भागसूचना
अष्टाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अरिष्टनेमिका राजा सगरको वैराग्योत्पादक मोक्षविषयक उपदेश
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं नु युक्तः पृथिवीं चरेदस्मद्विधो नृपः।
नित्यं कैश्च गुणैर्युक्तः संगपाशाद् विमुच्यते ॥ १ ॥
मूलम्
कथं नु युक्तः पृथिवीं चरेदस्मद्विधो नृपः।
नित्यं कैश्च गुणैर्युक्तः संगपाशाद् विमुच्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— दादाजी! मेरे-जैसा राजा कैसे साधन और व्यवहारसे युक्त होकर पृथ्वीपर विचरे और सदा किन गुणोंसे सम्पन्न होकर वह आसक्तिके बन्धनसे मुक्त हो?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्।
अरिष्टनेमिना प्रोक्तं सगरायानुपृच्छते ॥ २ ॥
मूलम्
अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम्।
अरिष्टनेमिना प्रोक्तं सगरायानुपृच्छते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें राजा सगरके प्रश्न करनेपर अरिष्टनेमिने जो उत्तर दिया था, वह प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें बताऊँगा॥२॥
मूलम् (वचनम्)
सगर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं श्रेयः परमं ब्रह्मन् कृत्वेह सुखमश्नुते।
कथं न शोचेन्न क्षुभ्येदेतदिच्छामि वेदितुम् ॥ ३ ॥
मूलम्
किं श्रेयः परमं ब्रह्मन् कृत्वेह सुखमश्नुते।
कथं न शोचेन्न क्षुभ्येदेतदिच्छामि वेदितुम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सगरने पूछा— ब्रह्मन्! इस जगत्में मनुष्य किस परम कल्याणकारी कर्मका अनुष्ठान करके सुखका भागी होता है? तथा किस उपायसे उसे शोक या क्षोभ प्राप्त नहीं होता? यह मैं जानना चाहता हूँ॥३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तदा तार्क्ष्यः सर्वशास्त्रविदां वरः।
विबुध्य सम्पदं चाग्र्यां सद्वाक्यमिदमब्रवीत् ॥ ४ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तदा तार्क्ष्यः सर्वशास्त्रविदां वरः।
विबुध्य सम्पदं चाग्र्यां सद्वाक्यमिदमब्रवीत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! राजा सगरके इस प्रकार पूछनेपर सम्पूर्ण शास्त्रज्ञोंमें श्रेष्ठ तार्क्ष्य (अरिष्टनेमि)-ने उनमें सर्वोत्तम दैवी सम्पत्तिके गुण जानकर उनको इस प्रकार उत्तम उपदेश दिया—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं मोक्षसुखं लोके न च मूढोऽवगच्छति।
प्रसक्तः पुत्रपशुषु धनधान्यसमाकुलः ॥ ५ ॥
मूलम्
सुखं मोक्षसुखं लोके न च मूढोऽवगच्छति।
प्रसक्तः पुत्रपशुषु धनधान्यसमाकुलः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सगर! संसारमें मोक्षका सुख ही वास्तविक सुख है, परंतु जो धनधान्यके उपार्जनमें व्यग्र तथा पुत्र और पशुओंमें आसक्त है, उस मूढ़ मनुष्यको उसका यथार्थ ज्ञान नहीं होता’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सक्तबुद्धिरशान्तात्मा न शक्यं तच्चिकित्सितुम्।
स्नेहपाशसितो मूढो न स मोक्षाय कल्पते ॥ ६ ॥
मूलम्
सक्तबुद्धिरशान्तात्मा न शक्यं तच्चिकित्सितुम्।
स्नेहपाशसितो मूढो न स मोक्षाय कल्पते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसकी बुद्धि विषयोंमें आसक्त है, जिसका मन अशान्त रहता है, ऐसे मनुष्यकी चिकित्सा करनी कठिन है; क्योंकि जो स्नेहके बन्धनमें बँधा हुआ है, वह मूढ़ मोक्ष पानेके लिये योग्य नहीं होता’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नेहजानिह ते पाशान् वक्ष्यामि शृणु तान् मम।
सकर्णकेन शिरसा शक्याः श्रोतुं विजानता ॥ ७ ॥
मूलम्
स्नेहजानिह ते पाशान् वक्ष्यामि शृणु तान् मम।
सकर्णकेन शिरसा शक्याः श्रोतुं विजानता ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तुम्हें स्नेहजनित बन्धनोंका परिचय देता हूँ, उन्हें तुम मुझसे सुनो। श्रवणेन्द्रियसम्पन्न समझदार मनुष्य ही ऐसी बातोंको बुद्धिपूर्वक सुन सकता है’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भाव्य पुत्रान् कालेन यौवनस्थान् निवेश्य च।
समर्थान् जीवने ज्ञात्वा मुक्तश्चर यथासुखम् ॥ ८ ॥
मूलम्
सम्भाव्य पुत्रान् कालेन यौवनस्थान् निवेश्य च।
समर्थान् जीवने ज्ञात्वा मुक्तश्चर यथासुखम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘समयानुसार पुत्रोंको उत्पन्न करके जब वे जवान हो जायँ, तब उनका विवाह कर दो और जब यह मालूम हो जाय कि अब ये दूसरेके सहयोगके बिना ही जीवन-निर्वाह करनेमें समर्थ हैं, तब उनके स्नेह-पाशसे मुक्त हो सुखपूर्वक विचरो’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्यां पुत्रवतीं वृद्धां लालितां पुत्रवत्सलाम्।
ज्ञात्वा प्रजहि कालेन परार्थमनुदृश्य च ॥ ९ ॥
मूलम्
भार्यां पुत्रवतीं वृद्धां लालितां पुत्रवत्सलाम्।
ज्ञात्वा प्रजहि कालेन परार्थमनुदृश्य च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पत्नी पुत्रवती होकर वृद्ध हो गयी। अब पुत्रगण उसका पालन करते हैं और वह भी पुत्रोंपर पूर्ण वात्सल्य रखती है, यह जानकर परम पुरुषार्थ मोक्षको अपना लक्ष्य बनाकर यथासमय उसका परित्याग कर दे’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सापत्यो निरपत्यो वा मुक्तश्चर यथासुखम्।
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थांस्त्वमनुभूय यथाविधि ॥ १० ॥
कृतकौतूहलस्तेषु मुक्तश्चर यथासुखम् ।
मूलम्
सापत्यो निरपत्यो वा मुक्तश्चर यथासुखम्।
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थांस्त्वमनुभूय यथाविधि ॥ १० ॥
कृतकौतूहलस्तेषु मुक्तश्चर यथासुखम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शास्त्र-विधिके अनुसार इन्द्रियोंद्वारा इन्द्रियोंके विषयोंका अनुभव करके जब तुम उनके खेलको पूरा कर चुको, तब संतान हुई हो चाहे न हुई हो, उनसे मुक्त होकर सुखपूर्वक विचरो’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपत्त्योपलब्धेषु लोकेषु च समो भव ॥ ११ ॥
मूलम्
उपपत्त्योपलब्धेषु लोकेषु च समो भव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दैवेच्छासे जो भी लौकिक पदार्थ उपलब्ध हों, उनमें समान भाव रखो—राग-द्वेष न करो’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष तावत् समासेन तव संकीर्तितो मया।
मोक्षार्थो विस्तरेणाथ भूयो वक्ष्यामि तच्छृणु ॥ १२ ॥
मूलम्
एष तावत् समासेन तव संकीर्तितो मया।
मोक्षार्थो विस्तरेणाथ भूयो वक्ष्यामि तच्छृणु ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह संक्षेपमें मैंने तुम्हें मोक्षका विषय बताया है। अब पुनः इसीको विस्तारके साथ बता रहा हूँ, सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुक्ता वीतभया लोके चरन्ति सुखिनो नराः।
सक्तभावा विनश्यन्ति नरास्तत्र न संशयः ॥ १३ ॥
आहारसंचयाश्चैव तथा कीटपिपीलिकाः ।
असक्ताः सुखिनो लोके सक्ताश्चैव विनाशिनः ॥ १४ ॥
मूलम्
मुक्ता वीतभया लोके चरन्ति सुखिनो नराः।
सक्तभावा विनश्यन्ति नरास्तत्र न संशयः ॥ १३ ॥
आहारसंचयाश्चैव तथा कीटपिपीलिकाः ।
असक्ताः सुखिनो लोके सक्ताश्चैव विनाशिनः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुक्त पुरुष सुखी होते हैं और संसारमें निर्भय होकर विचरते हैं; किंतु जिनका चित्त विषयोंमें आसक्त होता है, वे कीड़े-मकोड़ोंकी भाँति आहारका संग्रह करते-करते ही नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है; अतः जो आसक्तिसे रहित हैं, वे ही इस संसारमें सुखी हैं। आसक्त मनुष्योंका तो नाश ही होता है’॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वजने न च ते चिन्ता कर्तव्या मोक्षबुद्धिना।
इमे मया विनाभूता भविष्यन्ति कथं त्विति ॥ १५ ॥
मूलम्
स्वजने न च ते चिन्ता कर्तव्या मोक्षबुद्धिना।
इमे मया विनाभूता भविष्यन्ति कथं त्विति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि तुम्हारी बुद्धि मोक्षमें लगी हुई है तो तुम्हें स्वजनोंके विषयमें ऐसी चिन्ता नहीं करनी चाहिये कि ये मेरे बिना कैसे रहेंगे’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयमुत्पद्यते जन्तुः स्वयमेव विवर्धते।
सुखदुःखे तथा मृत्युं स्वयमेवाधिगच्छति ॥ १६ ॥
मूलम्
स्वयमुत्पद्यते जन्तुः स्वयमेव विवर्धते।
सुखदुःखे तथा मृत्युं स्वयमेवाधिगच्छति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्राणी स्वयं जन्म लेता है, स्वयं बढ़ता है और स्वयं ही सुख-दुःख तथा मृत्युको प्राप्त होता है’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजनाच्छादने चैव मात्रा पित्रा च संग्रहम्।
स्वकृतेनाधिगच्छन्ति लोके नास्त्यकृतं पुरा ॥ १७ ॥
मूलम्
भोजनाच्छादने चैव मात्रा पित्रा च संग्रहम्।
स्वकृतेनाधिगच्छन्ति लोके नास्त्यकृतं पुरा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य पूर्वजन्मके कर्मोंके अनुसार ही भोजन, वस्त्र तथा अपने माता-पिताके द्वारा संग्रह किया हुआ धन प्राप्त करता है। संसारमें जो कुछ मिलता है, वह पूर्वकृत कर्मोंके फलके अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धात्रा विहितभक्ष्याणि सर्वभूतानि मेदिनीम्।
लोके विपरिधावन्ति रक्षितानि स्वकर्मभिः ॥ १८ ॥
मूलम्
धात्रा विहितभक्ष्याणि सर्वभूतानि मेदिनीम्।
लोके विपरिधावन्ति रक्षितानि स्वकर्मभिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संसारमें सभी प्राणी अपने कर्मोंसे सुरक्षित हो सारी पृथ्वीकी दौड़ लगाते हैं और विधाताने उनके प्रारब्धके अनुसार जो आहार नियत कर दिया है, उसे प्राप्त करते हैं’॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं मृत्पिण्डभूतस्य परतन्त्रस्य सर्वदा।
को हेतुः स्वजनं पोष्टुं रक्षितुं वादृढात्मनः ॥ १९ ॥
मूलम्
स्वयं मृत्पिण्डभूतस्य परतन्त्रस्य सर्वदा।
को हेतुः स्वजनं पोष्टुं रक्षितुं वादृढात्मनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो स्वयं ही शरीरकी दृष्टिसे मिट्टीका लोंदामात्र है, सर्वदा परतन्त्र है, वह अदृढ़ मनवाला मनुष्य स्वजनोंका पोषण और रक्षण करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है?’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वजनं हि यदा मृत्युर्हन्त्येव तव पश्यतः।
कृतेऽपि यत्ने महति तत्र बोद्धव्यमात्मना ॥ २० ॥
मूलम्
स्वजनं हि यदा मृत्युर्हन्त्येव तव पश्यतः।
कृतेऽपि यत्ने महति तत्र बोद्धव्यमात्मना ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब स्वजनोंको तुम्हारे देखते-देखते ही मौत मार ही डालती है और तुम उन्हें बचानेके लिये महान् प्रयत्न करनेपर भी सफल नहीं हो पाते, तब इस विषयमें तुम्हें स्वयं ही यह विचार करना चाहिये कि मेरी क्या शक्ति है?’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन्तमपि चैवैनं भरणे रक्षणे तथा।
असमाप्ते परित्यज्य पश्चादपि मरिष्यसि ॥ २१ ॥
मूलम्
जीवन्तमपि चैवैनं भरणे रक्षणे तथा।
असमाप्ते परित्यज्य पश्चादपि मरिष्यसि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि वे स्वजन जीवित रह जायँ तो भी इनके भरण-पोषण और संरक्षणका कार्य समाप्त होनेसे पहले ही तुम इन्हें छोड़कर पीछे स्वयं भी तो मर जाओगे’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा मृतं च स्वजनं न ज्ञास्यसि कदाचन।
सुखितं दुःखितं वापि ननु बोद्धव्यमात्मना ॥ २२ ॥
मूलम्
यदा मृतं च स्वजनं न ज्ञास्यसि कदाचन।
सुखितं दुःखितं वापि ननु बोद्धव्यमात्मना ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा जब कोई स्वजन मरकर इस लोकसे चला जायगा, तब उसके विषयमें यह कभी नहीं जान सकोगे कि वह सुखी है या दुखी, अतः इस विषयमें तुम्हें स्वयं ही विचार करना चाहिये’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृते वा त्वयि जीवे वा यदा भोक्ष्यति वै जनः।
स्वकृतं ननु बुद्ध्वैवं कर्तव्यं हितमात्मनः ॥ २३ ॥
मूलम्
मृते वा त्वयि जीवे वा यदा भोक्ष्यति वै जनः।
स्वकृतं ननु बुद्ध्वैवं कर्तव्यं हितमात्मनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम जीवित रहो या मर जाओ। तुम्हारा प्रत्येक स्वजन जब अपनी-अपनी करनीका ही फल भोगेगा, तब इस बातको जानकर तुम्हें भी अपने कल्याणके लिये साधनमें लग जाना चाहिये’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विजान् लोकेऽस्मिन् कः कस्येत्यभिनिश्चितः।
मोक्षे निवेशय मनो भूयश्चाप्युपधारय ॥ २४ ॥
मूलम्
एवं विजान् लोकेऽस्मिन् कः कस्येत्यभिनिश्चितः।
मोक्षे निवेशय मनो भूयश्चाप्युपधारय ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसा जानकर इस संसारमें कौन किसका है, इस बातका भलीभाँति विचार करके अपने मनको मोक्षमें लगा दो और साथ ही पुनः इस बातपर ध्यान दो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुत्पिपासादयो भावा जिता यस्येह देहिनः।
क्रोधो लोभस्तथा मोहः सत्त्ववान् मुक्त एव सः ॥ २५ ॥
मूलम्
क्षुत्पिपासादयो भावा जिता यस्येह देहिनः।
क्रोधो लोभस्तथा मोहः सत्त्ववान् मुक्त एव सः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसने क्षुधा, पिपासा, क्रोध, लोभ और मोह आदि भावोंपर विजय पा ली है, वह सत्त्वसम्पन्न पुरुष सदा मुक्त ही है’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्यूते पाने तथा स्त्रीषु मृगयायां च यो नरः।
न प्रमाद्यति सम्मोहात् सततं मुक्त एव सः ॥ २६ ॥
मूलम्
द्यूते पाने तथा स्त्रीषु मृगयायां च यो नरः।
न प्रमाद्यति सम्मोहात् सततं मुक्त एव सः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मोहवश जूआ, मद्यपान, परस्त्रीसंसर्ग तथा मृगया आदि व्यसनोंमें आसक्त होनेका प्रमाद नहीं करता है, वह भी सदा मुक्त ही है’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवसे दिवसे नाम रात्रौ रात्रौ पुमान् सदा।
भोक्तव्यमिति यः खिन्नो दोषबुद्धिः स उच्यते ॥ २७ ॥
मूलम्
दिवसे दिवसे नाम रात्रौ रात्रौ पुमान् सदा।
भोक्तव्यमिति यः खिन्नो दोषबुद्धिः स उच्यते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पुरुष सदा प्रत्येक दिन और प्रत्येक रात्रिमें भोग भोगने या भोजन करनेकी ही चिन्तामें पड़कर दुःखी रहता है, वह दोषबुद्धिसे युक्त कहलाता है’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मभावं तथा स्त्रीषु मुक्तमेव पुनः पुनः।
यः पश्यति सदा युक्तो यथावन्मुक्त एव सः ॥ २८ ॥
मूलम्
आत्मभावं तथा स्त्रीषु मुक्तमेव पुनः पुनः।
यः पश्यति सदा युक्तो यथावन्मुक्त एव सः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सदा योगयुक्त रहकर स्त्रियोंके प्रति अपने भाव (अनुराग या आसक्ति)-को निवृत्त हुआ ही देखता है अर्थात् जिसकी स्त्रियोंके प्रति भोग्यबुद्धि नहीं होती, वही वास्तवमें मुक्त है’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भवं च विनाशं च भूतानां चेष्टितं तथा।
यस्तत्त्वतो विजानाति लोकेऽस्मिन् मुक्त एव सः ॥ २९ ॥
मूलम्
सम्भवं च विनाशं च भूतानां चेष्टितं तथा।
यस्तत्त्वतो विजानाति लोकेऽस्मिन् मुक्त एव सः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो प्राणियोंके जन्म, मृत्यु और चेष्टाओंको ठीक-ठीक जानता है, वह भी इस संसारमें मुक्त ही है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रस्थं वाहसहस्रेषु यात्रार्थं चैव कोटिषु।
प्रासादे मञ्चकं स्थानं यः पश्यति स मुच्यते ॥ ३० ॥
मूलम्
प्रस्थं वाहसहस्रेषु यात्रार्थं चैव कोटिषु।
प्रासादे मञ्चकं स्थानं यः पश्यति स मुच्यते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो हजारों और करोड़ों गाड़ी अन्नमेंसे केवल एक प्रस्थ (पेट भरने लायक)-को ही अपने जीवन-निर्वाहके लिये पर्याप्त समझता है (उससे अधिकका संग्रह करना नहीं चाहता) तथा बड़े-से-बड़े महलमें मञ्च बिछाने भरकी जगहको ही अपने लिये पर्याप्त समझता है, वह मुक्त हो जाता है’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्युनाभ्याहतं लोकं व्याधिभिश्चोपपीडितम् ।
अवृत्तिकर्शितं चैव यः पश्यति स मुच्यते ॥ ३१ ॥
मूलम्
मृत्युनाभ्याहतं लोकं व्याधिभिश्चोपपीडितम् ।
अवृत्तिकर्शितं चैव यः पश्यति स मुच्यते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो इस जगत्को रोगोंसे पीड़ित, जीविकाके अभावसे दुर्बल और मृत्युके आघातसे नष्ट हुआ देखता है, वह मुक्त हो जाता है’॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः पश्यति स संतुष्टो न पश्यंश्च विहन्यते।
यश्चाप्यल्पेन संतुष्टो लोकेऽस्मिन् मुक्त एव सः ॥ ३२ ॥
मूलम्
यः पश्यति स संतुष्टो न पश्यंश्च विहन्यते।
यश्चाप्यल्पेन संतुष्टो लोकेऽस्मिन् मुक्त एव सः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो ऐसा देखता है, वह संतुष्ट एवं मुक्त होता है; किंतु जो ऐसा नहीं देखता, वह मारा जाता है—जन्म, मृत्युके चक्रमें पड़ा रहता है। जो थोड़ेसे लाभमें ही संतुष्ट रहता है, वह इस जगत्में मुक्त ही है’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्नीषोमाविदं सर्वमिति यश्चानुपश्यति ।
न च संस्पृश्यते भावैरद्भुतैर्मुक्त एव सः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अग्नीषोमाविदं सर्वमिति यश्चानुपश्यति ।
न च संस्पृश्यते भावैरद्भुतैर्मुक्त एव सः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो इस सम्पूर्ण जगत्को अग्नि और सोम (भोक्ता और भोज्य) रूप ही देखता है और स्वयंको उनसे भिन्न समझता है, उसे मायाके अद्भुत भाव—सुख-दुःख आदि छू नहीं सकते। वह सर्वथा मुक्त ही है’॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्यङ्कशय्या भूमिश्च समाने यस्य देहिनः।
शालयश्च कदन्नं च यस्य स्यान्मुक्त एव सः ॥ ३४ ॥
मूलम्
पर्यङ्कशय्या भूमिश्च समाने यस्य देहिनः।
शालयश्च कदन्नं च यस्य स्यान्मुक्त एव सः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस देहधारीके लिये पलंगकी सेज और भूमि—दोनों समान है; जो अगहनीके चावल और कोदो आदिको एक-सा समझता है, वह मुक्त ही है’॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षौमं च कुशचीरं च कौशेयं वल्कलानि च।
आविकं चर्म च समं यस्य स्यान्मुक्त एव सः॥३५॥
मूलम्
क्षौमं च कुशचीरं च कौशेयं वल्कलानि च।
आविकं चर्म च समं यस्य स्यान्मुक्त एव सः॥३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसके लिये सनके वस्त्र, कुशके चीर, रेशमी वस्त्र, वल्कल, ऊनी वस्त्र और मृगचर्म—सब समान हैं, वह भी मुक्त ही है’॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चभूतसमुद्भूतं लोकं यश्चानुपश्यति ।
तथा च वर्तते दृष्ट्वा लोकेऽस्मिन् मुक्त एव सः॥३६॥
मूलम्
पञ्चभूतसमुद्भूतं लोकं यश्चानुपश्यति ।
तथा च वर्तते दृष्ट्वा लोकेऽस्मिन् मुक्त एव सः॥३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो संसारको पाञ्चभौतिक देखता और उस दृष्टिके अनुसार ही बर्ताव करता है, वह भी इस जगत्में मुक्त ही है’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखदुःखे समे यस्य लाभालाभौ जयाजयौ।
इच्छाद्वेषौ भयोद्वेगौ सर्वथा मुक्त एव सः ॥ ३७ ॥
मूलम्
सुखदुःखे समे यस्य लाभालाभौ जयाजयौ।
इच्छाद्वेषौ भयोद्वेगौ सर्वथा मुक्त एव सः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसकी दृष्टिमें सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय सम है तथा जिसके इच्छा-द्वेष, भय और उद्वेग सर्वथा नष्ट हो गये हैं, वही मुक्त है’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्तमूत्रपुरीषाणां दोषाणां संचयांस्तथा ।
शरीरं दोषबहुलं दृष्ट्वा चैव विमुच्यते ॥ ३८ ॥
मूलम्
रक्तमूत्रपुरीषाणां दोषाणां संचयांस्तथा ।
शरीरं दोषबहुलं दृष्ट्वा चैव विमुच्यते ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह शरीर क्या है, बहुत-से दोषोंका भण्डार। इसमें रक्त, मल-मूत्र तथा और भी अनेक दोषोंका संचय हुआ है। जो इस बातको देखता और समझता है, वह मुक्त हो जाता है’॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वलीपलितसंयोगे कार्श्यं वैवर्ण्यमेव च।
कुब्जभावं च जरया यः पश्यति स मुच्यते ॥ ३९ ॥
मूलम्
वलीपलितसंयोगे कार्श्यं वैवर्ण्यमेव च।
कुब्जभावं च जरया यः पश्यति स मुच्यते ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बुढ़ापा आनेपर इस शरीरमें झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। सिरके बाल सफेद हो जाते हैं। देह दुबली-पतली एवं कान्तिहीन हो जाती है तथा कमर झुक जानेके कारण मुनष्य कुबड़ा-सा हो जाता है। इन सब बातोंकी ओर जिसकी सदा ही दृष्टि रहती है, वह मुक्त हो जाता है’॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंस्त्वोपघातं कालेन दर्शनोपरमं तथा।
बाधिर्यं प्राणमन्दत्वं यः पश्यति स मुच्यते ॥ ४० ॥
मूलम्
पुंस्त्वोपघातं कालेन दर्शनोपरमं तथा।
बाधिर्यं प्राणमन्दत्वं यः पश्यति स मुच्यते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘समय आनेपर पुरुषत्व नष्ट हो जाता है, आँखोंसे दिखायी नहीं देता है, कान बहरे हो जाते हैं और प्राणशक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाती है। इन सब बातोंको जो सदा देखता और इनपर विचार करता रहता है, वह संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है’॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतानृषींस्तथा देवानसुरांश्च तथा गतान्।
लोकादस्मात् परं लोकं यः पश्यति स मुच्यते ॥ ४१ ॥
मूलम्
गतानृषींस्तथा देवानसुरांश्च तथा गतान्।
लोकादस्मात् परं लोकं यः पश्यति स मुच्यते ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कितने ही ऋषि देवता तथा असुर इस लोकसे परलोकको चले गये। जो सदा यह देखता और स्मरण रखता है वह मुक्त हो जाता है’॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभावैरन्वितास्तैस्तैः पार्थिवेन्द्राः सहस्रशः ।
ये गताः पृथिवीं त्यक्त्वा इति ज्ञात्वा विमुच्यते ॥ ४२ ॥
मूलम्
प्रभावैरन्वितास्तैस्तैः पार्थिवेन्द्राः सहस्रशः ।
ये गताः पृथिवीं त्यक्त्वा इति ज्ञात्वा विमुच्यते ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सहस्रों प्रभावशाली नरेश इस पृथ्वीको छोड़कर कालके गालमें चले गये। इस बातको जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है’॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थांश्च दुर्लभाल्ँलोके क्लेशांश्च सुलभांस्तथा।
दुःखं चैव कुटुम्बार्थे यः पश्यति स मुच्यते ॥ ४३ ॥
मूलम्
अर्थांश्च दुर्लभाल्ँलोके क्लेशांश्च सुलभांस्तथा।
दुःखं चैव कुटुम्बार्थे यः पश्यति स मुच्यते ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संसारमें धन दुर्लभ है और क्लेश सुलभ। कुटुम्बके पालन-पोषणके लिये भी जहाँ बहुत दुःख उठाना पड़ता है, यह सब जिसकी दृष्टिमें है, वह मुक्त हो जाता है’॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपत्यानां च वैगुण्यं जनं विगुणमेव च।
पश्यन् भूयिष्ठशो लोके को मोक्षं नाभिपूजयेत् ॥ ४४ ॥
मूलम्
अपत्यानां च वैगुण्यं जनं विगुणमेव च।
पश्यन् भूयिष्ठशो लोके को मोक्षं नाभिपूजयेत् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इतना ही नहीं, इस जगत्में अपनी संतानोंकी गुणहीनताका दुःख भी देखना पड़ता है। विपरीत गुणवाले मनुष्योंसे भी सम्बन्ध हो जाता है। इस प्रकार जो यहाँ अधिकांश कष्ट ही देखता है, ऐसा कौन मनुष्य मोक्षका आदर नहीं करेगा?’॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शास्त्राल्लोकाच्च यो बुद्धः सर्वं पश्यति मानवः।
असारमिव मानुष्यं सर्वथा मुक्त एव सः ॥ ४५ ॥
मूलम्
शास्त्राल्लोकाच्च यो बुद्धः सर्वं पश्यति मानवः।
असारमिव मानुष्यं सर्वथा मुक्त एव सः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मनुष्य शास्त्रोंके अध्ययन तथा लौकिक अनुभवसे भी ज्ञानसम्पन्न होकर समस्त मानव-जगत्को सारहीन-सा देखता है, वह सब प्रकारसे मुक्त ही है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् श्रुत्वा मम वचो भवांश्चरतु मुक्तवत्।
गार्हस्थ्ये यदि वा मोक्षे कृता बुद्धिरविक्लवा ॥ ४६ ॥
मूलम्
एतत् श्रुत्वा मम वचो भवांश्चरतु मुक्तवत्।
गार्हस्थ्ये यदि वा मोक्षे कृता बुद्धिरविक्लवा ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे इस वचनको सुनकर तुम अपनी बुद्धिको व्याकुलतासे रहित बनाकर गृहस्थाश्रममें या संन्यास-आश्रममें चाहे जहाँ रहकर मुक्तकी भाँति आचरण करो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् तस्य वचनं श्रुत्वा सम्यक् स पृथिवीपतिः।
मोक्षजैश्च गुणैर्युक्तः पालयामास च प्रजाः ॥ ४७ ॥
मूलम्
तत् तस्य वचनं श्रुत्वा सम्यक् स पृथिवीपतिः।
मोक्षजैश्च गुणैर्युक्तः पालयामास च प्रजाः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा सगर अरिष्टनेमिके उपर्युक्त उपदेशको भलीभाँति सुनकर मोक्षोपयोगी गुणोंसे सम्पन्न हो प्रजाका पालन करने लगे॥४७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सगरारिष्टनेमिसंवादेऽष्टाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें सगर और अरिष्टनेमिका संवादविषयक दो सौ अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८८॥