२९९ हंसगीतासमाप्तौ

भागसूचना

नवनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

हंसगीता-हंसरूपधारी ब्रह्माका साध्यगणोंको उपदेश

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं दमं क्षमां प्रज्ञां प्रशंसन्ति पितामह।
विद्वांसो मनुजा लोके कथमेतन्मतं तव ॥ १ ॥

मूलम्

सत्यं दमं क्षमां प्रज्ञां प्रशंसन्ति पितामह।
विद्वांसो मनुजा लोके कथमेतन्मतं तव ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! संसारमें बहुत-से विद्वान् सत्य, इन्द्रिय-संयम, क्षमा और प्रज्ञा (उत्तम बुद्धि)-की प्रशंसा करते हैं। इस विषयमें आपका कैसा मत है?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्।
साध्यानामिह संवादं हंसस्य च युधिष्ठिर ॥ २ ॥

मूलम्

अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्।
साध्यानामिह संवादं हंसस्य च युधिष्ठिर ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें साध्यगणोंका हंसके साथ जो संवाद हुआ था, वही प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें सुना रहा हूँ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसो भूत्वाथ सौवर्णस्त्वजो नित्यः प्रजापतिः।
स वै पर्येति लोकांस्त्रीनथ साध्यानुपागमत् ॥ ३ ॥

मूलम्

हंसो भूत्वाथ सौवर्णस्त्वजो नित्यः प्रजापतिः।
स वै पर्येति लोकांस्त्रीनथ साध्यानुपागमत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समय नित्य अजन्मा प्रजापति सुवर्णमय हंसका रूप धारण करके तीनों लोकोंमें विचर रहे थे। घूमते-घामते वे साध्यगणोंके पास जा पहुँचे॥३॥

मूलम् (वचनम्)

साध्या ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकुने वयं स्म देवा वै साध्यास्त्वामनुयुङ्क्ष्महे।
पृच्छामस्त्वां मोक्षधर्मं भवांश्च किल मोक्षवित् ॥ ४ ॥

मूलम्

शकुने वयं स्म देवा वै साध्यास्त्वामनुयुङ्क्ष्महे।
पृच्छामस्त्वां मोक्षधर्मं भवांश्च किल मोक्षवित् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय साध्योंने कहा— हंस! हमलोग साध्य देवता हैं और आपसे मोक्षधर्मके विषयमें प्रश्न करना चाहते हैं; क्योंकि आप मोक्ष-तत्त्वके ज्ञाता हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतोऽसि नः पण्डितो धीरवादी
साधुशब्दश्चरते ते पतत्रिन् ।
किं मन्यसे श्रेष्ठतमं द्विज त्वं
कस्मिन् मनस्ते रमते महात्मन् ॥ ५ ॥

मूलम्

श्रुतोऽसि नः पण्डितो धीरवादी
साधुशब्दश्चरते ते पतत्रिन् ।
किं मन्यसे श्रेष्ठतमं द्विज त्वं
कस्मिन् मनस्ते रमते महात्मन् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मन्! हमने सुना है कि आप पण्डित और धीर वक्ता हैं। पतत्रिन्! आपकी उत्तम वाणीका सर्वत्र प्रचार है। पक्षिप्रवर! आपके मतमें सर्वश्रेष्ठ वस्तु क्या है? आपका मन किसमें रमता है?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्नः कार्यं पक्षिवर प्रशाधि
यत् कार्याणां मन्यसे श्रेष्ठमेकम्।
यत् कृत्वा वै पुरुषः सर्वबन्धै-
र्विमुच्यते विहगेन्द्रेह शीघ्रम् ॥ ६ ॥

मूलम्

तन्नः कार्यं पक्षिवर प्रशाधि
यत् कार्याणां मन्यसे श्रेष्ठमेकम्।
यत् कृत्वा वै पुरुषः सर्वबन्धै-
र्विमुच्यते विहगेन्द्रेह शीघ्रम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षिराज! खगश्रेष्ठ! समस्त कार्योंमेंसे जिस एक कार्यको आप सबसे उत्तम समझते हों तथा जिसके करनेसे जीवको सब प्रकारके बन्धनोंसे शीघ्र छुटकारा मिल सके, उसीका हमें उपदेश कीजिये॥६॥

मूलम् (वचनम्)

हंस उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं कार्यममृताशाः शृणोमि
तपो दमः सत्यमात्माभिगुप्तिः ।
ग्रन्थीन् विमुच्य हृदयस्य सर्वान्
प्रियाप्रिये स्वं वशमानयीत ॥ ७ ॥

मूलम्

इदं कार्यममृताशाः शृणोमि
तपो दमः सत्यमात्माभिगुप्तिः ।
ग्रन्थीन् विमुच्य हृदयस्य सर्वान्
प्रियाप्रिये स्वं वशमानयीत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हंसने कहा— अमृतभोजी देवताओ! मैं तो सुनता हूँ कि तप, इन्द्रियसंयम, सत्यभाषण और मनोनिग्रह आदि कार्य ही सबसे उत्तम हैं। हदयकी सारी गाँठें खोलकर प्रिय और अप्रियको अपने वशमें करे अर्थात् उनके लिये हर्ष एवं विषाद न करे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेद्‌रुषतीं पापलोक्याम् ॥ ८ ॥

मूलम्

नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेद्‌रुषतीं पापलोक्याम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीके मर्ममें आघात न पहुँचाये। दूसरोंसे निष्ठुर वचन न बोले। किसी नीच मनुष्यसे अध्यात्मशास्त्रका उपदेश न ग्रहण करे तथा जिसे सुनकर दूसरोंको उद्वेग हो, ऐसी नरकमें डालनेवाली अमंगलमयी बात भी मुँहसे न निकाले॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु ॥ ९ ॥

मूलम्

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वचनरूपी बाण जब मुँहसे निकल पड़ते हैं, तब उनके द्वारा बींधा गया मनुष्य रात-दिन शोकमें डूबा रहता है; क्योंकि वे दूसरोंके मर्मपर आघात पहुँचाते हैं, इसलिये विद्वान् पुरुषको किसी दूसरे मनुष्यपर वाग्बाणका प्रयोग नहीं करना चाहिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परश्चेदेनमतिवादबाणै-
र्भृशं विध्येच्छम एवेह कार्यः।
संरोष्यमाणः प्रतिहृष्यते यः
स आदत्ते सुकृतं वै परस्य ॥ १० ॥

मूलम्

परश्चेदेनमतिवादबाणै-
र्भृशं विध्येच्छम एवेह कार्यः।
संरोष्यमाणः प्रतिहृष्यते यः
स आदत्ते सुकृतं वै परस्य ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरा कोई भी यदि इस विद्वान् पुरुषको कटु-वचनरूपी बाणोंसे बहुत अधिक चोट पहुँचाये तो भी उसे शान्त ही रहना चाहिये। जो दूसरोंके क्रोध करनेपर भी स्वयं बदलेमें प्रसन्न ही रहता है, वह उसके पुण्यको ग्रहण कर लेता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षेपायमाणमभिषङ्गव्यलीकं
निगृह्णाति ज्वलितं यश्च मन्युम्।
अदुष्टचेता मुदितोऽनसूयुः
स आदत्ते सुकृतं वै परेषाम् ॥ ११ ॥

मूलम्

क्षेपायमाणमभिषङ्गव्यलीकं
निगृह्णाति ज्वलितं यश्च मन्युम्।
अदुष्टचेता मुदितोऽनसूयुः
स आदत्ते सुकृतं वै परेषाम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जगत्‌में निन्दा करानेवाले और आवेशमें डालनेके कारण अप्रिय प्रतीत होनेवाले प्रज्वलित क्रोधको रोक लेता है, चित्तमें कोई विकार या दोष नहीं आने देता, प्रसन्न रहता और दूसरोंके दोष नहीं देखता है, वह पुरुष अपने प्रति शत्रुभाव रखनेवाले लोगोंके पुण्य ले लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आक्रुश्यमानो न वदामि किंचित्
क्षमाम्यहं ताड्यमानश्च नित्यम् ।
श्रेष्ठं ह्येतद् यत्क्षमामाहुरार्याः
सत्यं तथैवार्जवमानृशंस्यम् ॥ १२ ॥

मूलम्

आक्रुश्यमानो न वदामि किंचित्
क्षमाम्यहं ताड्यमानश्च नित्यम् ।
श्रेष्ठं ह्येतद् यत्क्षमामाहुरार्याः
सत्यं तथैवार्जवमानृशंस्यम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे कोई गाली दे तो भी बदलेमें कुछ नहीं कहता हूँ। कोई मार दे तो उसे सदा क्षमा ही करता हूँ; क्योंकि श्रेष्ठ जन क्षमा, सत्य, सरलता और दयाको ही उत्तम बताते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदस्योपनिषत् सत्यं सत्यस्योपनिषद् दमः।
दमस्योपनिषन्मोक्ष एतत् सर्वानुशासनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

वेदस्योपनिषत् सत्यं सत्यस्योपनिषद् दमः।
दमस्योपनिषन्मोक्ष एतत् सर्वानुशासनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदाध्ययनका सार है सत्यभाषण, सत्यभाषणका सार है इन्द्रियसंयम और इन्द्रियसंयमका फल है मोक्ष। यही सम्पूर्ण शास्त्रोंका उपदेश है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं
विधित्सावेगमुदरोपस्थवेगम् ।
एतान् वेगान् यो विषहेदुदीर्णां-
स्तं मन्येऽहं ब्राह्मणं वै मुनिं च ॥ १४ ॥

मूलम्

वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं
विधित्सावेगमुदरोपस्थवेगम् ।
एतान् वेगान् यो विषहेदुदीर्णां-
स्तं मन्येऽहं ब्राह्मणं वै मुनिं च ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वाणीका वेग, मन और क्रोधका वेग, तृष्णाका वेग तथा पेट और जननेन्द्रियका वेग—इन सब प्रचण्ड वेगोंको सह लेता है, उसीको मैं ब्रह्मवेत्ता और मुनि मानता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्रोधनः क्रुध्यतां वै विशिष्ट-
स्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः ।
अमानुषान्मानुषो वै विशिष्ट-
स्तथाज्ञानाज्ज्ञानविद् वै विशिष्टः ॥ १५ ॥

मूलम्

अक्रोधनः क्रुध्यतां वै विशिष्ट-
स्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः ।
अमानुषान्मानुषो वै विशिष्ट-
स्तथाज्ञानाज्ज्ञानविद् वै विशिष्टः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधी मनुष्योंसे क्रोध न करनेवाला मनुष्य श्रेष्ठ है। असहनशीलसे सहनशील पुरुष बड़ा है। मनुष्येतर प्राणियोंसे मनुष्य ही बढ़कर है तथा अज्ञानीसे ज्ञानवान् ही श्रेष्ठ है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आक्रुश्यमानो नाक्रुश्येन्मन्युरेनं तितिक्षतः ।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥ १६ ॥

मूलम्

आक्रुश्यमानो नाक्रुश्येन्मन्युरेनं तितिक्षतः ।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूसरेके द्वारा गाली दी जानेपर भी बदलेमें उसे गाली नहीं देता, उस क्षमाशील मनुष्यका दबा हुआ क्रोध ही उस गाली देनेवालेको भस्म कर देता है और उसके पुण्यको भी ले लेता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो नात्युक्तः प्राह रूक्षं प्रियं वा
यो वा हतो न प्रतिहन्ति धैर्यात्।
पापं च यो नेच्छति तस्य हन्तु-
स्तस्येह देवाः स्पृहयन्ति नित्यम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यो नात्युक्तः प्राह रूक्षं प्रियं वा
यो वा हतो न प्रतिहन्ति धैर्यात्।
पापं च यो नेच्छति तस्य हन्तु-
स्तस्येह देवाः स्पृहयन्ति नित्यम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूसरोंके द्वारा अपने लिये कड़वी बात कही जानेपर भी उसके प्रति कठोर या प्रिय कुछ भी नहीं कहता तथा किसीके द्वारा चोट खाकर भी धैर्यके कारण बदलेमें न तो मारनेवालेको मारता है और न उसकी बुराई ही चाहता है, उस महात्मासे मिलनेके लिये देवता भी सदा लालायित रहते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापीयसः क्षमेतैव श्रेयसः सदृशस्य च।
विमानितो हतोत्क्रुष्ट एवं सिद्धिं गमिष्यति ॥ १८ ॥

मूलम्

पापीयसः क्षमेतैव श्रेयसः सदृशस्य च।
विमानितो हतोत्क्रुष्ट एवं सिद्धिं गमिष्यति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाप करनेवाला अपराधी अवस्थामें अपनेसे बड़ा हो या बराबर, उसके द्वारा अपमानित होकर, मार खाकर और गाली सुनकर भी उसे क्षमा ही कर देना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष परम सिद्धिको प्राप्त होगा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदाहमार्यान्निभृतोऽप्युपासे
न मे विधित्सोत्सहते न रोषः।
न वाप्यहं लिप्समानः परैमि
न चैव किंचिद् विषयेण यामि ॥ १९ ॥

मूलम्

सदाहमार्यान्निभृतोऽप्युपासे
न मे विधित्सोत्सहते न रोषः।
न वाप्यहं लिप्समानः परैमि
न चैव किंचिद् विषयेण यामि ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि मैं सब प्रकारसे परिपूर्ण हूँ (मुझे कुछ जानना या पाना शेष नहीं है) तो भी मैं श्रेष्ठ पुरुषोंकी उपासना (सत्संग) करता रहता हूँ। मुझपर न तृष्णाका वश चलता है न रोषका। मैं कुछ पानेके लोभसे धर्मका उल्लंघन नहीं करता और न विषयोंकी प्राप्तिके लिये ही कहीं आता-जाता हूँ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं शप्तः प्रतिशपामि कंचिद्
दमं द्वारं ह्यमृतस्येह वेद्मि।
गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि
न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित् ॥ २० ॥

मूलम्

नाहं शप्तः प्रतिशपामि कंचिद्
दमं द्वारं ह्यमृतस्येह वेद्मि।
गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि
न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई मुझे शाप दे दे तो भी मैं बदलेमें उसे शाप नहीं देता। इन्द्रियसंयमको ही मोक्षका द्वार मानता हूँ। इस समय तुमलोगोंको एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ, सुनो। मनुष्ययोनिसे बढ़कर कोई उत्तम योनि नहीं है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्मुच्यमानः पापेभ्यो घनेभ्य इव चन्द्रमाः।
विरजाः कालमाकाङ्‌क्षन् धीरो धैर्येण सिद्ध्यति ॥ २१ ॥

मूलम्

निर्मुच्यमानः पापेभ्यो घनेभ्य इव चन्द्रमाः।
विरजाः कालमाकाङ्‌क्षन् धीरो धैर्येण सिद्ध्यति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार चन्द्रमा बादलोंके ओटसे निकलनेपर अपनी प्रभासे प्रकाशित हो उठता है, उसी प्रकार पापोंसे मुक्त हुआ निर्मल अन्तःकरणवाला धीर पुरुष धैर्यपूर्वक कालकी प्रतीक्षा करता हुआ सिद्धिको प्राप्त हो जाता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः सर्वेषां भवति ह्यर्चनीय
उत्सेधनस्तम्भ इवाभिजातः ।
यस्मै वाचं सुप्रसन्नां वदन्ति
स वै देवान् गच्छति संयतात्मा ॥ २२ ॥

मूलम्

यः सर्वेषां भवति ह्यर्चनीय
उत्सेधनस्तम्भ इवाभिजातः ।
यस्मै वाचं सुप्रसन्नां वदन्ति
स वै देवान् गच्छति संयतात्मा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने मनको वशमें रखनेवाला विद्वान् पुरुष ऊँचे उठानेवाले खम्भेकी भाँति उच्चकुलमें उत्पन्न हुआ सबके लिये आदरके योग्य हो जाता है तथा जिसके प्रति सब लोग प्रसन्नतापूर्वक मधुर वचन बोलते हैं, वह मनुष्य देवभावको प्राप्त हो जाता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तथा वक्तुमिच्छन्ति कल्याणान् पुरुषे गुणान्।
यथैषां वक्तुमिच्छन्ति नैर्गुण्यमनुयुञ्जकाः ॥ २३ ॥

मूलम्

न तथा वक्तुमिच्छन्ति कल्याणान् पुरुषे गुणान्।
यथैषां वक्तुमिच्छन्ति नैर्गुण्यमनुयुञ्जकाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीसे ईर्ष्या रखनेवाले मनुष्य जिस तरह उसके दोषोंका वर्णन करना चाहते हैं, उस प्रकार उसके कल्याणमय गुणोंका बखान करना नहीं चाहते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य वाङ्‌मनसी गुप्ते सम्यक् प्रणिहिते सदा।
वेदास्तपश्च त्यागश्च स इदं सर्वमाप्नुयात् ॥ २४ ॥

मूलम्

यस्य वाङ्‌मनसी गुप्ते सम्यक् प्रणिहिते सदा।
वेदास्तपश्च त्यागश्च स इदं सर्वमाप्नुयात् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी वाणी और मन सुरक्षित होकर सदा सब प्रकारसे परमात्मामें लगे रहते हैं, वह वेदाध्ययन, तप और त्याग—इन सबके फलको पा लेता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आक्रोशनविमानाभ्यां नाबुधान् बोधयेद् बुधः।
तस्मान्न वर्धयेदन्यं न चात्मानं विहिंसयेत् ॥ २५ ॥

मूलम्

आक्रोशनविमानाभ्यां नाबुधान् बोधयेद् बुधः।
तस्मान्न वर्धयेदन्यं न चात्मानं विहिंसयेत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः समझदार मनुष्यको चाहिये कि वह कटुवचन कहने या अपमान करनेवाले अज्ञानियोंको उनके उक्त दोष बताकर समझानेका प्रयत्न न करे। उसके सामने दूसरेको बढ़ावा न दे तथा उसपर आक्षेप करके उसके द्वारा अपनी हिंसा न कराये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमृतस्येव संतृप्येदवमानस्य पण्डितः ।
सुखं ह्यवमतः शेते योऽवमन्ता स नश्यति ॥ २६ ॥

मूलम्

अमृतस्येव संतृप्येदवमानस्य पण्डितः ।
सुखं ह्यवमतः शेते योऽवमन्ता स नश्यति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान्‌को चाहिये कि वह अपमान पाकर अमृत पीनेकी भाँति संतुष्ट हो; क्योंकि अपमानित पुरुष तो सुखसे सोता है, किंतु अपमान करनेवालेका नाश हो जाता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् क्रोधनो यजति यद् ददाति
यद् वा तपस्तप्यति यज्जुहोति।
वैवस्वतस्तद्धरतेऽस्य सर्वं
मोघः श्रमो भवति हि क्रोधनस्य ॥ २७ ॥

मूलम्

यत् क्रोधनो यजति यद् ददाति
यद् वा तपस्तप्यति यज्जुहोति।
वैवस्वतस्तद्धरतेऽस्य सर्वं
मोघः श्रमो भवति हि क्रोधनस्य ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधी मनुष्य जो यज्ञ करता है, दान देता है, तप करता है अथवा जो हवन करता है, उसके उन सब कर्मोंके फलको यमराज हर लेते हैं। क्रोध करनेवालेका वह किया हुआ सारा परिश्रम व्यर्थ जाता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चत्वारि यस्य द्वाराणि सुगुप्तान्यमरोत्तमाः।
उपस्थमुदरं हस्तौ वाक् चतुर्थी स धर्मवित् ॥ २८ ॥

मूलम्

चत्वारि यस्य द्वाराणि सुगुप्तान्यमरोत्तमाः।
उपस्थमुदरं हस्तौ वाक् चतुर्थी स धर्मवित् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वरो! जिस पुरुषके उपस्थ, उदर, दोनों हाथ और वाणी—ये चारों द्वार सुरक्षित होते हैं, वही धर्मज्ञ है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं दमं ह्यार्जवमानृशंस्यं
धृतिं तितिक्षामतिसेवमानः ।
स्वाध्यायनित्योऽस्पृहयन् परेषा-
मेकान्तशील्यूर्ध्वगतिर्भवेत् सः ॥ २९ ॥

मूलम्

सत्यं दमं ह्यार्जवमानृशंस्यं
धृतिं तितिक्षामतिसेवमानः ।
स्वाध्यायनित्योऽस्पृहयन् परेषा-
मेकान्तशील्यूर्ध्वगतिर्भवेत् सः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सत्य, इन्द्रिय-संयम, सरलता, दया, धैर्य और क्षमाका अधिक सेवन करता है, सदा स्वाध्यायमें लगा रहता है, दूसरेकी वस्तु नहीं लेना चाहता तथा एकान्तमें निवास करता है, वह ऊर्ध्वगतिको प्राप्त होता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वांश्चैनाननुचरन् वत्सवच्चतुरः स्तनान् ।
न पावनतमं किंचित् सत्यादध्यगमं क्वचित् ॥ ३० ॥

मूलम्

सर्वांश्चैनाननुचरन् वत्सवच्चतुरः स्तनान् ।
न पावनतमं किंचित् सत्यादध्यगमं क्वचित् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बछड़ा अपनी माताके चारों स्तनोंका पान करता है, उसी प्रकार मनुष्यको उपर्युक्त सभी सद्‌गुणोंका सेवन करना चाहिये। मैंने अबतक सत्यसे बढ़कर परम पावन वस्तु कहीं किसीको नहीं समझा है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचक्षेऽहं मनुष्येभ्यो देवेभ्यः प्रतिसंचरन्।
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव ॥ ३१ ॥

मूलम्

आचक्षेऽहं मनुष्येभ्यो देवेभ्यः प्रतिसंचरन्।
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं चारों ओर घूमकर मनुष्यों और देवताओंसे कहा करता हूँ कि जैसे जहाज समुद्रसे पार होनेका साधन है, उसी प्रकार सत्य ही स्वर्गलोकमें पहुँचनेकी सीढ़ी है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादृशैः संनिवसति यादृशांश्चोपसेवते ।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पूरुषः ॥ ३२ ॥

मूलम्

यादृशैः संनिवसति यादृशांश्चोपसेवते ।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पूरुषः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुष जैसे लोगोंके साथ रहता है, जैसे मनुष्योंका सेवन करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही होता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं
तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।
वासो यथा रंगवशं प्रयाति
तथा स तेषां वशमभ्युपैति ॥ ३३ ॥

मूलम्

यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं
तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।
वासो यथा रंगवशं प्रयाति
तथा स तेषां वशमभ्युपैति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वस्त्र जिस रंगमें रँगा जाय, वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोरका सेवन करता है तो वह उन्हीं-जैसा हो जाता है अर्थात् उसपर उन्हींका रंग चढ़ जाता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा देवाः साधुभिः संवदन्ते
न मानुषं विषयं यान्ति द्रष्टुम्।
नेन्दुः समः स्यादसमो हि वायु-
रुच्चावचं विषयं यः स वेद ॥ ३४ ॥

मूलम्

सदा देवाः साधुभिः संवदन्ते
न मानुषं विषयं यान्ति द्रष्टुम्।
नेन्दुः समः स्यादसमो हि वायु-
रुच्चावचं विषयं यः स वेद ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवतालोग सदा सत्पुरुषोंका संग—उन्हींके साथ वार्तालाप करते हैं; इसीलिये वे मनुष्योंके क्षणभंगुर भोगोंकी ओर देखने भी नहीं जाते। जो विभिन्न विषयोंके नश्वर स्वभावको ठीक-ठीक जानता है, उसकी समानता न चन्द्रमा कर सकते हैं न वायु॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदुष्टं वर्तमाने तु हृदयान्तरपूरुषे।
तेनैव देवाः प्रीयन्ते सतां मार्गस्थितेन वै ॥ ३५ ॥

मूलम्

अदुष्टं वर्तमाने तु हृदयान्तरपूरुषे।
तेनैव देवाः प्रीयन्ते सतां मार्गस्थितेन वै ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदयगुफामें रहनेवाला अन्तर्यामी आत्मा जब दोषभावसे रहित हो जाता है, उस अवस्थामें उसका साक्षात्कार करनेवाला पुरुष सन्मार्गगामी समझा जाता है। उसकी इस स्थितिसे ही देवता प्रसन्न होते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिश्नोदरे ये निरताः सदैव
स्तेना नरा वाक्परुषाश्च नित्यम्।
अपेतदोषानपि तान् विदित्वा
दूराद् देवाः सम्परिवर्जयन्ति ॥ ३६ ॥

मूलम्

शिश्नोदरे ये निरताः सदैव
स्तेना नरा वाक्परुषाश्च नित्यम्।
अपेतदोषानपि तान् विदित्वा
दूराद् देवाः सम्परिवर्जयन्ति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु जो सदा पेट पालने और उपस्थ-इन्द्रियोंके भोग भोगनेमें ही लगे रहते हैं तथा जो चोरी करने एवं सदा कठोर वचन बोलनेवाले हैं, वे यदि प्रायश्चित्त आदिके द्वारा उक्त कर्मोंके दोषसे छूट जायँ तो भी देवतालोग उन्हें पहचानकर दूरसे ही त्याग देते हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वै देवा हीनसत्त्वेन तोष्याः
सर्वाशिना दुष्कृतकर्मणा वा ।
सत्यव्रता ये तु नराः कृतज्ञा
धर्मे रतास्तैः सह सम्भजन्ते ॥ ३७ ॥

मूलम्

न वै देवा हीनसत्त्वेन तोष्याः
सर्वाशिना दुष्कृतकर्मणा वा ।
सत्यव्रता ये तु नराः कृतज्ञा
धर्मे रतास्तैः सह सम्भजन्ते ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्त्वगुणसे रहित और सब कुछ भक्षण करनेवाले पापाचारी मनुष्य देवताओंको संतुष्ट नहीं कर सकते। जो मनुष्य नियमपूर्वक सत्य बोलनेवाले, कृतज्ञ और धर्मपरायण हैं, उन्हींके साथ देवता स्नेह-सम्बन्ध स्थापित करते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः
सत्यं वदेद् व्याहृतं तद् द्वितीयम्।
धर्मं वदेद् व्याहृतं तत् तृतीयं
प्रियं वदेद् व्याहृतं तच्चतुर्थम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः
सत्यं वदेद् व्याहृतं तद् द्वितीयम्।
धर्मं वदेद् व्याहृतं तत् तृतीयं
प्रियं वदेद् व्याहृतं तच्चतुर्थम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यर्थ बोलनेकी अपेक्षा मौन रहना अच्छा बताया गया है, (यह वाणीकी प्रथम विशेषता है) सत्य बोलना वाणीकी दूसरी विशेषता है, प्रिय बोलना वाणीकी तीसरी विशेषता है। धर्मसम्मत बोलना यह वाणीकी चौथी विशेषता है (इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठता है)॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

साध्या ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनायमावृतो लोकः केन वा न प्रकाशते।
केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति ॥ ३९ ॥

मूलम्

केनायमावृतो लोकः केन वा न प्रकाशते।
केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साध्योंने पूछा— हंस! इस जगत्‌को किसने आवृत कर रक्खा है? किस कारणसे उसका स्वरूप प्रकाशित नहीं होता है? मनुष्य किस हेतुसे मित्रोंका त्याग करता है? और किस दोषसे वह स्वर्गमें नहीं जाने पाता?॥३९॥

मूलम् (वचनम्)

हंस उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञानेनावृतो लोको मात्सर्यान्न प्रकाशते।
लोभात् त्यजति मित्राणि संगात् स्वर्गं न गच्छति ॥ ४० ॥

मूलम्

अज्ञानेनावृतो लोको मात्सर्यान्न प्रकाशते।
लोभात् त्यजति मित्राणि संगात् स्वर्गं न गच्छति ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हंसने कहा— देवताओ! अज्ञानने इस लोकको आवृत कर रक्खा है। आपसमें डाह होनेके कारण इसका स्वरूप प्रकाशित नहीं होता। मनुष्य लोभसे मित्रोंका त्याग करता है और आसक्तिदोषके कारण वह स्वर्गमें नहीं जाने पाता॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

साध्या ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

कः स्विदेको रमते ब्राह्मणानां
कः स्विदेको बहुभिर्जोषमास्ते ।
कः स्विदेको बलवान् दुर्बलोऽपि
कः स्विदेषां कलहं नान्ववैति ॥ ४१ ॥

मूलम्

कः स्विदेको रमते ब्राह्मणानां
कः स्विदेको बहुभिर्जोषमास्ते ।
कः स्विदेको बलवान् दुर्बलोऽपि
कः स्विदेषां कलहं नान्ववैति ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साध्योंने पूछा— हंस! ब्राह्मणोंमें कौन एकमात्र सुखका अनुभव करता है? वह कौन ऐसा एक मनुष्य है, जो बहुतोंके साथ रहकर भी चुप रहता है? वह कौन एक मनुष्य है, जो दुर्बल होनेपर भी बलवान् है तथा इनमें कौन ऐसा है, जो किसीके साथ कलह नहीं करता?॥४१॥

मूलम् (वचनम्)

हंस उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राज्ञ एको रमते ब्राह्मणानां
प्राज्ञश्चैको बहुभिर्जोषमास्ते ।
प्राज्ञ एको बलवान् दुर्बलोऽपि
प्राज्ञ एषां कलहं नान्ववैति ॥ ४२ ॥

मूलम्

प्राज्ञ एको रमते ब्राह्मणानां
प्राज्ञश्चैको बहुभिर्जोषमास्ते ।
प्राज्ञ एको बलवान् दुर्बलोऽपि
प्राज्ञ एषां कलहं नान्ववैति ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हंसने कहा— देवताओ! ब्राह्मणोंमें जो ज्ञानी है, एकमात्र वही परम सुखका अनुभव करता है। ज्ञानी ही बहुतोंके साथ रहकर भी मौन रहता है। एकमात्र ज्ञानी दुर्बल होनेपर भी बलवान् है और इनमें ज्ञानी ही किसीके साथ कलह नहीं करता है॥४२॥

मूलम् (वचनम्)

साध्या ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं ब्राह्मणानां देवत्वं किं च साधुत्वमुच्यते।
असाधुत्वं च किं तेषां किमेषां मानुषं मतम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

किं ब्राह्मणानां देवत्वं किं च साधुत्वमुच्यते।
असाधुत्वं च किं तेषां किमेषां मानुषं मतम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साध्योंने पूछा— हंस! ब्राह्मणोंका देवत्व क्या है? उनमें साधुता क्या बतायी जाती है? उनके भीतर असाधुता और मनुष्यता क्या मानी गयी है?॥४३॥

मूलम् (वचनम्)

हंस उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्याय एषां देवत्वं व्रतं साधुत्वमुच्यते।
असाधुत्वं परीवादो मृत्युर्मानुष्यमुच्यते ॥ ४४ ॥

मूलम्

स्वाध्याय एषां देवत्वं व्रतं साधुत्वमुच्यते।
असाधुत्वं परीवादो मृत्युर्मानुष्यमुच्यते ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हंसने कहा— साध्यगण! वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय ही ब्राह्मणोंका देवत्व है। उत्तम व्रतोंका पालन करना ही उनमें साधुता बतायी जाती है। दूसरोंकी निन्दा करना ही उनकी असाधुता है और मृत्युको प्राप्त होना ही उनकी मनुष्यता बतायी गयी है॥४४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(इत्युक्त्वा परमो देवो भगवान् नित्य अव्ययः।
साध्यैर्दैवगणैः सार्धं दिवमेवारुरोह सः॥

मूलम्

(इत्युक्त्वा परमो देवो भगवान् नित्य अव्ययः।
साध्यैर्दैवगणैः सार्धं दिवमेवारुरोह सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! ऐसा कहकर नित्य अविनाशी परमदेव भगवान् ब्रह्मा साध्य देवताओंके साथ ही ऊपर स्वर्गलोककी ओर चल दिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वर्गाय च ध्रुवम्।
दर्शितं देवदेवेन परमेणाव्ययेन च॥)

मूलम्

एतद् यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वर्गाय च ध्रुवम्।
दर्शितं देवदेवेन परमेणाव्ययेन च॥)

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वश्रेष्ठ अविनाशी देवाधिदेव ब्रह्माजीके द्वारा प्रकाशमें लाया हुआ यह पुण्यमय तत्त्वज्ञान यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला है तथा यह स्वर्गलोककी प्राप्तिका निश्चित साधन है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवाद इत्ययं श्रेष्ठः साध्यानां परिकीर्तितः।
क्षेत्रं वै कर्मणां योनिः सद्भावः सत्यमुच्यते ॥ ४५ ॥

मूलम्

संवाद इत्ययं श्रेष्ठः साध्यानां परिकीर्तितः।
क्षेत्रं वै कर्मणां योनिः सद्भावः सत्यमुच्यते ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इस प्रकार साध्योंके साथ जो हंसका संवाद हुआ था, उसका मैंने तुमसे वर्णन किया। यह शरीर ही कर्मोंकी योनि है और सद्‌भावको ही सत्य कहते हैं॥४५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि हंसगीतासमाप्तौ नवनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें हंसगीताकी समाप्ति विषयक दो सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४७ श्लोक हैं)

मूलम्

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४७ श्लोक हैं)