भागसूचना
एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पराशरगीता—कर्मफलकी अनिवार्यता तथा पुण्यकर्मसे लाभ
मूलम् (वचनम्)
पराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोरथरथं प्राप्य इन्द्रियाख्यहयं नरः।
रश्मिभिर्ज्ञानसम्भूतैर्यो गच्छति स बुद्धिमान् ॥ १ ॥
मूलम्
मनोरथरथं प्राप्य इन्द्रियाख्यहयं नरः।
रश्मिभिर्ज्ञानसम्भूतैर्यो गच्छति स बुद्धिमान् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पराशरजी कहते हैं— राजन्! इन्द्रियरूप घोड़ोंसे युक्त मनोमय (सूक्ष्म शरीर) एक रथ है। ज्ञानाकार वृत्तियाँ ही इस रथके घोड़ोंकी बागडोर हैं। इन उपकरणोंसे युक्त रथपर आरूढ़ होकर जो पुरुष यात्रा करता है, वह बुद्धिमान् है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवाऽऽश्रितेन मनसा वृत्तिहीनस्य शस्यते।
द्विजातिहस्तान्निर्वृत्ता न तु तुल्यात् परस्परात् ॥ २ ॥
मूलम्
सेवाऽऽश्रितेन मनसा वृत्तिहीनस्य शस्यते।
द्विजातिहस्तान्निर्वृत्ता न तु तुल्यात् परस्परात् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य इन्द्रियोंकी बाह्य वृत्तिसे रहित (अन्तर्मुख) होकर ईश्वरकी शरणमें गये हुए मनके द्वारा उनकी उपासना करता है, उसकी वह उपासना श्रेष्ठ समझी जाती है। ऐसी उपासना किसी विद्वान् एवं भक्त ब्राह्मणके वरद हस्तसे ही उपलब्ध होती है। समान योग्यतावाले आपसके लोगोंसे उसकी प्राप्ति नहीं होती॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुर्न सुलभं लब्ध्वा नावकर्षेद् विशाम्पते।
उत्कर्षार्थं प्रयतेत नरः पुण्येन कर्मणा ॥ ३ ॥
मूलम्
आयुर्न सुलभं लब्ध्वा नावकर्षेद् विशाम्पते।
उत्कर्षार्थं प्रयतेत नरः पुण्येन कर्मणा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! मनुष्य-शरीरकी आयु सुलभ नहीं है—वह दुर्लभ वस्तु है, उसे पाकर आत्माको नीचे नहीं गिराना चाहिये। मनुष्यको चाहिये कि वह पुण्यकर्मके अनुष्ठानद्वारा आत्माके उत्थानके लिये सदा प्रयत्न करता रहे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णेभ्यो हि परिभ्रष्टो न वै सम्मानमर्हति।
न तु यः सत्क्रियां प्राप्य राजसं कर्म सेवते॥४॥
मूलम्
वर्णेभ्यो हि परिभ्रष्टो न वै सम्मानमर्हति।
न तु यः सत्क्रियां प्राप्य राजसं कर्म सेवते॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य दुष्कर्म करके वर्णसे भ्रष्ट हो जाता है, वह कदापि सम्मान पानेके योग्य नहीं है। इसके सिवा जो मनुष्य सत्त्वगुणके द्वारा सत्कार पाकर फिर राजस कर्मका सेवन करने लगता है, वह भी सम्मानके योग्य नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णोत्कर्षमवाप्नोति नरः पुण्येन कर्मणा।
दुर्लभं तमलब्ध्वा हि हन्यात् पापेन कर्मणा ॥ ५ ॥
मूलम्
वर्णोत्कर्षमवाप्नोति नरः पुण्येन कर्मणा।
दुर्लभं तमलब्ध्वा हि हन्यात् पापेन कर्मणा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुण्य कर्मसे ही मनुष्य उत्तम वर्णमें जन्म पाता है। पापीके लिये वह अत्यन्त दुर्लभ है। वह उसे न पाकर अपने पाप कर्मके द्वारा अपना ही नाश करता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानाद्धि कृतं पापं तपसैवाभिनिर्णुदेत्।
पापं हि कर्म फलति पापमेव स्वयं कृतम्।
तस्मात् पापं न सेवेत कर्म दुःखफलोदयम् ॥ ६ ॥
मूलम्
अज्ञानाद्धि कृतं पापं तपसैवाभिनिर्णुदेत्।
पापं हि कर्म फलति पापमेव स्वयं कृतम्।
तस्मात् पापं न सेवेत कर्म दुःखफलोदयम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनजानमें जो पाप बन जाय उसे तपस्याके द्वारा नष्ट कर दे; क्योंकि अपना किया हुआ पापकर्म पापरूप दुःखके रूपमें ही फलता है। अतः दुःखमय फल देनेवाले पापकर्मका कदापि सेवन न करे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापानुबन्धं यत् कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्।
तन्न सेवेत मेधावी शुचिः कुशलिनं यथा ॥ ७ ॥
मूलम्
पापानुबन्धं यत् कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्।
तन्न सेवेत मेधावी शुचिः कुशलिनं यथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पापसे सम्बन्ध रखनेवाला जो कर्म है उसका कितना ही बड़ा लौकिक सुखरूप फल क्यों न हो; बुद्धिमान् पुरुष उसका कदापि सेवन न करे। वह उससे उसी तरह दूर रहे जैसे पवित्र मनुष्य चाण्डालसे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कष्टमनुपश्यामि फलं पापस्य कर्मणः।
प्रत्यापन्नस्य हि ततो नात्मा तावद् विरोचते ॥ ८ ॥
मूलम्
किं कष्टमनुपश्यामि फलं पापस्य कर्मणः।
प्रत्यापन्नस्य हि ततो नात्मा तावद् विरोचते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या पापकर्मका कोई दुःखदायक फल मैं देखता हूँ? अर्थात् नहीं देखता। ऐसा मानकर पापमें प्रवृत्त हुए मनुष्यको परमात्माका चिन्तन अच्छा नहीं लगता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यापत्तिश्च यस्येह बालिशस्य न जायते।
तस्यापि सुमहांस्तापः प्रस्थितस्योपजायते ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रत्यापत्तिश्च यस्येह बालिशस्य न जायते।
तस्यापि सुमहांस्तापः प्रस्थितस्योपजायते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें जिस मूर्खको तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती उस मनुष्यको परलोकमें जानेपर महान् संताप भोगना पड़ता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरक्तं शोध्यते वस्त्रं न तु कृष्णोपसंहितम्।
प्रयत्नेन मनुष्येन्द्र पापमेवं निबोध मे ॥ १० ॥
मूलम्
विरक्तं शोध्यते वस्त्रं न तु कृष्णोपसंहितम्।
प्रयत्नेन मनुष्येन्द्र पापमेवं निबोध मे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! बिना रँगा हुआ वस्त्र धोनेसे स्वच्छ हो जाता है; किंतु जो काले रंगमें रँगा हो वह प्रयत्न करनेसे भी सफेद नहीं होता, पापको भी ऐसा ही समझो। उसका रंग भी जल्दी नहीं उतरता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं कृत्वा तु यः पापं शुभमेवानुतिष्ठति।
प्रायश्चित्तं नरः कर्तुमुभयं सोऽश्नुते पृथक् ॥ ११ ॥
मूलम्
स्वयं कृत्वा तु यः पापं शुभमेवानुतिष्ठति।
प्रायश्चित्तं नरः कर्तुमुभयं सोऽश्नुते पृथक् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्वयं जान-बूझकर पाप करनेके पश्चात् उसके प्रायश्चित्तके उद्देश्यसे शुभ कर्मका अनुष्ठान करता है, वह शुभ और अशुभ दोनोंका पृथक्-पृथक् फल भोगता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानात् तु कृतां हिंसामहिंसा व्यपकर्षति।
ब्राह्मणाः शास्त्रनिर्देशादित्याहुर्ब्रह्मवादिनः ॥ १२ ॥
तथा कामकृतं नास्य विहिंसैवानुकर्षति।
इत्याहुर्ब्रह्मशास्त्रज्ञा ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः ॥ १३ ॥
मूलम्
अज्ञानात् तु कृतां हिंसामहिंसा व्यपकर्षति।
ब्राह्मणाः शास्त्रनिर्देशादित्याहुर्ब्रह्मवादिनः ॥ १२ ॥
तथा कामकृतं नास्य विहिंसैवानुकर्षति।
इत्याहुर्ब्रह्मशास्त्रज्ञा ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनजानमें जो हिंसा हो जाती है उसे अहिंसा-व्रतका पालन दूर कर देता है। ब्रह्मवादी ब्राह्मण शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार ऐसा ही कहते हैं; किंतु स्वेच्छासे किये हुए हिंसामय पापकर्मको अहिंसाका व्रत भी दूर नहीं कर सकता। ऐसा वेदशास्त्रोंके ज्ञाता, वेदका उपदेश देनेवाले ब्राह्मणोंका कथन है॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं तु तावत् पश्यामि कर्म यद् वर्तते कृतम्।
गुणयुक्तं प्रकाशं वा पापेनानुपसंहितम् ॥ १४ ॥
मूलम्
अहं तु तावत् पश्यामि कर्म यद् वर्तते कृतम्।
गुणयुक्तं प्रकाशं वा पापेनानुपसंहितम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु मैं तो ऐसा देखता हूँ कि जो कर्म किया गया है वह पुण्य हो या पापयुक्त, प्रकटरूपमें किया गया हो या छिपाकर (तथा जान-बूझकर किया गया हो या अनजानमें), वह अपना फल अवश्य देता ही है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सूक्ष्माणि कर्माणि फलन्तीह यथातथम्।
बुद्धियुक्तानि तानीह कृतानि मनसा सह ॥ १५ ॥
भवत्यल्पफलं कर्म सेवितं नित्यमुल्बणम्।
अबुद्धिपूर्वं धर्मज्ञ कृतमुग्रेण कर्मणा ॥ १६ ॥
मूलम्
यथा सूक्ष्माणि कर्माणि फलन्तीह यथातथम्।
बुद्धियुक्तानि तानीह कृतानि मनसा सह ॥ १५ ॥
भवत्यल्पफलं कर्म सेवितं नित्यमुल्बणम्।
अबुद्धिपूर्वं धर्मज्ञ कृतमुग्रेण कर्मणा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ राजा जनक! जैसे मनसे सोच-विचारकर बुद्धिद्वारा निश्चय करके जो स्थूल या सूक्ष्म कर्म यहाँ किये जाते हैं वे यथायोग्य फल अवश्य देते हैं। उसी प्रकार हिंसा आदि उग्र कर्मके द्वारा अनजानमें किया हुआ भयंकर पाप यदि सदा बनता रहे तो उसका फल भी मिलता ही है; अन्तर इतना ही है कि जान-बूझकर किये हुए कर्मकी अपेक्षा उसका फल बहुत कम हो जाता है॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतानि यानि कर्माणि दैवतैर्मुनिभिस्तथा।
न चरेत् तानि धर्मात्मा श्रुत्वा चापि न कुत्सयेत्॥१७॥
मूलम्
कृतानि यानि कर्माणि दैवतैर्मुनिभिस्तथा।
न चरेत् तानि धर्मात्मा श्रुत्वा चापि न कुत्सयेत्॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओं और मुनियोंद्वारा जो अनुचित कर्म किये गये हों धर्मात्मा पुरुष उनका अनुकरण न करे; और उन कर्मोंको सुनकर भी उन देवता आदिकी निन्दा भी न करे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संचिन्त्य मनसा राजन् विदित्वा शक्यमात्मनः।
करोति यः शुभं कर्म स वै भद्राणि पश्यति॥१८॥
मूलम्
संचिन्त्य मनसा राजन् विदित्वा शक्यमात्मनः।
करोति यः शुभं कर्म स वै भद्राणि पश्यति॥१८॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो मनुष्य मनसे खूब सोच-विचारकर, ‘अमुक काम मुझसे हो सकेगा या नहीं’—इसका निश्चय करके शुभकर्मका अनुष्ठान करता है, वह अवश्य ही अपनी भलाई देखता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवे कपाले सलिलं संन्यस्तं हीयते यथा।
नवेतरे तथाभावं प्राप्नोति सुखभावितम् ॥ १९ ॥
मूलम्
नवे कपाले सलिलं संन्यस्तं हीयते यथा।
नवेतरे तथाभावं प्राप्नोति सुखभावितम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे नये बने हुए कच्चे घड़ेमें रखा हुआ जल नष्ट हो जाता है, परंतु पके-पकाये घड़ेमें रखा हुआ ज्यों-का-त्यों बना रहता है, उसी प्रकार परिपक्व विशुद्ध अन्तःकरणमें सम्पादित सुखदायक शुभकर्म निश्चल रहते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतोयेऽन्यत् तु यत् तोयं तस्मिन्नेव प्रसिच्यते।
वृद्धे वृद्धिमवाप्नोति सलिले सलिलं यथा ॥ २० ॥
एवं कर्माणि यानीह बुद्धियुक्तानि पार्थिव।
समानि चैव यानीह तानि पुण्यतमान्यपि ॥ २१ ॥
मूलम्
सतोयेऽन्यत् तु यत् तोयं तस्मिन्नेव प्रसिच्यते।
वृद्धे वृद्धिमवाप्नोति सलिले सलिलं यथा ॥ २० ॥
एवं कर्माणि यानीह बुद्धियुक्तानि पार्थिव।
समानि चैव यानीह तानि पुण्यतमान्यपि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उसी जलयुक्त पक्के घड़ेमें यदि दूसरा जल डाला जाय तो पात्रमें रखा हुआ पहलेका जल और नया डाला हुआ जल—दोनों मिलकर बढ़ जाते हैं और इस प्रकार वह घड़ा अधिक जलसे सम्पन्न हो जाता है। उसी तरह यहाँ विवेकपूर्वक किये हुए जो पुण्य कर्म संचित हैं, उन्हींके समान जो नये पुण्य कर्म किये जाते हैं—वे दोनों मिलकर अधिक पुण्यतम कर्म हो जाते हैं (और उनके द्वारा वह पुरुष महान् पुण्यात्मा हो जाता है)॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञा जेतव्याः शत्रवश्चोन्नताश्च
सम्यक् कर्तव्यं पालनं च प्रजानाम्।
अग्निश्चेयो बहुभिश्चापि यज्ञै-
रन्त्ये मध्ये वा वनमाश्रित्य स्थेयम् ॥ २२ ॥
मूलम्
राज्ञा जेतव्याः शत्रवश्चोन्नताश्च
सम्यक् कर्तव्यं पालनं च प्रजानाम्।
अग्निश्चेयो बहुभिश्चापि यज्ञै-
रन्त्ये मध्ये वा वनमाश्रित्य स्थेयम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! राजाको चाहिये कि वह बढ़े हुए शत्रुओंको जीते। प्रजाका न्यायपूर्वक पालन करे। नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा अग्निदेवको तृप्त करे तथा वैराग्य होनेपर मध्यम अवस्थामें अथवा अन्तिम अवस्थामें वनमें जाकर रहे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमान्वितः पुरुषो धर्मशीलो
भूतानि चात्मानमिवानुपश्येत् ।
गरीयसः पूजयेदात्मशक्त्या
सत्येन शीलेन सुखं नरेन्द्र ॥ २३ ॥
मूलम्
दमान्वितः पुरुषो धर्मशीलो
भूतानि चात्मानमिवानुपश्येत् ।
गरीयसः पूजयेदात्मशक्त्या
सत्येन शीलेन सुखं नरेन्द्र ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! प्रत्येक पुरुषको इन्द्रियसंयमी और धर्मात्मा होकर समस्त प्राणियोंको अपने ही समान समझना चाहिये। जो विद्या, तप और अवस्थामें अपनेसे बड़े हों अथवा गुरु-कोटिके लोग हों, उन सबकी यथाशक्ति पूजा करनी चाहिये। सत्यभाषण और अच्छे आचार-विचारसे ही सुख मिलता है॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पराशरगीतायां एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९१॥