भागसूचना
द्विनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पराशरगीता—धर्मोपार्जित धनकी श्रेष्ठता, अतिथि-सत्कारका महत्त्व, पाँच प्रकारके ऋणोंसे छूटनेकी विधि, भगवत्स्तवनकी महिमा एवं सदाचार तथा गुरुजनोंकी सेवासे महान् लाभ
मूलम् (वचनम्)
पराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कः कस्य चोपकुरुते कश्च कस्मै प्रयच्छति।
प्राणी करोत्ययं कर्म सर्वमात्मार्थमात्मना ॥ १ ॥
मूलम्
कः कस्य चोपकुरुते कश्च कस्मै प्रयच्छति।
प्राणी करोत्ययं कर्म सर्वमात्मार्थमात्मना ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पराशरजी कहते हैं— राजन्! कौन किसका उपकार करता है और कौन किसको देता है? यह प्राणी सारा कार्य स्वयं अपने ही लिये करता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौरवेण परित्यक्तं निःस्नेहं परिवर्जयेत्।
सोदर्यं भ्रातरमपि किमुतान्यं पृथग्जनम् ॥ २ ॥
मूलम्
गौरवेण परित्यक्तं निःस्नेहं परिवर्जयेत्।
सोदर्यं भ्रातरमपि किमुतान्यं पृथग्जनम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपना सगा भाई भी यदि अपने श्रेष्ठ स्वभावका और स्नेहका त्याग कर दे तो लोग उसको त्याग देते हैं; फिर दूसरे किसी साधारण मनुष्यकी तो बात ही क्या है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशिष्टस्य विशिष्टाच्च तुल्यौ दानप्रतिग्रहौ।
तयोः पुण्यतरं दानं तद् द्विजस्य प्रयच्छतः ॥ ३ ॥
मूलम्
विशिष्टस्य विशिष्टाच्च तुल्यौ दानप्रतिग्रहौ।
तयोः पुण्यतरं दानं तद् द्विजस्य प्रयच्छतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ पुरुषको दिया हुआ दान और श्रेष्ठ पुरुषसे प्राप्त हुआ प्रतिग्रह—इन दोनोंका महत्त्व बराबर है तो भी इन दोनोंमेंसे ब्राह्मणके लिये प्रतिग्रह स्वीकार करनेकी अपेक्षा दान देना अधिक पुण्यमय माना गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न्यायागतं धनं चैव न्यायेनैव विवर्धितम्।
संरक्ष्यं यत्नमास्थाय धर्मार्थमिति निश्चयः ॥ ४ ॥
मूलम्
न्यायागतं धनं चैव न्यायेनैव विवर्धितम्।
संरक्ष्यं यत्नमास्थाय धर्मार्थमिति निश्चयः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो धन न्यायसे प्राप्त किया गया हो और न्यायसे ही बढ़ाया गया हो, उसको यत्नपूर्वक धर्मके उद्देश्यसे बचाये रखना चाहिये। यही धर्मशास्त्रका निश्चय है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न धर्मार्थी नृशंसेन कर्मणा धनमर्जयेत्।
शक्तितः सर्वकार्याणि कुर्यान्नर्द्धिमनुस्मरेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
न धर्मार्थी नृशंसेन कर्मणा धनमर्जयेत्।
शक्तितः सर्वकार्याणि कुर्यान्नर्द्धिमनुस्मरेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म चाहनेवाले पुरुषको क्रूरकर्मके द्वारा धनका उपार्जन नहीं करना चाहिये। अपनी शक्तिके अनुसार समस्त शुभ कर्म करे। धन बढ़ानेकी चिन्तामें न पड़े॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपो हि प्रयतः शीतास्तापिता ज्वलनेन वा।
शक्तितोऽतिथये दत्त्वा क्षुधार्तायाश्नुते फलम् ॥ ६ ॥
मूलम्
अपो हि प्रयतः शीतास्तापिता ज्वलनेन वा।
शक्तितोऽतिथये दत्त्वा क्षुधार्तायाश्नुते फलम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मौसमका विचार करके अपनी शक्तिके अनुसार प्यासे और भूखे अतिथिको ठंडा या गरम किया हुआ जल और अन्न पवित्रभावसे अर्पण करता है, वह उत्तम फल पाता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रन्तिदेवेन लोकेष्टा सिद्धिः प्राप्ता महात्मना।
फलपत्रैरथो मूलैर्मुनीनर्चितवांश्च सः ॥ ७ ॥
मूलम्
रन्तिदेवेन लोकेष्टा सिद्धिः प्राप्ता महात्मना।
फलपत्रैरथो मूलैर्मुनीनर्चितवांश्च सः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा राजा रन्तिदेवने फल-मूल और पत्तोंसे ऋषि-मुनियोंका पूजन किया था। इसीसे उन्हें वह सिद्धि प्राप्त हुई, जिसकी सब लोग अभिलाषा रखते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैरेव फलपत्रैश्च स माठरमतोषयत्।
तस्माल्लेभे परं स्थानं शैब्योऽपि पृथिवीपतिः ॥ ८ ॥
मूलम्
तैरेव फलपत्रैश्च स माठरमतोषयत्।
तस्माल्लेभे परं स्थानं शैब्योऽपि पृथिवीपतिः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपालक महाराज शैब्यने भी उन फल और पत्रोंसे ही माठर मुनिको संतुष्ट किया था, जिससे उन्हें उत्तम लोककी प्राप्ति हुई॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतातिथिभृत्येभ्यः पितृभ्यश्चात्मनस्तथा ।
ऋणवान् जायते मर्त्यस्तस्मादनृणतां व्रजेत् ॥ ९ ॥
मूलम्
देवतातिथिभृत्येभ्यः पितृभ्यश्चात्मनस्तथा ।
ऋणवान् जायते मर्त्यस्तस्मादनृणतां व्रजेत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रत्येक मनुष्य देवता, अतिथि, भरण-पोषणके योग्य कुटुम्बीजन, पितर तथा अपने-आपका भी ऋणी होकर जन्म लेता है; अतः उसे उस ऋणसे मुक्त होनेका यत्न करना चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाध्यायेन महर्षिभ्यो देवेभ्यो यज्ञकर्मणा।
पितृभ्यः श्राद्धदानेन नृणामभ्यर्चनेन च ॥ १० ॥
मूलम्
स्वाध्यायेन महर्षिभ्यो देवेभ्यो यज्ञकर्मणा।
पितृभ्यः श्राद्धदानेन नृणामभ्यर्चनेन च ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय करके ऋषियोंके, यज्ञ-कर्मद्वारा देवताओंके, श्राद्ध और दानसे पितरोंके तथा स्वागत-सत्कार, सेवा आदिसे अतिथियोंके ऋणसे छुटकारा होता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचा शेषावहार्येण पालनेनात्मनोऽपि च।
यथावद् भृत्यवर्गस्य चिकीर्षेत् कर्म आदितः ॥ ११ ॥
मूलम्
वाचा शेषावहार्येण पालनेनात्मनोऽपि च।
यथावद् भृत्यवर्गस्य चिकीर्षेत् कर्म आदितः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार वेद-वाणीके पठन, श्रवण एवं मननसे, यज्ञशेष अन्नके भोजनसे तथा जीवोंकी रक्षा करनेसे मनुष्य अपने ऋणसे मुक्त होता है। भरणीय कुटुम्बीजनके पालन-पोषणका आरम्भसे ही प्रबन्ध करना चाहिये। इससे उनके ऋणसे भी मुक्ति हो जाती है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रयत्नेन च संसिद्धा धनैरपि विवर्जिताः।
सम्यग् हुत्वा हुतवहं मुनयः सिद्धिमागताः ॥ १२ ॥
मूलम्
प्रयत्नेन च संसिद्धा धनैरपि विवर्जिताः।
सम्यग् हुत्वा हुतवहं मुनयः सिद्धिमागताः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि-मुनियोंके पास धन नहीं था तो भी वे अपने प्रयत्नसे ही सिद्ध हो गये। उन्होंने विधिपूर्वक अग्निहोत्र करके सिद्धि प्राप्त की थी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रस्य पुत्रत्वमृचीकतनयोऽगमत् ।
ऋग्भिः स्तुत्वा महाबाहो देवान् वै यज्ञभागिनः ॥ १३ ॥
मूलम्
विश्वामित्रस्य पुत्रत्वमृचीकतनयोऽगमत् ।
ऋग्भिः स्तुत्वा महाबाहो देवान् वै यज्ञभागिनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! ऋचीकके पुत्र यज्ञमें भाग लेनेवाले देवताओंकी वेदमन्त्रोंद्वारा स्तुति करके विश्वामित्रके पुत्र हो गये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतः शुक्रत्वमुशना देवदेवप्रसादनात् ।
देवीं स्तुत्वा तु गगने मोदते यशसा वृतः ॥ १४ ॥
मूलम्
गतः शुक्रत्वमुशना देवदेवप्रसादनात् ।
देवीं स्तुत्वा तु गगने मोदते यशसा वृतः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि उशना देवाधिदेव महादेवजीको प्रसन्न करके उनके शुक्रत्वको प्राप्त हो उसी नामसे प्रसिद्ध हुए। साथ ही पार्वतीदेवीकी स्तुति करके वे यशस्वी मुनि आकाशमें ग्रहरूपसे स्थित हो आनन्द भोग रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असितो देवलश्चैव तथा नारदपर्वतौ।
कक्षीवान् जामदग्न्यश्च रामस्ताण्ड्यस्तथाऽऽत्मवान् ॥ १५ ॥
वसिष्ठो जमदग्निश्च विश्वामित्रोऽत्रिरेव च।
भरद्वाजो हरिश्मश्रुः कुण्डधारः श्रुतश्रवाः ॥ १६ ॥
एते महर्षयः स्तुत्वा विष्णुमृग्भिः समाहिताः।
लेभिरे तपसा सिद्धिं प्रसादात् तस्य धीमतः ॥ १७ ॥
मूलम्
असितो देवलश्चैव तथा नारदपर्वतौ।
कक्षीवान् जामदग्न्यश्च रामस्ताण्ड्यस्तथाऽऽत्मवान् ॥ १५ ॥
वसिष्ठो जमदग्निश्च विश्वामित्रोऽत्रिरेव च।
भरद्वाजो हरिश्मश्रुः कुण्डधारः श्रुतश्रवाः ॥ १६ ॥
एते महर्षयः स्तुत्वा विष्णुमृग्भिः समाहिताः।
लेभिरे तपसा सिद्धिं प्रसादात् तस्य धीमतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
असित, देवल, नारद, पर्वत, कक्षीवान्, जमदग्नि-नन्दन परशुराम, मनको वशमें रखनेवाले ताण्ड्य, वसिष्ठ, जमदग्नि, विश्वामित्र, अत्रि, भरद्वाज, हरिश्मश्रु, कुण्डधार तथा श्रुतश्रवा—इन महर्षियोंने एकाग्रचित्त हो वेदकी ऋचाओंद्वारा भगवान् विष्णुकी स्तुति करके उन्हीं बुद्धिमान् श्रीहरिकी कृपासे तपस्या करके सिद्धि प्राप्त कर ली॥१५—१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनर्हाश्चार्हतां प्राप्ताः सन्तः स्तुत्वा तमेव ह।
न तु वृद्धिमिहान्विच्छेत् कर्म कृत्वा जुगुप्सितम् ॥ १८ ॥
मूलम्
अनर्हाश्चार्हतां प्राप्ताः सन्तः स्तुत्वा तमेव ह।
न तु वृद्धिमिहान्विच्छेत् कर्म कृत्वा जुगुप्सितम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पूजाके योग्य नहीं थे, वे भी भगवान् विष्णुकी स्तुति करके पूजनीय संत होकर उन्हींको प्राप्त हो गये। इस लोकमें निन्दनीय आचरण करके किसीको भी अपने अभ्युदयकी आशा नहीं रखनी चाहिये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येऽर्था धर्मेण ते सत्या येऽधर्मेण धिगस्तु तान्।
धर्मं वै शाश्वतं लोके न जह्याद् धनकाङ्क्षया ॥ १९ ॥
मूलम्
येऽर्था धर्मेण ते सत्या येऽधर्मेण धिगस्तु तान्।
धर्मं वै शाश्वतं लोके न जह्याद् धनकाङ्क्षया ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मका पालन करते हुए ही जो धन प्राप्त होता है, वही सच्चा धन है। जो अधर्मसे प्राप्त होता है, वह धन तो धिक्कार देने योग्य है। संसारमें धनकी इच्छासे शाश्वत धर्मका त्याग कभी नहीं करना चाहिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहिताग्निर्हि धर्मात्मा यः स पुण्यकृदुत्तमः।
वेदा हि सर्वे राजेन्द्र स्थितास्त्रिष्वग्निषु प्रभो ॥ २० ॥
मूलम्
आहिताग्निर्हि धर्मात्मा यः स पुण्यकृदुत्तमः।
वेदा हि सर्वे राजेन्द्र स्थितास्त्रिष्वग्निषु प्रभो ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! जो प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है, वही धर्मात्मा है और वही पुण्यकर्म करनेवालोंमें श्रेष्ठ है। प्रभो सम्पूर्ण वेद दक्षिण, आहवनीय तथा गार्हपत्य—इन तीन अग्नियोंमें ही स्थित हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चाप्यग्न्याहितो विप्रः क्रिया यस्य न हीयते।
श्रेयो ह्यनाहिताग्नित्वमग्निहोत्रं न निष्क्रियम् ॥ २१ ॥
मूलम्
स चाप्यग्न्याहितो विप्रः क्रिया यस्य न हीयते।
श्रेयो ह्यनाहिताग्नित्वमग्निहोत्रं न निष्क्रियम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका सदाचार एवं सत्कर्म कभी लुप्त नहीं होता, वह ब्राह्मण (अग्निहोत्र न करनेपर भी) अग्निहोत्री ही है। सदाचारका ठीक-ठीक पालन होनेपर अग्निहोत्र न हो सके तो भी अच्छा है; किंतु सदाचारका त्याग करके केवल अग्निहोत्र करना कदापि कल्याणकारी नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निरात्मा च माता च पिता जनयिता तथा।
गुरुश्च नरशार्दूल परिचर्या यथातथम् ॥ २२ ॥
मूलम्
अग्निरात्मा च माता च पिता जनयिता तथा।
गुरुश्च नरशार्दूल परिचर्या यथातथम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! अग्नि, आत्मा, माता, जन्म देनेवाले पिता तथा गुरु—इन सबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानं त्यक्त्वा यो नरो वृद्धसेवी
विद्वान् क्लीबः पश्यति प्रीतियोगात्।
दाक्ष्येण हीनो धर्मयुक्तो नदान्तो
लोकेऽस्मिन् वै पूज्यते सद्भिरार्यः ॥ २३ ॥
मूलम्
मानं त्यक्त्वा यो नरो वृद्धसेवी
विद्वान् क्लीबः पश्यति प्रीतियोगात्।
दाक्ष्येण हीनो धर्मयुक्तो नदान्तो
लोकेऽस्मिन् वै पूज्यते सद्भिरार्यः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अभिमानका त्याग करके वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करता, विद्वान् एवं काम-भोगमें अनासक्त होकर सबको प्रेमभावसे देखता, मनमें चतुराई न रखकर धर्ममें संलग्न रहता और दूसरोंका दमन या हिंसा नहीं करता है, वह मनुष्य इस लोकमें श्रेष्ठ है तथा सत्पुरुष भी उसका आदर करते हैं॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पराशरगीतायां द्विनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९२॥