३१५ याज्ञवल्क्यजनकसंवादे

भागसूचना

पञ्चदशाधिकत्रिशततमोध्यायः

सूचना (हिन्दी)

प्रकृति-पुरुषका विवेक और उसका फल

मूलम् (वचनम्)

याज्ञवल्क्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शक्यो निर्गुणस्तात गुणीकर्तुं विशाम्पते।
गुणवांश्चाप्यगुणवान् यथातत्त्वं निबोध मे ॥ १ ॥

मूलम्

न शक्यो निर्गुणस्तात गुणीकर्तुं विशाम्पते।
गुणवांश्चाप्यगुणवान् यथातत्त्वं निबोध मे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

याज्ञवल्क्यजी कहते हैं— तात! प्रजापालक नरेश! निर्गुणको सगुण और सगुणको निर्गुण नहीं किया जा सकता। इस विषयमें जो यथार्थ तत्त्व है, वह मुझसे सुनो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणैर्हि गुणवानेव निर्गुणश्चागुणस्तथा ।
प्राहुरेवं महात्मानो मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ॥ २ ॥

मूलम्

गुणैर्हि गुणवानेव निर्गुणश्चागुणस्तथा ।
प्राहुरेवं महात्मानो मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्त्वदर्शी महात्मा मुनि कहते हैं, जिसका गुणोंके साथ सम्पर्क है, वह गुणवान् है तथा जो गुणोंके संसर्गसे रहित है, वह निर्गुण कहलाता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणस्वभावस्त्वव्यक्तो गुणान् नैवातिवर्तते ।
उपयुंक्ते च तानेव स चैवाज्ञः स्वभावतः ॥ ३ ॥

मूलम्

गुणस्वभावस्त्वव्यक्तो गुणान् नैवातिवर्तते ।
उपयुंक्ते च तानेव स चैवाज्ञः स्वभावतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अव्यक्त प्रकृति स्वभावसे ही गुणवती है। वह गुणोंका कभी उल्लंघन नहीं कर सकती है। उन्हींको उपयोगमें लाती है और स्वभावसे ही ज्ञानरहित है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तस्तु न जानीते पुरुषो ज्ञः स्वभावतः।
न मत्तः परमोऽस्तीति नित्यमेवाभिमन्यते ॥ ४ ॥

मूलम्

अव्यक्तस्तु न जानीते पुरुषो ज्ञः स्वभावतः।
न मत्तः परमोऽस्तीति नित्यमेवाभिमन्यते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृतिको किसी वस्तुका ज्ञान नहीं होता। इसके विपरीत पुरुष स्वभावसे ही ज्ञानी है। वह सदा इस बातको जानता रहता है कि मुझसे कोई दूसरा उत्कृष्ट पदार्थ नहीं है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन कारणेनैतदव्यक्तं स्यादचेतनम् ।
नित्यत्वाच्चाक्षरत्वाच्च क्षरत्वान्न तदन्यथा ॥ ५ ॥

मूलम्

अनेन कारणेनैतदव्यक्तं स्यादचेतनम् ।
नित्यत्वाच्चाक्षरत्वाच्च क्षरत्वान्न तदन्यथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कारणसे प्रकृतिको अचेतन माना गया है। क्षर अर्थात् विनाशी होनेके कारण वह जडके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकती। इधर नित्य तथा अक्षर (अविनाशी) होनेके कारण पुरुष चेतन है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाज्ञानेन कुर्वीत गुणसर्गं पुनः पुनः।
यदाऽऽत्मानं न जानीते तदाऽऽत्मापि न मुच्यते ॥ ६ ॥

मूलम्

यदाज्ञानेन कुर्वीत गुणसर्गं पुनः पुनः।
यदाऽऽत्मानं न जानीते तदाऽऽत्मापि न मुच्यते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु वह जबतक अज्ञानवश बारंबार गुणोंका संसर्ग करता और अपने असंगस्वरूपको नहीं जानता है, तबतक उसकी मुक्ति नहीं होती है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्तृत्वाच्चापि सर्गाणां सर्गधर्मा तथोच्यते।
कर्तृत्वाच्चापि योगानां योगधर्मा तथोच्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

कर्तृत्वाच्चापि सर्गाणां सर्गधर्मा तथोच्यते।
कर्तृत्वाच्चापि योगानां योगधर्मा तथोच्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपनेको सृष्टिका कर्ता माननेके कारण सर्गधर्मा कहलाता है और योगका कर्ता माननेसे योगधर्मा कहा जाता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्तृत्वात् प्रकृतीनां च तथा प्रकृतिधर्मिता ॥ ८ ॥

मूलम्

कर्तृत्वात् प्रकृतीनां च तथा प्रकृतिधर्मिता ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकृतियोंको अपनेमें स्वीकार कर लेनेसे वह प्रकृति-धर्मवाला हो जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्तृत्वाच्चापि बीजानां बीजधर्मा तथोच्यते।
गुणानां प्रसवत्वाच्च प्रलयत्वात् तथैव च ॥ ९ ॥

मूलम्

कर्तृत्वाच्चापि बीजानां बीजधर्मा तथोच्यते।
गुणानां प्रसवत्वाच्च प्रलयत्वात् तथैव च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा स्थावर पदार्थोंके बीजोंका कर्ता होनेसे उसे बीजधर्मा कहते हैं। साथ ही वह गुणोंकी उत्पत्ति और प्रलयका कर्ता है, इसलिये गुणधर्मा कहलाता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपेक्षत्वादनन्यत्वादभिमानाच्च केवलम् ।
मन्यन्ते यतयः सिद्धा अध्यात्मज्ञा गतज्वराः।
अनित्यं नित्यमव्यक्तं व्यक्तमेतद्धि शुश्रुम ॥ १० ॥

मूलम्

उपेक्षत्वादनन्यत्वादभिमानाच्च केवलम् ।
मन्यन्ते यतयः सिद्धा अध्यात्मज्ञा गतज्वराः।
अनित्यं नित्यमव्यक्तं व्यक्तमेतद्धि शुश्रुम ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अध्यात्मशास्त्रको जाननेवाले चिन्तारहित सिद्ध यति लोग पुरुषको केवल (प्रकृतिके संगसे रहित) मानते हैं; क्योंकि वह साक्षी और अद्वितीय है, उसे सुख-दुःखका अनुभव तो अभिमानके कारण होता है। वह वास्तवमें तो नित्य और अव्यक्त है, किंतु प्रकृतिके सम्बन्धसे अनित्य और व्यक्त प्रतीत होता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तैकत्वमित्याहुर्नानात्वं पुरुषे तथा ।
सर्वभूतदयावन्तः केवलं ज्ञानमास्थिता ॥ ११ ॥

मूलम्

अव्यक्तैकत्वमित्याहुर्नानात्वं पुरुषे तथा ।
सर्वभूतदयावन्तः केवलं ज्ञानमास्थिता ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले और केवल ज्ञानका सहारा लेनेवाले कुछ सांख्यके विद्वान् प्रकृतिको एक तथा पुरुषको अनेक मानते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यः स पुरुषोऽव्यक्तस्त्वध्रुवो ध्रुवसंज्ञकः।
यथा मुञ्ज इषीकाणां तथैवैतद्धि जायते ॥ १२ ॥

मूलम्

अन्यः स पुरुषोऽव्यक्तस्त्वध्रुवो ध्रुवसंज्ञकः।
यथा मुञ्ज इषीकाणां तथैवैतद्धि जायते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुष प्रकृतिसे भिन्न और नित्य है तथा अव्यक्त (प्रकृति) पुरुषसे भिन्न एवं अनित्य है। जैसे सींकसे मूँज अलग होती है, उसी प्रकार प्रकृति भी पुरुषसे पृथक् है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यच्च मशकं विद्यादन्यच्चोदुम्बरं तथा।
न चोदुम्बरसंयोगैर्मशकस्तत्र लिप्यते ॥ १३ ॥
अन्य एव तथा मत्स्यस्तदन्यदुदकं स्मृतम्।
न चोदकस्य स्पर्शेन मत्स्यो लिप्यति सर्वशः ॥ १४ ॥

मूलम्

अन्यच्च मशकं विद्यादन्यच्चोदुम्बरं तथा।
न चोदुम्बरसंयोगैर्मशकस्तत्र लिप्यते ॥ १३ ॥
अन्य एव तथा मत्स्यस्तदन्यदुदकं स्मृतम्।
न चोदकस्य स्पर्शेन मत्स्यो लिप्यति सर्वशः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे गूलर और उसके कीड़े एक साथ होनेपर भी अलग-अलग समझे जाते हैं, गूलरके संयोगसे कीड़े उससे लिप्त नहीं होते तथा जैसे मत्स्य दूसरी वस्तु है और जल दूसरी। पानीके स्पर्शसे कभी कोई मत्स्य लिप्त नहीं होता है॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यो ह्यग्निरुखाप्यन्या नित्यमेवमवेहि भोः।
न चोपलिप्यते सोऽग्निरुखासंस्पर्शनेन वै ॥ १५ ॥

मूलम्

अन्यो ह्यग्निरुखाप्यन्या नित्यमेवमवेहि भोः।
न चोपलिप्यते सोऽग्निरुखासंस्पर्शनेन वै ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे अग्नि दूसरी वस्तु है और मिट्टीकी हँड़िया दूसरी वस्तु। इन दोनोंके भेदको नित्य समझो। उस हँड़ियेके स्पर्शसे अग्नि दूषित नहीं होती है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करं त्वन्यदेवात्र तथान्यदुदकं स्मृतम्।
न चोदकस्य स्पर्शेन लिप्यते तत्र पुष्करम् ॥ १६ ॥

मूलम्

पुष्करं त्वन्यदेवात्र तथान्यदुदकं स्मृतम्।
न चोदकस्य स्पर्शेन लिप्यते तत्र पुष्करम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कमल दूसरी वस्तु है और पानी दूसरी, पानीके स्पर्शसे कमल लिप्त नहीं होता है। उसी प्रकार पुरुष भी प्रकृतिसे भिन्न और असंग है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेषां सहवासं च निवासं चैव नित्यशः।
याथातथ्येन पश्यन्ति न नित्यं प्राकृता जनाः ॥ १७ ॥
ये त्वन्यथैव पश्यन्ति न सम्यक् तेषु दर्शनम्।
ते व्यक्तं निरयं घोरं प्रविशन्ति पुनः पुनः ॥ १८ ॥

मूलम्

एतेषां सहवासं च निवासं चैव नित्यशः।
याथातथ्येन पश्यन्ति न नित्यं प्राकृता जनाः ॥ १७ ॥
ये त्वन्यथैव पश्यन्ति न सम्यक् तेषु दर्शनम्।
ते व्यक्तं निरयं घोरं प्रविशन्ति पुनः पुनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधारण मनुष्य इनके सहवास और निवासको कभी ठीक-ठीक समझ नहीं पाते। जो इन दोनोंके स्वरूपको अन्यथा जानते हैं अर्थात् प्रकृति और पुरुषको एक दूसरेसे भिन्न नहीं जानते हैं उनकी दृष्टि ठीक नहीं है। वे अवश्य ही बार-बार घोर नरकमें पड़ते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सांख्यदर्शनमेतत् ते परिसंख्यानमुत्तमम् ।
एवं हि परिसंख्याय सांख्याः केवलतां गताः ॥ १९ ॥

मूलम्

सांख्यदर्शनमेतत् ते परिसंख्यानमुत्तमम् ।
एवं हि परिसंख्याय सांख्याः केवलतां गताः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मैंने तुम्हें यह विचारप्रधान उत्तम सांख्य-दर्शन बताया है। सांख्यशास्त्रके विद्वान् इस प्रकार जान करके कैवल्यको प्राप्त हो गये हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये त्वन्ये तत्त्वकुशलास्तेषामेतन्निदर्शनम् ।
अतः परं प्रवक्ष्यामि योगानामनुदर्शनम् ॥ २० ॥

मूलम्

ये त्वन्ये तत्त्वकुशलास्तेषामेतन्निदर्शनम् ।
अतः परं प्रवक्ष्यामि योगानामनुदर्शनम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे भी जो तत्त्वविचारकुशल विद्वान् हैं, उनका भी ऐसा ही मत है। इसके बाद मैं योगियोंके शास्त्रका वर्णन करूँगा॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि याज्ञवल्क्यजनकसंवादे पञ्चदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३१५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें याज्ञवल्क्य और जनकके संवादमें तीन सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१५॥