२९८

भागसूचना

अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पराशरगीताका उपसंहार—राजा जनकके विविध प्रश्नोंका उत्तर

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरेव तु पप्रच्छ जनको मिथिलाधिपः।
पराशरं महात्मानं धर्मे परमनिश्चयम् ॥ १ ॥

मूलम्

पुनरेव तु पप्रच्छ जनको मिथिलाधिपः।
पराशरं महात्मानं धर्मे परमनिश्चयम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर मिथिलानरेश जनकने उन धर्मके विषयमें उत्तम निश्चय रखनेवाले महात्मा पराशर मुनिसे इस प्रकार पूछा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं श्रेयः का गतिर्ब्रह्मन् किं कृतं न विनश्यति।
क्व गतो न निवर्तेत तन्मे ब्रूहि महामते ॥ २ ॥

मूलम्

किं श्रेयः का गतिर्ब्रह्मन् किं कृतं न विनश्यति।
क्व गतो न निवर्तेत तन्मे ब्रूहि महामते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनक बोले— ब्रह्मन्! श्रेयका साधन क्या है? उत्तम गति कौन-सी है? कौन-सा कर्म नष्ट नहीं होता तथा कहाँ गया हुआ जीव फिर इस संसारमें नहीं लौटता है? महामते! मेरे इन प्रश्नोंका समाधान कीजिये॥२॥

मूलम् (वचनम्)

पराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असङ्गः श्रेयसो मूलं ज्ञानं चैव परा गतिः।
चीर्णं तपो न प्रणश्येद्‌वापः क्षेत्रे न नश्यति ॥ ३ ॥

मूलम्

असङ्गः श्रेयसो मूलं ज्ञानं चैव परा गतिः।
चीर्णं तपो न प्रणश्येद्‌वापः क्षेत्रे न नश्यति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराशरजीने कहा— राजन्! आसक्तिका अभाव ही श्रेयका मूल कारण है। ज्ञान ही सबसे उत्तम गति है। स्वयं किया हुआ तप तथा सुपात्रको दिया हुआ दान—ये कभी नष्ट नहीं होते॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छित्त्वाऽधर्ममयं पाशं यदा धर्मेऽभिरज्यते।
दत्त्वाऽभयकृतं दानं तदा सिद्धिमवाप्नुते ॥ ४ ॥

मूलम्

छित्त्वाऽधर्ममयं पाशं यदा धर्मेऽभिरज्यते।
दत्त्वाऽभयकृतं दानं तदा सिद्धिमवाप्नुते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य जब अधर्ममय बन्धनका उच्छेद करके धर्ममें अनुरक्त हो जाता और सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदान कर देता है, उसे उसी समय उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो ददाति सहस्राणि गवामश्वशतानि च।
अभयं सर्वभूतेभ्यः सदा तमभिवर्तते ॥ ५ ॥

मूलम्

यो ददाति सहस्राणि गवामश्वशतानि च।
अभयं सर्वभूतेभ्यः सदा तमभिवर्तते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो एक हजार गौ तथा एक सौ घोड़े दान करता है तथा दूसरा जो सम्पूर्ण भूतोंको अभयदान देता है, वह सदा गौ और अश्वदान करनेवालेसे बढ़ा-चढ़ा रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसन् विषयमध्येऽपि न वसत्येव बुद्धिमान्।
संवसत्येव दुर्बुद्धिरसत्सु विषयेष्वपि ॥ ६ ॥

मूलम्

वसन् विषयमध्येऽपि न वसत्येव बुद्धिमान्।
संवसत्येव दुर्बुद्धिरसत्सु विषयेष्वपि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष विषयोंके बीचमें रहता हुआ भी (असंग होनेके कारण) उनमें नहीं रहनेके बराबर ही है; किंतु जिसकी बुद्धि दूषित होती है, वह विषयोंके निकट न होनेपर भी सदा उन्हींमें रहता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाधर्मः श्लिष्यते प्राज्ञं पयः पुष्करपर्णवत्।
अप्राज्ञमधिकं पापं श्लिष्यते जतुकाष्ठवत् ॥ ७ ॥

मूलम्

नाधर्मः श्लिष्यते प्राज्ञं पयः पुष्करपर्णवत्।
अप्राज्ञमधिकं पापं श्लिष्यते जतुकाष्ठवत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पानी कमलके पत्तेको लिपायमान नहीं कर सकता, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुषोंको अधर्म लिप्त नहीं कर सकता; परंतु जैसे लाह काठमें चिपक जाती है, उसी प्रकार पाप अज्ञानी मनुष्यमें अधिक लिप्त हो जाता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुञ्चति ।
कर्ता खलु यथाकालं ततः समभिपद्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुञ्चति ।
कर्ता खलु यथाकालं ततः समभिपद्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अधर्म फल प्रदानके अवसरकी प्रतीक्षा करनेवाला है, अतः वह कर्ताका पीछा नहीं छोड़ता। समय आनेपर उस कर्ताको उस पापका फल अवश्य भोगना पड़ता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भिद्यन्ते कृतात्मान आत्मप्रत्ययदर्शिनः।
बुद्धिकर्मेन्द्रियाणां हि प्रमत्तो यो न बुद्ध्यते।
शुभाशुभे प्रसक्तात्मा प्राप्नोति सुमहद् भयम् ॥ ९ ॥

मूलम्

न भिद्यन्ते कृतात्मान आत्मप्रत्ययदर्शिनः।
बुद्धिकर्मेन्द्रियाणां हि प्रमत्तो यो न बुद्ध्यते।
शुभाशुभे प्रसक्तात्मा प्राप्नोति सुमहद् भयम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र अन्तःकरणवाले आत्मज्ञानी पुरुष कर्मोंके शुभाशुभ फलोंसे कभी विचलित नहीं होते हैं। जो प्रमादवश ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियोंद्वारा होनेवाले पापोंपर विचार नहीं करता तथा शुभ एवं अशुभमें आसक्त रहता है, उसे महान् भयकी प्राप्ति होती है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीतरागो जितक्रोधः सम्यग् भवति यः सदा।
विषये वर्तमानोऽपि न स पापेन युज्यते ॥ १० ॥

मूलम्

वीतरागो जितक्रोधः सम्यग् भवति यः सदा।
विषये वर्तमानोऽपि न स पापेन युज्यते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जो वीतराग होकर क्रोधको जीत लेता और नित्य सदाचारका पालन करता है, वह विषयोंमें वर्तमान रहकर भी पापकर्मसे सम्बन्ध नहीं जोड़ता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मर्यादायां धर्मसेतुर्निबद्धो नैव सीदति।
पुष्टस्रोत इवासक्तः स्फीतो भवति संचयः ॥ ११ ॥

मूलम्

मर्यादायां धर्मसेतुर्निबद्धो नैव सीदति।
पुष्टस्रोत इवासक्तः स्फीतो भवति संचयः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नदीमें बँधा हुआ मजबूत बाँध टूटता नहीं है और उसके कारण वहाँ जलका स्रोत बढ़ता रहता है, उसी प्रकार प्राचीन मर्यादापर बँधा हुआ धर्मरूपी बाँध नष्ट नहीं होता है तथा उससे आसक्तिरहित संचित तपकी वृद्धि होने लगती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा भानुगतं तेजो मणिः शुद्धः समाधिना।
आदत्ते राजशार्दूल तथा योगः प्रवर्तते ॥ १२ ॥

मूलम्

यथा भानुगतं तेजो मणिः शुद्धः समाधिना।
आदत्ते राजशार्दूल तथा योगः प्रवर्तते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! जिस प्रकार शुद्ध सूर्यकान्तमणि सूर्यके तेजको ग्रहण कर लेती है, उसी प्रकार योगका साधक समाधिके द्वारा ब्रह्मके स्वरूपको ग्रहण करता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा तिलानामिह पुष्पसंश्रयात्
पृथक्पृथग्याति गुणोऽतिसौम्यताम् ।
तथा नराणां भुवि भावितात्मनां
यथाऽऽश्रयं सत्त्वगुणः प्रवर्तते ॥ १३ ॥

मूलम्

यथा तिलानामिह पुष्पसंश्रयात्
पृथक्पृथग्याति गुणोऽतिसौम्यताम् ।
तथा नराणां भुवि भावितात्मनां
यथाऽऽश्रयं सत्त्वगुणः प्रवर्तते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे तिलका तेल भिन्न-भिन्न प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंसे वासित होकर अत्यन्त मनोरम गन्ध ग्रहण करता है, वैसे ही पृथ्वीपर शुद्धचित्त पुरुषोंका स्वभाव सत्पुरुषोंके संगके अनुसार सत्त्वगुणसम्पन्न हो जाता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहाति दारांश्च जहाति सम्पदः
पदं च यानं विविधाश्च याः क्रियाः।
त्रिविष्टपे जातमतिर्यदा नर-
स्तदास्य बुद्धिर्विषयेषु भिद्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

जहाति दारांश्च जहाति सम्पदः
पदं च यानं विविधाश्च याः क्रियाः।
त्रिविष्टपे जातमतिर्यदा नर-
स्तदास्य बुद्धिर्विषयेषु भिद्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय मनुष्य सर्वोत्तम पद पानेके लिये उत्सुक हो जाता है, उस समय उसकी बुद्धि विषयोंसे विलग हो जाती है तथा वह स्त्री, सम्पत्ति, पद, वाहन और नाना प्रकारकी जो क्रियाएँ हैं, उनका भी परित्याग कर देता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसक्तबुद्धिर्विषयेषु यो नरो
न बुध्यते ह्यात्महितं कथंचन।
स सर्वभावानुगतेन चेतसा
नृपामिषेणेव झषो विकृष्यते ॥ १५ ॥

मूलम्

प्रसक्तबुद्धिर्विषयेषु यो नरो
न बुध्यते ह्यात्महितं कथंचन।
स सर्वभावानुगतेन चेतसा
नृपामिषेणेव झषो विकृष्यते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जिसकी बुद्धि विषयोंमें आसक्त हो जाती है, वह मनुष्य किसी तरह अपने हितकी बात नहीं समझता। राजन्! जैसे मछली काँटेमें गुँथे हुए मांसपर आकृष्ट होती है और दुःख पाती है, उसी तरह वह सब प्रकारकी वासनाओंसे वासित चित्तके द्वारा विषयोंकी ओर आकृष्ट होता है और दुःख भोगता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संघातवन्मर्त्यलोकः परस्परमपाश्रितः ।
कदलीगर्भनिःसारो नौरिवाप्सु निमज्जति ॥ १६ ॥

मूलम्

संघातवन्मर्त्यलोकः परस्परमपाश्रितः ।
कदलीगर्भनिःसारो नौरिवाप्सु निमज्जति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शरीरके अंग-प्रत्यंग एक-दूसरेके आश्रित हैं, उसी प्रकार यह मर्त्यलोक—स्त्री-पुत्र और पशु आदिका समुदाय आपसमें एक-दूसरेपर अवलम्बित है। यह संसार केलेके भीतरी भागके समान निस्सार है। जैसे नौका पानीमें डूब जाती है, उसी प्रकार यह सब कुछ कालके प्रवाहमें निमग्न हो जाता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न धर्मकालः पुरुषस्य निश्चितो
न चापि मृत्युः पुरुषं प्रतीक्षते।
सदा हि धर्मस्य क्रियैव शोभना
यदा नरो मृत्युमुखेऽभिवर्तते ॥ १७ ॥

मूलम्

न धर्मकालः पुरुषस्य निश्चितो
न चापि मृत्युः पुरुषं प्रतीक्षते।
सदा हि धर्मस्य क्रियैव शोभना
यदा नरो मृत्युमुखेऽभिवर्तते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषके लिये धर्म करनेका कोई विशेष समय निश्चित नहीं है; क्योंकि मृत्यु किसीकी बाट नहीं जोहती। जब मनुष्य सदा मौतके मुखमें ही है, तब नित्य-निरन्तर धर्मका आचरण करते रहना ही उसके लिये शोभाकी बात है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथान्धः स्वगृहे युक्तो ह्यभ्यासादेव गच्छति।
तथा युक्तेन मनसा प्राज्ञो गच्छति तां गतिम् ॥ १८ ॥

मूलम्

यथान्धः स्वगृहे युक्तो ह्यभ्यासादेव गच्छति।
तथा युक्तेन मनसा प्राज्ञो गच्छति तां गतिम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अन्धा प्रतिदिनके अभ्याससे ही सावधानीके साथ बाहरसे अपने घरमें आ जाता है, उसी प्रकार विवेकी मनुष्य योगयुक्त चित्तके द्वारा उस परम गतिको प्राप्त कर लेता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरणं जन्मनि प्रोक्तं जन्म वै मरणाश्रितम्।
अविद्वान् मोक्षधर्मेषु बद्धो भ्रमति चक्रवत्।
बुद्धिमार्गप्रयातस्य सुखं त्विह परत्र च ॥ १९ ॥

मूलम्

मरणं जन्मनि प्रोक्तं जन्म वै मरणाश्रितम्।
अविद्वान् मोक्षधर्मेषु बद्धो भ्रमति चक्रवत्।
बुद्धिमार्गप्रयातस्य सुखं त्विह परत्र च ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जन्ममें मृत्युकी स्थिति बतायी गयी है और मृत्युमें जन्म निहित है। जो मोक्ष-धर्मको नहीं जानता, वह अज्ञानी मनुष्य संसारमें आबद्ध होकर जन्म-मृत्युके चक्रमें घूमता रहता है; किंतु ज्ञानमार्गसे चलनेवालेको इहलोक और परलोकमें भी सुख मिलता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विस्तराः क्लेशसंयुक्ताः संक्षेपास्तु सुखावहाः।
परार्थं विस्तराः सर्वे त्यागमात्महितं विदुः ॥ २० ॥

मूलम्

विस्तराः क्लेशसंयुक्ताः संक्षेपास्तु सुखावहाः।
परार्थं विस्तराः सर्वे त्यागमात्महितं विदुः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्मोंका विस्तार क्लेशयुक्त होता है और संक्षेप सुखदायक है। सभी कर्म-विस्तार परार्थ हैं अर्थात् मन और इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये हैं; परंतु त्याग अपने लिये हितकर माना गया है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा मृणालानुगतमाशु मुञ्चति कर्दमम्।
तथाऽऽत्मा पुरुषस्येह मनसा परिमुच्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

यथा मृणालानुगतमाशु मुञ्चति कर्दमम्।
तथाऽऽत्मा पुरुषस्येह मनसा परिमुच्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे (पानीसे निकालते समय) कमलकी नालमें लगी हुई कीचड़ पानीसे तुरंत धुल जाती है, उसी प्रकार त्यागी पुरुषका आत्मा मनके द्वारा संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनः प्रणयतेऽऽत्मानं स एनमभियुञ्जति।
युक्तो यदा स भवति तदा तं पश्यते परम्॥२२॥

मूलम्

मनः प्रणयतेऽऽत्मानं स एनमभियुञ्जति।
युक्तो यदा स भवति तदा तं पश्यते परम्॥२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन आत्माको योगकी ओर ले जाता है। योगी इस मनको योगयुक्त (आत्मामें लीन) करता है। इस प्रकार जब वह योगमें सिद्धि प्राप्त कर लेता है, तब वह उस परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परार्थे वर्तमानस्तु स्वं कार्यं योऽभिमन्यते।
इन्द्रियार्थेषु संयुक्तः स्वकार्यात् परिमुच्यते ॥ २३ ॥

मूलम्

परार्थे वर्तमानस्तु स्वं कार्यं योऽभिमन्यते।
इन्द्रियार्थेषु संयुक्तः स्वकार्यात् परिमुच्यते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो परके लिये अर्थात् इन बाह्य इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये विषयभोगोंमें प्रवृत्त होकर इसे अपना मुख्य कार्य समझता है, वह अपने वास्तविक कर्तव्यसे च्युत हो जाता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधस्तिर्यग्गतिं चैव स्वर्गे चैव परां गतिम्।
प्राप्नोति स्वकृतैरात्मा प्राज्ञस्येहेतरस्य च ॥ २४ ॥

मूलम्

अधस्तिर्यग्गतिं चैव स्वर्गे चैव परां गतिम्।
प्राप्नोति स्वकृतैरात्मा प्राज्ञस्येहेतरस्य च ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इहलोकमें बुद्धिमान् हो या मूढ़, उसका आत्मा अपने किये हुए कर्मोंके अनुसार ही नरकको, पशु-पक्षी आदि योनियोंको, स्वर्गको और परम गतिको प्राप्त होता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृण्मये भाजने पक्वे यथा वै न श्यति द्रवः।
तथा शरीरं तपसा तप्तं विषयमश्नुते ॥ २५ ॥

मूलम्

मृण्मये भाजने पक्वे यथा वै न श्यति द्रवः।
तथा शरीरं तपसा तप्तं विषयमश्नुते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पके हुए मिट्‌टीके बर्तनमें रक्खा हुआ जल आदि तरल पदार्थ न तो चूता है और न नष्ट ही होता है, उसी प्रकार तपस्यासे तपा हुआ सूक्ष्म शरीर ब्रह्मलोकतकके विषयोंका अनुभव करता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषयानश्नुते यस्तु न स भोक्ष्यत्यसंशयम्।
यस्तु भोगांस्त्यजेदात्मा स वै भोक्तुं व्यवस्यति ॥ २६ ॥

मूलम्

विषयानश्नुते यस्तु न स भोक्ष्यत्यसंशयम्।
यस्तु भोगांस्त्यजेदात्मा स वै भोक्तुं व्यवस्यति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य शब्द, स्पर्श आदि विषयोंका उपभोग करता है, वह निश्चय ही ब्रह्मानन्दके अनुभवसे वंचित रह जायगा, परंतु जो विषयोंका परित्याग करता है, वह अवश्य ही ब्रह्मानन्दके अनुभवमें समर्थ हो सकता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीहारेण हि संवीतः शिश्नोदरपरायणः।
जात्यन्ध इव पन्थानमावृतात्मा न बुद्ध्यते ॥ २७ ॥

मूलम्

नीहारेण हि संवीतः शिश्नोदरपरायणः।
जात्यन्ध इव पन्थानमावृतात्मा न बुद्ध्यते ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे जन्मका अंधा रास्तेको नहीं देख पाता, वैसे ही शिश्नोदरपरायण एवं अज्ञानसे आवृत जीव मायारूप कुहासासे आच्छन्न होनेके कारण मोक्षमार्गको नहीं समझ पाता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वणिग् यथा समुद्राद् वै यथार्थं लभते धनम्।
तथा मर्त्यार्णवे जन्तोः कर्मविज्ञानतो गतिः ॥ २८ ॥

मूलम्

वणिग् यथा समुद्राद् वै यथार्थं लभते धनम्।
तथा मर्त्यार्णवे जन्तोः कर्मविज्ञानतो गतिः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वैश्य समुद्रमार्गसे व्यापार करने जाकर अपने मूलधनके अनुसार द्रव्य कमाकर लाता है, उसी प्रकार संसारसागरमें व्यापार करनेवाला जीव अपने कर्म एवं विज्ञानके अनुरूप गति पाता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोरात्रमये लोके जरारूपेण संसरन्।
मृत्युर्ग्रसति भूतानि पवनं पन्नगो यथा ॥ २९ ॥

मूलम्

अहोरात्रमये लोके जरारूपेण संसरन्।
मृत्युर्ग्रसति भूतानि पवनं पन्नगो यथा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिन और रात्रिमय संसारमें बुढ़ापाका रूप धारण करके घूमती हुई मृत्यु समस्त प्राणियोंको उसी प्रकार खाती रहती है, जैसे सर्प हवा पीया करता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयंकृतानि कर्माणि जातो जन्तुः प्रपद्यते।
नाकृत्वा लभते कश्चित् किंचिदत्र प्रियाप्रियम् ॥ ३० ॥

मूलम्

स्वयंकृतानि कर्माणि जातो जन्तुः प्रपद्यते।
नाकृत्वा लभते कश्चित् किंचिदत्र प्रियाप्रियम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीव जगत्‌में जन्म लेकर अपने पूर्वकृत कर्मोंका ही फल भोगता है; पूर्वजन्ममें कुछ किये बिना यहाँ कोई भी किसी इष्ट या अनिष्ट फलको नहीं पाता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शयानं यान्तमासीनं प्रवृत्तं विषयेषु च।
शुभाशुभानि कर्माणि प्रपद्यन्ते नरं सदा ॥ ३१ ॥

मूलम्

शयानं यान्तमासीनं प्रवृत्तं विषयेषु च।
शुभाशुभानि कर्माणि प्रपद्यन्ते नरं सदा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य सोता हो, बैठा हो, चलता हो या विषय-भोगमें लगा हो, उसके शुभाशुभ कर्म सदा उसे प्राप्त होते रहते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यन्यत् तीरमासाद्य पुनस्तर्तुं व्यवस्यति।
दुर्लभो दूश्यते ह्यस्य विनिपातो महार्णवे ॥ ३२ ॥

मूलम्

न ह्यन्यत् तीरमासाद्य पुनस्तर्तुं व्यवस्यति।
दुर्लभो दूश्यते ह्यस्य विनिपातो महार्णवे ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे समुद्रके परलेपार पहुँचकर पुनः कोई उसमें तैरनेका विचार नहीं करता, उसी प्रकार संसार-सागरसे पार हुए मनुष्यका फिर उसमें पड़ना अर्थात् वापस आना दुर्लभ दिखायी देता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा भावावसन्ना हि नौर्महाम्भसि तन्तुना।
तथा मनोभियोगाद् वै शरीरं प्रचिकीर्षति ॥ ३३ ॥

मूलम्

यथा भावावसन्ना हि नौर्महाम्भसि तन्तुना।
तथा मनोभियोगाद् वै शरीरं प्रचिकीर्षति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे गम्भीर जलमें पड़ी हुई नौका नाविकद्वारा रस्सीसे खींची जानेपर उसके मनोभावके अधीन होकर चलती है, उसी प्रकार यह जीव इस शरीररूपी नौकाको अपने मनके अभिप्रायानुसार चलाना चाहता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा समुद्रमभितः संश्रिताः सरितोऽपराः।
तथाद्या प्रकृतिर्योगादभिसंश्रियते सदा ॥ ३४ ॥

मूलम्

यथा समुद्रमभितः संश्रिताः सरितोऽपराः।
तथाद्या प्रकृतिर्योगादभिसंश्रियते सदा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बहुत-सी नदियाँ सब ओरसे आकर समुद्रमें मिल जाती हैं, उसी प्रकार योगसे वशमें किया हुआ मन सदाके लिये मूल प्रकृतिमें लीन हो जाता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नेहपाशैर्बहुविधैरासक्तमनसो नराः ।
प्रकृतिस्था विषीदन्ति जले सैकतवेश्मवत् ॥ ३५ ॥

मूलम्

स्नेहपाशैर्बहुविधैरासक्तमनसो नराः ।
प्रकृतिस्था विषीदन्ति जले सैकतवेश्मवत् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका मन नाना प्रकारके स्नेह-बन्धनोंमें जकड़ा हुआ है, वे प्रकृतिमें स्थित हुए जीव जलमें ढह जानेवाले बालूके मकानकी भाँति महान् दुःखसे नष्टप्राय हो जाते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरगृहसंज्ञस्य शौचतीर्थस्थ देहिनः ।
बुद्धिमार्गप्रयातस्य सुखं त्विह परत्र च ॥ ३६ ॥

मूलम्

शरीरगृहसंज्ञस्य शौचतीर्थस्थ देहिनः ।
बुद्धिमार्गप्रयातस्य सुखं त्विह परत्र च ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीर ही जिसका घर है, जो बाहर-भीतरकी पवित्रताको ही तीर्थ मानता है तथा बुद्धिपूर्वक कल्याणके मार्गपर चलता है, उस देहधारी जीवको इहलोक और परलोकमें भी सुख मिलता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विस्तराः क्लेशसंयुक्ताः संक्षेपास्तु सुखावहाः।
परार्थं विस्तराः सर्वे त्यागमात्महितं विदुः ॥ ३७ ॥

मूलम्

विस्तराः क्लेशसंयुक्ताः संक्षेपास्तु सुखावहाः।
परार्थं विस्तराः सर्वे त्यागमात्महितं विदुः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रियाओंका विस्तार क्लेशदायक होता है और संक्षेप सुखदायक है। सभी कर्मविस्तार परार्थरूप अर्थात् मन और इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये होते हैं, परंतु त्याग अपने लिये हितकर माना गया है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकल्पजो मित्रवर्गो ज्ञातयः कारणात्मकाः।
भार्या पुत्रश्च दासश्च स्वमर्थमनुयुज्यते ॥ ३८ ॥

मूलम्

संकल्पजो मित्रवर्गो ज्ञातयः कारणात्मकाः।
भार्या पुत्रश्च दासश्च स्वमर्थमनुयुज्यते ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई-न-कोई संकल्प (मनोरथ) लेकर ही लोग मित्र बनते हैं, कुटुम्बी जन भी किसी हेतुसे ही नाता रखते हैं, पत्नी, पुत्र और सेवक सभी अपने-अपने स्वार्थका ही अनुसरण करते हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न माता न पिता किंचित् कस्यचित् प्रतिपद्यते।
दानपथ्यौदनो जन्तुः स्वकर्मफलमश्नुते ॥ ३९ ॥

मूलम्

न माता न पिता किंचित् कस्यचित् प्रतिपद्यते।
दानपथ्यौदनो जन्तुः स्वकर्मफलमश्नुते ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता और पिता भी परलोक-साधनमें किसीकी कुछ सहायता नहीं कर सकते। परलोकके पथमें तो अपना किया हुआ दान अर्थात् त्याग ही राहखर्चका काम देता है। प्रत्येक जीव अपने कर्मका ही फल भोगता है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माता पुत्रः पिता भ्राता भार्या मित्रजनस्तथा।
अष्टापदपदस्थाने लक्षमुद्रेव लक्ष्यते ॥ ४० ॥

मूलम्

माता पुत्रः पिता भ्राता भार्या मित्रजनस्तथा।
अष्टापदपदस्थाने लक्षमुद्रेव लक्ष्यते ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता, पिता, पुत्र, भ्राता, भार्या और मित्रगण—ये सब सुवर्णके सिक्कोंके स्थानपर रखी हुई लाखकी मुद्राके समान देखे जाते हैं॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वाणि कर्माणि पुरा कृतानि
शुभाशुभान्यात्मनो यान्ति जन्तोः ।
उपस्थितं कर्मफलं विदित्वा
बुद्धिं तथा चोदयतेऽन्तरात्मा ॥ ४१ ॥

मूलम्

सर्वाणि कर्माणि पुरा कृतानि
शुभाशुभान्यात्मनो यान्ति जन्तोः ।
उपस्थितं कर्मफलं विदित्वा
बुद्धिं तथा चोदयतेऽन्तरात्मा ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वजन्मके किये हुए सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्म जीवका अनुसरण करते हैं। इस प्रकार प्राप्त हुई परिस्थितिको अपने कर्मोंका फल जानकर जिसका मन अन्तर्मुख हो गया है, वह अपनी बुद्धिको वैसी शुभ प्रेरणा देता है जिससे भविष्यमें दुःख न भोगना पड़े॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यवसायं समाश्रित्य सहायान् योऽधिगच्छति।
न तस्य कश्चिदारम्भः कदाचिदवसीदति ॥ ४२ ॥

मूलम्

व्यवसायं समाश्रित्य सहायान् योऽधिगच्छति।
न तस्य कश्चिदारम्भः कदाचिदवसीदति ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दृढ़ निश्चय एवं पूर्ण उद्योगका सहारा ले तदनुकूल सहायकोंका संग्रह करता है, उसका कोई भी कार्य कभी भी व्यर्थ नहीं होता॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्वैधमनसं युक्तं शूरं धीरं विपश्चितम्।
न श्रीः संत्यजते नित्यमादित्यमिव रश्मयः ॥ ४३ ॥

मूलम्

अद्वैधमनसं युक्तं शूरं धीरं विपश्चितम्।
न श्रीः संत्यजते नित्यमादित्यमिव रश्मयः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके मनमें दुविधा नहीं होती, जो उद्योगी, शूरवीर, धीर और विद्वान् होता है, उसे सम्पत्ति उसी तरह कभी नहीं छोड़ती, जैसे किरणें सूर्यको॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्तिक्यव्यवसायाभ्यामुपायाद् विस्मयाद् धिया ।
समारभेदनिन्द्यात्मा न सोऽर्थः परिषीदति ॥ ४४ ॥

मूलम्

आस्तिक्यव्यवसायाभ्यामुपायाद् विस्मयाद् धिया ।
समारभेदनिन्द्यात्मा न सोऽर्थः परिषीदति ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका हृदय उदार एवं प्रशस्त है, जो आस्तिक भाव, निश्चय एवं आवश्यक उपायसे गर्वहीनताके साथ उत्तम बुद्धिपूर्वक कार्य आरम्भ करता है, उसका वह कार्य कभी असफल नहीं होता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वः स्वानि शुभाशुभानि नियतं कर्माणि जन्तुः स्वयं
गर्भात् सम्प्रतिपद्यते तदुभयं यत् तेन पूर्वं कृतम्।
मृत्युश्चापरिहारवान् समगतिः कालेन विच्छेदिना
दारोश्चूर्णमिवाश्मसारविहितं कर्मान्तिकं प्रापयेत् ॥ ४५ ॥

मूलम्

सर्वः स्वानि शुभाशुभानि नियतं कर्माणि जन्तुः स्वयं
गर्भात् सम्प्रतिपद्यते तदुभयं यत् तेन पूर्वं कृतम्।
मृत्युश्चापरिहारवान् समगतिः कालेन विच्छेदिना
दारोश्चूर्णमिवाश्मसारविहितं कर्मान्तिकं प्रापयेत् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी जीव, पूर्वजन्ममें उन्होंने जो कुछ किया है, उन अपने शुभाशुभ कर्मोंके नियत फलोंको गर्भमें प्रवेश करनेके समयसे ही क्रमशः पाने और भोगने लगते हैं। जैसे वायु आरेसे चीरकर बनाये गये लकड़ीके चूरेको उड़ा देती है, उसी प्रकार कभी टाली न जा सकनेवाली मृत्यु विनाशकारी कालकी सहायतासे मनुष्यका अन्त कर देती है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वरूपतामात्मकृतं च विस्तरं
कुलान्वयं द्रव्यसमृद्धिसंचयम् ।
नरो हि सर्वो लभते यथाकृतं
शुभाशुभेनात्मकृतेन कर्मणा ॥ ४६ ॥

मूलम्

स्वरूपतामात्मकृतं च विस्तरं
कुलान्वयं द्रव्यसमृद्धिसंचयम् ।
नरो हि सर्वो लभते यथाकृतं
शुभाशुभेनात्मकृतेन कर्मणा ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब मनुष्य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मके अनुसार ही सुन्दर या असुन्दर रूप, अपनेसे होनेवाले योग्य-अयोग्य पुत्र-पौत्र आदिका विस्तार, उत्तम या अधम कुलमें जन्म तथा द्रव्य-समृद्धिका संचय आदि पाते हैं॥४६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो जनको राजन् याथातथ्यं मनीषिणा।
श्रुत्वा धर्मविदां श्रेष्ठः परां मुदमवाप ह ॥ ४७ ॥

मूलम्

इत्युक्तो जनको राजन् याथातथ्यं मनीषिणा।
श्रुत्वा धर्मविदां श्रेष्ठः परां मुदमवाप ह ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! ज्ञानी महात्मा पराशर मुनिके मुखसे इस यथार्थ उपदेशको सुनकर धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ राजा जनक बहुत प्रसन्न हुए॥४७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पराशरगीतायामष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ अट्‌ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९८॥