२८५ पाञ्चभौतिके

भागसूचना

पञ्चाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अध्यात्मज्ञानका और उसके फलका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मं नाम यदिदं पुरुषस्येह विद्यते।
यदध्यात्मं यतश्चैव तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

अध्यात्मं नाम यदिदं पुरुषस्येह विद्यते।
यदध्यात्मं यतश्चैव तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! शास्त्रमें पुरुषके लिये जो यह अध्यात्मतत्त्व बताया गया है, वह अध्यात्म क्या है और उसकी उत्पत्ति कहाँसे हुई है? यह मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वज्ञानं परं बुद्‌ध्या यन्मां त्वमनुपृच्छसि।
तद् व्याख्यास्यामि ते तात तस्य व्याख्यामिमां शृणु ॥ २ ॥

मूलम्

सर्वज्ञानं परं बुद्‌ध्या यन्मां त्वमनुपृच्छसि।
तद् व्याख्यास्यामि ते तात तस्य व्याख्यामिमां शृणु ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— तात! तुम मुझसे जिस अध्यात्मतत्त्वको पूछ रहे हो, वह बुद्धिके द्वारा सभी विषयोंका उत्तम ज्ञान प्रदान करनेवाला है। मैं तुमसे उसकी व्याख्या करूँगा, तुम उस व्याख्याको ध्यान देकर सुनो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्व पञ्चमम्।
महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ ॥ ३ ॥

मूलम्

पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्व पञ्चमम्।
महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और तेज—ये पाँच महाभूत समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके स्थान हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेषां गुणसंघातः शरीरं भरतर्षभ।
सततं हि प्रलीयन्ते गुणास्ते प्रभवन्ति च ॥ ४ ॥

मूलम्

स तेषां गुणसंघातः शरीरं भरतर्षभ।
सततं हि प्रलीयन्ते गुणास्ते प्रभवन्ति च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! प्राणियोंका शरीर उन्हीं पाँचों महाभूतोंका कार्यसमूह है। वे कार्यरूपमें परिणत भूतगण सदा लीन होते और प्रकट होते रहते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सृष्टानि भूतानि तानि यान्ति पुनः पुनः।
महाभूतानि भूतेभ्य ऊर्मयः सागरे यथा ॥ ५ ॥

मूलम्

ततः सृष्टानि भूतानि तानि यान्ति पुनः पुनः।
महाभूतानि भूतेभ्य ऊर्मयः सागरे यथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे महाभूत सूक्ष्म भूतोंसे प्रकट होते और उन्हींमें लयको प्राप्त होते हैं; तथा जैसे लहरें समुद्रसे प्रकट होकर फिर उसीमें लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार परमात्मासे समस्त प्राणी उत्पन्न होते और पुनः उसीमें लीन हो जाते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसारयित्वेहाङ्गानि कूर्मः संहरते यथा।
तद्वद् भूतानि भूतानामल्पीयांसि स्थवीयसाम् ॥ ६ ॥

मूलम्

प्रसारयित्वेहाङ्गानि कूर्मः संहरते यथा।
तद्वद् भूतानि भूतानामल्पीयांसि स्थवीयसाम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कछुआ यहाँ अपने अंगोंको फैलाकर फिर समेट लेता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियोंके शरीर आकाश आदि पाँच महाभूतोंसे उत्पन्न होते और फिर उन्हींमें लीन हो जाते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाशात् खलु यो घोषः संघातस्तु महीगुणः।
वायोःप्राणो रसस्त्वद्‌भ्यो रूपं तेजस उच्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

आकाशात् खलु यो घोषः संघातस्तु महीगुणः।
वायोःप्राणो रसस्त्वद्‌भ्यो रूपं तेजस उच्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीरमें जो शब्द होता है, वह आकाशका गुण है। यह स्थूल शरीर पृथ्वीका गुण या कार्य है। प्राण वायुका, रस जलका तथा रूप तेजका गुण बताया जाता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतन्मयमेवैतत् सर्वं स्थावरजङ्गमम् ।
प्रलये च तमभ्येति तस्मादुद्दिश्यते पुनः ॥ ८ ॥

मूलम्

इत्येतन्मयमेवैतत् सर्वं स्थावरजङ्गमम् ।
प्रलये च तमभ्येति तस्मादुद्दिश्यते पुनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार यह समस्त स्थावर-जङ्गम शरीर पञ्चभूतमय ही है। प्रलयकालमें यह परमात्मामें ही लीन होता है और सृष्टिके आरम्भमें पुनः उन्हींसे प्रकट हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्।
विषयान् कल्पयामास यस्मिन् यदनुपश्यति ॥ ९ ॥

मूलम्

महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्।
विषयान् कल्पयामास यस्मिन् यदनुपश्यति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करनेवाले ईश्वरने समस्त प्राणियोंमें पञ्चमहाभूतोंका ही विभागपूर्वक समावेश किया है। देहके भीतर जिस भूतके स्थित होनेसे मनुष्य जो कार्य देखता है, वह बताता हूँ; सुनो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दश्रोत्रे तथा खानि त्रयमाकाशयोनिजम्।
रसः स्नेहश्च जिह्वा च अपामेते गुणाः स्मृताः ॥ १० ॥

मूलम्

शब्दश्रोत्रे तथा खानि त्रयमाकाशयोनिजम्।
रसः स्नेहश्च जिह्वा च अपामेते गुणाः स्मृताः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शब्द, श्रोत्रेन्द्रिय और सम्पूर्ण छिद्र—ये तीन आकाशके कार्य हैं। रस, स्नेह तथा जिह्वा—ये तीनों जलके गुण या कार्य माने गये हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपं चक्षुर्विपाकश्च त्रिविधं ज्योतिरुच्यते।
घ्रेयं घ्राणं शरीरं च एते भूमिगुणाः स्मृताः ॥ ११ ॥

मूलम्

रूपं चक्षुर्विपाकश्च त्रिविधं ज्योतिरुच्यते।
घ्रेयं घ्राणं शरीरं च एते भूमिगुणाः स्मृताः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रूप, नेत्र और परिपाक—इन तीन गुणोंके रूपमें तेजकी ही स्थिति बतायी जाती है। गन्ध, घ्राण तथा शरीर—ये तीनों भूमिके गुण माने गये हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणः स्पर्शश्च चेष्टा च वायोरेते गुणाः स्मृताः।
इति सर्वगुणा राजन् व्याख्याताः पाञ्चभौतिकाः ॥ १२ ॥

मूलम्

प्राणः स्पर्शश्च चेष्टा च वायोरेते गुणाः स्मृताः।
इति सर्वगुणा राजन् व्याख्याताः पाञ्चभौतिकाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राण, स्पर्श और चेष्टा—ये तीनों वायुके गुण बताये गये हैं। राजन्! इस प्रकार मैंने समस्त पाञ्चभौतिक गुणोंकी व्याख्या कर दी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वं रजस्तमः कालः कर्म बुद्धिश्च भारत।
मनःषष्ठानि चैतेषु ईश्वरः समकल्पयत् ॥ १३ ॥

मूलम्

सत्त्वं रजस्तमः कालः कर्म बुद्धिश्च भारत।
मनःषष्ठानि चैतेषु ईश्वरः समकल्पयत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! ईश्वरने इन प्राणियोंके शरीरोंमें सत्त्व, रज, तम, काल, कर्म, बुद्धि तथा मनसहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंकी कल्पना की है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदूर्ध्वं पादतलयोरवाङ् मूर्ध्नश्च पश्यसि।
एतस्मिन्नेव कृत्स्नेयं वर्तते बुद्धिरन्तरे ॥ १४ ॥

मूलम्

यदूर्ध्वं पादतलयोरवाङ् मूर्ध्नश्च पश्यसि।
एतस्मिन्नेव कृत्स्नेयं वर्तते बुद्धिरन्तरे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पैरोंके तलुओंसे लेकर ऊपरकी ओर और मस्तकसे नीचेकी ओर जितना भी शरीर है, इसके भीतर यह बुद्धि पूर्णरूपसे व्याप्त हो रही है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणि नरे पञ्च षष्ठं तु मन उच्यते।
सप्तमीं बुद्धिमेवाहुः क्षेत्रज्ञः पुनरष्टमः ॥ १५ ॥

मूलम्

इन्द्रियाणि नरे पञ्च षष्ठं तु मन उच्यते।
सप्तमीं बुद्धिमेवाहुः क्षेत्रज्ञः पुनरष्टमः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानव-शरीरमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठा मन बताया जाता है। बुद्धिको सातवीं और क्षेत्रज्ञको आठवाँ कहते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणि च कर्ता च विचेतव्यानि भागशः।
तमः सत्त्वं रजश्चैव तेऽपि भावास्तदाश्रयाः ॥ १६ ॥

मूलम्

इन्द्रियाणि च कर्ता च विचेतव्यानि भागशः।
तमः सत्त्वं रजश्चैव तेऽपि भावास्तदाश्रयाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाँच इन्द्रियाँ और जीवात्मा—इन सबको कार्य-विभागके अनुसार अलग-अलग समझना चाहिये। सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण तथा उनके सात्त्विक, राजस और तामस भाव जीवात्माके ही आश्रित हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः।
बुद्धिरध्यवसानाय साक्षी क्षेत्रज्ञ उच्यते।
तमः सत्त्वं रजश्चेति कालः कर्म च भारत ॥ १७ ॥
गुणैर्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाणि च ।
मनःषष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्यभावे कुतो गुणाः ॥ १८ ॥

मूलम्

चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः।
बुद्धिरध्यवसानाय साक्षी क्षेत्रज्ञ उच्यते।
तमः सत्त्वं रजश्चेति कालः कर्म च भारत ॥ १७ ॥
गुणैर्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाणि च ।
मनःषष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्यभावे कुतो गुणाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नेत्र आदि इन्द्रियाँ दर्शन आदि कार्योंके लिये हैं। मन संशय करता है और बुद्धि उस विषयका ठीक-ठीक निश्चय करनेके लिये है। क्षेत्रज्ञ (आत्मा)-को साक्षी बताया जाता है। भरतनन्दन! सत्त्व, रज, तम, काल और कर्म—इन पाँच गुणोंद्वारा बुद्धि बार-बार विभिन्न विषयोंकी ओर ले जायी जाती है। बुद्धि मनसहित सम्पूर्ण इन्द्रियोंका संचालन करती है। यदि बुद्धि न हो तो ये गुण—इन्द्रिय आदि कैसे कोई कार्य कर सकते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन पश्यति तच्चक्षुः शृण्वती श्रोत्रमुच्यते।
जिघ्रती भवति घ्राणं रसती रसना रसान् ॥ १९ ॥
स्पर्शनं स्पर्शती स्पर्शान्‌ बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत्।
यदा प्रार्थयते किञ्चित् तदा भवति सा मनः ॥ २० ॥

मूलम्

येन पश्यति तच्चक्षुः शृण्वती श्रोत्रमुच्यते।
जिघ्रती भवति घ्राणं रसती रसना रसान् ॥ १९ ॥
स्पर्शनं स्पर्शती स्पर्शान्‌ बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत्।
यदा प्रार्थयते किञ्चित् तदा भवति सा मनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धि जिसके द्वारा देखती है, उस इन्द्रियका नाम दृष्टि या नेत्र है। वही अपने वृत्तिविशेषके द्वारा जब सुनने लगती है, तब श्रोत्र कहलाती है। गन्धको ग्रहण करते समय वह घ्राण बन जाती है। रसास्वादन करते समय रसना कहलाती है और स्पर्शोंका अनुभव करते समय वही स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) नाम धारण करती है। इस प्रकार बुद्धि बार-बार विकृत होती है। जब वह कुछ प्रार्थना (याचना) करती है, तब मन बन जाती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिष्ठानानि बुद्ध्या हि पृथगेतानि पञ्चधा।
इन्द्रियाणीति तान्याहुस्तेषु दुष्टेषु दुष्यति ॥ २१ ॥

मूलम्

अधिष्ठानानि बुद्ध्या हि पृथगेतानि पञ्चधा।
इन्द्रियाणीति तान्याहुस्तेषु दुष्टेषु दुष्यति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिके ये जो पृथक्-पृथक् पाँच अधिष्ठान हैं, इन्हींको इन्द्रिय कहते हैं। इन इन्द्रियोंके दूषित होनेपर बुद्धि भी दूषित हो जाती है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषे तिष्ठती बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते।
कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदपि शोचति ॥ २२ ॥

मूलम्

पुरुषे तिष्ठती बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते।
कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदपि शोचति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साक्षी आत्माके आश्रित रहनेवाली बुद्धि सात्त्विक, राजस और तामस तीन भावोंमें (जो सुख-दुःख और मोहरूप हैं) स्थित होती है, इसीलिये कभी (सत्त्वगुणका उद्रेक होनेपर) उसे आनन्द प्राप्त होता है और कभी (रजोगुणकी अधिकता होनेपर) वह दुःख-शोकका अनुभव करती है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सुखेन न दुःखेन कदाचिदपि वर्तते।
सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतान् परिवर्तते ॥ २३ ॥

मूलम्

न सुखेन न दुःखेन कदाचिदपि वर्तते।
सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतान् परिवर्तते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी (तमोगुणकी अधिकतासे मोहाच्छन्न होनेपर) उसका न सुखसे संयोग होता है न दुःखसे (वह निद्रा और आलस्य आदिमें मग्न रहती है)। इस प्रकार यह भावात्मिका बुद्धि इन तीन भावोंका अनुसरण करती है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरितां सागरो भर्ता यथा वेलामिवोर्मिवान्।
इति भावगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते ॥ २४ ॥

मूलम्

सरितां सागरो भर्ता यथा वेलामिवोर्मिवान्।
इति भावगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सरिताओंका स्वामी समुद्र उत्ताल तरंगोंसे युक्त होनेपर भी अपनी तटभूमिका उल्लंघन नहीं करता है, उसी प्रकार सात्त्विक आदि भावोंसे युक्त बुद्धि तीनों गुणोंका उल्लंघन नहीं करती। भावनामय मनमें ही चक्कर लगाती रहती है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवर्तमानं तु रजस्तद्भावेनानुवर्तते ।
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता ॥ २५ ॥
कथंचिदुपपद्यन्ते पुरुषे सात्त्विका गुणाः।

मूलम्

प्रवर्तमानं तु रजस्तद्भावेनानुवर्तते ।
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता ॥ २५ ॥
कथंचिदुपपद्यन्ते पुरुषे सात्त्विका गुणाः।

अनुवाद (हिन्दी)

जब रजोगुणकी प्रवृत्ति होती है तब बुद्धि राजसिक भावका अनुसरण करती है। यदि पुरुषमें किसी प्रकार अधिक हर्ष, प्रीति, आनन्द, सुख और चित्तमें शान्ति उपलब्ध हो तो ये सात्त्विक गुण हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिदाहस्तथा शोकः संतापोऽपूर्तिरक्षमा ॥ २६ ॥
लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुभिः।

मूलम्

परिदाहस्तथा शोकः संतापोऽपूर्तिरक्षमा ॥ २६ ॥
लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

जब शरीर या मनमें किसी कारणसे या अकारण ही दाह, शोक, संताप, अपूर्णता (लोभ-लिप्सा) और असहनशीलताके भाव दिखायी देते हों तो उन्हें रजोगुणके चिह्न समझना चाहिये॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविद्या रागमोहौ च प्रमादः स्तब्धता भयम् ॥ २७ ॥
असमृद्धिस्तथा दैन्यं प्रमोहः स्वप्नतन्द्रिता।
कथंचिदुपवर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः ॥ २८ ॥

मूलम्

अविद्या रागमोहौ च प्रमादः स्तब्धता भयम् ॥ २७ ॥
असमृद्धिस्तथा दैन्यं प्रमोहः स्वप्नतन्द्रिता।
कथंचिदुपवर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि किसी प्रकार अविद्या, राग, मोह, प्रमाद, स्तब्धता, भय, दरिद्रता, दीनता, प्रमोह (मूर्च्छा), स्वप्न, निद्रा और आलस्य आदि दोष आ घेरते हों तो उन्हें तमोगुणके ही विविध रूप जाने॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
वर्तते सात्त्विको भाव इत्युपेक्षेत तत् तथा ॥ २९ ॥

मूलम्

तत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
वर्तते सात्त्विको भाव इत्युपेक्षेत तत् तथा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी स्थितिमें शरीर अथवा मनके भीतर यदि कोई प्रसन्नताका भाव हो तो वह सात्त्विक भाव है, ऐसा विचार करना चाहिये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यद् दुःखसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः ।
प्रवृत्तं रज इत्येव तदसंरभ्य चिन्तयेत् ॥ ३० ॥

मूलम्

अथ यद् दुःखसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः ।
प्रवृत्तं रज इत्येव तदसंरभ्य चिन्तयेत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब अपने लिये अप्रसन्नताका हेतु और दुःखयुक्त भाव अनुभवमें आये तब रजोगुणकी प्रवृत्ति हुई है—ऐसा अपने मनमें विचार करे तथा वैसे किसी कार्यका आरम्भ न करके उसकी ओरसे अपना ध्यान हटा ले॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यन्मोहसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

अथ यन्मोहसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार शरीर या मनमें जो मोहयुक्त भाव अतर्कित या अविज्ञातरूपसे उपस्थित हो गया हो, उसके विषयमें यही निश्चय करे कि यह तमोगुण है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति बुद्धिगतीः सर्वा व्याख्याता यावतीरिह।
एतद्‌ बुद्ध्वा भवेद्‌ बुद्धः किमन्यद्‌ बुद्धलक्षणम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

इति बुद्धिगतीः सर्वा व्याख्याता यावतीरिह।
एतद्‌ बुद्ध्वा भवेद्‌ बुद्धः किमन्यद्‌ बुद्धलक्षणम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बुद्धिकी जितनी अवस्थाएँ हैं उनकी व्याख्या यहाँ कर दी गयी। यह सब जानकर मनुष्य ज्ञानी हो जाता है। इसके सिवा ज्ञानीका और क्या लक्षण हो सकता है?॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं विद्धि सूक्ष्मयोः ।
सृजतेऽत्र गुणानेक एको न सृजते गुणान् ॥ ३३ ॥

मूलम्

सत्त्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं विद्धि सूक्ष्मयोः ।
सृजतेऽत्र गुणानेक एको न सृजते गुणान् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धि और क्षेत्रज्ञ (आत्मा)—ये दोनों सूक्ष्मतत्त्व हैं। इन दोनोंमें जो अन्तर है, उसे समझो। इनमेंसे एक अर्थात् बुद्धि तो गुणोंकी सृष्टि करती है और दूसरा (आत्मा) गुणोंकी सृष्टि नहीं करता—केवल साक्षीभावसे देखता रहता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथग्भूतौ प्रकृत्या तु सम्प्रयुक्तौ च सर्वदा।
यथा मत्स्योऽद्भिरन्यः स्यात् सम्प्रयुक्तो भवेत् तथा ॥ ३४ ॥

मूलम्

पृथग्भूतौ प्रकृत्या तु सम्प्रयुक्तौ च सर्वदा।
यथा मत्स्योऽद्भिरन्यः स्यात् सम्प्रयुक्तो भवेत् तथा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों बुद्धि और क्षेत्रज्ञ स्वभावतः एक-दूसरेसे भिन्न हैं, परंतु सदा परस्पर मिले हुए-से प्रतीत होते हैं। जैसे मछली जलसे भिन्न है तो भी उससे सदा संयुक्त रहती है, उसी प्रकार बुद्धि और आत्मा परस्पर भिन्न होते हुए भी अभिन्न रहते हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न गुणा विदुरात्मानं स गुणान् वेद सर्वतः।
परिद्रष्टा गुणानां तु संस्रष्टा मन्यते यथा ॥ ३५ ॥

मूलम्

न गुणा विदुरात्मानं स गुणान् वेद सर्वतः।
परिद्रष्टा गुणानां तु संस्रष्टा मन्यते यथा ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्त्व आदि गुण जड होनेके कारण आत्माको नहीं जानते; परंतु आत्मा चेतन है, इसलिये गुणोंको पूर्णरूपसे जानता है। वह गुणोंका साक्षी है तथापि मूढ़ मनुष्य उसे गुणोंसे संश्लिष्ट या संयुक्त समझते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्रयो नास्ति सत्त्वस्य गुणसर्गेण चेतना।
सत्त्वमस्य सृजन्त्यन्ये गुणान् वेद कदाचन ॥ ३६ ॥

मूलम्

आश्रयो नास्ति सत्त्वस्य गुणसर्गेण चेतना।
सत्त्वमस्य सृजन्त्यन्ये गुणान् वेद कदाचन ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धि जब सत्त्वादि गुणोंकी सृष्टि करती है, उस समय जीवात्मा उसका आश्रय नहीं होता। अन्य गुणोंकी रचना बुद्धि ही करती है और उन गुणोंको जीव कभी जानता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृजते हि गुणान् सत्त्वं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति।
सम्प्रयोगस्तयोरेष सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्ध्रुवः ॥ ३७ ॥

मूलम्

सृजते हि गुणान् सत्त्वं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति।
सम्प्रयोगस्तयोरेष सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्ध्रुवः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धि गुणोंको उत्पन्न करती है और आत्मा केवल देखता है। बुद्धि और आत्माका यह सम्बन्ध अनादि है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियैस्तु प्रदीपार्थं क्रियते बुद्धिरन्तरा।
निश्चक्षुर्भिरजानद्भिरिन्द्रियाणि प्रदीपवत् ॥ ३८ ॥

मूलम्

इन्द्रियैस्तु प्रदीपार्थं क्रियते बुद्धिरन्तरा।
निश्चक्षुर्भिरजानद्भिरिन्द्रियाणि प्रदीपवत् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानशक्तिरहित न जाननेवाली इन्द्रियाँ वस्तुओंको प्रकाशित करनेके लिये बुद्धिको बीचमें करती हैं। इन्द्रियाँ तो वस्तुको प्रकट करनेमें दीपककी भाँति केवल सहायक हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्वभावमेवैतत् तद् बुद्‌ध्वा विहरेन्नरः।
अशोचन्नप्रहृष्यंश्च स वै विगतमत्सरः ॥ ३९ ॥

मूलम्

एवं स्वभावमेवैतत् तद् बुद्‌ध्वा विहरेन्नरः।
अशोचन्नप्रहृष्यंश्च स वै विगतमत्सरः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ‘आत्मा असंग एवं निर्लेप है’ इस बातको जानकर मनुष्य शोक, हर्ष और द्वेषका परित्याग करके विचरण करे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वभावसिद्धमेवैतद् यदिमान् सृजते गुणान्।
ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं विज्ञेयास्तन्तुवद् गुणाः ॥ ४० ॥

मूलम्

स्वभावसिद्धमेवैतद् यदिमान् सृजते गुणान्।
ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं विज्ञेयास्तन्तुवद् गुणाः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मकड़ी जाला बुनती है, उसी प्रकार बुद्धि गुणोंकी सृष्टि करती है—यह स्वभावसिद्ध है। अतएव गुणोंको जालेके समान और बुद्धिको मकड़ीके समान जानना चाहिये॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते प्रवृत्तिर्नोपलभ्यते।
एवमेके व्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे ॥ ४१ ॥

मूलम्

प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते प्रवृत्तिर्नोपलभ्यते।
एवमेके व्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे गुण नष्ट होनेपर पुनः वापस नहीं आते; क्योंकि फिर उनकी प्रवृत्ति उपलब्ध नहीं होती। एक श्रेणीके विद्वानोंका ऐसा ही निश्चय है। दूसरी श्रेणीके लोग उन नष्ट हुए गुणोंकी पुनरावृत्ति भी मानते हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीदं हृदयग्रन्थिं बुद्धिचिन्तामयं दृढम्।
विमुच्य सुखमासीत विशोकश्छिन्नसंशयः ॥ ४२ ॥

मूलम्

इतीदं हृदयग्रन्थिं बुद्धिचिन्तामयं दृढम्।
विमुच्य सुखमासीत विशोकश्छिन्नसंशयः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बुद्धिकी चिन्तास्वरूप इस सुदृढ़ हृदयग्रन्थिको त्यागकर शोक और संशयसे रहित हो सुखपूर्वक रहना चाहिये॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताम्येयुः प्रच्युताः पृथ्वीं मोहपूर्णां नदीं नराः।
यथा गाधमविद्वांसो बुद्धियोगमयं तथा ॥ ४३ ॥

मूलम्

ताम्येयुः प्रच्युताः पृथ्वीं मोहपूर्णां नदीं नराः।
यथा गाधमविद्वांसो बुद्धियोगमयं तथा ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जलकी गहराईको न जाननेवाले मनुष्य जैसे नदीके तल-प्रदेशमें जाकर दुःखका अनुभव करते हैं, उसी प्रकार बुद्धियोग (ज्ञान)-से अनभिज्ञ सभी मनुष्य इस मोहपूर्ण विशाल संसारनदीमें पड़कर क्लेश भोगते हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव ताम्यन्ति विद्वांसः प्लवन्तः पारमम्भसः।
अध्यात्मविदुषो धीरा ज्ञानं तु परमं प्लवः ॥ ४४ ॥

मूलम्

नैव ताम्यन्ति विद्वांसः प्लवन्तः पारमम्भसः।
अध्यात्मविदुषो धीरा ज्ञानं तु परमं प्लवः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो तैरनेकी कला जानते हैं, वे तैरकर अगाध जलसे पार हो जाते हैं। उन्हें कष्ट नहीं भोगना पड़ता। उसी प्रकार अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता धीर पुरुष अनायास संसार-सागरको पार कर जाते हैं। उनके लिये परम ज्ञान ही जहाज बन जाता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भवति विदुषां महद्भयं
यदविदुषां सुमहद्भयं भवेत् ।
न हि गतिरधिकास्ति कस्यचित्
सकृदुपदर्शयतीह तुल्यताम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

न भवति विदुषां महद्भयं
यदविदुषां सुमहद्भयं भवेत् ।
न हि गतिरधिकास्ति कस्यचित्
सकृदुपदर्शयतीह तुल्यताम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अज्ञानियोंको जिस संसारसे महान् भय बना रहता है, उससे ज्ञानियोंको वह गुरुतर भय तनिक भी नहीं प्राप्त होता है। ज्ञानी पुरुषोंमेंसे किसीको भी अधिक या न्यून गति नहीं प्राप्त होती—वे सब समान गतिके भागी होते हैं। ‘सकृद्विभातो ह्येष ब्रह्मलोकः’ इत्यादि श्रुति यहाँ ज्ञानियोंकी गतिकी समानता दिखाती है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् करोति बहुदोषमेकत-
स्तच्च दूषयति यत्पुरा कृतम्।
नाप्रियं तदुभयं करोत्यसौ
यच्च दूषयति यत् करोति च ॥ ४६ ॥

मूलम्

यत् करोति बहुदोषमेकत-
स्तच्च दूषयति यत्पुरा कृतम्।
नाप्रियं तदुभयं करोत्यसौ
यच्च दूषयति यत् करोति च ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अज्ञानावस्थामें मनुष्य जो अनेक दोषसे युक्त कर्म करता है और वह पहलेके जो कर्म कर चुका है, उनके लिये शोक करता है। इसके सिवा अज्ञानावस्थामें जो वह दूसरेके किये हुए अप्रिय कर्मको दोषरूपमें देखता है और राग आदि दोषके कारण स्वयं जो दूषित कर्म करता है, वह दोनों ही प्रकारका कार्य वह ज्ञान होनेके बाद नहीं करता है॥४६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पाञ्चभौतिके पञ्चाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पाञ्चभौतिक तत्त्वोंका वर्णनविषयक दो सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८५॥