भागसूचना
षडशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
समङ्गके द्वारा नारदजीसे अपनी शोकहीन स्थितिका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकाद् दुःखाच्च मृत्योश्च त्रसन्ते प्राणिनः सदा।
उभयं नो यथा न स्यात् तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
मूलम्
शोकाद् दुःखाच्च मृत्योश्च त्रसन्ते प्राणिनः सदा।
उभयं नो यथा न स्यात् तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! संसारके सभी प्राणी सदा शोक, दुःख और मृत्युसे डरते रहते हैं; अतः आप हमें ऐसा उपदेश दें, जिससे हमलोगोंको उन दोनोंका भय न रहे॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदस्य च संवादं समङ्गस्य च भारत ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदस्य च संवादं समङ्गस्य च भारत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भरतनन्दन! इस विषयमें विद्वान् पुरुष देवर्षि नारद और समङ्गके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥२॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उरसेव प्रणमसे बाहुभ्यां तरसीव च।
सम्प्रहृष्टमना नित्यं विशोक इव लक्ष्यसे ॥ ३ ॥
मूलम्
उरसेव प्रणमसे बाहुभ्यां तरसीव च।
सम्प्रहृष्टमना नित्यं विशोक इव लक्ष्यसे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने पूछा_—_ समङ्गजी! दूसरे लोग तो सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं; परंतु आप हृदयसे प्रणाम करते जान पड़ते हैं। मालूम होता है, आप इस संसारसागरको अपनी इन दोनों भुजाओंसे ही तैरकर पार हो जायँगे। आपका मन नित्य प्रसन्न रहता है तथा आप सदा शोकशून्य-से दिखायी देते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्वेगं न हि ते किंचित् सुसूक्ष्ममपि लक्षये।
नित्यतृप्त इव स्वस्थो बालवच्च विचेष्टसे ॥ ४ ॥
मूलम्
उद्वेगं न हि ते किंचित् सुसूक्ष्ममपि लक्षये।
नित्यतृप्त इव स्वस्थो बालवच्च विचेष्टसे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपके चित्तमें कभी कोई थोड़ा-सा भी उद्वेग नहीं देख पाता हूँ। आप नित्य तृप्तकी भाँति अपने-आपमें ही स्थित रहकर बालकोंके समान चेष्टा करते हैं (इसका क्या कारण है?)॥४॥
मूलम् (वचनम्)
समङ्ग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वमेतत् तु मानद।
तेषां तत्त्वानि जानामि ततो न विमना ह्यहम् ॥ ५ ॥
मूलम्
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वमेतत् तु मानद।
तेषां तत्त्वानि जानामि ततो न विमना ह्यहम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समङ्गजीने कहा— दूसरोंको मान देनेवाले देवर्षे! मैं भूत, वर्तमान और भविष्य इन सबका स्वरूप तथा तत्त्व जानता हूँ; इसलिये मेरे मनमें कभी विषाद नहीं होता॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपक्रमानहं वेद पुनरेव फलोदयान्।
लोके फलानि चित्राणि ततो न विमना ह्यहम् ॥ ६ ॥
मूलम्
उपक्रमानहं वेद पुनरेव फलोदयान्।
लोके फलानि चित्राणि ततो न विमना ह्यहम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे कर्मोंके आरम्भका तथा उनके फलोदयकालका भी ज्ञान है और लोकमें जो भाँति-भाँतिके कर्मफल प्राप्त होते हैं, उनको भी मैं जानता हूँ; इसीलिये मेरे मनमें कभी खेद नहीं होता॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगाधाश्चाप्रतिष्ठाश्च गतिमन्तश्च नारद ।
अन्धा जडाश्च जीवन्ति पश्यास्मानपि जीवतः ॥ ७ ॥
मूलम्
अगाधाश्चाप्रतिष्ठाश्च गतिमन्तश्च नारद ।
अन्धा जडाश्च जीवन्ति पश्यास्मानपि जीवतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी! देखिये, जैसे जगत्में गम्भीर, अप्रतिष्ठित, प्रगतिशील, अन्धे और जड मनुष्य भी जीवित रहते हैं, उसी प्रकार हम भी जी रहे हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विहितेनैव जीवन्ति अरोगाङ्गा दिवौकसः।
बलवन्तोऽबलाश्चैव तस्मादस्मान् सभाजय ॥ ८ ॥
मूलम्
विहितेनैव जीवन्ति अरोगाङ्गा दिवौकसः।
बलवन्तोऽबलाश्चैव तस्मादस्मान् सभाजय ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नीरोग शरीरवाले देवता, बलवान् और निर्बल सभी अपने प्रारब्ध-विधानके अनुसार जीवन धारण करते हैं; अतः हम भी प्रारब्धपर ही अवलम्बित रहकर किसी कर्मका आरम्भ नहीं करते हैं, इसलिये हमारे प्रति भी आप आदर बुद्धि रखें (अकर्मण्य समझकर हमारा निरादर न करें)॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रिणोऽपि जीवन्ति जीवन्ति शतिनस्तथा।
शाकेन चान्ये जीवन्ति पश्यास्मानपि जीवतः ॥ ९ ॥
मूलम्
सहस्रिणोऽपि जीवन्ति जीवन्ति शतिनस्तथा।
शाकेन चान्ये जीवन्ति पश्यास्मानपि जीवतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके पास हजारों रुपये हैं, वे भी जीते हैं। जिनके पास सैकड़ों रुपयोंका संग्रह है, वे भी जीवन धारण करते हैं। दूसरे लोग सागसे ही जीवन-निर्वाह करते हैं। उसी तरह हमें भी जीवित समझिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा न शोचेमहि किं नु नः स्याद्
धर्मेण वा नारद कर्मणा वा।
कृतान्तवश्यानि यदा सुखानि
दुःखानि वा यन्न विधर्षयन्ति ॥ १० ॥
मूलम्
यदा न शोचेमहि किं नु नः स्याद्
धर्मेण वा नारद कर्मणा वा।
कृतान्तवश्यानि यदा सुखानि
दुःखानि वा यन्न विधर्षयन्ति ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी! जब अज्ञान दूर हो जानेके कारण हम शोक ही नहीं करते हैं तो धर्म अथवा लौकिक कर्मसे हमारा क्या प्रयोजन है। सारे सुख और दुःख कालके अधीन होनेके कारण क्षणभंगुर हैं, अतः वे ज्ञानी पुरुषको पराभूत नहीं कर सकते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मै प्राज्ञाः कथयन्ते मनुष्याः
प्रज्ञामूलं हीन्द्रियाणां प्रसादः ।
मुह्यन्ति शोचन्ति तथेन्द्रियाणि
प्रज्ञालाभो नास्ति मूढेन्द्रियस्य ॥ ११ ॥
मूलम्
यस्मै प्राज्ञाः कथयन्ते मनुष्याः
प्रज्ञामूलं हीन्द्रियाणां प्रसादः ।
मुह्यन्ति शोचन्ति तथेन्द्रियाणि
प्रज्ञालाभो नास्ति मूढेन्द्रियस्य ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञानी पुरुष जिसके लिये कहा करते हैं, उस प्रज्ञाकी जड़ है इन्द्रियोंकी निर्मलता। जिसकी इन्द्रियाँ मोह और शोकमें मग्न हैं, उस मोहाच्छन्न इन्द्रियवाले पुरुषको कभी प्रज्ञाका लाभ नहीं मिल सकता॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूढस्य दर्पः स पुनर्मोह एव
मूढस्य नायं न परोऽस्ति लोकः।
न ह्येव दुःखानि सदा भवन्ति
सुखस्य वा नित्यशो लाभ एव ॥ १२ ॥
मूलम्
मूढस्य दर्पः स पुनर्मोह एव
मूढस्य नायं न परोऽस्ति लोकः।
न ह्येव दुःखानि सदा भवन्ति
सुखस्य वा नित्यशो लाभ एव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूढ़ मनुष्यको गर्व होता है। उसका वह गर्व मोहरूप ही है। मूढ़के लिये न तो यह लोक सुखद होता है ओर न परलोक ही। किसीको भी न तो सदा दुःख ही उठाने पड़ते हैं और न नित्य, निरन्तर सुखका ही लाभ होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवात्मकं सम्परिवर्तमानं
न मादृशःसंज्वरं जातु कुर्यात्।
इष्टान् भोगान् नानुरुध्येत् सुखं वा
न चिन्तयेद् दुःखमभ्यागतं वा ॥ १३ ॥
मूलम्
भवात्मकं सम्परिवर्तमानं
न मादृशःसंज्वरं जातु कुर्यात्।
इष्टान् भोगान् नानुरुध्येत् सुखं वा
न चिन्तयेद् दुःखमभ्यागतं वा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारके स्वरूपको परिवर्तित होता देख मेरे-जैसा मनुष्य कभी संताप नहीं करता है। अभीष्ट भोग अथवा सुखका भी अनुसरण नहीं करता तथा दुःख आ जाय तो उसके लिये चिन्तित नहीं होता॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाहितो न स्पृहयेत् परेषां
नानागतं चाभिनन्देच्च लाभम् ।
न चापि हृष्येद् विपुलेऽर्थलाभे
तथार्थनाशे च न वै विषीदेत् ॥ १४ ॥
मूलम्
समाहितो न स्पृहयेत् परेषां
नानागतं चाभिनन्देच्च लाभम् ।
न चापि हृष्येद् विपुलेऽर्थलाभे
तथार्थनाशे च न वै विषीदेत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब प्रकारसे उपरत महापुरुष दूसरोंसे कुछ भी नहीं चाहता। भविष्यमें होनेवाले अर्थलाभका भी अभिनन्दन नहीं करता। बहुत-सी सम्पत्ति पाकर हर्षित नहीं होता तथा धनका नाश हो जानेपर भी खेद नहीं करता॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बान्धवा न च वित्तं न कौल्यं
न च श्रुतं न च मन्त्रा न वीर्यम्।
दुःखात् त्रातुं सर्व एवोत्सहन्ते
परत्र शीलेन तु यान्ति शान्तिम् ॥ १५ ॥
मूलम्
न बान्धवा न च वित्तं न कौल्यं
न च श्रुतं न च मन्त्रा न वीर्यम्।
दुःखात् त्रातुं सर्व एवोत्सहन्ते
परत्र शीलेन तु यान्ति शान्तिम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्धु-बान्धव, धन, उत्तम कुल, शास्त्राध्ययन, मन्त्र तथा पराक्रम—ये सब-के-सब मिलकर भी किसीको दुःखसे छुटकारा नहीं दिला सकते हैं। परलोकमें मनुष्य उत्तम स्वभावके कारण ही शान्ति पाते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य नायोगाद् विन्दते सुखम्।
धृतिश्च दुःखत्यागश्चेत्युभयं तु सुखं नृप ॥ १६ ॥
मूलम्
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य नायोगाद् विन्दते सुखम्।
धृतिश्च दुःखत्यागश्चेत्युभयं तु सुखं नृप ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका चित्त योगयुक्त नहीं है, उसे समत्व बुद्धि नहीं प्राप्त होती। योगके बिना कोई सुख नहीं पाता है। नरेश्वर! दुःखोंके सम्बन्धका त्याग और धैर्य—ये ही दोनों सुखके कारण हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियं हि हर्षजननं हर्ष उत्सेकवर्धनः।
उत्सेको नरकायैव तस्मात् तान् संत्यजाम्यहम् ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रियं हि हर्षजननं हर्ष उत्सेकवर्धनः।
उत्सेको नरकायैव तस्मात् तान् संत्यजाम्यहम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय वस्तु हर्षजनक होती है। हर्ष अभिमानको बढ़ाता है और अभिमान नरकमें ही डुबानेवाला है। इसलिये मैं इन तीनोंका त्याग करता हूँ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान् शोकभयोत्सेकान् मोहनान् सुखदुःखयोः।
पश्यामि साक्षिवल्लोके देहस्यास्य विचेष्टनात् ॥ १८ ॥
मूलम्
एतान् शोकभयोत्सेकान् मोहनान् सुखदुःखयोः।
पश्यामि साक्षिवल्लोके देहस्यास्य विचेष्टनात् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोक, भय और अभिमान—ये प्राणियोंको सुख-दुःखमें डालकर मोहित करनेवाले हैं; इसलिये जबतक यह शरीर चेष्टा कर रहा है, तबतक मैं इन सबको साक्षीकी भाँति देखता हूँ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थकामौ परित्यज्य विशोको विगतज्वरः।
तृष्णामोहौ तु संत्यज्य चरामि पृथिवीमिमाम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अर्थकामौ परित्यज्य विशोको विगतज्वरः।
तृष्णामोहौ तु संत्यज्य चरामि पृथिवीमिमाम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्थ और कामको त्यागकर एवं तृष्णा और मोहका सर्वथा परित्याग करके मैं शोक और संतापसे रहित हुआ इस पृथ्वीपर विचरता हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च मृत्योर्न चाधर्मान्न लोभान्न कुतश्चन।
पीतामृतस्येवात्यन्तमिह वामुत्र वा भयम् ॥ २० ॥
मूलम्
न च मृत्योर्न चाधर्मान्न लोभान्न कुतश्चन।
पीतामृतस्येवात्यन्तमिह वामुत्र वा भयम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अमृत पीनेवालेको मृत्युसे भय नहीं होता, उसी प्रकार मुझे भी इहलोक या परलोकमें मृत्यु, अधर्म, लोभ तथा दूसरे किसीसे भी भय नहीं है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् ब्रह्मन् विजानामि महत् कृत्वा तपोऽव्ययम्।
तेन नारद सम्प्राप्तो न मां शोकः प्रबाधते ॥ २१ ॥
मूलम्
एतद् ब्रह्मन् विजानामि महत् कृत्वा तपोऽव्ययम्।
तेन नारद सम्प्राप्तो न मां शोकः प्रबाधते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! मैंने महान् और अक्षय तप करके यही ज्ञान पाया है; अतः नारदजी! शोककी परिस्थिति उपस्थित होकर भी मुझे व्याकुल नहीं कर सकती॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि समङ्गनारदसंवादे षडशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें समङ्ग और नारदजीका संवादविषयक दो सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८६॥