शून्यमावेशयन्त्या च मया किं कस्य दूषितम् ॥ १७० ॥

मूलम्

नियमो ह्येषु वर्णेषु यतीनां शून्यवासिता।
शून्यमावेशयन्त्या च मया किं कस्य दूषितम् ॥ १७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सभी वर्णोंमें यह नियम प्रसिद्ध है कि संन्यासियोंको एकान्त स्थानमें रहना चाहिये। मैंने भी आपके शून्य शरीरमें निवास करके किसकी किस वस्तुको दूषित कर दिया है?॥१७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पाणिभ्यां न बाहुभ्यां पादोरुभ्यां न चानघ।
न गात्रावयवैरन्यैः स्पृशामि त्वां नराधिप ॥ १७१ ॥

मूलम्

न पाणिभ्यां न बाहुभ्यां पादोरुभ्यां न चानघ।
न गात्रावयवैरन्यैः स्पृशामि त्वां नराधिप ॥ १७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश! न तो हाथोंसे, न भुजाओंसे, न पैरोंसे, न जाँघोंसे और न शरीरके दूसरे ही अवयवोंसे मैं आपका स्पर्श कर रही हूँ॥१७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुले महति जातेन ह्रीमता दीर्घदर्शिना।
नैतत्सदसि वक्तव्यं सद्वाऽसद्वा मिथः कृतम् ॥ १७२ ॥

मूलम्

कुले महति जातेन ह्रीमता दीर्घदर्शिना।
नैतत्सदसि वक्तव्यं सद्वाऽसद्वा मिथः कृतम् ॥ १७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप महान् कुलमें उत्पन्न, लज्जाशील तथा दीर्घदर्शी पुरुष हैं। हम दोनोंने परस्पर भला या बुरा जो कुछ भी किया है, उसे आपको इस भरी सभामें नहीं कहना चाहिये॥१७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणा गुरवश्चेमे तथा मान्या गुरूत्तमाः।
त्वं चाथ गुरुरप्येषामेवमन्योन्यगौरवम् ॥ १७३ ॥

मूलम्

ब्राह्मणा गुरवश्चेमे तथा मान्या गुरूत्तमाः।
त्वं चाथ गुरुरप्येषामेवमन्योन्यगौरवम् ॥ १७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ ये सभी वर्णोंके गुरु ब्राह्मण विद्यमान हैं। इन गुरुओंकी अपेक्षा भी उत्तम कितने ही माननीय महापुरुष यहाँ बैठे हैं तथा आप भी राजा होनेके कारण इन सबके लिये गुरुस्वरूप हैं। इस प्रकार आप सबका गौरव एक दूसरेपर अवलम्बित है॥१७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेवमनुसंदृश्य वाच्यावाच्यं परीक्षता ।
स्त्रीपुंसोः समवायोऽयं त्वया वाच्यो न संसदि ॥ १७४ ॥

मूलम्

तदेवमनुसंदृश्य वाच्यावाच्यं परीक्षता ।
स्त्रीपुंसोः समवायोऽयं त्वया वाच्यो न संसदि ॥ १७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः इस प्रकार विचार करके यहाँ क्या कहना चाहिये और क्या नहीं, इसको जाँच-बूझ लेना आवश्यक है। इस भरी सभामें आपको स्त्री-पुरुषोंके संयोगकी चर्चा कदापि नहीं करनी चाहिये॥१७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा पुष्करपर्णस्थं जलं तत्पर्णमस्पृशत्।
तिष्ठत्यस्पृशती तद्वत् त्वयि वत्स्यामि मैथिल ॥ १७५ ॥

मूलम्

यथा पुष्करपर्णस्थं जलं तत्पर्णमस्पृशत्।
तिष्ठत्यस्पृशती तद्वत् त्वयि वत्स्यामि मैथिल ॥ १७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथिलानरेश! जैसे कमलके पत्तेपर पड़ा हुआ जल उस पत्तेका स्पर्श नहीं करता है, उसी प्रकार मैं आपका स्पर्श न करती हुई आपके भीतर निवास करूँगी॥१७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि वाप्यस्पृशन्त्या मे स्पर्शं जानासि कञ्चन।
ज्ञानं कृतमबीजं ते कथं तेनेह भिक्षुणा ॥ १७६ ॥

मूलम्

यदि वाप्यस्पृशन्त्या मे स्पर्शं जानासि कञ्चन।
ज्ञानं कृतमबीजं ते कथं तेनेह भिक्षुणा ॥ १७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि मैं स्पर्श नहीं कर रही हूँ तो भी यदि आप मेरे स्पर्शका अनुभव करते हैं तो मुझे यह कहना पड़ता है कि उन संन्यासी महात्मा पंचशिखने आपको ज्ञानका उपदेश कैसे कर दिया? क्योंकि आपने उसे निर्बीज कर दिया?॥१७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गार्हस्थ्याच्च्युतश्च त्वं मोक्षं चानाप्य दुर्विदम्।
उभयोरन्तराले वै वर्तसे मोक्षवार्तिकः ॥ १७७ ॥

मूलम्

स गार्हस्थ्याच्च्युतश्च त्वं मोक्षं चानाप्य दुर्विदम्।
उभयोरन्तराले वै वर्तसे मोक्षवार्तिकः ॥ १७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परस्त्रीके स्पर्शका अनुभव करनेके कारण आप गार्हस्थ्यधर्मसे तो गिर गये और दुर्बोध एवं दुर्लभ मोक्ष भी नहीं पा सके, अतः केवल मोक्षकी बात करते हुए आप गार्हस्थ्य और मोक्ष दोनोंके बीचमें लटक रहे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मुक्तस्य मुक्तेन ज्ञस्यैकत्वपृथक्त्वयोः।
भावाभावसमायोगे जायते वर्णसंकरः ॥ १७८ ॥

मूलम्

न हि मुक्तस्य मुक्तेन ज्ञस्यैकत्वपृथक्त्वयोः।
भावाभावसमायोगे जायते वर्णसंकरः ॥ १७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवन्मुक्त ज्ञानीका जीवन्मुक्त ज्ञानीके साथ, एकत्वका पृथक्त्वके साथ तथा भाव (आत्मा) का अभाव (प्रकृति) के साथ संयोग होनेपर वर्णसंकरताकी उत्पत्ति नहीं हो सकती॥१७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णाश्रमाः पृथक्त्वेन दृष्टार्थस्यापृथक्त्विनः ।
नान्यदन्यदिति ज्ञात्वा नान्यदन्यत्र वर्तते ॥ १७९ ॥

मूलम्

वर्णाश्रमाः पृथक्त्वेन दृष्टार्थस्यापृथक्त्विनः ।
नान्यदन्यदिति ज्ञात्वा नान्यदन्यत्र वर्तते ॥ १७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं मानती हूँ कि समस्त वर्ण और आश्रम पृथक्-पृथक् बताये गये हैं। तथापि जिसे ब्रह्मका साक्षात्कार हो गया है, जो अभेदज्ञानसे सम्पन्न है और यह जानकर सारा बर्ताव करता है कि आत्मासे भिन्न दूसरी किसी वस्तुकी सत्ता नहीं है तथा अन्य वस्तु अपनेसे भिन्न दूसरी वस्तुमें विद्यमान नहीं है, उसका किसी अन्यके साथ संयोग होना सम्भव नहीं है; अतः वर्णसंकरता नहीं हो सकती॥१७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणौ कुण्डं तथा कुण्डे पयः पयसि मक्षिका।
आश्रिताश्रययोगेन पृथक्त्वेनाश्रिताः पुनः ॥ १८० ॥

मूलम्

पाणौ कुण्डं तथा कुण्डे पयः पयसि मक्षिका।
आश्रिताश्रययोगेन पृथक्त्वेनाश्रिताः पुनः ॥ १८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथमें कुंडी है, कुंडीमें दूध है और दूधमें मक्खी पड़ी हुई है। ये तीनों परस्पर पृथक् होते हुए भी आधाराधेय-भाव सम्बन्धसे एक दूसरेके आश्रित हो एक साथ हो गये हैं॥१८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु कुण्डे पयोभावः पयश्चापि न मक्षिका।
स्वयमेवाप्नुवन्त्येते भावा ननु पराश्रयम् ॥ १८१ ॥

मूलम्

न तु कुण्डे पयोभावः पयश्चापि न मक्षिका।
स्वयमेवाप्नुवन्त्येते भावा ननु पराश्रयम् ॥ १८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भी कुंडीमें दुग्धत्व नहीं आया है और दूध भी मक्खी नहीं बन गया है। ये सारे आधेय पदार्थ स्वयं ही अपनेसे भिन्न आधारको प्राप्त होते हैं॥१८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथक्त्वादाश्रमाणां च वर्णान्यत्वे तथैव च।
परस्परपृथक्त्वाच्च कथं ते वर्णसंकरः ॥ १८२ ॥

मूलम्

पृथक्त्वादाश्रमाणां च वर्णान्यत्वे तथैव च।
परस्परपृथक्त्वाच्च कथं ते वर्णसंकरः ॥ १८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारे आश्रम पृथक्-पृथक् हैं तथा चारों वर्ण भी भिन्न हैं। जब इनमें परस्पर पार्थक्य बना हुआ है, तब पृथक्त्वको जाननेवाले आपके वर्णका संकर कैसे हो सकता है?॥१८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्मि वर्णोत्तमा जात्या न वैश्या नावरा तथा।
तव राजन् सवर्णास्मि शुद्धयोनिरविप्लुता ॥ १८३ ॥

मूलम्

नास्मि वर्णोत्तमा जात्या न वैश्या नावरा तथा।
तव राजन् सवर्णास्मि शुद्धयोनिरविप्लुता ॥ १८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं जातिसे ब्राह्मणी नहीं हूँ और न वैश्या अथवा शूद्रा ही हूँ। मैं तो आपके समान वर्णवाली क्षत्रिया ही हूँ। मेरा जन्म शुद्ध वंशमें हुआ है और मैंने अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन किया है॥१८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रधानो नाम राजर्षिर्व्यक्तं ते श्रोत्रमागतः।
कुले तस्य समुत्पन्नां सुलभां नाम विद्धि माम् ॥ १८४ ॥

मूलम्

प्रधानो नाम राजर्षिर्व्यक्तं ते श्रोत्रमागतः।
कुले तस्य समुत्पन्नां सुलभां नाम विद्धि माम् ॥ १८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने प्रधान नामक राजर्षिका नाम अवश्य सुना होगा। मैं उन्हींके कुलमें उत्पन्न हुई हूँ। आपको मालूम होना चाहिये कि मेरा नाम सुलभा है॥१८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणश्च शतशृङ्गश्च चक्रद्वारश्च पर्वतः।
मम सत्रेषु पूर्वेषां चिता मघवता सह ॥ १८५ ॥

मूलम्

द्रोणश्च शतशृङ्गश्च चक्रद्वारश्च पर्वतः।
मम सत्रेषु पूर्वेषां चिता मघवता सह ॥ १८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे पूर्वजोंके यज्ञोंमें देवराज इन्द्रके सहयोगसे द्रोण, शतशृंग और चक्रद्वार नामक पर्वत यज्ञवेदीमें ईंटोंकी जगह चुने गये थे॥१८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहं तस्मिन् कुले जाता भर्तर्यसति मद्‌विधे।
विनीता मोक्षधर्मेषु चराम्येका मुनिव्रतम् ॥ १८६ ॥

मूलम्

साहं तस्मिन् कुले जाता भर्तर्यसति मद्‌विधे।
विनीता मोक्षधर्मेषु चराम्येका मुनिव्रतम् ॥ १८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा जन्म उसी महान् कुलमें हुआ है। मैंने अपने योग्य पतिके न मिलनेपर मोक्षधर्मकी शिक्षा ली तथा मुनिव्रत धारण करके मैं अकेली विचरती रहती हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्मि सत्रप्रतिच्छन्ना न परस्वापहारिणी।
न धर्मसंकरकरी स्वधर्मेऽस्मि धृतव्रता ॥ १८७ ॥

मूलम्

नास्मि सत्रप्रतिच्छन्ना न परस्वापहारिणी।
न धर्मसंकरकरी स्वधर्मेऽस्मि धृतव्रता ॥ १८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने संन्यासिनीका छद्मवेष नहीं धारण किया है। मैं पराये धनका अपहरण नहीं करती हूँ और न धर्मसंकरता ही फैलाती हूँ। मैं दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करती हुई अपने धर्ममें स्थित रहती हूँ॥१८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्थिरा स्वप्रतिज्ञायां नासमीक्ष्य प्रवादिनी।
नासमीक्ष्यागता चेह त्वत्सकाशं जनाधिप ॥ १८८ ॥

मूलम्

नास्थिरा स्वप्रतिज्ञायां नासमीक्ष्य प्रवादिनी।
नासमीक्ष्यागता चेह त्वत्सकाशं जनाधिप ॥ १८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! मैं अपनी प्रतिज्ञासे कभी विचलित नहीं होती हूँ। बिना सोचे-समझे कोई बात नहीं बोलती हूँ और आपके पास भी यहाँ खूब सोच-विचारकर ही आयी हूँ॥१८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोक्षे ते भावितां बुद्धिं श्रुत्वाहं कुशलैषिणी।
तव मोक्षस्य चाप्यस्य जिज्ञासार्थमिहागता ॥ १८९ ॥

मूलम्

मोक्षे ते भावितां बुद्धिं श्रुत्वाहं कुशलैषिणी।
तव मोक्षस्य चाप्यस्य जिज्ञासार्थमिहागता ॥ १८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने सुना था कि आपकी बुद्धि मोक्षधर्ममें लगी हुई है, अतः आपकी मंगलाकांक्षिणी होकर आपके इस मोक्षज्ञानका मर्म जाननेके लिये मैं यहाँ आयी हूँ॥१८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वर्गस्था ब्रवीम्येतत् स्वपक्षपरपक्षयोः।
मुक्तो व्यायच्छते यश्च शान्तौ यश्च न शाम्याति ॥ १९० ॥

मूलम्

न वर्गस्था ब्रवीम्येतत् स्वपक्षपरपक्षयोः।
मुक्तो व्यायच्छते यश्च शान्तौ यश्च न शाम्याति ॥ १९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं स्वपक्ष और परपक्षमेंसे अपने पक्षमें स्थित हो पक्षपातपूर्वक यह बात नहीं कह रही हूँ, आपके हितको दृष्टिमें रखकर बोलती हूँ; क्योंकि जो वाणीका व्यायाम नहीं करता और जो शान्त परब्रह्ममें निमग्न रहता है, वही मुक्त है॥१९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा शून्ये पुरागारे भिक्षुरेकां निशां वसेत्।
तथाहं त्वच्छरीरेऽस्मिन्निमां वत्स्यामि शर्वरीम् ॥ १९१ ॥

मूलम्

यथा शून्ये पुरागारे भिक्षुरेकां निशां वसेत्।
तथाहं त्वच्छरीरेऽस्मिन्निमां वत्स्यामि शर्वरीम् ॥ १९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नगरके किसी सूने घरमें संन्यासी एक रात निवास कर लेता है, इसी तरह आपके इस शरीरमें मैं आजकी रात रहूँगी॥१९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहं मानप्रदानेन वागातिथ्येन चार्चिता।
सुप्ता सुशरणं प्रीता श्वो गमिष्यामि मैथिल ॥ १९२ ॥

मूलम्

साहं मानप्रदानेन वागातिथ्येन चार्चिता।
सुप्ता सुशरणं प्रीता श्वो गमिष्यामि मैथिल ॥ १९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने मुझे बड़ा सम्मान दिया। अपनी वाणीरूप आतिथ्यके द्वारा मेरा भलीभाँति सत्कार किया। मिथिलानरेश! अब मैं प्रसन्नतापूर्वक आपके शरीररूपी सुन्दर गृहमें सोकर कल सबेरे यहाँसे चली जाऊँगी॥१९२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतानि स वाक्यानि हेतुमन्त्यर्थवन्ति च।
श्रुत्वा नाधिजगौ राजा किञ्चिदन्यदतः परम् ॥ १९३ ॥

मूलम्

इत्येतानि स वाक्यानि हेतुमन्त्यर्थवन्ति च।
श्रुत्वा नाधिजगौ राजा किञ्चिदन्यदतः परम् ॥ १९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! सुलभाके ये युक्तियुक्त और सार्थक वचन सुनकर राजा जनक इसके बाद और कोई बात नहीं बोले॥१९३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सुलभाजनकसंवादे विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३२० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें सुलभा और जनकका संवादविषयक तीन सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३२०॥


  1. ‘इह घटो अस्ति (यहाँ घड़ा है)’—इत्यादि रूपसे जो सत्तासूचक व्यवहार होता है, उसका नाम ‘सद्‌भावयोग’ है। [^२]:‘इह घटो नास्ति (यहाँ घड़ा नहीं है)’—इत्यादि रूपसे जो असत्तासूचक व्यवहार होता है, वही ‘असद्‌भावयोग’ है। [^३]:यहाँ ‘विधि’ शब्दसे वासनाके बीजभूत धर्म और अधर्म समझने चाहिये। [^४]:वासनाका उद्बोधक संस्कार ही ‘शुक्र’ है। [^५]:वासनाके अनुसार विषयकी प्राप्तिके अनुकूल जो यत्न है, वही ‘बल’ है। ↩︎