भागसूचना
नवाधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जनकवंशी वसुमान्को एक मुनिका धर्मविषयक उपदेश
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगयां विचरन् कश्चिद् विजने जनकात्मजः।
वने ददर्श विप्रेन्द्रमृषिं वंशधरं भृगोः ॥ १ ॥
मूलम्
मृगयां विचरन् कश्चिद् विजने जनकात्मजः।
वने ददर्श विप्रेन्द्रमृषिं वंशधरं भृगोः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! एक समयकी बात है, जनकवंशका कोई राजकुमार शिकार खेलनेके लिये एक निर्जन वनमें घूम रहा था। उसने वनमें बैठे हुए एक मुनिको देखा; जो ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ एवं महर्षि भृगुके वंशधर थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपासीनमुपासीनः प्रणम्य शिरसा मुनिम्।
पश्चादनुमतस्तेन पप्रच्छ वसुमानिदम् ॥ २ ॥
मूलम्
उपासीनमुपासीनः प्रणम्य शिरसा मुनिम्।
पश्चादनुमतस्तेन पप्रच्छ वसुमानिदम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पास ही बैठे हुए मुनिको मस्तक झुकाकर प्रणाम करके वह राजकुमार उनके समीपमें ही बैठ गया। उसका नाम वसुमान् था। उसने महर्षिकी आज्ञा लेकर उनसे इस प्रकार पूछा—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् किमिदं श्रेयः प्रेत्य चापीह वा भवेत्।
पुरुषस्याध्रुवे देहे कामस्य वशवर्तिनः ॥ ३ ॥
मूलम्
भगवन् किमिदं श्रेयः प्रेत्य चापीह वा भवेत्।
पुरुषस्याध्रुवे देहे कामस्य वशवर्तिनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! इस क्षणभंगुर शरीरमें कामके अधीन होकर रहनेवाले पुरुषका इस लोक और परलोकमें किस उपायसे कल्याण हो सकता है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्कृत्य परिपृष्टः सन् सुमहात्मा महातपाः।
निजगाद ततस्तस्मै श्रेयस्करमिदं वचः ॥ ४ ॥
मूलम्
सत्कृत्य परिपृष्टः सन् सुमहात्मा महातपाः।
निजगाद ततस्तस्मै श्रेयस्करमिदं वचः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्कारपूर्वक प्रश्न करनेपर उन महातपस्वी महात्मा मुनिने राजकुमार वसुमान्से यह कल्याणकारी वचन कहा॥४॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसोऽप्रतिकूलानि प्रेत्य चेह च वाञ्छसि।
भूतानां प्रतिकूलेभ्यो निवर्तस्व यतेन्द्रियः ॥ ५ ॥
मूलम्
मनसोऽप्रतिकूलानि प्रेत्य चेह च वाञ्छसि।
भूतानां प्रतिकूलेभ्यो निवर्तस्व यतेन्द्रियः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि बोले— राजकुमार! यदि तुम इस लोक और परलोकमें अपने मनके अनुकूल वस्तुएँ पाना चाहते हो तो अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर समस्त प्राणियोंके प्रतिकूल आचरणोंसे दूर हट जाओ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मः सतां हितः पुंसां धर्मश्चैवाश्रयः सताम्।
धर्माल्लोकास्त्रयस्तात प्रवृत्ताः सचराचराः ॥ ६ ॥
मूलम्
धर्मः सतां हितः पुंसां धर्मश्चैवाश्रयः सताम्।
धर्माल्लोकास्त्रयस्तात प्रवृत्ताः सचराचराः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म ही सत्पुरुषोंका कल्याण करनेवाला और धर्म ही उनका आश्रय है। तात! चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोक धर्मसे ही उत्पन्न हुए हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वादुकामुक कामानां वैतृष्ण्यं किं न गच्छसि।
मधु पश्यसि दुर्बुद्धे प्रपातं नानुपश्यसि ॥ ७ ॥
मूलम्
स्वादुकामुक कामानां वैतृष्ण्यं किं न गच्छसि।
मधु पश्यसि दुर्बुद्धे प्रपातं नानुपश्यसि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भोगोंका रस लेनेकी इच्छा रखनेवाले दुर्बुद्धि मानव! तुम्हारी कामपिपासा शान्त क्यों नहीं होती? अभी तुम्हें वृक्षकी ऊँची डालीमें लगा हुआ केवल मधु ही दिखायी देता है। वहाँसे गिरनेपर प्राणान्त हो सकता है, इसकी ओर तुम्हारी दृष्टि नहीं है (अर्थात् अभी तुम भोगोंकी मिठासपर ही लुभाये हुए हो। उससे होनेवाले पतनकी ओर तुम्हारा ध्यान नहीं जा रहा है)॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा ज्ञाने परिचयः कर्तव्यस्तत्फलार्थिना।
तथा धर्मे परिचयः कर्तव्यस्तत्फलार्थिना ॥ ८ ॥
मूलम्
यथा ज्ञाने परिचयः कर्तव्यस्तत्फलार्थिना।
तथा धर्मे परिचयः कर्तव्यस्तत्फलार्थिना ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे ज्ञानका फल चाहनेवालेके लिये ज्ञानसे परिचित होना आवश्यक है, उसी प्रकार धर्मका फल चाहनेवाले मनुष्यको भी धर्मका परिचय प्राप्त करना चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असता धर्मकामेन विशुद्धं कर्म दुष्करम्।
सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम् ॥ ९ ॥
मूलम्
असता धर्मकामेन विशुद्धं कर्म दुष्करम्।
सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्ट पुरुष यदि धर्मकी इच्छा करे तो भी उसके द्वारा विशुद्ध कर्मका सम्पादन होना कठिन है और साधु पुरुष यदि धर्मके अनुष्ठानकी इच्छा करे तो उसके लिये कठिन-से-कठिन कर्म भी करना सहज है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने ग्राम्यसुखाचारो यथा ग्राम्यस्तथैव सः।
ग्रामे वनसुखाचारो यथा वनचरस्तथा ॥ १० ॥
मूलम्
वने ग्राम्यसुखाचारो यथा ग्राम्यस्तथैव सः।
ग्रामे वनसुखाचारो यथा वनचरस्तथा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनमें रहकर भी जो ग्रामीण सुखोंका उपभोग करनेमें लगा है, उसको ग्रामीण ही समझना चाहिये तथा गाँवोंमें रहकर भी जो वनवासी मुनियोंके-से बर्तावमें ही सुख मानता है, उसकी गिनती वनवासियोंमें ही करनी चाहिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोवाक्कायिके धर्मे कुरु श्रद्धां समाहितः।
निवृत्तौ वा प्रवृत्तौ वा सम्प्रधार्य गुणागुणान् ॥ ११ ॥
मूलम्
मनोवाक्कायिके धर्मे कुरु श्रद्धां समाहितः।
निवृत्तौ वा प्रवृत्तौ वा सम्प्रधार्य गुणागुणान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले निवृत्ति और प्रवृत्ति-मार्गमें जो गुण-अवगुण हैं, उनका तुम अच्छी तरह निश्चय कर लो; फिर एकाग्रचित्त हो मन, वाणी और शरीरद्वारा होनेवाले धर्ममें श्रद्धा करो (अर्थात् श्रद्धापूर्वक धर्मके पालनमें लग जाओ)॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं च बहु दातव्यं साधुभ्यश्चानसूयता।
प्रार्थितं व्रतशौचाभ्यां सत्कृतं देशकालयोः ॥ १२ ॥
मूलम्
नित्यं च बहु दातव्यं साधुभ्यश्चानसूयता।
प्रार्थितं व्रतशौचाभ्यां सत्कृतं देशकालयोः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतिदिन व्रत और शौचाचारका पालन करते हुए उत्तम देश और कालमें साधु पुरुषोंको प्रार्थना और सत्कारपूर्वक अधिक-से-अधिक दान करना चाहिये और उनमें दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभेन विधिना लब्धमर्हाय प्रतिपादयेत्।
क्रोधमुत्सृज्य दद्याच्च नानुतप्येन्न कीर्तयेत् ॥ १३ ॥
मूलम्
शुभेन विधिना लब्धमर्हाय प्रतिपादयेत्।
क्रोधमुत्सृज्य दद्याच्च नानुतप्येन्न कीर्तयेत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभकर्मोंद्वारा प्राप्त हुआ धन सत्पात्रको अर्पण करना चाहिये। क्रोधको त्यागकर दान देना चाहिये और देनेके बाद न तो उसके लिये पश्चात्ताप करना चाहिये और न उसे दूसरोंको बताना ही चाहिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृशंसः शुचिर्दान्तः सत्यवागार्जवे स्थितः।
योनिकर्मविशुद्धश्च पात्रं स्याद् वेदविद् द्विजः ॥ १४ ॥
मूलम्
अनृशंसः शुचिर्दान्तः सत्यवागार्जवे स्थितः।
योनिकर्मविशुद्धश्च पात्रं स्याद् वेदविद् द्विजः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दयालु, पवित्र, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, सरलतापूर्ण बर्ताव करनेवाला तथा योनिसे अर्थात् जन्मसे और कर्मसे शुद्ध वेदवेत्ता ब्राह्मण ही दान पानेका उत्तम पात्र है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्कृता चैकपत्नी च जात्या योनिरिहेष्यते।
ऋग्यजुःसामगो विद्वान् षट्कर्मा पात्रमुच्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
सत्कृता चैकपत्नी च जात्या योनिरिहेष्यते।
ऋग्यजुःसामगो विद्वान् षट्कर्मा पात्रमुच्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी ही जातिके उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई तथा पतिद्वारा सम्मानित पतिव्रता स्त्री यहाँ उत्तम योनि मानी गयी है। अतः जिसका ऐसी मातासे जन्म हुआ हो वह जन्मसे शुद्ध है। ऋक्, यजुष् और सामवेदका विद्वान् होकर सदा (यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह इन) छः कर्मोंका अनुष्ठान करनेवाला ब्राह्मण कर्मसे शुद्ध एवं उत्तम पात्र बताया गया है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव धर्मः सोऽधर्मस्तं तं प्रति नरं भवेत्।
पात्रकर्मविशेषेण देशकालाववेक्ष्य च ॥ १६ ॥
मूलम्
स एव धर्मः सोऽधर्मस्तं तं प्रति नरं भवेत्।
पात्रकर्मविशेषेण देशकालाववेक्ष्य च ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देश, काल, पात्र और कर्मविशेषपर विचार करनेसे एक ही कर्म भिन्न-भिन्न मनुष्यके लिये धर्म और अधर्मरूप हो जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लीलयाल्पं यथा गात्रात् प्रमृज्यात् तु रजः पुमान्।
बहुयत्नेन च महत् पापनिर्हरणं तथा ॥ १७ ॥
मूलम्
लीलयाल्पं यथा गात्रात् प्रमृज्यात् तु रजः पुमान्।
बहुयत्नेन च महत् पापनिर्हरणं तथा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे शरीरमें थोड़ी-सी धूल लगी हुई हो तो मनुष्य उसे अनायास ही झाड़-पोंछकर दूर कर देता है; परंतु बहुत अधिक मैल बैठ जाय तो उसे बड़े प्रयत्नसे दूर कर सकता है, उसी प्रकार थोड़ा पाप थोड़े-से प्रयत्नसे और महान् पाप महान् प्रायश्चित्त करनेसे दूर होता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरिक्तस्य यथा सम्यग् घृतं भवति भेषजम्।
तथा निर्हृतदोषस्य प्रेत्य धर्मः सुखावहः ॥ १८ ॥
मूलम्
विरिक्तस्य यथा सम्यग् घृतं भवति भेषजम्।
तथा निर्हृतदोषस्य प्रेत्य धर्मः सुखावहः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे जिसने विरेचनके द्वारा अपने पेटको अच्छी तरह साफ कर लिया हो, वह मनुष्य यदि घी खाय तो वह उसके लिये दवाके समान लाभदायक होता है। उसी तरह जिसके सारे पाप-दोष दूर हो गये हैं, उसीके लिये धर्म परलोकमें सुख देनेवाला होता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानसं सर्वभूतेषु वर्तते वै शुभाशुभम्।
अशुभेभ्यः सदाऽऽक्षिप्य शुभेष्वेवावतारयेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
मानसं सर्वभूतेषु वर्तते वै शुभाशुभम्।
अशुभेभ्यः सदाऽऽक्षिप्य शुभेष्वेवावतारयेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी प्राणियोंके मनमें शुभ और अशुभ विचार उठते रहते हैं। मनुष्यको चाहिये कि वह चित्तको सदा अशुभ विचारोंकी ओरसे हटाकर शुभ विचारोंमें ही लगाये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं सर्वेण सर्वत्र क्रियमाणं च पूजय।
स्वधर्मे यत्र रागस्ते कामं धर्मो विधीयताम् ॥ २० ॥
मूलम्
सर्वं सर्वेण सर्वत्र क्रियमाणं च पूजय।
स्वधर्मे यत्र रागस्ते कामं धर्मो विधीयताम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार सबके द्वारा सब जगह किये जानेवाले सब प्रकारके कर्मोंका आदर करो। तुम भी अपने धर्मके अनुसार जिस कर्ममें तुम्हारा अनुराग हो, उसका इच्छानुसार पालन करते रहो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधृतात्मन् धृतौ तिष्ठ दुर्बुद्धे बुद्धिमान् भव।
अप्रशान्तः प्रशाम्य त्वमप्राज्ञः प्राज्ञवच्चर ॥ २१ ॥
मूलम्
अधृतात्मन् धृतौ तिष्ठ दुर्बुद्धे बुद्धिमान् भव।
अप्रशान्तः प्रशाम्य त्वमप्राज्ञः प्राज्ञवच्चर ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अधीरचित्त नरेश! धीरताका आश्रय लो। दुर्बुद्धे! बुद्धिमान् बनो। तुम सदा अशान्त रहते हो। अबसे शान्त हो जाओ और अबतक मूर्खोंके-से बर्ताव करते रहे, अब विद्वानोंके समान आचरण करो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजसा शक्यते प्राप्तुमुपायः सहचारिणा।
इह च प्रेत्य च श्रेयस्तस्य मूलं धृतिः परा॥२२॥
मूलम्
तेजसा शक्यते प्राप्तुमुपायः सहचारिणा।
इह च प्रेत्य च श्रेयस्तस्य मूलं धृतिः परा॥२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सत्पुरुषोंका संग करता है, उसे उन्हींके तेज या प्रतापसे कोई ऐसा उपाय प्राप्त हो सकता है, जो इस लोक और परलोकमें भी कल्याण करनेवाला हो। उत्तम धृति (मनकी स्थिरता) ही कल्याणका मूल है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजर्षिरधृतिः स्वर्गात् पतितो हि महाभिषः।
ययातिः क्षीणपुण्योऽपि धृत्या लोकानवाप्तवान् ॥ २३ ॥
मूलम्
राजर्षिरधृतिः स्वर्गात् पतितो हि महाभिषः।
ययातिः क्षीणपुण्योऽपि धृत्या लोकानवाप्तवान् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजर्षि महाभिष धृतिमान् न होनेके कारण ही स्वर्गसे नीचे गिरे और राजा ययाति अपना पुण्य क्षीण हो जानेके बाद भी धृतिके ही बलसे उत्तम लोकोंको प्राप्त हुए॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्विनां धर्मवतां विदुषां चोपसेवनात्।
प्राप्स्यसे विपुलां बुद्धिं तथा श्रेयोऽभिपत्स्यसे ॥ २४ ॥
मूलम्
तपस्विनां धर्मवतां विदुषां चोपसेवनात्।
प्राप्स्यसे विपुलां बुद्धिं तथा श्रेयोऽभिपत्स्यसे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तपस्वी, धर्मात्मा एवं विद्वानोंकी सेवा करनेसे तुम्हें विशाल बुद्धि प्राप्त होगी, जिससे तुम कल्याणके भागी हो सकोगे॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु स्वभावसम्पन्नस्तच्छ्रुत्वा मुनिभाषितम्।
विनिवर्त्य मनः कामाद् धर्मे बुद्धिं चकार ह ॥ २५ ॥
मूलम्
स तु स्वभावसम्पन्नस्तच्छ्रुत्वा मुनिभाषितम्।
विनिवर्त्य मनः कामाद् धर्मे बुद्धिं चकार ह ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! राजकुमार वसुमान् अच्छे स्वभावसे सम्पन्न था। उसने मुनिके उस उपदेशको सुनकर अपने मनको कामनाओंसे हटा लिया और बुद्धिको धर्ममें ही लगा दिया॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि जनकानुशासने नवाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जनकवंशी वसुमान्को उपदेशविषयक तीन सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०९॥