भागसूचना
सप्ताधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विद्या-अविद्या, अक्षर और क्षर तथा प्रकृति और पुरुषके स्वरूपका एवं विवेकीके उद्गारका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांख्यदर्शनमेतावदुक्तं ते नृपसत्तम ।
विद्याविद्ये त्विदानीं मे त्वं निबोधानुपूर्वशः ॥ १ ॥
मूलम्
सांख्यदर्शनमेतावदुक्तं ते नृपसत्तम ।
विद्याविद्ये त्विदानीं मे त्वं निबोधानुपूर्वशः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ! यहाँतक मैंने तुम्हें सांख्यदर्शनकी बात बतायी है। अब इस समय तुम मुझसे विद्या और अविद्याका वर्णन क्रमसे सुनो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्यामाहुरव्यक्तं सर्गप्रलयधर्मि वै ।
सर्गप्रलयनिर्मुक्तां विद्यां वै पञ्चविंशकः ॥ २ ॥
मूलम्
अविद्यामाहुरव्यक्तं सर्गप्रलयधर्मि वै ।
सर्गप्रलयनिर्मुक्तां विद्यां वै पञ्चविंशकः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनियोंने सृष्टि और प्रलयरूप धर्मवाले कार्यसहित अव्यक्तको ही अविद्या कहा है तथा चौबीस तत्त्वोंसे परे जो पचीसवाँ तत्त्व परम पुरुष परमात्मा है, जो सृष्टि और प्रलयसे रहित है, उसीको विद्या कहते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्परस्य विद्यां वै त्वं निबोधानुपूर्वशः।
यथोक्तमृषिभिस्तात सांख्यस्याभिनिदर्शनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
परस्परस्य विद्यां वै त्वं निबोधानुपूर्वशः।
यथोक्तमृषिभिस्तात सांख्यस्याभिनिदर्शनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! ऋषियोंने जिस प्रकार सांख्यदर्शनकी बात बतायी है, उसी प्रकार तुम अव्यक्तका जो पारस्परिक भेद है, उनमें जो जिसकी विद्या है अर्थात् श्रेष्ठ है, उसका वर्णन क्रमसे सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मेन्द्रियाणां सर्वेषां विद्या बुद्धीन्द्रियं स्मृतम्।
बुद्धीन्द्रियाणां च तथा विशेषा इति नः श्रुतम् ॥ ४ ॥
मूलम्
कर्मेन्द्रियाणां सर्वेषां विद्या बुद्धीन्द्रियं स्मृतम्।
बुद्धीन्द्रियाणां च तथा विशेषा इति नः श्रुतम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने सुन रखा है कि समस्त कर्मेन्द्रियोंकी विद्या ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं। अर्थात् कर्मेन्द्रियोंसे ज्ञानेन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं और ज्ञानेन्द्रियोंकी विद्या पञ्चमहाभूत हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशेषाणां मनस्तेषां विद्यामाहुर्मनीषिणः ।
मनसः पञ्च भूतानि विद्या इत्यभिचक्षते ॥ ५ ॥
मूलम्
विशेषाणां मनस्तेषां विद्यामाहुर्मनीषिणः ।
मनसः पञ्च भूतानि विद्या इत्यभिचक्षते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनीषी पुरुष कहते हैं कि स्थूल पञ्चभूतोंकी विद्या मन है और मनकी विद्या सूक्ष्म पञ्चभूत हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहङ्कारस्तु भूतानां पञ्चानां नात्र संशयः।
अहङ्कारस्य च तथा बुद्धिर्विद्या नरेश्वर ॥ ६ ॥
मूलम्
अहङ्कारस्तु भूतानां पञ्चानां नात्र संशयः।
अहङ्कारस्य च तथा बुद्धिर्विद्या नरेश्वर ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उन सूक्ष्म पञ्चभूतोंकी विद्या अहंकार है, इसमें कोई संशय नहीं है तथा अहंकारकी विद्या बुद्धि मानी गयी है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्या प्रकृतिरव्यक्तं तत्त्वानां परमेश्वरी।
विद्या ज्ञेया नरश्रेष्ठ विधिश्च परमः स्मृतः ॥ ७ ॥
मूलम्
विद्या प्रकृतिरव्यक्तं तत्त्वानां परमेश्वरी।
विद्या ज्ञेया नरश्रेष्ठ विधिश्च परमः स्मृतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! अव्यक्त नामवाली जो परमेश्वरी प्रकृति है, वह सम्पूर्ण तत्त्वोंकी विद्या है। यह विद्या जानने योग्य है। इसीको ज्ञानकी परम विधि कहते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तस्य परं प्राहुर्विद्यां वै पञ्चविंशकम्।
सर्वस्य सर्वमित्युक्तं ज्ञेयं ज्ञानस्य पार्थिव ॥ ८ ॥
मूलम्
अव्यक्तस्य परं प्राहुर्विद्यां वै पञ्चविंशकम्।
सर्वस्य सर्वमित्युक्तं ज्ञेयं ज्ञानस्य पार्थिव ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पचीसवें तत्त्वके रूपमें जिस परम पुरुष परमात्माकी चर्चा की गयी है, उसीको अव्यक्त प्रकृतिकी परम विद्या बताया गया है। राजन्! वही सम्पूर्ण ज्ञानका सर्वरूप ज्ञेय है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञेयो वै पञ्चविंशकः।
तथैव ज्ञानमव्यक्तं विज्ञाता पञ्चविंशकः ॥ ९ ॥
मूलम्
ज्ञानमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञेयो वै पञ्चविंशकः।
तथैव ज्ञानमव्यक्तं विज्ञाता पञ्चविंशकः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञान अव्यक्त कहा गया है और परम पुरुष ज्ञेय बताया गया है, उसी प्रकार ज्ञान अव्यक्त है और उसका ज्ञाता परम पुरुष है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्याविद्यार्थतत्त्वेन मयोक्ता ते विशेषतः।
अक्षरं च क्षरं चैव यदुक्तं तन्निबोध मे ॥ १० ॥
मूलम्
विद्याविद्यार्थतत्त्वेन मयोक्ता ते विशेषतः।
अक्षरं च क्षरं चैव यदुक्तं तन्निबोध मे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मैंने तुम्हारे समक्ष यथार्थरूपसे विद्यासहित अविद्याका विशेषरूपसे वर्णन किया है। अब जो क्षर और अक्षर तत्त्व कहे गये हैं; उनके विषयमें मुझसे सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभावेवाक्षरावुक्तावुभावेतावनक्षरौ ।
कारणं तु प्रवक्ष्यामि याथातथ्यं तु ज्ञानतः ॥ ११ ॥
मूलम्
उभावेवाक्षरावुक्तावुभावेतावनक्षरौ ।
कारणं तु प्रवक्ष्यामि याथातथ्यं तु ज्ञानतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सांख्यमतमें प्रकृति और पुरुष दोनोंको ही अक्षर कहा गया है तथा ये ही दोनों क्षर भी हैं। मैं अपने ज्ञानके अनुसार इसका यथार्थ कारण बतलाता हूँ॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादिनिधनावेतावुभावेवेश्वरौ मतौ ।
तत्त्वसंज्ञावुभावेतौ प्रोच्येत ज्ञानचिन्तकैः ॥ १२ ॥
मूलम्
अनादिनिधनावेतावुभावेवेश्वरौ मतौ ।
तत्त्वसंज्ञावुभावेतौ प्रोच्येत ज्ञानचिन्तकैः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये दोनों ही अनादि और अनन्त हैं; अतः परस्पर संयुक्त होकर दोनों ही ईश्वर (सर्वसमर्थ) माने गये हैं। सांख्यज्ञानका विचार करनेवाले विद्वान् इन दोनोंको ही ‘तत्त्व’ कहते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्गप्रलयधर्मत्वादव्यक्तं प्राहुरक्षरम् ।
तदेतद् गुणसर्गाय विकुर्वाणं पुनः पुनः ॥ १३ ॥
मूलम्
सर्गप्रलयधर्मत्वादव्यक्तं प्राहुरक्षरम् ।
तदेतद् गुणसर्गाय विकुर्वाणं पुनः पुनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृष्टि और प्रलय प्रकृतिका धर्म है। इसलिये प्रकृतिको अक्षर कहा गया है। वही प्रकृति महत्तत्त्व आदि गुणोंकी सृष्टिके लिये बारंबार विकारको प्राप्त होती है; इसलिये उसे क्षर भी कहा जाता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणानां महदादीनामुत्पत्तिश्च परस्परम् ।
अधिष्ठानात् क्षेत्रमाहुरेतत्तत् पञ्चविंशकम् ॥ १४ ॥
मूलम्
गुणानां महदादीनामुत्पत्तिश्च परस्परम् ।
अधिष्ठानात् क्षेत्रमाहुरेतत्तत् पञ्चविंशकम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महत्तत्त्व आदि गुणोंकी उत्पत्ति प्रकृति और पुरुषके परस्पर संयोगसे होती है; अतः एक-दूसरेका अधिष्ठान होनेके कारण पुरुषको भी क्षेत्र कहते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तु गुणजालं तदव्यक्तात्मनि संक्षिपेत्।
तदा सह गुणैस्तैस्तु पञ्चविंशो विलीयते ॥ १५ ॥
मूलम्
यदा तु गुणजालं तदव्यक्तात्मनि संक्षिपेत्।
तदा सह गुणैस्तैस्तु पञ्चविंशो विलीयते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगी जब अपने योगके प्रभावसे प्रकृतिके गुण-समूहको अव्यक्त मूल प्रकृतिमें विलीन कर देता है, तब उन गुणोंका विलय होनेके साथ-साथ पचीसवाँ तत्त्व पुरुष भी परमात्मामें मिल जाता है। इस दृष्टिसे उसे भी क्षर कह सकते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणा गुणेषु लीयन्ते तदैका प्रकृतिर्भवेत्।
क्षेत्रज्ञोऽपि यदा तात तत्क्षेत्रे सम्प्रलीयते ॥ १६ ॥
मूलम्
गुणा गुणेषु लीयन्ते तदैका प्रकृतिर्भवेत्।
क्षेत्रज्ञोऽपि यदा तात तत्क्षेत्रे सम्प्रलीयते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! जब कार्यभूत गुण कारणभूत गुणोंमें लीन हो जाते हैं, उस समय सब कुछ एकमात्र प्रकृतिस्वरूप हो जाता है तथा जब क्षेत्रज्ञ भी परमात्मामें लीन हो जाता है, तब उसका भी पृथक् अस्तित्व नहीं रहता॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा क्षरत्वं प्रकृतिर्गच्छते गुणसंश्रिता।
निर्गुणत्वं च वैदेह गुणेष्वप्रतिवर्तनात् ॥ १७ ॥
मूलम्
तदा क्षरत्वं प्रकृतिर्गच्छते गुणसंश्रिता।
निर्गुणत्वं च वैदेह गुणेष्वप्रतिवर्तनात् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदेहराज! उस समय त्रिगुणमयी प्रकृति क्षरत्व (नाश) को प्राप्त होती है और पुरुष भी गुणोंमें प्रवृत्त न होनेके कारण निर्गुण (गुणातीत) हो जाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेव च क्षेत्रज्ञः क्षेत्रज्ञानपरिक्षये।
प्रकृत्या निर्गुणस्त्वेष इत्येवमनुशुश्रुम ॥ १८ ॥
मूलम्
एवमेव च क्षेत्रज्ञः क्षेत्रज्ञानपरिक्षये।
प्रकृत्या निर्गुणस्त्वेष इत्येवमनुशुश्रुम ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब क्षेत्रका ज्ञान नहीं रहता अर्थात् पुरुषको प्रकृतिका ज्ञान नहीं रहता, तब वह स्वभावसे ही निर्गुण है—यह हमने सुन रखा है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षरो भवत्येष यदा तदा गुणवतीमथ।
प्रकृतिं त्वभिजानाति निर्गुणत्वं तथाऽऽत्मनः ॥ १९ ॥
मूलम्
क्षरो भवत्येष यदा तदा गुणवतीमथ।
प्रकृतिं त्वभिजानाति निर्गुणत्वं तथाऽऽत्मनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह पुरुष क्षर होता है, अर्थात् परमात्मामें लीन हो जाता है, उस समय वह प्रकृतिके सगुणत्वको और अपने निर्गुणत्वको यथार्थ समझ लेता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा विशुद्धो भवति प्रकृतेः परिवर्जनात्।
अन्योऽहमन्येयमिति यदा बुध्यति बुद्धिमान् ॥ २० ॥
मूलम्
तदा विशुद्धो भवति प्रकृतेः परिवर्जनात्।
अन्योऽहमन्येयमिति यदा बुध्यति बुद्धिमान् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह ज्ञानवान् पुरुष जब यह जान लेता है कि मैं अन्य हूँ और यह प्रकृति मुझसे भिन्न है, तब वह प्रकृतिसे रहित हो जानेसे अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थित होता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदैष तत्त्वतामेति न चापि मिश्रतां व्रजेत्।
प्रकृत्या चैव राजेन्द्र मिश्रो ह्यन्यश्च दृश्यते ॥ २१ ॥
मूलम्
तदैष तत्त्वतामेति न चापि मिश्रतां व्रजेत्।
प्रकृत्या चैव राजेन्द्र मिश्रो ह्यन्यश्च दृश्यते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! प्रकृतिसे संयोगके समय उससे अभिन्न-सा प्रतीत होनेके कारण यह पुरुष तद्रूपताको प्राप्त हुआ-सा जान पड़ता है, परंतु उस अवस्थामें भी उसका प्रकृतिके साथ मिश्रण नहीं होता, उसकी पृथक्ता बनी रहती है। इस प्रकार पुरुष प्रकृतिके साथ संयुक्त और पृथक् भी दिखायी देता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तु गुणजालं तत् प्राकृतं वै जुगुप्सते।
पश्यते च परं पश्यं तदा पश्यन्न संत्यजेत् ॥ २२ ॥
मूलम्
यदा तु गुणजालं तत् प्राकृतं वै जुगुप्सते।
पश्यते च परं पश्यं तदा पश्यन्न संत्यजेत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वह प्राकृत गुणसमुदायको कुत्सित समझकर उससे विरत हो जाता है, उस समय वह परम दर्शनीय परमात्माका दर्शन पा जाता है और उसको देखकर फिर भी उसका त्याग नहीं करता अर्थात् उससे अलग नहीं होता॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं मया कृतमेतावद् योऽहं कालमिमं जनम्।
मत्स्यो जालं ह्यविज्ञानादनुवर्तितवानिह ॥ २३ ॥
मूलम्
किं मया कृतमेतावद् योऽहं कालमिमं जनम्।
मत्स्यो जालं ह्यविज्ञानादनुवर्तितवानिह ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(जिस समय जीवात्माको विवेक होता है, उस समय वह यों विचार करने लगता है—) ‘ओह! मैंने यह क्या किया? जैसे मछली अज्ञानवश स्वयं ही जाकर जालमें फँस जाती है, उसी प्रकार मैं भी आजतक यहाँ इस प्राकृत शरीरका ही अनुसरण करता रहा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेव हि सम्मोहादन्यमन्यं जनाज्जनम्।
मत्स्यो यथोदकज्ञानादनुवर्तितवानहम् ॥ २४ ॥
मूलम्
अहमेव हि सम्मोहादन्यमन्यं जनाज्जनम्।
मत्स्यो यथोदकज्ञानादनुवर्तितवानहम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे मत्स्य पानीको ही अपने जीवनका मूल समझकर एक जलाशयसे दूसरे जलाशयको जाता है, उसी तरह मैं भी मोहवश एक शरीरसे दूसरे शरीरमें भटकता रहा॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्स्योऽन्यत्वं यथाज्ञानादुदकान्नाभिमन्यते ।
आत्मानं तद्वदज्ञानादन्यत्वं नैव वेद्म्यहम् ॥ २५ ॥
मूलम्
मत्स्योऽन्यत्वं यथाज्ञानादुदकान्नाभिमन्यते ।
आत्मानं तद्वदज्ञानादन्यत्वं नैव वेद्म्यहम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे मत्स्य अज्ञानवश अपनेको जलसे भिन्न नहीं समझता, उसी प्रकार मैं भी अपनी अज्ञताके कारण इस प्राकृत शरीरसे अपनेको भिन्न नहीं समझता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममास्तु धिगबुद्धस्य योऽहं मग्नमिमं पुनः।
अनुवर्तितवान् मोहादन्यमन्यं जनाज्जनम् ॥ २६ ॥
मूलम्
ममास्तु धिगबुद्धस्य योऽहं मग्नमिमं पुनः।
अनुवर्तितवान् मोहादन्यमन्यं जनाज्जनम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझ मूढ़को धिक्कार है; जो कि संसारसागरमें डूबे हुए इस शरीरका आश्रय ले मोहवश एक शरीरसे दूसरे शरीरका अनुसरण करता रहा॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयमत्र भवेद् बन्धुरनेन सह मे क्षमम्।
साम्यमेकत्वमायातो यादृशस्तादृशस्त्वहम् ॥ २७ ॥
मूलम्
अयमत्र भवेद् बन्धुरनेन सह मे क्षमम्।
साम्यमेकत्वमायातो यादृशस्तादृशस्त्वहम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वास्तवमें इस जगत्के भीतर यह परमात्मा ही मेरा बन्धु है। इसीके साथ मेरी मैत्री हो सकती है। पहले मैं कैसा भी क्यों न रहा होऊँ, इस समय तो मैं इसकी समानता और एकताको प्राप्त हो चुका हूँ, जैसा वह है वैसा ही मैं हूँ॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्यतामिह पश्यामि सदृशोऽहमनेन वै।
अयं हि विमलो व्यक्तमहमीदृशकस्तथा ॥ २८ ॥
मूलम्
तुल्यतामिह पश्यामि सदृशोऽहमनेन वै।
अयं हि विमलो व्यक्तमहमीदृशकस्तथा ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसीमें मुझे अपनी समानता दिखायी देती है। मैं अवश्य इसके ही सदृश हूँ। यह परमात्मा प्रत्यक्ष ही अत्यन्त निर्मल है और मैं भी ऐसा ही हूँ॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽहमज्ञानसम्मोहादज्ञया सम्प्रवृत्तवान् ।
ससङ्गयाहं निःसङ्गः स्थितः कालमिमं त्वहम् ॥ २९ ॥
मूलम्
योऽहमज्ञानसम्मोहादज्ञया सम्प्रवृत्तवान् ।
ससङ्गयाहं निःसङ्गः स्थितः कालमिमं त्वहम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं जो कि आसक्तिसे सर्वथा रहित हूँ तो भी अज्ञान एवं मोहके वशीभूत होकर इतने समयतक इस आसक्तिमयी जड प्रकृतिके साथ रमता रहा॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनयाहं वशीभूतः कालमेतं न बुद्धवान्।
उच्चमध्यमनीचानां तामहं कथमावसे ॥ ३० ॥
मूलम्
अनयाहं वशीभूतः कालमेतं न बुद्धवान्।
उच्चमध्यमनीचानां तामहं कथमावसे ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसने मुझे इस तरह वशमें कर लिया था कि मुझे आजतकके समयका पता ही न चला। यह तो उच्च, मध्यम तथा नीच सब श्रेणीके लोगोंके साथ रहती है। भला, इसके साथ मैं कैसे रह सकता हूँ?॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समानयानया चेह सह वासमहं कथम्।
गच्छाम्यबुद्धभावत्वादेषेदानीं स्थिरो भवे ॥ ३१ ॥
मूलम्
समानयानया चेह सह वासमहं कथम्।
गच्छाम्यबुद्धभावत्वादेषेदानीं स्थिरो भवे ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मेरे साथ संयुक्त होकर मेरी समानता करने लगी है, ऐसी इस प्रकृतिके साथ मैं मूर्खतावश सहवास कैसे कर सकता हूँ? यह लो, अब मैं स्थिर हो रहा हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहवासं न यास्यामि कालमेतद्धि वञ्चनात्।
वञ्चितोऽस्म्यनया यद्धि निर्विकारो विकारया ॥ ३२ ॥
मूलम्
सहवासं न यास्यामि कालमेतद्धि वञ्चनात्।
वञ्चितोऽस्म्यनया यद्धि निर्विकारो विकारया ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं निर्विकार होकर भी इस विकारमयी प्रकृतिके द्वारा ठगा गया। इतने समयतक इसने मेरे साथ ठगी की है। इसलिये अब इसके साथ नहीं रहूँगा॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चायमपराधोऽस्या ह्यपराधो ह्ययं मम।
योऽहमत्राभवं सक्तः पराङ्मुखमुपस्थितः ॥ ३३ ॥
मूलम्
न चायमपराधोऽस्या ह्यपराधो ह्ययं मम।
योऽहमत्राभवं सक्तः पराङ्मुखमुपस्थितः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘किंतु यह इसका अपराध नहीं है, सारा अपराध मेरा ही है; जो कि मैं परमात्मासे विमुख होकर इसमें आसक्त हुआ स्थित रहा॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्मि बहुरूपासु स्थितो मूर्तिष्वमूर्तिमान्।
अमूर्तश्चापि मूर्तात्मा ममत्वेन प्रधर्षितः ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततोऽस्मि बहुरूपासु स्थितो मूर्तिष्वमूर्तिमान्।
अमूर्तश्चापि मूर्तात्मा ममत्वेन प्रधर्षितः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यद्यपि मैं सर्वथा अमूर्त हूँ अर्थात् किसी आकार-वाला नहीं हूँ तो भी मैं प्रकृतिकी अनेक रूपवाली मूर्तियोंमें स्थित हुआ देहरहित होकर भी ममतासे परास्त होनेके कारण देहधारी बना रहा॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राक् कृतेन ममत्वेन तासु तास्विह योनिषु।
निर्ममस्य ममत्वेन किं कृतं तासु तासु च ॥ ३५ ॥
मूलम्
प्राक् कृतेन ममत्वेन तासु तास्विह योनिषु।
निर्ममस्य ममत्वेन किं कृतं तासु तासु च ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले जो मैंने इसके प्रति ममता की थी, उसके कारण मुझे भिन्न-भिन्न योनियोंमें भटकना पड़ा। यद्यपि मैं ममतारहित हूँ तो भी इस प्रकृतिजनित ममताने भिन्न-भिन्न योनियोंमें मुझे डालकर मेरी बड़ी दुर्दशा कर डाली॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योनीषु वर्तमानेन नष्टसंज्ञेन चेतसा।
न ममात्रानया कार्यमहंकारकृतात्मया ॥ ३६ ॥
मूलम्
योनीषु वर्तमानेन नष्टसंज्ञेन चेतसा।
न ममात्रानया कार्यमहंकारकृतात्मया ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसके साथ नाना प्रकारकी योनियोंमें भटकनेके कारण मेरी चेतना खो गयी थी। अब इस अहंकारमयी प्रकृतिसे मेरा कोई काम नहीं है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानं बहुधा कृत्वा
येयं भूयो युनक्ति माम्।
इदानीम् एष बुद्धोऽस्मि
निर्ममो निरहंकृतः ॥ ३७ ॥
मूलम्
आत्मानं बहुधा कृत्वा येयं भूयो युनक्ति माम्।
इदानीमेष बुद्धोऽस्मि निर्ममो निरहंकृतः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब भी यह बहुत-से रूप धारण करके मेरे साथ संयोगकी चेष्टा कर रही है; किंतु अब मैं सावधान हो गया हूँ, इसलिये ममता और अहंकारसे रहित हो गया हूँ॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममत्वम् अनया नित्यम्
अहंकारकृतात्मकम् ।
अपेत्याहम् इमां हित्वा
संश्रयिष्ये निरामयम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
ममत्वमनया नित्यमहंकारकृतात्मकम् ।
अपेत्याहमिमां हित्वा संश्रयिष्ये निरामयम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब तो इसको और इसकी अहंकारस्वरूपिणी ममताको त्यागकर इससे सर्वथा अतीत होकर मैं निरामय परमात्माकी शरण लूँगा॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेन साम्यं यास्यामि
नानया ऽहम् अचेतया।
क्षेमं मम सहानेन
नैकत्वमनया सह ॥ ३९ ॥
मूलम्
अनेन साम्यं यास्यामि नानयाहमचेतया।
क्षेमं मम सहानेन नैकत्वमनया सह ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन परमात्माकी ही समानता प्राप्त करूँगा। इस जड प्रकृतिकी समानता नहीं धारण करूँगा। परमात्माके साथ संयोग करनेमें ही मेरा कल्याण है। इस प्रकृतिके साथ नहीं॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं परमसम्बोधात् पञ्चविंशोऽनुबुद्धवान् ।
अक्षरत्वं नियच्छेत त्यक्त्वा क्षरमनामयम् ॥ ४० ॥
मूलम्
एवं परमसम्बोधात् पञ्चविंशोऽनुबुद्धवान् ।
अक्षरत्वं नियच्छेत त्यक्त्वा क्षरमनामयम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार उत्तम विवेकके द्वारा अपने शुद्ध स्वरूपका ज्ञान प्राप्तकर चौबीस तत्त्वोंसे परे पचीसवाँ आत्मा क्षरभाव (विनाशशीलता) का त्याग करके निरामय अक्षरभावको प्राप्त होता है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तं व्यक्तधर्माणं सगुणं निर्गुणं तथा।
निर्गुणं प्रथमं दृष्ट्वा तादृग् भवति मैथिल ॥ ४१ ॥
मूलम्
अव्यक्तं व्यक्तधर्माणं सगुणं निर्गुणं तथा।
निर्गुणं प्रथमं दृष्ट्वा तादृग् भवति मैथिल ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मिथिलानरेश! अव्यक्त प्रकृति, व्यक्त महत्तत्त्वादि, सगुण (जडवर्ग), निर्गुण (आत्मा) तथा सबके आदिभूत निर्गुण परमात्माका साक्षात्कार करके मनुष्य स्वयं भी वैसा ही हो जाता है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षरक्षरयोरेतदुक्तं तव निदर्शनम् ।
मयेह ज्ञानसम्पन्नं यथाश्रुतिनिदर्शनात् ॥ ४२ ॥
मूलम्
अक्षरक्षरयोरेतदुक्तं तव निदर्शनम् ।
मयेह ज्ञानसम्पन्नं यथाश्रुतिनिदर्शनात् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वेदमें जैसा वर्णन किया गया है, उसके अनुरूप यह क्षर-अक्षरका विवेक करानेवाला ज्ञान मैंने तुम्हें सुनाया है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःसंदिग्धं च सूक्ष्मं च विबुद्धं विमलं यथा।
प्रवक्ष्यामि तु ते भूयस्तन्निबोध यथाश्रुतम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
निःसंदिग्धं च सूक्ष्मं च विबुद्धं विमलं यथा।
प्रवक्ष्यामि तु ते भूयस्तन्निबोध यथाश्रुतम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब पुनः श्रुतिके अनुसार संदेहरहित, सूक्ष्म तथा अत्यन्त निर्मल विशिष्ट ज्ञानकी बात तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांख्ययोगौ मया प्रोक्तौ शास्त्रद्वयनिदर्शनात्।
यदेव शास्त्रं सांख्योक्तं योगदर्शनमेव तत् ॥ ४४ ॥
मूलम्
सांख्ययोगौ मया प्रोक्तौ शास्त्रद्वयनिदर्शनात्।
यदेव शास्त्रं सांख्योक्तं योगदर्शनमेव तत् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने सांख्य और योगका जो वर्णन किया है, उसमें इन दोनोंको पृथक्-पृथक् दो शास्त्र बताया है; परंतु वास्तवमें जो सांख्यशास्त्र है, वही योगशास्त्र भी है (क्योंकि दोनोंका फल एक ही है)॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रबोधनकरं ज्ञानं सांख्यानामवनीपते ।
विस्पष्टं प्रोच्यते तत्र शिष्याणां हितकाम्यया ॥ ४५ ॥
मूलम्
प्रबोधनकरं ज्ञानं सांख्यानामवनीपते ।
विस्पष्टं प्रोच्यते तत्र शिष्याणां हितकाम्यया ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! मैंने शिष्योंके हितकी कामनासे उनके लिये ज्ञानजनक जो सांख्यदर्शन है, उसका तुम्हारे निकट स्पष्टरूपसे वर्णन किया है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहच्चैवमिदं शास्त्रमित्याहुर्विदुषो जनाः ।
अस्मिंश्च शास्त्रे योगानां पुनर्वेदे पुरःसरः ॥ ४६ ॥
मूलम्
बृहच्चैवमिदं शास्त्रमित्याहुर्विदुषो जनाः ।
अस्मिंश्च शास्त्रे योगानां पुनर्वेदे पुरःसरः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुषोंका कहना है कि यह सांख्यशास्त्र महान् है। इस शास्त्रमें, योगशास्त्रमें तथा वेदमें अधिक प्रामाणिकता समझकर मनुष्यको इनके अध्ययनके लिये आगे बढ़ना चाहिये॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चविंशात् परं तत्त्वं पठ्यते न नराधिप।
सांख्यानां तु परं तत्त्वं यथावदनुवर्णितम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
पञ्चविंशात् परं तत्त्वं पठ्यते न नराधिप।
सांख्यानां तु परं तत्त्वं यथावदनुवर्णितम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! सांख्यशास्त्रके आचार्य पचीसवें तत्त्वसे परे और किसी तत्त्वका वर्णन नहीं करते हैं। यह मैंने सांख्योंके परम तत्त्वका यथावत्रूपसे वर्णन किया है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धमप्रतिबुद्धत्वाद् बुध्यमानं च तत्त्वतः।
बुध्यमानं च बुद्धं च प्राहुर्योगनिदर्शनम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
बुद्धमप्रतिबुद्धत्वाद् बुध्यमानं च तत्त्वतः।
बुध्यमानं च बुद्धं च प्राहुर्योगनिदर्शनम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो नित्य ज्ञानसम्पन्न परब्रह्म परमात्मा है, वही बुद्ध है तथा जो परमात्मतत्त्वको न जाननेके कारण जिज्ञासु जीवात्मा है, उसकी ‘बुध्यमान’ संज्ञा होती है। इस प्रकार योगके सिद्धान्तके अनुसार बुद्ध (नित्य ज्ञानसम्पन्न परमात्मा) और बुध्यमान (जिज्ञासु जीव)—ये दो चेतन माने गये हैं॥४८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वसिष्ठकरालजनकसंवादे सप्ताधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वसिष्ठकरालजनकसंवादविषयक तीन सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०७॥