३०२ वसिष्ठकरालजनकसंवादे

भागसूचना

द्व्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वसिष्ठ और करालजनकका संवाद—क्षर और अक्षरतत्त्वका निरूपण और इनके ज्ञानसे मुक्ति

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं तदक्षरमित्युक्तं यस्मान्नावर्तते पुनः।
किं च तत्क्षरमित्युक्तं यस्मादावर्तते पुनः ॥ १ ॥

मूलम्

किं तदक्षरमित्युक्तं यस्मान्नावर्तते पुनः।
किं च तत्क्षरमित्युक्तं यस्मादावर्तते पुनः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! वह अक्षर तत्त्व क्या है, जिसे प्राप्त कर लेनेपर जीव फिर इस संसारमें नहीं लौटता तथा वह क्षर पदार्थ क्या है, जिसको जानने या पा लेनेपर भी पुनः इस संसारमें लौटना पड़ता है?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षरक्षरयोर्व्यक्तिं पृच्छाम्यरिनिषूदन ।
उपलब्धं महाबाहो तत्त्वेन कुरुनन्दन ॥ २ ॥

मूलम्

अक्षरक्षरयोर्व्यक्तिं पृच्छाम्यरिनिषूदन ।
उपलब्धं महाबाहो तत्त्वेन कुरुनन्दन ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसूदन! महाबाहु! कुरुनन्दन! क्षर और अक्षरके स्वरूपको स्पष्टरूपसे समझनेके लिये ही मैंने आपसे यह प्रश्न किया है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि ज्ञाननिधिर्विप्रैरुच्यसे वेदपारगैः।
ऋषिभिश्च महाभागैर्यतिभिश्च महात्मभिः ॥ ३ ॥

मूलम्

त्वं हि ज्ञाननिधिर्विप्रैरुच्यसे वेदपारगैः।
ऋषिभिश्च महाभागैर्यतिभिश्च महात्मभिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मण, महाभाग महर्षि तथा महात्मा यति भी आपको ज्ञाननिधि कहते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शेषमल्पं दिनानां ते दक्षिणायनभास्करे।
आवृते भगवत्यर्के गन्तासि परमां गतिम् ॥ ४ ॥

मूलम्

शेषमल्पं दिनानां ते दक्षिणायनभास्करे।
आवृते भगवत्यर्के गन्तासि परमां गतिम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब सूर्यके दक्षिणायनमें रहनेके थोड़े ही दिन शेष हैं। भगवान् सूर्यके उत्तरायणमें पदार्पण करते ही आप परमधामको पधारेंगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयि प्रतिगते श्रेयः कुतः श्रोष्यामहे वयम्।
कुरुवंशप्रदीपस्त्वं ज्ञानदीपेन दीप्यसे ॥ ५ ॥

मूलम्

त्वयि प्रतिगते श्रेयः कुतः श्रोष्यामहे वयम्।
कुरुवंशप्रदीपस्त्वं ज्ञानदीपेन दीप्यसे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके चले जानेपर हमलोग अपने कल्याणकी बातें किससे सुनेंगे? आप कुरुवंशको प्रकाशित करनेवाले प्रदीप हैं और ज्ञानदीपसे उद्‌भासित हो रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेतच्छ्रोतुमिच्छामि त्वत्तः कुरुकुलोद्वह ।
न तृप्यामीह राजेन्द्र शृण्वन्नमृतमीदृशम् ॥ ६ ॥

मूलम्

तदेतच्छ्रोतुमिच्छामि त्वत्तः कुरुकुलोद्वह ।
न तृप्यामीह राजेन्द्र शृण्वन्नमृतमीदृशम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः कुरुकुलधुरन्धर! राजेन्द्र! मैं आपहीके मुँहसे यह सब सुनना चाहता हूँ। आपके इन अमृतमय वचनोंको सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती है (अतएव आप मुझे यह क्षर-अक्षरका विषय बताइये।)॥६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्।
वसिष्ठस्य च संवादं करालजनकस्य च ॥ ७ ॥

मूलम्

अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्।
वसिष्ठस्य च संवादं करालजनकस्य च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें कराल नामक जनक और वसिष्ठका जो संवाद हुआ था, वही प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें बतलाऊँगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठं श्रेष्ठमासीनमृषीणां भास्करद्युतिम् ।
पप्रच्छ जनको राजा ज्ञानं नैःश्रेयसं परम् ॥ ८ ॥

मूलम्

वसिष्ठं श्रेष्ठमासीनमृषीणां भास्करद्युतिम् ।
पप्रच्छ जनको राजा ज्ञानं नैःश्रेयसं परम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, ऋषियोंमें सूर्यके समान तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ अपने आश्रमपर विराजमान थे। वहाँ राजा जनकने पहुँचकर उनसे परम कल्याणकारी ज्ञानके विषयमें पूछा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमध्यात्मकुशलमध्यात्मगतिनिश्चयम् ।
मैत्रावरुणिमासीनमभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥ ९ ॥
स्वक्षरं प्रश्रितं वाक्यं मधुरं चाप्यनुल्बणम्।
पप्रच्छर्षिवरं राजा करालजनकः पुरा ॥ १० ॥

मूलम्

परमध्यात्मकुशलमध्यात्मगतिनिश्चयम् ।
मैत्रावरुणिमासीनमभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥ ९ ॥
स्वक्षरं प्रश्रितं वाक्यं मधुरं चाप्यनुल्बणम्।
पप्रच्छर्षिवरं राजा करालजनकः पुरा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मित्रावरुणके पुत्र वसिष्ठजी अध्यात्मविषयक प्रवचनमें अत्यन्त कुशल थे और उन्हें अध्यात्मज्ञानका निश्चय हो गया था। वे एक आसनपर विराजमान थे। पूर्वकालमें कराल नामक राजा जनकने उन मुनिवरके पास जा हाथ जोड़कर प्रणाम किया और सुन्दर अक्षरोंसे युक्त विनयपूर्ण तथा कुतर्करहित मधुर वाणीमें इस प्रकार पूछा—॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् श्रोतुमिच्छामि परं ब्रह्म सनातनम्।
यस्मान्न पुनरावृत्तिमाप्नुवन्ति मनीषिणः ॥ ११ ॥

मूलम्

भगवन् श्रोतुमिच्छामि परं ब्रह्म सनातनम्।
यस्मान्न पुनरावृत्तिमाप्नुवन्ति मनीषिणः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! जहाँसे मनीषी पुरुष पुनः इस संसारमें लौटकर नहीं आते हैं, उस सनातन परब्रह्मके स्वरूपका मैं वर्णन सुनना चाहता हूँ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च तत् क्षरमित्युक्तं यत्रेदं क्षरते जगत्।
यच्चाक्षरमिति प्रोक्तं शिवं क्षेम्यमनामयम् ॥ १२ ॥

मूलम्

यच्च तत् क्षरमित्युक्तं यत्रेदं क्षरते जगत्।
यच्चाक्षरमिति प्रोक्तं शिवं क्षेम्यमनामयम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तथा जिसे क्षर कहा गया है, उसे भी जानना चाहता हूँ। जिसमें इस जगत्‌का क्षरण (लय) होता है और जिसे अक्षर कहा गया है, उस निर्विकार कल्याणमय शिवस्वरूप अधिष्ठानका भी ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ’॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रूयतां पृथिवीपाल क्षरतीदं यथा जगत्।
यन्न क्षरति पूर्वेण यावत्कालेन वाप्यथ ॥ १३ ॥

मूलम्

श्रूयतां पृथिवीपाल क्षरतीदं यथा जगत्।
यन्न क्षरति पूर्वेण यावत्कालेन वाप्यथ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने कहा— भूपाल! जिस प्रकार इस जगत्‌का क्षय (परिवर्तन) होता है, उसको तथा जो किसी भी कालमें क्षरित (नष्ट) नहीं होता, उस अक्षरको भी बता रहा हूँ, सुनो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युगं द्वादशसाहस्रं कल्पं विद्धि चतुर्युगम्।
दशकल्पशतावृत्तमहस्तद् ब्राह्ममुच्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

युगं द्वादशसाहस्रं कल्पं विद्धि चतुर्युगम्।
दशकल्पशतावृत्तमहस्तद् ब्राह्ममुच्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके बारह हजार वर्षोंका एक चतुर्युग होता है। इसीको कल्प अर्थात् महायुग समझो। ऐसे एक हजार महायुगोंका ब्रह्माजीका एक दिन बताया जाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रात्रिश्चैतावती राजन् यस्यान्ते प्रतिबुद्ध्यते।
सृजत्यनन्तकर्माणं महान्तं भूतमग्रजम् ॥ १५ ॥
मूर्तिमन्तममूर्तात्मा विश्वं शम्भुः स्वयम्भुवः।
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानं ज्योतिरव्ययम् ॥ १६ ॥
सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १७ ॥

मूलम्

रात्रिश्चैतावती राजन् यस्यान्ते प्रतिबुद्ध्यते।
सृजत्यनन्तकर्माणं महान्तं भूतमग्रजम् ॥ १५ ॥
मूर्तिमन्तममूर्तात्मा विश्वं शम्भुः स्वयम्भुवः।
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानं ज्योतिरव्ययम् ॥ १६ ॥
सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उनकी रात्रि भी इतनी ही बड़ी होती है; जिसके अन्तमें वे जागते हैं। अनन्तकर्मा ब्रह्माजी सबके अग्रज और महान् भूत हैं। यह सम्पूर्ण विश्व उन्हींका स्वरूप है। जो अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि सिद्धियोंपर शासन करनेवाले हैं, वे कल्याणस्वरूप निराकार परमेश्वर ही उन मूर्तिमान् ब्रह्माकी सृष्टि करते हैं। परमात्मा ज्योतिःस्वरूप स्वयं प्रकट और अविनाशी हैं। उनके हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक और मुख सब ओर हैं। कान भी सब ओर हैं। वे संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित हैं॥१५—१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यगर्भो भगवानेष बुद्धिरिति स्मृतः।
महानिति च योगेषु विरिञ्चिरिति चाप्यजः ॥ १८ ॥

मूलम्

हिरण्यगर्भो भगवानेष बुद्धिरिति स्मृतः।
महानिति च योगेषु विरिञ्चिरिति चाप्यजः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परमेश्वरसे उत्पन्न जो सबके अग्रज भगवान् हिरण्यगर्भ हैं, ये ही बुद्धि कहे गये हैं। योगशास्त्रमें ये ही महान् कहे गये हैं। इन्हींको विरिञ्चि तथा अज भी कहते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सांख्ये च पठ्यते शास्त्रे नामभिर्बहुधात्मकः।
विचित्ररूपो विश्वात्मा एकाक्षर इति स्मृतः ॥ १९ ॥
वृतं नैकात्मकं येन कृतं त्रैलोक्यमात्मना।
तथैव बहुरूपत्वाद् विश्वरूप इति स्मृतः ॥ २० ॥

मूलम्

सांख्ये च पठ्यते शास्त्रे नामभिर्बहुधात्मकः।
विचित्ररूपो विश्वात्मा एकाक्षर इति स्मृतः ॥ १९ ॥
वृतं नैकात्मकं येन कृतं त्रैलोक्यमात्मना।
तथैव बहुरूपत्वाद् विश्वरूप इति स्मृतः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक नाम और रूपोंसे युक्त इन हिरण्यगर्भ ब्रह्माका सांख्यशास्त्रमें भी वर्णन आता है। ये विचित्र रूपधारी, विश्वात्मा और एकाक्षर कहे गये हैं। इस अनेक रूपोंवाली त्रिलोकीकी रचना उन्होंने ही की है और स्वयं ही इसे व्याप्त कर रक्खा है। इस प्रकार बहुत-से रूप धारण करनेके कारण वे विश्वरूप माने गये हैं॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष वै विक्रियापन्नः सृजत्यात्मानमात्मना।
अहङ्कारं महातेजाः प्रजापतिमहंकृतम् ॥ २१ ॥

मूलम्

एष वै विक्रियापन्नः सृजत्यात्मानमात्मना।
अहङ्कारं महातेजाः प्रजापतिमहंकृतम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये महातेजस्वी भगवान् हिरण्यगर्भ विकारको प्राप्त हो स्वयं ही अहंकारकी और उसके अभिमानी प्रजापति विराट्‌की सृष्टि करते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्ताद् व्यक्तमापन्नं विद्यासर्गं वदन्ति तम्।
महान्तं चाप्यहङ्कारमविद्यासर्गमेव च ॥ २२ ॥

मूलम्

अव्यक्ताद् व्यक्तमापन्नं विद्यासर्गं वदन्ति तम्।
महान्तं चाप्यहङ्कारमविद्यासर्गमेव च ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमें निराकारसे साकार रूपमें प्रकट होनेवाली मूल प्रकृतिको तो विद्यासर्ग कहते हैं और महत्तत्त्व एवं अहंकारको अविद्यासर्ग कहते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविधिश्च विधिश्चैव समुत्पन्नौ तथैकतः।
विद्याविद्येति विख्याते श्रूतिशास्त्रार्थचिन्तकैः ॥ २३ ॥

मूलम्

अविधिश्च विधिश्चैव समुत्पन्नौ तथैकतः।
विद्याविद्येति विख्याते श्रूतिशास्त्रार्थचिन्तकैः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अविधि (ज्ञान) और विधि (कर्म) की उत्पत्ति भी उस परमात्मासे ही हुई है। श्रुति तथा शास्त्रके अर्थका विचार करनेवाले विद्वानोंने उन्हें विद्या और अविद्या बतलाया है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतसर्गमहङ्कारात् तृतीयं विद्धि पार्थिव।
अहङ्कारेषु सर्वेषु चतुर्थं विद्धि वैकृतम् ॥ २४ ॥

मूलम्

भूतसर्गमहङ्कारात् तृतीयं विद्धि पार्थिव।
अहङ्कारेषु सर्वेषु चतुर्थं विद्धि वैकृतम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! अहंकारसे जो सूक्ष्म भूतोंकी सृष्टि होती है उसे तीसरा सर्ग समझो। सात्त्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारके अहंकारोंसे जो चौथी सृष्टि उत्पन्न होती है, उसे वैकृत-सर्ग समझो॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुर्ज्योतिरथाकाशमापोऽथ पृथिवी तथा ।
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च ॥ २५ ॥

मूलम्

वायुर्ज्योतिरथाकाशमापोऽथ पृथिवी तथा ।
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—ये पाँच महाभूत तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये पाँच विषय वैकृत-सर्गके अन्तर्गत हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं युगपदुत्पन्नं दशवर्गमसंशयम् ।
पञ्चमं विद्धि राजेन्द्र भौतिकं सर्गमर्थवत् ॥ २६ ॥

मूलम्

एवं युगपदुत्पन्नं दशवर्गमसंशयम् ।
पञ्चमं विद्धि राजेन्द्र भौतिकं सर्गमर्थवत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन दसोंकी उत्पत्ति एक ही साथ होती है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! पाँचवाँ भौतिक सर्ग समझो। जो प्राणियोंके लिये विशेष प्रयोजनीय होनेके कारण सार्थक है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा घ्राणमेव च पञ्चमम्।
वाक् च हस्तौ च पादौ च पायुर्मेढ्रंतथैव च॥२७॥
बुद्धीन्द्रियाणि चैतानि तथा कर्मेन्द्रियाणि च।
सम्भूतानीह युगपन्मनसा सह पार्थिव ॥ २८ ॥

मूलम्

श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा घ्राणमेव च पञ्चमम्।
वाक् च हस्तौ च पादौ च पायुर्मेढ्रंतथैव च॥२७॥
बुद्धीन्द्रियाणि चैतानि तथा कर्मेन्द्रियाणि च।
सम्भूतानीह युगपन्मनसा सह पार्थिव ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस भौतिक सर्गके अन्तर्गत आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा वाणी, हाथ, पैर, गुदा और लिंग—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। पृथ्वीनाथ! मनसहित इन सबकी उत्पत्ति भी एक ही साथ होती है॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा तत्त्वचतुर्विंशा सर्वाकृतिषु वर्तते।
यां ज्ञात्वा नाभिशोचन्ति ब्राह्मणास्तत्त्वदर्शिनः ॥ २९ ॥

मूलम्

एषा तत्त्वचतुर्विंशा सर्वाकृतिषु वर्तते।
यां ज्ञात्वा नाभिशोचन्ति ब्राह्मणास्तत्त्वदर्शिनः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये चौबीस तत्त्व सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंमें मौजूद रहते हैं। तत्त्वदर्शी ब्राह्मण इनके यथार्थ स्वरूपको जानकर कभी शोक नहीं करते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् देहं समाख्यातं त्रैलोक्ये सर्वदेहिषु।
वेदितव्यं नरश्रेष्ठ सदेवनरदानवे ॥ ३० ॥
सयक्षभूतगन्धर्वे सकिन्नरमहोरगे ।
सचारणपिशाचे वै सदेवर्षिनिशाचरे ॥ ३१ ॥
सदंशकीटमशके सपूतिकृमिमूषिके ।
शुनि श्वपाके चैणेये सचाण्डाले सपुल्कसे ॥ ३२ ॥
हस्त्यश्वखरशार्दूले सवृक्षे गवि चैव ह।
यच्च मूर्तिमयं किंचित् सर्वत्रैतन्निदर्शनम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

एतद् देहं समाख्यातं त्रैलोक्ये सर्वदेहिषु।
वेदितव्यं नरश्रेष्ठ सदेवनरदानवे ॥ ३० ॥
सयक्षभूतगन्धर्वे सकिन्नरमहोरगे ।
सचारणपिशाचे वै सदेवर्षिनिशाचरे ॥ ३१ ॥
सदंशकीटमशके सपूतिकृमिमूषिके ।
शुनि श्वपाके चैणेये सचाण्डाले सपुल्कसे ॥ ३२ ॥
हस्त्यश्वखरशार्दूले सवृक्षे गवि चैव ह।
यच्च मूर्तिमयं किंचित् सर्वत्रैतन्निदर्शनम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! तीनों लोकोंमें जितने देहधारी हैं, उन सबमें इन्हीं तत्त्वोंके समुदायको देह समझना चाहिये। देवता, मनुष्य, दानव, यक्ष, भूत, गन्धर्व किन्नर, महासर्प, चारण, पिशाच, देवर्षि, निशाचर, दंश (डंक मारनेवाली मक्खी), कीट, मच्छर, दुर्गन्धित कीड़े, चूहे, कुत्ते, चाण्डाल, हिरन, श्वपाक (कुत्ताका मांस खानेवाला), पुल्कस (म्लेच्छ), हाथी, घोड़े, गधे, सिंह, वृक्ष और गौ आदिके रूपमें जो कुछ मूर्तिमान् पदार्थ है, सर्वत्र इन्हीं तत्त्वोंका दर्शन होता है॥३०-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जले भुवि तथाऽऽकाशे नान्यत्रेति विनिश्चयः।
स्थानं देहवतामासीदित्येवमनुशुश्रुम ॥ ३४ ॥

मूलम्

जले भुवि तथाऽऽकाशे नान्यत्रेति विनिश्चयः।
स्थानं देहवतामासीदित्येवमनुशुश्रुम ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वी, जल और आकाशमें ही देहधारियोंका निवास है, और कहीं नहीं; यह विद्वानोंका निश्चय है। ऐसा मैंने सुन रक्खा है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्स्नमेतावतस्तात क्षरते व्यक्तसंज्ञितम् ।
अहन्यहनि भूतात्मा ततः क्षर इति स्मृतः ॥ ३५ ॥

मूलम्

कृत्स्नमेतावतस्तात क्षरते व्यक्तसंज्ञितम् ।
अहन्यहनि भूतात्मा ततः क्षर इति स्मृतः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! यह सम्पूर्ण पांचभौतिक जगत् व्यक्त कहलाता है और प्रतिदिन इसका क्षरण होता है, इसलिये इसको क्षर कहते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदक्षरमित्युक्तं क्षरतीदं यथा जगत्।
जगन्मोहात्मकं प्राहुरव्यक्ताद् व्यक्तसंज्ञकम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

एतदक्षरमित्युक्तं क्षरतीदं यथा जगत्।
जगन्मोहात्मकं प्राहुरव्यक्ताद् व्यक्तसंज्ञकम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे भिन्न जो तत्त्व है, उसे अक्षर कहा गया है। इस प्रकार उस अव्यक्त अक्षरसे उत्पन्न हुआ यह व्यक्तसंज्ञक मोहात्मक जगत् क्षरित होनेके कारण क्षर नाम धारण करता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महांश्चैवाग्रजो नित्यमेतत् क्षरनिदर्शनम् ।
कथितं ते महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ३७ ॥

मूलम्

महांश्चैवाग्रजो नित्यमेतत् क्षरनिदर्शनम् ।
कथितं ते महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षर-तत्त्वोंमें सबसे पहले महत्तत्त्वकी ही सृष्टि हुई है। यह बात सदा ध्यानमें रखनेयज्ञेय है। यही क्षरका परिचय है। महाराज! तुमने जो मुझसे पूछा था, उसके अनुसार यह मैंने तुम्हारे समक्ष क्षर-अक्षरके विषयका वर्णन किया है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चविंशतिमो विष्णुर्निस्तत्त्वस्तत्त्वसंज्ञितः ।
तत्त्वसंश्रयणादेतत् तत्त्वमाहुर्मनीषिणः ॥ ३८ ॥

मूलम्

पञ्चविंशतिमो विष्णुर्निस्तत्त्वस्तत्त्वसंज्ञितः ।
तत्त्वसंश्रयणादेतत् तत्त्वमाहुर्मनीषिणः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन चौबीस तत्त्वोंसे परे जो भगवान् विष्णु (सर्वव्यापी परमात्मा) हैं, उन्हें पचीसवाँ तत्त्व कहा गया है। तत्त्वोंको आश्रय देनेके कारण ही मनीषी पुरुष उन्हें तत्त्व कहते हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्मर्त्यमसृजद् व्यक्तं तत्तन्मूर्त्यधितिष्ठति ।
चतुर्विंशतिमोऽव्यक्तो ह्यमूर्तः पञ्चविंशकः ॥ ३९ ॥

मूलम्

यन्मर्त्यमसृजद् व्यक्तं तत्तन्मूर्त्यधितिष्ठति ।
चतुर्विंशतिमोऽव्यक्तो ह्यमूर्तः पञ्चविंशकः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महत्तत्त्व आदि व्यक्त पदार्थ जिन मरणशील (नश्वर) पदार्थोंकी सृष्टि करते हैं, वे किसी-न-किसी आकार या मूर्तिका आश्रय लेकर स्थित होते हैं। गणना करनेपर चौबीसवाँ तत्त्व है अव्यक्त प्रकृति और पचीसवाँ है निराकार परमात्मा॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एव हृदि सर्वासु मूर्तिष्वातिष्ठतेऽऽत्मवान्।
केवलश्चेतनो नित्यः सर्वमूर्तिरमूर्तिमान् ॥ ४० ॥

मूलम्

स एव हृदि सर्वासु मूर्तिष्वातिष्ठतेऽऽत्मवान्।
केवलश्चेतनो नित्यः सर्वमूर्तिरमूर्तिमान् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अद्वितीय, चेतन, नित्य, सर्वस्वरूप, निराकार एवं सबके आत्मा हैं, वे परम पुरुष परमात्मा ही समस्त शरीरोंके हृदयदेशमें निवास करते हैं॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्गप्रलयधर्मिण्या असर्गप्रलयात्मकः ।
गोचरे वर्तते नित्यं निर्गुणं गुणसंज्ञितम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

सर्गप्रलयधर्मिण्या असर्गप्रलयात्मकः ।
गोचरे वर्तते नित्यं निर्गुणं गुणसंज्ञितम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि सृष्टि और प्रलय प्रकृतिके ही धर्म हैं। पुरुष तो उनसे सर्वथा सम्बन्धरहित है तथापि उस प्रकृतिके संसर्गवश पुरुष भी उस सृष्टि और प्रलयरूप धर्मसे सम्बद्ध-सा जान पड़ता है। इन्द्रियोंका विषय न होनेपर भी इन्द्रियगोचर-सा हो जाता है तथा निर्गुण होनेपर भी गुणवान्-सा जान पड़ता है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेष महानात्मा सर्गप्रलयकोविदः ।
विकुर्वाणः प्रकृतिमानभिमन्यत्यबुद्धिमान् ॥ ४२ ॥

मूलम्

एवमेष महानात्मा सर्गप्रलयकोविदः ।
विकुर्वाणः प्रकृतिमानभिमन्यत्यबुद्धिमान् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सृष्टि और प्रलयके तत्त्वको जाननेवाला यह महान् आत्मा अविकारी होकर भी प्रकृतिके संसर्गसे युक्त हो विकारवान्-सा हो जाता है एवं प्राकृत-बुद्धिसे रहित होनेपर भी शरीरमें आत्माभिमान कर लेता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमःसत्त्वरजोयुक्तस्तासु तास्विह योनिषु ।
नियते प्रतिबुद्धित्वादबुद्धजनसेवनात् ॥ ४३ ॥

मूलम्

तमःसत्त्वरजोयुक्तस्तासु तास्विह योनिषु ।
नियते प्रतिबुद्धित्वादबुद्धजनसेवनात् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृतिके संसर्गवश ही वह सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणसे युक्त हो जाता है तथा अज्ञानी मनुष्योंका संग करनेसे उन्हींकी भाँति अपनेको शरीरस्थ समझनेके कारण वह उन-उन सात्त्विक, राजस, तामस योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहवास विनाशित्वान्नान्योऽहमिति मन्यते ।
योऽहं सोऽहमिति ह्युक्त्वा गुणानेवानुवर्तते ॥ ४४ ॥

मूलम्

सहवास विनाशित्वान्नान्योऽहमिति मन्यते ।
योऽहं सोऽहमिति ह्युक्त्वा गुणानेवानुवर्तते ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृतिके सहवाससे अपने स्वरूपका बोध लुप्त हो जानेके कारण पुरुष यह समझने लगता है कि मैं शरीरसे भिन्न नहीं हूँ। ‘मैं यह हूँ, वह हूँ, अमुकका पुत्र हूँ, अमुक जातिका हूँ’, इस प्रकार कहता हुआ वह सात्त्विक आदि गुणोंका ही अनुसरण करता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमसा तामसान् भावान् विविधान् प्रतिपद्यते।
रजसा राजसांश्चैव सात्त्विकान् सत्त्वसंश्रयात् ॥ ४५ ॥

मूलम्

तमसा तामसान् भावान् विविधान् प्रतिपद्यते।
रजसा राजसांश्चैव सात्त्विकान् सत्त्वसंश्रयात् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह तमोगुणसे मोह आदि नाना प्रकारके तामस भावोंको, रजोगुणसे प्रकृत्ति आदि राजस भावोंको तथा सत्त्वगुणका आश्रय लेकर प्रकाश आदि सात्त्विक भावोंको प्राप्त होता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्ललोहितकृष्णानि रूपाण्येतानि त्रीणि तु।
सर्वाण्येतानि रूपाणि यानीह प्राकृतानि वै ॥ ४६ ॥

मूलम्

शुक्ललोहितकृष्णानि रूपाण्येतानि त्रीणि तु।
सर्वाण्येतानि रूपाणि यानीह प्राकृतानि वै ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणसे क्रमशः शुक्ल, रक्त और कृष्ण—ये तीन वर्ण प्रकट होते हैं। प्रकृतिसे जो-जो रूप प्रकट हुए हैं, वे सब इन्हीं तीनों वर्णोंके अन्तर्गत हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामसा निरयं यान्ति राजसा मानुषानथ।
सात्त्विका देवलोकाय गच्छन्ति सुखभागिनः ॥ ४७ ॥

मूलम्

तामसा निरयं यान्ति राजसा मानुषानथ।
सात्त्विका देवलोकाय गच्छन्ति सुखभागिनः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तमोगुणी प्राणी नरकमें पड़ते हैं, राजस स्वभावके जीव मनुष्यलोकमें जाते हैं तथा सुखके भागी सात्त्विक पुरुष देवलोकको प्रस्थान करते हैं॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्कैवल्येन पापेन तिर्यग्योनिमवाप्नुयात् ।
पुण्यपापेन मानुष्यं पुण्येनैकेन देवताः ॥ ४८ ॥

मूलम्

निष्कैवल्येन पापेन तिर्यग्योनिमवाप्नुयात् ।
पुण्यपापेन मानुष्यं पुण्येनैकेन देवताः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त केवल पापकर्मोंके फलस्वरूप जीव पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनिको प्राप्त होता है। पुण्य और पाप दोनोंके सम्मिश्रणसे मनुष्यलोक मिलता है तथा केवल पुण्यसे प्राणी देवयोनिको प्राप्त होता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमव्यक्तविषयं क्षरमाहुर्मनीषिणः ।
पञ्चविंशतिमो योऽयं ज्ञानादेव प्रवर्तते ॥ ४९ ॥

मूलम्

एवमव्यक्तविषयं क्षरमाहुर्मनीषिणः ।
पञ्चविंशतिमो योऽयं ज्ञानादेव प्रवर्तते ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ज्ञानी पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न हुए पदार्थोंको क्षर कहते हैं। उपर्युका चौबीस तत्त्वोंसे भिन्न जो पचीसवाँ तत्त्व—परमपुरुष परमात्मा बताया गया है, वही अक्षर है। उसकी प्राप्ति ज्ञानसे ही होती है॥४९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वसिष्ठकरालजनकसंवादे द्व्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वसिष्ठ और करालजनकका संवादविषयक तीन सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०२॥