भागसूचना
दशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
याज्ञवल्क्यका राजा जनकको उपदेश—सांख्यमतके अनुसार चौबीस तत्त्वों और नौ प्रकारके सर्गोंका निरूपण
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माधर्मविमुक्तं यद् विमुक्तं सर्वसंशयात्।
जन्ममृत्युविमुक्तं च विमुक्तं पुण्यपापयोः ॥ १ ॥
यच्छिवं नित्यमभयं नित्यमक्षरमव्ययम् ।
शुचि नित्यमनायासं तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ २ ॥
मूलम्
धर्माधर्मविमुक्तं यद् विमुक्तं सर्वसंशयात्।
जन्ममृत्युविमुक्तं च विमुक्तं पुण्यपापयोः ॥ १ ॥
यच्छिवं नित्यमभयं नित्यमक्षरमव्ययम् ।
शुचि नित्यमनायासं तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— पितामह! जो धर्म और अधर्मके बन्धनसे मुक्त, सम्पूर्ण संशयोंसे रहित, जन्म और मृत्युसे रहित, पुण्य और पापसे मुक्त, नित्य, निर्भय, कल्याणमय, अक्षर, अव्यय (अविकारी), पवित्र एवं क्लेशरहित तत्त्व है, उसका आप हमें उपदेश कीजिये॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्।
याज्ञवल्क्यस्य संवादं जनकस्य च भारत ॥ ३ ॥
मूलम्
अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्।
याज्ञवल्क्यस्य संवादं जनकस्य च भारत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी बोले— भरतनन्दन! इस विषयमें मैं तुम्हें जनक और याज्ञवल्क्यका संवादरूप एक प्राचीन इतिहास सुनाऊँगा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याज्ञवल्क्यमृषिश्रेष्ठं दैवरातिर्महायशाः ।
पप्रच्छ जनको राजा प्रश्नं प्रश्नविदां वरम् ॥ ४ ॥
मूलम्
याज्ञवल्क्यमृषिश्रेष्ठं दैवरातिर्महायशाः ।
पप्रच्छ जनको राजा प्रश्नं प्रश्नविदां वरम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार देवरातके महायशस्वी पुत्र राजा जनकने प्रश्नका रहस्य समझनेवालोंमें श्रेष्ठ मुनिवर याज्ञवल्क्यजीसे पूछा॥४॥
मूलम् (वचनम्)
जनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कतीन्द्रियाणि विप्रर्षे कति प्रकृतयः स्मृताः।
किमव्यक्तं परं ब्रह्म तस्माच्च परतस्तु किम् ॥ ५ ॥
प्रभवं चाप्ययं चैव कालसंख्यां तथैव च।
वक्तुमर्हसि विप्रेन्द्र त्वदनुग्रहकाङ्क्षिणः ॥ ६ ॥
मूलम्
कतीन्द्रियाणि विप्रर्षे कति प्रकृतयः स्मृताः।
किमव्यक्तं परं ब्रह्म तस्माच्च परतस्तु किम् ॥ ५ ॥
प्रभवं चाप्ययं चैव कालसंख्यां तथैव च।
वक्तुमर्हसि विप्रेन्द्र त्वदनुग्रहकाङ्क्षिणः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनक बोले— ब्रह्मर्षे! इन्द्रियाँ कितनी हैं? प्रकृतिके कितने भेद माने गये हैं? अव्यक्त क्या है? और उससे परे परब्रह्म परमात्माका क्या स्वरूप है? सृष्टि और प्रलय क्या है? और कालकी गणना कैसे की जाती है? विप्रेन्द्र! ये सब बतानेकी कृपा करें; क्योंकि हमलोग आपकी कृपाके अभिलाषी हैं॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानात् परिपृच्छामि त्वं हि ज्ञानमयो निधिः।
तदहं श्रोतुमिच्छामि सर्वमेतदसंशयम् ॥ ७ ॥
मूलम्
अज्ञानात् परिपृच्छामि त्वं हि ज्ञानमयो निधिः।
तदहं श्रोतुमिच्छामि सर्वमेतदसंशयम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं इन बातोंको नहीं जानता, इसलिये पूछ रहा हूँ। आप ज्ञानके भण्डार हैं, इसलिये आपहीसे इन सब विषयोंको सुननेकी इच्छा हो रही है; जिससे सारा संदेह दूर हो जाय॥७॥
मूलम् (वचनम्)
याज्ञवल्क्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयतामवनीपाल यदेतदनुपृच्छसि ।
योगानां परमं ज्ञानं सांख्यानां च विशेषतः ॥ ८ ॥
मूलम्
श्रूयतामवनीपाल यदेतदनुपृच्छसि ।
योगानां परमं ज्ञानं सांख्यानां च विशेषतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
याज्ञवल्क्यजीने कहा— भूपाल! सुनो, तुम जो कुछ पूछते हो, वह योग और विशेषतः सांख्यका परम रहस्यमय ज्ञान तुम्हें बताता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तवाविदितं किंचिन्मां तु जिज्ञासते भवान्।
पृष्टेन चापि वक्तव्यमेष धर्मः सनातनः ॥ ९ ॥
मूलम्
न तवाविदितं किंचिन्मां तु जिज्ञासते भवान्।
पृष्टेन चापि वक्तव्यमेष धर्मः सनातनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि तुमसे कोई भी विषय अज्ञात नहीं है, फिर भी मुझसे पूछते हो तो कहना ही पड़ता है; क्योंकि किसीके पूछनेपर जानकार मनुष्यको उसके प्रश्नका उत्तर देना ही चाहिये। यही सनातन धर्म है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्ता विकाराश्चापि षोडश।
तत्र तु प्रकृतीरष्टौ प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः ॥ १० ॥
अव्यक्तं च महान्तं च तथाहङ्कार एव च।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् ॥ ११ ॥
मूलम्
अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्ता विकाराश्चापि षोडश।
तत्र तु प्रकृतीरष्टौ प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः ॥ १० ॥
अव्यक्तं च महान्तं च तथाहङ्कार एव च।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृतियाँ आठ बतायी गयी हैं और उनके विकार सोलह। अध्यात्मशास्त्रका चिन्तन करनेवाले विद्वान् आठ प्रकृतियोंके नाम इस प्रकार बतलाते हैं—अव्यक्त (मूल प्रकृति), महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एताः प्रकृतयस्त्वष्टौ विकारानपि मे शृणु।
श्रोत्रं त्वक्चैव चक्षुश्च जिह्वा घ्राणं च पञ्चमम् ॥ १२ ॥
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।
वाक् च हस्तौ च पादौ च पायुर्मेढ्रं तथैव च॥१३॥
मूलम्
एताः प्रकृतयस्त्वष्टौ विकारानपि मे शृणु।
श्रोत्रं त्वक्चैव चक्षुश्च जिह्वा घ्राणं च पञ्चमम् ॥ १२ ॥
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।
वाक् च हस्तौ च पादौ च पायुर्मेढ्रं तथैव च॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये आठ प्रकृतियाँ कही गयीं। अब मुझसे विकारोंका भी वर्णन सुनो—श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, पाँचवीं नासिका, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, वाणी, हाथ, पैर, लिंग और गुदा॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते विशेषा राजेन्द्र महाभूतेषु पञ्चसु।
बुद्धीन्द्रियाण्यथैतानि सविशेषाणि मैथिल ॥ १४ ॥
मूलम्
एते विशेषा राजेन्द्र महाभूतेषु पञ्चसु।
बुद्धीन्द्रियाण्यथैतानि सविशेषाणि मैथिल ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उनमें पाँच कर्मेन्द्रियों और शब्द आदि पाँच विषयोंकी ‘विशेष’ संज्ञा है और ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ‘सविशेष’ कहलाती हैं। मिथिलानरेश! ये ‘विशेष’ और ‘सविशेष’ तत्त्व पञ्चमहाभूतोंमें ही स्थित हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनः षोडशकं प्राहुरध्यात्मगतिचिन्तकाः ।
त्वं चैवान्ये च विद्वांसस्तत्त्वबुद्धिविशारदाः ॥ १५ ॥
मूलम्
मनः षोडशकं प्राहुरध्यात्मगतिचिन्तकाः ।
त्वं चैवान्ये च विद्वांसस्तत्त्वबुद्धिविशारदाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(ये सब मिलकर पंद्रह हैं) इनके साथ सोलहवाँ मन है। अध्यात्मगतिका चिन्तन करनेवाले तत्त्वज्ञान-विशारद तुम और दूसरे विद्वान् भी इन्हींको सोलह विकार कहते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्ताच्च महानात्मा समुत्पद्यति पार्थिव।
प्रथमं सर्गमित्येतदाहुः प्राधानिकं बुधाः ॥ १६ ॥
मूलम्
अव्यक्ताच्च महानात्मा समुत्पद्यति पार्थिव।
प्रथमं सर्गमित्येतदाहुः प्राधानिकं बुधाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! अव्यक्त प्रकृतिसे महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) की उत्पत्ति होती है। इसे विद्वान् पुरुष प्रथम एवं प्राकृत सृष्टि कहते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महतश्चाप्यहङ्कार उत्पन्नो हि नराधिप।
द्वितीयं सर्गमित्याहुरेतद् बुद्ध्यात्मकं स्मृतम् ॥ १७ ॥
मूलम्
महतश्चाप्यहङ्कार उत्पन्नो हि नराधिप।
द्वितीयं सर्गमित्याहुरेतद् बुद्ध्यात्मकं स्मृतम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! महत्तत्त्वसे अहंकार प्रकट होता है, जो दूसरा सर्ग बताया जाता है। इसे बुद्ध्यात्मक सृष्टि माना गया है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहङ्काराच्च सम्भूतं मनो भूतगुणात्मकम्।
तृतीयः सर्ग इत्येष आहङ्कारिक उच्यते ॥ १८ ॥
मूलम्
अहङ्काराच्च सम्भूतं मनो भूतगुणात्मकम्।
तृतीयः सर्ग इत्येष आहङ्कारिक उच्यते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहंकारसे मन उत्पन्न हुआ है, जो पञ्चभूत और शब्दादि गुणस्वरूप है। इसे तीसरा और आहंकारिक सर्ग कहा जाता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसस्तु समुद्भूता महाभूता नराधिप।
चतुर्थं सर्गमित्येतन्मानसं विद्धि मे मतम् ॥ १९ ॥
मूलम्
मनसस्तु समुद्भूता महाभूता नराधिप।
चतुर्थं सर्गमित्येतन्मानसं विद्धि मे मतम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मनसे पाँच सूक्ष्म महाभूत उत्पन्न हुए हैं। यह चौथा सर्ग है। मेरे मतके अनुसार इसे मानसी सृष्टि समझो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।
पञ्चमं सर्गमित्याहुर्भौतिकं भूतचिन्तकाः ॥ २० ॥
मूलम्
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।
पञ्चमं सर्गमित्याहुर्भौतिकं भूतचिन्तकाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये पाँच विषय पञ्चमहाभूतोंसे उत्पन्न हुए हैं। यह पाँचवीं सृष्टि है। भूतचिन्तक विद्वान् इसे भौतिक सर्ग कहते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोत्रं त्वक् चैव चक्षुश्च जिह्वा घ्राणं च पञ्चमम्।
सर्गं तु षष्ठमित्याहुर्बहुचिन्तात्मकं स्मृतम् ॥ २१ ॥
मूलम्
श्रोत्रं त्वक् चैव चक्षुश्च जिह्वा घ्राणं च पञ्चमम्।
सर्गं तु षष्ठमित्याहुर्बहुचिन्तात्मकं स्मृतम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और पाँचवीं नासिका—इसे छठा सर्ग बताया गया है। यह बहुचिन्तात्मक सर्ग माना गया है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधः श्रोत्रेन्द्रियग्राम उत्पद्यति नराधिप।
सप्तमं सर्गमित्याहुरेतदैन्द्रियकं स्मृतम् ॥ २२ ॥
मूलम्
अधः श्रोत्रेन्द्रियग्राम उत्पद्यति नराधिप।
सप्तमं सर्गमित्याहुरेतदैन्द्रियकं स्मृतम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके बाद कर्मेन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। इसे सातवाँ सर्ग कहते हैं। इसीको ऐन्द्रियक सृष्टि भी कहा जाता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वं स्रोतस्तथा तिर्यगुत्पद्यपि नराधिप।
अष्टमं सर्गमित्याहुरेतदार्जवकं स्मृतम् ॥ २३ ॥
मूलम्
ऊर्ध्वं स्रोतस्तथा तिर्यगुत्पद्यपि नराधिप।
अष्टमं सर्गमित्याहुरेतदार्जवकं स्मृतम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जिसका प्रवाह ऊपरकी ओर है, वह प्राण एवं तिरछा चलनेवाले समान, व्यान और उदान—ये सब प्रकट हुए। यह आठवाँ सर्ग है। इसीको आर्जवक सर्ग कहा गया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिर्यक्स्रोतस्त्वधःस्रोत उत्पद्यति नराधिप ।
नवमं सर्गमित्याहुरेतदार्जवकं बुधाः ॥ २४ ॥
मूलम्
तिर्यक्स्रोतस्त्वधःस्रोत उत्पद्यति नराधिप ।
नवमं सर्गमित्याहुरेतदार्जवकं बुधाः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तत्पश्चात् जिसका प्रवाह तिरछा चलता है, वे व्यान और उदान अपान वायुके साथ निम्नभागमें प्रकट हुए। इसे नवम सर्ग कहते हैं। इसे भी विद्वान् पुरुष आर्जवक सृष्टिके नामसे ही पुकारते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतानि नव सर्गाणि तत्त्वानि च नराधिप।
चतुर्विंशतिरुक्तानि यथाश्रुतिनिदर्शनात् ॥ २५ ॥
मूलम्
एतानि नव सर्गाणि तत्त्वानि च नराधिप।
चतुर्विंशतिरुक्तानि यथाश्रुतिनिदर्शनात् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! ये नौ सर्ग और चौबीस तत्त्व श्रुतिके निर्देशके अनुसार यहाँ बताये गये हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत ऊर्ध्वं महाराज गुणस्यैतस्य तत्त्वतः।
महात्मभिरनुप्रोक्तां कालसंख्यां निबोध मे ॥ २६ ॥
मूलम्
अत ऊर्ध्वं महाराज गुणस्यैतस्य तत्त्वतः।
महात्मभिरनुप्रोक्तां कालसंख्यां निबोध मे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! अब इसके बाद महात्मा पुरुषोंद्वारा बतायी गयी इस गुणमयी सृष्टिकी कालसंख्या भी मुझसे यथावत्रूपसे सुनो॥२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि याज्ञवल्क्यजनकसंवादे दशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३१० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें याज्ञवल्क्य-जनक-संवादविषयक तीन सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३१०॥