भागसूचना
षोडशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
योगका वर्णन और उसके साधनसे परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति
मूलम् (वचनम्)
याज्ञवल्क्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांख्यज्ञानं मया प्रोक्तं योगज्ञानं निबोध मे।
यथाश्रुतं यथादृष्टं तत्त्वेन नृपसत्तम ॥ १ ॥
मूलम्
सांख्यज्ञानं मया प्रोक्तं योगज्ञानं निबोध मे।
यथाश्रुतं यथादृष्टं तत्त्वेन नृपसत्तम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
याज्ञवल्क्यजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ! मैं सांख्यसम्बन्धी ज्ञान तो तुम्हें बतला चुका। अब जैसा मैंने देखा, सुना या समझा है, उसके अनुसार योगशास्त्रका तात्त्विक ज्ञान मुझसे सुनो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलम्।
तावुभावेकचर्यौ तावुभावनिधनौ स्मृतौ ॥ २ ॥
मूलम्
नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलम्।
तावुभावेकचर्यौ तावुभावनिधनौ स्मृतौ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सांख्यके समान कोई ज्ञान नहीं है। योगके समान कोई बल नहीं है। इन दोनोंका लक्ष्य एक है और वे दोनों ही मृत्युका निवारण करनेवाले माने गये हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथक् पृथक् प्रपश्यन्ति येऽप्यबुद्धिरता नराः।
वयं तु राजन् पश्याम एकमेव तु निश्चयात् ॥ ३ ॥
मूलम्
पृथक् पृथक् प्रपश्यन्ति येऽप्यबुद्धिरता नराः।
वयं तु राजन् पश्याम एकमेव तु निश्चयात् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो मनुष्य अज्ञानपरायण हैं, वे ही इन दोनों शास्त्रोंको सर्वथा भिन्न मानते हैं। हम तो विचारके द्वारा पूर्ण निश्चय करके दोनोंको एक ही समझते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेव योगाः पश्यन्ति तत् सांख्यैरपि दृश्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स तत्त्ववित्॥४॥
मूलम्
यदेव योगाः पश्यन्ति तत् सांख्यैरपि दृश्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स तत्त्ववित्॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगी जिस तत्त्वका साक्षात्कार करते हैं, वही सांख्योंद्वारा भी देखा जाता है; अतः जो सांख्य और योगको एक देखता है, वही तत्त्वज्ञानी है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्रप्रधानानपरान् विद्धि योगानरिंदम ।
तेनैव चाथ देहेन विचरन्ति दिशो दश ॥ ५ ॥
मूलम्
रुद्रप्रधानानपरान् विद्धि योगानरिंदम ।
तेनैव चाथ देहेन विचरन्ति दिशो दश ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन नरेश! योग-साधनोंमें रुद्र अर्थात् प्राण प्रधान है। इन सबको तुम सर्वश्रेष्ठ समझो। प्राणको अपने वशमें कर लेनेपर योगी इसी शरीरसे दसों दिशाओंमें स्वच्छन्द विचरण कर सकते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावद्धि प्रलयस्तात सूक्ष्मेणाष्टगुणेन ह।
योगेन लोकान् विचरन् सुखं संन्यस्य चानघ ॥ ६ ॥
मूलम्
यावद्धि प्रलयस्तात सूक्ष्मेणाष्टगुणेन ह।
योगेन लोकान् विचरन् सुखं संन्यस्य चानघ ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय निष्पाप भूपाल! जबतक मृत्यु न हो जाय, तबतक ही योगी योगबलसे स्थूल शरीरको यहीं छोड़कर अष्टविध ऐश्वर्यसे युक्त सूक्ष्मशरीरके द्वारा लोक-लोकान्तरोंमें सुखपूर्वक विचरण करता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदेषु चाष्टगुणिनं योगमाहुर्मनीषिणः ।
सूक्ष्ममष्टगुणं प्राहुर्नेतरं नृपसत्तम ॥ ७ ॥
मूलम्
वेदेषु चाष्टगुणिनं योगमाहुर्मनीषिणः ।
सूक्ष्ममष्टगुणं प्राहुर्नेतरं नृपसत्तम ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! मनीषी पुरुषोंका कहना है कि वेदमें स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकारके योगोंका वर्णन है। उनमें स्थूल योग अणिमा आदि आठ प्रकारकी सिद्धि प्रदान करनेवाला है और सूक्ष्म योग ही (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—इन आठ गुणों (अंगों) से युक्त है; दूसरा नहीं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विगुणं योगकृत्यं तु योगानां प्राहुरुत्तमम्।
सगुणं निर्गुणं चैव यथा शास्त्रनिदर्शनम् ॥ ८ ॥
मूलम्
द्विगुणं योगकृत्यं तु योगानां प्राहुरुत्तमम्।
सगुणं निर्गुणं चैव यथा शास्त्रनिदर्शनम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगका मुख्य साधन दो प्रकारका बताया गया है—सगुण और निर्गुण (सबीज और निर्बीज)। ऐसा ही शास्त्रोंका निर्णय है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारणं चैव मनसः प्राणायामश्च पार्थिव।
एकाग्रता च मनसः प्राणायामस्तथैव च ॥ ९ ॥
मूलम्
धारणं चैव मनसः प्राणायामश्च पार्थिव।
एकाग्रता च मनसः प्राणायामस्तथैव च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! किसी विशेष देशमें चित्तको स्थापित करनेका नाम ‘धारणा’ है। मनकी धारणाके साथ किया जानेवाला प्राणायाम सगुण है और देश-विशेषका आश्रय न लेकर मनको निर्बीज समाधिमें एकाग्र करना निर्गुण प्राणायाम कहलाता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणायामो हि सगुणो निर्गुणं धारयेन्मनः।
यद्यदृश्यति मुञ्चन् वै प्राणान् मैथिलसत्तम।
वाताधिक्यं भवत्येव तस्मात् तं न समाचरेत् ॥ १० ॥
मूलम्
प्राणायामो हि सगुणो निर्गुणं धारयेन्मनः।
यद्यदृश्यति मुञ्चन् वै प्राणान् मैथिलसत्तम।
वाताधिक्यं भवत्येव तस्मात् तं न समाचरेत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सगुण प्राणायाम मनको निर्गुण अर्थात् वृत्तिशून्य करके स्थिर करनेमें सहायक होता है। मैथिलशिरोमणे! यदि पूरक आदिके समय नियत देवता आदिका ध्यानद्वारा साक्षात्कार किये बिना ही कोई प्राणवायुका रेचन करता है तो उसके शरीरमें वायुका प्रकोप बढ़ जाता है; अतः ध्यान-रहित प्राणायामको नहीं करना चाहिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशायाः प्रथमे यामे चोदना द्वादश स्मृताः।
मध्ये स्वप्नात् परे यामे द्वादशैव तु चोदनाः ॥ ११ ॥
मूलम्
निशायाः प्रथमे यामे चोदना द्वादश स्मृताः।
मध्ये स्वप्नात् परे यामे द्वादशैव तु चोदनाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रातके पहले पहरमें वायुको धारण करनेकी बारह प्रेरणाएँ बतायी गयी हैं। मध्य रात्रिमें रात्रिके बिचले दो पहरोंमें सोना चाहिये तथा पुनः अन्तिम प्रहरमें बारह प्रेरणाओंका ही अभ्यास करना चाहिये1॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेवमुपशान्तेन दान्तेनैकान्तशीलिना ।
आत्मारामेण बुद्धेन योक्तव्योऽऽत्मा न संशयः ॥ १२ ॥
मूलम्
तदेवमुपशान्तेन दान्तेनैकान्तशीलिना ।
आत्मारामेण बुद्धेन योक्तव्योऽऽत्मा न संशयः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार प्राणायामके द्वारा मनको वशमें करके शान्त और जितेन्द्रिय हो एकान्तवास करनेवाले आत्माराम ज्ञानीको चाहिये कि मनको परमात्मामें लगावे। इसमें संशय नहीं है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चानामिन्द्रियाणां तु दोषानाक्षिप्य पञ्चधा।
शब्दं रूपं तथा स्पर्शं रसं गन्धं तथैव च॥१३॥
प्रतिभामपवर्गं च प्रतिसंहृत्य मैथिल।
इन्द्रियग्राममखिलं मनस्यभिनिवेश्य ह ॥ १४ ॥
मनस्तथैवाहंकारे प्रतिष्ठाप्य नराधिप ।
अहंकारं तथा बुद्धौ बुद्धिं च प्रकृतावपि ॥ १५ ॥
एवं हि परिसंख्याय ततो ध्यायन्ति केवलम्।
विरजस्कमलं नित्यमनन्तं शुद्धमव्रणम् ॥ १६ ॥
तस्थुषं पुरुषं नित्यमभेद्यमजरामरम् ।
शाश्वतं चाव्ययं चैव ईशानं ब्रह्म चाव्ययम् ॥ १७ ॥
मूलम्
पञ्चानामिन्द्रियाणां तु दोषानाक्षिप्य पञ्चधा।
शब्दं रूपं तथा स्पर्शं रसं गन्धं तथैव च॥१३॥
प्रतिभामपवर्गं च प्रतिसंहृत्य मैथिल।
इन्द्रियग्राममखिलं मनस्यभिनिवेश्य ह ॥ १४ ॥
मनस्तथैवाहंकारे प्रतिष्ठाप्य नराधिप ।
अहंकारं तथा बुद्धौ बुद्धिं च प्रकृतावपि ॥ १५ ॥
एवं हि परिसंख्याय ततो ध्यायन्ति केवलम्।
विरजस्कमलं नित्यमनन्तं शुद्धमव्रणम् ॥ १६ ॥
तस्थुषं पुरुषं नित्यमभेद्यमजरामरम् ।
शाश्वतं चाव्ययं चैव ईशानं ब्रह्म चाव्ययम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मिथिलानरेश! शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये इन्द्रियोंके पाँच दोष हैं। इन दोषोंको दूर करे। फिर लय और विक्षेपको शान्त करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको मनमें स्थिर करे। नरेश्वर! तत्पश्चात् मनको अहंकारमें, अहंकारको बुद्धिमें और बुद्धिको प्रकृतिमें स्थापित करे। इस प्रकार सबका लय करके योगी पुरुष केवल उस परमात्माका ध्यान करते हैं, जो रजोगुणसे रहित, निर्मल, नित्य, अनन्त, शुद्ध, छिद्ररहित, कूटस्थ, अन्तर्यामी, अभेद्य, अजर, अमर, अविकारी, सबका शासन करनेवाला और सनातन ब्रह्म है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युक्तस्य तु महाराज लक्षणान्युपधारय।
लक्षणं तु प्रसादस्य यथा तृप्तः सुखं स्वपेत् ॥ १८ ॥
मूलम्
युक्तस्य तु महाराज लक्षणान्युपधारय।
लक्षणं तु प्रसादस्य यथा तृप्तः सुखं स्वपेत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! अब समाधिमें स्थित हुए योगीके लक्षण सुनो। जैसे तृप्त हुआ मनुष्य सुखसे सोता है, उसी प्रकार योगयुक्त पुरुषके चित्तमें सदा प्रसन्नता बनी रहती है—वह समाधिसे विरत होना नहीं चाहता। यही उसकी प्रसन्नताकी पहचान है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्वाते तु यथा दीपो ज्वलेत् स्नेहसमन्वितः।
निश्चलोर्ध्वशिखस्तद्वद् युक्तमाहुर्मनीषिणः ॥ १९ ॥
मूलम्
निर्वाते तु यथा दीपो ज्वलेत् स्नेहसमन्वितः।
निश्चलोर्ध्वशिखस्तद्वद् युक्तमाहुर्मनीषिणः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे तेलसे भरा हुआ दीपक वायुशून्य स्थानमें एकतार जलता रहता है। उसकी शिखा स्थिरभावसे ऊपरकी ओर उठी रहती है, उसी तरह समाधिनिष्ठ योगीको भी मनीषी पुरुष स्थिर बताते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाषाण इव मेघोत्थैर्यथा बिन्दुभिराहतः।
नालं चालयितुं शक्यस्तथा युक्तस्य लक्षणम् ॥ २० ॥
मूलम्
पाषाण इव मेघोत्थैर्यथा बिन्दुभिराहतः।
नालं चालयितुं शक्यस्तथा युक्तस्य लक्षणम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बादलकी बरसायी हुई बूँदोंके आघातसे पर्वत चंचल नहीं होता, उसी तरह अनेक प्रकारके विक्षेप आकर योगीको विचलित नहीं कर सकते। यही योगयुक्त पुरुषकी पहचान है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषैर्विविधैर्गीतवादितैः ।
क्रियमाणैर्न कम्पेत युक्तस्यैतन्निदर्शनम् ॥ २१ ॥
मूलम्
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषैर्विविधैर्गीतवादितैः ।
क्रियमाणैर्न कम्पेत युक्तस्यैतन्निदर्शनम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पास बहुत-से शंख और नगाड़ोंकी ध्वनि हो और तरह-तरहके गाने-बजाने किये जायँ तो भी उसका ध्यान भंग नहीं हो सकता। यही उसकी सुदृढ़ समाधिकी पहचान है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैलपात्रं यथा पूर्णं कराभ्यां गृह्य पूरुषः।
सोपानमारुहेद् भीतस्तर्ज्यमानोऽसिपाणिभिः ॥ २२ ॥
संयतात्मा भयात् तेषां न पात्राद् बिन्दुमुत्सृजेत्।
तथैवोत्तरमागम्य एकाग्रमनसस्तथा ॥ २३ ॥
स्थिरत्वादिन्द्रियाणां तु निश्चलत्वात् तथैव च।
एवं युक्तस्य तु मुनेर्लक्षणान्युपलक्षयेत् ॥ २४ ॥
मूलम्
तैलपात्रं यथा पूर्णं कराभ्यां गृह्य पूरुषः।
सोपानमारुहेद् भीतस्तर्ज्यमानोऽसिपाणिभिः ॥ २२ ॥
संयतात्मा भयात् तेषां न पात्राद् बिन्दुमुत्सृजेत्।
तथैवोत्तरमागम्य एकाग्रमनसस्तथा ॥ २३ ॥
स्थिरत्वादिन्द्रियाणां तु निश्चलत्वात् तथैव च।
एवं युक्तस्य तु मुनेर्लक्षणान्युपलक्षयेत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मनको संयममें रखनेवाला सावधान मनुष्य हाथोंमें तेलसे भरा कटोरा लेकर सीढ़ीपर चढ़े और उस समय बहुतसे पुरुष हाथमें तलवार लेकर उसे डराने-धमकाने लगें तो भी वह उनके डरसे एक बूँद भी तेल पात्रसे गिरने नहीं देता, उसी प्रकार योगकी ऊँची स्थितिको प्राप्त हुआ एकाग्रचित्त योगी इन्द्रियोंकी स्थिरता और मनकी अविचल स्थितिके कारण समाधिसे विचलित नहीं होता। योगसिद्ध मुनिके ऐसे ही लक्षण समझने चाहिये॥२२—२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयुक्तः पश्यते ब्रह्म यत् तत्परममव्ययम्।
महतस्तमसो मध्ये स्थितं ज्वलनसंनिभम् ॥ २५ ॥
मूलम्
स्वयुक्तः पश्यते ब्रह्म यत् तत्परममव्ययम्।
महतस्तमसो मध्ये स्थितं ज्वलनसंनिभम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अच्छी तरह समाधिमें स्थित हो जाता है, वह महान् अन्धकारके बीचमें प्रकाशित होनेवाली प्रज्वलित अग्निके समान हृदयदेशमें स्थित अविनाशी (ज्ञानस्वरूप) परब्रह्मका साक्षात्कार करता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेन केवलं याति त्यक्त्वा देहमसाक्षिकम्।
कालेन महता राजन् श्रुतिरेषा सनातनी ॥ २६ ॥
मूलम्
एतेन केवलं याति त्यक्त्वा देहमसाक्षिकम्।
कालेन महता राजन् श्रुतिरेषा सनातनी ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस साधनाके द्वारा मनुष्य दीर्घकालके पश्चात् इस अचेतन देहका परित्याग करके केवल (प्रकृतिके संसर्गसे रहित) परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो जाता है। ऐसी सनातन श्रुति है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद्धि योगं योगानां किमन्यद् योगलक्षणम्।
विज्ञाय तद्धि मन्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः ॥ २७ ॥
मूलम्
एतद्धि योगं योगानां किमन्यद् योगलक्षणम्।
विज्ञाय तद्धि मन्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही योगियोंका योग है। इसके सिवा योगका और क्या लक्षण हो सकता है? इसे जानकर मनीषी पुरुष अपने-आपको कृतकृत्य मानते हैं॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि याज्ञवल्क्यजनकसंवादे षोडशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३१६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें याज्ञवल्क्य और जनकका संवादविषयक तीन सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१६॥
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एक प्राणायाममें पूरक, कुम्भक और रेचकके भेदसे तीन प्रेरणाएँ समझनी चाहिये। इस प्रकार जहाँ बारह प्रेरणाओंके अभ्यासका विधान किया गया है, वहाँ चार-चार प्राणायाम करनेकी विधि समझनी चाहिये। तात्पर्य यह कि रातके पहले और पिछले पहरोंमें ध्यानपूर्वक चार-चार प्राणायामोंका नित्य अभ्यास करना योगीके लिये अत्यन्त आवश्यक है। ↩︎