२९७ पराशरगीतायाम्

भागसूचना

सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पराशरगीता—नाना प्रकारके धर्म और कर्तव्योंका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

पराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता सखायो गुरवः स्त्रियश्च
न निर्गुणानां हि भवन्ति लोके।
अनन्यभक्ताः प्रियवादिनश्च
हिताश्च वश्याश्च भवन्ति राजन् ॥ १ ॥

मूलम्

पिता सखायो गुरवः स्त्रियश्च
न निर्गुणानां हि भवन्ति लोके।
अनन्यभक्ताः प्रियवादिनश्च
हिताश्च वश्याश्च भवन्ति राजन् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! संसारमें पिता, सखा, गुरुजन और स्त्रियाँ—ये कोई भी उसके नहीं होते, जो सर्वथा गुणहीन हैं; किंतु जो प्रभुके अनन्य भक्त, प्रियवादी, हितैषी और इन्द्रियविजयी हैं, वे ही उसके होते हैं अर्थात् उसका त्याग नहीं करते॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता परं दैवतं मानवानां
मातुर्विशिष्टं पितरं वदन्ति ।
ज्ञानस्य लाभं परमं वदन्ति
जितेन्द्रियार्थाः परमाप्नुवन्ति ॥ २ ॥

मूलम्

पिता परं दैवतं मानवानां
मातुर्विशिष्टं पितरं वदन्ति ।
ज्ञानस्य लाभं परमं वदन्ति
जितेन्द्रियार्थाः परमाप्नुवन्ति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिता मनुष्योंके लिये सर्वश्रेष्ठ देवता है। कोई-कोई पिताको मातासे भी बढ़कर बताते हैं। श्रेष्ठ पुरुष ज्ञानके लाभको ही परम लाभ कहते हैं। जिन्होंने श्रोत्र आदि इन्द्रियों और शब्द आदि विषयोंपर विजय पा ली है, वे परमपदको प्राप्त होते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रणाजिरे यत्र शराग्निसंस्तरे
नृपात्मजो घातमवाप्य दह्यते ।
प्रयाति लोकानमरैः सुदुर्लभान्
निषेवते स्वर्गफलं यथासुखम् ॥ ३ ॥

मूलम्

रणाजिरे यत्र शराग्निसंस्तरे
नृपात्मजो घातमवाप्य दह्यते ।
प्रयाति लोकानमरैः सुदुर्लभान्
निषेवते स्वर्गफलं यथासुखम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियका पुत्र यदि समरांगणमें घायल होकर बाणोंकी चितापर दग्ध होता है तो वह देवदुर्लभ लोकोंमें जाता और वहाँ आनन्दपूर्वक स्वर्गीय-सुख भोगता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रान्तं भीतं भ्रष्टशस्त्रं रुदन्तं
पराङ्‌मुखं पारिबर्हैश्च हीनम् ।
अनुद्यन्तं रोगिणं याचमानं
न वै हिंस्याद् बालवृद्धौ च राजन् ॥ ४ ॥

मूलम्

श्रान्तं भीतं भ्रष्टशस्त्रं रुदन्तं
पराङ्‌मुखं पारिबर्हैश्च हीनम् ।
अनुद्यन्तं रोगिणं याचमानं
न वै हिंस्याद् बालवृद्धौ च राजन् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो युद्धमें थका हुआ हो, भयभीत हो, जिसने हथियार नीचे डाल दिया हो, जो रोता हो, पीठ दिखाकर भाग रहा हो, जिसके पास युद्धका कोई भी सामान न रह गया हो, जो युद्धविषयक उद्यम छोड़ चुका हो, रोगी हो और प्राणोंकी भीख माँगता हो तथा जो अवस्थामें बालक या वृद्ध हो, ऐसे शत्रुका वध नहीं करना चाहिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारिबर्हैः सुसंयुक्तमुद्यतं तुल्यतां गतम्।
अतिक्रमेत् तं नृपतिः संग्रामे क्षत्रियात्मजम् ॥ ५ ॥

मूलम्

पारिबर्हैः सुसंयुक्तमुद्यतं तुल्यतां गतम्।
अतिक्रमेत् तं नृपतिः संग्रामे क्षत्रियात्मजम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु जिसके पास युद्धका सामान हो, जो युद्धके लिये तैयार हो और अपने बराबरका हो, संग्रामभूमिमें उस क्षत्रियकुमारको राजा अवश्य जीतनेका प्रयत्न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुल्यादिह वधः श्रेयान् विशिष्टाच्चेति निश्चयः।
निहीनात् कातराच्चैव कृपणाद् गर्हितो वधः ॥ ६ ॥

मूलम्

तुल्यादिह वधः श्रेयान् विशिष्टाच्चेति निश्चयः।
निहीनात् कातराच्चैव कृपणाद् गर्हितो वधः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने समान या अपनी अपेक्षा बड़े वीरके हाथसे वध होना श्रेष्ठ है, ऐसा युद्ध-शास्त्रके ज्ञाताओंका निश्चय है। अपनेसे हीन, कातर तथा दीन पुरुषके हाथसे होनेवाली मृत्यु निन्दित है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापात् पापसमाचारान्निहीनाच्च नराधिप ।
पाप एव वधः प्रोक्तो नरकायेति निश्चयः ॥ ७ ॥

मूलम्

पापात् पापसमाचारान्निहीनाच्च नराधिप ।
पाप एव वधः प्रोक्तो नरकायेति निश्चयः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! पापी, पापाचारी और हीन मनुष्यके हाथसे जो वध होता है, वह पापरूप ही बताया गया है तथा वह नरकमें गिरानेवाला है, यही शास्त्रका निश्चय है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कश्चित् त्राति वै राजन् दिष्टान्तवशमागतम्।
सावशेषायुषं चापि कश्चिन्नैवापकर्षति ॥ ८ ॥

मूलम्

न कश्चित् त्राति वै राजन् दिष्टान्तवशमागतम्।
सावशेषायुषं चापि कश्चिन्नैवापकर्षति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मृत्युके वशमें पड़े हुए प्राणीको कोई बचा नहीं सकता और जिसकी आयु शेष है, उसे कोई मार भी नहीं सकता॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्निग्धैश्च क्रियमाणानि कर्माणीह निवर्तयेत्।
हिंसात्मकानि सर्वाणि नायुरिच्छेत् परायुषा ॥ ९ ॥

मूलम्

स्निग्धैश्च क्रियमाणानि कर्माणीह निवर्तयेत्।
हिंसात्मकानि सर्वाणि नायुरिच्छेत् परायुषा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको चाहिये कि उसके प्रियजन यदि कोई हिंसात्मक कर्म उसके लिये करते हों तो वह उन सब कर्मोंको रोक दे। दूसरेकी आयुसे अपनी आयु बढ़ानेकी अर्थात् दूसरोंके प्राण लेकर अपने प्राण बचानेकी इच्छा न करे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहस्थानां तु सर्वेषां विनाशमभिकाङ्‌क्षताम्।
निधनं शोभनं तात पुलिनेषु क्रियावताम् ॥ १० ॥

मूलम्

गृहस्थानां तु सर्वेषां विनाशमभिकाङ्‌क्षताम्।
निधनं शोभनं तात पुलिनेषु क्रियावताम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मरनेकी इच्छावाले समस्त गृहस्थोंके लिये तो वही मृत्यु सबसे उत्तम मानी गयी है, जो गंगादि पवित्र नदियोंके तटोंपर शुभकर्मोंका अनुष्ठान करते हुए प्राप्त हो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुषि क्षयमापन्ने पञ्चत्वमुपगच्छति ।
तथा ह्यकारणाद् भवति कारणैरुपपादितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

आयुषि क्षयमापन्ने पञ्चत्वमुपगच्छति ।
तथा ह्यकारणाद् भवति कारणैरुपपादितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब आयु समाप्त हो जाती है तभी देहधारी जीव पंचत्वको प्राप्त होता है। यह बिना कारणके भी हो जाता है और कभी विभिन्न कारणोंसे उपपादित होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा शरीरं भवति देहाद् येनोपपादितम्।
अध्वानं गतकश्चायं प्राप्तश्चायं गृहाद् गृहम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तथा शरीरं भवति देहाद् येनोपपादितम्।
अध्वानं गतकश्चायं प्राप्तश्चायं गृहाद् गृहम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग देहको पाकर हठपूर्वक उसका परित्याग कर देते हैं, उनको पूर्ववत् ही यातनामय शरीरकी प्राप्ति होती है। ऐसे लोग (मोक्षके साधनरूप मनुष्यशरीरको पाकर भी आत्महत्याके कारण उस लाभसे वंचित हो) एक घरसे दूसरे घरमें जानेवाले मनुष्यके समान एक शरीरसे दूसरे शरीरको प्राप्त होते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वितीयं कारणं तत्र नान्यत् किंचन विद्यते।
तद् देहं देहिनां युक्तं पञ्चभूतेषु वर्तते ॥ १३ ॥

मूलम्

द्वितीयं कारणं तत्र नान्यत् किंचन विद्यते।
तद् देहं देहिनां युक्तं पञ्चभूतेषु वर्तते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनकी उस अवस्थाके प्राप्त होनेमें आत्महत्यारूप पापके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है। उन प्राणियोंको उस शरीरका मिलना उचित ही है, जो कि पंचभूतमय है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरास्नाय्वस्थिसंघातं बीभत्सामेध्यसंकुलम् ।
भूतानामिन्द्रियाणां च गुणानां च समागमम् ॥ १४ ॥

मूलम्

शिरास्नाय्वस्थिसंघातं बीभत्सामेध्यसंकुलम् ।
भूतानामिन्द्रियाणां च गुणानां च समागमम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह शरीर नस, नाड़ी और हडि्डयोंका समूह है। घृणित और अपवित्र मल-मूत्र आदिसे भरा हुआ है। पंचमहाभूतों, श्रोत्र आदि इन्द्रियों तथा गुणों (वासनामय विषयों) का समुदाय है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वगन्तं देहमित्याहुर्विद्वांसोऽध्यात्मचिन्तकाः ।
गुणैरपि परिक्षीणं शरीरं मर्त्यतां गतम् ॥ १५ ॥

मूलम्

त्वगन्तं देहमित्याहुर्विद्वांसोऽध्यात्मचिन्तकाः ।
गुणैरपि परिक्षीणं शरीरं मर्त्यतां गतम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अध्यात्मतत्त्वका चिन्तन करनेवाले ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि इस शरीरके अन्तमें अर्थात् बाह्यभागमें त्वचा (चमड़ा) मात्र है। यह सौन्दर्य आदि गुणोंसे भी रहित है। इसकी मृत्यु अनिवार्य है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरिणा परित्यक्तं निश्चेष्टं गतचेतनम्।
भूतैः प्रकृतिमापन्नैस्ततो भूमौ निमज्जति ॥ १६ ॥

मूलम्

शरीरिणा परित्यक्तं निश्चेष्टं गतचेतनम्।
भूतैः प्रकृतिमापन्नैस्ततो भूमौ निमज्जति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब जीवात्मा इस देहका परित्याग कर देता है, तब यह देह निश्चेष्ट और चेतनाशून्य हो जाती है एवं इसके पाँच भूत अपनी-अपनी प्रकृतिके साथ मिल जाते हैं। फिर तो यह पृथ्वीमें निमग्न हो जाती है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भावितं कर्मयोगेन जायते तत्र तत्र ह।
इदं शरीरं वैदेह म्रियते यत्र यत्र ह।
तत्स्वभावोऽपरो दृष्टो विसर्गः कर्मणस्तथा ॥ १७ ॥

मूलम्

भावितं कर्मयोगेन जायते तत्र तत्र ह।
इदं शरीरं वैदेह म्रियते यत्र यत्र ह।
तत्स्वभावोऽपरो दृष्टो विसर्गः कर्मणस्तथा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदेहराज! यह शरीर जिस किसी स्थानमें मृत्युको प्राप्त हो जाता है; फिर प्रारब्धकर्मके योगसे भावित होकर जहाँ-कहीं भी जन्म ले लेता है। कर्मोंका फलस्वरूप यह स्वभावसिद्ध पुनर्जन्म देखा गया है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जायते तु नृपते कंचित् कालमयं पुनः।
परिभ्रमति भूतात्मा द्यामिवाम्बुधरो महान् ॥ १८ ॥

मूलम्

न जायते तु नृपते कंचित् कालमयं पुनः।
परिभ्रमति भूतात्मा द्यामिवाम्बुधरो महान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जैसे विशाल मेघ आकाशमें सब ओर भ्रमण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा प्रारब्ध-कर्मके फलसे कुछ कालतक घूमता रहता है, जन्म नहीं लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पुनर्जायते राजन् प्राप्येहायतनं नृप।
मनसः परमो ह्यात्मा इन्द्रियेभ्यः परं मनः ॥ १९ ॥

मूलम्

स पुनर्जायते राजन् प्राप्येहायतनं नृप।
मनसः परमो ह्यात्मा इन्द्रियेभ्यः परं मनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वही यहाँ फिर कोई आधार पाकर पुनः जन्म लेता है। मनसे आत्मा श्रेष्ठ है और इन्द्रियोंसे मन श्रेष्ठ है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विविधानां च भूतानां जङ्गमाः परमा नृप।
जङ्गमानामपि तथा द्विपदाः परमा मताः ॥ २० ॥

मूलम्

विविधानां च भूतानां जङ्गमाः परमा नृप।
जङ्गमानामपि तथा द्विपदाः परमा मताः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! संसारके विविध प्राणियोंमें चलने-फिरनेवाले जीव श्रेष्ठ माने गये हैं। इन जंगम प्राणियोंमें भी दो पैरवाले जीव (मनुष्य) श्रेष्ठ कहे गये हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विपदानामपि तथा द्विजा वै परमाः स्मृताः।
द्विजानामपि राजेन्द्र प्रज्ञावन्तः परा मताः।
प्राज्ञानामात्मसम्बुद्धाः सम्बुद्धानाममानिनः ॥ २१ ॥

मूलम्

द्विपदानामपि तथा द्विजा वै परमाः स्मृताः।
द्विजानामपि राजेन्द्र प्रज्ञावन्तः परा मताः।
प्राज्ञानामात्मसम्बुद्धाः सम्बुद्धानाममानिनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंमें भी द्विज श्रेष्ठ कहे गये हैं। राजेन्द्र! द्विजोंमें बुद्धिमान् और बुद्धिमानोंमें भी आत्मज्ञानी श्रेष्ठ समझे जाते हैं। उनमें भी जो अहंकाररहित हैं, उन्हें सर्वश्रेष्ठ माना गया है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातमन्वेति मरणं नृणामिति विनिश्चयः।
अन्तवन्ति हि कर्माणि सेवन्ते गुणतः प्रजाः ॥ २२ ॥

मूलम्

जातमन्वेति मरणं नृणामिति विनिश्चयः।
अन्तवन्ति हि कर्माणि सेवन्ते गुणतः प्रजाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जन्मके साथ ही मृत्यु मनुष्योंके पीछे लगी रहती है। यह विद्वानोंका निश्चय है। समस्त प्रजा सत्त्व आदि गुणोंसे प्रेरित होकर विनाशशील कर्मोंका आचरण करती है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपन्ने तूत्तरां काष्ठां सूर्ये यो निधनं व्रजेत्।
नक्षत्रे च मुहुर्ते च पुण्ये राजन् स पुण्यकृत्॥२३॥

मूलम्

आपन्ने तूत्तरां काष्ठां सूर्ये यो निधनं व्रजेत्।
नक्षत्रे च मुहुर्ते च पुण्ये राजन् स पुण्यकृत्॥२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो सूर्यके उत्तरायण होनेपर उत्तम नक्षत्र और पवित्र मुहूर्तमें मृत्युको प्राप्त होता है, वह पुण्यात्मा है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयोजयित्वा क्लेशेन जनं प्लाव्य च दुष्कृतम्।
मृत्युनाऽऽत्मकृते नेह कर्म कृत्वाऽऽत्मशक्तिभिः ॥ २४ ॥

मूलम्

अयोजयित्वा क्लेशेन जनं प्लाव्य च दुष्कृतम्।
मृत्युनाऽऽत्मकृते नेह कर्म कृत्वाऽऽत्मशक्तिभिः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह किसीको भी कष्ट न देकर प्रायश्चित्तके द्वारा अपने पापको नष्ट कर डालता है और अपनी शक्तिके अनुसार शुभकर्म करके स्वेच्छासे मृत्युको अंगीकार करता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषमुद्‌बन्धनं दाहो दस्युहस्तात् तथा वधः।
दंष्ट्रिभ्यश्च पशुभ्यश्च प्राकृतो वध उच्यते ॥ २५ ॥

मूलम्

विषमुद्‌बन्धनं दाहो दस्युहस्तात् तथा वधः।
दंष्ट्रिभ्यश्च पशुभ्यश्च प्राकृतो वध उच्यते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु विष खा लेनेसे, गलेमें फाँसी लगानेसे, आगमें जलनेसे, लुटेरोंके हाथसे तथा दाढ़वाले पशुओंके आघातसे जो वध होता है, वह अधम श्रेणीका माना जाता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैभिः पुण्यकर्माणो युज्यन्ते चाभिसंधिजैः।
एवंविधैश्च बहुभिरपरैः प्राकृतैरपि ॥ २६ ॥

मूलम्

न चैभिः पुण्यकर्माणो युज्यन्ते चाभिसंधिजैः।
एवंविधैश्च बहुभिरपरैः प्राकृतैरपि ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुण्यकर्म करनेवाले मनुष्य इस तरहके उपायोंसे प्राण नहीं देते तथा ऐसे-ऐसे दूसरे अधम उपायोंसे भी उनकी मृत्यु नहीं होती॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वं भित्त्वा प्रतिष्ठन्ते प्राणाः पुण्यवतां नृप।
मध्यतो मध्यपुण्यानामधो दुष्कृतकर्मणाम् ॥ २७ ॥

मूलम्

ऊर्ध्वं भित्त्वा प्रतिष्ठन्ते प्राणाः पुण्यवतां नृप।
मध्यतो मध्यपुण्यानामधो दुष्कृतकर्मणाम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पुण्यात्मा पुरुषोंके प्राण ब्रह्मरन्ध्रको भेदकर निकलते हैं। जिनके पुण्यकर्म मध्यम श्रेणीके हैं, उनके प्राण मध्यद्वार (मुख, नेत्र आदि)-से बाहर होते हैं तथा जिन्होंने केवल पाप ही किया है, उनके प्राण नीचेके छिद्र (गुदा या शिश्नद्वार) से निकलते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकः शत्रुर्न द्वितीयोऽस्ति शत्रु-
रज्ञानतुल्यः पुरुषस्य राजन् ।
येनावृतः कुरुते सम्प्रयुक्तो
घोराणि कर्माणि सुदारुणानि ॥ २८ ॥

मूलम्

एकः शत्रुर्न द्वितीयोऽस्ति शत्रु-
रज्ञानतुल्यः पुरुषस्य राजन् ।
येनावृतः कुरुते सम्प्रयुक्तो
घोराणि कर्माणि सुदारुणानि ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पुरुषका एक ही शत्रु है, उसके समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है। वह है अज्ञान, जिससे आवृत और प्रेरित होकर मनुष्य अत्यन्त घोर और क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रबाधनार्थं श्रूतिधर्मयुक्तान्
वृद्धानुपास्य प्रभवेत यस्य ।
प्रयत्नसाध्यो हि स राजपुत्र
प्रज्ञाशरेणोन्मथितः परैति ॥ २९ ॥

मूलम्

प्रबाधनार्थं श्रूतिधर्मयुक्तान्
वृद्धानुपास्य प्रभवेत यस्य ।
प्रयत्नसाध्यो हि स राजपुत्र
प्रज्ञाशरेणोन्मथितः परैति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजकुमार! उस शत्रुको पराजित करनेमें वही समर्थ हो सकता है, जो वेदोक्त धर्मसम्पन्न वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करके प्रज्ञा (स्थिरबुद्धि)-को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि अज्ञानमय शत्रुको जीतना महान् प्रयत्नसाध्य कर्म है। वह प्रज्ञारूपी बाणकी चोट खाकर ही नष्ट होता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधीत्य वेदं तपसा ब्रह्मचारी
यज्ञान् शक्त्या संनिगृह्येह पञ्च।
वनं गच्छेत् पुरुषो धर्मकामः
श्रेयः स्थित्वा स्थापयित्वा स्ववंशम् ॥ ३० ॥

मूलम्

अधीत्य वेदं तपसा ब्रह्मचारी
यज्ञान् शक्त्या संनिगृह्येह पञ्च।
वनं गच्छेत् पुरुषो धर्मकामः
श्रेयः स्थित्वा स्थापयित्वा स्ववंशम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजको पहले ब्रह्मचर्य-आश्रममें रहकर तपस्या-पूर्वक वेदोंका अध्ययन करना चाहिये; फिर गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके अपनी शक्तिके अनुसार इन्द्रियसंयमपूर्वक पंच महायज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये। तत्पश्चात् अपने पुत्रको घर-बारकी रक्षामें नियुक्त करके कल्याणमार्गमें स्थित हो केवल धर्मपालनकी इच्छा रखकर उसे वनको प्रस्थान करना चाहिये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपभोगैरपि त्यक्तं नात्मानं सादयेन्नरः।
चण्डालत्वेऽपि मानुष्यं सर्वथा तात शोभनम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

उपभोगैरपि त्यक्तं नात्मानं सादयेन्नरः।
चण्डालत्वेऽपि मानुष्यं सर्वथा तात शोभनम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! उपभोगके साधनोंसे वंचित होनेपर भी मनुष्य अपने-आपको हीन न समझे। चाण्डालकी योनिमें भी यदि मनुष्य-जन्म प्राप्त हो तो वह मानवेतर प्राणियोंकी अपेक्षा सर्वथा उत्तम है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं हि योनिः प्रथमा यां प्राप्य जगतीपते।
आत्मा वै शक्यते त्रातुं कर्मभिः शुभलक्षणैः ॥ ३२ ॥

मूलम्

इयं हि योनिः प्रथमा यां प्राप्य जगतीपते।
आत्मा वै शक्यते त्रातुं कर्मभिः शुभलक्षणैः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि पृथ्वीनाथ! मनुष्यकी योनि ही वह अद्वितीय योनि है, जिसे पाकर शुभकर्मोंके अनुष्ठानसे आत्माका उद्धार किया जा सकता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं न विप्रणश्येम योनितोऽस्या इति प्रभो।
कुर्वन्ति धर्मं मनुजाः श्रुतिप्रामाण्यदर्शनात् ॥ ३३ ॥

मूलम्

कथं न विप्रणश्येम योनितोऽस्या इति प्रभो।
कुर्वन्ति धर्मं मनुजाः श्रुतिप्रामाण्यदर्शनात् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! हम कौन ऐसा उपाय करें, जिससे हमें इस मनुष्य-योनिसे नीचे न गिरना पड़े’ यह सोचकर और वैदिक प्रमाणोंपर विचार करके मनुष्य धर्मका अनुष्ठान करते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुष्यं द्विषते नरः।
धर्मावमन्ता कामात्मा भवेत्स खलु वञ्च्यते ॥ ३४ ॥

मूलम्

यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुष्यं द्विषते नरः।
धर्मावमन्ता कामात्मा भवेत्स खलु वञ्च्यते ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मानव अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर भी दूसरोंसे द्वेष करता है और धर्मका अनादर करता है तथा मनसे कामनाओंमें आसक्त हो जाता है, वह महान् लाभसे वंचित होता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु प्रीतिपुरोगेन चक्षुषा तात पश्यति।
दीपोपमानि भूतानि यावदर्थान्न पश्यति ॥ ३५ ॥

मूलम्

यस्तु प्रीतिपुरोगेन चक्षुषा तात पश्यति।
दीपोपमानि भूतानि यावदर्थान्न पश्यति ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! जो समस्त प्राणियोंको दीपकके समान स्नेहसे संवर्धन करनेयोग्य मानता है और उन्हें स्नेहभरी दृष्टिसे देखता है एवं जो समस्त विषयोंकी ओर कभी दृष्टिपात नहीं करता, वह परलोकमें सम्मानित होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सान्त्वेनान्नप्रदानेन प्रियवादेन चाप्युत ।
समदुःखसुखो भूत्वा स परत्र महीयते ॥ ३६ ॥

मूलम्

सान्त्वेनान्नप्रदानेन प्रियवादेन चाप्युत ।
समदुःखसुखो भूत्वा स परत्र महीयते ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सब लोगोंको सान्त्वना प्रदान करता, भूखोंको भोजन देता और प्रिय वचन बोलकर सबका सत्कार करता है, वह सुख-दुःखमें सम रहकर (इहलोक और) परलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानं त्यागः शोभना मूर्तिरद्‌भ्यो
भूतप्लाव्यं तपसा वै शरीरम्।
सरस्वतीनैमिषपुष्करेषु
ये चाप्यन्ये पुण्यदेशाः पृथिव्याम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

दानं त्यागः शोभना मूर्तिरद्‌भ्यो
भूतप्लाव्यं तपसा वै शरीरम्।
सरस्वतीनैमिषपुष्करेषु
ये चाप्यन्ये पुण्यदेशाः पृथिव्याम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सरस्वती नदी, नैमिषारण्यक्षेत्र, पुष्करक्षेत्र तथा और भी जो पृथ्वीके पावन तीर्थ हैं, उनमें जाकर दान देना, भोगोंका त्याग करना, शान्तभावसे रहना तथा तपस्या और तीर्थके जलसे तन-मनको पवित्र करना चाहिये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहेषु येषामसवः पतन्ति
तेषामथो निर्हरणं प्रशस्तम् ।
यानेन वै प्रापणं च श्मशाने
शौचेन नूनं विधिना चैव दाहः ॥ ३८ ॥

मूलम्

गृहेषु येषामसवः पतन्ति
तेषामथो निर्हरणं प्रशस्तम् ।
यानेन वै प्रापणं च श्मशाने
शौचेन नूनं विधिना चैव दाहः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घरोंमें जिनके प्राण निकल रहे हों, उन्हें शीघ्र ही घरसे बाहर ले जाना उत्तम है। मृत्युके पश्चात् उन्हें विमानपर सुलाकर श्मशानमें पहुँचाना तथा पवित्रतापूर्वक शास्त्रोक्तविधिसे उनका दाह-संस्कार करना आवश्यक कर्तव्य है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टिः पुष्टिर्यजनं याजनं च
दानं पुण्यानां कर्मणां च प्रयोगः।
शक्त्या पित्र्यं यच्च किंचित् प्रशस्तं
सर्वाण्यात्मार्थे मानवोऽयं करोति ॥ ३९ ॥

मूलम्

इष्टिः पुष्टिर्यजनं याजनं च
दानं पुण्यानां कर्मणां च प्रयोगः।
शक्त्या पित्र्यं यच्च किंचित् प्रशस्तं
सर्वाण्यात्मार्थे मानवोऽयं करोति ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य अपनी शक्तिके अनुसार इष्टि-पुष्टि (शान्तिकर्म), यजन, याजन, दान, पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान तथा श्राद्ध आदि जो भी कुछ उत्तम कार्य करता है, वह सब अपने ही लिये करता है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मशास्त्राणि वेदाश्च षडङ्गानि नराधिप।
श्रेयसोऽर्थे विधीयन्ते नरस्याक्लिष्टकर्मणः ॥ ४० ॥

मूलम्

धर्मशास्त्राणि वेदाश्च षडङ्गानि नराधिप।
श्रेयसोऽर्थे विधीयन्ते नरस्याक्लिष्टकर्मणः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! धर्मशास्त्र और छहों अंगोंसहित वेद पुण्यकर्म करनेवाले पुरुषके कल्याणके लिये ही कर्तव्यका विधान करते हैं॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् वै सर्वमाख्यातं मुनिना सुमहात्मना।
विदेहराजाय पुरा श्रेयसोऽर्थे नराधिप ॥ ४१ ॥

मूलम्

एतद् वै सर्वमाख्यातं मुनिना सुमहात्मना।
विदेहराजाय पुरा श्रेयसोऽर्थे नराधिप ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! प्राचीनकालमें महात्मा पराशर मुनिने विदेहराज जनकके कल्याणके लिये यह सब उपदेश दिया था॥४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पराशरगीतायां सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९७॥