३१७ याज्ञवल्क्यजनकसंवादे

भागसूचना

सप्तदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विभिन्न अंगोंसे प्राणोंके उत्क्रमणका फल तथा मृत्युसूचक लक्षणोंका वर्णन और मृत्युको जीतनेका उपाय

मूलम् (वचनम्)

याज्ञवल्क्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैवोत्क्रममाणं तु शृणुष्वावहितो नृप।
पद्भ्यामुत्क्रममाणस्य वैष्णवं स्थानमुच्यते ॥ १ ॥

मूलम्

तथैवोत्क्रममाणं तु शृणुष्वावहितो नृप।
पद्भ्यामुत्क्रममाणस्य वैष्णवं स्थानमुच्यते ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

याज्ञवल्क्यजी कहते हैं— नरेश्वर! देह-त्यागके समय मनुष्यके जिन-जिन अंगोंसे निकलकर प्राण जिन-जिन ऊर्ध्वलोकोंमें जाते हैं, उनके विषयमें बता रहा हूँ; तुम सावधान होकर सुनो। पैरोंके मार्गसे प्राणोंके उत्क्रमण करनेपर मनुष्यको भगवान् विष्णुके परमधामकी प्राप्ति होती बतायी जाती है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जङ्घाभ्यां तु वसून् देवानाप्नुयादिति नः श्रुतम्।
जानुभ्यां च महाभागान् साध्यान् देवानवाप्नुयात् ॥ २ ॥

मूलम्

जङ्घाभ्यां तु वसून् देवानाप्नुयादिति नः श्रुतम्।
जानुभ्यां च महाभागान् साध्यान् देवानवाप्नुयात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके प्राण दोनों पिण्डलियोंके मार्गसे बाहर निकलते हैं, वह वसु नामक देवताओंके लोकमें जाता है; ऐसा हमने सुन रक्खा है। घुटनोंसे प्राणत्याग करनेपर महाभाग साध्य-देवताओंके लोकोंकी प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पायुनोत्क्रममाणस्तु मैत्रं स्थानमवाप्नुयात् ।
पृथिवीं जघनेनाथ ऊरुभ्यां च प्रजापतिम् ॥ ३ ॥

मूलम्

पायुनोत्क्रममाणस्तु मैत्रं स्थानमवाप्नुयात् ।
पृथिवीं जघनेनाथ ऊरुभ्यां च प्रजापतिम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके प्राण गुदामार्गसे निकलकर ऊपरकी ओर जाते हैं, वह मित्रदेवताके उत्तम स्थानको पाता है। कटिके अग्रभागसे प्राण निकलनेपर पृथ्वीलोककी और दोनों जाँघोंसे निकलनेपर प्रजापतिलोककी प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्श्वाभ्यां मरुतो देवान् नाभ्यामिन्द्रत्वमेव च।
बाहुभ्यामिन्द्रमेवाहुरुरसा रुद्रमेव च ॥ ४ ॥

मूलम्

पार्श्वाभ्यां मरुतो देवान् नाभ्यामिन्द्रत्वमेव च।
बाहुभ्यामिन्द्रमेवाहुरुरसा रुद्रमेव च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों पसलियोंसे प्राणोंका निष्क्रमण हो तो मरुत् नामक देवताओंकी, नाभिसे हो तो इन्द्रपदकी, दोनों भुजाओंसे हो तो भी इन्द्रपदकी ही और वक्षःस्थलसे हो तो रुद्रलोककी प्राप्ति होती है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रीवया तु मुनिश्रेष्ठं नरमाप्नोत्यनुत्तमम्।
विश्वेदेवान् मुखेनाथ दिशः श्रोत्रेण चाप्नुयात् ॥ ५ ॥

मूलम्

ग्रीवया तु मुनिश्रेष्ठं नरमाप्नोत्यनुत्तमम्।
विश्वेदेवान् मुखेनाथ दिशः श्रोत्रेण चाप्नुयात् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्रीवासे प्राणोंका निष्क्रमण होनेपर मनुष्य मुनियोंमें श्रेष्ठ परम उत्तम नरका सांनिध्य प्राप्त करता है। मुखसे प्राणत्याग करनेपर वह विश्वेदेवोंको और श्रोत्रसे प्राण त्यागनेपर दिशाओंकी अधिष्ठात्री देवियोंको प्राप्त होता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घ्राणेन गन्धवहनं नेत्राभ्यामग्निमेव च।
भ्रूभ्यां चैवाश्विनौ देवौ ललाटेन पितॄनथ ॥ ६ ॥

मूलम्

घ्राणेन गन्धवहनं नेत्राभ्यामग्निमेव च।
भ्रूभ्यां चैवाश्विनौ देवौ ललाटेन पितॄनथ ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नासिकासे प्राणोंका उत्क्रमण हो तो मनुष्य वायुदेवताको, दोनों नेत्रोंसे हो तो अग्निदेवताको, दोनों भौंहोंसे हो तो अश्विनीकुमारोंको और ललाटसे हो तो पितरोंको प्राप्त होता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्माणमाप्नोति विभुं मूर्ध्ना देवाग्रजं तथा।
एतान्युत्क्रमणस्थानान्युक्तानि मिथिलेश्वर ॥ ७ ॥

मूलम्

ब्रह्माणमाप्नोति विभुं मूर्ध्ना देवाग्रजं तथा।
एतान्युत्क्रमणस्थानान्युक्तानि मिथिलेश्वर ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मस्तकसे प्राणोंका परित्याग करनेपर मनुष्य देवताओंके अग्रज भगवान् ब्रह्माजीके लोकको जाता है। मिथिलेश्वर! ये प्राणोंके निष्क्रमणके स्थान बताये गये हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरिष्टानि प्रवक्ष्यामि विहितानि मनीषिभिः।
संवत्सरवियोगस्य सम्भवन्ति शरीरिणः ॥ ८ ॥

मूलम्

अरिष्टानि प्रवक्ष्यामि विहितानि मनीषिभिः।
संवत्सरवियोगस्य सम्भवन्ति शरीरिणः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं ज्ञानी पुरुषोंद्वारा नियत किये हुए अमंगल अथवा मृत्युको सूचित करनेवाले उन चिह्नोंका वर्णन करता हूँ, जो देहधारीके शरीर छूटनेमें केवल एक वर्ष शेष रह जानेपर उसके सामने प्रकट होते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽरुन्धतीं न पश्येत दृष्टपूर्वां कदाचन।
तथैव ध्रुवमित्याहुः पूर्णेन्दुं दीपमेव च ॥ ९ ॥
खण्डाभासं दक्षिणतस्तेऽपि संवत्सरायुषः ।

मूलम्

योऽरुन्धतीं न पश्येत दृष्टपूर्वां कदाचन।
तथैव ध्रुवमित्याहुः पूर्णेन्दुं दीपमेव च ॥ ९ ॥
खण्डाभासं दक्षिणतस्तेऽपि संवत्सरायुषः ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो कभी पहलेकी देखी हुई अरुन्धती और ध्रुवको न देख पाता हो तथा पूर्णचन्द्रमाका मण्डल और दीपककी शिखा जिसे दाहिने भागसे खण्डित जान पड़े, ऐसे लोग केवल एक वर्षतक जीवित रहनेवाले होते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परचक्षुषि चात्मानं ये न पश्यन्ति पार्थिव ॥ १० ॥
आत्मच्छायाकृतीभूतं तेऽपि संवत्सरायुषः ।

मूलम्

परचक्षुषि चात्मानं ये न पश्यन्ति पार्थिव ॥ १० ॥
आत्मच्छायाकृतीभूतं तेऽपि संवत्सरायुषः ।

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! जो लोग दूसरेके नेत्रोंमें अपनी परछाईं न देख सकें, उनकी आयु भी एक ही वर्षतक शेष समझनी चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिद्युतिरतिप्रज्ञा अप्रज्ञा चाद्युतिस्तथा ॥ ११ ॥
प्रकृतेर्विक्रियापत्तिः षण्मासान्मृत्युलक्षणम् ।

मूलम्

अतिद्युतिरतिप्रज्ञा अप्रज्ञा चाद्युतिस्तथा ॥ ११ ॥
प्रकृतेर्विक्रियापत्तिः षण्मासान्मृत्युलक्षणम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मनुष्यकी बहुत बढ़ी-चढ़ी कान्ति भी अत्यन्त फीकी पड़ जाय, अधिक बुद्धिमत्ता भी बुद्धिहीनतामें परिणत हो जाय और स्वभावमें भी भारी उलट-फेर हो जाय तो यह उसके छः महीनेके भीतर ही होनेवाली मृत्युका सूचक है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवतान्यवजानाति ब्राह्मणैश्च विरुद्ध्यते ॥ १२ ॥
कृष्णश्यावच्छविच्छायः षण्मासान्मृत्युलक्षणम् ।

मूलम्

दैवतान्यवजानाति ब्राह्मणैश्च विरुद्ध्यते ॥ १२ ॥
कृष्णश्यावच्छविच्छायः षण्मासान्मृत्युलक्षणम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो काले रंगका होकर भी पीला पड़ने लगे, देवताओंका अनादर करे और ब्राह्मणोंके साथ विरोध करे, वह भी छः महीनेसे अधिक नहीं जी सकता, यह उक्त लक्षणोंसे सूचित होता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्णनाभेर्यथा चक्रं छिद्रं सोमं प्रपश्यति ॥ १३ ॥
तथैव च सहस्रांशुं सप्तरात्रेण मृत्युभाक्।

मूलम्

ऊर्णनाभेर्यथा चक्रं छिद्रं सोमं प्रपश्यति ॥ १३ ॥
तथैव च सहस्रांशुं सप्तरात्रेण मृत्युभाक्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य सूर्य और चन्द्रमाके मण्डलको मकड़ीके जालेके समान छिद्रयुक्त देखता है, वह सात रातमें ही मृत्युका भागी होता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शवगन्धमुपाघ्राति सुरभिं प्राप्य यो नरः ॥ १४ ॥
देवतायतनस्थस्तु सप्तरात्रेण मृत्युभाक् ।

मूलम्

शवगन्धमुपाघ्राति सुरभिं प्राप्य यो नरः ॥ १४ ॥
देवतायतनस्थस्तु सप्तरात्रेण मृत्युभाक् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो देवमन्दिरमें बैठकर वहाँकी सुगन्धित वस्तुमें सड़े मुर्देकी-सी दुर्गन्धका अनुभव करता है, वह सात दिनमें ही मृत्युको प्राप्त हो जाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णनासावनमनं दन्तदृष्टिविरागिता ॥ १५ ॥
संज्ञालोपो निरूष्मत्वं सद्योमृत्युनिदर्शनम् ।
अकस्माच्च स्रवेद् यस्य वाममक्षि नराधिप ॥ १६ ॥
मूर्धतश्चोत्पतेद् धूमः सद्यो मृत्युनिदर्शनम्।

मूलम्

कर्णनासावनमनं दन्तदृष्टिविरागिता ॥ १५ ॥
संज्ञालोपो निरूष्मत्वं सद्योमृत्युनिदर्शनम् ।
अकस्माच्च स्रवेद् यस्य वाममक्षि नराधिप ॥ १६ ॥
मूर्धतश्चोत्पतेद् धूमः सद्यो मृत्युनिदर्शनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जिसके नाक और कान टेढ़े हो जायँ, दाँत और नेत्रोंका रंग बिगड़ जाय, जिसे बेहोशी होने लगे, जिसका शरीर ठंडा पड़ जाय तथा जिसकी बायीं आँखसे अकस्मात् आँसू बहने और मस्तकसे धुआँ उठने लगे, उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है। उपर्युक्त लक्षण तत्काल होनेवाली मृत्युके सूचक हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावन्ति त्वरिष्टानि विदित्वा मानवोऽऽत्मवान् ॥ १७ ॥
निशि चाहनि चात्मानं योजयेत् परमात्मनि।
प्रतीक्षमाणस्तत्कालं यत्कालं प्रेतता भवेत् ॥ १८ ॥

मूलम्

एतावन्ति त्वरिष्टानि विदित्वा मानवोऽऽत्मवान् ॥ १७ ॥
निशि चाहनि चात्मानं योजयेत् परमात्मनि।
प्रतीक्षमाणस्तत्कालं यत्कालं प्रेतता भवेत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन मृत्युसूचक लक्षणोंको जानकर मनको वशमें रखनेवाला साधक रात-दिन परमात्माका ध्यान करे और जिस समय मृत्यु होनेवाली हो, उस कालकी प्रतीक्षा करता रहे॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथास्य नेष्टं मरणं स्थातुमिच्छेदिमां क्रियाम्।
सर्वगन्धान् रसांश्चैव धारयीत नराधिप ॥ १९ ॥

मूलम्

अथास्य नेष्टं मरणं स्थातुमिच्छेदिमां क्रियाम्।
सर्वगन्धान् रसांश्चैव धारयीत नराधिप ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! यदि योगीको मृत्यु अभीष्ट न हो, अभी वह इस जगत्‌में रहना चाहे तो यह क्रिया करे। पूर्वोक्त रीतिसे पंचभूतविषयक धारणा करके पृथ्वी आदि तत्त्वोंपर विजय प्राप्त करते हुए सम्पूर्ण गन्धों, रसों तथा रूप आदि विषयोंको अपने वशमें करे1॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससांख्यधारणं चैव विदितात्मा नरर्षभ।
जयेच्च मृत्युं योगेन तत्परेणान्तरात्मना ॥ २० ॥

मूलम्

ससांख्यधारणं चैव विदितात्मा नरर्षभ।
जयेच्च मृत्युं योगेन तत्परेणान्तरात्मना ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! सांख्य और योगके अनुसार धारणा-पूर्वक आत्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करके ध्यानयोगके द्वारा अन्तरात्माको परमात्मामें लगा देनेसे योगी मृत्युको जीत लेता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छेत् प्राप्याक्षयं कृत्स्नमजन्म शिवमव्ययम्।
शाश्वतं स्थानमचलं दुष्प्रापमकृतात्मभिः ॥ २१ ॥

मूलम्

गच्छेत् प्राप्याक्षयं कृत्स्नमजन्म शिवमव्ययम्।
शाश्वतं स्थानमचलं दुष्प्रापमकृतात्मभिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा करनेसे वह उस सनातन पदको प्राप्त करता है, जो अशुद्ध चित्तवाले पुरुषोंको दुर्लभ है तथा जो अक्षय, अजन्मा, अचल, अविकारी, पूर्ण एवं कल्याणमय है॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि याज्ञवल्क्यजनकसंवादे सप्तदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३१७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें याज्ञवल्क्य और जनकका संवादविषयक तीन सौ सतरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्

  1. धारणाद्वारा पंचभूतोंपर विजय या अधिकार प्राप्त करके योगी जन्म, जरा, मृत्यु आदिको जीत लेता है; इस विषयमें यह सूत्र भी प्रमाण है—  पृथ्व्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पंचात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।  न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥’’’‘ध्यानयोगका साधन करते-करते जब पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश—इन पाँच महाभूतोंका उत्थान हो जाता है अर्थात् जब साधकका इन पाँचों महाभूतोंपर अधिकार हो जाता है और इन पाँचों महाभूतोंसे सम्बन्ध रखनेवाली योगविषयक पाँचों सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं, उस समय योगाग्निमय शरीरको प्राप्त कर लेनेवाले उस योगीके शरीरमें न तो रोग होता है, न बुढ़ापा आता है और न उसकी मृत्यु ही होती है। अभिप्राय यह कि उसकी इच्छाके बिना उसका शरीर नष्ट नहीं हो सकता (योगद० ३।४६, ४७)।’'' ↩︎