भागसूचना
चतुर्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पराशरगीता—ब्राह्मण और शूद्रकी जीविका, निन्दनीय कर्मोंके त्यागकी आज्ञा, मनुष्योंमें आसुरभावकी उत्पत्ति और भगवान् शिवके द्वारा उसका निवारण तथा स्वधर्मके अनुसार कर्तव्यपालनका आदेश
मूलम् (वचनम्)
पराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिग्रहागता विप्रे क्षत्रिये युधि निर्जिताः।
वैश्ये न्यायार्जिताश्चैव शूद्रे शुश्रूषयार्जिताः ॥ १ ॥
स्वल्पाप्यर्थाः प्रशस्यन्ते धर्मस्यार्थे महाफलाः।
मूलम्
प्रतिग्रहागता विप्रे क्षत्रिये युधि निर्जिताः।
वैश्ये न्यायार्जिताश्चैव शूद्रे शुश्रूषयार्जिताः ॥ १ ॥
स्वल्पाप्यर्थाः प्रशस्यन्ते धर्मस्यार्थे महाफलाः।
अनुवाद (हिन्दी)
पराशरजी कहते हैं— राजन्! ब्राह्मणके यहाँ प्रतिग्रहसे मिला हुआ, क्षत्रियके घर युद्धसे जीतकर लाया हुआ, वैश्यके पास न्यायपूर्वक (खेती आदिसे) कमाया हुआ और शूद्रके यहाँ सेवासे प्राप्त हुआ थोड़ा-सा भी धन हो तो उसकी बड़ी प्रशंसा होती है तथा धर्मके कार्यमें उसका उपभोग हो तो वह महान् फल देनेवाला होता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं त्रयाणां वर्णानां शुश्रूषुः शूद्र उच्यते ॥ २ ॥
क्षत्रधर्मा वैश्यधर्मा नावृत्तिः पतते द्विजः।
शूद्रधर्मा यदा तु स्यात् तदा पतति वै द्विजः॥३॥
मूलम्
नित्यं त्रयाणां वर्णानां शुश्रूषुः शूद्र उच्यते ॥ २ ॥
क्षत्रधर्मा वैश्यधर्मा नावृत्तिः पतते द्विजः।
शूद्रधर्मा यदा तु स्यात् तदा पतति वै द्विजः॥३॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्रको तीनों वर्णोंका नित्य सेवक बताया जाता है। यदि ब्राह्मण जीविकाके अभावमें क्षत्रिय अथवा वैश्यके धर्मसे जीवन-निर्वाह करे तो वह पतित नहीं होता है; किंतु जब वह शूद्रके धर्मको अपनाता है, तब तत्काल पतित हो जाता है॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाणिज्यं पाशुपाल्यं च तथा शिल्पोपजीवनम्।
शूद्रस्यापि विधीयन्ते यदा वृत्तिर्न जायते ॥ ४ ॥
मूलम्
वाणिज्यं पाशुपाल्यं च तथा शिल्पोपजीवनम्।
शूद्रस्यापि विधीयन्ते यदा वृत्तिर्न जायते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब शूद्र सेवावृत्तिसे जीविका न चला सके, तब उसके लिये भी व्यापार, पशुपालन तथा शिल्पकला आदिसे जीवन-निर्वाह करनेकी आज्ञा है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रङ्गावतरणं चैव तथा रूपोपजीवनम्।
मद्यमांसोपजीव्यं च विक्रयं लोहचर्मणोः ॥ ५ ॥
अपूर्विणा न कर्तव्यं कर्म लोके विगर्हितम्।
कृतपूर्वं तु त्यजतो महान् धर्म इति श्रुतिः ॥ ६ ॥
मूलम्
रङ्गावतरणं चैव तथा रूपोपजीवनम्।
मद्यमांसोपजीव्यं च विक्रयं लोहचर्मणोः ॥ ५ ॥
अपूर्विणा न कर्तव्यं कर्म लोके विगर्हितम्।
कृतपूर्वं तु त्यजतो महान् धर्म इति श्रुतिः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रंगमंचपर स्त्री आदिके वेषमें उतरकर नाचना या खेल दिखाना, बहुरूपियेका काम करना, मदिरा और मांस बेचकर जीविका चलाना तथा लोहे और चमड़ेकी बिक्री करना—ये सब काम (सबके लिये) लोकमें निन्दित माने गये हैं। जिसके घरमें पूर्वपरम्परासे ये काम न होते आये हों, उसे स्वयं इनका आरम्भ नहीं करना चाहिये। जिसके यहाँ पहलेसे इन्हें करनेकी प्रथा हो, वह भी छोड़ दे तो महान् धर्म होता है—ऐसा शास्त्रका निर्णय है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसिद्धः पुरुषो लोके यदाचरति पापकम्।
मदेनाभिप्लुतमनास्तच्च न ग्राह्यमुच्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
संसिद्धः पुरुषो लोके यदाचरति पापकम्।
मदेनाभिप्लुतमनास्तच्च न ग्राह्यमुच्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई जगत्में प्रसिद्ध हुआ पुरुष घमण्डमें आकर या मनमें लोभ भरा रहनेके कारण पापाचरण करने लगे तो उसका वह कार्य अनुकरण करने योग्य नहीं बताया गया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयन्ते हि पुराणेषु प्रजा धिग्दण्डशासनाः।
दान्ता धर्मप्रधानाश्च न्यायधर्मानुवृत्तिकाः ॥ ८ ॥
मूलम्
श्रूयन्ते हि पुराणेषु प्रजा धिग्दण्डशासनाः।
दान्ता धर्मप्रधानाश्च न्यायधर्मानुवृत्तिकाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुराणोंमें सुना जाता है कि पहले अधिकांश मनुष्य संयमी, धार्मिक तथा न्यायोचित आचारका ही अनुसरण करनेवाले थे। उस समय अपराधियोंको धिक्कारमात्रका ही दण्ड दिया जाता था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म एव सदा नॄणामिह राजन् प्रशस्यते।
धर्मवृद्धा गुणानेव सेवन्ते हि नरा भुवि ॥ ९ ॥
मूलम्
धर्म एव सदा नॄणामिह राजन् प्रशस्यते।
धर्मवृद्धा गुणानेव सेवन्ते हि नरा भुवि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस जगत्में सदा मनुष्योंके धर्मकी ही प्रशंसा होती आयी है। धर्ममें बढ़े-चढ़े लोग इस भूतलपर केवल सद्गुणोंका ही सेवन करते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं धर्ममसुरास्तात नामृष्यन्त जनाधिप।
विवर्धमानाः क्रमशस्तत्र तेऽन्वाविशन् प्रजाः ॥ १० ॥
मूलम्
तं धर्ममसुरास्तात नामृष्यन्त जनाधिप।
विवर्धमानाः क्रमशस्तत्र तेऽन्वाविशन् प्रजाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! जनेश्वर! परंतु उस धर्मको असुर नहीं सह सके। वे क्रमशः बढ़ते हुए प्रजाके शरीरमें समा गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां दर्पः समभवत् प्रजानां धर्मनाशनः।
दर्पात्मनां ततः पश्चात् क्रोधस्तासामजायत ॥ ११ ॥
मूलम्
तासां दर्पः समभवत् प्रजानां धर्मनाशनः।
दर्पात्मनां ततः पश्चात् क्रोधस्तासामजायत ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब प्रजाओंमें धर्मको नष्ट करनेवाला दर्प प्रकट हुआ। फिर जब प्रजाओंके मनमें दर्प आ गया, तब क्रोधका भी प्रादुर्भाव हो गया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रोधाभिभूतानां वृत्तं लज्जासमन्वितम्।
ह्रीश्चैवाप्यनशद् राजंस्ततो मोहो व्यजायत ॥ १२ ॥
मूलम्
ततः क्रोधाभिभूतानां वृत्तं लज्जासमन्वितम्।
ह्रीश्चैवाप्यनशद् राजंस्ततो मोहो व्यजायत ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर क्रोधसे आक्रान्त होनेपर मनुष्योंके लज्जायुक्त सदाचारका लोप हो गया। उनका संकोच भी जाता रहा। इसके बाद उनमें मोहकी उत्पत्ति हुई॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मोहपरीतास्ता नापश्यन्त यथा पुरा।
परस्परावमर्देन वर्धयन्त्यो यथासुखम् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततो मोहपरीतास्ता नापश्यन्त यथा पुरा।
परस्परावमर्देन वर्धयन्त्यो यथासुखम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोहसे घिर जानेपर उनमें पहले-जैसी विवेकपूर्ण दृष्टि नहीं रह गयी; अतः वे परस्पर एक-दूसरेका विनाश करके अपने-अपने सुखको बढ़ानेकी चेष्टा करने लगे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताः प्राप्य तु स धिग्दण्डो न कारणमतोऽभवत्।
ततोऽभ्यगच्छन् देवांश्च ब्राह्मणांश्चावमन्य ह ॥ १४ ॥
मूलम्
ताः प्राप्य तु स धिग्दण्डो न कारणमतोऽभवत्।
ततोऽभ्यगच्छन् देवांश्च ब्राह्मणांश्चावमन्य ह ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन बिगड़े हुए लोगोंको पाकर धिक्कारका दण्ड उन्हें राहपर लानेमें सफल न हो सका। सभी मनुष्य देवता और ब्राह्मणोंका अपमान करके मनमाने तौरपर विषय-भोगोंका सेवन करने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नेव काले तु देवा देववरं शिवम्।
अगच्छन् शरणं धीरं बहुरूपं गुणाधिकम् ॥ १५ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नेव काले तु देवा देववरं शिवम्।
अगच्छन् शरणं धीरं बहुरूपं गुणाधिकम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा अवसर उपस्थित होनेपर सम्पूर्ण देवता अनेक रूपधारी, अधिक गुणशाली, धीरजस्वभाव देवेश्वर भगवान् शिवकी शरणमें गये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन स्म ते गगनगाः सपुराः पातिताः क्षितौ।
त्रिधाप्येकेन बाणेन देवाप्यायिततेजसा ॥ १६ ॥
मूलम्
तेन स्म ते गगनगाः सपुराः पातिताः क्षितौ।
त्रिधाप्येकेन बाणेन देवाप्यायिततेजसा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शिवजीने देवताओंके द्वारा बढ़ाये हुए तेजसे युक्त एक ही शक्तिशाली बाणके द्वारा तीन नगरोंसहित आकाशमें विचरनेवाले उन समस्त असुरोंको मारकर पृथ्वीपर गिरा दिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामधिपतिस्त्वासीद् भीमो भीमपराक्रमः ।
देवतानां भयकरः स हतः शूलपाणिना ॥ १७ ॥
मूलम्
तेषामधिपतिस्त्वासीद् भीमो भीमपराक्रमः ।
देवतानां भयकरः स हतः शूलपाणिना ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन असुरोंका स्वामी भयंकर आकारवाला तथा भीषण पराक्रमी था। देवताओंको वह सदा भयभीत किये रहता था; किंतु भगवान् शूलपाणिने उसे भी मार डाला॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् हतेऽथ स्वं भावं प्रत्यपद्यन्त मानवाः।
प्रापद्यन्त च वेदान् वै शास्त्राणि च यथा पुरा॥१८॥
मूलम्
तस्मिन् हतेऽथ स्वं भावं प्रत्यपद्यन्त मानवाः।
प्रापद्यन्त च वेदान् वै शास्त्राणि च यथा पुरा॥१८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस असुरके मारे जानेपर सब मनुष्य प्रकृतिस्थ हो गये तथा उन्हें पूर्ववत् वेद और शास्त्रोंका ज्ञान हो गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभिषिच्य राज्येन देवानां दिवि वासवम्।
सप्तर्षयश्चान्वयुञ्जन् नराणां दण्डधारणे ॥ १९ ॥
मूलम्
ततोऽभिषिच्य राज्येन देवानां दिवि वासवम्।
सप्तर्षयश्चान्वयुञ्जन् नराणां दण्डधारणे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् सप्तर्षियोंने इन्द्रको स्वर्गमें देवताओंके राज्यपर अभिषिक्त किया और वे स्वयं मनुष्यके शासन-कार्यमें लग गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तर्षीणामथोर्ध्वं च विपृथुर्नाम पार्थिवः।
राजानः क्षत्रियाश्चैव मण्डलेषु पृथक् पृथक् ॥ २० ॥
मूलम्
सप्तर्षीणामथोर्ध्वं च विपृथुर्नाम पार्थिवः।
राजानः क्षत्रियाश्चैव मण्डलेषु पृथक् पृथक् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सप्तर्षियोंके बाद विपृथु नामक राजा भूमण्डलका स्वामी हुआ तथा और भी बहुत-से क्षत्रिय भिन्न-भिन्न मण्डलोंके राजा हुए॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाकुलेषु ये जाता वृद्धाः पूर्वतराश्च ये।
तेषामप्यासुरो भावो हृदयान्नापसर्पति ॥ २१ ॥
मूलम्
महाकुलेषु ये जाता वृद्धाः पूर्वतराश्च ये।
तेषामप्यासुरो भावो हृदयान्नापसर्पति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय जो उच्च कुलोंमें उत्पन्न हुए थे, अवस्था और गुणोंमें बढ़े-चढ़े थे तथा जो उनसे भी पूर्ववर्ती पुरुष थे, उनके हृदयसे भी आसुरभाव पूर्णरूपसे नहीं निकला था॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् तेनैव भावेन सानुषङ्गेण पार्थिवाः।
आसुराण्येव कर्माणि न्यसेवन् भीमविक्रमाः ॥ २२ ॥
मूलम्
तस्मात् तेनैव भावेन सानुषङ्गेण पार्थिवाः।
आसुराण्येव कर्माणि न्यसेवन् भीमविक्रमाः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः उसी आनुषंगिक आसुरभावसे युक्त होकर कितने ही भयंकर पराक्रमी भूपाल असुरोचित कर्मोंका ही सेवन करने लगे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यतिष्ठंश्च तेष्वेव तान्येव स्थापयन्त्यपि।
भजन्ते तानि चाद्यापि ये बालिशतरा नराः ॥ २३ ॥
मूलम्
प्रत्यतिष्ठंश्च तेष्वेव तान्येव स्थापयन्त्यपि।
भजन्ते तानि चाद्यापि ये बालिशतरा नराः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अत्यन्त मूर्ख हैं, वे आज भी उन्हीं आसुरभावोंमें स्थित हैं, उन्हींकी स्थापना करते हैं और उन्हींको सब प्रकारसे अपनाते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादहं ब्रवीमि त्वां राजन् संचिन्त्य शास्त्रतः।
संसिद्धाधिगमं कुर्यात् कर्म हिंसात्मकं त्यजेत् ॥ २४ ॥
मूलम्
तस्मादहं ब्रवीमि त्वां राजन् संचिन्त्य शास्त्रतः।
संसिद्धाधिगमं कुर्यात् कर्म हिंसात्मकं त्यजेत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः राजन्! मैं शास्त्रके अनुसार खूब सोच-विचारकर कहता हूँ कि मनुष्यको उन्नत होनेका प्रयत्न तो करना चाहिये, किंतु हिंसात्मक कर्मका त्याग कर देना चाहिये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न संकरेण द्रविणं प्रचिन्वीयाद् विचक्षणः।
धर्मार्थं न्यायमुत्सृज्य न तत् कल्याणमुच्यते ॥ २५ ॥
मूलम्
न संकरेण द्रविणं प्रचिन्वीयाद् विचक्षणः।
धर्मार्थं न्यायमुत्सृज्य न तत् कल्याणमुच्यते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह धर्म करनेके लिये न्यायको त्यागकर पापमिश्रित मार्गसे धनका संग्रह न करे; क्योंकि उसे कल्याणकारी नहीं बताया जाता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वमेवंविधो दान्तः क्षत्रियः प्रियबान्धवः।
प्रजा भृत्यांश्च पुत्रांश्च स्वधर्मेणानुपालय ॥ २६ ॥
मूलम्
स त्वमेवंविधो दान्तः क्षत्रियः प्रियबान्धवः।
प्रजा भृत्यांश्च पुत्रांश्च स्वधर्मेणानुपालय ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तुम भी इसी प्रकार जितेन्द्रिय क्षत्रिय होकर बन्धु-बान्धवोंसे प्रेम रखते हुए प्रजा, भृत्य और पुत्रोंका स्वधर्मके अनुसार पालन करो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टानिष्टसमायोगो वैरं सौहार्दमेव च।
अथ जातिसहस्राणि बहूनि परिवर्तते ॥ २७ ॥
मूलम्
इष्टानिष्टसमायोगो वैरं सौहार्दमेव च।
अथ जातिसहस्राणि बहूनि परिवर्तते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इष्ट और अनिष्टका संयोग, वैर और सौहार्द—इन सबका अनुभव करते-करते जीवके कई सहस्र जन्म बीत जाते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् गुणेषु रज्येथा मा दोषेषु कथंचन।
निर्गुणोऽपि हि दुर्बुद्धिरात्मनः सोऽतिरज्यते ॥ २८ ॥
मूलम्
तस्माद् गुणेषु रज्येथा मा दोषेषु कथंचन।
निर्गुणोऽपि हि दुर्बुद्धिरात्मनः सोऽतिरज्यते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये तुम सद्गुणोंमें ही अनुराग रखो, दोषोंमें किसी प्रकार नहीं; क्योंकि गुणहीन और दुर्बुद्धि मनुष्य भी अपने गुणोंके अभिमानसे अत्यन्त संतुष्ट रहता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषेषु महाराज धर्माधर्मौ प्रवर्ततः।
न तथान्येषु भूतेषु मनुष्यरहितेष्विह ॥ २९ ॥
मूलम्
मानुषेषु महाराज धर्माधर्मौ प्रवर्ततः।
न तथान्येषु भूतेषु मनुष्यरहितेष्विह ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! यहाँ मनुष्योंमें जैसे धर्म और अधर्म निवास करते हैं, उस प्रकार मनुष्येतर अन्य प्राणियोंमें नहीं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मशीलो नरो विद्वानीहकोऽनीहकोऽपि वा।
आत्मभूतः सदा लोके चरेद् भूतान्यहिंसया ॥ ३० ॥
मूलम्
धर्मशीलो नरो विद्वानीहकोऽनीहकोऽपि वा।
आत्मभूतः सदा लोके चरेद् भूतान्यहिंसया ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मशील विद्वान् मनुष्य सचेष्ट हो चाहे चेष्टारहित, उसे चाहिये कि सदैव जगत्में सबके प्रति आत्मभाव रखकर किसी भी प्राणीकी हिंसा न करते हुए समभावसे व्यवहार करे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा व्यपेतहृल्लेखं मनो भवति तस्य वै।
नानृतं चैव भवति तदा कल्याणमृच्छति ॥ ३१ ॥
मूलम्
यदा व्यपेतहृल्लेखं मनो भवति तस्य वै।
नानृतं चैव भवति तदा कल्याणमृच्छति ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मनुष्यका मन कामना और कर्म-संस्कारोंसे रहित हो जाता है तथा वह मिथ्याचारसे रहित हो जाता है, उस समय उसे कल्याणकी प्राप्ति होती है॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पराशरगीतायां चतुर्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९४॥