भागसूचना
पञ्चाधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुषके विषयमें राजा जनककी शंका और उसका वसिष्ठजीद्वारा उत्तर
मूलम् (वचनम्)
जनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षरक्षरयोरेष द्वयोः सम्बन्ध इष्यते।
स्त्रीपुंसोर्वापि भगवन् सम्बन्धस्तद्वदुच्यते ॥ १ ॥
मूलम्
अक्षरक्षरयोरेष द्वयोः सम्बन्ध इष्यते।
स्त्रीपुंसोर्वापि भगवन् सम्बन्धस्तद्वदुच्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जनकने कहा— भगवन्! क्षर और अक्षर (प्रकृति और पुरुष) दोनोंका यह सम्बन्ध वैसा ही माना जाता है, जैसा कि नारी और पुरुषका दाम्पत्य-सम्बन्ध बताया जाता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋते तु पुरुषं नेह स्त्री गर्भं धारयत्युत।
ऋते स्त्रियं न पुरुषो रूपं निर्वर्त येत् तथा॥२॥
मूलम्
ऋते तु पुरुषं नेह स्त्री गर्भं धारयत्युत।
ऋते स्त्रियं न पुरुषो रूपं निर्वर्त येत् तथा॥२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में न तो पुरुषके बिना स्त्री गर्भ धारण कर सकती है और न स्त्रीके बिना कोई पुरुष ही किसी शरीरको उत्पन्न कर सकता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यस्याभिसम्बन्धादन्योन्यगुणसंश्रयात् ।
रूपं निर्वर्तयत्येतदेवं सर्वासु योनिषु ॥ ३ ॥
मूलम्
अन्योन्यस्याभिसम्बन्धादन्योन्यगुणसंश्रयात् ।
रूपं निर्वर्तयत्येतदेवं सर्वासु योनिषु ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों पारस्परिक सम्बन्धसे एक दूसरेके गुणोंका आश्रय लेकर ही किसी शरीरका निर्माण होता है। प्रायः सभी योनियोंमें ऐसी ही स्थिति है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्यर्थमभिसम्बन्धादन्योन्यगुणसंश्रयात् ।
ऋतौ निर्वर्त्यते रूपं तद् वक्ष्यामि निदर्शनम् ॥ ४ ॥
ये गुणाः पुरुषस्येह ये च मातृगुणास्तथा।
अस्थि स्नायुश्च मज्जा च जानीमः पितृतो गुणाः ॥ ५ ॥
त्वङ्मांसं शोणितं चेति मातृजान्यपि शुश्रुम।
एवमेतद् द्विजश्रेष्ठ वेदे शास्त्रे च पठ्यते ॥ ६ ॥
मूलम्
रत्यर्थमभिसम्बन्धादन्योन्यगुणसंश्रयात् ।
ऋतौ निर्वर्त्यते रूपं तद् वक्ष्यामि निदर्शनम् ॥ ४ ॥
ये गुणाः पुरुषस्येह ये च मातृगुणास्तथा।
अस्थि स्नायुश्च मज्जा च जानीमः पितृतो गुणाः ॥ ५ ॥
त्वङ्मांसं शोणितं चेति मातृजान्यपि शुश्रुम।
एवमेतद् द्विजश्रेष्ठ वेदे शास्त्रे च पठ्यते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब स्त्री ऋतुमती होती है, उस समय रतिके लिये पुरुषके साथ उसका सम्बन्ध होनेसे दोनोंके गुणोंका मिश्रण होनेपर शरीरकी उत्पत्ति होती है। शरीरमें पुरुष अर्थात् पिताके जो गुण हैं तथा माताके जो गुण हैं, उन्हें मैं दृष्टान्तके तौरपर बता रहा हूँ। हड्डी, स्नायु और मज्जा—इन्हें मैं पितासे प्राप्त हुए गुण समझता हूँ तथा त्वचा, मांस और रक्त-ये मातासे पैदा हुए गुण हैं, ऐसा मैंने सुना है। द्विजश्रेष्ठ! यही बात वेद और शास्त्रमें भी पढ़ी जाती है॥४—६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमाणं यत् स्ववेदोक्तं शास्त्रोक्तं यच्च पठ्यते।
वेदशास्त्रद्वयं चैव प्रमाणं तत् सनातनम् ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रमाणं यत् स्ववेदोक्तं शास्त्रोक्तं यच्च पठ्यते।
वेदशास्त्रद्वयं चैव प्रमाणं तत् सनातनम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंमें जो प्रमाण बताया गया है तथा शास्त्रमें कहे हुए जिस प्रमाणको पढ़ा और सुना जाता है, वह सब ठीक है; क्योंकि वेद और शास्त्र दोनों ही सनातन प्रमाण हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यगुणसंरोधादन्योन्यगुणसंश्रयात् ।
एवमेवाभिसम्बद्धौ नित्यं प्रकृतिपूरुषौ ॥ ८ ॥
पश्यामि भगवंस्तस्मान्मोक्षधर्मो न विद्यते।
मूलम्
अन्योन्यगुणसंरोधादन्योन्यगुणसंश्रयात् ।
एवमेवाभिसम्बद्धौ नित्यं प्रकृतिपूरुषौ ॥ ८ ॥
पश्यामि भगवंस्तस्मान्मोक्षधर्मो न विद्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! इस प्रकार प्रकृति और पुरुष दोनों ही एक दूसरेके गुणोंको आच्छादित करके एक दूसरेके गुणोंका आश्रय1 लेते हुए सृष्टि करते हैं। इस तरह मैं इन दोनोंको सदा एक दूसरेसे सम्बद्ध देखता हूँ। अतः पुरुषके लिये मोक्षधर्मकी सिद्धि असम्भव जान पड़ती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवानन्तरकृतं किंचिदेव निदर्शनम् ॥ ९ ॥
तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन प्रत्यक्षो ह्यसि सर्वदा।
मूलम्
अथवानन्तरकृतं किंचिदेव निदर्शनम् ॥ ९ ॥
तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन प्रत्यक्षो ह्यसि सर्वदा।
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा पुरुषके मोक्षका साक्षात्कार करानेवाला कोई दृष्टान्त हो तो आप उसे बताइये और मुझे ठीक-ठीक समझा दीजिये; क्योंकि आपको सदा सब कुछ प्रत्यक्ष है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोक्षकामा वयं चापि काङ्क्षामो यदनामयम्।
अदेहमजरं नित्यमतीन्द्रियमनीश्वरम् ॥ १० ॥
मूलम्
मोक्षकामा वयं चापि काङ्क्षामो यदनामयम्।
अदेहमजरं नित्यमतीन्द्रियमनीश्वरम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं भी मोक्षकी अभिलाषा रखता हूँ और उस परम पदको पाना चाहता हूँ, जो निर्विकार, निराकार, अजर, अमर, नित्य और इन्द्रियातीत है तथा जिसे प्राप्त हुए पुरुषका कोई शासक नहीं रहता॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेतदुक्तं भवता वेदशास्त्रनिदर्शनम् ।
एवमेतद् यथा चैतन्निगृह्णाति तथा भवान् ॥ ११ ॥
मूलम्
यदेतदुक्तं भवता वेदशास्त्रनिदर्शनम् ।
एवमेतद् यथा चैतन्निगृह्णाति तथा भवान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजीने कहा— राजन्! तुमने वेद और शास्त्रोंके दृष्टान्त देकर यह जो कुछ कहा है, वह ठीक है। तुम जैसा समझते हो, वैसी ही बात है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धार्यते हि त्वया ग्रन्थ उभयोर्वेदशास्त्रयोः।
न च ग्रन्थस्य तत्त्वज्ञो यथातत्त्वं नरेश्वर ॥ १२ ॥
मूलम्
धार्यते हि त्वया ग्रन्थ उभयोर्वेदशास्त्रयोः।
न च ग्रन्थस्य तत्त्वज्ञो यथातत्त्वं नरेश्वर ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! इसमें संदेह नहीं कि वेद-शास्त्रोंमें जो कुछ लिखा है, वह सब तुम्हें याद है; परंतु ग्रन्थके यथार्थ तत्त्वका तुम्हें ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो हि वेदे च शास्त्रे च ग्रन्थधारणतत्परः।
न च ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञस्तस्य तद्धारणं वृथा ॥ १३ ॥
मूलम्
यो हि वेदे च शास्त्रे च ग्रन्थधारणतत्परः।
न च ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञस्तस्य तद्धारणं वृथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वेद और शास्त्रके ग्रन्थोंको तो याद रखनेमें तत्पर है, किंतु उनके यथार्थ तत्त्वको नहीं समझता, उसका वह याद रखना व्यर्थ है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भारं स वहते तस्य ग्रन्थस्यार्थं न वेत्ति यः।
यस्तु ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञो नास्य ग्रन्थागमो वृथा ॥ १४ ॥
मूलम्
भारं स वहते तस्य ग्रन्थस्यार्थं न वेत्ति यः।
यस्तु ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञो नास्य ग्रन्थागमो वृथा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ग्रन्थके अर्थको नहीं समझता, वह केवल रटकर मानो उन ग्रन्थोंका बोझ ढोता है; परंतु जो ग्रन्थके अर्थका तत्त्व समझता है, उसके लिये उस ग्रन्थका अध्ययन व्यर्थ नहीं है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रन्थस्यार्थस्य पृष्टः संस्तादृशो वक्तुमर्हति।
यथा तत्त्वाभिगमनादर्थं तस्य स विन्दति ॥ १५ ॥
मूलम्
ग्रन्थस्यार्थस्य पृष्टः संस्तादृशो वक्तुमर्हति।
यथा तत्त्वाभिगमनादर्थं तस्य स विन्दति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा पुरुष पूछनेपर तत्वज्ञानपूर्वक ग्रन्थके अर्थको जैसा समझता है, वैसा दूसरोंको भी बता सकता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यः संसत्सु कथयेद् ग्रन्थार्थं स्थूलबुद्धिमान्।
स कथं मन्दविज्ञानो ग्रन्थं वक्ष्यति निर्णयात् ॥ १६ ॥
मूलम्
न यः संसत्सु कथयेद् ग्रन्थार्थं स्थूलबुद्धिमान्।
स कथं मन्दविज्ञानो ग्रन्थं वक्ष्यति निर्णयात् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्थूल एवं मन्दबुद्धिसे युक्त होनेके कारण विद्वानोंकी सभामें शास्त्रग्रन्थका अर्थ नहीं बता सकता, वह निर्णयपूर्वक उस ग्रन्थका तात्पर्य कैसे कह सकता है?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्णयं चापि छिद्रात्मा न तं वक्ष्यति तत्त्वतः।
सोपहासात्मतामेति यस्माच्चैवात्मवानपि ॥ १७ ॥
मूलम्
निर्णयं चापि छिद्रात्मा न तं वक्ष्यति तत्त्वतः।
सोपहासात्मतामेति यस्माच्चैवात्मवानपि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका चित्त शास्त्रज्ञानसे शून्य है, वह ग्रन्थके तात्पर्यका ठीक-ठीक निर्णय कर ही नहीं सकता। यदि वह कुछ कहता है तो मनस्वी होनेपर भी लोगोंके उपहासका पात्र बनता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् त्वं शृणु राजेन्द्र यथैतदनुदृश्यते।
याथातथ्येन सांख्येषु योगेषु च महात्मसु ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्मात् त्वं शृणु राजेन्द्र यथैतदनुदृश्यते।
याथातथ्येन सांख्येषु योगेषु च महात्मसु ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये राजेन्द्र! सांख्य और योगके ज्ञाता महात्मा पुरुषोंके मतमें मोक्षका जैसा स्वरूप देखा जाता है, उसे मैं तुम्हें यथार्थरूपसे बताता हूँ, सुनो॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेव योगाः पश्यन्ति सांख्यैस्तदनुगम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स बुद्धिमान्॥१९॥
मूलम्
यदेव योगाः पश्यन्ति सांख्यैस्तदनुगम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स बुद्धिमान्॥१९॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगी जिस तत्त्वका साक्षात्कार करते हैं; सांख्यवेत्ता विद्वान् भी उसीका ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो सांख्य और योगको फलकी दृष्टिसे एक समझता है, वही बुद्धिमान् है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वङ्मांसं रुधिरं मेदः पित्तं मज्जा च स्नायु च।
अथ चैन्द्रियकं तात तद् भवानिदमाह माम् ॥ २० ॥
मूलम्
त्वङ्मांसं रुधिरं मेदः पित्तं मज्जा च स्नायु च।
अथ चैन्द्रियकं तात तद् भवानिदमाह माम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तुम मुझसे कह चुके हो कि शरीरमें जो त्वचा, मांस, रुधिर, मेदा, पित्त, मज्जा, स्नायु और इन्द्रियसमुदाय हैं (वे सब माता-पिताके सम्बन्धसे प्रकट हुए हैं)॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रव्याद् द्रव्यस्य निर्वृत्तिरिन्द्रियादिन्द्रियं तथा।
देहाद् देहमवाप्नोति बीजाद् बीजं तथैव च ॥ २१ ॥
मूलम्
द्रव्याद् द्रव्यस्य निर्वृत्तिरिन्द्रियादिन्द्रियं तथा।
देहाद् देहमवाप्नोति बीजाद् बीजं तथैव च ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बीजसे बीजकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार द्रव्यसे द्रव्य, इन्द्रियसे इन्द्रिय तथा देहसे देहकी प्राप्ति होती है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरिन्द्रियस्याबीजस्य निर्द्रव्यस्याप्यदेहिनः ।
कथं गुणा भविष्यन्ति निर्गुणत्वान्महात्मनः ॥ २२ ॥
मूलम्
निरिन्द्रियस्याबीजस्य निर्द्रव्यस्याप्यदेहिनः ।
कथं गुणा भविष्यन्ति निर्गुणत्वान्महात्मनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु परमात्मा तो इन्द्रिय, बीज, द्रव्य और देहसे रहित तथा निर्गुण है; अतः उसमें गुण कैसे हो सकते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणा गुणेषु जायन्ते तत्रैव निविशन्ति च।
एवं गुणाः प्रकृतितो जायन्ते निविशन्ति च ॥ २३ ॥
मूलम्
गुणा गुणेषु जायन्ते तत्रैव निविशन्ति च।
एवं गुणाः प्रकृतितो जायन्ते निविशन्ति च ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आकाश आदि गुण सत्त्व आदि गुणोंसे उत्पन्न होते और उन्हींमें लीन हो जाते हैं; उसी प्रकार सत्त्व, रज, तम-ये तीनों गुण भी प्रकृतिसे उत्पन्न होते और उसीमें लीन होते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वङ्मांसं रुधिर मेदः पित्तं मज्जास्थि स्नायु च।
अष्टौ तान्यथ शुक्रेण जानीहि प्राकृतानि वै ॥ २४ ॥
मूलम्
त्वङ्मांसं रुधिर मेदः पित्तं मज्जास्थि स्नायु च।
अष्टौ तान्यथ शुक्रेण जानीहि प्राकृतानि वै ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम यह जान लो कि त्वचा, मांस, रुधिर, मेदा, पित्त, मज्जा, अस्थि और स्नायु-ये आठों वस्तुएँ वीर्यसे उत्पन्न हुई हैं; इसलिये प्राकृत ही हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुमांश्चैवापुमांश्चैव त्रैलिङ्ग्यं प्राकृतं स्मृतम्।
न वापुमान् पुमांश्चैव स लिङ्गीत्यभिधीयते ॥ २५ ॥
मूलम्
पुमांश्चैवापुमांश्चैव त्रैलिङ्ग्यं प्राकृतं स्मृतम्।
न वापुमान् पुमांश्चैव स लिङ्गीत्यभिधीयते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष और प्रकृति—ये दो तत्त्व हैं। इनके स्वरूपको व्यक्त करनेवाले जो तीन प्रकारके सात्त्विक, राजस और तामस चिह्न हैं, वे सब प्राकृत माने गये हैं; परंतु जो लिंगी अर्थात् इन सबका आधार आत्मा है, वह न पुरुष कहा जा सकता है और न प्रकृति ही। वह इन दोनोंसे विलक्षण है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलिङ्गात् प्रकृतिर्लिङ्गैरुपालभ्यति सात्मजैः ।
यथा पुष्पफलैर्नित्यमृतवोऽमूर्तयस्तथा ॥ २६ ॥
मूलम्
अलिङ्गात् प्रकृतिर्लिङ्गैरुपालभ्यति सात्मजैः ।
यथा पुष्पफलैर्नित्यमृतवोऽमूर्तयस्तथा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे फूलों और फलोंद्वारा सदा निराकार ऋतुओंका अनुमान हो जाता है, उसी प्रकार निराकार पुरुषका संयोग पाकर अपने द्वारा उत्पन्न किये हुए जो महत्तत्त्व आदि लिंग हैं, उन्हींके द्वारा प्रकृति अनुमानका विषय होती है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमप्यनुमानेन ह्यलिङ्गमुपलभ्यते ।
पञ्चविंशतिमस्तात लिङ्गेषु नियतात्मकः ॥ २७ ॥
मूलम्
एवमप्यनुमानेन ह्यलिङ्गमुपलभ्यते ।
पञ्चविंशतिमस्तात लिङ्गेषु नियतात्मकः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार लिंगसे भिन्न जो शुद्ध चेतनरूप आत्मा है, वह भी अनुमानसे बोधका विषय होता है अर्थात् जैसे दृश्यको प्रकाशित करनेके कारण सूर्य दृश्यसे भिन्न हैं, उसी प्रकार ज्ञान-स्वरूप आत्मा भी ज्ञेय वस्तुओंको प्रकाशित करनेके कारण उनसे भिन्न सत्ता रखता है। तात! वही पचीसवाँ तत्त्व है, जो सभी लिंगोंमें नियतरूपसे व्याप्त है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादिनिधनोऽनन्तः सर्वदर्शी निरामयः ।
केवलं त्वभिमानित्वाद् गुणेषु गुण उच्यते ॥ २८ ॥
मूलम्
अनादिनिधनोऽनन्तः सर्वदर्शी निरामयः ।
केवलं त्वभिमानित्वाद् गुणेषु गुण उच्यते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मा तो जन्म-मृत्युसे रहित, अनन्त, सबका द्रष्टा और निर्विकार है। वह सत्त्व आदि गुणोंमें केवल अभिमान करनेके कारण ही गुणस्वरूप कहलाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणा गुणवतः सन्ति निर्गुणस्य कुतो गुणाः।
तस्मादेवं विजानन्ति ये जना गुणदर्शिनः ॥ २९ ॥
यदा त्वेष गुणानेतान् प्राकृतानभिमन्यते।
तदा स गुणहान्यै तं परमेवानुपश्यति ॥ ३० ॥
मूलम्
गुणा गुणवतः सन्ति निर्गुणस्य कुतो गुणाः।
तस्मादेवं विजानन्ति ये जना गुणदर्शिनः ॥ २९ ॥
यदा त्वेष गुणानेतान् प्राकृतानभिमन्यते।
तदा स गुणहान्यै तं परमेवानुपश्यति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुण तो गुणवान्में ही रहते हैं। निर्गुण आत्मामें गुण कैसे रह सकते हैं। अतः गुणोंके स्वरूपको जाननेवाले विद्वान् पुरुषोंका यही सिद्धान्त है कि जब जीवात्मा इन गुणोंको प्रकृतिका कार्य मानकर उनमें अपनेपनका अभिमान त्याग देता है, उस समय वह देह आदिमें आत्मबुद्धिका परित्याग करके अपने विशुद्ध परमात्म-स्वरूपका साक्षात्कार करता है॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तद् बुद्धेः परं प्राहुः सांख्या योगाश्च सर्वशः।
बुद्ध्यमानं महाप्राज्ञमबुद्धपरिवर्जनात् ॥ ३१ ॥
अप्रबुद्धमथाव्यक्तं सगुणं प्राहुरीश्वरम् ।
निर्गुणं चेश्वरं नित्यमधिष्ठातारमेव च ॥ ३२ ॥
प्रकृतेश्च गुणानां च पञ्चविंशतिकं बुधाः।
सांख्ययोगे च कुशला बुध्यन्ते परमैषिणः ॥ ३३ ॥
मूलम्
यत् तद् बुद्धेः परं प्राहुः सांख्या योगाश्च सर्वशः।
बुद्ध्यमानं महाप्राज्ञमबुद्धपरिवर्जनात् ॥ ३१ ॥
अप्रबुद्धमथाव्यक्तं सगुणं प्राहुरीश्वरम् ।
निर्गुणं चेश्वरं नित्यमधिष्ठातारमेव च ॥ ३२ ॥
प्रकृतेश्च गुणानां च पञ्चविंशतिकं बुधाः।
सांख्ययोगे च कुशला बुध्यन्ते परमैषिणः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सांख्य और योगके सम्पूर्ण विद्वान् जिसको बुद्धिसे परे बताते हैं, जो परम ज्ञानसम्पन्न है, अहंकार आदि जड तत्त्वोंका परित्याग (बाध) कर देनेपर शेष रहे हुए चिन्मय तत्त्वके रूपमें जिसका बोध होता है, जो अज्ञात, अव्यक्त, सगुण ईश्वर, निर्गुण ईश्वर, नित्य और अधिष्ठाता कहा गया है, वह परमात्मा ही प्रकृति और उसके गुणों (चौबीस तत्त्वों) की अपेक्षा पचीसवाँ तत्त्व है, ऐसा सांख्य और योगमें कुशल तथा परमतत्त्वकी खोज करनेवाले विद्वान् पुरुष समझते हैं॥३१—३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा प्रबुद्धा ह्यव्यक्तमवस्थाजन्मभीरवः ।
बुध्यमानं प्रबुध्यन्ति गमयन्ति समं तदा ॥ ३४ ॥
मूलम्
यदा प्रबुद्धा ह्यव्यक्तमवस्थाजन्मभीरवः ।
बुध्यमानं प्रबुध्यन्ति गमयन्ति समं तदा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय बाल्य, यौवन और वृद्धावस्था अथवा जन्म-मरणसे भयभीत हुए विवेकी पुरुष चेतन-स्वरूप अव्यक्त परमात्माके तत्त्वको ठीक-ठीक समझ लेते हैं, उस समय उन्हें परब्रह्म परमात्माके स्वरूपकी प्राप्ति हो जाती है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्निदर्शनं सम्यगसम्यगनिदर्शनम् ।
बुध्यमानाप्रबुद्धानां पृथग्पृथगरिंदम ॥ ३५ ॥
मूलम्
एतन्निदर्शनं सम्यगसम्यगनिदर्शनम् ।
बुध्यमानाप्रबुद्धानां पृथग्पृथगरिंदम ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका दमन करनेवाले नरेश! ज्ञानी पुरुषोंका यह ज्ञान युक्तियुक्त होनेके कारण उत्तम और (अज्ञानियोंकी धारणासे) पृथक् है। इसके विपरीत अज्ञानी पुरुषोंका जो अप्रामाणिक ज्ञान है, वह युक्तियुक्त न होनेके कारण ठीक नहीं है। यह पूर्वोक्त सम्यक् ज्ञानसे पृथक् है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्परेणैतदुक्तं क्षराक्षरनिदर्शनम् ।
एकत्वमक्षरं प्राहुर्नानात्वं क्षरमुच्यते ॥ ३६ ॥
मूलम्
परस्परेणैतदुक्तं क्षराक्षरनिदर्शनम् ।
एकत्वमक्षरं प्राहुर्नानात्वं क्षरमुच्यते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षर और अक्षरके तत्त्वका प्रतिपादन करनेवाला यह दर्शन मैंने तुम्हें बताया है। क्षर और अक्षरमें परस्पर क्या अन्तर है? इसे इस प्रकार समझो—सदा एकरूपमें रहनेवाले परमात्मतत्त्वको अक्षर बताया गया है और नाना रूपोंमें प्रतीत होनेवाला यह प्राकृत प्रपंच क्षर कहलाता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चविंशतिनिष्ठोऽयं यदा सम्यक् प्रवर्तते।
एकत्वं दर्शनं चास्य नानात्वं चाप्यदर्शनम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
पञ्चविंशतिनिष्ठोऽयं यदा सम्यक् प्रवर्तते।
एकत्वं दर्शनं चास्य नानात्वं चाप्यदर्शनम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह पुरुष पचीसवें तत्त्वस्वरूप परमात्मामें स्थित हो जाता है, तब उसकी स्थिति उत्तम बतायी जाती है—वह ठीक बर्ताव करता है, ऐसा माना जाता है। एकत्वका बोध ही ज्ञान है और नानात्वका बोध ही अज्ञान है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वनिस्तत्त्वयोरेतत् पृथगेव निदर्शनम् ।
पञ्चविंशतिसर्गं तु तत्त्वमाहुर्मनीषिणः ॥ ३८ ॥
निस्तत्त्वं पञ्चविंशस्य परमाहुर्निदर्शनम् ।
सर्गस्य वर्गमाधारं तत्त्वं तत्त्वात् सनातनम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
तत्त्वनिस्तत्त्वयोरेतत् पृथगेव निदर्शनम् ।
पञ्चविंशतिसर्गं तु तत्त्वमाहुर्मनीषिणः ॥ ३८ ॥
निस्तत्त्वं पञ्चविंशस्य परमाहुर्निदर्शनम् ।
सर्गस्य वर्गमाधारं तत्त्वं तत्त्वात् सनातनम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्त्व (क्षर) और निस्तत्त्व (अक्षर) का यह पृथकृ-पृथक् लक्षण समझना चाहिये। कुछ मनीषी पुरुष पचीस तत्त्वोंको ही तत्त्व कहते हैं; परंतु दूसरे विद्वानोंने चौबीस जड तत्त्वोंको तो तत्त्व कहा है और पचीसवें चेतन परमात्माको निस्तत्त्व (तत्त्वसे भिन्न) बताया है। यह चैतन्य ही परमात्माका लक्षण है। महत्तत्त्व आदि जो विकार हैं, वे क्षरतत्त्व हैं और परम पुरुष परमात्मा उन ‘क्षर’ तत्त्वोंसे भिन्न उनका सनातन आधार है॥३८-३९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वसिष्ठकरालजनकसंवादे पञ्चाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्वमें वसिष्ठकरालजनकसंवादविषयक तीन सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०५॥
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पुरुष प्रकृतिकी जडताको आच्छादित करके उसके दुःखका आश्रय लेता है तथा प्रकृति पुरुषके आनन्दगुणको आच्छादित करके उसके चैतन्य गुणका आश्रय लेती है। तात्पर्य यह कि प्रकृतिके संयोगसे पुरुष आनन्दसे वंचित हो दुःखका भागी होता है और प्रकृति पुरुषके संगसे अपनी जडताको भुलाकर चेतनकी भाँति कार्य करने लगती है। ↩︎