२९३ पराशरगीतायाम्

भागसूचना

त्रिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पराशरगीता—शूद्रके लिये सेवावृत्तिकी प्रधानता, सत्संगकी महिमा और चारों वर्णोंके धर्मपालनका महत्त्व

मूलम् (वचनम्)

पराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्तिः सकाशाद् वर्णेभ्यस्त्रिभ्यो हीनस्य शोभना।
प्रीत्योपनीता निर्दिष्टा धर्मिष्ठान् कुरुते सदा ॥ १ ॥

मूलम्

वृत्तिः सकाशाद् वर्णेभ्यस्त्रिभ्यो हीनस्य शोभना।
प्रीत्योपनीता निर्दिष्टा धर्मिष्ठान् कुरुते सदा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराशरजी कहते हैं— राजन्! शूद्रके लिये तीनों वर्णोंकी सेवासे जीवन-निर्वाह करना ही सबसे उत्तम है। शूद्रके लिये निर्दिष्ट सेवावृत्तिका यदि वे प्रेमपूर्वक पालन करें तो वह सदा उन्हें धर्मिष्ठ बनाती है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्तिश्चेन्नास्ति शूद्रस्य पितृपैतामही ध्रुवा।
न वृत्तिं परतो मार्गेच्छुश्रूषां तु प्रयोजयेत् ॥ २ ॥

मूलम्

वृत्तिश्चेन्नास्ति शूद्रस्य पितृपैतामही ध्रुवा।
न वृत्तिं परतो मार्गेच्छुश्रूषां तु प्रयोजयेत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि शूद्रके पास बाप-दादोंका दिया हुआ जीविकाका कोई निश्चित साधन नहीं है तो वह दूसरी किसी वृत्तिका अनुसंधान न करे। तीनों वर्णोंकी सेवाको ही जीविकाके उपयोगमें लाये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद्भिस्तु सह संसर्गः शोभते धर्मदर्शिभिः।
नित्यं सर्वास्ववस्थासु नासद्भिरिति मे मतिः ॥ ३ ॥

मूलम्

सद्भिस्तु सह संसर्गः शोभते धर्मदर्शिभिः।
नित्यं सर्वास्ववस्थासु नासद्भिरिति मे मतिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मपर दृष्टि रखनेवाले सत्पुरुषोंके संसर्गमें रहना सदा ही श्रेष्ठ है; परंतु किसी भी दशामें कभी दुष्ट पुरुषोंका संग अच्छा नहीं है, यह मेरा दृढ़ निश्चय है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोदयगिरौ द्रव्यं संनिकर्षेण दीप्यते।
तथा सत्संनिकर्षेण हीनवर्णोऽपि दीप्यते ॥ ४ ॥

मूलम्

यथोदयगिरौ द्रव्यं संनिकर्षेण दीप्यते।
तथा सत्संनिकर्षेण हीनवर्णोऽपि दीप्यते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्यका सामीप्य प्राप्त होनेसे उदयाचल पर्वतकी प्रत्येक वस्तु चमक उठती है, उसी प्रकार साधु पुरुषोंके निकट रहनेसे नीच वर्णका मनुष्य भी सद्‌गुणोंसे सुशोभित होने लगता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादृशेन हि वर्णेन भाव्यते शुक्लमम्बरम्।
तादृशं कुरुते रूपमेतदेवमवेहि मे ॥ ५ ॥

मूलम्

यादृशेन हि वर्णेन भाव्यते शुक्लमम्बरम्।
तादृशं कुरुते रूपमेतदेवमवेहि मे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्वेत वस्त्रको जैसे रंगमें रँगा जाता है, वह वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसी प्रकार जैसा संग किया जाता है, वैसा ही रंग अपने ऊपर चढ़ता है। यह बात मुझसे अच्छी तरह समझ लो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् गुणेषु रज्येथा मा दोषेषु कदाचन।
अनित्यमिह मर्त्यानां जीवितं हि चलाचलम् ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्माद् गुणेषु रज्येथा मा दोषेषु कदाचन।
अनित्यमिह मर्त्यानां जीवितं हि चलाचलम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम गुणोंमें ही अनुराग रखो, दोषोंमें कभी नहीं; क्योंकि यहाँ मनुष्योंका जीवन अनित्य और चंचल है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखे वा यदि वा दुःखे वर्तमानो विचक्षणः।
यश्चिनोति शुभान्येव स तन्त्राणीह पश्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

सुखे वा यदि वा दुःखे वर्तमानो विचक्षणः।
यश्चिनोति शुभान्येव स तन्त्राणीह पश्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विद्वान् सुख अथवा दुःखमें रहकर भी सदा शुभकर्मका ही अनुष्ठान करता है, वही यहाँ शास्त्रोंको देखता और समझता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मादपेतं यत् कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्।
न तत् सेवेत मेधावी न तद्धितमिहोच्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

धर्मादपेतं यत् कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्।
न तत् सेवेत मेधावी न तद्धितमिहोच्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मके विपरीत कर्म यदि लौकिक दृष्टिसे बहुत लाभदायक हो तो भी बुद्धिमान् पुरुषको उसका सेवन नहीं करना चाहिये; क्योंकि उसे इस जगत्‌में हितकर नहीं बताया जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(धर्मेण सहितं यत् तु भवेदल्पफलोदयम्।
तत् कार्यमविशङ्केन कर्मात्यन्तं सुखावहम्॥)
यो हृत्वा गोसहस्राणि नृपो दद्यादरक्षिता।
स शब्दमात्रफलभाग् राजा भवति तस्करः ॥ ९ ॥

मूलम्

(धर्मेण सहितं यत् तु भवेदल्पफलोदयम्।
तत् कार्यमविशङ्केन कर्मात्यन्तं सुखावहम्॥)
यो हृत्वा गोसहस्राणि नृपो दद्यादरक्षिता।
स शब्दमात्रफलभाग् राजा भवति तस्करः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कार्य धर्मके अनुकूल हो, वह अल्प लाभदायक होनेपर भी निःशंक होकर कर लेने योग्य है; क्योंकि वह अन्तमें अत्यन्त सुख देनेवाला होता है। जो राजा दूसरोंकी हजारों गौएँ छीनकर दान करता है और प्रजाकी रक्षा नहीं करता, वह नाममात्रका ही दानी और राजा है। वास्तवमें तो वह चोर और डाकू है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयम्भूरसृजच्चाग्रे धातारं लोकसत्कृतम् ।
धातासृजत् पुत्रमेकं लोकानां धारणे रतम् ॥ १० ॥

मूलम्

स्वयम्भूरसृजच्चाग्रे धातारं लोकसत्कृतम् ।
धातासृजत् पुत्रमेकं लोकानां धारणे रतम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ईश्वरने सबसे पहले लोकपूजित ब्रह्माको उत्पन्न किया। ब्रह्माने एक पुत्र (पर्जन्य)-को जन्म दिया, जो सम्पूर्ण लोकोंको धारण करनेमें तत्पर है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमर्चयित्वा वैश्यस्तु कुर्यादत्यर्थमृद्धिमत् ।
रक्षितव्यं तु राजन्यैरुपयोज्यं द्विजातिभिः ॥ ११ ॥
अजिह्मैरशठक्रोधैर्हव्यकव्यप्रयोक्तृभिः ।
शूद्रैर्निर्मार्जनं कार्यमेवं धर्मो न नश्यति ॥ १२ ॥

मूलम्

तमर्चयित्वा वैश्यस्तु कुर्यादत्यर्थमृद्धिमत् ।
रक्षितव्यं तु राजन्यैरुपयोज्यं द्विजातिभिः ॥ ११ ॥
अजिह्मैरशठक्रोधैर्हव्यकव्यप्रयोक्तृभिः ।
शूद्रैर्निर्मार्जनं कार्यमेवं धर्मो न नश्यति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसीकी पूजा करके वैश्यको चाहिये कि खेती और पशुपालन आदिके द्वारा उसे अत्यन्त समृद्धिशाली बनाये। राजाको उसकी रक्षा करनी चाहिये और ब्राह्मणोंको चाहिये कि वे कुटिलता, शठता एवं क्रोधको त्यागकर हव्य-कव्यका प्रयोग करते हुए उस अन्न-धनका यज्ञ (लोकहितके कार्य) में सदुपयोग करें। शूद्रोंको यज्ञभूमि तथा त्रैवर्णिकोंके घरोंको झाड़-बुहारकर साफ रखना चाहिये। ऐसा करनेसे धर्मका नाश नहीं होता॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रणष्टे ततो धर्मे भवन्ति सुखिताः प्रजाः।
सुखेन तासां राजेन्द्र मोदन्ते दिवि देवताः ॥ १३ ॥

मूलम्

अप्रणष्टे ततो धर्मे भवन्ति सुखिताः प्रजाः।
सुखेन तासां राजेन्द्र मोदन्ते दिवि देवताः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मका नाश न होकर उसका पालन होता रहे तो सारी प्रजा सुखी होती है। राजेन्द्र! प्रजाओंके सुखी होनेपर स्वर्गमें देवता भी प्रसन्न रहते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् यो रक्षति नृपः स धर्मेणेति पूज्यते।
अधीते चापि यो विप्रो वैश्यो यश्चार्जने रतः ॥ १४ ॥
यश्च शुश्रूषते शूद्रः सततं नियतेन्द्रियः।
अतोऽन्यथा मनुष्येन्द्र स्वधर्मात् परिहीयते ॥ १५ ॥

मूलम्

तस्माद् यो रक्षति नृपः स धर्मेणेति पूज्यते।
अधीते चापि यो विप्रो वैश्यो यश्चार्जने रतः ॥ १४ ॥
यश्च शुश्रूषते शूद्रः सततं नियतेन्द्रियः।
अतोऽन्यथा मनुष्येन्द्र स्वधर्मात् परिहीयते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा धर्मपूर्वक प्रजाकी रक्षा करता है, वह उस धर्माचरणके कारण ही लोकमें पूजित होता है। इसी प्रकार जो ब्राह्मण धर्मपूर्वक स्वाध्याय करता है, जो वैश्य धर्मके अनुसार धनोपार्जनमें तत्पर रहता है तथा जो शूद्र जितेन्द्रिय भावसे रहकर सर्वदा द्विजातियोंकी सेवा करता है, वे सभी अपने-अपने धर्माचरणके कारण लोकमें सम्मानित होते हैं। नरेन्द्र! इसके विपरीत आचरण करनेसे सब लोग अपने धर्मसे गिर जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणसंतापनिर्दिष्टाः काकिण्योऽपि महाफलाः ।
न्यायेनोपार्जिता दत्ताः किमुतान्याः सहस्रशः ॥ १६ ॥

मूलम्

प्राणसंतापनिर्दिष्टाः काकिण्योऽपि महाफलाः ।
न्यायेनोपार्जिता दत्ताः किमुतान्याः सहस्रशः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणोंको कष्ट देकर भी यदि न्यायसे कमायी हुई थोड़ी-सी कौड़ियोंका भी दान किया जाय तो वे महान् फल देनेवाली होती हैं; फिर जो दूसरी वस्तुएँ हजारोंकी संख्यामें दी जाती हैं, उनकी तो बात ही क्या है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कृत्य हि द्विजातिभ्यो यो ददाति नराधिपः।
यादृशं तादृशं नित्यमश्नाति फलमूर्जितम् ॥ १७ ॥

मूलम्

सत्कृत्य हि द्विजातिभ्यो यो ददाति नराधिपः।
यादृशं तादृशं नित्यमश्नाति फलमूर्जितम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें जैसा दान देता है, वैसा ही उत्तम फलका वह सदा ही उपभोग करता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिगम्य च तत् तुष्ट्या दत्तमाहुरभिष्टुतम्।
याचितेन तु यद् दत्तं तदाहुर्मध्यमं बुधाः ॥ १८ ॥

मूलम्

अभिगम्य च तत् तुष्ट्या दत्तमाहुरभिष्टुतम्।
याचितेन तु यद् दत्तं तदाहुर्मध्यमं बुधाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं ही ब्राह्मणके पास जाकर उसे संतुष्ट करते हुए जो दान दिया जाता है, उसे प्रशंसनीय—उत्तम बताया गया है और याचना करनेपर जो कुछ दिया जाता है, उसे विद्वान् पुरुष मध्यम श्रेणीका दान कहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवज्ञया दीयते यत् तथैवाश्रद्धयापि वा।
तमाहुरधमं दानं मुनयः सत्यवादिनः ॥ १९ ॥
अतिक्रामेन्मज्जमानो विविधेन नरः सदा।
तथा प्रयत्नं कुर्वीत यथा मुच्येत संश्रयात् ॥ २० ॥

मूलम्

अवज्ञया दीयते यत् तथैवाश्रद्धयापि वा।
तमाहुरधमं दानं मुनयः सत्यवादिनः ॥ १९ ॥
अतिक्रामेन्मज्जमानो विविधेन नरः सदा।
तथा प्रयत्नं कुर्वीत यथा मुच्येत संश्रयात् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवहेलना अथवा अश्रद्धासे जो कुछ दिया जाता है, उसे सत्यवादी मुनियोंने अधम श्रेणीका दान कहा है। डूबता हुआ मनुष्य जिस तरह नाना प्रकारके उपायद्वारा समुद्रसे पार हो जाता है, वैसे ही तुमको भी सदा ऐसा प्रयत्न करना चाहिये, जिस प्रकार संसार-समुद्रसे छुटकारा मिले॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमेन शोभते विप्रः क्षत्रियो विजयेन तु।
धनेन वैश्यः शूद्रस्तु नित्यं दाक्ष्येण शोभते ॥ २१ ॥

मूलम्

दमेन शोभते विप्रः क्षत्रियो विजयेन तु।
धनेन वैश्यः शूद्रस्तु नित्यं दाक्ष्येण शोभते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण इन्द्रियसंयमसे, क्षत्रिय युद्धमें विजय पानेसे, वैश्य न्यायपूर्वक उपार्जित धनसे और शूद्र सदा सेवाकार्यमें कुशलताका परिचय देनेसे शोभा पाता है॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पराशरगीतायां त्रिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २२ श्लोक हैं)