भागसूचना
नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पराशरगीताका आरम्भ—पराशर मुनिका राजा जनकको कल्याणकी प्राप्तिके साधनका उपदेश
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः परं महाबाहो यच्छ्रेयस्तद् वदस्व मे।
न तृप्याम्यमृतस्येव वचसस्ते पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
अतः परं महाबाहो यच्छ्रेयस्तद् वदस्व मे।
न तृप्याम्यमृतस्येव वचसस्ते पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— महाबाहु पितामह! अब इसके बाद जो भी कल्याण-प्राप्तिका उपाय हो, वह मुझे बताइये। जैसे अमृत पीनेसे मन नहीं भरता, उसी तरह आपके वचन सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं होती है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कर्म पुरुषः कृत्वा शुभं पुरुषसत्तम।
श्रेयः परमवाप्नोति प्रेत्य चेह च तद् वद ॥ २ ॥
मूलम्
किं कर्म पुरुषः कृत्वा शुभं पुरुषसत्तम।
श्रेयः परमवाप्नोति प्रेत्य चेह च तद् वद ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर! इसीलिये मैं पूछता हूँ कि पुरुष कौन-सा शुभ कर्म करे तो इसे इस लोक और परलोकमें भी परम कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है, यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते वर्तयिष्यामि यथापूर्वं महायशाः।
पराशरं महात्मानं पप्रच्छ जनको नृपः ॥ ३ ॥
मूलम्
अत्र ते वर्तयिष्यामि यथापूर्वं महायशाः।
पराशरं महात्मानं पप्रच्छ जनको नृपः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें भी मैं तुम्हें पूर्ववत् एक प्राचीन प्रसंग सुनाऊँगा। एक समय महा-यशस्वी राजा जनकने महात्मा पराशर मुनिसे पूछा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं श्रेयः सर्वभूतानामस्मिंल्लोके परत्र च।
यद् भवेत् प्रतिपत्तव्यं तद् भवान् प्रब्रवीतु मे ॥ ४ ॥
मूलम्
किं श्रेयः सर्वभूतानामस्मिंल्लोके परत्र च।
यद् भवेत् प्रतिपत्तव्यं तद् भवान् प्रब्रवीतु मे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुने! कौन-सी ऐसी वस्तु है जो समस्त प्राणियोंके लिये इहलोक और परलोकमें भी कल्याणकारी एवं जानने योग्य है? उसे आप मुझे बताइये’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स तपसा युक्तः सर्वधर्मविधानवित्।
नृपायानुग्रहमना मुनिर्वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ५ ॥
मूलम्
ततः स तपसा युक्तः सर्वधर्मविधानवित्।
नृपायानुग्रहमना मुनिर्वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सम्पूर्ण धर्मोंके विधानको जाननेवाले वे तपस्वी मुनि राजा जनकपर अनुग्रह करनेकी इच्छासे इस प्रकार बोले॥५॥
मूलम् (वचनम्)
पराशर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म एव कृतः श्रेयानिह लोके परत्र च।
तस्माद्धि परमं नास्ति यथा प्राहुर्मनीषिणः ॥ ६ ॥
मूलम्
धर्म एव कृतः श्रेयानिह लोके परत्र च।
तस्माद्धि परमं नास्ति यथा प्राहुर्मनीषिणः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पराशरजीने कहा— राजन्! जैसा कि मनीषी पुरुषोंका कथन है, धर्मका ही विधिपूर्वक अनुष्ठान किया जाय तो वह इहलोक और परलोकमें भी कल्याणकारी होता है। उससे बढ़कर दूसरा कोई श्रेयका उत्तम साधन नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिपद्य नरो धर्मं स्वर्गलोके महीयते।
धर्मात्मकः कर्मविधिर्देहिनां नृपसत्तम ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रतिपद्य नरो धर्मं स्वर्गलोके महीयते।
धर्मात्मकः कर्मविधिर्देहिनां नृपसत्तम ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! धर्मको जानकर उसका आश्रय लेनेवाला मनुष्य स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। वेदोंमें जो ‘सत्यं वद, धर्मं चर, यजेत, जुहुयात्’ इत्यादि वाक्योंद्वारा मनुष्योंका कर्तव्य विधान किया गया है, वही धर्मका लक्षण है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नाश्रमिणः सन्तः स्वकर्माणीह कुर्वते ॥ ८ ॥
मूलम्
तस्मिन्नाश्रमिणः सन्तः स्वकर्माणीह कुर्वते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी आश्रमोंके लोग उस धर्ममें ही स्थित रहकर इस जगत्में अपने-अपने कर्मोंका अनुष्ठान करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्विधा हि लोकेऽस्मिन् यात्रा तात विधीयते।
मर्त्या यत्रावतिष्ठन्ते सा च कामात् प्रवर्तते ॥ ९ ॥
मूलम्
चतुर्विधा हि लोकेऽस्मिन् यात्रा तात विधीयते।
मर्त्या यत्रावतिष्ठन्ते सा च कामात् प्रवर्तते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! इस लोकमें चार प्रकारकी जीविकाका विधान है (ब्राह्मणके लिये यज्ञादि कराकर दक्षिणा लेना, क्षत्रियके लिये कर लेना, वैश्यके लिये खेती आदि करना और शूद्रके लिये तीनों वर्णोंकी सेवा करना)। मनुष्य इन्हीं चार प्रकारकी जीविकाओंका आश्रय लेकर रहते हैं। वह जीविका दैवेच्छासे चलती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकृतासुकृतं कर्म निषेव्य विविधैः क्रमैः।
दशार्धप्रविभक्तानां भूतानां बहुधा गतिः ॥ १० ॥
मूलम्
सुकृतासुकृतं कर्म निषेव्य विविधैः क्रमैः।
दशार्धप्रविभक्तानां भूतानां बहुधा गतिः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्राणी नाना प्रकारके क्रमसे पुण्य और पापकर्मका सेवन करके पञ्चत्वको प्राप्त हो गये हैं अर्थात् स्थूल शरीरका त्याग कर देते हैं, उनको मिलनेवाली गति नाना प्रकारकी बतायी गयी है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौवर्णं राजतं चापि यथा भाण्डं निषिच्यते।
तथा निषिच्यते जन्तुः पूर्वकर्मवशानुगः ॥ ११ ॥
मूलम्
सौवर्णं राजतं चापि यथा भाण्डं निषिच्यते।
तथा निषिच्यते जन्तुः पूर्वकर्मवशानुगः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे ताँबे आदिके बर्तनोंपर जब सोने और चाँदीकी कलई चढ़ा दी जाती है तब वे वैसे ही दिखायी देने लगते हैं। उसी प्रकार पूर्व कर्मोंके वशीभूत प्राणी पूर्वकृत कर्मसे लिप्त रहता है (पुण्यकर्मसे लिप्त होनेके कारण वह सुखी होता है और पापसे लिप्त होनेके कारण उसे दुःख उठाना पड़ता है)॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाबीजाज्जायते किंचिन्नाकृत्वा सुखमेधते ।
सुकृतैर्विन्दते सौख्यं प्राप्य देहक्षयं नरः ॥ १२ ॥
मूलम्
नाबीजाज्जायते किंचिन्नाकृत्वा सुखमेधते ।
सुकृतैर्विन्दते सौख्यं प्राप्य देहक्षयं नरः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बिना बीजके कोई अंकुर पैदा नहीं होता, उसी प्रकार पुण्यकर्म किये बिना कोई सुखी या समृद्धिशाली नहीं हो सकता; अतः मनुष्य देहत्यागके पश्चात् पुण्यकर्मोंके फलसे ही सुख पाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवं तात न पश्यामि नास्ति दैवस्य साधनम्।
स्वभावतो हि संसिद्धा देवगन्धर्वदानवाः ॥ १३ ॥
मूलम्
दैवं तात न पश्यामि नास्ति दैवस्य साधनम्।
स्वभावतो हि संसिद्धा देवगन्धर्वदानवाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! इस विषयमें नास्तिक कहते हैं ‘मैं प्रारब्धको प्रत्यक्ष नहीं देख पाता तथा प्रारब्धके अस्तित्वका सूचक अनुमानप्रमाण भी नहीं है। किंतु देवता, गन्धर्व और दानव आदि योनियाँ तो स्वभावसे ही प्राप्त होती हैं’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेत्य जातिकृतं कर्म न स्मरन्ति सदा जनाः।
ते वै तस्य फलप्राप्तौ कर्म चापि चतुर्विधम् ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रेत्य जातिकृतं कर्म न स्मरन्ति सदा जनाः।
ते वै तस्य फलप्राप्तौ कर्म चापि चतुर्विधम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके उत्तरमें यह कहा जा सकता है कि मरकर गये हुए प्राणी पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मोंको सदैव याद नहीं रख सकते। किंतु जब किसी पूर्वकृत कर्मका फल प्राप्त होता है तब वे ही लोग सदा (मन, वाणी, नेत्र और क्रियाद्वारा किये हुए) चार प्रकारके कर्मोंका स्मरण करते हैं—अर्थात् यह कहते हैं कि मैंने पूर्व जन्ममें कोई ऐसा कर्म किया होगा जिसका फल इस रूपमें प्राप्त हुआ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकयात्राश्रयश्चैव शब्दो वेदाश्रयः कृतः।
शान्त्यर्थं मनसस्तात नैतद् वृद्धानुशासनम् ॥ १५ ॥
मूलम्
लोकयात्राश्रयश्चैव शब्दो वेदाश्रयः कृतः।
शान्त्यर्थं मनसस्तात नैतद् वृद्धानुशासनम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! नास्तिक लोग जो यह कहते हैं कि लोकयात्राके निर्वाह और मनकी शान्तिके लिये वेदोक्त शब्दोंको प्रमाण माना गया है; अर्थात् वेदोंमें जो कर्म करनेका विधान है, वह तो असमर्थ पुरुषोंके जीविकानिर्वाहके लिये है और जो पूर्वजन्मके किये हुए कर्मकी चर्चा आयी है वह दुखी मनुष्योंके मनको धीरज बँधानेके लिये है, परंतु यह मत ठीक नहीं है; क्योंकि पतञ्जलि आदि ज्ञानवृद्ध पुरुषोंने ऐसा उपदेश नहीं किया है (पतञ्जलिने ‘तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ इस सूत्रके द्वारा जाति (जन्म), आयु और सुख-दुःखरूप भोगको पूर्वकृत कर्मका फल बताया है)॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम्।
कुरुते यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम्।
कुरुते यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य नेत्र, मन, वाणी और क्रियाके द्वारा चार प्रकारके कर्म करता है और जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका फल पाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरन्तरं च मिश्रं च लभते कर्म पार्थिव।
कल्याणं यदि वा पापं न तु नाशोऽस्य विद्यते॥१७॥
मूलम्
निरन्तरं च मिश्रं च लभते कर्म पार्थिव।
कल्याणं यदि वा पापं न तु नाशोऽस्य विद्यते॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मनुष्य कर्मके फलरूपसे कभी केवल सुख, कभी सुख-दुःख दोनोंको एक साथ प्राप्त करता है। पुण्य या पाप कोई भी कर्म क्यों न हो, फल भोगे बिना उसका नाश नहीं होता॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचित् सुकृतं तात कूटस्थमिव तिष्ठति।
मज्जमानस्य संसारे यावद् दुःखाद् विमुच्यते ॥ १८ ॥
ततो दुःखक्षयं कृत्वा सुकृतं कर्म सेवते।
सुकृतक्षयाच्च दुष्कृतं तद् विद्धि मनुजाधिप ॥ १९ ॥
मूलम्
कदाचित् सुकृतं तात कूटस्थमिव तिष्ठति।
मज्जमानस्य संसारे यावद् दुःखाद् विमुच्यते ॥ १८ ॥
ततो दुःखक्षयं कृत्वा सुकृतं कर्म सेवते।
सुकृतक्षयाच्च दुष्कृतं तद् विद्धि मनुजाधिप ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! संसार-सागरमें डूबते हुए मनुष्यका पुण्यकर्म कभी-कभी तबतक स्थिर-जैसा रहता है जबतक कि दुःखसे उसका छुटकारा नहीं हो जाता। तदनन्तर दुःखका भोग समाप्त कर लेनेपर जीव अपने पुण्य कर्मके फलका उपभोग आरम्भ करता है। जब पुण्यका भी क्षय हो जाता है तब फिर वह पापका फल भोगता है। नरेश्वर! इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमः क्षमा धृतिस्तेजः संतोषः सत्यवादिता।
ह्रीरहिंसाऽव्यसनिता दाक्ष्यं चेति सुखावहाः ॥ २० ॥
मूलम्
दमः क्षमा धृतिस्तेजः संतोषः सत्यवादिता।
ह्रीरहिंसाऽव्यसनिता दाक्ष्यं चेति सुखावहाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियसंयम, क्षमा, धैर्य, तेज, संतोष, सत्यभाषण, लज्जा, अहिंसा, दुर्व्यसनका अभाव तथा दक्षता—ये सब सुख देनेवाले हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्कृते सुकृते चापि न जन्तुर्नियतो भवेत्।
नित्यं मनःसमाधाने प्रयतेत विचक्षणः ॥ २१ ॥
मूलम्
दुष्कृते सुकृते चापि न जन्तुर्नियतो भवेत्।
नित्यं मनःसमाधाने प्रयतेत विचक्षणः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुषको जीवनपर्यन्त पाप या पुण्यमें भी आसक्त न होकर अपने मनको परमात्माके ध्यानमें लगानेका प्रयत्न करना चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं परस्य सुकृतं दुष्कृतं चापि सेवते।
करोति यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते ॥ २२ ॥
मूलम्
नायं परस्य सुकृतं दुष्कृतं चापि सेवते।
करोति यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव दूसरेके किये हुए शुभ अथवा अशुभ कर्मको नहीं भोगता, वह स्वयं जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखदुःखे समाधाय पुमानन्येन गच्छति।
अन्येनैव जनः सर्वः संगतो यश्च पार्थिवः ॥ २३ ॥
मूलम्
सुखदुःखे समाधाय पुमानन्येन गच्छति।
अन्येनैव जनः सर्वः संगतो यश्च पार्थिवः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विवेकी पुरुष सुख और दुःखको अपने भीतर विलीन करके अन्य मार्गसे अर्थात् मोक्षप्राप्तिके मार्गद्वारा चलता है। जो स्त्री, पुत्र और धन आदिमें आसक्त हैं, वे सब संसारी जीव उससे भिन्न दूसरे ही मार्गपर चलते हैं; अतः जन्मते और मरते रहते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परेषां यदसूयेत न तत् कुर्यात् स्वयं नरः।
यो ह्यसूयुस्तथायुक्तः सोऽवहासं नियच्छति ॥ २४ ॥
मूलम्
परेषां यदसूयेत न तत् कुर्यात् स्वयं नरः।
यो ह्यसूयुस्तथायुक्तः सोऽवहासं नियच्छति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य दूसरेके जिस कर्मकी निन्दा करे, उसको स्वयं भी न करे। जो दूसरेकी निन्दा करता है; किंतु स्वयं उसी निन्द्य कर्ममें लगा रहता है, वह उपहासका पात्र होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीरू राजन्यो ब्राह्मणः सर्वभक्ष्यो
वैश्योऽनीहावान् हीनवर्णोऽलसश्च ।
विद्वांश्चाशीलो वृत्तहीनः कुलीनः
सत्याद् विभ्रष्टो धार्मिकः स्त्री च दुष्टा ॥ २५ ॥
रागी युक्तः पचमानोऽऽत्महेतो-
र्मूर्खो वक्ता नृपहीनं च राष्ट्रम्।
एते सर्वे शोच्यतां यान्ति राजन्
यश्चायुक्तः स्नेहहीनः प्रजासु ॥ २६ ॥
मूलम्
भीरू राजन्यो ब्राह्मणः सर्वभक्ष्यो
वैश्योऽनीहावान् हीनवर्णोऽलसश्च ।
विद्वांश्चाशीलो वृत्तहीनः कुलीनः
सत्याद् विभ्रष्टो धार्मिकः स्त्री च दुष्टा ॥ २५ ॥
रागी युक्तः पचमानोऽऽत्महेतो-
र्मूर्खो वक्ता नृपहीनं च राष्ट्रम्।
एते सर्वे शोच्यतां यान्ति राजन्
यश्चायुक्तः स्नेहहीनः प्रजासु ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! डरपोक क्षत्रिय, (भक्ष्याभक्ष्यका विचार न करके) सब कुछ खानेवाला ब्राह्मण, धनोपार्जनकी चेष्टासे रहित या अकर्मण्य वैश्य, आलसी शूद्र, उत्तम गुणोंसे रहित विद्वान्, सदाचारका पालन न करनेवाला कुलीन पुरुष, सत्यसे भ्रष्ट हुआ धार्मिक पुरुष, दुराचारिणी स्त्री, विषयासक्त योगी, केवल अपने लिये भोजन बनानेवाला मनुष्य, मूर्ख वक्ता, राजासे रहित राष्ट्र तथा अजितेन्द्रिय होकर प्रजाके प्रति स्नेह न रखनेवाला राजा—ये सब-के-सब शोकके योग्य हैं, अर्थात् निन्दनीय हैं॥२५-२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पराशरगीतायां नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२९०॥