भागसूचना
एकोनविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जरा-मृत्युका उल्लंघन करनेके विषयमें पञ्चशिख और राजा जनकका संवाद
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐश्वर्यं वा महत् प्राप्य धनं वा भरतर्षभ।
दीर्घमायुरवाप्याथ कथं मृत्युमतिक्रमेत् ॥ १ ॥
मूलम्
ऐश्वर्यं वा महत् प्राप्य धनं वा भरतर्षभ।
दीर्घमायुरवाप्याथ कथं मृत्युमतिक्रमेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! महान् ऐश्वर्य या प्रचुर धन अथवा बहुत बड़ी आयु पाकर मनुष्य किस तरह मृत्युका उल्लंघन कर सकता है?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा वा सुमहता कर्मणा वा श्रुतेन वा।
रसायनप्रयोगैर्वा कैर्नाप्नोति जरान्तकौ ॥ २ ॥
मूलम्
तपसा वा सुमहता कर्मणा वा श्रुतेन वा।
रसायनप्रयोगैर्वा कैर्नाप्नोति जरान्तकौ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह गुरुतर तपस्या करके, महान् कर्मोंका अनुष्ठान करके, वेद-शास्त्रोंका अध्ययन करके अथवा नाना प्रकारके रसायनोंका प्रयोग करके किन उपायोंद्वारा जरा और मृत्युको प्राप्त नहीं होता है?॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
भिक्षोः पञ्चशिखस्येह संवादं जनकस्य च ॥ ३ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
भिक्षोः पञ्चशिखस्येह संवादं जनकस्य च ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें विद्वान् पुरुष संन्यासी पंचशिख तथा राजा जनकके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदेहो जनको राजा महर्षिं वेदवित्तमम्।
पर्यपृच्छत् पञ्चशिखं छिन्नधर्मार्थसंशयम् ॥ ४ ॥
मूलम्
वैदेहो जनको राजा महर्षिं वेदवित्तमम्।
पर्यपृच्छत् पञ्चशिखं छिन्नधर्मार्थसंशयम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, विदेहदेशके राजा जनकने वेद-वेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षि पंचशिखसे, जिनके धर्म और अर्थ-विषयक संदेह नष्ट हो गये थे, इस प्रकार प्रश्न किया—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन वृत्तेन भगवन्नतिक्रामेज्जरान्तकौ ।
तपसा वाथ बुद्ध्या वा कर्मणा वा श्रुतेन वा॥५॥
मूलम्
केन वृत्तेन भगवन्नतिक्रामेज्जरान्तकौ ।
तपसा वाथ बुद्ध्या वा कर्मणा वा श्रुतेन वा॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! किस आचार, तपस्या, बुद्धि, कर्म अथवा शास्त्रज्ञानके द्वारा मनुष्य जरा और मृत्युको लाँघ सकता है?’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स वैदेहं प्रत्युवाचापरोक्षवित्।
निवृत्तिर्न तयोरस्ति नानिवृत्तिः कथञ्चन ॥ ६ ॥
मूलम्
एवमुक्तः स वैदेहं प्रत्युवाचापरोक्षवित्।
निवृत्तिर्न तयोरस्ति नानिवृत्तिः कथञ्चन ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके इस प्रकार पूछनेपर अपरोक्ष ज्ञानसे सम्पन्न महर्षि पंचशिखने विदेहराजको इस प्रकार उत्तर दिया—‘जरा और मृत्युकी निवृत्ति नहीं होती है, परंतु ऐसा भी नहीं है कि किसी प्रकार उनकी निवृत्ति हो ही नहीं सकती (धन और ऐश्वर्य आदिसे उनकी निवृत्ति नहीं होती, परंतु ज्ञानसे तो पुनर्जन्मकी भी निवृत्ति हो जाती है; फिर जरा और मृत्युकी तो बात ही क्या?)॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यहानि निवर्तन्ते न मासा न पुनः क्षपाः।
सोऽयं प्रपद्यतेऽध्वानं चिराय ध्रुवमध्रुवः ॥ ७ ॥
मूलम्
न ह्यहानि निवर्तन्ते न मासा न पुनः क्षपाः।
सोऽयं प्रपद्यतेऽध्वानं चिराय ध्रुवमध्रुवः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिन, रात और महीनोंके जो चक्र चल रहे हैं, वे किसीके टाले नहीं टलते हैं। इसी प्रकार जन्म, मृत्यु और जरा आदिके क्रम प्रायः चलते ही रहते हैं। जिसके जीवनका कुछ ठिकाना नहीं, वह मरणधर्मा मानव कभी दीर्घ-कालके पश्चात् नित्यपथ (मोक्षमार्ग) का आश्रय लेता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतसमुच्छेदः स्रोतसेवोह्यते सदा ।
ऊह्यमानं निमज्जन्तमप्लवे कालसागरे ॥ ८ ॥
जरामृत्युमहाग्राहे न कश्चिदभिपद्यते ।
मूलम्
सर्वभूतसमुच्छेदः स्रोतसेवोह्यते सदा ।
ऊह्यमानं निमज्जन्तमप्लवे कालसागरे ॥ ८ ॥
जरामृत्युमहाग्राहे न कश्चिदभिपद्यते ।
अनुवाद (हिन्दी)
काल समस्त प्राणियोंका उच्छेद कर डालता है। जैसे जलका प्रवाह किसी वस्तुको बहाये लिये जाता है, उसी प्रकार काल सदा ही प्राणियोंको अपने वेगसे बहाया करता है। यह काल बिना नौकाके समुद्रकी भाँति लहरा रहा है। जरा और मृत्यु विशाल ग्राहका रूप धारण करके उसमें बैठे हुए हैं। उस काल-सागरमें बहते और डूबते हुए जीवको कोई भी बचा नहीं सकता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवास्य कश्चिद् भवति नासौ भवति कस्यचित् ॥ ९ ॥
पथि सङ्गतमेवेदं दारैरन्यैश्च बन्धुभिः।
नायमत्यन्तसंवासो लब्धपूर्वो हि केनचित् ॥ १० ॥
मूलम्
नैवास्य कश्चिद् भवति नासौ भवति कस्यचित् ॥ ९ ॥
पथि सङ्गतमेवेदं दारैरन्यैश्च बन्धुभिः।
नायमत्यन्तसंवासो लब्धपूर्वो हि केनचित् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ इस जीवका कोई भी अपना नहीं है और वह भी किसीका अपना नहीं है। रास्तेमें मिले हुए राहगीरोंके समान यहाँ पत्नी तथा अन्य बन्धु-बान्धवोंका साथ हो जाता है, परंतु यहाँ पहले कभी किसीने किसीके साथ चिरकालतक सहवासका सुख नहीं उठाया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्यन्ते तेन तेनैव निष्टनन्तः पुनः पुनः।
कालेन जाता याता हि वायुनेवाभ्रसंचयाः ॥ ११ ॥
मूलम्
क्षिप्यन्ते तेन तेनैव निष्टनन्तः पुनः पुनः।
कालेन जाता याता हि वायुनेवाभ्रसंचयाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे गर्जते हुए बादलोंको हवा बारंबार उड़ाकर छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार काल यहाँ जन्म लेनेवाले प्राणियोंको उनके रोने-चिल्लानेपर भी विनाशकी आगमें झोंक देता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरामृत्यू हि भूतानां खादितारौ वृकाविव।
बलिनां दुर्बलानां च ह्रस्वानां महतामपि ॥ १२ ॥
मूलम्
जरामृत्यू हि भूतानां खादितारौ वृकाविव।
बलिनां दुर्बलानां च ह्रस्वानां महतामपि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई बलवान् हों या दुर्बल, बड़ा हों या छोटा, उन सब प्राणियोंको बुढ़ापा और मौत व्याघ्रकी भाँति खा जाती है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं भूतेषु भूतात्मा नित्यभूतोऽध्रुवेषु च।
कथं हि हृष्येज्जातेषु मृतेषु च कथं ज्वरेत् ॥ १३ ॥
मूलम्
एवं भूतेषु भूतात्मा नित्यभूतोऽध्रुवेषु च।
कथं हि हृष्येज्जातेषु मृतेषु च कथं ज्वरेत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब सभी प्राणी विनाशशील ही हैं, तब नित्य-स्वरूप जीवात्मा उन प्राणियोंके लिये जन्म लेनेपर हर्ष किसलिये माने और मर जानेपर शोक क्यों करे?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतोऽहमागतः कोऽस्मि क्व गमिष्यामि कस्य वा।
कस्मिन् स्थितः क्व भविता कस्मात्किमनुशोचसि ॥ १४ ॥
मूलम्
कुतोऽहमागतः कोऽस्मि क्व गमिष्यामि कस्य वा।
कस्मिन् स्थितः क्व भविता कस्मात्किमनुशोचसि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं कौन हूँ? कहाँसे आया हूँ? कहाँ जाऊँगा? किसके साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? किस स्थानमें स्थित होकर कहाँ फिर जन्म लूँगा? इन सब बातोंको लेकर तुम किसलिये क्या शोक कर रहे हो?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रष्टा स्वर्गस्य कोऽन्योऽस्ति तथैव नरकस्य च।
आगमांस्त्वनतिक्रम्य दद्याच्चैव यजेत च ॥ १५ ॥
मूलम्
द्रष्टा स्वर्गस्य कोऽन्योऽस्ति तथैव नरकस्य च।
आगमांस्त्वनतिक्रम्य दद्याच्चैव यजेत च ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शुभ और अशुभ कर्म करता है, उसके सिवा दूसरा कौन ऐसा है जो उन कर्मोंके फलस्वरूप स्वर्ग और नरकका दर्शन एवं उपभोग करेगा; अतः शास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन न करते हुए सब लोगोंको दान और यज्ञ आदि सत्कर्म करते रहना चाहिये॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चशिखजनकसंवादे एकोनविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३१९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पंचशिख और जनकका संवादविषयक तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१९॥