२८७ श्रेयोवाचिकः

भागसूचना

सप्ताशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नारदजीका गालव मुनिको श्रेयका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतत्त्वज्ञस्य शास्त्राणां सततं संशयात्मनः।
अकृतव्यवसायस्य श्रेयो ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

अतत्त्वज्ञस्य शास्त्राणां सततं संशयात्मनः।
अकृतव्यवसायस्य श्रेयो ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो शास्त्रोंके तत्त्वको नहीं जानता, जिसका मन सदा संशयमें ही पड़ा रहता है तथा जिसने परमार्थके लिये कोई निश्चित ध्येय नहीं बनाया है, उस पुरुषका कल्याण कैसे हो सकता है? यह मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुपूजा च सततं वृद्धानां पर्युपासनम्।
श्रवणं चैव शास्त्राणां कूटस्थं श्रेय उच्यते ॥ २ ॥

मूलम्

गुरुपूजा च सततं वृद्धानां पर्युपासनम्।
श्रवणं चैव शास्त्राणां कूटस्थं श्रेय उच्यते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! सदा गुरुजनोंकी पूजा, वृद्ध पुरुषोंकी सेवा और शास्त्रोंका श्रवण—ये तीन कल्याणके अमोघ साधन बताये जाते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गालवस्य च संवादं देवर्षेर्नारदस्य च ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गालवस्य च संवादं देवर्षेर्नारदस्य च ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें भी जानकार मनुष्य देवर्षि नारद और महर्षि गालवके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाश्रमं समनुप्राप्तं नारदं देववर्चसम्।
वीतमोहक्लमं विप्रं ज्ञानतृप्तं जितेन्द्रियः।
श्रेयस्कामो यतात्मानं नारदं गालवोऽब्रवीत् ॥ ४ ॥

मूलम्

स्वाश्रमं समनुप्राप्तं नारदं देववर्चसम्।
वीतमोहक्लमं विप्रं ज्ञानतृप्तं जितेन्द्रियः।
श्रेयस्कामो यतात्मानं नारदं गालवोऽब्रवीत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, कल्याणकी इच्छा रखनेवाले जितेन्द्रिय गालव मुनिने अपने आश्रमपर पधारे हुए देवोपम तेजस्वी ब्राह्मण, मोह और क्लान्तिसे रहित, ज्ञानानन्दसे परिपूर्ण एवं मनको वशमें रखनेवाले देवर्षि नारदजीसे इस प्रकार पूछा—॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यैः कश्चित् सम्मतो लोके गुणैश्च पुरुषो मुने।
भवत्यनपगान् सर्वांस्तान् गुणान् लक्षयामहे ॥ ५ ॥

मूलम्

यैः कश्चित् सम्मतो लोके गुणैश्च पुरुषो मुने।
भवत्यनपगान् सर्वांस्तान् गुणान् लक्षयामहे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुने! संसारमें कोई भी पुरुष जिन गुणोंद्वारा सम्मानित होता है, उन समस्त गुणोंका मैं आपमें कभी अभाव नहीं देखता हूँ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवानेवंविधोऽस्माकं संशयं छेत्तुमर्हति ।
अमूढश्चिरमूढानां लोकतत्त्वमजानताम् ॥ ६ ॥

मूलम्

भवानेवंविधोऽस्माकं संशयं छेत्तुमर्हति ।
अमूढश्चिरमूढानां लोकतत्त्वमजानताम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोक-तत्त्वके ज्ञानसे शून्य और चिरकालसे अज्ञानमें पड़े हुए हम-जैसे लोगोंके संशयका निवारण सर्वगुणसम्पन्न आप-जैसा ज्ञानी महात्मा ही कर सकता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञाने ह्येवं प्रवृत्तिः स्यात् कार्याणामविशेषतः।
यत् कार्यं न व्यवस्यामस्तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ ७ ॥

मूलम्

ज्ञाने ह्येवं प्रवृत्तिः स्यात् कार्याणामविशेषतः।
यत् कार्यं न व्यवस्यामस्तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुने! शास्त्रोंमें बहुत-से कर्तव्यकर्म बताये गये हैं, उनमेंसे अमुक कर्मके इस प्रकार करनेसे ज्ञानमार्गमें प्रवृत्ति हो सकती है, इसका विशेषरूपसे हमें निश्चय नहीं हो पाता है; अतः हमारे लिये जो कर्तव्य हो और जिसका निर्धारण हम न कर पाते हों, उसे आप ही हमें बतानेकी कृपा करें॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन्नाश्रमाः सर्वे पृथगाचारदर्शिनः ।
इदं श्रेय इदं श्रेय इति सर्वे प्रबोधिताः ॥ ८ ॥

मूलम्

भगवन्नाश्रमाः सर्वे पृथगाचारदर्शिनः ।
इदं श्रेय इदं श्रेय इति सर्वे प्रबोधिताः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! सभी आश्रमोंवाले पृथक्-पृथक् आचारका दर्शन कराते हैं तथा ‘यह श्रेष्ठ है’ यह श्रेष्ठ है’ ऐसा उपदेश देते हुए वे (अपने ही सिद्धान्तोंकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन करते हैं और) सभी मनुष्योंकी बुद्धिमें यही बात जमा देते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तु विप्रस्थितान्‌ दृष्ट्वा शास्त्रैः शास्त्राभिनन्दिनः।
स्वशास्त्रैः परितुष्टाश्च श्रेयो नोपलभामहे ॥ ९ ॥

मूलम्

तांस्तु विप्रस्थितान्‌ दृष्ट्वा शास्त्रैः शास्त्राभिनन्दिनः।
स्वशास्त्रैः परितुष्टाश्च श्रेयो नोपलभामहे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके मनमें वह बात बैठ गयी है, उन सबको उन शास्त्रोंके उपदेशके अनुसार नाना प्रकारके आचार-मार्गसे चलते और अपने-अपने शास्त्रोंका अभिनन्दन करते देखकर जैसे हम अपनी मान्यतामें संतुष्ट हैं, वैसे ही उन्हें भी संतुष्ट पाकर हमारे मनमें संशय उत्पन्न हो गया है। हम यह ठीक-ठीक निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि परम कल्याणकी प्राप्तिका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शास्त्रं यदि भवेदेकं श्रेयो व्यक्तं भवेत् तदा।
शास्त्रैश्च बहुभिर्भूयः श्रेयो गुह्यं प्रवेशितम् ॥ १० ॥

मूलम्

शास्त्रं यदि भवेदेकं श्रेयो व्यक्तं भवेत् तदा।
शास्त्रैश्च बहुभिर्भूयः श्रेयो गुह्यं प्रवेशितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि शास्त्र एक होता तो श्रेयकी प्राप्तिका उपाय भी एक ही होनेके कारण वह स्पष्टरूपसे समझमें आ जाता, परंतु बहुत-से शास्त्रोंने नाना प्रकारसे वर्णन करके श्रेयको गुह्य अवस्थामें पहुँचा दिया है—उसे अत्यन्त गूढ़ बना डाला है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मात् कारणाच्छ्रेयः कलिलं प्रतिभाति मे।
ब्रवीतु भगवांस्तन्मे उपसन्नोऽस्म्यधीहि भोः ॥ ११ ॥

मूलम्

एतस्मात् कारणाच्छ्रेयः कलिलं प्रतिभाति मे।
ब्रवीतु भगवांस्तन्मे उपसन्नोऽस्म्यधीहि भोः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस कारणसे मुझे श्रेयका स्वरूप संशयाच्छन्न जान पड़ता है। भगवान्! अब आप ही मुझे उसका उपदेश दें। मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मुझ शिष्यको श्रेयोमार्गका बोध करायें’॥११॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्रमास्तात चत्वारो यथासंकल्पिताः पृथक्।
तान् सर्वाननुपश्य त्वं समाश्रित्येति गालव ॥ १२ ॥

मूलम्

आश्रमास्तात चत्वारो यथासंकल्पिताः पृथक्।
तान् सर्वाननुपश्य त्वं समाश्रित्येति गालव ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा— तात! आश्रम चार हैं और शास्त्रोंमें उनकी पृथक्-पृथक् व्यवस्था की गयी है। गालव! तुम ज्ञानका आश्रय लेकर उन सबको यथार्थरूपसे जानो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां तेषां यथा हि त्वमाश्रमाणां ततस्ततः।
नानारूपगुणोद्देशं पश्य विप्र स्थितं पृथक् ॥ १३ ॥

मूलम्

तेषां तेषां यथा हि त्वमाश्रमाणां ततस्ततः।
नानारूपगुणोद्देशं पश्य विप्र स्थितं पृथक् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! उन-उन आश्रमोंके जो नाना प्रकारसे गुण-सम्पन्न धर्म बताये गये हैं, उनकी पृथक्-पृथक् स्थिति है। इस बातको तुम देखो और समझो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यान्ति चैव ते सम्यगभिप्रेतमसंशयम्।
अन्येऽपश्यंस्तथा सम्यगाश्रमाणां परां गतिम् ॥ १४ ॥

मूलम्

न यान्ति चैव ते सम्यगभिप्रेतमसंशयम्।
अन्येऽपश्यंस्तथा सम्यगाश्रमाणां परां गतिम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो साधारण मनुष्य हैं, वे उन आश्रमोंके वास्तविक अभिप्रायको भलीभाँति संशयरहित नहीं जान पाते, किंतु उनसे भिन्न जो तत्त्वज्ञ हैं, वे इन आश्रमोंके परमतत्त्वको ठीक-ठीक समझते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु निश्रेयसं सम्यक् तच्चैवासंशयात्मकम् ॥ १५ ॥
अनुग्रहं च मित्राणाममित्राणां च निग्रहम्।
संग्रहं च त्रिवर्गस्य श्रेय आहुर्मनीषिणः ॥ १६ ॥

मूलम्

यत् तु निश्रेयसं सम्यक् तच्चैवासंशयात्मकम् ॥ १५ ॥
अनुग्रहं च मित्राणाममित्राणां च निग्रहम्।
संग्रहं च त्रिवर्गस्य श्रेय आहुर्मनीषिणः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अच्छी तरह कल्याण करनेवाला साधन होता है, वह सर्वथा संशयरहित होता है। सुहृदोंपर अनुग्रह करना, शत्रुभाव रखनेवाले दुष्टोंको दण्ड देना तथा धर्म, अर्थ और कामका संग्रह करना—इसे मनीषी पुरुष श्रेय कहते हैं॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तिः कर्मणः पापात् सततं पुण्यशीलता।
सद्भिश्च समुदाचारः श्रेय एतदसंशयम् ॥ १७ ॥

मूलम्

निवृत्तिः कर्मणः पापात् सततं पुण्यशीलता।
सद्भिश्च समुदाचारः श्रेय एतदसंशयम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापकर्मसे दूर रहना, निरन्तर पुण्यकर्मोंमें लगे रहना और सत्पुरुषोंके साथ रहकर सदाचारका ठीक-ठीक पालन करना—यह संशयरहित कल्याणका मार्ग है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्दवं सर्वभूतेषु व्यवहारेषु चार्जवम्।
वाक् चैव मधुरा प्रोक्ता श्रेय एतदसंशयम् ॥ १८ ॥

मूलम्

मार्दवं सर्वभूतेषु व्यवहारेषु चार्जवम्।
वाक् चैव मधुरा प्रोक्ता श्रेय एतदसंशयम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति कोमलताका बर्ताव करना, व्यवहारमें सरल होना तथा मीठे वचन बोलना—यह भी कल्याणका संदेहरहित मार्ग है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवतेभ्यः पितृभ्यश्च संविभागोऽतिथिष्वपि ।
असंत्यागश्च भृत्यानां श्रेय एतदसंशयम् ॥ १९ ॥

मूलम्

दैवतेभ्यः पितृभ्यश्च संविभागोऽतिथिष्वपि ।
असंत्यागश्च भृत्यानां श्रेय एतदसंशयम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओं, पितरों और अतिथियोंको उनका भाग देना तथा भरण-पोषण करनेयोग्य व्यक्तियोंका त्याग न करना—यह कल्याणका निश्चित साधन है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यज्ञानं तु दुष्करम्।
यद् भूतहितमत्यन्तमेतत् सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ २० ॥

मूलम्

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यज्ञानं तु दुष्करम्।
यद् भूतहितमत्यन्तमेतत् सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्य बोलना भी श्रेयस्कर है; परंतु सत्यको यथार्थरूपसे जानना कठिन है। मैं तो उसीको सत्य कहता हूँ, जिससे प्राणियोंका अत्यन्त हित होता हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहंकारस्य च त्यागः प्रमादस्य च निग्रहः।
संतोषश्चैकचर्या च कूटस्थं श्रेय उच्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

अहंकारस्य च त्यागः प्रमादस्य च निग्रहः।
संतोषश्चैकचर्या च कूटस्थं श्रेय उच्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहंकारका त्याग, प्रमादको रोकना, संतोष और एकान्तवास—यह सुनिश्चित श्रेय कहलाता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मेण वेदाध्ययनं वेदान्तानां तथैव च।
ज्ञानार्थानां च जिज्ञासा श्रेय एतदसंशयम् ॥ २२ ॥

मूलम्

धर्मेण वेदाध्ययनं वेदान्तानां तथैव च।
ज्ञानार्थानां च जिज्ञासा श्रेय एतदसंशयम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्माचरणपूर्वक वेद और वेदाङ्गोंका स्वाध्याय करना तथा उनके सिद्धान्तको जाननेकी इच्छाको जगाये रखना निस्संदेह कल्याणका साधन है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दरूपरसस्पर्शान् सह गन्धेन केवलान्।
नात्यर्थमुपसेवेत श्रेयसोऽर्थी कथंचन ॥ २३ ॥

मूलम्

शब्दरूपरसस्पर्शान् सह गन्धेन केवलान्।
नात्यर्थमुपसेवेत श्रेयसोऽर्थी कथंचन ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे कल्याणप्राप्तिकी इच्छा हो, उस मनुष्यको किसी तरह भी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—इन विषयोंका अधिक सेवन नहीं करना चाहिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नक्तंचर्यां दिवास्वप्नमालस्यं पैशुनं मदम्।
अतियोगमयोगं च श्रेयसोऽर्थी परित्यजेत् ॥ २४ ॥

मूलम्

नक्तंचर्यां दिवास्वप्नमालस्यं पैशुनं मदम्।
अतियोगमयोगं च श्रेयसोऽर्थी परित्यजेत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्याण चाहनेवाला पुरुष रातमें घूमना, दिनमें सोना, आलस्य, चुगली, मादक वस्तुका सेवन, आहार-विहारका अधिक मात्रामें सेवन और उसका सर्वथा त्याग—ये सब बातें त्याग दे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मोत्कर्षं न मार्गेत परेषां परिनिन्दया।
स्वगुणैरेव मार्गेत विप्रकर्षं पृथग्जनात् ॥ २५ ॥
निर्गुणास्त्वेव भूयिष्ठमात्मसम्भाविता नराः ।
दोषैरन्यान् गुणवतः क्षिपन्त्यात्मगुणक्षयात् ॥ २६ ॥

मूलम्

आत्मोत्कर्षं न मार्गेत परेषां परिनिन्दया।
स्वगुणैरेव मार्गेत विप्रकर्षं पृथग्जनात् ॥ २५ ॥
निर्गुणास्त्वेव भूयिष्ठमात्मसम्भाविता नराः ।
दोषैरन्यान् गुणवतः क्षिपन्त्यात्मगुणक्षयात् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंकी निन्दा करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनेका प्रयत्न न करे। साधारण मनुष्योंकी अपेक्षा जो अपनी उत्कृष्टता है, उसे अपने गुणोंद्वारा ही सिद्ध करे (बातोंसे नहीं)। गुणहीन मनुष्य ही अधिकतर अपनी प्रशंसा किया करते हैं। वे अपनेमें गुणोंकी कमी देखकर दूसरे गुणवान् पुरुषोंके गुणोंमें दोष बताकर उनपर आक्षेप किया करते हैं॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनूच्यमानास्तु पुनस्ते मन्यन्तु महाजनात्।
गुणवत्तरमात्मानं स्वेन मानेन दर्पिताः ॥ २७ ॥

मूलम्

अनूच्यमानास्तु पुनस्ते मन्यन्तु महाजनात्।
गुणवत्तरमात्मानं स्वेन मानेन दर्पिताः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि उनको उत्तर दिया जाय तो फिर वे घमंडमें भरकर अपने-आपको महापुरुषोंसे भी अधिक गुणवान् मानने लगें॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रुवन् कस्यचिन्निन्दामात्मपूजामवर्णयन् ।
विपश्चिद् गुणसम्पन्नः प्राप्नोत्येव महद् यशः ॥ २८ ॥

मूलम्

अब्रुवन् कस्यचिन्निन्दामात्मपूजामवर्णयन् ।
विपश्चिद् गुणसम्पन्नः प्राप्नोत्येव महद् यशः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जो दूसरे किसीकी निन्दा तथा अपनी प्रशंसा नहीं करता, ऐसा उत्तम गुणसम्पन्न विद्वान् पुरुष ही महान् यशका भागी होता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रुवन् वाति सुरभिर्गन्धः सुमनसां शुचिः।
तथैवाव्याहरन् भाति विमलो भानुरम्बरे ॥ २९ ॥

मूलम्

अब्रुवन् वाति सुरभिर्गन्धः सुमनसां शुचिः।
तथैवाव्याहरन् भाति विमलो भानुरम्बरे ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फूलोंकी पवित्र एवं मनोरम सुगन्ध बिना कुछ बोले ही महक उठती है। निर्मल सूर्य अपनी प्रशंसा किये बिना ही आकाशमें प्रकाशित होने लगते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमादीनि चान्यानि परित्यक्तानि मेधया।
ज्वलन्ति यशसा लोके यानि न व्याहरन्ति च ॥ ३० ॥

मूलम्

एवमादीनि चान्यानि परित्यक्तानि मेधया।
ज्वलन्ति यशसा लोके यानि न व्याहरन्ति च ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार संसारमें और भी बहुत-सी ऐसी बुद्धिसे रहित वस्तुएँ हैं, जो अपनी प्रशंसा नहीं करती हैं, किंतु अपने यशसे जगमगाती रहती हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न लोके दीप्यते मूर्खः केवलात्मप्रशंसया।
अपि चापिहितः श्वभ्रे कृतविद्यः प्रकाशते ॥ ३१ ॥

मूलम्

न लोके दीप्यते मूर्खः केवलात्मप्रशंसया।
अपि चापिहितः श्वभ्रे कृतविद्यः प्रकाशते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूर्ख मनुष्य केवल अपनी प्रशंसा करनेसे ही जगत्‌में ख्याति नहीं पा सकता। विद्वान् पुरुष गुफामें छिपा रहे तो भी उसकी सर्वत्र प्रसिद्धि हो जाती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असदुच्चैरपि प्रोक्तः शब्दः समुपशाम्यति।
दीप्यते त्वेव लोकेषु शनैरपि सुभाषितम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

असदुच्चैरपि प्रोक्तः शब्दः समुपशाम्यति।
दीप्यते त्वेव लोकेषु शनैरपि सुभाषितम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुरी बात जोर-जोरसे कही गयी हो तो भी वह शून्यमें विलीन हो जाती है, लोकमें उसका आदर नहीं होता है; किंतु अच्छी बात धीरेसे कही जाय तो भी वह संसारमें प्रकाशित होती है—उसका आदर होता और प्रभाव बढ़ता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूढानामवलिप्तानामसारं भाषितं बहु ।
दर्शयत्यन्तरात्मानमग्निरूपमिवांशुमान् ॥ ३३ ॥

मूलम्

मूढानामवलिप्तानामसारं भाषितं बहु ।
दर्शयत्यन्तरात्मानमग्निरूपमिवांशुमान् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घमंडी मूर्खोंकी कही हुई असार बातें उनके दूषित अन्तःकरणका ही प्रदर्शन कराती हैं, ठीक उसी तरह जैसे सूर्य सूर्यकान्तमणिके योगसे अपने दाहक अग्निरूपको ही प्रकट करता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मात्‌ कारणात् प्रज्ञां मृगयन्ते पृथग्विधाम्।
प्रज्ञालाभो हि भूतानामुत्तमः प्रतिभाति मे ॥ ३४ ॥

मूलम्

एतस्मात्‌ कारणात् प्रज्ञां मृगयन्ते पृथग्विधाम्।
प्रज्ञालाभो हि भूतानामुत्तमः प्रतिभाति मे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कारण कल्याणकी इच्छा रखनेवाले साधु पुरुष अनेक शास्त्रोंके अध्ययनसे नाना प्रकारकी प्रज्ञा (उत्तम बुद्धि) का ही अनुसंधान करते हैं। मुझे तो सभी प्राणियोंके लिये प्रज्ञाका लाभ ही उत्तम जान पड़ता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्नाप्यन्यायेन पृच्छतः।
ज्ञानवानपि मेधावी जडवत् समुपाविशेत् ॥ ३५ ॥

मूलम्

नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्नाप्यन्यायेन पृच्छतः।
ज्ञानवानपि मेधावी जडवत् समुपाविशेत् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष ज्ञानवान् होनेपर भी बिना पूछे किसीको कोई उपदेश न करे। अन्यायपूर्वक पूछनेपर भी किसीके प्रश्नका उत्तर न दे। जडकी भाँति चुपचाप बैठा रहे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वासं परीक्षेत धर्मनित्येषु साधुषु।
मनुष्येषु वदान्येषु स्वधर्मनिरतेषु च ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततो वासं परीक्षेत धर्मनित्येषु साधुषु।
मनुष्येषु वदान्येषु स्वधर्मनिरतेषु च ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको सदा धर्ममें लगे रहनेवाले साधु-महात्माओं तथा स्वधर्मपरायण उदार पुरुषोंके समीप निवास करनेकी इच्छा रखनी चाहिये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्णां यत्र वर्णानां धर्मव्यतिकरो भवेत्।
न तत्र वासं कुर्वीत श्रेयोऽर्थी वै कथंचन ॥ ३७ ॥

मूलम्

चतुर्णां यत्र वर्णानां धर्मव्यतिकरो भवेत्।
न तत्र वासं कुर्वीत श्रेयोऽर्थी वै कथंचन ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ चारों वर्णोंके धर्मोंका उल्लङ्घन होता हो, वहाँ कल्याणकी इच्छावाले पुरुषको किसी तरह भी नहीं रहना चाहिये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरारम्भोऽप्ययमिह यथालब्धोपजीवनः ।
पुण्यं पुण्येषु विमलं पापं पापेषु चाप्नुयात् ॥ ३८ ॥

मूलम्

निरारम्भोऽप्ययमिह यथालब्धोपजीवनः ।
पुण्यं पुण्येषु विमलं पापं पापेषु चाप्नुयात् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी कर्मका आरम्भ न करनेवाला और जो कुछ मिल जाय, उसीसे जीवन-निर्वाह करनेवाला पुरुष भी यदि पुण्यात्माओंके समाजमें रहे तो उसे निर्मल पुण्यकी प्राप्ति होती है और पापियोंके संसर्गमें रहे तो वह पापका ही भागी होता है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपामग्नेस्तथेन्दोश्च स्पर्शं वेदयते यथा।
तथा पश्यामहे स्पर्शमुभयोः पुण्यपापयोः ॥ ३९ ॥

मूलम्

अपामग्नेस्तथेन्दोश्च स्पर्शं वेदयते यथा।
तथा पश्यामहे स्पर्शमुभयोः पुण्यपापयोः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे जल, अग्नि और चन्द्रमाकी किरणोंके संसर्गमें आनेपर मनुष्य क्रमशः शीत, उष्ण और सुखदायी स्पर्शका अनुभव करता है, उसी प्रकार हम पुण्यात्मा और पापियोंके संगसे पुण्य और पाप दोनोंके स्पर्शका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपश्यन्तोऽनुविषयं भुञ्जते विघसाशिनः ।
भुञ्जानाश्चात्मविषयान्‌ विषयान्‌ विद्धि कर्मणाम् ॥ ४० ॥

मूलम्

अपश्यन्तोऽनुविषयं भुञ्जते विघसाशिनः ।
भुञ्जानाश्चात्मविषयान्‌ विषयान्‌ विद्धि कर्मणाम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विघसाशी (भृत्यवर्ग ओर अतिथि आदिको भोजन करानेके बाद बचा हुआ भोजन करनेवाले) हैं, वे तिक्त-मधुर रस या स्वादकी आलोचना न करते हुए अन्न ग्रहण करते हैं; किंतु जो अपनी रसनाका विषय समझकर स्वादु और अस्वादुका विचार रखते हुए भोजन करते हैं, उन्हें कर्मपाशमें बँधा हुआ ही समझना चाहिये॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्रागमयमानानामसत्कारेण पृच्छताम् ।
प्रब्रूयाद् ब्रह्मणो धर्मं त्यजेत् तं देशमात्मवान् ॥ ४१ ॥

मूलम्

यत्रागमयमानानामसत्कारेण पृच्छताम् ।
प्रब्रूयाद् ब्रह्मणो धर्मं त्यजेत् तं देशमात्मवान् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ ब्राह्मण अनादर एवं अन्यायपूर्वक धर्म-शास्त्रविषयक प्रश्न करनेवाले पुरुषोंको धर्मका उपदेश करता हो, आत्मपरायण साधकको उस देशका परित्याग कर देना चाहिये॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिष्योपाध्यायिकावृत्तिर्यत्र स्यात् सुसमाहिता ।
यथावच्छास्त्रसम्पन्ना कस्तं देशं परित्यजेत् ॥ ४२ ॥

मूलम्

शिष्योपाध्यायिकावृत्तिर्यत्र स्यात् सुसमाहिता ।
यथावच्छास्त्रसम्पन्ना कस्तं देशं परित्यजेत् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ गुरु और शिष्यका व्यवहार सुव्यवस्थित, शास्त्र-सम्मत एवं यथावत् रूपसे चलता है, कौन उस देशका परित्याग करेगा?॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाशस्था ध्रुवं यत्र दोषं ब्रूयुर्विपश्चिताम्।
आत्मपूजाभिकामो वै को वसेत् तत्र पण्डितः ॥ ४३ ॥

मूलम्

आकाशस्था ध्रुवं यत्र दोषं ब्रूयुर्विपश्चिताम्।
आत्मपूजाभिकामो वै को वसेत् तत्र पण्डितः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँके लोग बिना किसी आधारके ही विद्वान् पुरुषोंपर निश्चितरूपसे दोषारोपण करते हों, उस देशमें आत्मसम्मानकी इच्छा रखनेवाला कौन मनुष्य निवास करेगा?॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र संलोडिता लुब्धैः प्रायशो धर्मसेतवः।
प्रदीप्तमिव चैलान्तं कस्तं देशं न संत्यजेत् ॥ ४४ ॥

मूलम्

यत्र संलोडिता लुब्धैः प्रायशो धर्मसेतवः।
प्रदीप्तमिव चैलान्तं कस्तं देशं न संत्यजेत् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ लालची मनुष्योंने प्रायः धर्मकी मर्यादाएँ तोड़ डाली हों, जलते हुए कपड़ेकी भाँति उस देशको कौन नहीं त्याग देगा?॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र धर्ममनाशङ्काश्चरेयुर्वीतमत्सराः ।
भवेत् तत्र वसेच्चैव पुण्यशीलेषु साधुषु ॥ ४५ ॥

मूलम्

यत्र धर्ममनाशङ्काश्चरेयुर्वीतमत्सराः ।
भवेत् तत्र वसेच्चैव पुण्यशीलेषु साधुषु ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जहाँके लोग मात्सर्य और शंकासे रहित होकर धर्मका आचरण करते हों, वहाँ पुण्यशील साधु पुरुषोंके पास अवश्य निवास करे॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्ममर्थनिमित्तं च चरेयुर्यत्र मानवाः।
न ताननुवसेज्जातु ते हि पापकृतो जनाः ॥ ४६ ॥

मूलम्

धर्ममर्थनिमित्तं च चरेयुर्यत्र मानवाः।
न ताननुवसेज्जातु ते हि पापकृतो जनाः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँके मनुष्य धनके लिये धर्मका अनुष्ठान करते हों, वहाँ उनके पास कदापि न रहे; क्योंकि वे सब-के सब पापाचारी होते हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा यत्र पापेन वर्तन्ते जीवितेप्सवः।
व्यवधावेत् ततस्तूर्णं ससर्पाच्छरणादिव ॥ ४७ ॥

मूलम्

कर्मणा यत्र पापेन वर्तन्ते जीवितेप्सवः।
व्यवधावेत् ततस्तूर्णं ससर्पाच्छरणादिव ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ जीवनकी रक्षाके लिये लोग पापकर्मसे जीविका चलाते हों, सर्पयुक्त घरके समान उस स्थानसे तुरंत दूर हट जाना चाहिये॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन खट्‌वां समारूढः कर्मणानुशयी भवेत्।
आदितस्तन्न कर्तव्यमिच्छता भवमात्मनः ॥ ४८ ॥

मूलम्

येन खट्‌वां समारूढः कर्मणानुशयी भवेत्।
आदितस्तन्न कर्तव्यमिच्छता भवमात्मनः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी उन्नति चाहनेवाले साधकको चाहिये कि जिस पापकर्मके संस्कारोंसे युक्त हुआ मनुष्य खाटपर पड़कर दुःख भोगता है, उस कर्मको पहलेसे ही न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र राजा च राज्ञश्च पुरुषाः प्रत्यनन्तराः।
कुटुम्बिनामग्रभुजस्त्यजेत् तद् राष्ट्रमात्मवान् ॥ ४९ ॥

मूलम्

यत्र राजा च राज्ञश्च पुरुषाः प्रत्यनन्तराः।
कुटुम्बिनामग्रभुजस्त्यजेत् तद् राष्ट्रमात्मवान् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ राजा और राजाके निकटवर्ती अन्य पुरुष कुटुम्बी-जनोंसे पहले ही भोजन कर लेते हैं, उस राष्ट्रको मनस्वी पुरुष अवश्य त्याग दे॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोत्रियास्त्वग्रभोक्तारो धर्मनित्याः सनातनाः ।
याजनाध्यापने युक्ता यत्र तद् राष्ट्रमावसेत् ॥ ५० ॥

मूलम्

श्रोत्रियास्त्वग्रभोक्तारो धर्मनित्याः सनातनाः ।
याजनाध्यापने युक्ता यत्र तद् राष्ट्रमावसेत् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस देशमें सदा धर्मपरायण, यज्ञ कराने और पढ़ानेके कार्यमें संलग्न सनातनधर्मी श्रोत्रिय ब्राह्मण ही सबसे पहले भोजन पाते हों, उस राष्ट्रमें अवश्य निवास करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाहास्वधावषट्‌कारा यत्र सम्यगनुष्ठिताः ।
अजस्रं चैव वर्तन्ते वसेत् तत्राविचारयन् ॥ ५१ ॥

मूलम्

स्वाहास्वधावषट्‌कारा यत्र सम्यगनुष्ठिताः ।
अजस्रं चैव वर्तन्ते वसेत् तत्राविचारयन् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ स्वाहा (अग्निहोत्र), स्वधा (श्राद्धकर्म) तथा वषट्‌कारका भलीभाँति अनुष्ठान होता हो और निरन्तर ये सभी कर्म किये जाते हों, वहाँ बिना विचारे ही निवास करना चाहिये॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशुचीन्‌ यत्र पश्येत ब्राह्मणान् वृत्तिकर्शितान्।
त्यजेत् तद् राष्ट्रमासन्नमुपसृष्टमिवामिषम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

अशुचीन्‌ यत्र पश्येत ब्राह्मणान् वृत्तिकर्शितान्।
त्यजेत् तद् राष्ट्रमासन्नमुपसृष्टमिवामिषम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ ब्राह्मणोंको जीविकाके लिये कष्ट पाते तथा अपवित्र अवस्थामें रहते देखे, उस राष्ट्रको निकटवर्ती होनेपर भी विषमिश्रित भोग्यवस्तुकी भाँति त्याग दे॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीयमाणा नरा यत्र प्रयच्छेयुरयाचिताः।
स्वस्थचित्तो वसेत् तत्र कृतकृत्य इवात्मवान् ॥ ५३ ॥

मूलम्

प्रीयमाणा नरा यत्र प्रयच्छेयुरयाचिताः।
स्वस्थचित्तो वसेत् तत्र कृतकृत्य इवात्मवान् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँके लोग प्रसन्नतापूर्वक बिना माँगे ही भिक्षा देते हों, वहाँ मनको वशमें करनेवाला पुरुष कृतकृत्यकी भाँति स्वस्थचित्त होकर निवास करे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्डो यत्राविनीतेषु सत्कारश्च कृतात्मसु।
चरेत् तत्र वसेच्चैव पुण्यशीलेषु साधुषु ॥ ५४ ॥

मूलम्

दण्डो यत्राविनीतेषु सत्कारश्च कृतात्मसु।
चरेत् तत्र वसेच्चैव पुण्यशीलेषु साधुषु ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ उद्दण्ड पुरुषोंको दण्ड दिया जाता हो और जितात्मा पुरुषोंका सत्कार किया जाता हो, वहाँ पुण्यशील श्रेष्ठ पुरुषोंके बीच विचरना और निवास करना चाहिये॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपसृष्टेषु दान्तेषु दुराचारेषु साधुषु।
अविनीतेषु लुब्धेषु सुमहद् दण्डधारणम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

उपसृष्टेषु दान्तेषु दुराचारेषु साधुषु।
अविनीतेषु लुब्धेषु सुमहद् दण्डधारणम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जितेन्द्रिय पुरुषोंपर क्रोध और श्रेष्ठ पुरुषोंपर अत्याचार करते हों, उद्दण्ड और लोभी हों, ऐसे लोगोंको जहाँ अत्यन्त कठोर और महान् दण्ड दिया जाता हो, उस देशमें बिना विचारे निवास करना चाहिये॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र राजा धर्मनित्यो राज्यं धर्मेण पालयेत्।
अपास्य कामान् कामेशो वसेत्‌ तत्राविचारयन् ॥ ५६ ॥

मूलम्

यत्र राजा धर्मनित्यो राज्यं धर्मेण पालयेत्।
अपास्य कामान् कामेशो वसेत्‌ तत्राविचारयन् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँका राजा सदा धर्मपरायण रहकर धर्मानुसार ही राज्यका पालन करता हो और सम्पूर्ण कामनाओंका स्वामी होकर भी विषयभोगसे विमुख रहता हो, वहाँ बिना कुछ सोचे-विचारे निवास करना चाहिये॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाशीला हि राजानः सर्वान् विषयवासिनः।
श्रेयसा योजयत्याशु श्रेयसि प्रत्युपस्थिते ॥ ५७ ॥

मूलम्

यथाशीला हि राजानः सर्वान् विषयवासिनः।
श्रेयसा योजयत्याशु श्रेयसि प्रत्युपस्थिते ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि राजाके शील-स्वभाव जैसे होते हैं वैसे ही प्रजाके भी हो जाते हैं। वह अपने कल्याणका अवसर उपस्थित होनेपर समस्त प्रजाको भी शीघ्र ही कल्याणका भागी बना देता है॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृच्छतस्ते मया तात श्रेय एतदुदाहृतम्।
न हि शक्यं प्रधानेन श्रेयः संख्यातुमात्मनः ॥ ५८ ॥

मूलम्

पृच्छतस्ते मया तात श्रेय एतदुदाहृतम्।
न हि शक्यं प्रधानेन श्रेयः संख्यातुमात्मनः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मैंने तुम्हारे प्रश्नके अनुसार यह श्रेयोमार्गका वर्णन किया है। पूर्णतया तो आत्मकल्याणकी परिगणना हो ही नहीं सकती॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रवर्तमानस्य वृत्तिं प्राणिहितात्मनः।
तपसैवेह बहुलं श्रेयो व्यक्तं भविष्यति ॥ ५९ ॥

मूलम्

एवं प्रवर्तमानस्य वृत्तिं प्राणिहितात्मनः।
तपसैवेह बहुलं श्रेयो व्यक्तं भविष्यति ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस प्रकारकी वृत्तिसे रहकर जीविका चलाता है और प्राणियोंके हितमें मन लगाये रहता है, उस पुरुषको स्वधर्मरूप तपके अनुष्ठानसे इस लोकमें ही परम कल्याणकी प्रत्यक्ष उपलब्धि हो जायगी॥५९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि श्रेयोवाचिको नाम सप्ताशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रेयोमार्गका प्रतिपादन नामक दो सौ सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८७॥