भागसूचना
चतुर्दशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सात्त्विक, राजस और तामस प्रकृतिके मनुष्योंकी गतिका वर्णन तथा राजा जनकके प्रश्न
मूलम् (वचनम्)
याज्ञवल्क्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते प्रधानस्य गुणास्त्रयः पुरुषसत्तम।
कृत्स्नस्य चैव जगतस्तिष्ठन्त्यनपगाः सदा ॥ १ ॥
मूलम्
एते प्रधानस्य गुणास्त्रयः पुरुषसत्तम।
कृत्स्नस्य चैव जगतस्तिष्ठन्त्यनपगाः सदा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
याज्ञवल्क्यजी कहते हैं— पुरुषप्रवर! सत्त्व, रज और तम—ये तीन प्रकृतिके गुण हैं, जो सम्पूर्ण जगत्में सदा विद्यमान रहते हैं। कभी उससे अलग नहीं होते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तरूपो भगवान् शतधा च सहस्रधा।
शतधा सहस्रधा चैव तथा शतसहस्रधा ॥ २ ॥
कोटिशश्च करोत्येष प्रत्यगात्मानमात्मना ।
मूलम्
अव्यक्तरूपो भगवान् शतधा च सहस्रधा।
शतधा सहस्रधा चैव तथा शतसहस्रधा ॥ २ ॥
कोटिशश्च करोत्येष प्रत्यगात्मानमात्मना ।
अनुवाद (हिन्दी)
यह ऐश्वर्यशालिनी प्रकृति अपने ही प्रभावसे जीवको सैकड़ों, हजारों, लाखों और करोड़ों रूपोंमें प्रकट कर देती है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्त्विकस्योत्तमं स्थानं राजसस्येह मध्यमम् ॥ ३ ॥
तामसस्याधमं स्थानं प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः ।
मूलम्
सात्त्विकस्योत्तमं स्थानं राजसस्येह मध्यमम् ॥ ३ ॥
तामसस्याधमं स्थानं प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
अध्यात्म-शास्त्रका चिन्तन करनेवाले विद्वान् कहते हैं कि सात्त्विक पुरुषको उत्तम, रजोगुणीको मध्यम और तमोगुणीको अधम स्थानकी प्राप्ति होती है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केवलेनेह पुण्येन गतिमूर्ध्वामवाप्नुयात् ॥ ४ ॥
पुण्यपापेन मानुष्यमधर्मेणाप्यधोगतिम् ।
मूलम्
केवलेनेह पुण्येन गतिमूर्ध्वामवाप्नुयात् ॥ ४ ॥
पुण्यपापेन मानुष्यमधर्मेणाप्यधोगतिम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
केवल पुण्य करनेसे मनुष्य ऊर्ध्वलोकमें गमन करता है, पुण्य और पाप दोनोंके अनुष्ठानसे मर्त्यलोकमें जन्म लेता है तथा केवल पापाचार करनेपर उसे अधोगतिमें गिरना पड़ता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वन्द्वमेषां त्रयाणां तु संनिपातं च तत्त्वतः ॥ ५ ॥
सत्त्वस्य रजसश्चैव तमसश्च शृणुष्व मे।
मूलम्
द्वन्द्वमेषां त्रयाणां तु संनिपातं च तत्त्वतः ॥ ५ ॥
सत्त्वस्य रजसश्चैव तमसश्च शृणुष्व मे।
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंके द्वन्द्व1 और संनिपात[^२]का यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ, सुनो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वस्य तु रजो दृष्टं रजसश्च तमस्तथा ॥ ६ ॥
तमसश्च तथा सत्त्वं सत्त्वस्याव्यक्तमेव च।
अव्यक्तः सत्त्वसंयुक्तो देवलोकमवाप्नुयात् ॥ ७ ॥
मूलम्
सत्त्वस्य तु रजो दृष्टं रजसश्च तमस्तथा ॥ ६ ॥
तमसश्च तथा सत्त्वं सत्त्वस्याव्यक्तमेव च।
अव्यक्तः सत्त्वसंयुक्तो देवलोकमवाप्नुयात् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुणके साथ रजोगुण, रजोगुणके साथ तमोगुण, तमोगुणके साथ सत्त्वगुण तथा सत्त्वगुणके साथ अव्यक्त (जीवात्मा)-का सम्मिश्रण देखा जाता है (यह दो तत्त्वोंका संयोग या मेल ही द्वन्द्व है)। जीवात्मा जब सत्त्वगुणसे संयुक्त होता है, तब देवलोकको प्राप्त होता है॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजःसत्त्वसमायुक्तो मानुषेषु प्रपद्यते ।
रजस्तमोभ्यां संयुक्तस्तिर्यग्योनिषु जायते ॥ ८ ॥
मूलम्
रजःसत्त्वसमायुक्तो मानुषेषु प्रपद्यते ।
रजस्तमोभ्यां संयुक्तस्तिर्यग्योनिषु जायते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रजोगुण और सत्त्वगुणसे संयुक्ति होनेपर वह मनुष्य-लोकमें जाता है तथा रजोगुण और तमोगुणसे संयुक्त होनेपर वह पशु-पक्षी आदिकी योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजसैस्तामसैः सत्त्वैर्युक्तो मानुषमाप्नुयात् ।
पुण्यपापवियुक्तानां स्थानमाहुर्महात्मनाम् ।
शाश्वतं चाव्ययं चैवमक्षयं चामृतं च तत् ॥ ९ ॥
मूलम्
राजसैस्तामसैः सत्त्वैर्युक्तो मानुषमाप्नुयात् ।
पुण्यपापवियुक्तानां स्थानमाहुर्महात्मनाम् ।
शाश्वतं चाव्ययं चैवमक्षयं चामृतं च तत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजस, तामस और सात्त्विक तीनों भावोंसे युक्त होनेपर जीवको मनुष्ययोनिकी प्राप्ति होती है। जो पुण्य और पाप दोनोंसे रहित हैं, उन महात्मा पुरुषोंके लिये सनातन, अविकारी, अक्षय और अमृतपदकी प्राप्ति बतायी गयी है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानिनां सम्भवं श्रेष्ठं स्थानमव्रणमच्युतम्।
अतीन्द्रियमबीजं च जन्ममृत्युतमोनुदम् ॥ १० ॥
मूलम्
ज्ञानिनां सम्भवं श्रेष्ठं स्थानमव्रणमच्युतम्।
अतीन्द्रियमबीजं च जन्ममृत्युतमोनुदम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ किसी प्रकारका कष्ट नहीं है, जहाँसे कभी पतन नहीं होता है, जो इन्द्रियातीत है, जहाँ बन्धनमें डालनेवाला कोई कारण नहीं है तथा जो जन्म, मृत्यु और अज्ञानका विनाश करनेवाला है, वह श्रेष्ठ स्थान (परमपद) ज्ञानियोंको ही प्राप्त हो सकता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तस्थं परं यत् तत् पृष्टस्तेऽहं नराधिप।
स एष प्रकृतिस्थो हि तत्स्थ इत्यभिधीयते ॥ ११ ॥
मूलम्
अव्यक्तस्थं परं यत् तत् पृष्टस्तेऽहं नराधिप।
स एष प्रकृतिस्थो हि तत्स्थ इत्यभिधीयते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तुमने जो अव्यक्त प्रकृतिमें स्थित परमतत्त्वके विषयमें मुझसे प्रश्न किया था, उसके उत्तरमें यह निवेदन है कि यह परमतत्त्व प्राकृत शरीरमें स्थित होनेसे ही प्रकृतिस्थ कहलाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचेतना चैव मता प्रकृतिश्चापि पार्थिव।
एतेनाधिष्ठिता चैव सृजते संहरत्यपि ॥ १२ ॥
मूलम्
अचेतना चैव मता प्रकृतिश्चापि पार्थिव।
एतेनाधिष्ठिता चैव सृजते संहरत्यपि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! प्रकृति अचेतन मानी गयी है। इस परमतत्त्वद्वारा अधिष्ठित होकर ही वह सृष्टि एवं संहार करती है॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
जनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादिनिधनावेतावुभावेव महामते ।
अमूर्तिमन्तावचलावप्रकम्प्यगुणागुणौ ॥ १३ ॥
मूलम्
अनादिनिधनावेतावुभावेव महामते ।
अमूर्तिमन्तावचलावप्रकम्प्यगुणागुणौ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनकने पूछा— महामते! प्रकृति और पुरुष दोनों आदि-अन्तसे रहित, मूर्तिहीन और अचल हैं। दोनों अपने-अपने गुणमें स्थिर रहनेवाले और दोनों ही निर्गुण हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्राह्यावृषिशार्दूल कथमेको ह्यचेतनः ।
चेतनावांस्तथा चैकः क्षेत्रज्ञ इति भाषितः ॥ १४ ॥
मूलम्
अग्राह्यावृषिशार्दूल कथमेको ह्यचेतनः ।
चेतनावांस्तथा चैकः क्षेत्रज्ञ इति भाषितः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिश्रेष्ठ! वे दोनों ही बुद्धि-अगोचर हैं। फिर इन दोनोंमेंसे एक प्रकृतिको आपने अचेतन क्यों बताया है? तथा दूसरेको चेतन एवं क्षेत्रज्ञ कैसे कहा है?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि विप्रेन्द्र कार्त्स्न्येन मोक्षधर्ममुपाससे।
साकल्यं मोक्षधर्मस्य श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ १५ ॥
मूलम्
त्वं हि विप्रेन्द्र कार्त्स्न्येन मोक्षधर्ममुपाससे।
साकल्यं मोक्षधर्मस्य श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! आप पूर्णरूपसे मोक्षधर्मका सेवन करते हैं, इसलिये आपहीके मुँहसे मैं सम्पूर्ण मोक्ष-धर्मका यथावत् रूपसे श्रवण करना चाहता हूँ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्तित्वं केवलत्वं च विनाभावं तथैव च।
दैवतानि च मे ब्रूहि देहं यान्याश्रितानि वै ॥ १६ ॥
मूलम्
अस्तित्वं केवलत्वं च विनाभावं तथैव च।
दैवतानि च मे ब्रूहि देहं यान्याश्रितानि वै ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप पुरुषके अस्तित्व, केवलत्व और प्रकृतिसे पृथक् सत्ताका स्पष्टीकरण कीजिये और देहका आश्रय ग्रहण करनेवाले जो देवता हैं, उनका तत्त्व भी मुझे समझाइये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवोत्क्रामिणः स्थानं देहिनो वै विपद्यतः।
कालेन यद्धि प्राप्नोति स्थानं तत् प्रब्रवीहि मे ॥ १७ ॥
मूलम्
तथैवोत्क्रामिणः स्थानं देहिनो वै विपद्यतः।
कालेन यद्धि प्राप्नोति स्थानं तत् प्रब्रवीहि मे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा मरनेवाले जीवके प्राणोंका जब उत्क्रमण होता है, उस समय उसे समयानुसार किस स्थानकी प्राप्ति होती है? इसपर भी प्रकाश डालिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांख्यज्ञानं च तत्त्वेन पृथग्योगं तथैव च।
अरिष्टानि च तत्त्वानि वक्तुमर्हसि सत्तम।
विदितं सर्वमेतत् ते पाणावामलकं यथा ॥ १८ ॥
मूलम्
सांख्यज्ञानं च तत्त्वेन पृथग्योगं तथैव च।
अरिष्टानि च तत्त्वानि वक्तुमर्हसि सत्तम।
विदितं सर्वमेतत् ते पाणावामलकं यथा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधुशिरोमणे! साथ ही पृथक्-पृथक् सांख्य और योगके ज्ञानका तथा मृत्युसूचक लक्षणोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये; क्योंकि ये सारी बातें आपको हाथपर रखे हुए आँवलेके समान ज्ञात हैं॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि याज्ञवल्क्यजनकसंवादे चतुर्दशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३१४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें याज्ञवल्क्य और जनकका संवादविषयक तीन सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१४॥
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-[^२]:—दो गुणोंके मेलको द्वन्द्व और तीन गुणोंके मेलको संनिपात कहते हैं। ↩︎