भागसूचना
षडधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
योग और सांख्यके स्वरूपका वर्णन तथा आत्मज्ञानसे मुक्ति
मूलम् (वचनम्)
जनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानात्वैकत्वमित्युक्तं त्वयैतदृषिसत्तम ।
पश्याम्येतद्धि संदिग्धमेतयोर्वै निदर्शनम् ॥ १ ॥
मूलम्
नानात्वैकत्वमित्युक्तं त्वयैतदृषिसत्तम ।
पश्याम्येतद्धि संदिग्धमेतयोर्वै निदर्शनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनकने पूछा— मुनिश्रेष्ठ! आपने क्षरको अनेक रूप और अक्षरको एकरूप बताया; किंतु इन दोनोंके तत्त्वका जो निर्णय किया गया है, उसे मैं अब भी संदेहकी दृष्टिसे ही देखता हूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा बुद्धप्रबुद्धाभ्यां बुद्ध्यमानस्य चानघ।
स्थूलबुद्ध्या न पश्यामि तत्त्वमेतन्न संशयः ॥ २ ॥
मूलम्
तथा बुद्धप्रबुद्धाभ्यां बुद्ध्यमानस्य चानघ।
स्थूलबुद्ध्या न पश्यामि तत्त्वमेतन्न संशयः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप महर्षे! जिसे अज्ञानी पुरुष (अनेक रूपमें) और ज्ञानी पुरुष एक रूपमें जानते हैं, उस परमात्माका तत्त्व मैं अपनी स्थूल बुद्धिके कारण समझ नहीं पाता हूँ। मेरे इस कथनमें तनिक भी संशय नहीं है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षरक्षरयोरुक्तं त्वया यदपि कारणम्।
तदप्यस्थिरबुद्धित्वात् प्रणष्टमिव मेऽनघ ॥ ३ ॥
मूलम्
अक्षरक्षरयोरुक्तं त्वया यदपि कारणम्।
तदप्यस्थिरबुद्धित्वात् प्रणष्टमिव मेऽनघ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! यद्यपि आपने क्षर और अक्षरको समझानेके लिये अनेक प्रकारकी युक्तियाँ बतायी हैं तथापि मेरी बुद्धि अस्थिर होनेके कारण मैं उन सारी युक्तियोंको मानो भूल गया हूँ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेतच्छ्रोतुमिच्छामि नानात्वैकत्वदर्शनम् ।
बुद्धं चाप्रतिबुद्धं च बुध्यमानं च तत्त्वतः ॥ ४ ॥
मूलम्
तदेतच्छ्रोतुमिच्छामि नानात्वैकत्वदर्शनम् ।
बुद्धं चाप्रतिबुद्धं च बुध्यमानं च तत्त्वतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये इस नानात्व और एकत्व-रूप दर्शनको मैं पुनः सुनना चाहता हूँ। बुद्ध (ज्ञानवान्) क्या है? अप्रतिबुद्ध (ज्ञानहीन) क्या है? तथा बुद्ध्यमान (ज्ञेय) क्या है? यह ठीक-ठीक बताइये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्याविद्ये च भगवन्नक्षरं क्षरमेव च।
साङ्ख्यं योगं च कार्त्स्न्येन पृथक् चैवापृथक् च ह॥५॥
मूलम्
विद्याविद्ये च भगवन्नक्षरं क्षरमेव च।
साङ्ख्यं योगं च कार्त्स्न्येन पृथक् चैवापृथक् च ह॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मैं विद्या, अविद्या, अक्षर और क्षर तथा सांख्य और योगको पृथक्-पृथक् पूर्णरूपसे समझना चाहता हूँ॥५॥
मूलम् (वचनम्)
वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त ते सम्प्रवक्ष्यामि यदेतदनुपृच्छसि।
योगकृत्यं महाराज पृथगेव शृणुष्व मे ॥ ६ ॥
मूलम्
हन्त ते सम्प्रवक्ष्यामि यदेतदनुपृच्छसि।
योगकृत्यं महाराज पृथगेव शृणुष्व मे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजीने कहा— महाराज! तुम जो-जो बातें पूछ रहे हो, मैं उन सबका भलीभाँति उत्तर दूँगा। इस समय योगसम्बन्धी कृत्यका पृथक् ही वर्णन कर रहा हूँ, सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगकृत्यं तु योगानां ध्यानमेव परं बलम्।
तच्चापि द्विविधं ध्यानमाहुर्विद्याविदो जनाः ॥ ७ ॥
एकाग्रता च मनसः प्राणायामस्तथैव च।
प्राणायामस्तु सगुणो निर्गुणो मनसस्तथा ॥ ८ ॥
मूलम्
योगकृत्यं तु योगानां ध्यानमेव परं बलम्।
तच्चापि द्विविधं ध्यानमाहुर्विद्याविदो जनाः ॥ ७ ॥
एकाग्रता च मनसः प्राणायामस्तथैव च।
प्राणायामस्तु सगुणो निर्गुणो मनसस्तथा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगियोंके लिये प्रधान कर्तव्य है ध्यान। वही उनका परम बल है। योगके विद्वान् उस ध्यानको दो प्रकारका बतलाते हैं—एक तो मनकी एकाग्रता और दूसरा प्राणायाम। प्राणायामके भी दो भेद हैं—सगुण और निर्गुण। इनमेंसे जिस प्राणायाममें मनका सम्बन्ध सगुणके साथ रहता है, वह सगुण प्राणायाम है और जिसमें मनका सम्बन्ध निर्गुणके साथ रहता है, वह निर्गुण प्राणायाम है॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूत्रोत्सर्गपुरीषे च भोजने च नराधिप।
त्रिकालं नाभियुञ्जीत शेषं युञ्जीत तत्परः ॥ ९ ॥
मूलम्
मूत्रोत्सर्गपुरीषे च भोजने च नराधिप।
त्रिकालं नाभियुञ्जीत शेषं युञ्जीत तत्परः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! मलत्याग, मूत्रत्याग और भोजन—इन तीन कार्योंमें जो समय लगता है, उसमें योगका अभ्यास न करे। शेष समयमें तत्परतापूर्वक योगका अभ्यास करना चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो निवर्त्य मनसा शुचिः।
दशद्वादशभिर्वापि चतुर्विंशात् परं ततः ॥ १० ॥
संचोदनाभिर्मतिमानात्मानं चोदयेदथ ।
तिष्ठन्तमजरं तं तु यत् तदुक्तं मनीषिभिः ॥ ११ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो निवर्त्य मनसा शुचिः।
दशद्वादशभिर्वापि चतुर्विंशात् परं ततः ॥ १० ॥
संचोदनाभिर्मतिमानात्मानं चोदयेदथ ।
तिष्ठन्तमजरं तं तु यत् तदुक्तं मनीषिभिः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् योगीको चाहिये कि पवित्र हो मनके द्वारा श्रोत्र आदि इन्द्रियोंको शब्द आदि विषयोंसे हटावे एवं बाईस1 प्रकारकी प्रेरणाओंद्वारा उस जरारहित जीवात्माको, जिसे मनीषी पुरुषोंने आत्मस्वरूप बताया है, चौबीस तत्त्वोंके समुदायरूप प्रकृतिसे परे परम पुरुष परमात्माकी ओर प्रेरित करे॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैश्चात्मा सततं ज्ञेय इत्येवमनुशुश्रुम।
व्रतं ह्यहीनमनसो नान्यथेति विनिश्चयः ॥ १२ ॥
मूलम्
तैश्चात्मा सततं ज्ञेय इत्येवमनुशुश्रुम।
व्रतं ह्यहीनमनसो नान्यथेति विनिश्चयः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने गुरुजनोंके मुखसे सुना है कि जो लोग इस प्रकार प्राणायाम करते हैं, वे सदा ही परब्रह्म परमात्माके जाननेके अधिकारी होते हैं। जिसका मन सदा ध्यानमें संलग्न रहता है, ऐसे योगीके ही योग्य यह व्रत है अन्यथा बहिर्मुख चित्तवाले पुरुषके लिये यह नहीं है। यह निश्चितरूपसे जानना चाहिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः।
पूर्वरात्रेऽपररात्रे धारयीत मनोऽऽत्मनि ॥ १३ ॥
मूलम्
विमुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः।
पूर्वरात्रेऽपररात्रे धारयीत मनोऽऽत्मनि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगी सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त हो मिताहारी और जितेन्द्रिय बने तथा रात्रिके पहले और पिछले भागमें मनको आत्मामें एकाग्र करे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थिरीकृत्येन्द्रियग्रामं मनसा मिथिलेश्वर ।
मनो बुद्ध्या स्थिरं कृत्वा पाषाण इव निश्चलः ॥ १४ ॥
स्थाणुवच्चाप्यकम्पः स्याद् गिरिवच्चापि निश्चलः।
बुद्ध्या विधिविधानज्ञास्तदा युक्तं प्रचक्षते ॥ १५ ॥
मूलम्
स्थिरीकृत्येन्द्रियग्रामं मनसा मिथिलेश्वर ।
मनो बुद्ध्या स्थिरं कृत्वा पाषाण इव निश्चलः ॥ १४ ॥
स्थाणुवच्चाप्यकम्पः स्याद् गिरिवच्चापि निश्चलः।
बुद्ध्या विधिविधानज्ञास्तदा युक्तं प्रचक्षते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मिथिलेश्वर! जब योगी मनके द्वारा सम्पूर्ण इन्द्रियोंको और बुद्धिके द्वारा मनको स्थिर करके पत्थरकी भाँति अविचल हो जाय, सूखे काठकी भाँति निष्कम्य और पर्वतकी तरह स्थिर रहने लगे तभी शास्त्रके विधानको जाननेवाले विद्वान् पुरुष अपने अनुभवसे ही उसको योगयुक्त कहते हैं॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शृणोति न चाघ्राति न रंस्यति न पश्यति।
न च स्पर्शं विजानाति न संकल्पयते मनः ॥ १६ ॥
न चाभिमन्यते किंचिन्न च बुध्यति काष्ठवत्।
तदा प्रकृतिमापन्नं युक्तमाहुर्मनीषिणः ॥ १७ ॥
मूलम्
न शृणोति न चाघ्राति न रंस्यति न पश्यति।
न च स्पर्शं विजानाति न संकल्पयते मनः ॥ १६ ॥
न चाभिमन्यते किंचिन्न च बुध्यति काष्ठवत्।
तदा प्रकृतिमापन्नं युक्तमाहुर्मनीषिणः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय वह न तो सुनता है, न सूँघता है, न स्वाद लेता है, न देखता है और न स्पर्शका ही अनुभव करता है, जब उसके मनमें किसी प्रकारका संकल्प नहीं उठता तथा काठकी भाँति स्थित होकर वह किसी भी वस्तुका अभिमान या सुध-बुध नहीं रखता, उसी समय मनीषी पुरुष उसे अपने शुद्धस्वरूपको प्राप्त एवं योगयुक्त कहते हैं॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्वाते हि यथा दीप्यन् दीपस्तद्वत् प्रकाशते।
निर्लिङ्गोऽविचलश्चोर्ध्वं न तिर्यग् गतिमाप्नुयात् ॥ १८ ॥
मूलम्
निर्वाते हि यथा दीप्यन् दीपस्तद्वत् प्रकाशते।
निर्लिङ्गोऽविचलश्चोर्ध्वं न तिर्यग् गतिमाप्नुयात् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अवस्थामें वह वायुरहित स्थानमें रखे हुए निश्चलभावसे प्रज्वलित दीपककी भाँति प्रकाशित होता है। लिंग शरीरसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। वह ऐसा निश्चल हो जाता है कि उसकी ऊपर-नीचे अथवा मध्यमें कहीं भी गति नहीं होती॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा तमनुपश्येत यस्मिन् दृष्टे न कथ्यते।
हृदयस्थोऽन्तरात्मेति ज्ञेयो ज्ञस्तात मद्विधैः ॥ १९ ॥
मूलम्
तदा तमनुपश्येत यस्मिन् दृष्टे न कथ्यते।
हृदयस्थोऽन्तरात्मेति ज्ञेयो ज्ञस्तात मद्विधैः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका साक्षात्कार कर लेनेपर मनुष्य कुछ बोल नहीं पाता, योगकालमें योगी उसी परमात्माको देखे। वत्स! मुझ-जैसे लोगोंको अपने-अपने हृदयमें स्थित सबके ज्ञाता अन्तरात्माका ही ज्ञान प्राप्त करना उचित है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधूम इव सप्तार्चिरादित्य इव रश्मिमान्।
वैद्युतोऽग्निरिवाकाशे दृश्यतेऽऽत्मा तथाऽऽत्मनि ॥ २० ॥
मूलम्
विधूम इव सप्तार्चिरादित्य इव रश्मिमान्।
वैद्युतोऽग्निरिवाकाशे दृश्यतेऽऽत्मा तथाऽऽत्मनि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ध्याननिष्ठ योगीको अपने हृदयमें उसी प्रकार परमात्माका साक्षात् दर्शन होता है जैसे धूमरहित अग्निका, किरणमालाओंसे मण्डित सूर्यका तथा आकाशमें विद्युत्के प्रकाशका दर्शन होता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये पश्यन्ति महात्मानो धृतिमन्तो मनीषिणः।
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ह्ययोनिममृतात्मकम् ॥ २१ ॥
मूलम्
ये पश्यन्ति महात्मानो धृतिमन्तो मनीषिणः।
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ह्ययोनिममृतात्मकम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धैर्यवान्, मनीषी, ब्रह्मबोधक शास्त्रोंमें निष्ठा रखनेवाले और महात्मा ब्राह्मण ही उस अजन्मा एवं अमृतस्वरूप ब्रह्मका दर्शन कर पाते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेवाहुरणुभ्योऽणु तन्महद्भ्यो महत्तरम् ।
तत् तत्त्वं सर्वभूतेषु ध्रुवं तिष्ठन् न दृश्यते ॥ २२ ॥
मूलम्
तदेवाहुरणुभ्योऽणु तन्महद्भ्यो महत्तरम् ।
तत् तत्त्वं सर्वभूतेषु ध्रुवं तिष्ठन् न दृश्यते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह ब्रह्म अणुसे भी अणु और महान्से भी महान् कहा गया है। सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर वह अन्तर्यामीरूपसे अवश्य स्थिर रहता है तथापि किसीको दिखायी नहीं देता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिद्रव्येण दृश्येत मनोदीपेन लोककृत्।
महतस्तमसस्तात पारे तिष्ठन्नतामसः ॥ २३ ॥
स तमोनुद इत्युक्तः सर्वज्ञैर्वेदपारगैः।
विमलो वितमस्कश्च निर्लिङ्गोऽलिङ्गसंज्ञितः ॥ २४ ॥
योग एष हि योगानां किमन्यद् योगलक्षणम्।
एवं पश्यं प्रपश्यन्ति आत्मानमजरं परम् ॥ २५ ॥
मूलम्
बुद्धिद्रव्येण दृश्येत मनोदीपेन लोककृत्।
महतस्तमसस्तात पारे तिष्ठन्नतामसः ॥ २३ ॥
स तमोनुद इत्युक्तः सर्वज्ञैर्वेदपारगैः।
विमलो वितमस्कश्च निर्लिङ्गोऽलिङ्गसंज्ञितः ॥ २४ ॥
योग एष हि योगानां किमन्यद् योगलक्षणम्।
एवं पश्यं प्रपश्यन्ति आत्मानमजरं परम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूक्ष्म बुद्धिरूप धन-सम्पन्न पुरुष ही मनोमय दीपकके द्वारा उस लोकस्रष्टा परमात्माका साक्षात्कार कर सकते हैं। वह परमात्मा महान् अन्धकारसे परे और तमोगुणसे रहित है; इसलिये वेदके पारगामी सर्वज्ञ पुरुषोंने उसे तमोनुद (अज्ञान नाशक) कहा है। वह निर्मल, अज्ञानरहित, लिंगहीन और अलिंग नामसे प्रसिद्ध (उपाधिशून्य) है। यही योगियोंका योग है। इसके सिवा योगका और क्या लक्षण हो सकता है। इस तरह साधना करनेवाले योगी सबके द्रष्टा अजर-अमर परमात्माका दर्शन करते हैं॥२३—२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगदर्शनमेतावदुक्तं ते तत्त्वतो मया।
सांख्यज्ञानं प्रवक्ष्यामि परिसंख्यानदर्शनम् ॥ २६ ॥
मूलम्
योगदर्शनमेतावदुक्तं ते तत्त्वतो मया।
सांख्यज्ञानं प्रवक्ष्यामि परिसंख्यानदर्शनम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँतक मैंने तुम्हें यथार्थरूपसे योग-दर्शनकी बात बतायी है, अब सांख्यका वर्णन करता हूँ; यह विचारप्रधान दर्शन है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तमाहुः प्रकृतिं परां प्रकृतिवादिनः।
तस्मान्महत् समुत्पन्नं द्वितीयं राजसत्तम ॥ २७ ॥
मूलम्
अव्यक्तमाहुः प्रकृतिं परां प्रकृतिवादिनः।
तस्मान्महत् समुत्पन्नं द्वितीयं राजसत्तम ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! प्रकृतिवादी विद्वान् मूल प्रकृतिको अव्यक्त कहते हैं। उससे दूसरा तत्त्व प्रकट हुआ, जिसे महत्तत्त्व कहते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहङ्कारस्तु महतस्तृतीयमिति नः श्रुतम्।
पञ्चभूतान्यहङ्कारादाहुः सांख्यात्मदर्शिनः ॥ २८ ॥
मूलम्
अहङ्कारस्तु महतस्तृतीयमिति नः श्रुतम्।
पञ्चभूतान्यहङ्कारादाहुः सांख्यात्मदर्शिनः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महत्तत्त्वसे अहंकार प्रकट हुआ, जो तीसरा तत्त्व है। ऐसा हमारे सुननेमें आया है। अहंकारसे पाँच सूक्ष्म भूतोंकी अर्थात् पञ्चतन्मात्राओंकी उत्पत्ति हुई; यह सांख्यात्मदर्शी विद्वानोंका कथन है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एताः प्रकृतयश्चाष्टौ विकाराश्चापि षोडश।
पञ्च चैव विशेषा वै तथा पञ्चेन्द्रियाणि च ॥ २९ ॥
मूलम्
एताः प्रकृतयश्चाष्टौ विकाराश्चापि षोडश।
पञ्च चैव विशेषा वै तथा पञ्चेन्द्रियाणि च ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये आठ प्रकृतियाँ हैं। इनसे सोलह तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है, जिन्हें विकार कहते हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन और पाँच स्थूलभूत—ये सोलह विकार हैं। इनमेंसे आकाश आदि पाँच तत्त्व और पाँच ज्ञानेन्द्रियों—से विशेष कहलाते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदेव तत्त्वानां सांख्यमाहुर्मनीषिणः ।
सांख्ये विधिविधानज्ञा नित्यं सांख्यपथे रताः ॥ ३० ॥
मूलम्
एतावदेव तत्त्वानां सांख्यमाहुर्मनीषिणः ।
सांख्ये विधिविधानज्ञा नित्यं सांख्यपथे रताः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सांख्यशास्त्रीय विधि-विधानके ज्ञाता और सदा सांख्यमार्गमें ही अनुरक्त रहनेवाले मनीषी पुरुष इतनी ही सांख्यसम्मत तत्त्वोंकी संख्या बतलाते हैं। अर्थात् अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्रा—इन आठ प्रकृतियोंसहित उपर्युक्त सोलह विकार मिलकर कुल चौबीस तत्त्व सांख्यशास्त्रके विद्वानोंने स्वीकार किये हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्माद् यदभिजायेत तत् तत्रैव प्रलीयते।
लीयन्ते प्रतिलोमानि सृज्यन्ते चान्तरात्मना ॥ ३१ ॥
मूलम्
यस्माद् यदभिजायेत तत् तत्रैव प्रलीयते।
लीयन्ते प्रतिलोमानि सृज्यन्ते चान्तरात्मना ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तत्त्व जिससे उत्पन्न होता है, वह उसीमें लीन भी होता है। अनुलोमक्रमसे उन तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है (जैसे प्रकृतिसे महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे अहंकार, अहंकारसे सूक्ष्म भूत आदिके कमसे सृष्टि होती है); परंतु उनका संहार विलोमक्रमसे होता है (अर्थात् पृथ्वीका जलमें, जलका तेजमें और तेजका वायुमें लय होता है। इस तरह सभी तत्त्व अपने-अपने कारणमें लीन होते हैं)। ये सभी तत्त्व अन्तरात्माद्वारा ही रचे जाते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुलोमेन जायन्ते लीयन्ते प्रतिलोमतः।
गुणा गुणेषु सततं सागरस्योर्मयो यथा ॥ ३२ ॥
मूलम्
अनुलोमेन जायन्ते लीयन्ते प्रतिलोमतः।
गुणा गुणेषु सततं सागरस्योर्मयो यथा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे समुद्रसे उठी हुई लहरें फिर उसीमें शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण गुण (तत्त्व) सदा अनुलोमक्रमसे उत्पन्न होते और विलोमक्रमसे अपने कारणभूत गुणों (तत्त्व) में ही लीन हो जाते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्गप्रलय एतावान् प्रकृतेर्नृपसत्तम ।
एकत्वं प्रलये चास्य बहुत्वं च यदासृजत् ॥ ३३ ॥
एवमेव च राजेन्द्र विज्ञेयं ज्ञानकोविदैः।
अधिष्ठातारमव्यक्तमस्याप्येतन्निदर्शनम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
सर्गप्रलय एतावान् प्रकृतेर्नृपसत्तम ।
एकत्वं प्रलये चास्य बहुत्वं च यदासृजत् ॥ ३३ ॥
एवमेव च राजेन्द्र विज्ञेयं ज्ञानकोविदैः।
अधिष्ठातारमव्यक्तमस्याप्येतन्निदर्शनम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! इतना ही प्रकृतिके सर्ग और प्रलयका विषय है। प्रलयकालमें इसका एकत्व है और जब रचना होती है, तब इसके बहुत भेद हो जाते हैं। राजेन्द्र! ज्ञाननिपुण पुरुषोंको इसी प्रकार प्रकृतिका एकत्व और नानात्व जानना चाहिये। अव्यक्त प्रकृति ही अधिष्ठाता पुरुषको सृष्टिकालमें नानात्वकी ओर ले जाती है। यही पुरुषके एकत्वका निदर्शन है॥३३-३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकत्वं च बहुत्वं च प्रकृतेरर्थतत्त्ववान्।
एकत्वं प्रलये चास्य बहुत्वं च प्रवर्तनात् ॥ ३५ ॥
मूलम्
एकत्वं च बहुत्वं च प्रकृतेरर्थतत्त्ववान्।
एकत्वं प्रलये चास्य बहुत्वं च प्रवर्तनात् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्थतत्त्वके ज्ञाता पुरुषको यह जानना चाहिये कि प्रलयकालमें प्रकृतिमें भी एकता और सृष्टिकालमें अनेकता रहती है। इसी प्रकार पुरुष भी प्रलयकालमें एक ही रहता है; किंतु सृष्टिकालमें प्रकृतिका प्रेरक होनेके कारण उसमें नानात्वका आरोप हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुधाऽऽत्मा प्रकुर्वीत प्रकृतिं प्रसवात्मिकाम्।
तच्च क्षेत्रं महानात्मा पञ्चविंशोऽधितिष्ठति ॥ ३६ ॥
मूलम्
बहुधाऽऽत्मा प्रकुर्वीत प्रकृतिं प्रसवात्मिकाम्।
तच्च क्षेत्रं महानात्मा पञ्चविंशोऽधितिष्ठति ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमात्मा ही प्रसवात्मिका प्रकृतिको नाना रूपोंमें परिणत करता है। प्रकृति और उसके विकारको क्षेत्र कहते हैं। चौबीस तत्त्वोंसे भिन्न जो पचीसवाँ तत्त्व महान् आत्मा है, वह क्षेत्रमें अधिष्ठातारूपसे निवास करता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिष्ठातेति राजेन्द्र प्रोच्यते यतिसत्तमैः।
अधिष्ठानादधिष्ठाता क्षेत्राणामिति नः श्रुतम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
अधिष्ठातेति राजेन्द्र प्रोच्यते यतिसत्तमैः।
अधिष्ठानादधिष्ठाता क्षेत्राणामिति नः श्रुतम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! इसीलिये यतिशिरोमणि उसे अधिष्ठाता कहते हैं। क्षेत्रोंका अधिष्ठान होनेके कारण वह अधिष्ठाता है, ऐसा हमने सुन रखा है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षेत्रं जानाति चाव्यक्तं क्षेत्रज्ञ इति चोच्यते।
आव्यक्तिके पुरे शेते पुरुषश्चेति कथ्यते ॥ ३८ ॥
मूलम्
क्षेत्रं जानाति चाव्यक्तं क्षेत्रज्ञ इति चोच्यते।
आव्यक्तिके पुरे शेते पुरुषश्चेति कथ्यते ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अव्यक्तसंज्ञक क्षेत्र (प्रकृति) को जानता है, इसलिये क्षेत्रज्ञ कहलाता है और प्राकृत शरीररूपी पुरोंमें अन्तर्यामीरूपसे शयन करनेके कारण उसे ‘पुरुष’ कहते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यदेव च क्षेत्रं स्यादन्यः क्षेत्रज्ञ उच्यते।
क्षेत्रमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञाता वै पञ्चविंशकः ॥ ३९ ॥
मूलम्
अन्यदेव च क्षेत्रं स्यादन्यः क्षेत्रज्ञ उच्यते।
क्षेत्रमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञाता वै पञ्चविंशकः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वास्तवमें क्षेत्र अन्य वस्तु है और क्षेत्रज्ञ अन्य। क्षेत्र अव्यक्त कहा गया है और क्षेत्रज्ञ उसका ज्ञाता पचीसवाँ तत्त्व आत्मा है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यदेव च ज्ञानं स्यादन्यज्ज्ञेयं तदुच्यते।
ज्ञानमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञेयो वै पञ्चविंशकः ॥ ४० ॥
मूलम्
अन्यदेव च ज्ञानं स्यादन्यज्ज्ञेयं तदुच्यते।
ज्ञानमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञेयो वै पञ्चविंशकः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञान अन्य वस्तु है और ज्ञेय उससे भिन्न कहा जाता है। ज्ञान1 अव्यक्त कहा गया है और ज्ञेय पचीसवाँ तत्त्व आत्मा है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तं क्षेत्रमित्युक्तं तथा सत्त्वं तथेश्वरः।
अनीश्वरमतत्त्वं च तत्त्वं तत् पञ्चविंशकम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
अव्यक्तं क्षेत्रमित्युक्तं तथा सत्त्वं तथेश्वरः।
अनीश्वरमतत्त्वं च तत्त्वं तत् पञ्चविंशकम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अव्यक्तको क्षेत्र कहा गया है। उसीको सत्त्व (बुद्धि) और शासककी भी संज्ञा दी गयी है; परंतु पचीसवाँ तत्त्व परमपुरुष परमात्मा जड तत्त्व और ईश्वरसे रहित भिन्न है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांख्यदर्शनमेतावत् परिसंख्यानुदर्शनम् ।
सांख्याः प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते ॥ ४२ ॥
मूलम्
सांख्यदर्शनमेतावत् परिसंख्यानुदर्शनम् ।
सांख्याः प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही सांख्यदर्शन है। सांख्यके विद्वान् तत्त्वोंकी संख्या (गणना) करते और प्रकृतिको ही जगत्का कारण बताते हैं। इसीलिये इस दर्शनका नाम सांख्यदर्शन है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वानि च चतुर्विंशत् परिसंख्याय तत्त्वतः।
सांख्याः सह प्रकृत्या तु निस्तत्त्वः पञ्चविंशकः ॥ ४३ ॥
मूलम्
तत्त्वानि च चतुर्विंशत् परिसंख्याय तत्त्वतः।
सांख्याः सह प्रकृत्या तु निस्तत्त्वः पञ्चविंशकः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सांख्यवेत्ता पुरुष प्रकृतिसहित चौबीस तत्त्वोंकी परिगणना करके परमपुरुषको जड तत्त्वोंसे भिन्न पचीसवाँ निश्चित करते हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चविंशोऽप्रकृत्यात्मा बुध्यमान इति स्मृतः।
यदा तु बुध्यतेऽऽत्मानं तदा भवति केवलः ॥ ४४ ॥
मूलम्
पञ्चविंशोऽप्रकृत्यात्मा बुध्यमान इति स्मृतः।
यदा तु बुध्यतेऽऽत्मानं तदा भवति केवलः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह पचीसवाँ प्रकृतिरूप नहीं है। उससे सर्वथा भिन्न ज्ञानस्वरूप माना गया है। जब वह अपने-आपको प्रकृतिसे भिन्न नित्यचिन्मय जान लेता है, उस समय केवल हो जाता है अर्थात् अपने विशुद्ध परब्रह्मरूपमें स्थित हो जाता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यग्दर्शनमेतावद् भाषितं तव तत्त्वतः।
एवमेतद् विजानन्तः साम्यतां प्रति यान्त्युत ॥ ४५ ॥
मूलम्
सम्यग्दर्शनमेतावद् भाषितं तव तत्त्वतः।
एवमेतद् विजानन्तः साम्यतां प्रति यान्त्युत ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैंने तुमसे यह सम्यग्दर्शन (सांख्य) का यथावत्रूपसे वर्णन किया है। जो इसे इस प्रकार जानते हैं, वे शान्तस्वरूप ब्रह्मको प्राप्त होते हैं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यङ्निदर्शनं नाम प्रत्यक्षं प्रकृतेस्तथा।
गुणतत्त्वान्यथैतानि निर्गुणोऽन्यस्तथा भवेत् ॥ ४६ ॥
मूलम्
सम्यङ्निदर्शनं नाम प्रत्यक्षं प्रकृतेस्तथा।
गुणतत्त्वान्यथैतानि निर्गुणोऽन्यस्तथा भवेत् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृति-पुरुषका प्रत्यक्ष-दर्शन (अपरोक्ष-अनुभव) ही सम्यग्दर्शन है। ये जो गुणमय तत्त्व हैं, इनसे भिन्न परमपुरुष परमात्मा निर्गुण हैं॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वेवं वर्तमानानामावृत्तिर्विद्यते पुनः।
विद्यतेऽक्षरभावत्वादपरं परमव्ययम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
न त्वेवं वर्तमानानामावृत्तिर्विद्यते पुनः।
विद्यतेऽक्षरभावत्वादपरं परमव्ययम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस दर्शनके अनुसार ज्ञान प्राप्त करनेवालोंकी इस संसारमें पुनरावृत्ति नहीं होती; क्योंकि वे अविनाशी ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाते हैं, अतः परापरस्वरूप निर्विकार परब्रह्मरूपसे ही उनकी स्थिति होती है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्येरन्नैकमतयो न सम्यक् तेषु दर्शनम्।
ते व्यक्तं प्रतिपद्यन्ते पुनः पुनररिंदम ॥ ४८ ॥
मूलम्
पश्येरन्नैकमतयो न सम्यक् तेषु दर्शनम्।
ते व्यक्तं प्रतिपद्यन्ते पुनः पुनररिंदम ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन नरेश! जिनकी बुद्धि नानात्वका दर्शन करती है, उन्हें सम्यक्-ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती। ऐसे लोगोंको बारंबार शरीर धारण करना पड़ता है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमेतद् विजानन्तो नासर्वस्य प्रबोधनात्।
व्यक्तीभूता भविष्यन्ति व्यक्तस्य वशवर्तिनः ॥ ४९ ॥
मूलम्
सर्वमेतद् विजानन्तो नासर्वस्य प्रबोधनात्।
व्यक्तीभूता भविष्यन्ति व्यक्तस्य वशवर्तिनः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इस सारे प्रपंचको ही जानते हैं, वे इससे भिन्न परमात्माका तत्त्व न जाननेके कारण निश्चय ही शरीरधारी होंगे और शरीर तथा काम-क्रोध आदि दोषोंके वशवर्ती बने रहेंगे॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमव्यक्तमित्युक्तमसर्वः पञ्चविंशकः ।
य एनमभिजानन्ति न भयं तेषु विद्यते ॥ ५० ॥
मूलम्
सर्वमव्यक्तमित्युक्तमसर्वः पञ्चविंशकः ।
य एनमभिजानन्ति न भयं तेषु विद्यते ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सर्व’ नाम है अव्यक्त प्रकृतिका और उससे भिन्न पचीसवें तत्त्व परमात्माको असर्व कहा गया है। जो उन्हें इस प्रकार जानते हैं, उन्हें आवागमनका भय नहीं होता है॥५०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वसिष्ठकरालजनकसंवादे षडधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वसिष्ठ और करालजनकका संवादविषयक तीन सौ छठा अध्याय पूरा हुआ॥३०६॥
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जैसे घड़ेमें जल भरा जाता है, उसी प्रकार पादांगुष्ठसे लेकर मूर्धातक सम्पूर्ण शरीरमें नासिकाके छिद्रोंद्वारा वायुको खींचकर भर ले। फिर ब्रह्मरन्ध्र (मूर्धा) से वायुको हटाकर ललाटमें स्थापित करे। यह प्राणवायुके प्रत्याहारका पहला स्थान है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर हटाते और रोकते हुए क्रमशः भ्रूमध्य, नेत्र, नासिकामूल, जिह्वामूल, कण्ठकूप, हृदयमध्य, नाभिमध्य, मेढ्र (उपस्थका मूलभाग), उदर, गुदा, ऊरुमूल, ऊरुमध्य, जानु, चितिमूल, जंघामध्य, गुल्फ और पादांगुष्ठ—इन स्थानोंमें वायुको ले जाकर स्थापित करे। इन अट्ठारह स्थानोंमें किये हुए प्रत्याहारोंको अठारह प्रकारकी प्रेरणा समझना चाहिये। इनके सिवा ध्यान, धारणा, समाधि तथा ‘सत्त्वपुरुषान्यता ख्याति’ (बुद्धि और पुरुष इन दोनोंकी भिन्नताका बोध)—ये चार प्रेरणाएँ और हैं। ये ही सब मिलकर बाईस प्रकारकी प्रेरणाएँ कही गयी हैं। ↩︎ ↩︎