भागसूचना
अष्टाधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
क्षर-अक्षर और परमात्म-तत्त्वका वर्णन, जीवके नानात्व और एकत्वका दृष्टान्त, उपदेशके अधिकारी और अनधिकारी तथा इस ज्ञानकी परम्पराको बताते हुए वसिष्ठ-करालजनक-संवादका उपसंहार
मूलम् (वचनम्)
वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ बुद्धमथाबुद्धमिमं गुणविधिं शृणु।
आत्मानं बहुधा कृत्वा तान्येव प्रविचक्षते ॥ १ ॥
मूलम्
अथ बुद्धमथाबुद्धमिमं गुणविधिं शृणु।
आत्मानं बहुधा कृत्वा तान्येव प्रविचक्षते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजी कहते हैं— राजन्! अब बुद्ध (परमात्मा), अबुद्ध (जीवात्मा) और इस गुणमयी सृष्टि (प्राकृत प्रपंच) का वर्णन सुनो। जीवात्मा अपने-आपको अनेक रूपोंमें प्रकट करके उन रूपोंको सत्य मानकर देखता रहता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदेवं विकुर्वाणो बुध्यमानो न बुध्यते।
गुणान् धारयते ह्येष सृजत्याक्षिपते तदा ॥ २ ॥
मूलम्
एतदेवं विकुर्वाणो बुध्यमानो न बुध्यते।
गुणान् धारयते ह्येष सृजत्याक्षिपते तदा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वास्तवमें ज्ञानसम्पन्न होनेपर भी इस प्रकार प्रकृतिके संसर्गसे विकारको प्राप्त हुआ जीवात्मा ब्रह्मको नहीं जान पाता। वह गुणोंको धारण करता है; अतः कर्तृत्वका अभिमान लेकर रचना और संहार किया करता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजस्रं त्विह क्रीडार्थं विकरोति जनाधिप।
अव्यक्तबोधनाच्चैव बुध्यमानं वदन्त्यपि ॥ ३ ॥
मूलम्
अजस्रं त्विह क्रीडार्थं विकरोति जनाधिप।
अव्यक्तबोधनाच्चैव बुध्यमानं वदन्त्यपि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! जीवात्मा इस जगत्में सदा क्रीड़ा करनेके लिये ही विकारको प्राप्त होता है। वह अव्यक्त प्रकृतिको जानता है, इसलिये ऋषि-मुनि उसे ‘बुध्यमान’ कहते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वेव बुध्यतेऽव्यक्तं सगुणं तात निर्गुणम्।
कदाचित् त्वेव खल्वेतदाहुरप्रतिबुद्धकम् ॥ ४ ॥
मूलम्
न त्वेव बुध्यतेऽव्यक्तं सगुणं तात निर्गुणम्।
कदाचित् त्वेव खल्वेतदाहुरप्रतिबुद्धकम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! परब्रह्म परमात्मा सगुण हो या निर्गुण, उसे प्रकृति कभी नहीं जानती (क्योंकि वह जड है), अतः सांख्यवादी विद्वान् इस प्रकृतिको अप्रतिबुद्ध (ज्ञानशून्य) कहते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुध्यते यदि वाव्यक्तमेतद् वै पञ्चविंशकम्।
बुध्यमानो भवत्येव सङ्गात्मक इति श्रुतिः।
अनेनाप्रतिबुद्धेति वदन्त्यव्यक्तमच्युतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
बुध्यते यदि वाव्यक्तमेतद् वै पञ्चविंशकम्।
बुध्यमानो भवत्येव सङ्गात्मक इति श्रुतिः।
अनेनाप्रतिबुद्धेति वदन्त्यव्यक्तमच्युतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यह मान लिया जाय कि प्रकृति भी जानती है तो यह केवल पचीसवें तत्त्व—पुरुषको ही उससे संयुक्त होकर जान पाती है, प्रकृतिके साथ संयुक्त होनेके कारण ही जीव संगात्मक (संगी) होता है; ऐसा श्रुतिका कथन है। इस संगदोषके कारण ही अव्यक्त एवं अविकारी जीवात्माको लोग ‘मूढ़’ कह दिया करते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तबोधनाच्चापि बुध्यमानं वदन्त्युत ।
पञ्चविंशं महात्मानं न चासावपि बुध्यते ॥ ६ ॥
षड्विंशं विमलं बुद्धमप्रमेयं सनातनम्।
स तु तं पञ्चविंशं च चतुर्विंशं च बुध्यते॥७॥
मूलम्
अव्यक्तबोधनाच्चापि बुध्यमानं वदन्त्युत ।
पञ्चविंशं महात्मानं न चासावपि बुध्यते ॥ ६ ॥
षड्विंशं विमलं बुद्धमप्रमेयं सनातनम्।
स तु तं पञ्चविंशं च चतुर्विंशं च बुध्यते॥७॥
अनुवाद (हिन्दी)
पचीसवाँ तत्त्वरूप महान् आत्मा अव्यक्त प्रकृतिको जानता है, इसलिये उसे ‘बुध्यमान’ कहते हैं; परंतु वह भी छब्बीसवें तत्त्वरूप निर्मल नित्य शुद्ध बुद्ध अप्रमेय सनातन परमात्माको नहीं जानता है; किंतु वह सनातन परमात्मा उस पचीसवें तत्त्वरूप जीवात्माको तथा चौबीसवीं प्रकृतिको भी भलीभाँति जानता है॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृश्यादृश्ये ह्यनुगतं स्वभावेन महाद्युते।
अव्यक्तमत्र तद् ब्रह्म बुध्यते तात केवलम् ॥ ८ ॥
मूलम्
दृश्यादृश्ये ह्यनुगतं स्वभावेन महाद्युते।
अव्यक्तमत्र तद् ब्रह्म बुध्यते तात केवलम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! महातेजस्वी नरेश! वह अव्यक्त एवं अद्वितीय ब्रह्म यहाँ दृश्य और अदृश्य सभी वस्तुओंमें स्वभावसे ही व्याप्त है; अतः वह सबको जानता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केवलं पञ्चविंशं च चतुर्विंशं न पश्यति।
बुध्यमानो यदाऽऽत्मानमन्योऽहमिति मन्यते ॥ ९ ॥
तदा प्रकृतिमानेष भवत्यव्यक्तलोचनः ।
मूलम्
केवलं पञ्चविंशं च चतुर्विंशं न पश्यति।
बुध्यमानो यदाऽऽत्मानमन्योऽहमिति मन्यते ॥ ९ ॥
तदा प्रकृतिमानेष भवत्यव्यक्तलोचनः ।
अनुवाद (हिन्दी)
चौबीसवीं अव्यक्त प्रकृति न तो अद्वितीय ब्रह्मको देख पाती है और न पचीसवें तत्त्वरूप जीवात्माको। जब जीवात्मा अव्यक्त ब्रह्मकी ओर दृष्टि रखकर अपनेको प्रकृतिसे भिन्न मानता है, तब यह प्रकृतिका अधिपति हो जाता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुध्यते च परां बुद्धिं विशुद्धाममलां यदा ॥ १० ॥
षड्विंशो राजशार्दूल तथा बुद्धत्वमाव्रजेत्।
ततस्त्यजति सोऽव्यक्तं सर्गप्रलयधर्मि वै ॥ ११ ॥
मूलम्
बुध्यते च परां बुद्धिं विशुद्धाममलां यदा ॥ १० ॥
षड्विंशो राजशार्दूल तथा बुद्धत्वमाव्रजेत्।
ततस्त्यजति सोऽव्यक्तं सर्गप्रलयधर्मि वै ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! जब जीवात्मा शुद्ध ब्रह्मविषयिणी, निर्मल एवं सर्वोत्कृष्ट बुद्धिको प्राप्त कर लेता है, तब वह छब्बीसवें तत्त्वरूप परब्रह्मका साक्षात्कार करके तद्रूप हो जाता है। उस स्थितिमें वह नित्य शुद्ध-बुद्ध ब्रह्मभावमें ही प्रतिष्ठित होता है। फिर तो वह सृष्टि और प्रलयरूप धर्मवाली अव्यक्त प्रकृतिसे सर्वथा अतीत हो जाता है॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्गुणः प्रकृतिं वेद गुणयुक्तामचेतनाम्।
ततः केवलधर्मासौ भवत्यव्यक्तदर्शनात् ॥ १२ ॥
मूलम्
निर्गुणः प्रकृतिं वेद गुणयुक्तामचेतनाम्।
ततः केवलधर्मासौ भवत्यव्यक्तदर्शनात् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह गुणोंसे अतीत होकर त्रिगुणमयी प्रकृतिको जडरूपमें जान लेता है, इस प्रकार प्रकृतिको अपनेसे सर्वथा अभिन्न देखनेके कारण वह कैवल्यको प्राप्त हो जाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केवलेन समागम्य विमुक्तोऽऽत्मानमाप्नुयात् ।
एतत् तु तत्त्वमित्याहुर्निस्तत्त्वमजरामरम् ॥ १३ ॥
मूलम्
केवलेन समागम्य विमुक्तोऽऽत्मानमाप्नुयात् ।
एतत् तु तत्त्वमित्याहुर्निस्तत्त्वमजरामरम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केवल (अद्वितीय) ब्रह्मसे मिलकर सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त हुआ अपने परमार्थस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है। इसीको परमार्थतत्त्व कहते हैं। यह सब तत्त्वोंसे अतीत तथा जरा-मरणसे रहित है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वसंश्रयणादेतत् तत्त्ववन्न च मानद।
पञ्चविंशति तत्त्वानि प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ १४ ॥
मूलम्
तत्त्वसंश्रयणादेतत् तत्त्ववन्न च मानद।
पञ्चविंशति तत्त्वानि प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबको मान देनेवाले नरेश! जीवात्मा तत्त्वोंका आश्रय लेनेसे ही तत्त्व-सदृश प्रतीत होता है। वास्तवमें वह तत्त्वोंका द्रष्टामात्र होनेके कारण तत्त्व नहीं है—तत्त्वोंसे सर्वथा भिन्न ही है। इस प्रकार मनीषी पुरुष (प्रकृतिके चौबीस तत्त्वोंके साथ) जीवात्माको भी एक तत्त्व मानकर कुल पचीस तत्त्वोंका प्रतिपादन करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैष तत्त्ववांस्तात निस्तत्त्वस्त्वेष बुद्धिमान्।
एष मुञ्चति तत्त्वं हि क्षिप्रं बुद्धस्य लक्षणम् ॥ १५ ॥
मूलम्
न चैष तत्त्ववांस्तात निस्तत्त्वस्त्वेष बुद्धिमान्।
एष मुञ्चति तत्त्वं हि क्षिप्रं बुद्धस्य लक्षणम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! यह जीवात्मा वास्तवमें तत्त्वोंसे अतीत है, अतः तद्रूप नहीं होता है; अपितु ज्ञानवान् होनेके कारण ब्रह्मज्ञानका उदय होनेपर यह शीघ्र ही प्राकृत तत्त्वोंका त्याग कर देता है और उसमें नित्य शुद्ध-बुद्ध ब्रह्मके लक्षण प्रकट हो जाते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षड्विंशोऽहमिति प्राज्ञो गृह्यमाणोऽजरामरः ।
केवलेन बलेनैव समतां यात्यसंशयम् ॥ १६ ॥
मूलम्
षड्विंशोऽहमिति प्राज्ञो गृह्यमाणोऽजरामरः ।
केवलेन बलेनैव समतां यात्यसंशयम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं पचीस तत्त्वोंसे भिन्न छब्बीसवाँ परमात्मा हूँ। नित्य ज्ञानसम्पन्न और जाननेके योग्य अजर-अमरस्वरूप हूँ,’ इस प्रकार विचार करते-करते जीवात्मा केवल विवेक-बलसे ही ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षड्विंशेन प्रबुद्धेन बुध्यमानोऽप्यबुद्धिमान् ।
एतन्नानात्वमित्युक्तं सांख्यश्रुतिनिदर्शनात् ॥ १७ ॥
मूलम्
षड्विंशेन प्रबुद्धेन बुध्यमानोऽप्यबुद्धिमान् ।
एतन्नानात्वमित्युक्तं सांख्यश्रुतिनिदर्शनात् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव छब्बीसवें तत्त्व ज्ञानस्वरूप परमात्माके प्रकाशसे ही जडवर्गको जानता है; परंतु उसे जानकर भी परमात्माको न जाननेके कारण वह अज्ञानी ही रह जाता है। यह अज्ञान ही जीवके नानात्वरूप बन्धनका कारण बताया जाता है। जैसा कि सांख्यशास्त्र और श्रुतियोंद्वारा दिग्दर्शन कराया गया है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चेतनेन समेतस्य पञ्चविंशतिकस्य ह।
एकत्वं वै भवत्यस्य यदा बुद्ध्या न बुध्यते ॥ १८ ॥
मूलम्
चेतनेन समेतस्य पञ्चविंशतिकस्य ह।
एकत्वं वै भवत्यस्य यदा बुद्ध्या न बुध्यते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब जीवात्मा बुद्धिके द्वारा जडवर्गको अपना नहीं समझता अर्थात् उससे सम्बन्ध नहीं जोड़ता, तब नित्य चेतन परमात्मासे संयुक्त हुए उस जीवात्माकी परमात्माके साथ एकता हो जाती है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुध्यमानोऽप्रबुद्धेन समतां याति मैथिल।
सङ्गधर्मा भवत्येष निःसङ्गात्मा नराधिप ॥ १९ ॥
मूलम्
बुध्यमानोऽप्रबुद्धेन समतां याति मैथिल।
सङ्गधर्मा भवत्येष निःसङ्गात्मा नराधिप ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मिथिलानरेश! जबतक जीवात्मा जडवर्गको अपना समझता है, तबतक उस जडवर्गकी ही समताको वह प्राप्त होता है। यद्यपि वह स्वरूपसे असंग है तो भी प्रकृतिके सम्पर्कसे आसक्तिरूप धर्मवाला हो जाता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःसङ्गात्मानमासाद्य षड्विंशकमजं विभुम् ।
विभुस्त्यजति चाव्यक्तं यदा त्वेतद् विबुद्ध्यते ॥ २० ॥
चतुर्विंशमसारं च षड्विंशस्य प्रबोधनात्।
मूलम्
निःसङ्गात्मानमासाद्य षड्विंशकमजं विभुम् ।
विभुस्त्यजति चाव्यक्तं यदा त्वेतद् विबुद्ध्यते ॥ २० ॥
चतुर्विंशमसारं च षड्विंशस्य प्रबोधनात्।
अनुवाद (हिन्दी)
छब्बीसवाँ तत्त्व परमात्मा अजन्मा, सर्वव्यापी और संगदोषसे रहित है। उसकी शरण लेकर जब जीवात्मा उसके स्वरूपका साक्षात्कार कर लेता है, तब परमात्म-ज्ञानके प्रभावसे स्वयं भी सर्वव्यापी हो जाता है तथा चौबीस तत्त्वोंसे युक्त प्रकृतिको असार समझकर त्याग देता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष ह्यप्रतिबुद्धश्च बुध्यमानश्च तेऽनघ ॥ २१ ॥
प्रोक्तो बुद्धश्च तत्त्वेन यथाश्रुतिनिदर्शनात्।
नानात्वैकत्वमेतावद् द्रष्टव्यं शास्त्रदर्शनात् ॥ २२ ॥
मूलम्
एष ह्यप्रतिबुद्धश्च बुध्यमानश्च तेऽनघ ॥ २१ ॥
प्रोक्तो बुद्धश्च तत्त्वेन यथाश्रुतिनिदर्शनात्।
नानात्वैकत्वमेतावद् द्रष्टव्यं शास्त्रदर्शनात् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप नरेश! इस प्रकार मैंने तुमसे अप्रतिबुद्ध (क्षर), बुध्यमान (अक्षर जीवात्मा) और बुद्ध (ज्ञानस्वरूप परमात्मा)—इन तीनोंका श्रुतिके निर्देशके अनुसार यथार्थरूपसे प्रतिपादन किया है। शास्त्रीय दृष्टिके अनुसार जीवात्माके नानात्व और एकत्वको इसी तरह समझना चाहिये॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मशकोदुम्बरे यद्वदन्यत्वं तद्वदेतयोः ।
मत्स्योदके यथा तद्वदन्यत्वमुपलभ्यते ॥ २३ ॥
मूलम्
मशकोदुम्बरे यद्वदन्यत्वं तद्वदेतयोः ।
मत्स्योदके यथा तद्वदन्यत्वमुपलभ्यते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे गूलर और उसके कीड़े एक साथ रहते हुए भी परस्पर भिन्न हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुषमें भी भिन्नता है। जैसे मछली और जल एक-दूसरेसे भिन्न हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुषमें भी भेद उपलब्ध होता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेवावगन्तव्यं नानात्वैकत्वमेतयोः ।
एतद्धि मोक्ष इत्युक्तमव्यक्तज्ञानसंहितम् ॥ २४ ॥
मूलम्
एवमेवावगन्तव्यं नानात्वैकत्वमेतयोः ।
एतद्धि मोक्ष इत्युक्तमव्यक्तज्ञानसंहितम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार प्रकृति और पुरुषकी एकता और अनेकताको समझना चाहिये। अव्यक्त प्रकृतिका पुरुषसे जो नित्य भेद है, उसके यथार्थज्ञानसे पुरुष उसके बन्धनसे मुक्त हो जाता है। इसीको मोक्ष कहा गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चविंशतिकस्यास्य योऽयं देहेषु वर्तते।
एष मोक्षयितव्येति प्राहुरव्यक्तगोचरात् ॥ २५ ॥
मूलम्
पञ्चविंशतिकस्यास्य योऽयं देहेषु वर्तते।
एष मोक्षयितव्येति प्राहुरव्यक्तगोचरात् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस शरीरमें जो पचीसवाँ तत्त्व अन्तर्यामी पुरुष विद्यमान है, उसे अव्यक्तके कार्यभूत महत्तत्त्वादिके बन्धनसे मुक्त करना आवश्यक है, ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयमेवं विमुच्येत नान्यथेति विनिश्चयः।
परेण परधर्मा च भवत्येष समेत्य वै ॥ २६ ॥
मूलम्
सोऽयमेवं विमुच्येत नान्यथेति विनिश्चयः।
परेण परधर्मा च भवत्येष समेत्य वै ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह यह जीवात्मा पूर्वोक्त प्रकारसे ही मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। यही विद्वानोंका निश्चय है। यह दूसरेसे मिलकर उसीका समानधर्मी हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशुद्धधर्मा शुद्धेन बुद्धेन च स बुद्धिमान्।
विमुक्तधर्मा मुक्तेन समेत्य पुरुषर्षभ ॥ २७ ॥
मूलम्
विशुद्धधर्मा शुद्धेन बुद्धेन च स बुद्धिमान्।
विमुक्तधर्मा मुक्तेन समेत्य पुरुषर्षभ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर! जीवात्मा शुद्ध पुरुषका संग करके विशुद्ध धर्मवाला होता है। किसी ज्ञानी या बुद्धिमान्का संग करनेसे बुद्धिमान् होता है। किसी मुक्तसे मिलनेपर उसमें मुक्तके-से ही धर्म या लक्षण प्रकट होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वियोगधर्मिणा चैव विमुक्तात्मा भवत्यथ।
विमोक्षिणा विमोक्षश्च समेत्येह तथा भवेत् ॥ २८ ॥
मूलम्
वियोगधर्मिणा चैव विमुक्तात्मा भवत्यथ।
विमोक्षिणा विमोक्षश्च समेत्येह तथा भवेत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका प्रकृतिसे सम्बन्ध हट गया है, ऐसे पुरुषसे मिलनेपर वह विमुक्तात्मा होता है। जो मोक्षधर्मसे युक्त है, उसका साथ करनेसे जीवको मोक्ष प्राप्त होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचिकर्मा शुचिश्चैव भवत्यमितदीप्तिमान् ।
विमलात्मा च भवति समेत्य विमलात्मना ॥ २९ ॥
मूलम्
शुचिकर्मा शुचिश्चैव भवत्यमितदीप्तिमान् ।
विमलात्मा च भवति समेत्य विमलात्मना ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके आचार-विचार शुद्ध हैं, उससे मिलनेपर वह पवित्रकर्मा एवं पवित्र होता है। जिसका अन्तःकरण निर्मल है, उसके सम्पर्कमें जानेपर वह भी निर्मलात्मा और अमिततेजस्वी होता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केवलात्मा तथा चैव केवलेन समेत्य वै।
स्वतन्त्रश्च स्वतन्त्रेण स्वतन्त्रत्वमवाप्नुते ॥ ३० ॥
मूलम्
केवलात्मा तथा चैव केवलेन समेत्य वै।
स्वतन्त्रश्च स्वतन्त्रेण स्वतन्त्रत्वमवाप्नुते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अद्वितीय परमात्मासे सम्बन्ध स्थापित करके वह तद्रूपताको प्राप्त हो जाता है अर्थात् अद्वितीय परमात्माको प्राप्त हो जाता है। स्वतन्त्र परमेश्वरसे सम्बन्ध रखनेके कारण वह वास्तवमें स्वतन्त्र होकर वास्तविक स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदेतत् कथितं मया ते
तथ्यं महाराज यथार्थतत्त्वम् ।
अमत्सरत्वं परिगृह्य चार्थं
सनातनं ब्रह्म विशुद्धमाद्यम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
एतावदेतत् कथितं मया ते
तथ्यं महाराज यथार्थतत्त्वम् ।
अमत्सरत्वं परिगृह्य चार्थं
सनातनं ब्रह्म विशुद्धमाद्यम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मैंने ईर्ष्या-द्वेषसे रहित भावको स्वीकार करके और तुम्हारे प्रयोजनको समझकर तुमसे प्रेमपूर्वक इस शुद्ध सनातन एवं सबके आदिभूत सत्यस्वरूप ब्रह्मके यथार्थ तत्त्वका इस रूपमें वर्णन किया है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावेदनिष्ठस्य जनस्य राजन्
प्रदेयमेतत् परमं त्वया भवेत्।
विधित्समानाय विबोधकारण
प्रबोधहेतोः प्रणतस्य शासनम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
नावेदनिष्ठस्य जनस्य राजन्
प्रदेयमेतत् परमं त्वया भवेत्।
विधित्समानाय विबोधकारण
प्रबोधहेतोः प्रणतस्य शासनम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो मनुष्य वेदमें श्रद्धा रखनेवाला न हो, उसे इस उत्तम ज्ञानका उपदेश तुम्हें नहीं करना चाहिये। जिसे बोधके लिये अधिक प्यास हो तथा जो जिज्ञासुभावसे शरणमें आया हो, वही इस उपदेशको सुननेका अधिकारी है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न देयमेतच्च तथानृतात्मने
शठाय क्लीबाय न जिह्मबुद्धये।
न पण्डितज्ञानपरोपतापिने
देयं तु देयं च निबोध यादृशे ॥ ३३ ॥
मूलम्
न देयमेतच्च तथानृतात्मने
शठाय क्लीबाय न जिह्मबुद्धये।
न पण्डितज्ञानपरोपतापिने
देयं तु देयं च निबोध यादृशे ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
असत्यवादी, शठ, नीच, कपटी, अपनेको पण्डित माननेवाले और दूसरेको कष्ट पहुँचानेवाले मनुष्यको भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। कैसे पुरुषको इस ज्ञानका उपदेश देना और अवश्य देना चाहिये—यह भी सुन लो॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धान्वितायाथ गुणान्विताय
परापवादाद् विरताय नित्यम् ।
विशुद्धयोगाय बुधाय नित्यं
क्रियावते च क्षमिणे हिताय ॥ ३४ ॥
विविक्तशीलाय विधिप्रियाय
विवादहीनाय बहुश्रुताय ।
विजानते चैव न चाहितक्षमे
दमे च शक्ताय शमे च देयम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
श्रद्धान्वितायाथ गुणान्विताय
परापवादाद् विरताय नित्यम् ।
विशुद्धयोगाय बुधाय नित्यं
क्रियावते च क्षमिणे हिताय ॥ ३४ ॥
विविक्तशीलाय विधिप्रियाय
विवादहीनाय बहुश्रुताय ।
विजानते चैव न चाहितक्षमे
दमे च शक्ताय शमे च देयम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रद्धालु, गुणवान्, परनिन्दासे सदा दूर रहनेवाले, विशुद्ध योगी, विद्वान्, सदा शास्त्रोक्त कर्म करनेवाले, क्षमाशील, सबके हितैषी, एकान्तवासी, शास्त्रविधिका आदर करनेवाले, विवादहीन, बहुज्ञ, विज्ञ, किसीका अहित न करनेवाले तथा इन्द्रियसंयम एवं मनोनिग्रहमें समर्थ पुरुषको ही इस ज्ञानका उपदेश देना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैर्गुणैर्हीनतमे न देय-
मेतत् परं ब्रह्म विशुद्धमाहुः।
न श्रेयसा योक्ष्यति तादृशे कृतं
धर्मप्रवक्तारमपात्रदानात् ॥ ३६ ॥
मूलम्
एतैर्गुणैर्हीनतमे न देय-
मेतत् परं ब्रह्म विशुद्धमाहुः।
न श्रेयसा योक्ष्यति तादृशे कृतं
धर्मप्रवक्तारमपात्रदानात् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इन सद्गुणोंसे अत्यन्त हीन हो, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। यह ज्ञान विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप बताया गया है। वैसे गुणहीन पुरुषको दिया हुआ यह ज्ञान उसके लिये कल्याणकारी नहीं होगा तथा कुपात्रको उपदेश देनेसे वह वक्ताका भी कल्याण नहीं करेगा॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथ्वीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णां
दद्यान्न देयं त्विदमव्रताय ।
जितेन्द्रियायैतदसंशयं ते
भवेत् प्रदेयं परमं नरेन्द्र ॥ ३७ ॥
मूलम्
पृथ्वीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णां
दद्यान्न देयं त्विदमव्रताय ।
जितेन्द्रियायैतदसंशयं ते
भवेत् प्रदेयं परमं नरेन्द्र ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! जिसने व्रत और नियमोंका पालन न किया हो, वह यदि रत्नोंसे भरी हुई इस सारी पृथ्वीका राज्य दे तो भी उसे इस ज्ञानका उपदेश नहीं देना चाहिये। परंतु जितेन्द्रिय पुरुषको निस्संदेह इस परम उत्तम ज्ञानका उपदेश देना तुझे उचित है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कराल मा ते भयमस्तु किञ्चि-
देतच्छ्रुतं ब्रह्म परं त्वयाद्य।
यथावदुक्तं परमं पवित्रं
विशोकमत्यन्तमनादिमध्यम् ॥ ३८ ॥
अगाधजन्मामरणं च राजन्
निरामयं वीतभयं शिवं च।
समीक्ष्य मोहं त्यज वाद्य सर्व-
ज्ञानस्य तत्त्वार्थमिदं विदित्वा ॥ ३९ ॥
मूलम्
कराल मा ते भयमस्तु किञ्चि-
देतच्छ्रुतं ब्रह्म परं त्वयाद्य।
यथावदुक्तं परमं पवित्रं
विशोकमत्यन्तमनादिमध्यम् ॥ ३८ ॥
अगाधजन्मामरणं च राजन्
निरामयं वीतभयं शिवं च।
समीक्ष्य मोहं त्यज वाद्य सर्व-
ज्ञानस्य तत्त्वार्थमिदं विदित्वा ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कराल! तुमने मुझसे आज परब्रह्मका ज्ञान सुना है; अतः तुम्हारे मनमें तनिक भी भय नहीं होना चाहिये। वह परब्रह्म परम पवित्र, शोकरहित, आदि, मध्य और अन्तसे शून्य, जन्म-मृत्युसे बचानेवाला, निरामय, निर्भय तथा कल्याणमय है। राजन्! उसका मैंने यथावत्रूपसे प्रतिपादन किया है। वही सम्पूर्ण ज्ञानोंका तात्त्विक अर्थ है। ऐसा जानकर उसका ज्ञान प्राप्त करके आज मोहका परित्याग कर दो॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाप्तमेतद्धि मया सनातना-
द्धिरण्यगर्भाद् गदतो नराधिप ।
प्रसाद्य यत्नेन तमुग्रचेतसं
सनातनं ब्रह्म यथाद्य वै त्वया ॥ ४० ॥
मूलम्
अवाप्तमेतद्धि मया सनातना-
द्धिरण्यगर्भाद् गदतो नराधिप ।
प्रसाद्य यत्नेन तमुग्रचेतसं
सनातनं ब्रह्म यथाद्य वै त्वया ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जिस प्रकार आज तुमने मुझसे सनातन ब्रह्मका ज्ञान प्राप्त किया है; इसी प्रकार मैंने भी हिरण्यगर्भ नामसे प्रसिद्ध सनातन उग्रचेता ब्रह्माजीके मुखसे, उन्हें बड़े यत्नसे प्रसन्न करके इसे प्राप्त किया था॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृष्टस्त्वया चास्मि यथा नरेन्द्र
यथा मयेदं त्वयि चोक्तमद्य।
तथावाप्तं ब्रह्मणो मे नरेन्द्र
महाज्ञानं मोक्षविदां परायणम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
पृष्टस्त्वया चास्मि यथा नरेन्द्र
यथा मयेदं त्वयि चोक्तमद्य।
तथावाप्तं ब्रह्मणो मे नरेन्द्र
महाज्ञानं मोक्षविदां परायणम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! जैसे तुमने मुझसे पूछा है और जैसे मैंने तुम्हारे प्रति आज इस ज्ञानका उपदेश किया है, उसी प्रकार मैंने भी ब्रह्माजीसे प्रश्न करके उनके मुखसे इस महान् ज्ञानको प्राप्त किया है। यह मोक्ष ज्ञानियोंका परम आश्रय है॥४१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदुक्तं परं ब्रह्म यस्मान्नावर्तते पुनः।
पञ्चविंशो महाराज परमर्षिनिदर्शनात् ॥ ४२ ॥
मूलम्
एतदुक्तं परं ब्रह्म यस्मान्नावर्तते पुनः।
पञ्चविंशो महाराज परमर्षिनिदर्शनात् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— महाराज! महर्षि वसिष्ठके बताये अनुसार यह परब्रह्मका स्वरूप मैंने तुम्हें बताया है, जिसे पाकर जीवात्मा फिर इस संसारमें नहीं लौटता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरावृत्तिमाप्नोति परं ज्ञानमवाप्य च।
नावबुध्यति तत्त्वेन बुध्यमानोऽजरामरम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
पुनरावृत्तिमाप्नोति परं ज्ञानमवाप्य च।
नावबुध्यति तत्त्वेन बुध्यमानोऽजरामरम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इस उत्तम ज्ञानको गुरुके मुखसे पाकर भी भलीभाँति समझता नहीं है, वह पुनरावृत्ति (बारंबार आवागमन) को प्राप्त होता है और जो इसे तत्त्वतः समझ लेता है, वह जरा-मृत्युसे रहित परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होता है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्निःश्रेयसकरं ज्ञानं ते परमं मया।
कथितं तत्त्वतस्तात श्रुत्वा देवर्षितो नृप ॥ ४४ ॥
मूलम्
एतन्निःश्रेयसकरं ज्ञानं ते परमं मया।
कथितं तत्त्वतस्तात श्रुत्वा देवर्षितो नृप ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! नरेश्वर! यह परम कल्याणकारी उत्तम ज्ञान मैंने देवर्षि नारदजीके मुँहसे सुना था। जिसे यथार्थरूपसे तुम्हें भी बताया है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यगर्भादृषिणा वसिष्ठेन महात्मना ।
वसिष्ठादृषिशार्दूलान्नारदोऽवाप्तवानिदम् ॥ ४५ ॥
नारदाद् विदितं मह्यमेतद् ब्रह्म सनातनम्।
मा शुचः कौरवेन्द्र त्वं श्रुत्वैतत् परमं पदम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
हिरण्यगर्भादृषिणा वसिष्ठेन महात्मना ।
वसिष्ठादृषिशार्दूलान्नारदोऽवाप्तवानिदम् ॥ ४५ ॥
नारदाद् विदितं मह्यमेतद् ब्रह्म सनातनम्।
मा शुचः कौरवेन्द्र त्वं श्रुत्वैतत् परमं पदम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीसे महात्मा वसिष्ठ मुनिने यह ज्ञान प्राप्त किया था। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठसे यह नारदजीको उपलब्ध हुआ और नारदजीसे मुझे यह सनातन ब्रह्मका उपदेश प्राप्त हुआ है। कौरवनरेश! यह ज्ञान परमपद है। इसे सुनकर अब तुम शोकका त्याग कर दो॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन क्षराक्षरे वित्ते भयं तस्य न विद्यते।
विद्यते तु भयं तस्य यो नैतद् वेत्ति पार्थिव॥४७॥
मूलम्
येन क्षराक्षरे वित्ते भयं तस्य न विद्यते।
विद्यते तु भयं तस्य यो नैतद् वेत्ति पार्थिव॥४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! जिसने क्षर और अक्षरके तत्त्वको जान लिया है, उसमें किसी प्रकारका भी भय नहीं होता। जो इसे नहीं जानता, उसीमें भय रहता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविज्ञानाच्च मूढात्मा पुनः पुनरुपाद्रवत्।
प्रेत्य जातिसहस्राणि मरणान्तान्युपाश्नुते ॥ ४८ ॥
मूलम्
अविज्ञानाच्च मूढात्मा पुनः पुनरुपाद्रवत्।
प्रेत्य जातिसहस्राणि मरणान्तान्युपाश्नुते ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूर्ख मनुष्य इस तत्त्वको न जाननेके कारण बारंबार संसारमें आता है और हजारों योनियोंमें जन्म-मरणके कष्टका अनुभव करता है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवलोकं तथा तिर्यङ्मनुष्यमपि चाश्नुते।
यदि शुध्यति कालेन तस्मादज्ञानसागरात् ॥ ४९ ॥
(उत्तीर्णोऽस्मादगाधात् स परमाप्नोति शोभनम्।)
मूलम्
देवलोकं तथा तिर्यङ्मनुष्यमपि चाश्नुते।
यदि शुध्यति कालेन तस्मादज्ञानसागरात् ॥ ४९ ॥
(उत्तीर्णोऽस्मादगाधात् स परमाप्नोति शोभनम्।)
अनुवाद (हिन्दी)
वह देव, मनुष्य और पशु-पक्षी आदिकी योनिमें भटकता रहता है। यदि कभी समयके अनुसार शुद्ध हो गया तो उस अगाध अज्ञानसमुद्रसे पार होकर परम कल्याणका भागी होता है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानसागरो घोरो ह्यव्यक्तोऽगाध उच्यते।
अहन्यहनि मज्जन्ति यत्र भूतानि भारत ॥ ५० ॥
मूलम्
अज्ञानसागरो घोरो ह्यव्यक्तोऽगाध उच्यते।
अहन्यहनि मज्जन्ति यत्र भूतानि भारत ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! अज्ञानरूपी समुद्र अव्यक्त, अगाध और भयंकर बताया जाता है। इसमें असंख्य प्राणी प्रतिदिन गोते खाते रहते हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मादगाधादव्यक्तादुत्तीर्णस्त्वं सनातनात् ।
तस्मात् त्वं विरजाश्चैव वितमस्कश्च पार्थिव ॥ ५१ ॥
मूलम्
यस्मादगाधादव्यक्तादुत्तीर्णस्त्वं सनातनात् ।
तस्मात् त्वं विरजाश्चैव वितमस्कश्च पार्थिव ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम मेरा उपदेश पाकर इस अव्यक्त, अगाध एवं प्रवाहरूपमें सदा रहनेवाले भवसागरसे पार हो गये हो, इसलिये अब तुम रजोगुण और तमोगुणसे भी रहित हो गये हो॥५१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वसिष्ठकरालजनकसंवादसमाप्तौ अष्टाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वसिष्ठ-करालजनक-संवादकी समाप्तिविषयक तीन सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं)