३१२ याज्ञवल्क्यजनकसंवादे

भागसूचना

द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

संहारक्रमका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

याज्ञवल्क्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्त्वानां सर्वसंख्या च कालसंख्या तथैव च।
मया प्रोक्ताऽऽनुपूर्व्येण संहारमपि मे शृणु ॥ १ ॥

मूलम्

तत्त्वानां सर्वसंख्या च कालसंख्या तथैव च।
मया प्रोक्ताऽऽनुपूर्व्येण संहारमपि मे शृणु ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

याज्ञवल्क्यजी कहते हैं— राजन्! अब मेरेद्वारा क्रमशः बतायी हुई तत्त्वोंकी सम्पूर्ण संख्या, कालसंख्या तथा तत्त्वोंके संहारकी वार्ता सुनो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा संहरते जन्तून् ससर्ज च पुनः पुनः।
अनादिनिधनो ब्रह्मा नित्यश्चाक्षर एव च ॥ २ ॥

मूलम्

यथा संहरते जन्तून् ससर्ज च पुनः पुनः।
अनादिनिधनो ब्रह्मा नित्यश्चाक्षर एव च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आदि और अन्तसे रहित नित्य अक्षरस्वरूप ब्रह्माजी किस प्रकार बारंबार प्राणियोंकी सृष्टि और संहार करते हैं—यह बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहःक्षयमथो बुद्‌ध्वा निशि स्वप्नमनास्तथा।
चोदयामास भगवानव्यक्तोऽहंकृतं नरम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अहःक्षयमथो बुद्‌ध्वा निशि स्वप्नमनास्तथा।
चोदयामास भगवानव्यक्तोऽहंकृतं नरम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् ब्रह्माजी जब देखते हैं कि मेरे दिनका अन्त हो गया, तब उनके मनमें रातको शयन करनेकी इच्छा होती है, इसलिये वे अहंकारके अभिमानी देवता रुद्रको संहारके लिये प्रेरित करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शतसहस्रांशुरव्यक्तेनाभिचोदितः ।
कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानमादित्यो ज्वलदग्निवत् ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः शतसहस्रांशुरव्यक्तेनाभिचोदितः ।
कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानमादित्यो ज्वलदग्निवत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वे रुद्रदेव ब्रह्माजीसे प्रेरित होकर प्रचण्ड सूर्यका रूप धारण करते हैं और अपनेको बारह रूपोंमें अभिव्यक्त करके अग्निके समान प्रज्वलित हो उठते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्विधं महीपाल निर्दहत्याशु तेजसा।
जरायुजाण्डजस्वेदजोद्भिज्जं च नराधिप ॥ ५ ॥

मूलम्

चतुर्विधं महीपाल निर्दहत्याशु तेजसा।
जरायुजाण्डजस्वेदजोद्भिज्जं च नराधिप ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! नरेश्वर! फिर वे अपने तेजसे जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उदि्भज्ज—इन चार प्रकारके प्राणियोंसे भरे हुए सम्पूर्ण जगत्‌को शीघ्र ही भस्म कर डालते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदुन्मेषमात्रेण विनष्टं स्थाणु जङ्गमम्।
कूर्मपृष्ठसमा भूमिर्भवत्यथ समन्ततः ॥ ६ ॥

मूलम्

एतदुन्मेषमात्रेण विनष्टं स्थाणु जङ्गमम्।
कूर्मपृष्ठसमा भूमिर्भवत्यथ समन्ततः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पलक मारते-मारते इस समस्त चराचर जगत्‌का नाश हो जाता है और यह भूमि सब ओरसे कछुएकी पीठकी तरह प्रतीत होने लगती है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगद् दग्ध्वामितबलः केवलां जगतीं ततः।
अम्भसा बलिना क्षिप्रमापूरयति सर्वशः ॥ ७ ॥

मूलम्

जगद् दग्ध्वामितबलः केवलां जगतीं ततः।
अम्भसा बलिना क्षिप्रमापूरयति सर्वशः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत्‌को गन्ध करनेके बाद अमित बलवान् रुद्र इस अकेली बची हुई समूची पृथ्वीको शीघ्र ही जलके महान् प्रवाहमें डुबो देते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कालाग्निमासाद्य तदम्भो याति संक्षयम्।
विनष्टेऽम्भसि राजेन्द्र जाज्वलत्यनलो महान् ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः कालाग्निमासाद्य तदम्भो याति संक्षयम्।
विनष्टेऽम्भसि राजेन्द्र जाज्वलत्यनलो महान् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कालाग्निकी लपटमें पड़कर वह सारा जल सूख जाता है। राजेन्द्र! जलके नष्ट हो जानेपर आग अत्यन्त भयानक रूप धारण करती है और सब ओर बड़े जोरसे प्रज्वलित होने लगती है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमप्रमेयोऽतिबलं ज्वलमानं विभावसुम् ।
ऊष्माणं सर्वभूतानां सप्तार्चिषमथाञ्जसा ॥ ९ ॥
भक्षयामास भगवान् वायुरष्टात्मको बली।
विचरन्नमितप्राणस्तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा ॥ १० ॥

मूलम्

तमप्रमेयोऽतिबलं ज्वलमानं विभावसुम् ।
ऊष्माणं सर्वभूतानां सप्तार्चिषमथाञ्जसा ॥ ९ ॥
भक्षयामास भगवान् वायुरष्टात्मको बली।
विचरन्नमितप्राणस्तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण भूतोंको गर्मी पहुँचानेवाली तथा अत्यन्त प्रबल वेगसे जलती हुई उस सात ज्वालाओंसे युक्त अताको बलवान् वायुदेव अपने आठ रूपोंमें प्रकट होकर निगल जाते हैं और ऊपर-नीचे तथा बीचमें सब ओर प्रवाहित होने लगते हैं॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमप्रतिबलं भीममाकाशं ग्रसतेऽऽत्मना ।
आकाशमप्यभिनदन्मनो ग्रसति चाधिकम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तमप्रतिबलं भीममाकाशं ग्रसतेऽऽत्मना ।
आकाशमप्यभिनदन्मनो ग्रसति चाधिकम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर आकाश उस अत्यन्त प्रबल एवं भयंकर वायुको स्वयं ही ग्रस लेता है। फिर गर्जन-तर्जन करनेवाले उस आकाशको उससे भी अधिक शक्तिशाली मन अपना ग्रास बना लेता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनो ग्रसति भूतात्मा सोऽहंकारः प्रजापतिः।
अहंकारं महानात्मा भूतभव्यभविष्यवित् ॥ १२ ॥

मूलम्

मनो ग्रसति भूतात्मा सोऽहंकारः प्रजापतिः।
अहंकारं महानात्मा भूतभव्यभविष्यवित् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रमशः भूतात्मा और प्रजापतिस्वरूप अहंकार मनको अपनेमें लीन कर लेता है। तत्पश्चात् भूत, भविष्य और वर्तमानका ज्ञाता बुद्धिस्वरूप महत्तत्व अहंकारको अपना ग्रास बना लेता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमप्यनुपमात्मानं विश्वं शम्भुः प्रजापतिः।
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः ॥ १३ ॥
सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः ।
सर्वतः श्रुतिमाल्ँलोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १४ ॥
हृदयं सर्वभूतानां पर्वणाङ्‌गुष्ठमात्रकः ।
अथ ग्रसत्यनन्तो हि महात्मा विश्वमीश्वरः ॥ १५ ॥

मूलम्

तमप्यनुपमात्मानं विश्वं शम्भुः प्रजापतिः।
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः ॥ १३ ॥
सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः ।
सर्वतः श्रुतिमाल्ँलोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १४ ॥
हृदयं सर्वभूतानां पर्वणाङ्‌गुष्ठमात्रकः ।
अथ ग्रसत्यनन्तो हि महात्मा विश्वमीश्वरः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद, जिनके सब ओर हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं, सब ओर कान हैं तथा जो जगत्‌में सबको व्याप्त करके स्थित हैं, जो सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें अंगुष्ठपर्वके बराबर आकार धारण करके विराजमान हैं, अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि ऐश्वर्य जिनके अधीन हैं, जो सबके नियन्ता, ज्योतिःस्वरूप, अविनाशी, कल्याणमय, प्रजाके स्वामी, अनन्त, महान् आत्मा और सर्वेश्वर हैं, वे परब्रह्म परमात्मा उस अनुपम विश्वरूप बुद्धितत्त्वको अपनेमें लीन कर लेते हैं॥१३—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समभवत् सर्वमक्षयाव्ययमव्रणम् ।
भूतभव्यभविष्याणां स्रष्टारमनघं तथा ॥ १६ ॥

मूलम्

ततः समभवत् सर्वमक्षयाव्ययमव्रणम् ।
भूतभव्यभविष्याणां स्रष्टारमनघं तथा ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर ह्रास और वृद्धिसे रहित, अविनाशी और निर्विकार, सर्वस्वरूप परब्रह्म ही शेष रह जाता है। उसीने भूत, भविष्य और वर्तमानकी सृष्टि करनेवाले निष्पाप ब्रह्माकी भी सृष्टि की है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषोऽप्ययस्ते राजेन्द्र यथावत् समुदाहृतः।
अध्यात्ममधिभूतं च अधिदैवं च श्रूयताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

एषोऽप्ययस्ते राजेन्द्र यथावत् समुदाहृतः।
अध्यात्ममधिभूतं च अधिदैवं च श्रूयताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष संहारक्रमका यथावत्‌रूपसे वर्णन किया है। अब तुम अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवका वर्णन सुनो॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि याज्ञवल्क्यजनकसंवादे द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३१२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें याज्ञवल्क्य और जनकका संवादविषयक तीन सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१२॥