२९६ पराशरगीतायाम्

भागसूचना

षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पराशरगीता—वर्णविशेषकी उत्पत्तिका रहस्य, तपोबलसे उत्कृष्ट वर्णकी प्राप्ति, विभिन्न वर्णोंके विशेष और सामान्य धर्म, सत्कर्मकी श्रेष्ठता तथा हिंसारहित धर्मका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णो विशेषवर्णानां महर्षे केन जायते।
एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं तद् ब्रूहि वदतां वर ॥ १ ॥

मूलम्

वर्णो विशेषवर्णानां महर्षे केन जायते।
एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं तद् ब्रूहि वदतां वर ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने पूछा— वक्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णोंका जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है? यह मैं जानना चाहता हूँ। आप इस विषयको बतायें॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः ॥ २ ॥

मूलम्

यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती है, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात् संततिके रूपमें जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है। ऐसी दशामें प्रारम्भमें ब्रह्माजीसे उत्पन्न हुए ब्राह्मणोंसे ही सबका जन्म हुआ है, तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी?॥२॥

मूलम् (वचनम्)

पराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः ॥ ३ ॥

मूलम्

एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराशरजीने कहा— महाराज! यह ठीक है कि जिससे जो जन्म लेता है, उसीका वह स्वरूप होता है तथापि तपस्याकी न्यूनताके कारण लोग निकृष्ट जातिको प्राप्त हो गये हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति सम्भवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते ॥ ४ ॥

मूलम्

सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति सम्भवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम क्षेत्र और उत्तम बीजसे जो जन्म होता है, वह पवित्र ही होता है। यदि क्षेत्र और बीजमेंसे एक भी निम्नकोटिका हो तो उससे निम्न संतानकी ही उत्पत्ति होती है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्त्राद् भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः ॥ ५ ॥

मूलम्

वक्त्राद् भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत्‌की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरु और पैर—इन अंगोंसे मनुष्योंका प्रादुर्भाव हुआ था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रियाः स्मृताः।
ऊरुजा धनिनो राजन् पादजाः परिचारकाः ॥ ६ ॥

मूलम्

मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रियाः स्मृताः।
ऊरुजा धनिनो राजन् पादजाः परिचारकाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! जो मुखसे उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओंसे उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंको क्षत्रिय माना गया। राजन्! जो ऊरुओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान् (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणोंसे हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्णामेव वर्णानामागमः पुरुषर्षभ ।
अतोऽन्ये त्वतिरिक्ता ये ते वै संकरजाः स्मृताः ॥ ७ ॥

मूलम्

चतुर्णामेव वर्णानामागमः पुरुषर्षभ ।
अतोऽन्ये त्वतिरिक्ता ये ते वै संकरजाः स्मृताः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर! इस प्रकार ब्रह्माजीके चार अंगोंसे चार वर्णोंकी ही उत्पत्ति हुई। इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णोंके सम्मिश्रणसे उत्पन्न होनेके कारण वर्णसंकर कहलाते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियातिरथाम्बष्ठा उग्रा वैदेहकास्तथा ।
श्वपाकाः पुल्कसाः स्तेना निषादाः सूतमागधाः ॥ ८ ॥
अयोगाः करणा व्रात्याश्चाण्डालाश्च नराधिप।
एते चतुर्भ्यो वर्णेभ्यो जायन्ते वै परस्परात् ॥ ९ ॥

मूलम्

क्षत्रियातिरथाम्बष्ठा उग्रा वैदेहकास्तथा ।
श्वपाकाः पुल्कसाः स्तेना निषादाः सूतमागधाः ॥ ८ ॥
अयोगाः करणा व्रात्याश्चाण्डालाश्च नराधिप।
एते चतुर्भ्यो वर्णेभ्यो जायन्ते वै परस्परात् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! क्षत्रिय, अतिरथ, अम्बष्ठ, उग्र, वैदेह, श्वपाक, पुल्कस, स्तेन, निषाद, सूत, मागध, अयोग, करण, व्रात्य और चाण्डाल—ये ब्राह्मण आदि चार वर्णोंसे अनुलोम और विलोम वर्णकी स्त्रियोंके साथ परस्पर संयोग होनेसे उत्पन्न होते हैं॥८-९॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणैकेन जातानां नानात्वं गोत्रतः कथम्।
बहूनीह हि लोके वै गोत्राणि मुनिसत्तम ॥ १० ॥

मूलम्

ब्रह्मणैकेन जातानां नानात्वं गोत्रतः कथम्।
बहूनीह हि लोके वै गोत्राणि मुनिसत्तम ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने पूछा— मुनिश्रेष्ठ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजीने ही जन्म दिया है, तब मनुष्योंके भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए? इस जगत्‌में मनुष्योंके बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र तत्र कथं जाताः स्वयोनिं मुनयो गताः।
शुद्धयोनौ समुत्पन्ना वियोनौ च तथा परे ॥ ११ ॥

मूलम्

यत्र तत्र कथं जाताः स्वयोनिं मुनयो गताः।
शुद्धयोनौ समुत्पन्ना वियोनौ च तथा परे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात् जो शुद्ध योनिमें और दूसरे जो विपरीत योनिमें उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्वको कैसे प्राप्त हुए?॥११॥

मूलम् (वचनम्)

पराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन्नेतद् भवेद् ग्राह्यमपकृष्टेन जन्मना।
महात्मनां समुत्पत्तिस्तपसा भावितात्मनाम् ॥ १२ ॥

मूलम्

राजन्नेतद् भवेद् ग्राह्यमपकृष्टेन जन्मना।
महात्मनां समुत्पत्तिस्तपसा भावितात्मनाम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराशरजीने कहा— राजन्! तपस्यासे जिनके अन्तःकरण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरुषोंके द्वारा जिस संतानकी उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छासे जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्रकी दृष्टिसे निकृष्ट होनेपर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पाद्य पुत्रान् मुनयो नृपते यत्र तत्र ह।
स्वेनैव तपसा तेषामृषित्वं विदधुः पुनः ॥ १३ ॥

मूलम्

उत्पाद्य पुत्रान् मुनयो नृपते यत्र तत्र ह।
स्वेनैव तपसा तेषामृषित्वं विदधुः पुनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! मुनियोंने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबलसे ऋषि बना दिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामहश्च मे पूर्वमृष्यशृङ्गश्च काश्यपः।
वेदस्ताण्ड्यः कृपश्चैव कक्षीवान् कमठादयः ॥ १४ ॥
यवक्रीतश्च नृपते द्रोणश्च वदतां वरः।
आयुर्मतङ्गो दत्तश्च द्रुपदो मत्स्य एव च ॥ १५ ॥
एते स्वां प्रकृतिं प्राप्ता वैदेह तपसोऽऽश्रयात्।
प्रतिष्ठिता वेदविदो दमेन तपसैव हि ॥ १६ ॥

मूलम्

पितामहश्च मे पूर्वमृष्यशृङ्गश्च काश्यपः।
वेदस्ताण्ड्यः कृपश्चैव कक्षीवान् कमठादयः ॥ १४ ॥
यवक्रीतश्च नृपते द्रोणश्च वदतां वरः।
आयुर्मतङ्गो दत्तश्च द्रुपदो मत्स्य एव च ॥ १५ ॥
एते स्वां प्रकृतिं प्राप्ता वैदेह तपसोऽऽश्रयात्।
प्रतिष्ठिता वेदविदो दमेन तपसैव हि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदेहराज! मेरे पितामह वसिष्ठजी, काश्यप-गोत्रीय ऋष्यशृङ्ग, वेद, ताण्ड्य, कृप, कक्षीवान्, कमठ आदि, यवक्रीत, वक्ताओंमें श्रेष्ठ द्रोण, आयु, मतंग, दत्त, द्रुपद तथा मत्स्य—ये सब तपस्याका आश्रय लेनेसे ही अपनी-अपनी प्रकृतिको प्राप्त हुए थे। इन्द्रियसंयम और तपसे ही वे वेदोंके विद्वान् तथा समाजमें प्रतिष्ठित हुए थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च ॥ १७ ॥
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम् ॥ १८ ॥

मूलम्

मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च ॥ १७ ॥
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु—ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्य गोत्र कर्मके अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियोंकी तपस्यासे ही साधु-समाजमें सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं॥१७-१८॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशेषधर्मान् वर्णानां प्रब्रूहि भगवन् मम।
ततः सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि ॥ १९ ॥

मूलम्

विशेषधर्मान् वर्णानां प्रब्रूहि भगवन् मम।
ततः सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने पूछा— भगवन्! आप मुझे सब वर्णोंके विशेष धर्म बताइये, फिर सामान्य धर्मोंका भी वर्णन कीजिये; क्योंकि आप सब विषयोंका प्रतिपादन करनेमें कुशल हैं॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

पराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिग्रहो याजनं च तथैवाध्यापनं नृप।
विशेषधर्मा विप्राणां रक्षा क्षत्रस्य शोभना ॥ २० ॥

मूलम्

प्रतिग्रहो याजनं च तथैवाध्यापनं नृप।
विशेषधर्मा विप्राणां रक्षा क्षत्रस्य शोभना ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराशरजीने कहा— राजन्! दान लेना, यज्ञ कराना तथा विद्या पढ़ाना—ये ब्राह्मणोंके विशेष धर्म हैं (जो उनकी जीविकाके साधन हैं)। प्रजाकी रक्षा करना क्षत्रियके लिये श्रेष्ठ धर्म है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृषिश्च पाशुपाल्यं च वाणिज्यं च विशामपि।
द्विजानां परिचर्या च शूद्रकर्म नराधिप ॥ २१ ॥

मूलम्

कृषिश्च पाशुपाल्यं च वाणिज्यं च विशामपि।
द्विजानां परिचर्या च शूद्रकर्म नराधिप ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! कृषि, पशुपालन और व्यापार—ये वैश्योंके कर्म हैं तथा द्विजातियोंकी सेवा शूद्रका धर्म है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशेषधर्मा नृपते वर्णानां परिकीर्तिताः।
धर्मान् साधारणांस्तात विस्तरेण शृणुष्व मे ॥ २२ ॥

मूलम्

विशेषधर्मा नृपते वर्णानां परिकीर्तिताः।
धर्मान् साधारणांस्तात विस्तरेण शृणुष्व मे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ये वर्णोंके विशेष धर्म बताये गये हैं। तात! अब उनके साधारण धर्मोंका विस्तारपूर्वक वर्णन मुझसे सुनो॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यमहिंसा चाप्रमादः संविभागिता ।
श्राद्धकर्मातिथेयं च सत्यमक्रोध एव च ॥ २३ ॥
स्वेषु दारेषु संतोषः शौचं नित्यानसूयता।
आत्मज्ञानं तितिक्षा च धर्माः साधारणा नृप ॥ २४ ॥

मूलम्

आनृशंस्यमहिंसा चाप्रमादः संविभागिता ।
श्राद्धकर्मातिथेयं च सत्यमक्रोध एव च ॥ २३ ॥
स्वेषु दारेषु संतोषः शौचं नित्यानसूयता।
आत्मज्ञानं तितिक्षा च धर्माः साधारणा नृप ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रूरताका अभाव (दया), अहिंसा, अप्रमाद (सावधानी), देवता-पितर आदिको उनके भाग समर्पित करना अथवा दान देना, श्राद्धकर्म, अतिथिसत्कार, सत्य, अक्रोध, अपनी ही पत्नीमें संतुष्ट रहना, पवित्रता रखना, कभी किसीके दोष न देखना, आत्मज्ञान तथा सहनशीलता—ये सभी वर्णोंके सामान्य धर्म हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्त्रयो वर्णा द्विजातयः।
अत्र तेषामधीकारो धर्मेषु द्विपदां वर ॥ २५ ॥

मूलम्

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्त्रयो वर्णा द्विजातयः।
अत्र तेषामधीकारो धर्मेषु द्विपदां वर ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। उपर्युक्त धर्मोंमें इन्हींका अधिकार है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकर्मावस्थिता वर्णाः पतन्ते नृपते त्रयः।
उन्नमन्ति यथासन्तमाश्रित्येह स्वकर्मसु ॥ २६ ॥

मूलम्

विकर्मावस्थिता वर्णाः पतन्ते नृपते त्रयः।
उन्नमन्ति यथासन्तमाश्रित्येह स्वकर्मसु ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! ये तीन वर्ण विपरीत कर्मोंमें प्रवृत्त होनेपर पतित हो जाते हैं। सत्पुरुषोंका आश्रय ले अपने-अपने कर्मोंमें लगे रहनेसे जैसे इनकी उन्नति होती है, वैसे ही विपरीत कर्मोंके आचरणसे पतन भी हो जाता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चापि शूद्रः पततीति निश्चयो
न चापि संस्कारमिहार्हतीति वा।
श्रुतिप्रवृत्तं न च धर्ममाप्नुते
न चास्य धर्मे प्रतिषेधनं कृतम् ॥ २७ ॥

मूलम्

न चापि शूद्रः पततीति निश्चयो
न चापि संस्कारमिहार्हतीति वा।
श्रुतिप्रवृत्तं न च धर्ममाप्नुते
न चास्य धर्मे प्रतिषेधनं कृतम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह निश्चय है कि शूद्र पतित नहीं होता तथा वह उपनयन आदि संस्कारका भी अधिकारी नहीं है। उसे वैदिक अग्निहोत्र आदि कर्मोंके अनुष्ठानका भी अधिकार नहीं प्राप्त है; परंतु उपर्युक्त सामान्य धर्मोंका उसके लिये निषेध भी नहीं किया गया है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैदेह कं शूद्रमुदाहरन्ति
द्विजा महाराज श्रुतोपपन्नाः ।
अहं हि पश्यामि नरेन्द्र देवं
विश्वस्य विष्णुं जगतः प्रधानम् ॥ २८ ॥

मूलम्

वैदेह कं शूद्रमुदाहरन्ति
द्विजा महाराज श्रुतोपपन्नाः ।
अहं हि पश्यामि नरेन्द्र देवं
विश्वस्य विष्णुं जगतः प्रधानम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज विदेहनरेश! वेद-शास्त्रोंके ज्ञानसे सम्पन्न द्विज शूद्रको प्रजापतिके तुल्य बताते हैं (क्योंकि वह परिचर्याद्वारा समस्त प्रजाका पालन करता है); परंतु नरेन्द्र! मैं तो उसे सम्पूर्ण जगत्‌के प्रधान रक्षक भगवान् विष्णुके रूपमें देखता हूँ (क्योंकि पालन कर्म विष्णुका ही है और वह अपने उस कर्मद्वारा पालनकर्ता श्रीहरिकी आराधना करके उन्हींको प्राप्त होता है)॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतां वृत्तमधिष्ठाय निहीना उद्दिधीर्षवः।
मन्त्रवर्जं न दुष्यन्ति कुर्वाणाः पौष्टिकीः क्रियाः ॥ २९ ॥

मूलम्

सतां वृत्तमधिष्ठाय निहीना उद्दिधीर्षवः।
मन्त्रवर्जं न दुष्यन्ति कुर्वाणाः पौष्टिकीः क्रियाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हीनवर्णके मनुष्य (शूद्र) यदि अपना उद्धार करना चाहें तो सदाचारका पालन करते हुए आत्माको उन्नत बनानेवाली समस्त क्रियाओंका अनुष्ठान करें; परंतु वैदिक मन्त्रका उच्चारण न करें। ऐसा करनेसे वे दोषके भागी नहीं होते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा यथा हि सद्‌वृत्तमालम्बन्तीतरे जनाः।
तथा तथा सुखं प्राप्य प्रेत्य चेह च मोदते॥३०॥

मूलम्

यथा यथा हि सद्‌वृत्तमालम्बन्तीतरे जनाः।
तथा तथा सुखं प्राप्य प्रेत्य चेह च मोदते॥३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतर जातीय मनुष्य भी जैसे-जैसे सदाचारका आश्रय लेते हैं, वैसे-ही-वैसे सुख पाकर इहलोक और परलोकमें भी आनन्द भोगते हैं॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं कर्म दूषयत्येनमथो जातिर्महामुने।
संदेहो मे समुत्पन्नस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३१ ॥

मूलम्

किं कर्म दूषयत्येनमथो जातिर्महामुने।
संदेहो मे समुत्पन्नस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने पूछा— महामुने! मनुष्यको उसके कर्म दूषित करते हैं या जाति? मेरे मनमें यह संदेह उत्पन्न हुआ है, आप इसका विवेचन कीजिये॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

पराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंशयं महाराज उभयं दोषकारकम्।
कर्म चैव हि जातिश्च विशेषं तु निशामय ॥ ३२ ॥

मूलम्

असंशयं महाराज उभयं दोषकारकम्।
कर्म चैव हि जातिश्च विशेषं तु निशामय ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराशरजीने कहा— महाराज! इसमें संदेह नहीं कि कर्म और जाति दोनों ही दोषकारक होते हैं; परंतु इसमें जो विशेष बात है, उसे बताता हूँ, सुनो॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जात्या च कर्मणा चैव दुष्टं कर्म न सेवते।
जात्या दुष्टश्च यः पापं न करोति स पूरुषः॥३३॥

मूलम्

जात्या च कर्मणा चैव दुष्टं कर्म न सेवते।
जात्या दुष्टश्च यः पापं न करोति स पूरुषः॥३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जाति और कर्म—इन दोनोंसे श्रेष्ठ तथा पापकर्मका सेवन नहीं करता एवं जातिसे दूषित होकर भी जो पापकर्म नहीं करता है, वही पुरुष कहलाने योग्य है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जात्या प्रधानं पुरुषं कुर्वाणं कर्म धिक्‌कृतम्।
कर्म तद् दूषयत्येनं तस्मात् कर्म न शोभनम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

जात्या प्रधानं पुरुषं कुर्वाणं कर्म धिक्‌कृतम्।
कर्म तद् दूषयत्येनं तस्मात् कर्म न शोभनम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जातिसे श्रेष्ठ पुरुष भी यदि निन्दित कर्म करता है तो वह कर्म उसे कलंकित कर देता है; इसलिये किसी भी दृष्टिसे बुरा कर्म करना अच्छा नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

जनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कानि कर्माणि धर्म्याणि लोकेऽस्मिन् द्विजसत्तम।
न हिंसन्तीह भूतानि क्रियमाणानि सर्वदा ॥ ३५ ॥

मूलम्

कानि कर्माणि धर्म्याणि लोकेऽस्मिन् द्विजसत्तम।
न हिंसन्तीह भूतानि क्रियमाणानि सर्वदा ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकने पूछा— द्विजश्रेष्ठ! इस लोकमें कौन-कौन-से ऐसे धर्मानुकूल कर्म हैं, जिनका अनुष्ठान करते समय कभी किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं होती?॥

मूलम् (वचनम्)

पराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु मेऽत्र महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
यानि कर्माण्यहिंस्राणि नरं त्रायन्ति सर्वदा ॥ ३६ ॥

मूलम्

शृणु मेऽत्र महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
यानि कर्माण्यहिंस्राणि नरं त्रायन्ति सर्वदा ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराशरजीने कहा— महाराज! तुम जिन कर्मोंके विषयमें पूछ रहे हो, उन्हें बताता हूँ, मुझसे सुनो। जो कर्म हिंसासे रहित हैं, वे सदा मनुष्यकी रक्षा करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संन्यस्याग्नीनुदासीनाः पश्यन्ति विगतज्वराः ।
नैःश्रेयसं कर्मपथं समारुह्य यथाक्रमम् ॥ ३७ ॥
प्रश्रिता विनयोपेता दमनित्याः सुसंशिताः।
प्रयान्ति स्थानमजरं सर्वकर्मविवर्जिताः ॥ ३८ ॥

मूलम्

संन्यस्याग्नीनुदासीनाः पश्यन्ति विगतज्वराः ।
नैःश्रेयसं कर्मपथं समारुह्य यथाक्रमम् ॥ ३७ ॥
प्रश्रिता विनयोपेता दमनित्याः सुसंशिताः।
प्रयान्ति स्थानमजरं सर्वकर्मविवर्जिताः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग (संन्यासकी दीक्षा ले) अग्निहोत्रका त्याग करके उदासीनभावसे सब कुछ देखते रहते हैं और सब प्रकारकी चिन्ताओंसे रहित हो क्रमशः कल्याणकारी कर्मके पथपर आरूढ़ होकर नम्रता, विनय और इन्द्रियसंयम आदि गुणोंको अपनाते तथा तीक्ष्ण व्रतका पालन करते हैं, वे सब कर्मोंसे रहित हो अविनाशी पदको प्राप्त कर लेते हैं॥३७-३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे वर्णा धर्मकार्याणि सम्यक्
कृत्वा राजन् सत्यवाक्यानि चोक्त्वा।
त्यक्त्वाधर्मं दारुणं जीवलोके
यान्ति स्वर्गं नात्र कार्यो विचारः ॥ ३९ ॥

मूलम्

सर्वे वर्णा धर्मकार्याणि सम्यक्
कृत्वा राजन् सत्यवाक्यानि चोक्त्वा।
त्यक्त्वाधर्मं दारुणं जीवलोके
यान्ति स्वर्गं नात्र कार्यो विचारः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सभी वर्णोंके लोग इस जीव-जगत्‌में अपने-अपने धर्मानुसार कर्मका भलीभाँति अनुष्ठान करके, सदा सत्य बोलकर तथा भयानक पापकर्मका सर्वथा परित्याग करके स्वर्गलोकमें जाते हैं। इस विषयमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये॥३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पराशरगीतायां षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९६॥