३०३ वसिष्ठकरालजनकसंवादे

भागसूचना

त्र्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

प्रकृति-संसर्गके कारण जीवका अपनेको नाना प्रकारके कर्मोंका कर्ता और भोक्ता मानना एवं नाना योनियोंमें बारंबार जन्म ग्रहण करना

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमप्रतिबुद्धत्वादबुद्धमनुवर्तते ।
देहाद् देहसहस्राणि तथा समभिपद्यते ॥ १ ॥

मूलम्

एवमप्रतिबुद्धत्वादबुद्धमनुवर्तते ।
देहाद् देहसहस्राणि तथा समभिपद्यते ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार जीव बोधहीन होनेके कारण अज्ञानका ही अनुसरण करता है; इसीलिये उसे एक शरीरसे सहस्रों शरीरोंमें भ्रमण करना पड़ता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिर्यग्योनिसहस्रेषु कदाचिद् देवतास्वपि ।
उपपद्यति संयोगाद् गुणैः सह गुणक्षयात् ॥ २ ॥

मूलम्

तिर्यग्योनिसहस्रेषु कदाचिद् देवतास्वपि ।
उपपद्यति संयोगाद् गुणैः सह गुणक्षयात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह गुणोंके साथ सम्बन्ध होनेसे उन्हीं गुणोंकी सामर्थ्यसे कभी सहस्रों बार तिर्यग्योनियोंमें और कभी देवताओंमें जन्म लेता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुषत्वाद् दिवं याति दिवो मानुष्यमेव च।
मानुष्यान्निर यस्थानमानन्त्यं प्रतिपद्यते ॥ ३ ॥

मूलम्

मानुषत्वाद् दिवं याति दिवो मानुष्यमेव च।
मानुष्यान्निर यस्थानमानन्त्यं प्रतिपद्यते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी मानव-योनिसे स्वर्गलोकमें जाता है और कभी स्वर्गसे मनुष्यलोकमें लौट आता है। मनुष्यलोकसे कभी-कभी अनन्त नरकोंमें भी पड़ता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोशकारो यथाऽऽत्मानं कीटः समवरुन्धति।
सूत्रतन्तुगुणैर्नित्यं तथायमगुणो गुणौः ॥ ४ ॥

मूलम्

कोशकारो यथाऽऽत्मानं कीटः समवरुन्धति।
सूत्रतन्तुगुणैर्नित्यं तथायमगुणो गुणौः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे रेशमका कीड़ा अपने ही उत्पन्न किये हुए तन्तुओंसे अपनेको सब ओरसे बाँध लेता है, उसी प्रकार यह निर्गुण आत्मा भी अपने ही प्रकट किये हुए प्राकृत गुणोंसे बँध जाता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वन्द्वमेति च निर्द्वन्द्वस्तासु तास्विह योनिषु।
शीर्षरोगेऽक्षिरोगे च दन्तशूले गलग्रहे ॥ ५ ॥

मूलम्

द्वन्द्वमेति च निर्द्वन्द्वस्तासु तास्विह योनिषु।
शीर्षरोगेऽक्षिरोगे च दन्तशूले गलग्रहे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह स्वयं सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेपर भी भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्म धारण करके सुख-दुःखको भोगता है। उसे कभी सिरमें दर्द होता, कभी आँख दुखती, कभी दाँतमें व्यथा होती और कभी गलेमें घेघा निकल आता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलोदरे तृषारोगे ज्वरगण्डे विषूचके।
श्वित्रकुष्ठेऽग्निदग्धे च सिध्मापस्मारयोरपि ॥ ६ ॥

मूलम्

जलोदरे तृषारोगे ज्वरगण्डे विषूचके।
श्वित्रकुष्ठेऽग्निदग्धे च सिध्मापस्मारयोरपि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार वह जलोदर, तृषारोग, ज्वर, गलगण्ड (गलसूआ), विषूचिका (हैजा), सफेद कोढ़, अग्निदाह, सिध्मा1 (सफेद दाग या सेहुँवा), अपस्मार (मृगी) आदि रोगोंका शिकार होता रहता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि चान्यानि द्वन्द्वानि प्राकृतानि शरीरिषु।
उत्पद्यन्ते विचित्राणि तान्येषोऽप्यभिमन्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

यानि चान्यानि द्वन्द्वानि प्राकृतानि शरीरिषु।
उत्पद्यन्ते विचित्राणि तान्येषोऽप्यभिमन्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके सिवा और भी जितने प्रकारके प्रकृतिजन्य विचित्र रोग या द्वन्द्व देहधारियोंमें उत्पन्न होते हैं, उन सबसे यह अपनेको आक्रान्त मानता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिर्यग्योनिसहस्रेषु कदाचिद् देवतास्वपि ।
अभिमन्यत्यभीमानात् तथैव सुकृतान्यपि ॥ ८ ॥

मूलम्

तिर्यग्योनिसहस्रेषु कदाचिद् देवतास्वपि ।
अभिमन्यत्यभीमानात् तथैव सुकृतान्यपि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी अपनेको सहस्रों तिर्यग्योनियोंका जीव समझता है और कभी देवत्वका अभिमान धारण करता है तथा इसी अभिमानके कारण उन-उन शरीरोंद्वारा किये हुए कर्मोंका फल भी भोगता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्लवासाश्च दुर्वासाः शायी नित्यमधस्तथा।
मण्डूकशायी च तथा वीरासनगतस्तथा ॥ ९ ॥
चीरधारणमाकाशे शयनं स्थानमेव च।
इष्टकाप्रस्तरे चैव कण्टकप्रस्तरे तथा ॥ १० ॥
भस्मप्रस्तरशायी च भूमिशय्या तलेषु च।
वीरस्थानाम्बुपङ्के च शयनं फलकेषु च ॥ ११ ॥
विविधासु च शय्यासु फलगृद्ध्यान्वितस्तथा।
मुञ्जमेखलनग्नत्वं क्षौमकृष्णाजिनानि च ॥ १२ ॥

मूलम्

शुक्लवासाश्च दुर्वासाः शायी नित्यमधस्तथा।
मण्डूकशायी च तथा वीरासनगतस्तथा ॥ ९ ॥
चीरधारणमाकाशे शयनं स्थानमेव च।
इष्टकाप्रस्तरे चैव कण्टकप्रस्तरे तथा ॥ १० ॥
भस्मप्रस्तरशायी च भूमिशय्या तलेषु च।
वीरस्थानाम्बुपङ्के च शयनं फलकेषु च ॥ ११ ॥
विविधासु च शय्यासु फलगृद्ध्यान्वितस्तथा।
मुञ्जमेखलनग्नत्वं क्षौमकृष्णाजिनानि च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फलकी आशासे बँधा हुआ मनुष्य कभी नये-धुले सफेद वस्त्र पहनता है और कभी फटे-पुराने मैले वस्त्र धारण करता है, कभी पृथ्वीपर सोता है, कभी मेढकके समान हाथ-पैर सिकोड़कर शयन करता है, कभी वीरासनसे बैठता है और कभी खुले आकाशके नीचे। कभी चीर और वल्कल पहनता है, कभी ईंट और पत्थरपर सोता-बैठता है तो कभी काँटोंके बिछौनोंपर। कभी राख बिछाकर सोता है, कभी भूमिपर ही लेट जाता है, कभी किसी पेड़के नीचे पड़ा रहता है। कभी युद्धभूमिमें, कभी पानी और कीचड़में, कभी चौकियोंपर तथा कभी नाना प्रकारकी शय्याओंपर सोता है। कभी मूँजकी मेखला बाँधे कौपीन धारण करता है, कभी नंग-धड़ंग घूमता है। कभी रेशमी वस्त्र और कभी काला मृगचर्म पहनता है॥९—१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाणीवालपरीधानो व्याघ्रचर्मपरिच्छदः ।
सिंहचर्मपरीधानः पट्टवासास्तथैव च ॥ १३ ॥

मूलम्

शाणीवालपरीधानो व्याघ्रचर्मपरिच्छदः ।
सिंहचर्मपरीधानः पट्टवासास्तथैव च ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी सन या ऊनके बने वस्त्र धारण करता है। कभी व्याघ्र या सिंहके चमड़ोंसे अपने अंगोंको ढँक लेता है। कभी रेशमी पीताम्बर पहनता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलकं परिधानश्च तथा कण्टकवस्त्रधृक्।
कीटकावसनश्चैव चीरवासास्तथैव च ॥ १४ ॥

मूलम्

फलकं परिधानश्च तथा कण्टकवस्त्रधृक्।
कीटकावसनश्चैव चीरवासास्तथैव च ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी फलकवस्त्र (भोजपत्रकी छाल), कभी साधारण वस्त्र और कभी कण्टकवस्त्र धारण करता है। कभी कीड़ोंसे निकले हुए रेशमके मुलायम वस्त्र पहनता है तो कभी चिथड़े पहनकर रहता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वस्त्राणि चान्यानि बहून्यभिमन्यत्यबुद्धिमान् ।
भोजनानि विचित्राणि रत्नानि विविधानि च ॥ १५ ॥

मूलम्

वस्त्राणि चान्यानि बहून्यभिमन्यत्यबुद्धिमान् ।
भोजनानि विचित्राणि रत्नानि विविधानि च ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अज्ञानी जीव इनके अतिरिक्त भी नाना प्रकारके वस्त्र पहनता, विचित्र-विचित्र भोजनोंके स्वाद लेता और भाँति-भाँतिके रत्न धारण करता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकरात्रान्तराशित्वमेककालिकभोजनम् ।
चतुर्थाष्टमकालश्च षष्ठकालिक एव च ॥ १६ ॥

मूलम्

एकरात्रान्तराशित्वमेककालिकभोजनम् ।
चतुर्थाष्टमकालश्च षष्ठकालिक एव च ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी एक रातका अन्तर देकर भोजन करता है, कभी दिन-रातमें एक बार अन्न ग्रहण करता है और कभी दिनके चौथे, छठे या आठवें पहरमें भोजन करता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षड्‌रात्रभोजनश्चैव तथैवाष्टहभोजनः ।
सप्तरात्रदशाहारो द्वादशाहिकभोजनः ॥ १७ ॥

मूलम्

षड्‌रात्रभोजनश्चैव तथैवाष्टहभोजनः ।
सप्तरात्रदशाहारो द्वादशाहिकभोजनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी छः रात बिताकर खाता है और कभी सात, आठ, दस अथवा बारह दिनोंके बाद अन्न ग्रहण करता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासोपवासी मूलाशी फलाहारस्तथैव च।
वायुभक्षोऽम्बुपिण्याकदधिगोमयभोजनः ॥ १८ ॥

मूलम्

मासोपवासी मूलाशी फलाहारस्तथैव च।
वायुभक्षोऽम्बुपिण्याकदधिगोमयभोजनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी लगातार एक मासतक उपवास करता है। कभी फल खाकर रहता है और कभी कन्द-मूलके भोजनसे निर्वाह करता है। कभी पानी-हवा पीकर रह जाता है। कभी तिलकी खली, कभी दही और कभी गोबर खाकर ही रहता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोमूत्रभोजनश्चैव शाकपुष्पाद एव च।
शैवालभोजनश्चैव तथाऽऽचामेन वर्तयन् ॥ १९ ॥

मूलम्

गोमूत्रभोजनश्चैव शाकपुष्पाद एव च।
शैवालभोजनश्चैव तथाऽऽचामेन वर्तयन् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी वह गोमूत्रका भोजन करनेवाला बनता है। कभी वह साग, फूल या सेवार खाता है तथा कभी जलका आचमन मात्र करके जीवन-निर्वाह करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्तयन् शीर्णपर्णैश्च प्रकीर्णफलभोजनः ।
विविधानि च कृच्छ्राणि सेवते सिद्धिकाङ्क्षया ॥ २० ॥

मूलम्

वर्तयन् शीर्णपर्णैश्च प्रकीर्णफलभोजनः ।
विविधानि च कृच्छ्राणि सेवते सिद्धिकाङ्क्षया ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी सूखे पत्ते और पेड़से गिरे हुए फलोंको ही खाकर रह जाता है। इस प्रकार सिद्धि पानेकी अभिलाषासे वह नाना प्रकारके कठोर नियमोंका सेवन करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चान्द्रायणानि विधिवल्लिङ्गानि विविधानि च।
चातुराश्रम्यपन्थानमाश्रयत्यपथानपि ॥ २१ ॥

मूलम्

चान्द्रायणानि विधिवल्लिङ्गानि विविधानि च।
चातुराश्रम्यपन्थानमाश्रयत्यपथानपि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी विधिपूर्वक चान्द्रायण-व्रतका अनुष्ठान करता और अनेक प्रकारके धार्मिक चिह्न धारण करता है। कभी चारों आश्रमोंके मार्गपर चलता और कभी विपरीत पथका भी आश्रय लेता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपाश्रमानप्यपरान् पाषण्डान् विविधानपि ।
विविक्ताश्च शिलाच्छायास्तथा प्रस्रवणानि च ॥ २२ ॥

मूलम्

उपाश्रमानप्यपरान् पाषण्डान् विविधानपि ।
विविक्ताश्च शिलाच्छायास्तथा प्रस्रवणानि च ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी नाना प्रकारके उपाश्रमों तथा भाँति-भाँतिके पाखण्डोंको अपनाता है। कभी एकान्तमें शिलाखण्डोंकी छायामें बैठता और कभी झरनोंके समीप निवास करता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुलिनानि विविक्तानि विविक्तानि वनानि च।
देवस्थानानि पुण्यानि विविक्तानि सरांसि च ॥ २३ ॥

मूलम्

पुलिनानि विविक्तानि विविक्तानि वनानि च।
देवस्थानानि पुण्यानि विविक्तानि सरांसि च ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी नदियोंके एकान्त तटोंमें, कभी निर्जन वनोंमें, कभी पवित्र देवमन्दिरोंमें तथा कभी एकान्त सरोवरोंके आसपास रहता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विविक्ताश्चापि शैलानां गुहा गृहनिभोपमाः।
विविक्तानि च जप्यानि व्रतानि विविधानि च ॥ २४ ॥
नियमान् विविधांश्चापि विविधानि तपांसि च।
यज्ञांश्च विविधाकारान् विधींश्च विविधांस्तथा ॥ २५ ॥

मूलम्

विविक्ताश्चापि शैलानां गुहा गृहनिभोपमाः।
विविक्तानि च जप्यानि व्रतानि विविधानि च ॥ २४ ॥
नियमान् विविधांश्चापि विविधानि तपांसि च।
यज्ञांश्च विविधाकारान् विधींश्च विविधांस्तथा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी पर्वतोंकी एकान्त गुफाओंमें, जो गृहके समान ही होती हैं, निवास करता है। उन स्थानोंमें नाना प्रकारके गोपनीय जप, व्रत, नियम, तप, यज्ञ तथा अन्य भाँति-भाँतिके कर्मोंका अनुष्ठान करता है॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वणिक्यथं द्विजं क्षत्रं वैश्यशूद्रांस्तथैव च।
दानं च विविधाकारं दीनान्धकृपणादिषु ॥ २६ ॥

मूलम्

वणिक्यथं द्विजं क्षत्रं वैश्यशूद्रांस्तथैव च।
दानं च विविधाकारं दीनान्धकृपणादिषु ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कभी व्यापार करता, कभी ब्राह्मण और क्षत्रियोंके कर्तव्यका पालन करता तथा कभी वैश्यों और शूद्रोंके कर्मोंका आश्रय लेता। दीन-दुखी और अन्धोंको नाना प्रकारके दान देता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्यत्यसम्बोधात् तथैव त्रिविधान् गुणान्।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव धर्मार्थौ काम एव च ॥ २७ ॥

मूलम्

अभिमन्यत्यसम्बोधात् तथैव त्रिविधान् गुणान्।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव धर्मार्थौ काम एव च ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अज्ञानवश वह अपनेमें सत्त्व, रज, तम-इन त्रिविध गुणों और धर्म, अर्थ एवं कामका अभिमान कर लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृत्याऽऽत्मानमेवात्मा एवं प्रविभजत्युत ।
स्वधाकारवषट्‌कारौ स्वाहाकारनमस्क्रियाः ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रकृत्याऽऽत्मानमेवात्मा एवं प्रविभजत्युत ।
स्वधाकारवषट्‌कारौ स्वाहाकारनमस्क्रियाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार आत्मा प्रकृतिके द्वारा अपने ही स्वरूपके अनेक विभाग करता है। वह कभी स्वाहा, कभी स्वधा, कभी वषट्‌कार और कभी नमस्कारमें प्रवृत्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याजनाध्यापनं दानं तथैवाहुः प्रतिग्रहम्।
यजनाध्ययने चैव यच्चान्यदपि किंचन ॥ २९ ॥

मूलम्

याजनाध्यापनं दानं तथैवाहुः प्रतिग्रहम्।
यजनाध्ययने चैव यच्चान्यदपि किंचन ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी यज्ञ करता और कराता, कभी वेद पढ़ता और पढ़ाता तथा कभी दान करता और प्रतिग्रह लेता है। इसी प्रकार वह दूसरे-दूसरे कार्य भी किया करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्ममृत्युविवादे च तथा विशसनेऽपि च।
शुभाशुभमयं सर्वमेतदाहुः क्रियापथम् ॥ ३० ॥

मूलम्

जन्ममृत्युविवादे च तथा विशसनेऽपि च।
शुभाशुभमयं सर्वमेतदाहुः क्रियापथम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी जन्म लेता, कभी मरता तथा कभी विवाद और संग्राममें प्रवृत्त रहता है। विद्वान् पुरुषोंका कहना है कि यह सब शुभाशुभ कर्ममार्ग है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतिः कुरुते देवी भवं प्रलयमेव च।
दिवसान्ते गुणानेतानभ्येत्यैकोऽवतिष्ठते ॥ ३१ ॥
रश्मिजालमिवादित्यस्तत् तत्काले नियच्छति ।

मूलम्

प्रकृतिः कुरुते देवी भवं प्रलयमेव च।
दिवसान्ते गुणानेतानभ्येत्यैकोऽवतिष्ठते ॥ ३१ ॥
रश्मिजालमिवादित्यस्तत् तत्काले नियच्छति ।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृतिदेवी ही जगत्‌की सृष्टि और प्रलय करती है। जैसे सूर्य प्रतिदिन प्रातःकाल अपनी किरणोंको सब ओर फैलाता और सायंकालमें अपने किरण-जालको समेट लेता है, वैसे ही आदिपुरुष ब्रह्मा अपने दिन—कल्पके आरम्भमें तीनों गुणोंका विस्तार करता और अन्तमें सबको समेटकर अकेला ही रह जाता है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेषोऽसकृत्पूर्वं क्रीडार्थमभिमन्यते ॥ ३२ ॥
आत्मरूपगुणानेतान् विविधान् हृदयप्रियान् ।

मूलम्

एवमेषोऽसकृत्पूर्वं क्रीडार्थमभिमन्यते ॥ ३२ ॥
आत्मरूपगुणानेतान् विविधान् हृदयप्रियान् ।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रकृतिसे संयुक्त हुआ पुरुष तत्त्वज्ञान होनेसे पहले मनको प्रिय लगनेवाले नाना प्रकारके अपने व्यापारोंको क्रीड़ाके लिये बार-बार करता और उन्हें अपना कर्तव्य मानता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतां विकुर्वाणः सर्गप्रलयधर्मिणीम् ॥ ३३ ॥
क्रियां कियापथे रक्तस्त्रिगुणां त्रिगुणाधिपः।
क्रियां क्रियापथोपेतस्तथा तदिति मन्यते ॥ ३४ ॥

मूलम्

एवमेतां विकुर्वाणः सर्गप्रलयधर्मिणीम् ॥ ३३ ॥
क्रियां कियापथे रक्तस्त्रिगुणां त्रिगुणाधिपः।
क्रियां क्रियापथोपेतस्तथा तदिति मन्यते ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सृष्टि और प्रलय जिसके धर्म हैं, उस त्रिगुणमयी प्रकृतिको विकृत करके तीनों गुणोंका स्वामी आत्मा कर्ममार्गमें अनुरक्त और प्रवृत हो उस प्रकृतिके द्वारा होनेवाले प्रत्येक त्रिगुणात्मक कार्यको अपना मान लेता है॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृत्या सर्वमेवेदं जगदन्धीकृतं विभो।
रजसा तमसा चैव व्याप्तं सर्वमनेकधा ॥ ३५ ॥

मूलम्

प्रकृत्या सर्वमेवेदं जगदन्धीकृतं विभो।
रजसा तमसा चैव व्याप्तं सर्वमनेकधा ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! प्रकृतिने इस सम्पूर्ण जगत्‌को अन्धा बना रखा है। उसीके संयोगसे समस्त पदार्थ अनेक प्रकारसे रजोगुण और तमोगुणसे व्याप्त हो रहे हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं द्वन्द्वान्यथैतानि समावर्तन्ति नित्यशः।
ममैवैतानि जायन्ते धावन्ते तानि मामिति ॥ ३६ ॥
निस्तर्तव्यान्यथैतानि सर्वाणीति नराधिप ।
मन्यतेऽयं ह्यबुद्धत्वात् तथैव सुकृतान्यपि ॥ ३७ ॥
भोक्तव्यानि मयैतानि देवलोकगतेन वै।
इहैव चैनं भोक्ष्यामि शुभाशुभफलोदयम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

एवं द्वन्द्वान्यथैतानि समावर्तन्ति नित्यशः।
ममैवैतानि जायन्ते धावन्ते तानि मामिति ॥ ३६ ॥
निस्तर्तव्यान्यथैतानि सर्वाणीति नराधिप ।
मन्यतेऽयं ह्यबुद्धत्वात् तथैव सुकृतान्यपि ॥ ३७ ॥
भोक्तव्यानि मयैतानि देवलोकगतेन वै।
इहैव चैनं भोक्ष्यामि शुभाशुभफलोदयम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रकृतिकी प्रेरणासे स्वभावतः सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंकी सदा पुनरावृत्ति होती रहती है; किंतु जीवात्मा अज्ञानवश यह मान बैठता है कि ये सारे द्वन्द्व मुझपर ही धावा करते हैं और मुझे इनसे निस्तार पानेकी चेष्टा करनी चाहिये। (ऐसा मानकर वह दुखी होता है) नरेश्वर! प्रकृतिसे संयुक्त हुआ पुरुष अज्ञानवश यह मान लेता है कि मैं देवलोकमें जाकर अपने समस्त प्रण्योंके फलका उपभोग करूँगा और पूर्वजन्मके किये हुए शुभाशुभ कर्मोंका जो फल प्रकट हो रहा है, उसे यहीं भोगूँगा॥३६—३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखमेव तु कर्तव्यं सकृत् कृत्वा सुखं मम।
यावदन्तं च मे सौख्यं जात्यां जात्यां भविष्यति ॥ ३९ ॥

मूलम्

सुखमेव तु कर्तव्यं सकृत् कृत्वा सुखं मम।
यावदन्तं च मे सौख्यं जात्यां जात्यां भविष्यति ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मुझे सुखके साधनभूत पुण्यका ही अनुष्ठान करना चाहिये। उसका एक बार भी अनुष्ठान कर लेनेपर मुझे आजीवन सुख मिलेगा तथा भविष्यमें भी प्रत्येक जन्ममें सुखकी प्राप्ति होती रहेगी॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भविष्यति च मे दुःखं कृतेनेहाप्यनन्तकम्।
महद् दुःखं हि मानुष्यं निरये चापि मज्जनम् ॥ ४० ॥

मूलम्

भविष्यति च मे दुःखं कृतेनेहाप्यनन्तकम्।
महद् दुःखं हि मानुष्यं निरये चापि मज्जनम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि इस जन्ममें मैं बुरे कर्म करूँगा तो मुझे यहाँ भी अनन्त दुःख भोगना पड़ेगा। यह मानव-जन्म महान् दुःखसे भरा हुआ है। इसके सिवा पापके फलसे नरकमें भी डूबना पड़ेगा॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरयाच्चापि मानुष्यं कालेनैष्याम्यहं पुनः।
मनुष्यत्वाच्च देवत्वं देवत्वात् पौरुषं पुनः ॥ ४१ ॥

मूलम्

निरयाच्चापि मानुष्यं कालेनैष्याम्यहं पुनः।
मनुष्यत्वाच्च देवत्वं देवत्वात् पौरुषं पुनः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरकसे दीर्घकालके बाद छुटकारा मिलनेपर मैं पुनः मनुष्यलोकमें जन्म लूँगा। मानवयोनिसे पुण्यके फलस्वरूप देवयोनिमें जाऊँगा और वहाँसे पुण्य-क्षीण होनेपर पुनः मानव-शरीरमें जन्म लूँगा॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्यत्वाच्च निरयं पर्यायेणोपगच्छति ।
य एवं वेत्ति नित्यं वै निरात्माऽऽत्मगुणैर्वृतः ॥ ४२ ॥
तेन देवमनुष्येषु निरये चोपपद्यते।

मूलम्

मनुष्यत्वाच्च निरयं पर्यायेणोपगच्छति ।
य एवं वेत्ति नित्यं वै निरात्माऽऽत्मगुणैर्वृतः ॥ ४२ ॥
तेन देवमनुष्येषु निरये चोपपद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह बारी-बारीसे वह जीव मानव-योनिसे नरकमें (और नरकसे मानवयोनिमें) आता-जाता रहता है। आत्मासे भिन्न तथा आत्माके गुण चैतन्य आदिसे युक्त जो इन्द्रियोंका समुदाय शरीरमें ऐसी भावना रखता है कि ‘यह मैं हूँ’ वही देवलोक, मनुष्यलोक, नरक तथा तिर्यग्योनिमें जाता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममत्वेनावृतो नित्यं तत्रैव परिवर्तते ॥ ४३ ॥
सर्गकोटिसहस्राणि मरणान्तासु मूर्तिषु ।

मूलम्

ममत्वेनावृतो नित्यं तत्रैव परिवर्तते ॥ ४३ ॥
सर्गकोटिसहस्राणि मरणान्तासु मूर्तिषु ।

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री-पुत्र आदिके प्रति ममतासे बँधा हुआ पुरुष उन्हींके संसर्गमें रहकर सहस्र-सहस्र कोटि सृष्टिपर्यन्त नश्वर शरीरोंमें ही सदा चक्कर लगाता रहता है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एवं कुरुते कर्म शुभाशुभफलात्मकम् ॥ ४४ ॥
स एवं फलमाप्नोति त्रिषु लोकेषु मुर्तिमान्।

मूलम्

य एवं कुरुते कर्म शुभाशुभफलात्मकम् ॥ ४४ ॥
स एवं फलमाप्नोति त्रिषु लोकेषु मुर्तिमान्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस प्रकार शुभाशुभ फल देनेवाला कर्म करता है, वही तीनों लोकोंमें शरीर धारण करके इन उपर्युक्त फलोंको पाता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतिः कुरुते कर्म शुभाशुभफलात्मकम्।
प्रकृतिश्च तदश्नाति त्रिषु लोकेषु कामगा ॥ ४५ ॥

मूलम्

प्रकृतिः कुरुते कर्म शुभाशुभफलात्मकम्।
प्रकृतिश्च तदश्नाति त्रिषु लोकेषु कामगा ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वास्तवमें तो प्रकृति ही शुभाशुभ फल देनेवाले कर्मोंका अनुष्ठान करती है और तीनों लोकोंमें इच्छानुसार विचरण करनेवाली वह प्रकृति ही उन कर्मोंका फल भोगती है (किंतु पुरुष अज्ञानके कारण कर्ता-भोक्ता बन जाता है)॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिर्यग्योनिमनुष्यत्वं देवलोके तथैव च।
त्रीणि स्थानानि चैतानि जानीयात् प्रकृतानि ह ॥ ४६ ॥

मूलम्

तिर्यग्योनिमनुष्यत्वं देवलोके तथैव च।
त्रीणि स्थानानि चैतानि जानीयात् प्रकृतानि ह ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तिर्यग्योनि, मनुष्ययोनि तथा देवलोकमें देवयोनि ये कर्म-फल-भोगके तीन स्थान हैं। इन सबको प्राकृत समझो॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलिङ्गां प्रकृतिं त्वाहुर्लिङ्गैरनुमिमीमहे ।
तथैव पौरुषं लिङ्गमनुमानाद्धि मन्यते ॥ ४७ ॥

मूलम्

अलिङ्गां प्रकृतिं त्वाहुर्लिङ्गैरनुमिमीमहे ।
तथैव पौरुषं लिङ्गमनुमानाद्धि मन्यते ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिगण प्रकृतिको लिंगरहित बताते हैं; किंतु हमलोग विशेष हेतुओंके द्वारा ही उसका अनुमान कर सकते हैं। इसी प्रकार अनुमानद्वारा ही हमें पुरुषके स्वरूपका अर्थात् उसके होनेका ज्ञान होता है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स लिङ्गान्तरमासाद्य प्राकृतं लिङ्गमव्रणः।
व्रणद्वाराण्यधिष्ठाय कर्मण्यात्मनि मन्यते ॥ ४८ ॥

मूलम्

स लिङ्गान्तरमासाद्य प्राकृतं लिङ्गमव्रणः।
व्रणद्वाराण्यधिष्ठाय कर्मण्यात्मनि मन्यते ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुष स्वयं छिद्ररहित होते हुए भी प्रकृतिनिर्मित चिह्नस्वरूप विभिन्न शरीरोंका अवलम्बन करके छिद्रोंमें स्थित रहनेवाली इन्द्रियोंका अधिष्ठाता बनकर उन सबके कर्मोंको अपनेमें मान लेता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोत्रादीनि तु सर्वाणि पञ्चकर्मेन्द्रियाण्यथ।
वागादीनि प्रवर्तन्ते गुणेष्विह गुणौः सह ॥ ४९ ॥

मूलम्

श्रोत्रादीनि तु सर्वाणि पञ्चकर्मेन्द्रियाण्यथ।
वागादीनि प्रवर्तन्ते गुणेष्विह गुणौः सह ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌में श्रोत्र आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और वाक् आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ अपने-अपने गुणोंके साथ गुणमय शरीरोंमें स्थित हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमेतानि वै सर्वं मय्येतानीन्द्रियाणि ह।
निरिन्द्रियो हि मन्येत व्रणवानस्मि निर्व्रणः ॥ ५० ॥

मूलम्

अहमेतानि वै सर्वं मय्येतानीन्द्रियाणि ह।
निरिन्द्रियो हि मन्येत व्रणवानस्मि निर्व्रणः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु यह जीव वास्तवमें इन्द्रियोंसे रहित है तो भी यह मानता है कि मैं ही ये सब कर्म करता हूँ और मुझमें ही सब इन्द्रियाँ हैं। इस प्रकार यह छिद्रशून्य होकर भी अपनेको छिद्रयुक्त मानता है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलिङ्गो लिङ्गमात्मानमकालः कालमात्मनः ।
असत्त्वं सत्त्वमात्मानमतत्त्वं तत्त्वमात्मनः ॥ ५१ ॥

मूलम्

अलिङ्गो लिङ्गमात्मानमकालः कालमात्मनः ।
असत्त्वं सत्त्वमात्मानमतत्त्वं तत्त्वमात्मनः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह लिंग (सूक्ष्म) शरीरसे हीन होनेपर भी अपनेको उससे युक्त मानता है। कालधर्म (मृत्यु) से रहित होकर भी अपनेको कालधर्मी (मरणशील) समझता है। सत्त्वसे भिन्न होकर भी अपनेको सत्त्वरूप मानता है तथा महाभूतादि तत्त्वसे रहित होकर भी अपने आपको तत्त्वस्वरूप समझता है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमृत्युर्मृत्युमात्मानमचरश्चरमात्मनः ।
अक्षेत्रः क्षेत्रमात्मानमसर्गः सर्गमात्मनः ॥ ५२ ॥

मूलम्

अमृत्युर्मृत्युमात्मानमचरश्चरमात्मनः ।
अक्षेत्रः क्षेत्रमात्मानमसर्गः सर्गमात्मनः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मृत्युसे सर्वथा रहित है तो भी अपनेको मृत्युग्रस्त मानता है। अचर होनेपर भी अपनेको चलने-फिरनेवाला मानता है। क्षेत्रसे भिन्न होनेपर भी अपनेको क्षेत्र मानता है। सृष्टिसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं होनेपर भी सृष्टिको अपनी ही समझता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतपास्तप आत्मानमगतिर्गतिमात्मनः ।
अभवो भवमात्मानमभयो भयमात्मनः ॥ ५३ ॥
अक्षरः क्षरमात्मानमबुद्धिस्त्वभिमन्यते ॥ ५४ ॥

मूलम्

अतपास्तप आत्मानमगतिर्गतिमात्मनः ।
अभवो भवमात्मानमभयो भयमात्मनः ॥ ५३ ॥
अक्षरः क्षरमात्मानमबुद्धिस्त्वभिमन्यते ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कभी तप नहीं करता तो भी अपनेको तपस्वी मानता है। कहीं गमन नहीं करता तो भी अपनेको आने-जानेवाला समझता है। संसाररहित होकर भी अपनेको संसारी और निर्भय होकर भी अपनेको भयभीत मानता है। यद्यपि वह अक्षर (अविनाशी) है तो भी अपनेको क्षर (नाशवान्) समझता है तथा बुद्धिसे परे होनेपर भी बुद्धिमत्ताका अभिमान रखता है॥५३-५४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वसिष्ठकरालजनकसंवादे त्र्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वसिष्ठ और करालजनकका संवादविषयक तीन सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०३॥


  1. किसी-किसी टीकाकारने ‘सिध्मा’ का अर्थ ‘खाँसी’ और ‘दमा’ भी किया है। परंतु कोष-प्रसिद्ध अर्थ ‘सफेद दाग या सेहुँवा’ ही है। ↩︎