भागसूचना
एकादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार, मन और विषयोंकी कालसंख्याका एवं सृष्टिका वर्णन तथा इन्द्रियोंमें मनकी प्रधानताका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
याज्ञवल्क्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तस्य नरश्रेष्ठ कालसंख्यां निबोध मे।
पञ्चकल्पसहस्राणि द्विगुणान्यहरुच्यते ॥ १ ॥
मूलम्
अव्यक्तस्य नरश्रेष्ठ कालसंख्यां निबोध मे।
पञ्चकल्पसहस्राणि द्विगुणान्यहरुच्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
याज्ञवल्क्यजी कहते हैं— नरश्रेष्ठ! अब तुम मुझसे अव्यक्तकी काल-संख्या सुनो। दस हजार कल्पोंका (महायुगोंका) इस अव्यक्तका एक दिन बताया जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रात्रिरेतावती चास्य प्रतिबुद्धो नराधिप।
सृजत्योषधिमेवाग्रे जीवनं सर्वदेहिनाम् ॥ २ ॥
मूलम्
रात्रिरेतावती चास्य प्रतिबुद्धो नराधिप।
सृजत्योषधिमेवाग्रे जीवनं सर्वदेहिनाम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उसकी रात्रि भी उतनी ही बड़ी होती है। ज्ञानस्वरूप परब्रह्म परमात्मा पहले समस्त प्राणियोंके जीवन-निर्वाहके लिये ओषधि (नाना प्रकारके अन्न) की सृष्टि करते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ब्रह्माणमसृजद्धिरण्याण्डसमुद्भवम् ।
सा मूर्तिः सर्वभूतानामित्येवमनुशुश्रुम ॥ ३ ॥
मूलम्
ततो ब्रह्माणमसृजद्धिरण्याण्डसमुद्भवम् ।
सा मूर्तिः सर्वभूतानामित्येवमनुशुश्रुम ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने सुना है कि परमात्माने ओषधियोंकी सृष्टिके बाद ब्रह्माजीकी सृष्टि की थी, जो सुवर्णमय अण्डके भीतरसे प्रकट हुए थे। वे ही सम्पूर्ण भूतोंके उद्गमस्थान हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरमुषित्वाण्डे निष्क्रम्य च महामुनिः।
संदधे स महीं कृत्स्नां दिवमूर्ध्वं प्रजापतिः ॥ ४ ॥
मूलम्
संवत्सरमुषित्वाण्डे निष्क्रम्य च महामुनिः।
संदधे स महीं कृत्स्नां दिवमूर्ध्वं प्रजापतिः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महामुनि प्रजापति ब्रह्मा उस सुवर्णमय अण्डके भीतर एक वर्षतक निवास करके उससे बाहर निकल आये। फिर उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी, आकाश और ऊर्ध्वलोक (स्वर्ग) की सृष्टिके लिये विचार आरम्भ किया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्यावापृथिव्योरित्येष राजन् वेदेषु पठ्यते।
तयोः शकलयोर्मध्यमाकाशमकरोत् प्रभुः ॥ ५ ॥
मूलम्
द्यावापृथिव्योरित्येष राजन् वेदेषु पठ्यते।
तयोः शकलयोर्मध्यमाकाशमकरोत् प्रभुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! शक्तिशाली ब्रह्माजीने उस अण्डके दोनों टुकड़ोंके एवं स्वर्ग तथा भूतलके मध्यभागमें आकाशकी सृष्टि की। यह बात वेदोंमें कही गयी है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्यापि च संख्यानं वेदवेदाङ्गपारगैः।
दशकल्पसहस्राणि पादोनान्यहरुच्यते ॥ ६ ॥
मूलम्
एतस्यापि च संख्यानं वेदवेदाङ्गपारगैः।
दशकल्पसहस्राणि पादोनान्यहरुच्यते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदों और वेदांगोंके पारंगत विद्वान् ब्रह्माजीकी भी कालसंख्याका विचार करते हुए कहते हैं कि दस हजार कल्पोंमेंसे एक चौथाई कम कर देनेपर जितना शेष रहता है, उतना ही ब्रह्माजीके एक दिनका मान है अर्थात् साढ़े सात हजार कल्पोंका उनका एक दिन होता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रात्रिमेतावतीं चास्य प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः ।
सृजत्यहङ्कारमृषिर्भूतं दिव्यात्मकं तथा ॥ ७ ॥
मूलम्
रात्रिमेतावतीं चास्य प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः ।
सृजत्यहङ्कारमृषिर्भूतं दिव्यात्मकं तथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अध्यात्मतत्त्वोंका चिन्तन करनेवाले विद्वानोंका कथन है कि ब्रह्माजीकी रात्रि भी इतनी ही बड़ी है। महान् ऋषि ब्रह्मा अहंकार नामक दिव्य भूतकी सृष्टि करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुरश्चापरान् पुत्रान् देहात् पूर्वं महानृषिः।
ते वै पितॄणां पितरः श्रूयन्ते राजसत्तम ॥ ८ ॥
मूलम्
चतुरश्चापरान् पुत्रान् देहात् पूर्वं महानृषिः।
ते वै पितॄणां पितरः श्रूयन्ते राजसत्तम ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! महान् ऋषि ब्रह्माने पूर्वकालमें भौतिक देहकी उत्पत्तिसे पहले चार अन्य पुत्रोंको उत्पन्न किया (जिनके नाम ये हैं—बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त)। वे चारों पुत्र ‘पितरोंके भी पितर’ अर्थात् पञ्चमहाभूतोंके भी जनक सुने जाते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवाः पितॄणां च सुता देवैर्लोकाः समावृताः।
चराचरा नरश्रेष्ठ इत्येवमनुशुश्रुम ॥ ९ ॥
मूलम्
देवाः पितॄणां च सुता देवैर्लोकाः समावृताः।
चराचरा नरश्रेष्ठ इत्येवमनुशुश्रुम ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! देवता (श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ) पितरों (पञ्चमहाभूतों) के पुत्र हैं अर्थात् सारी इन्द्रियाँ पञ्च-महाभूतोंसे ही उत्पन्न हुई हैं और वे समस्त चराचर जगत्का आश्रय लेकर स्थित हैं, ऐसा हमने सुना है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परमेष्ठी त्वहङ्कारः सृजन् भूतानि पञ्चधा।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् ॥ १० ॥
मूलम्
परमेष्ठी त्वहङ्कारः सृजन् भूतानि पञ्चधा।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्रष्टाके उत्तम पदपर प्रतिष्ठित हुआ अहंकार आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—इन पाँच प्रकारके भूतोंकी सृष्टि करता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्यापि निशामाहुस्तृतीयमिह कुर्वतः ।
पञ्चकल्पसहस्राणि तावदेवाहरुच्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
एतस्यापि निशामाहुस्तृतीयमिह कुर्वतः ।
पञ्चकल्पसहस्राणि तावदेवाहरुच्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तृतीय भौतिक सर्गकी सृष्टि करनेवाले अहंकारकी रात्रि पाँच हजार कल्पोंकी होती है। उसका दिन भी उतना ही बड़ा बताया जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।
एते विशेषा राजेन्द्र महाभूतेषु पञ्चसु ॥ १२ ॥
मूलम्
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।
एते विशेषा राजेन्द्र महाभूतेषु पञ्चसु ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! आकाश आदि पाँच महाभूतोंमें क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये विशेष गुण हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैराविष्टानि भूतानि अहन्यहनि पार्थिव।
अन्योन्यं स्पृहयन्त्येते अन्योन्यस्य हिते रताः ॥ १३ ॥
अन्योन्यमतिवर्तन्ते अन्योन्यस्पर्धिनस्तथा ।
ते वध्यमाना ह्यन्योन्यं गुणैर्हारिभिरव्ययैः ॥ १४ ॥
मूलम्
यैराविष्टानि भूतानि अहन्यहनि पार्थिव।
अन्योन्यं स्पृहयन्त्येते अन्योन्यस्य हिते रताः ॥ १३ ॥
अन्योन्यमतिवर्तन्ते अन्योन्यस्पर्धिनस्तथा ।
ते वध्यमाना ह्यन्योन्यं गुणैर्हारिभिरव्ययैः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! प्रवाहरूपसे सदा विद्यमान रहनेवाले इन मनोहर शब्द आदि विषयोंसे आविष्ट होकर सभी प्राणी प्रतिदिन कभी एक-दूसरेको चाहते हैं, कभी पारस्परिक हितसाधनमें तत्पर रहते हैं, कभी एक-दूसरेको नीचा दिखानेकी चेष्टा करते हैं, कभी आपसमें ईर्ष्या रखते हैं और कभी परस्पर प्रहार भी कर बैठते हैं॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहैव परिवर्तन्ते तिर्यग्योनिप्रवेशिनः ।
त्रीणि कल्पसहस्राणि एतेषामहरुच्यते ॥ १५ ॥
रात्रिरेतावती चैव मनसश्च नराधिप।
मूलम्
इहैव परिवर्तन्ते तिर्यग्योनिप्रवेशिनः ।
त्रीणि कल्पसहस्राणि एतेषामहरुच्यते ॥ १५ ॥
रात्रिरेतावती चैव मनसश्च नराधिप।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे विषयासक्त प्राणी तिर्यग्योनियोंमें प्रवेश करके इसी संसारमें चक्कर काटते रहते हैं। इन शब्दादि विषयोंका एक दिन तीन हजार कल्पोंका बताया जाता है। नरेश्वर! इनकी रात भी इतनी ही बड़ी है। मनके भी दिन-रातका परिमाण इतना ही है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनश्चरति राजेन्द्र चारितं सर्वमिन्द्रियैः ॥ १६ ॥
न चेन्द्रियाणि पश्यन्ति मन एवानुपश्यति।
चक्षुः पश्यति रूपाणि मनसा तु न चक्षुषा ॥ १७ ॥
मूलम्
मनश्चरति राजेन्द्र चारितं सर्वमिन्द्रियैः ॥ १६ ॥
न चेन्द्रियाणि पश्यन्ति मन एवानुपश्यति।
चक्षुः पश्यति रूपाणि मनसा तु न चक्षुषा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! मन इन्द्रियोंद्वारा संचालित होकर सब विषयोंकी ओर जाता है। इन्द्रियाँ उन विषयोंको नहीं देखतीं, मन ही उन्हें निरन्तर देखता है। आँख मनके सहयोगसे ही रूपका दर्शन करती है, अपनी शक्तिसे नहीं॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसि व्याकुले चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति।
तथेन्द्रियाणि सर्वाणि पश्यन्तीत्यभिचक्षते ॥ १८ ॥
मूलम्
मनसि व्याकुले चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति।
तथेन्द्रियाणि सर्वाणि पश्यन्तीत्यभिचक्षते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय मन व्यग्र रहता है, उस समय आँख देखती हुई भी नहीं देख पाती। लोग भ्रमवश ही ऐसा कहते हैं कि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ विषयोंको प्रत्यक्ष करती हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चेन्द्रियाणि पश्यन्ति मन एवात्र पश्यति।
मनस्युपरते राजन्निन्द्रियोपरमो भवेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
न चेन्द्रियाणि पश्यन्ति मन एवात्र पश्यति।
मनस्युपरते राजन्निन्द्रियोपरमो भवेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु इन्द्रियाँ कुछ नहीं देखतीं, केवल मन ही देखता है। राजन्! मन विषयोंसे उपरत हो जाय तो इन्द्रियाँ भी विषयोंसे निवृत्त हो जाती हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चेन्द्रियव्युपरमे मनस्युपरमो भवेत्।
एवं मनःप्रधानानि इन्द्रियाणि प्रभावयेत् ॥ २० ॥
मूलम्
न चेन्द्रियव्युपरमे मनस्युपरमो भवेत्।
एवं मनःप्रधानानि इन्द्रियाणि प्रभावयेत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु इन्द्रियोंके उपरत होनेपर मनमें उपरति नहीं आती। इस प्रकार यह निश्चय करना चाहिये कि सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें मन ही प्रधान है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणां तु सर्वेषामीश्वरं मन उच्यते।
एतद् विशन्ति भूतानि सर्वाणीह महायशः ॥ २१ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणां तु सर्वेषामीश्वरं मन उच्यते।
एतद् विशन्ति भूतानि सर्वाणीह महायशः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनको सम्पूर्ण इन्द्रियोंका स्वामी कहा जाता है। महायशस्वी नरेश! जगत्के समस्त प्राणी इस मनका ही आश्रय लेते हैं॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि याज्ञवल्क्यजनकसंवादे एकादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३११ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें याज्ञवल्क्य-जनकका संवादविषयक तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३११॥