भागसूचना
त्रिशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सांख्य और योगका अन्तर बतलाते हुए योगमार्गके स्वरूप साधन, फल और प्रभावका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांख्ये योगे च मे तात विशेषं वक्तुमर्हसि।
तव धर्मज्ञ सर्वं हि विदितं कुरुसत्तम ॥ १ ॥
मूलम्
सांख्ये योगे च मे तात विशेषं वक्तुमर्हसि।
तव धर्मज्ञ सर्वं हि विदितं कुरुसत्तम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— तात! धर्मज्ञ कुरुश्रेष्ठ! सांख्य और योगमें क्या अन्तर है? यह बतानेकी कृपा करें; क्योंकि आपको सब बातोंका ज्ञान है॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांख्याः सांख्यं प्रशंसन्ति योगा योगं द्विजातयः।
वदन्ति कारणं श्रेष्ठं स्वपक्षोद्भावनाय वै ॥ २ ॥
मूलम्
सांख्याः सांख्यं प्रशंसन्ति योगा योगं द्विजातयः।
वदन्ति कारणं श्रेष्ठं स्वपक्षोद्भावनाय वै ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! सांख्यके विद्वान् सांख्यकी और योगके ज्ञाता द्विज योगकी प्रशंसा करते हैं। दोनों ही अपने-अपने पक्षकी उत्कृष्टता सूचित करनेके लिये उत्तमोत्तम युक्तियोंका प्रतिपादन करते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनीश्वरः कथं मुच्येदित्येवं शत्रुकर्शन।
वदन्ति कारणैः श्रैष्ठ्यं योगाः सम्यङ्मनीषिणः ॥ ३ ॥
मूलम्
अनीश्वरः कथं मुच्येदित्येवं शत्रुकर्शन।
वदन्ति कारणैः श्रैष्ठ्यं योगाः सम्यङ्मनीषिणः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन! योगके मनीषी विद्वान् अपने मतकी श्रेष्ठता बताते हुए यह युक्ति उपस्थित करते हैं कि ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार किये बिना किसीकी भी मुक्ति कैसे हो सकती है? (अतः मोक्षदाता ईश्वरकी सत्ता अवश्य स्वीकार करनी चाहिये)॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वदन्ति कारणं चेदं सांख्याः सम्यग् द्विजातयः।
विज्ञायेह गतीः सर्वा विरक्तो विषयेषु यः ॥ ४ ॥
ऊर्ध्वं स देहात् सूव्यक्तं विमुच्येदिति नान्यथा।
एतदाहुर्महाप्राज्ञाः सांख्ये वै मोक्षदर्शनम् ॥ ५ ॥
मूलम्
वदन्ति कारणं चेदं सांख्याः सम्यग् द्विजातयः।
विज्ञायेह गतीः सर्वा विरक्तो विषयेषु यः ॥ ४ ॥
ऊर्ध्वं स देहात् सूव्यक्तं विमुच्येदिति नान्यथा।
एतदाहुर्महाप्राज्ञाः सांख्ये वै मोक्षदर्शनम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सांख्यमतके माननेवाले महाज्ञानी द्विज मोक्षका युक्तियुक्त कारण इस प्रकार बताते हैं—सब प्रकारकी गतियोंको जानकर जो विषयोंसे विरक्त हो जाता है, वही देहत्यागके अनन्तर मुक्त होता है। यह बात स्पष्टरूपसे सबकी समझमें आ सकती है। दूसरे किसी उपायसे मोक्ष मिलना असम्भव है। इस प्रकार वे सांख्यको ही मोक्षदर्शन कहते हैं॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वपक्षे कारणं ग्राह्यं समये वचनं हितम्।
शिष्टानां हि मतं ग्राह्यं त्वद्विधैः शिष्टसम्मतैः ॥ ६ ॥
मूलम्
स्वपक्षे कारणं ग्राह्यं समये वचनं हितम्।
शिष्टानां हि मतं ग्राह्यं त्वद्विधैः शिष्टसम्मतैः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने-अपने पक्षमें युक्तियुक्त कारण ग्राह्य होता है तथा सिद्धान्तके अनुकूल हितकारक वचन मानने योग्य समझा जाता है। शिष्ट पुरुषोंद्वारा सम्मानित तुम-जैसे लोगोंको श्रेष्ठ पुरुषोंका ही मत ग्रहण करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षहेतवो योगाः सांख्याः शास्त्रविनिश्चयाः।
उभे चैते मते तत्त्वे मम तात युधिष्ठिर ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षहेतवो योगाः सांख्याः शास्त्रविनिश्चयाः।
उभे चैते मते तत्त्वे मम तात युधिष्ठिर ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगके विद्वान् प्रधानतया प्रत्यक्ष प्रमाणको ही माननेवाले होते हैं और सांख्यमतानुयायी शास्त्र-प्रमाणपर ही विश्वास करते हैं। तात युधिष्ठिर! ये दोनों ही मत मुझे तात्त्विक जान पड़ते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभे चैते मते ज्ञाते नृपते शिष्टसम्मते।
अनुष्ठिते यथाशास्त्रं नयेतां परमां गतिम् ॥ ८ ॥
मूलम्
उभे चैते मते ज्ञाते नृपते शिष्टसम्मते।
अनुष्ठिते यथाशास्त्रं नयेतां परमां गतिम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! इन दोनों मतोंका श्रेष्ठ पुरुषोंने आदर किया है। इन दोनों ही मतोंको जानकर शास्त्रके अनुसार उनका आचरण किया जाय तो वे परमगतिकी प्राप्ति करा सकते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्यं शौचं तपोयुक्तं दया भूतेषु चानघ।
व्रतानां धारणं तुल्यं दर्शनं न समं तयोः ॥ ९ ॥
मूलम्
तुल्यं शौचं तपोयुक्तं दया भूतेषु चानघ।
व्रतानां धारणं तुल्यं दर्शनं न समं तयोः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाहर-भीतरकी पवित्रता, तप, प्राणियोंपर दया और व्रतोंका पालन आदि नियम दोनों मतोंमें समान रूपसे स्वीकार किये गये हैं। केवल उनके दर्शनोंमें अर्थात् पद्धतियोंमें समानता नहीं है॥९॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि तुल्यं व्रतं शौचं दया चात्र फलं तथा।
न तुल्यं दर्शनं कस्मात् तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १० ॥
मूलम्
यदि तुल्यं व्रतं शौचं दया चात्र फलं तथा।
न तुल्यं दर्शनं कस्मात् तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि इन दोनों मतोंमें उत्तम व्रत, बाहर-भीतरकी पवित्रता और दया समान है एवं दोनोंका परिणाम भी एक ही है तो इनके दर्शनमें समानता क्यों नहीं है, यह मुझे बताइये॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागं मोहं तथा स्नेहं कामं क्रोधं च केवलम्।
योगाच्छित्त्वा ततो दोषान् पञ्चैतान् प्राप्नुवन्ति तत् ॥ ११ ॥
मूलम्
रागं मोहं तथा स्नेहं कामं क्रोधं च केवलम्।
योगाच्छित्त्वा ततो दोषान् पञ्चैतान् प्राप्नुवन्ति तत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! योगी पुरुष केवल योगबलसे राग, मोह, स्नेह, काम और क्रोध—इन पाँच दोषोंका मूलोच्छेद करके परमपदको प्राप्त कर लेते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चानिमिषाः स्थूला जालं छित्त्वा पुनर्जलम्।
प्राप्नुवन्ति तथा योगास्तत् पदं वीतकल्मषाः ॥ १२ ॥
मूलम्
यथा चानिमिषाः स्थूला जालं छित्त्वा पुनर्जलम्।
प्राप्नुवन्ति तथा योगास्तत् पदं वीतकल्मषाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बड़े-बड़े और मोटे मत्स्य जालको काटकर फिर जलमें समा जाते हैं, उसी प्रकार योगी अपने पापोंका नाश करके परमात्मपदको प्राप्त करते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव वागुरां छित्त्वा बलवन्तो यथा मृगाः।
प्राप्नुयुर्विमलं मार्गं विमुक्ताः सर्वबन्धनैः ॥ १३ ॥
लोभजानि तथा राजन् बन्धनानि बलान्विताः।
छित्त्वा योगाः परं मार्गं गच्छन्ति विमलं शिवम् ॥ १४ ॥
मूलम्
तथैव वागुरां छित्त्वा बलवन्तो यथा मृगाः।
प्राप्नुयुर्विमलं मार्गं विमुक्ताः सर्वबन्धनैः ॥ १३ ॥
लोभजानि तथा राजन् बन्धनानि बलान्विताः।
छित्त्वा योगाः परं मार्गं गच्छन्ति विमलं शिवम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी प्रकार जैसे बलवान् मृग जाल तोड़कर सारे बन्धनोंसे मुक्त हो निर्विघ्न मार्गपर चले जाते हैं, वैसे ही योगबलसे सम्पन्न योगी पुरुष लोभजनित सब बन्धनोंको तोड़कर परम निर्मल कल्याणमय मार्गको प्राप्त कर लेते हैं॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबलाश्च मृगा राजन् वागुरासु तथा परे।
विनश्यन्ति न संदेहस्तद्वद् योगबलादृते ॥ १५ ॥
मूलम्
अबलाश्च मृगा राजन् वागुरासु तथा परे।
विनश्यन्ति न संदेहस्तद्वद् योगबलादृते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जैसे निर्बल मृग तथा दूसरे पशु जालमें पड़कर निस्सन्देह नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार योगबलसे रहित मनुष्यकी भी दशा होती है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलहीनाश्च कौन्तेय यथा जालं गता झषाः।
वधं गच्छन्ति राजेन्द्र योगास्तद्वत् सुदुर्बलाः ॥ १६ ॥
मूलम्
बलहीनाश्च कौन्तेय यथा जालं गता झषाः।
वधं गच्छन्ति राजेन्द्र योगास्तद्वत् सुदुर्बलाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन राजेन्द्र! जैसे निर्बल मत्स्य जालमें फँसकर वधको प्राप्त होते हैं, वही दशा योगबलसे सर्वथा रहित मनुष्योंकी भी होती है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च शकुनाः सूक्ष्मं प्राप्य जालमरिंदम।
तत्र सक्ता विपद्यन्ते मुच्यन्ते च बलान्विताः ॥ १७ ॥
कर्मजैर्बन्धनैर्बद्धास्तद्वद् योगाः परंतप ।
अबला वै विनश्यन्ति मुच्यन्ते च बलान्विताः ॥ १८ ॥
मूलम्
यथा च शकुनाः सूक्ष्मं प्राप्य जालमरिंदम।
तत्र सक्ता विपद्यन्ते मुच्यन्ते च बलान्विताः ॥ १७ ॥
कर्मजैर्बन्धनैर्बद्धास्तद्वद् योगाः परंतप ।
अबला वै विनश्यन्ति मुच्यन्ते च बलान्विताः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन! जैसे निर्बल पक्षी सूक्ष्म जालमें फँसकर बन्धनको प्राप्त हो अपने प्राण खो देते हैं और बलवान् पक्षी जाल तोड़कर उसके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार कर्मजनित बन्धनोंसे बँधे हुए निर्बल योगी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, किंतु परंतप! योगबलसे सम्पन्न योगी सब प्रकारके बन्धनोंसे छुटकारा पा जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अल्पकश्च यथा राजन् वह्निः शाम्यति दुर्बलः।
आक्रान्त इन्धनैः स्थूलैस्तद्वद् योगोऽबलः प्रभो ॥ १९ ॥
मूलम्
अल्पकश्च यथा राजन् वह्निः शाम्यति दुर्बलः।
आक्रान्त इन्धनैः स्थूलैस्तद्वद् योगोऽबलः प्रभो ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे अल्प होनेके कारण दुर्बल अग्निपर बड़े-बड़े मोटे ईंधन रख देनेसे वह जलनेके बजाय बुझ जाती है, प्रभो! उसी प्रकार निर्बल योगी महान् योगके भारसे दबकर नष्ट हो जाता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव च यदा राजन् वह्निर्जातबलः पुनः।
समीरणगतः क्षिप्रं दहेत् कृत्स्नां महीमपि ॥ २० ॥
मूलम्
स एव च यदा राजन् वह्निर्जातबलः पुनः।
समीरणगतः क्षिप्रं दहेत् कृत्स्नां महीमपि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वही आग जब हवाका सहारा पाकर प्रबल हो जाती है, तब सम्पूर्ण पृथ्वीको भी तत्काल भस्म कर सकती है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्वज्जातबलो योगी दीप्ततेजा महाबलः।
अन्तकाल इवादित्यः कृत्स्नं संशोषयेज्जगत् ॥ २१ ॥
मूलम्
तद्वज्जातबलो योगी दीप्ततेजा महाबलः।
अन्तकाल इवादित्यः कृत्स्नं संशोषयेज्जगत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह योगीका भी योगबल बढ़ जानेसे जब वह उद्दीप्त तेजसे सम्पन्न और महान् शक्तिशाली हो जाता है, तब वह जैसे प्रलयकालीन सूर्य समस्त जगत्को सुखा डालता है, वैसे ही समस्त रागादि दोषोंका नाश कर देता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्बलश्च यथा राजन् स्रोतसा ह्रियते नरः।
बलहीनस्तथा योगो विषयैर्ह्रियतेऽवशः ॥ २२ ॥
मूलम्
दुर्बलश्च यथा राजन् स्रोतसा ह्रियते नरः।
बलहीनस्तथा योगो विषयैर्ह्रियतेऽवशः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे दुर्बल मनुष्य पानीके वेगसे बह जाता है, उसी तरह दुर्बल योगी विवश होकर विषयोंकी ओर खिंच जाता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेव च महास्रोतो विष्टम्भयति वारणः।
तद्वद् योगबलं लब्ध्वा व्यूहते विषयान् बहून् ॥ २३ ॥
मूलम्
तदेव च महास्रोतो विष्टम्भयति वारणः।
तद्वद् योगबलं लब्ध्वा व्यूहते विषयान् बहून् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जलके उसी महान् स्रोतको जैसे गजराज रोक देता है अर्थात् उसमें नहीं बहता, उसी प्रकार योगका महान् बल पाकर योगी भी उन सभी बहुसंख्यक विषयोंको अवरुद्ध कर देता है अर्थात् उनके प्रवाहमें नहीं बहता॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशन्ति चावशाः पार्थ योगाद् योगबलान्विताः।
प्रजापतीनृषीन् देवान् महाभूतानि चेश्वराः ॥ २४ ॥
मूलम्
विशन्ति चावशाः पार्थ योगाद् योगबलान्विताः।
प्रजापतीनृषीन् देवान् महाभूतानि चेश्वराः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! योगशक्तिसम्पन्न पुरुष स्वतन्त्रता-पूर्वक प्रजापति, ऋषि, देवता और पञ्चमहाभूतोंमें प्रवेश कर जाते हैं। उनमें ऐसा करनेकी सामर्थ्य आ जाती है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यमो नान्तकः क्रुद्धो न मृत्युर्भीमविक्रमः।
ईशते नृपते सर्वे योगस्यामिततेजसः ॥ २५ ॥
मूलम्
न यमो नान्तकः क्रुद्धो न मृत्युर्भीमविक्रमः।
ईशते नृपते सर्वे योगस्यामिततेजसः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! अमित तेजस्वी योगीपर क्रोधमें भरे हुए यमराज, अन्तक और भयंकर पराक्रम दिखानेवाली मृत्युका भी शासन नहीं चलता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनां च सहस्राणि बहूनि भरतर्षभ।
योगः कुर्याद् बलं प्राप्य तैश्च सर्वैर्महीं चरेत् ॥ २६ ॥
मूलम्
आत्मनां च सहस्राणि बहूनि भरतर्षभ।
योगः कुर्याद् बलं प्राप्य तैश्च सर्वैर्महीं चरेत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! योगी योगबल पाकर अपने हजारों रूप बना सकता है और उन सबके द्वारा इस पृथ्वीपर विचर सकता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्नुयाद् विषयांश्चैव पुनश्चोग्रं तपश्चरेत्।
संक्षिपेच्च पुनस्तात सूर्यस्तेजोगुणानिव ॥ २७ ॥
मूलम्
प्राप्नुयाद् विषयांश्चैव पुनश्चोग्रं तपश्चरेत्।
संक्षिपेच्च पुनस्तात सूर्यस्तेजोगुणानिव ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! वह उन शरीरोंद्वारा विषयोंका सेवन और उग्र तपस्या भी करता है। तदनन्तर अपनी तेजोमयी किरणोंको समेट लेनेवाले सूर्यकी भाँति सभी रूपोंको अपनेमें लीन कर लेता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलस्थस्य हि योगस्य बन्धनेशस्य पार्थिव।
विमोक्षप्रभविष्णुत्वमुपपन्नमसंशयम् ॥ २८ ॥
मूलम्
बलस्थस्य हि योगस्य बन्धनेशस्य पार्थिव।
विमोक्षप्रभविष्णुत्वमुपपन्नमसंशयम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! बलवान् योगी बन्धनोंको तोड़नेमें समर्थ होता है, उसमें अपनेको मुक्त करनेकी पूर्ण शक्ति आ जाती है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलानि योगप्राप्तानि मयैतानि विशाम्पते।
निदर्शनार्थं सूक्ष्माणि वक्ष्यामि च पुनस्तव ॥ २९ ॥
मूलम्
बलानि योगप्राप्तानि मयैतानि विशाम्पते।
निदर्शनार्थं सूक्ष्माणि वक्ष्यामि च पुनस्तव ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापालक नरेश! मैं दृष्टान्तके लिये योगसे प्राप्त होनेवाली कुछ सूक्ष्म शक्तियोंका पुनः तुमसे वर्णन करूँगा॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनश्च समाधाने धारणां प्रति वा विभो।
निदर्शनानि सूक्ष्माणि शृणु मे भरतर्षभ ॥ ३० ॥
मूलम्
आत्मनश्च समाधाने धारणां प्रति वा विभो।
निदर्शनानि सूक्ष्माणि शृणु मे भरतर्षभ ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! भरतश्रेष्ठ! आत्मसमाधिके लिये जो धारणा की जाती है, उसके विषयमें भी कुछ सूक्ष्म दृष्टान्त बतलाता हूँ, सुनो॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रमत्तो तथा धन्वी लक्ष्यं हन्ति समाहितः।
युक्तः सम्यक् तथा योगी मोक्षं प्राप्नोत्यसंशयम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
अप्रमत्तो तथा धन्वी लक्ष्यं हन्ति समाहितः।
युक्तः सम्यक् तथा योगी मोक्षं प्राप्नोत्यसंशयम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सदा सावधान रहनेवाला धनुर्धर वीर चित्तको एकाग्र करके बाण चलानेपर लक्ष्यको अवश्य बींध डालता है, उसी प्रकार जो योगी मनको परमात्माके ध्यानमें लगा देता है, वह निस्संदेह मोक्षको प्राप्त कर लेता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नेहपूर्णे यथा पात्रे मन आधाय निश्चलम्।
पुरुषो युक्त आरोहेत् सोपानं युक्तमानसः ॥ ३२ ॥
युक्तस्तथायमात्मानं योगः पार्थिव निश्चलम्।
करोत्यमलमात्मानं भास्करोपमदर्शनम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
स्नेहपूर्णे यथा पात्रे मन आधाय निश्चलम्।
पुरुषो युक्त आरोहेत् सोपानं युक्तमानसः ॥ ३२ ॥
युक्तस्तथायमात्मानं योगः पार्थिव निश्चलम्।
करोत्यमलमात्मानं भास्करोपमदर्शनम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! जैसे सिरपर रखे हुए तेलसे भरे पात्रकी ओर मनको स्थिरभावसे लगाये रखनेवाला पुरुष एकाग्रचित्त हो सीढ़ियोंपर चढ़ जाता है और जरा भी तेल नहीं छलकता, उसी तरह योगी भी योगयुक्त होकर जब आत्माको परमात्मामें स्थिर करता है, उस समय उसका आत्मा अत्यन्त निर्मल तथा अचल सूर्यके समान तेजस्वी हो जाता है॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च नावं कौन्तेय कर्णधारः समाहितः।
महार्णवगतां शीघ्रं नयेत् पार्थिवसत्तम ॥ ३४ ॥
तद्वदात्मसमाधानं युक्त्वा योगेन तत्त्ववित्।
दुर्गमें स्थानमाप्नोति हित्वा देहमिमं नृप ॥ ३५ ॥
मूलम्
यथा च नावं कौन्तेय कर्णधारः समाहितः।
महार्णवगतां शीघ्रं नयेत् पार्थिवसत्तम ॥ ३४ ॥
तद्वदात्मसमाधानं युक्त्वा योगेन तत्त्ववित्।
दुर्गमें स्थानमाप्नोति हित्वा देहमिमं नृप ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार! नृपश्रेष्ठ! जैसे सावधान नाविक समुद्रमें पड़ी हुई नौकाको शीघ्र ही किनारेपर लगा देता है, उसी प्रकार योगके अनुसार तत्त्वको जाननेवाला पुरुष समाधिके द्वारा मनको परमात्मामें लगाकर इस देहका त्याग करनेके अनन्तर दुर्गम स्थान (परमधाम) को प्राप्त होता है॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारथिश्च यथा युक्त्वा सदश्वान् सुसमाहितः।
देशमिष्टं नयत्याशु धन्विनं पुरुषर्षभ ॥ ३६ ॥
तथैव नृपते योगी धारणासु समाहितः।
प्राप्नोत्याशु परं स्थानं लक्षं मुक्त इवाशुगः ॥ ३७ ॥
मूलम्
सारथिश्च यथा युक्त्वा सदश्वान् सुसमाहितः।
देशमिष्टं नयत्याशु धन्विनं पुरुषर्षभ ॥ ३६ ॥
तथैव नृपते योगी धारणासु समाहितः।
प्राप्नोत्याशु परं स्थानं लक्षं मुक्त इवाशुगः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर! राजन्! जिस तरह अत्यन्त सावधान रहनेवाला सारथि अच्छे घोड़ोंको रथमें जोतकर धनुर्धर योद्धाको तुरंत ही अभीष्ट स्थानपर पहुँचा देता है, वैसे ही धारणाओंमें एकाग्रचित हुआ योगी लक्ष्यकी ओर छोड़े हुए बाणकी भाँति शीघ्र परम पदको प्राप्त हो जाता है॥३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवेश्यात्मनि चात्मानं योगी तिष्ठति योऽचलः।
पापं हन्ति पुनीतानां पदमाप्नोति सोऽजरम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
प्रवेश्यात्मनि चात्मानं योगी तिष्ठति योऽचलः।
पापं हन्ति पुनीतानां पदमाप्नोति सोऽजरम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो योगी समाधिके द्वारा आत्माको परमात्मामें स्थिर करके अचल हो जाता है, वह अपने पापको नष्ट कर देता है और पवित्र पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले अविनाशी पदको पा लेता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभ्यां कण्ठे च शीर्ष च हृदि वक्षसि पार्श्वयोः।
दर्शने श्रवणे चापि घ्राणे चामितविक्रम ॥ ३९ ॥
स्थानेष्वेतेषु यो योगी महाव्रतसमाहितः।
आत्मना सूक्ष्ममात्मानं युङ्क्ते सम्यग्विशाम्पते ॥ ४० ॥
स शीघ्रमचलप्रख्यं कर्म दग्ध्वा शुभाशुभम्।
उत्तमं योगमास्थाय यदीच्छति विमुच्यते ॥ ४१ ॥
मूलम्
नाभ्यां कण्ठे च शीर्ष च हृदि वक्षसि पार्श्वयोः।
दर्शने श्रवणे चापि घ्राणे चामितविक्रम ॥ ३९ ॥
स्थानेष्वेतेषु यो योगी महाव्रतसमाहितः।
आत्मना सूक्ष्ममात्मानं युङ्क्ते सम्यग्विशाम्पते ॥ ४० ॥
स शीघ्रमचलप्रख्यं कर्म दग्ध्वा शुभाशुभम्।
उत्तमं योगमास्थाय यदीच्छति विमुच्यते ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमित पराक्रमी नरेश! योगके महान् व्रतमें एकाग्रचित्त रहनेवाला जो योगी नाभि, कण्ठ, मस्तक, हृदय, वक्षःस्थल, पार्श्वभाग, नेत्र, कान और नासिका आदि स्थानोंमें धारणाके द्वारा सूक्ष्म आत्माको परमात्माके साथ भलीभाँति संयुक्त करता है, वह यदि इच्छा करे तो अपने पर्वताकार विशाल शुभाशुभ कर्मोंको शीघ्र ही भस्म करके उत्तम योगका आश्रय लेकर मुक्त हो जाता है॥३९—४१॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहारान् कीदृशान् कृत्वा कानि जित्वा च भारत।
योगी बलमवाप्नोति तद् भवान् वक्तुमर्हसि ॥ ४२ ॥
मूलम्
आहारान् कीदृशान् कृत्वा कानि जित्वा च भारत।
योगी बलमवाप्नोति तद् भवान् वक्तुमर्हसि ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतनन्दन! योगी कैसे आहार करके और किन-किनको जीतकर योगशक्ति प्राप्त कर लेता है, यह आप मुझे बतानेकी कृपा करें॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कणानां भक्षणे युक्तः पिण्याकस्य च भारत।
स्नेहानां वर्जने युक्तो योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४३ ॥
मूलम्
कणानां भक्षणे युक्तः पिण्याकस्य च भारत।
स्नेहानां वर्जने युक्तो योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भारत! जो धानकी खुद्दी और तिलकी खली खाता तथा घी-तेलका परित्याग कर देता है, उसी योगीको योगबलकी प्राप्ति होती है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुञ्जानो यावकं रूक्षं दीर्घकालमरिंदम।
एकाहारो विशुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४४ ॥
मूलम्
भुञ्जानो यावकं रूक्षं दीर्घकालमरिंदम।
एकाहारो विशुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन नरेश! जो दीर्घकालतक एक समय जौका रूखा दलिया खाता है, वह योगी शुद्धचित होकर योगबलकी प्राप्ति कर सकता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पक्षान् मासानृतूंश्चैतान् संवत्सरानहस्तथा ।
अपः पीत्वा पयोमिश्रा योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४५ ॥
मूलम्
पक्षान् मासानृतूंश्चैतान् संवत्सरानहस्तथा ।
अपः पीत्वा पयोमिश्रा योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो योगी दुग्धमिश्रित जलको दिनमें एक बार पीता है; फिर पंद्रह दिनोंमें एक बार पीता है। तत्पश्चात् एक महीनेमें, एक ऋतुमें और एक वर्षमें एक बार उसे ग्रहण करता है, उसको योगशक्ति प्राप्त होती है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखण्डमपि वा मांसं सततं मनुजेश्वर।
उपोष्य सम्यक् शुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४६ ॥
मूलम्
अखण्डमपि वा मांसं सततं मनुजेश्वर।
उपोष्य सम्यक् शुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जो लगातार जीवनभरके लिये मांस नहीं खाता है और विधिपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करके अपने अन्तःकरणको शुद्ध बना लेता है, वह योगी भी योगशक्ति प्राप्त कर लेता है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामं जित्वा तथा क्रोधं शीतोष्णे वर्षमेव च।
भयं शोकं तथा श्वासं पौरुषान् विषयांस्तथा ॥ ४७ ॥
अरतिं दुर्जयां चैव घोरां तृष्णां च पार्थिव।
स्पर्शं निद्रां तथा तन्द्रीं दुर्जयां नृपसत्तम ॥ ४८ ॥
दीपयन्ति महात्मानः सूक्ष्ममात्मानमात्मना ।
वीतरागा महाप्राज्ञा ध्यानाध्ययनसम्पदा ॥ ४९ ॥
मूलम्
कामं जित्वा तथा क्रोधं शीतोष्णे वर्षमेव च।
भयं शोकं तथा श्वासं पौरुषान् विषयांस्तथा ॥ ४७ ॥
अरतिं दुर्जयां चैव घोरां तृष्णां च पार्थिव।
स्पर्शं निद्रां तथा तन्द्रीं दुर्जयां नृपसत्तम ॥ ४८ ॥
दीपयन्ति महात्मानः सूक्ष्ममात्मानमात्मना ।
वीतरागा महाप्राज्ञा ध्यानाध्ययनसम्पदा ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! नृपश्रेष्ठ! काम, क्रोध, सर्दी, गर्मी, वर्षा, भय, शोक, श्वास, मनुष्योंको प्रिय लगनेवाले विषय, दुर्जय असंतोष, घोर तृष्णा, स्पर्श, निद्रा तथा दुर्जय आलस्यको जीतकर वीतराग, महान् एवं उत्तम बुद्धिसे युक्त महात्मा योगी स्वाध्याय तथा ध्यानका सम्पादन करके बुद्धिके द्वारा सूक्ष्म आत्माका साक्षात्कार कर लेते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्गस्त्वेष मतः पन्था ब्राह्मणानां विपश्चिताम्।
यः कश्चिद् व्रजति ह्यस्मिन् क्षेमेण भरतर्षभ ॥ ५० ॥
मूलम्
दुर्गस्त्वेष मतः पन्था ब्राह्मणानां विपश्चिताम्।
यः कश्चिद् व्रजति ह्यस्मिन् क्षेमेण भरतर्षभ ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! विद्वान् ब्राह्मणोंने योगके इस मार्गको दुर्गम माना है। कोई बिरला ही इस मार्गको कुशलपूर्वक तै कर सकता है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा कश्चिद् वनं घोरं बहुसर्पसरीसृपम्।
श्वभ्रवत् तोयहीनं च दुर्गमें बहुकण्टकम् ॥ ५१ ॥
अभक्तमटवीप्रायं दावदग्धमहीरुहम् ।
पन्थानं तस्कराकीर्णं क्षेमेणाभिपतेद् युवा ॥ ५२ ॥
योगमार्गं तथाऽऽसाद्य यः कश्चिद् व्रजते द्विजः।
क्षेमेणोपरमेन्मार्गाद् बहुदोषो हि स स्मृतः ॥ ५३ ॥
मूलम्
यथा कश्चिद् वनं घोरं बहुसर्पसरीसृपम्।
श्वभ्रवत् तोयहीनं च दुर्गमें बहुकण्टकम् ॥ ५१ ॥
अभक्तमटवीप्रायं दावदग्धमहीरुहम् ।
पन्थानं तस्कराकीर्णं क्षेमेणाभिपतेद् युवा ॥ ५२ ॥
योगमार्गं तथाऽऽसाद्य यः कश्चिद् व्रजते द्विजः।
क्षेमेणोपरमेन्मार्गाद् बहुदोषो हि स स्मृतः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई-कोई बिरला नवयुवक ही अनेकानेक सर्पों तथा विच्छू आदिसे भरे हुए गड्ढ़ों और बहुत-से काँटोंवाले, जलशून्य, दुर्गम एवं घोर वनमें सकुशल यात्रा कर सकता है तथा जहाँ भोजन मिलना असम्भव है, जिसमें प्रायः जंगल-ही-जंगल पड़ता है, जहाँके वृक्ष दावानलसे जलकर भस्म हो गये हैं तथा जो चोर-डाकुओंसे भरा हुआ है, ऐसे मार्गको सकुशल तै कर सकता है; उसी प्रकार योगमार्गका आश्रय लेकर कोई बिरला ही द्विज उसपर कुशलपूर्वक चल पाता है, क्योंकि वह बहुत-से दोषों (कठिनाइयों)-से भरा हुआ बताया गया है॥५१—५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुस्थेयं क्षुरधारासु निशितासु महीपते।
धारणासु तु योगस्य दुःस्थेयमकृतात्मभिः ॥ ५४ ॥
मूलम्
सुस्थेयं क्षुरधारासु निशितासु महीपते।
धारणासु तु योगस्य दुःस्थेयमकृतात्मभिः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपते! छुरेकी तीखी धारपर कोई सुखपूर्वक खड़ा रह सकता है; किंतु जिनका चित्त शुद्ध नहीं है, ऐसे मनुष्योंका योगकी धारणाओंमें स्थिर रहना नितान्त कठिन है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विपन्ना धारणास्तात नयन्ति न शुभां गतिम्।
नेतृहीना यथा नावः पुरुषानर्णवे नृप ॥ ५५ ॥
मूलम्
विपन्ना धारणास्तात नयन्ति न शुभां गतिम्।
नेतृहीना यथा नावः पुरुषानर्णवे नृप ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! नरेश्वर! जैसे समुद्रमें बिना नाविककी नाव मनुष्योंको पार नहीं लगा सकती, उसी प्रकार यदि योगकी धारणाएँ सिद्ध न हुईं तो वे शुभगतिकी प्राप्ति नहीं करा सकतीं॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु तिष्ठति कौन्तेय धारणासु यथाविधि।
मरणं जन्म दुःखं च सुखं च स विमुञ्चति॥५६॥
मूलम्
यस्तु तिष्ठति कौन्तेय धारणासु यथाविधि।
मरणं जन्म दुःखं च सुखं च स विमुञ्चति॥५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जो विधिपूर्वक योगकी धारणाओंमें स्थिर रहता है, वह जन्म, मृत्यु, दुःख और सुखके बन्धनोंसे छुटकारा पा जाता है॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाशास्त्रेषु निष्पन्नं योगेष्विदमुदाहृतम् ।
परं योगस्य यत् कृत्यं निश्चितं तद् द्विजातिषु ॥ ५७ ॥
मूलम्
नानाशास्त्रेषु निष्पन्नं योगेष्विदमुदाहृतम् ।
परं योगस्य यत् कृत्यं निश्चितं तद् द्विजातिषु ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मैंने तुम्हें योगविषयक नाना शास्त्रोंका सिद्धान्त बतलाया है। योग-साधनाका जो-जो कृत्य है, वह द्विजातियोंके लिये ही निश्चित किया गया है अर्थात् उन्हींका उसमें अधिकार है॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परं हि तद् ब्रह्म महन्महात्मन्
ब्रह्माणमीशं वरदं च विष्णुम्।
भवं च धर्मं च षडाननं च
यद् ब्रह्मपुत्रांश्च महानुभावान् ॥ ५८ ॥
तमश्च कष्टं सुमहद् रजश्च
सत्त्वं विशुद्धं प्रकृतिं परां च।
सिद्धिं च देवीं वरुणस्य पत्नीं
तेजश्च कृत्स्नं सुमहच्च धैर्यम् ॥ ५९ ॥
ताराधिपं खे विमलं सतारं
विश्वांश्व देवानुरगान् पितॄंश्च ।
शैलांश्च कृत्स्नानुदधींश्च घोरान्
नदीश्च सर्वाः सवनान् घनांश्च ॥ ६० ॥
नागान् नगान् यक्षगणान् दिशश्च
गन्धर्वसंघान् पुरुषान् स्त्रियश्च ।
परस्परं प्राप्य महान्महात्मा
विशेत योगी न चिराद् विमुक्तः ॥ ६१ ॥
मूलम्
परं हि तद् ब्रह्म महन्महात्मन्
ब्रह्माणमीशं वरदं च विष्णुम्।
भवं च धर्मं च षडाननं च
यद् ब्रह्मपुत्रांश्च महानुभावान् ॥ ५८ ॥
तमश्च कष्टं सुमहद् रजश्च
सत्त्वं विशुद्धं प्रकृतिं परां च।
सिद्धिं च देवीं वरुणस्य पत्नीं
तेजश्च कृत्स्नं सुमहच्च धैर्यम् ॥ ५९ ॥
ताराधिपं खे विमलं सतारं
विश्वांश्व देवानुरगान् पितॄंश्च ।
शैलांश्च कृत्स्नानुदधींश्च घोरान्
नदीश्च सर्वाः सवनान् घनांश्च ॥ ६० ॥
नागान् नगान् यक्षगणान् दिशश्च
गन्धर्वसंघान् पुरुषान् स्त्रियश्च ।
परस्परं प्राप्य महान्महात्मा
विशेत योगी न चिराद् विमुक्तः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मन्! योगसिद्ध महात्मा पुरुष यदि चाहे तो तुरंत ही मुक्त होकर महान् परब्रह्मके स्वरूपको प्राप्त कर लेता है अथवा वह अपने योगबलसे भगवान् ब्रह्मा, वरदायक विष्णु, महादेवजी, धर्म, छः मुखोंवाले कार्त्तिकेय, ब्रह्माजीके महानुभाव पुत्र सनकादि, कष्ट-दायक तमोगुण, महान् रजोगुण, विशुद्ध सत्त्वगुण, मूल प्रकृति, वरुणपत्नी सिद्धिदेवी, सम्पूर्ण तेज, महान् धैर्य, ताराओंसहित आकाशमें प्रकाशित होनेवाले निर्मल तारापति चन्द्रमा, विश्वेदेव, नाग, पितर, सम्पूर्ण पर्वत, भयंकर समुद्र, सम्पूर्ण नदी-समुदाय, वन, मेघ, नाग, वृक्ष, यक्ष, दिशा, गन्धर्वगण, समस्त पुरुष और स्त्री—इनमेंसे प्रत्येकके पास पहुँचकर उसके भीतर प्रवेश कर सकता है॥५८—६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथा च येयं नृपते प्रसक्ता
देवे महावीर्यमतौ शुभेयम् ।
योगी स सर्वानभिभूय मर्त्यान्
नारायणात्मा कुरुते महात्मा ॥ ६२ ॥
मूलम्
कथा च येयं नृपते प्रसक्ता
देवे महावीर्यमतौ शुभेयम् ।
योगी स सर्वानभिभूय मर्त्यान्
नारायणात्मा कुरुते महात्मा ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! महान् बल और बुद्धिसे सम्पन्न परमात्मासे सम्बन्ध रखनेवाली यह कल्याणमयी वार्ता मैंने प्रसंगवश तुम्हें सुनायी है। योगसिद्ध महात्मा पुरुष सब मनुष्योंसे ऊपर उठकर नारायणस्वरूप हो जाता है और संकल्पमात्रसे सृष्टि करने लगता है॥६२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि योगविधौ त्रिशततमोऽध्यायः ॥ ३०० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें योगविधिविषयक तीन सौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३००॥