भागसूचना
चतुरधिकत्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
प्रकृतिके संसर्गदोषसे जीवका पतन
मूलम् (वचनम्)
वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमप्रतिबुद्धत्वादबुद्धजनसेवनात् ।
सर्गकोटि सहस्राणि पतनान्तानि गच्छति ॥ १ ॥
मूलम्
एवमप्रतिबुद्धत्वादबुद्धजनसेवनात् ।
सर्गकोटि सहस्राणि पतनान्तानि गच्छति ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजी कहते हैं— राजन्! इस तरह अज्ञानके कारण अज्ञानी पुरुषोंका संग करनेसे जीवका निरन्तर पतन होता है तथा उसे हजारों-करोड़ बार जन्म लेने पड़ते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धाम्ना धामसहस्राणि मरणान्तानि गच्छति।
तिर्यग्योनिमनुष्यत्वे देवलोके तथैव च ॥ २ ॥
मूलम्
धाम्ना धामसहस्राणि मरणान्तानि गच्छति।
तिर्यग्योनिमनुष्यत्वे देवलोके तथैव च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह पशु-पक्षी, मनुष्य तथा देवताओंकी योनियोंमें तथा एक स्थानसे सहस्रों स्थानोंमें बारंबार मरकर जाता और जन्म लेता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चन्द्रमा इव भुतानां पुनस्तत्र सहस्रशः।
लीयतेऽप्रतिबुद्धत्वादेवमेष ह्यबुद्धिमान् ॥ ३ ॥
मूलम्
चन्द्रमा इव भुतानां पुनस्तत्र सहस्रशः।
लीयतेऽप्रतिबुद्धत्वादेवमेष ह्यबुद्धिमान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चन्द्रमाका सहस्रों बार क्षय और सहस्रों बार वृद्धि होती रहती है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव भी अज्ञानवश ही सहस्रों बार लयको प्राप्त होता है (और जन्म लेता है)॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कला पञ्चदशी योनिस्तद्धाम प्रतिबुध्यते।
नित्यमेतद् विजानीहि सोमं वै षोडशीं कलाम् ॥ ४ ॥
मूलम्
कला पञ्चदशी योनिस्तद्धाम प्रतिबुध्यते।
नित्यमेतद् विजानीहि सोमं वै षोडशीं कलाम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! चन्द्रमाकी पंद्रह कलाओंके समान जीवोंकी पंद्रह कलाएँ ही उत्पत्तिके स्थान हैं। अज्ञानी जीव उन्हींको अपना आश्रय समझता है; परंतु उसकी जो सोलहवीं कला है, उसको तुम नित्य समझो। वह चन्द्रमाकी अमा नामक सोलहवीं कलाके समान है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलायां जायतेऽजस्रं पुनः पुनरबुद्धिमान्।
धाम तस्योपयुञ्जन्ति भूय एवोपजायते ॥ ५ ॥
मूलम्
कलायां जायतेऽजस्रं पुनः पुनरबुद्धिमान्।
धाम तस्योपयुञ्जन्ति भूय एवोपजायते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अज्ञानी जीव सदा बारंबार उन्हीं कलाओंमें स्थित हुआ जन्म ग्रहण करता है। वे ही कलाएँ जीवके आश्रय लेनेयोग्य हैं, अतः जीवका उन्हींसे पुनः-पुनः जन्म होता रहता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षोडशी तु कला सूक्ष्मा स सोम उपधार्यताम्।
न तूपयुज्यते देवैर्देवानुपयुनक्ति सा ॥ ६ ॥
मूलम्
षोडशी तु कला सूक्ष्मा स सोम उपधार्यताम्।
न तूपयुज्यते देवैर्देवानुपयुनक्ति सा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमा नामक जो सोलहवीं सूक्ष्म कला है, वही सोम है अर्थात् जीवकी प्रकृति है, यह तुम निश्चितरूपसे जान लो। देवतालोग अर्थात् अन्तःकरण और इन्द्रियगण जिनको पंद्रह कलाओंके नामसे कहा गया, वे उस सोलहवीं कलाका उपयोग नहीं कर सकते; किंतु वे सोलहवीं कला अर्थात् उन सबकी कारणभूता प्रकृति ही उनका उपयोग करती है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतामक्षपयित्वा हि जायते नृपसत्तम।
सा ह्यस्य प्रकृतिर्दृष्टा तत्क्षयान्मोक्ष उच्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
एतामक्षपयित्वा हि जायते नृपसत्तम।
सा ह्यस्य प्रकृतिर्दृष्टा तत्क्षयान्मोक्ष उच्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! जीव अपने अज्ञानवश उस सोलहवीं कलारूप प्रकृतिके संयोगका क्षय नहीं कर पाता, इसलिये बारंबार जन्म ग्रहण करता है। वह ही कला जीवकी प्रकृति अर्थात् उत्पत्तिका कारण देखी गयी है। उसके संयोगका क्षय होनेपर ही मोक्षकी प्राप्ति बतायी जाती है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेव षोडशकलं देहमव्यक्तसंज्ञकम् ।
ममायमिति मन्वानस्तत्रैव परिवर्तते ॥ ८ ॥
मूलम्
तदेव षोडशकलं देहमव्यक्तसंज्ञकम् ।
ममायमिति मन्वानस्तत्रैव परिवर्तते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मूल प्रकृति, दस इन्द्रियाँ—एक प्राण और चार प्रकारका अन्तःकरण-इन) सोलह कलाओंसे युक्त जो यह सूक्ष्मशरीर है, इसे ‘यह मेरा है’ ऐसा माननेके कारण अज्ञानी जीव उसीमें भटकता रहता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चविंशो महानात्मा तस्यैवाप्रतिबोधनात् ।
विमलस्य विशुद्धस्य शुद्धाशुद्धनिषेवणात् ॥ ९ ॥
अशुद्ध एव शुद्धात्मा तादृग् भवति पार्थिव।
अबुद्धसेवनाच्चापि बुद्धोऽप्यबुद्धतां व्रजेत् ॥ १० ॥
मूलम्
पञ्चविंशो महानात्मा तस्यैवाप्रतिबोधनात् ।
विमलस्य विशुद्धस्य शुद्धाशुद्धनिषेवणात् ॥ ९ ॥
अशुद्ध एव शुद्धात्मा तादृग् भवति पार्थिव।
अबुद्धसेवनाच्चापि बुद्धोऽप्यबुद्धतां व्रजेत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पचीसवाँ तत्त्वरूप जो महान् आत्मा है, वह निर्मल एवं विशुद्ध है। उसको न जाननेके कारण तथा शुद्ध-अशुद्ध वस्तुओंके सेवनसे वह निर्मल, संगरहित आत्मा भी शुद्ध और अशुद्ध वस्तुओंके सदृश हो जाता है। पृथ्वीनाथ! अविवेकीके संगसे विवेकशील भी अविवेकी हो जाता है॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवाप्रतिबुद्धोऽपि विज्ञेयो नृपसत्तम ।
प्रकृतेस्त्रिगुणायास्तु सेवनात् त्रिगुणो भवेत् ॥ ११ ॥
मूलम्
तथैवाप्रतिबुद्धोऽपि विज्ञेयो नृपसत्तम ।
प्रकृतेस्त्रिगुणायास्तु सेवनात् त्रिगुणो भवेत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार मूर्ख भी विवेकशीलका संग करनेसे विवेकशील हो जाता है, ऐसा समझना चाहिये। त्रिगुणात्मिका प्रकृतिके सम्बन्धसे निर्गुण आत्मा भी त्रिगुणमय-सा हो जाता है॥११॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वसिष्ठकरालजनकसंवादे चतुरधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वसिष्ठ और करालजनकका संवादविषयक तीन सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०४॥