भागसूचना
चतुरशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पार्वतीके रोष एवं खेदका निवारण करनेके लिये भगवान् शिवके द्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षद्वारा किये हुए शिवसहस्रनामस्तोत्रसे संतुष्ट होकर महादेवजीका उन्हें वरदान देना तथा इस स्तोत्रकी महिमा
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राचेतसस्य दक्षस्य कथं वैवस्वतेऽन्तरे।
विनाशमगमद् ब्रह्मन् हयमेधः प्रजापतेः ॥ १ ॥
मूलम्
प्राचेतसस्य दक्षस्य कथं वैवस्वतेऽन्तरे।
विनाशमगमद् ब्रह्मन् हयमेधः प्रजापतेः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! वैवस्वत मन्वन्तरमें प्रचेताओंके पुत्र दक्षप्रजापतिका अश्वमेध यज्ञ कैसे नष्ट हो गया?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव्या मन्युकृतं मत्वा क्रुद्धः सर्वात्मकः प्रभुः।
प्रसादात् तस्य दक्षेण स यज्ञः संधितः कथम्।
एतद् वेदितुमिच्छेयं तन्मे ब्रूहि यथातथम् ॥ २ ॥
मूलम्
देव्या मन्युकृतं मत्वा क्रुद्धः सर्वात्मकः प्रभुः।
प्रसादात् तस्य दक्षेण स यज्ञः संधितः कथम्।
एतद् वेदितुमिच्छेयं तन्मे ब्रूहि यथातथम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दक्षके यज्ञमें मेरा आवाहन न होना पार्वतीके दुःखका कारण बन गया है—यह जानकर भगवान् शंकर, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा हैं, जब कुपित हो उठे, तब फिर उन्हींकी कृपापूर्ण प्रसन्नतासे दक्ष-प्रजापतिका यह यज्ञ कैसे सम्पन्न हुआ? मैं यह वृत्तान्त जानना चाहता हूँ, आप इसे यथार्थ रूपसे बतानेकी कृपा करें॥२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा हिमवतः पृष्ठे दक्षो वै यज्ञमाहरत्।
गङ्गाद्वारे शुभे देशे ऋषिसिद्धनिषेविते ॥ ३ ॥
मूलम्
पुरा हिमवतः पृष्ठे दक्षो वै यज्ञमाहरत्।
गङ्गाद्वारे शुभे देशे ऋषिसिद्धनिषेविते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— प्राचीन कालकी बात है—हिमालयके पार्श्ववर्ती गंगाद्वार (हरिद्वार) के शुभ देशमें, जहाँ ऋषियों तथा सिद्ध पुरुषोंका निवास है, प्रजापति दक्षने अपने यज्ञका आयोजन किया था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वाप्सरसाकीर्णे नानाद्रुमलतावृते ।
ऋषिसङ्घैः परिवृतं दक्षं धर्मभृतां वरम् ॥ ४ ॥
पृथिव्यामन्तरिक्षे च ये च स्वर्लोकवासिनः।
सर्वे प्राञ्जलयो भूत्वा उपतस्थुः प्रजापतिम् ॥ ५ ॥
मूलम्
गन्धर्वाप्सरसाकीर्णे नानाद्रुमलतावृते ।
ऋषिसङ्घैः परिवृतं दक्षं धर्मभृतां वरम् ॥ ४ ॥
पृथिव्यामन्तरिक्षे च ये च स्वर्लोकवासिनः।
सर्वे प्राञ्जलयो भूत्वा उपतस्थुः प्रजापतिम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह स्थान गन्धर्वों और अप्सराओंसे भरा था। भाँति-भाँतिके वृक्षसमूह और लताएँ वहाँ सब ओर छा रही थीं। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ प्रजापति दक्ष ऋषिसमुदायसे घिरे हुए बैठे। उस समय पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोकके निवासी भी वहाँ जुटे हुए थे और वे सब-के-सब हाथ जोड़कर प्रजापतिको प्रणाम करके उनकी सेवामें खड़े थे॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः ।
हाहाहूहूश्च गन्धर्वौ तुम्बुरुर्नारदस्तथा ॥ ६ ॥
विश्वावसुर्विश्वसेनो गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।
मूलम्
देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः ।
हाहाहूहूश्च गन्धर्वौ तुम्बुरुर्नारदस्तथा ॥ ६ ॥
विश्वावसुर्विश्वसेनो गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस, हाहा और हूहू नामक गन्धर्व, तुम्बुरु, नारद, विश्वावसु, विश्वसेन तथा दूसरे-दूसरे गन्धर्व और अप्सराएँ वहाँ उपस्थित थीं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्या वसवो रुद्राः साध्याः सह मरुद्गणैः ॥ ७ ॥
इन्द्रेण सहिताः सर्वे आगता यज्ञभागिनः।
मूलम्
आदित्या वसवो रुद्राः साध्याः सह मरुद्गणैः ॥ ७ ॥
इन्द्रेण सहिताः सर्वे आगता यज्ञभागिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य और मरुद्गण—ये सब-के-सब इन्द्रके साथ यज्ञमें भाग लेनेके लिये वहाँ पधारे थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊष्मपाः सोमपाश्चैव धूमपा आज्यपास्तथा ॥ ८ ॥
ऋषयः पितरश्चैव आगता ब्रह्मणा सह।
मूलम्
ऊष्मपाः सोमपाश्चैव धूमपा आज्यपास्तथा ॥ ८ ॥
ऋषयः पितरश्चैव आगता ब्रह्मणा सह।
अनुवाद (हिन्दी)
ऊष्मपा (सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले), सोमपा (सोमरस पीनेवाले), धूमपा (यज्ञमें धूम-पान करनेवाले) और आज्यपा (घृत-पान करनेवाले) पितर और ऋषि भी ब्रह्माजीके साथ उस यज्ञमें पधारे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते चान्ये च बहवो भूतग्रामाश्चतुर्विधाः ॥ ९ ॥
जरायुजाण्डजाश्चैव सहसा स्वेदजोद्भिजैः ।
मूलम्
एते चान्ये च बहवो भूतग्रामाश्चतुर्विधाः ॥ ९ ॥
जरायुजाण्डजाश्चैव सहसा स्वेदजोद्भिजैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
ये तथा और भी बहुत-से चतुर्विध प्राणिसमुदाय जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उदि्भज्ज वहाँ उपस्थित हुए थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहूता मन्त्रिताः सर्वे देवाश्च सह पत्निभिः ॥ १० ॥
विराजन्ते विमानस्था दीप्यमाना इवाग्नयः।
मूलम्
आहूता मन्त्रिताः सर्वे देवाश्च सह पत्निभिः ॥ १० ॥
विराजन्ते विमानस्था दीप्यमाना इवाग्नयः।
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्हें निमन्त्रित करके बुलाया गया था, वे सब देवता अपनी पत्नियोंके साथ विमानपर बैठकर आते समय प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् दृष्ट्वा मत्युनाऽऽविष्टो दधीचिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ ११ ॥
नायं यज्ञो न वा धर्मो यत्र रुद्रो न इज्यते।
वधबन्धं प्रपन्ना वै किं नु कालस्य पर्ययः ॥ १२ ॥
मूलम्
तान् दृष्ट्वा मत्युनाऽऽविष्टो दधीचिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ ११ ॥
नायं यज्ञो न वा धर्मो यत्र रुद्रो न इज्यते।
वधबन्धं प्रपन्ना वै किं नु कालस्य पर्ययः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(महामुनि दधीचि भी उस यज्ञमण्डपमें उपस्थित थे। उन्होंने देखा कि देवता और दानव आदिका समाज तो खूब जुटा हुआ है; परंतु भगवान् शंकर दिखायी नहीं देते हैं। जान पड़ता है उनका आवाहन नहीं किया गया है। इससे उनके मनमें बड़ा दुःख हुआ।) उन सब देवताओंको वहाँ उपस्थित देख दधीचि क्रोधमें भर गये और बोले—‘सज्जनो! जिसमें भगवान् शिवकी पूजा नहीं होती है, वह न यज्ञ है और न धर्म। यह यज्ञ भी भगवान् शिवके बिना यज्ञ कहनेयोग्य नहीं रहा। इसका आयोजन करनेवाले लोग वध और बन्धनकी दुर्दशामें पड़नेवाले हैं। अहो! कालका कैसा उलट-फेर है॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंनु मोहान्न पश्यन्ति विनाशं पर्युपस्थितम्।
उपस्थितं महाघोरं न बुध्यन्ति महाध्वरे ॥ १३ ॥
मूलम्
किंनु मोहान्न पश्यन्ति विनाशं पर्युपस्थितम्।
उपस्थितं महाघोरं न बुध्यन्ति महाध्वरे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस महायज्ञमें अत्यन्त घोर विनाश उपस्थित होनेवाला है; किंतु मोहवश कोई देख नहीं रहे हैं—समझ नहीं पाते हैं’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा स महायोगी पश्यति ध्यानचक्षुषा।
स पश्यति महादेवं देवीं च वरदां शुभाम् ॥ १४ ॥
नारदं च महात्मानं तस्या देव्याः समीपतः।
संतोषं परमं लेभे इति निश्चित्य योगवित् ॥ १५ ॥
एकमन्त्रास्तु ते सर्वे येनेशो न निमन्त्रितः।
मूलम्
इत्युक्त्वा स महायोगी पश्यति ध्यानचक्षुषा।
स पश्यति महादेवं देवीं च वरदां शुभाम् ॥ १४ ॥
नारदं च महात्मानं तस्या देव्याः समीपतः।
संतोषं परमं लेभे इति निश्चित्य योगवित् ॥ १५ ॥
एकमन्त्रास्तु ते सर्वे येनेशो न निमन्त्रितः।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर महायोगी दधीचिने जब ध्यान लगाकर देखा, तब उन्हें भगवान् शंकर और मंगलमयी वरदायिनी देवी पार्वतीजीका दर्शन हुआ। उनके पास ही महात्मा नारदजी भी दिखायी दिये, इससे उनको बड़ा संतोष हुआ। योगवेत्ता दधीचिको यह निश्चय हो गया कि ये सब देवता एकमत हो गये हैं। इसीलिये इन्होंने महेश्वरको यहाँ निमन्त्रित नहीं किया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् देशादपक्रम्य दधीचिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १६ ॥
अपूज्यपूजनाच्चैव पूज्यानां चाप्यपूजनात् ।
नृघातकसमं पापं शश्वत् प्राप्नोति मानवः ॥ १७ ॥
मूलम्
तस्माद् देशादपक्रम्य दधीचिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १६ ॥
अपूज्यपूजनाच्चैव पूज्यानां चाप्यपूजनात् ।
नृघातकसमं पापं शश्वत् प्राप्नोति मानवः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बात ध्यानमें आते ही दधीचि यज्ञशालासे अलग हो गये और दूर जाकर कहने लगे—‘सज्जनो! अपूजनीय पुरुषकी पूजा करनेसे और पूजनीय महापुरुषकी पूजा न करनेसे मनुष्य सदा ही नरहत्याके समान पापका भागी होता है॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन।
देवतानामृषीणां च मध्ये सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ १८ ॥
मूलम्
अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन।
देवतानामृषीणां च मध्ये सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने पहले कभी झूठ नहीं कहा है और आगे भी कभी झूठ नहीं कहूँगा। इन देवताओं तथा ऋषियोंके बीचमें मैं सच्ची बात कह रहा हूँ’॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगतं पशुभर्तारं स्रष्टारं जगतः पतिम्।
अध्वरे ह्यग्रभोक्तारं सर्वेषां पश्यत प्रभुम ॥ १९ ॥
मूलम्
आगतं पशुभर्तारं स्रष्टारं जगतः पतिम्।
अध्वरे ह्यग्रभोक्तारं सर्वेषां पश्यत प्रभुम ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवान् शंकर सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करनेवाले, सम्पूर्ण जीवोंके रक्षक, स्वामी तथा सबके प्रभु हैं। तुम सब लोग देख लेना, वे इस यज्ञमें प्रधान भोक्ताके रूपमें उपस्थित होंगे’॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
दक्ष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्ति नो बहवो रुद्राः शूलहस्ताः कपर्दिनः।
एकादशस्थानगता नाहं वेद्मि महेश्वरम् ॥ २० ॥
मूलम्
सन्ति नो बहवो रुद्राः शूलहस्ताः कपर्दिनः।
एकादशस्थानगता नाहं वेद्मि महेश्वरम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दक्षने कहा— हाथोंमें शूल और मस्तकपर जटाजूट धारण करनेवाले बहुत-से रुद्र हमारे यहाँ रहते हैं। वे ग्यारह हैं और ग्यारह स्थानोंमें निवास करते हैं। उनके सिवा दूसरे किसी महेश्वरको मैं नहीं जानता॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
दधीचिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषामेव मन्त्रोऽयं येनासौ न निमन्त्रितः।
यथाह शंकरादूर्ध्वं नान्यं पश्यामि दैवतम्।
तथा दक्षस्य विपुलो यज्ञोऽयं न भविष्यति ॥ २१ ॥
मूलम्
सर्वेषामेव मन्त्रोऽयं येनासौ न निमन्त्रितः।
यथाह शंकरादूर्ध्वं नान्यं पश्यामि दैवतम्।
तथा दक्षस्य विपुलो यज्ञोऽयं न भविष्यति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दधीचि बोले— मैं जानता हूँ, आप सब लोगोंका ही यह मिल-जुलकर किया हुआ निश्चय है। इसीलिये उन महादेवजीको निमन्त्रित नहीं किया गया है; परंतु मैं भगवान् शंकरसे बढ़कर दूसरे किसी देवताको नहीं देखता। यदि यह सत्य है तो प्रजापति दक्षका यह विशाल यज्ञ निश्चय ही नष्ट हो जायगा॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
दक्ष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मखेशाय सुवर्णपात्रे
हविः समस्तं विधिमन्त्रपूतम् ।
विष्णोर्नयाम्यप्रतिमस्य भागं
प्रभुर्विभुश्चाहवनीय एषः ॥ २२ ॥
मूलम्
एतन्मखेशाय सुवर्णपात्रे
हविः समस्तं विधिमन्त्रपूतम् ।
विष्णोर्नयाम्यप्रतिमस्य भागं
प्रभुर्विभुश्चाहवनीय एषः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दक्षने कहा— महर्षे! देखो, विधिपूर्वक मन्त्रसे पवित्र की हुई यह सारी हवि सुवर्णके पात्रमें रखी हुई है। यह यज्ञेश्वर श्रीविष्णुको समर्पित है। भगवान् विष्णुकी कहीं समता नहीं है। मैं उन्हींको हविष्यका यह भाग अर्पित करूँगा। ये भगवान् विष्णु ही सर्वसमर्थ, व्यापक और यज्ञभाग अर्पित करनेके योग्य हैं॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
देव्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नाम दानं नियमं तपो वा
कुर्यामहं येन पतिर्ममाद्य ।
लभेत भागं भगवानचिन्त्यो
ह्यर्धं तथा भागमथो तृतीयम् ॥ २३ ॥
मूलम्
किं नाम दानं नियमं तपो वा
कुर्यामहं येन पतिर्ममाद्य ।
लभेत भागं भगवानचिन्त्यो
ह्यर्धं तथा भागमथो तृतीयम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दूसरी ओर कैलास पर्वतपर) पार्वती देवी (बहुत दुखी होकर) कह रही थीं—आह, मैं कौन-सा व्रत, दान या तप करूँ, जिसके प्रभावसे आज मेरे पतिदेव अचिन्त्य भगवान् शंकरको यज्ञका आधा अथवा तिहाई भाग अवश्य प्राप्त हो?’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवाणां भगवान् स पत्नीं
प्रहृष्टरूपः क्षुभितामुवाच ।
न वेत्सि मां देवि कृशोदराङ्गि
किं नाम युक्तं वचनं मखेशे ॥ २४ ॥
मूलम्
एवं ब्रुवाणां भगवान् स पत्नीं
प्रहृष्टरूपः क्षुभितामुवाच ।
न वेत्सि मां देवि कृशोदराङ्गि
किं नाम युक्तं वचनं मखेशे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षोभमें भरकर इस प्रकार बोलती हुई पत्नीकी बात सुनकर भगवान् शंकर हर्षसे खिल उठे और इस प्रकार बोले—‘देवि! कृशोदराङ्गि! तू मुझे नहीं जानती, मैं सम्पूर्ण यज्ञोंका ईश्वर हूँ। मेरे विषयमें किस प्रकारके वचन कहना चाहिये, यह भी तुम नहीं जानती॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं विजानामि विशालनेत्रे
ध्यानेन हीना न विदन्त्यसन्तः।
तवाद्य मोहेन च सेन्द्रदेवा
लोकास्त्रयः सर्वत एव मूढाः ॥ २५ ॥
मूलम्
अहं विजानामि विशालनेत्रे
ध्यानेन हीना न विदन्त्यसन्तः।
तवाद्य मोहेन च सेन्द्रदेवा
लोकास्त्रयः सर्वत एव मूढाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पर मैं सब कुछ जानता हूँ। विशाललोचने! जिनका चित्त एकाग्र नहीं है, वे ध्यानशून्य असाधु पुरुष मेरे स्वरूपको नहीं जानते। आज तुम्हारे इस मोहसे इन्द्र आदि देवताओंसहित तीनों लोक सब ओरसे किंकर्तव्य-विमूढ हो गये हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामध्वरे शंसितारः स्तुवन्ति
रथन्तरं सामगाश्वोपगान्ति ।
मां ब्राह्मणा ब्रह्मविदो यजन्ते
ममाध्वर्यवः कल्पयन्ते च भागम् ॥ २६ ॥
मूलम्
मामध्वरे शंसितारः स्तुवन्ति
रथन्तरं सामगाश्वोपगान्ति ।
मां ब्राह्मणा ब्रह्मविदो यजन्ते
ममाध्वर्यवः कल्पयन्ते च भागम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यज्ञमें प्रस्तोतालोग मेरी स्तुति करते हैं। सामगान करनेवाले ब्राह्मण रथन्तर सामके रूपमें मेरी ही महिमाका गान करते हैं। वेदवेत्ता विप्र मेरा ही यजन करते और ऋत्विजलोग यज्ञमें मुझे ही भाग अर्पित करते हैं’॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
देव्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्राकृतोऽपि पुरुषः सर्वः स्त्रीजनसंसदि।
स्तौति गर्वायते चापि स्वमात्मानं न संशयः ॥ २७ ॥
मूलम्
सुप्राकृतोऽपि पुरुषः सर्वः स्त्रीजनसंसदि।
स्तौति गर्वायते चापि स्वमात्मानं न संशयः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवीने कहा— नाथ! अत्यन्त गँवार पुरुष भी क्यों न हो, प्रायः सभी स्त्रियोंके बीचमें अपनी प्रशंसाके गीत गाते और अपनी श्रेष्ठतापर गर्व करते हैं—इसमें तनिक भी संशय नहीं है॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नात्मानं स्तौमि देवेशि पश्य मे तनुमध्यमे।
यं स्रक्ष्यामि वरारोहे यागार्थे वरवर्णिनि ॥ २८ ॥
मूलम्
नात्मानं स्तौमि देवेशि पश्य मे तनुमध्यमे।
यं स्रक्ष्यामि वरारोहे यागार्थे वरवर्णिनि ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् शिव बोले— देवेश्वरि! तनुमध्यमे! वरारोहे! वरवर्णिनि! मैं अपनी प्रशंसा नहीं करता हूँ। मेरा प्रभाव देखो। जिसके कारण तुम्हें दुःख हुआ है, उस यज्ञको नष्ट करनेके लिये मैं जिस वीर पुरुषकी सृष्टि कर रहा हूँ’ उसपर दृष्टिपात करो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा भगवान् पत्नीमुमां प्राणैरपि प्रियाम्।
सोऽसृजद् भगवान् वक्त्राद् भूतं घोरं प्रहर्षणम् ॥ २९ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा भगवान् पत्नीमुमां प्राणैरपि प्रियाम्।
सोऽसृजद् भगवान् वक्त्राद् भूतं घोरं प्रहर्षणम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने प्राणोंसे भी अधिक प्यारी पत्नी उमासे ऐसी बात कहकर भगवान् महेश्वरने अपने मुखसे एक अद्भुत एवं भयंकर प्राणीको प्रकट किया, जो उनका हर्ष बढ़ानेवाला था॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाचाक्षिप मखं दक्षस्येति महेश्वरः।
ततो वक्त्राद् विमुक्तेन सिंहेनैकेन लीलया ॥ ३० ॥
देव्या मन्युव्यपोहार्थं हतो दक्षस्य वै क्रतुः।
मूलम्
तमुवाचाक्षिप मखं दक्षस्येति महेश्वरः।
ततो वक्त्राद् विमुक्तेन सिंहेनैकेन लीलया ॥ ३० ॥
देव्या मन्युव्यपोहार्थं हतो दक्षस्य वै क्रतुः।
अनुवाद (हिन्दी)
महेश्वरने उस पुरुषको आज्ञा दी—‘वीर! तुम दक्षके यज्ञका नाश कर दो।’ फिर तो भगवान्के मुखसे निकले हुए उस सिंहके समान पराक्रमी एक ही वीरने पार्वतीदेवीके दुःख और क्रोधका निवारण करनेके लिये खेलही खेलमें प्रजापति दक्षके उस यज्ञका विध्वंस कर डाला॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्युना च महाभीमा महाकाली महेश्वरी ॥ ३१ ॥
आत्मनः कर्मसाक्षित्वे तेन सार्धं सहानुगा।
मूलम्
मन्युना च महाभीमा महाकाली महेश्वरी ॥ ३१ ॥
आत्मनः कर्मसाक्षित्वे तेन सार्धं सहानुगा।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भवानीके क्रोधसे प्रकट हुई अत्यन्त भयंकर रूपवाली महाकाली महेश्वरीने भी अपना पराक्रम दिखानेके लिये सेवकोंसहित उस वीरके साथ प्रस्थान किया था॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवस्यानुमतं मत्वा प्रणम्य शिरसा ततः ॥ ३२ ॥
आत्मनः सदृशः शौर्याद् बलरूपसमन्वितः।
स एव भगवान् क्रोधः प्रतिरूपसमन्वितः ॥ ३३ ॥
अनन्तबलवीर्यश्च अनन्तबलपौरुषः ।
वीरभद्र इति ख्यातो देव्या मन्युप्रमार्जकः ॥ ३४ ॥
मूलम्
देवस्यानुमतं मत्वा प्रणम्य शिरसा ततः ॥ ३२ ॥
आत्मनः सदृशः शौर्याद् बलरूपसमन्वितः।
स एव भगवान् क्रोधः प्रतिरूपसमन्वितः ॥ ३३ ॥
अनन्तबलवीर्यश्च अनन्तबलपौरुषः ।
वीरभद्र इति ख्यातो देव्या मन्युप्रमार्जकः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वीरभद्रने किस प्रकार उस यज्ञका विध्वंस किया, यह प्रसंग आगे बताया जाता है—) महादेवजीकी अनुमति जानकर उसने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। वह वीर अपने ही समान शौर्य, रूप और बलसे सम्पन्न था (उसकी कहीं उपमा नहीं थी)। भगवान् शिवका वह सब कुछ करनेमें समर्थ क्रोध ही मूर्तिमान् होकर उस वीरके रूपमें प्रकट हुआ था। उसके बल, वीर्य, शक्ति और पुरुषार्थका कहीं अन्त नहीं था। पार्वतीदेवीके क्रोध और खेदका निवारण करनेवाला वह पुरुष वीरभद्रके नामसे विख्यात हुआ॥३२—३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽसृजद् रोमकूपेभ्यो रौम्यान् नाम गणेश्वरान्।
रुद्रतुल्या गणा रौद्रा रुद्रवीर्यपराक्रमाः ॥ ३५ ॥
मूलम्
सोऽसृजद् रोमकूपेभ्यो रौम्यान् नाम गणेश्वरान्।
रुद्रतुल्या गणा रौद्रा रुद्रवीर्यपराक्रमाः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अपने रोमकूपोंसे सैन्य नामवाले गणेश्वरोंको प्रकट किया, जो रुद्रके समान ही होनेके कारण रौद्रगण कहलाये। उन सबके बल-पराक्रम भी रुद्रके ही समान थे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते निपेतुस्ततस्तूर्णं दक्षयज्ञविहिंसया ।
भीमरूपा महाकायाः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३६ ॥
ततः किलकिलाशब्दैसकाशं पूरयन्निव ।
मूलम्
ते निपेतुस्ततस्तूर्णं दक्षयज्ञविहिंसया ।
भीमरूपा महाकायाः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३६ ॥
ततः किलकिलाशब्दैसकाशं पूरयन्निव ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे भयंकर रूपधारी विशालकाय रुद्रगण सैकड़ों और हजारोंकी टोलियाँ बनाकर अपनी किलकारियोंसे आकाशको गुँजाते हुए-से दक्षयज्ञका विध्वंस करनेके लिये बड़ी तेजीके साथ टूट पड़े॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन शब्देन महता त्रस्तास्तत्र दिवौकसः ॥ ३७ ॥
पर्वताश्च व्यशीर्यन्त चकम्पे च वसुंधरा।
मारुताश्चैव घूर्णन्ते चुक्षुभे वरुणालयः ॥ ३८ ॥
मूलम्
तेन शब्देन महता त्रस्तास्तत्र दिवौकसः ॥ ३७ ॥
पर्वताश्च व्यशीर्यन्त चकम्पे च वसुंधरा।
मारुताश्चैव घूर्णन्ते चुक्षुभे वरुणालयः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महाभयंकर कोलाहलसे उस यज्ञमें पधारे हुए समस्त देवता व्याकुल हो उठे। पर्वत टूक-टूक होकर बिखर गये। धरती डोलने लगी, आँधी चलने लगी और समुद्रमें तूफान आ गया॥३७-३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्नयो नैव दीप्यन्ते नैव दीप्यति भास्करः।
ग्रहा नैव प्रकाशन्ते नक्षत्राणि न चन्द्रमाः ॥ ३९ ॥
ऋषयो न प्रकाशन्ते न देवा न च मानुषाः।
एवं तु तिमिरीभूते निर्दहन्त्यपमानिताः ॥ ४० ॥
मूलम्
अग्नयो नैव दीप्यन्ते नैव दीप्यति भास्करः।
ग्रहा नैव प्रकाशन्ते नक्षत्राणि न चन्द्रमाः ॥ ३९ ॥
ऋषयो न प्रकाशन्ते न देवा न च मानुषाः।
एवं तु तिमिरीभूते निर्दहन्त्यपमानिताः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आग नहीं जलती थी, सूर्यका प्रकाश फीका पड़ गया; ग्रह, नक्षत्र और चन्द्रमा भी निस्तेज हो गये। इस प्रकार वहाँ चारों ओर अँधेरा छा गया। देवता, ऋषि और मनुष्य—सभी छिप गये—कोई दिखायी नहीं देते थे। दक्षसे अपमानित हुए रुद्रगण यज्ञशालामें सब ओर आग लगाने लगे॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहरन्त्यपरे घोरा यूपानुत्पाटयन्ति च।
प्रमर्दन्ति तथा चान्ये विमर्दन्ति तथा परे ॥ ४१ ॥
मूलम्
प्रहरन्त्यपरे घोरा यूपानुत्पाटयन्ति च।
प्रमर्दन्ति तथा चान्ये विमर्दन्ति तथा परे ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे भयंकर भूत उसी यज्ञके सदस्योंको पीटने लगे। कुछ यूप उखाड़ने लगे। बहुतेरे रुद्रगण यज्ञकी सामग्रीको कुचलने और रौंदने लगे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आधावन्ति प्रधावन्ति वायुवेगा मनोजवाः।
चूर्ण्यन्ते यज्ञपात्राणि दिव्यान्याभरणानि च ॥ ४२ ॥
मूलम्
आधावन्ति प्रधावन्ति वायुवेगा मनोजवाः।
चूर्ण्यन्ते यज्ञपात्राणि दिव्यान्याभरणानि च ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायु और मनके समान वेगशाली कितने ही पार्षद इधर-उधर दौड़ लगाने लगे। कुछ लोग यज्ञके उपयोगमें आनेवाले पात्रों तथा दिव्य आभूषणोंको चूर-चूर कर रहे थे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशीर्यमाणा दूश्यन्ते तारा इव नभस्तले।
दिव्यान्नपानभक्ष्याणां राशयः पर्वतोपमाः ॥ ४३ ॥
मूलम्
विशीर्यमाणा दूश्यन्ते तारा इव नभस्तले।
दिव्यान्नपानभक्ष्याणां राशयः पर्वतोपमाः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बिखरकर गिरते हुए टुकड़े आकाशमें छिटके हुए तारोंके समान दिखायी देते थे। उस यज्ञभूमिमें जहाँ-तहाँ दिव्य अन्न, पान और भक्ष्य पदार्थोंके पर्वतों-जैसे ढेर दिखायी देते थे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीरनद्योऽथ दृश्यते घृतपायसकर्दमाः ।
दधिमण्डोदका दिव्याः खण्डशर्करवालुकाः ॥ ४४ ॥
मूलम्
क्षीरनद्योऽथ दृश्यते घृतपायसकर्दमाः ।
दधिमण्डोदका दिव्याः खण्डशर्करवालुकाः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूधकी दिव्य नदियाँ वहाँ बहती दीखती थीं, घी और खीरकी कीच जम गयी थी, दही और मट्ठा पानीकी तरह बह रहे थे तथा खाँड़ और शक्कर वहाँ बालूकी भाँति बिछ गये थे॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षड् रसान् निवहन्त्येता गुडकुल्या मनोरमाः।
उच्चावचानि मांसानि भक्ष्याणि विविधानि च ॥ ४५ ॥
मूलम्
षड् रसान् निवहन्त्येता गुडकुल्या मनोरमाः।
उच्चावचानि मांसानि भक्ष्याणि विविधानि च ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब नदियाँ षट्रस भोजन प्रवाहित कर रही थीं। गुड़के रसकी छोटी-छोटी मनोरम नहरें दृष्टिगोचर होती थीं। नाना प्रकारके फलोंके गूदे और भाँति-भाँतिके भक्ष्य-पदार्थ प्रस्तुत किये गये थे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पानकानि च दिव्यानि लेह्यचोष्याणि यानि च।
भुञ्जते विविधैर्वक्त्रैर्विलुम्पन्त्याक्षिपन्ति च ॥ ४६ ॥
मूलम्
पानकानि च दिव्यानि लेह्यचोष्याणि यानि च।
भुञ्जते विविधैर्वक्त्रैर्विलुम्पन्त्याक्षिपन्ति च ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिव्य पेय पदार्थ, लेह्य और चोष्य आदि जो-जो भोजन वहाँ उपलब्ध हुए, उन सबको वे रुद्रगण अपने विविध मुखोंद्वारा खाने, नष्ट करने और चारों ओर छींटने तथा फेंकने लगे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्रकोपान्महाकायाः कालाग्निसदृशोपमाः ।
क्षोभयन् सुरसैन्यानि भीषयन्तः समन्ततः ॥ ४७ ॥
मूलम्
रुद्रकोपान्महाकायाः कालाग्निसदृशोपमाः ।
क्षोभयन् सुरसैन्यानि भीषयन्तः समन्ततः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे विशालकाय भूत रुद्रदेवके क्रोधसे कालाग्निके समान होकर देवताओंकी सेनाओंको चारों ओरसे डराने और क्षुब्ध करने लगे॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रीडन्ति विविधाकाराश्चिक्षिपुः सुरयोषितः ।
रुद्रक्रोधात् प्रयत्नेन सर्वदेवैः सुरक्षितम् ॥ ४८ ॥
तं यज्ञमदहच्छीघ्रं रुद्रकर्मा समन्ततः।
मूलम्
क्रीडन्ति विविधाकाराश्चिक्षिपुः सुरयोषितः ।
रुद्रक्रोधात् प्रयत्नेन सर्वदेवैः सुरक्षितम् ॥ ४८ ॥
तं यज्ञमदहच्छीघ्रं रुद्रकर्मा समन्ततः।
अनुवाद (हिन्दी)
अनेक प्रकारकी आकृतिवाले वे रुद्रगण खेलते-कूदते और देवांगनाओंको दूर फेंक देते थे। यद्यपि सम्पूर्ण देवताओंने मिलकर प्रयत्नपूर्वक उस यज्ञकी रक्षा की थी तथापि रुद्रकर्मा वीरभद्रने रुद्रदेवके क्रोधसे प्रेरित हो सब ओरसे शीघ्र ही उसे जलाकर भस्म कर दिया॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चकार भैरवं नादं सर्वभूतभयंकरम् ॥ ४९ ॥
छित्त्वा शिरो वै यज्ञस्य ननाद च मुमोद च।
मूलम्
चकार भैरवं नादं सर्वभूतभयंकरम् ॥ ४९ ॥
छित्त्वा शिरो वै यज्ञस्य ननाद च मुमोद च।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उसने ऐसी भीषण गर्जना की, जो समस्त प्राणियोंके मनमें भय उत्पन्न करनेवाली थी। फिर उसने यज्ञका सिर काटकर बड़े जोरसे सिंहनाद किया और मन-ही-मन आनन्दका अनुभव किया॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ब्रह्मादयो देवा दक्षश्चैव प्रजापतिः ॥ ५० ॥
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे कथ्यतां को भवानिति।
मूलम्
ततो ब्रह्मादयो देवा दक्षश्चैव प्रजापतिः ॥ ५० ॥
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे कथ्यतां को भवानिति।
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्रह्मा आदि देवता तथा प्रजापति दक्ष—ये सब के-सब हाथ जोड़कर बोले—‘देवदेव! कहिये, आप कौन हैं?’॥५०॥
मूलम् (वचनम्)
वीरभद्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं रुद्रो न वा देवी नैव भोक्तुमिहागतः ॥ ५१ ॥
देव्या मन्युकृतं मत्वा क्रुद्धः सर्वात्मकः प्रभुः।
मूलम्
नाहं रुद्रो न वा देवी नैव भोक्तुमिहागतः ॥ ५१ ॥
देव्या मन्युकृतं मत्वा क्रुद्धः सर्वात्मकः प्रभुः।
अनुवाद (हिन्दी)
वीरभद्रने कहा— ब्रह्मन्! मैं न तो रुद्र हूँ, न देवी हूँ और न यहाँ भोजन करनेके लिये ही आया हूँ। तुम्हारा यह यज्ञ देवी पार्वतीके रोषका कारण बन गया है—ऐसा जानकर सर्वात्मा भगवान् शिव कुपित हो उठे हैं॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रष्टुं वा नैव विप्रेन्द्रान् नैव कौतूहलेन वा ॥ ५२ ॥
तव यज्ञविघातार्थं सम्प्राप्तं विद्धि मामिह।
मूलम्
द्रष्टुं वा नैव विप्रेन्द्रान् नैव कौतूहलेन वा ॥ ५२ ॥
तव यज्ञविघातार्थं सम्प्राप्तं विद्धि मामिह।
अनुवाद (हिन्दी)
मैं यहाँ आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका दर्शन करने या कौतूहलवश इस यज्ञका तमाशा देखनेके लिये नहीं आया हूँ। तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैं तुम्हारे इस यज्ञका विनाश करनेके लिये ही यहाँ आया हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरभद्र इति ख्यातों रुद्रकोपाद् विनिःसृतः ॥ ५३ ॥
भद्रकालीति विख्याता देव्याः कोपाद् विनिःसृता।
प्रेषितौ देवदेवेन यज्ञान्तिकमिहागतौ ॥ ५४ ॥
मूलम्
वीरभद्र इति ख्यातों रुद्रकोपाद् विनिःसृतः ॥ ५३ ॥
भद्रकालीति विख्याता देव्याः कोपाद् विनिःसृता।
प्रेषितौ देवदेवेन यज्ञान्तिकमिहागतौ ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा नाम वीरभद्र है। रुद्रदेवके क्रोधसे मेरा प्राकटय हुआ है। यह नारी भद्रकालीके नामसे विख्यात है और देवी पार्वतीके कोपसे प्रकट हुई है। देवाधिदेव महादेवने हम दोनोंको यहाँ भेजा है। इसलिये हम दोनों इस यज्ञके निकट आये हैं॥५३-५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरणं गच्छ विप्रेन्द्र देवदेवमुमापतिम्।
वरं क्रोधोऽपि देवस्य वरदानं न चान्यतः ॥ ५५ ॥
मूलम्
शरणं गच्छ विप्रेन्द्र देवदेवमुमापतिम्।
वरं क्रोधोऽपि देवस्य वरदानं न चान्यतः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! तुम देवाधिदेव उमावल्लभ भगवान् शिवकी शरणमें जाओ। महादेवजीका क्रोध भी परम मंगलमय है और दूसरोंसे मिला हुआ वरदान भी मंगलकारक नहीं होता॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरभद्रवचः श्रुत्वा दक्षो धर्मभृतां वरः।
तोषयामास स्तोत्रेण प्रणिपत्य महेश्वरम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
वीरभद्रवचः श्रुत्वा दक्षो धर्मभृतां वरः।
तोषयामास स्तोत्रेण प्रणिपत्य महेश्वरम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरभद्रकी यह बात सुनकर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ दक्षने भगवान् शिवके उद्देश्यसे प्रणाम करके निम्नांकित स्तोत्रके द्वारा उनकी स्तुति की—॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रपद्ये देवमीशानं शाश्वतं ध्रुवमव्ययम्।
महादेवं महात्मानं विश्वस्य जगतः पतिम् ॥ ५७ ॥
मूलम्
प्रपद्ये देवमीशानं शाश्वतं ध्रुवमव्ययम्।
महादेवं महात्मानं विश्वस्य जगतः पतिम् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सम्पूर्ण जगत्के शासक, पालक, महान् आत्मा, नित्य, सनातन, अविकारी और आराध्यदेव हैं, उन महादेवजीकी आज मैं शरण लेता हूँ’॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणापानौ संनिरुध्य वक्त्रस्थानेन यत्नतः।
विचार्य सर्वतो दृष्टिं बहुदृष्टिरमित्रजित् ॥ ५८ ॥
सहसा देवदेवेशो ह्यग्निकुण्डात् समुत्थितः।
बिभ्रत्सूर्यसहस्रस्य तेजः संवर्तकोपमः ॥ ५९ ॥
स्मितं कृत्वाब्रवीद् वाक्यं ब्रूहि किं करवाणि ते।
मूलम्
प्राणापानौ संनिरुध्य वक्त्रस्थानेन यत्नतः।
विचार्य सर्वतो दृष्टिं बहुदृष्टिरमित्रजित् ॥ ५८ ॥
सहसा देवदेवेशो ह्यग्निकुण्डात् समुत्थितः।
बिभ्रत्सूर्यसहस्रस्य तेजः संवर्तकोपमः ॥ ५९ ॥
स्मितं कृत्वाब्रवीद् वाक्यं ब्रूहि किं करवाणि ते।
अनुवाद (हिन्दी)
तब अनेक नेत्रोंवाले, शत्रुविजयी, महादेव अपने मुखोंद्वारा यत्नपूर्वक प्राण और अपान वायुको अवरुद्ध करके सम्पूर्ण दिशाओंमें दृष्टिपात करते हुए सहसा अग्निकुण्डसे निकल पड़े। प्रलयकालीन अग्निके समान तेजस्वी स्वरूपसे सहस्रों सूर्योंकी प्रभा धारण किये वे दक्षके सामने खड़े हो गये और मुसकराकर बोले—‘प्रजापते! बोलो, मैं आज तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ’॥५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्राविते च मखाध्याये देवानां गुरुणा ततः ॥ ६० ॥
तमुवाचाञ्जलिं कृत्वा दक्षो देवं प्रजापतिः।
भीतशङ्कितवित्रस्तः सबाष्पवदनेक्षणः ॥ ६१ ॥
यदि प्रसन्नो भगवान् यदि चाहं भवत्प्रियः।
यदि वाहमनुग्राह्यो यदि वा वरदो मम ॥ ६२ ॥
यद् दग्धं भक्षितं पीतमशितं यच्च नाशितम्।
चूर्णीकृतापविद्धं च यज्ञसम्भारमीदृशम् ॥ ६३ ॥
दीर्घकालेन महता प्रयत्नेन सुसंचितम्।
तन्न मिथ्या भवेन्मह्यं वरमेतमहं वृणे ॥ ६४ ॥
मूलम्
श्राविते च मखाध्याये देवानां गुरुणा ततः ॥ ६० ॥
तमुवाचाञ्जलिं कृत्वा दक्षो देवं प्रजापतिः।
भीतशङ्कितवित्रस्तः सबाष्पवदनेक्षणः ॥ ६१ ॥
यदि प्रसन्नो भगवान् यदि चाहं भवत्प्रियः।
यदि वाहमनुग्राह्यो यदि वा वरदो मम ॥ ६२ ॥
यद् दग्धं भक्षितं पीतमशितं यच्च नाशितम्।
चूर्णीकृतापविद्धं च यज्ञसम्भारमीदृशम् ॥ ६३ ॥
दीर्घकालेन महता प्रयत्नेन सुसंचितम्।
तन्न मिथ्या भवेन्मह्यं वरमेतमहं वृणे ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय देवगुरु बृहस्पतिने महादेवजीको वेदका मखाध्याय पढ़कर सुनाया। तत्पश्चात् प्रजापति दक्ष दोनों नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहाते हुए हाथ जोड़कर भय और शंकासे सहमे हुए-से बोले—‘भगवन्! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं, यदि मैं आपका प्रिय हूँ, आपके अनुग्रहका पात्र हूँ अथवा यदि आप मुझे वर देनेको उद्यत हैं तो मैं यही वर माँगता हूँ कि मैंने दीर्घकालसे महान् प्रयत्न करके जो ऐसा यज्ञ-सम्भार जुटा रखा था, उसमेंसे जो चला दिया गया, खा-पी लिया गया, नष्ट किया गया अथवा चूर-चूर करके फेंक दिया गया, वह सब मेरे लिये व्यर्थ न हो’॥६०—६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथास्त्वित्याह भगवान् भगनेत्रहरो हरः।
धर्माध्यक्षो विरूपाक्षस्त्र्यक्षो देवः प्रजापतिः ॥ ६५ ॥
मूलम्
तथास्त्वित्याह भगवान् भगनेत्रहरो हरः।
धर्माध्यक्षो विरूपाक्षस्त्र्यक्षो देवः प्रजापतिः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब धर्मके अध्यक्ष, प्रजापालक, विरूपाक्ष, त्रिनेत्रधारी, भगनेत्रहारी देवेश्वर भगवान् हरने ‘तथास्तु’ कहकर दक्षको मनोवांछित वर दे दिया॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानुभ्यामवनीं गत्वा दक्षो लब्ध्या भवाद् वरम्।
नाम्नामष्टसहस्रेण स्तुतवान् वृषभध्वजम् ॥ ६६ ॥
मूलम्
जानुभ्यामवनीं गत्वा दक्षो लब्ध्या भवाद् वरम्।
नाम्नामष्टसहस्रेण स्तुतवान् वृषभध्वजम् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महादेवजीसे वर पाकर दक्षने धरतीपर घुटने टेककर उन्हें प्रणाम किया और एक हजार आठ नामोंद्वारा उन भगवान् वृषभध्वजका स्तवन किया॥६६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैर्नामधेयैः स्तुतवान् दक्षो देवं प्रजापतिः।
वक्तुमर्हसि मे तात श्रीतुं श्रद्धा ममानघ ॥ ६७ ॥
मूलम्
यैर्नामधेयैः स्तुतवान् दक्षो देवं प्रजापतिः।
वक्तुमर्हसि मे तात श्रीतुं श्रद्धा ममानघ ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— तात! निष्पाप पितामह! प्रजापति दक्षने जिन नामोंद्वारा महादेवजीकी स्तुति की थी, उनका मुझसे वर्णन कीजिये। उन्हें सुननेके लिये मेरे हृदयमें बड़ी श्रद्धा है॥६७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयतां देवदेवस्य नामान्यद्भुतकर्मणः ।
गूढव्रतस्य गुह्यानि प्रकाशानि च भारत ॥ ६८ ॥
मूलम्
श्रूयतां देवदेवस्य नामान्यद्भुतकर्मणः ।
गूढव्रतस्य गुह्यानि प्रकाशानि च भारत ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— भरतनन्दन! अद्भुत कर्म करनेवाले गूढ व्रतधारी देवाधिदेव महादेवजीके कुछ नाम गोपनीय हैं और कुछ प्रकाशित हैं। तुम उन सबको सुनो॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते देवदेवेश देवारिबलसूदन ।
देवेन्द्रबलविष्टम्भ देवदानवपूजित ॥ ६९ ॥
मूलम्
नमस्ते देवदेवेश देवारिबलसूदन ।
देवेन्द्रबलविष्टम्भ देवदानवपूजित ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दक्ष बोले)—देवदेवेश्वर! आपको नमस्कार है। आप देववैरी दानवोंकी सेनाके संहारक और देवराज इन्द्रकी शक्तिको भी स्तम्भित करनेवाले हैं। देवता और दानव—सबने आपकी पूजा की है॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्राक्ष विरूपाक्ष त्र्यक्ष यक्षाधिपप्रिय।
सर्वतःपाणिपादान्त सर्वतोऽक्षिशिरोमुख ॥ ७० ॥
मूलम्
सहस्राक्ष विरूपाक्ष त्र्यक्ष यक्षाधिपप्रिय।
सर्वतःपाणिपादान्त सर्वतोऽक्षिशिरोमुख ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सहस्रों नेत्रोंसे युक्त होनेके कारण सहस्राक्ष हैं। आपकी इन्द्रियाँ सबसे विलक्षण अर्थात् परोक्ष विषयको भी प्रत्यक्ष करनेवाली हैं, इसलिये आपको विरूपाक्ष कहते हैं। आप त्रिनेत्रधारी होनेके कारण त्र्यक्ष कहलाते हैं। यक्षराज कुबेरके भी आप प्रिय (इष्टदेव) हैं। आपके सब ओर हाथ और पैर हैं तथा सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वतःश्रुतिमल्ँलोके सर्वमावृत्य तिष्ठसि ।
शंकुकर्ण महाकर्ण कुम्भकर्णार्णवालय ॥ ७१ ॥
गजेन्द्रकर्ण गोकर्ण पाणिकर्ण नमोऽस्तु ते।
मूलम्
सर्वतःश्रुतिमल्ँलोके सर्वमावृत्य तिष्ठसि ।
शंकुकर्ण महाकर्ण कुम्भकर्णार्णवालय ॥ ७१ ॥
गजेन्द्रकर्ण गोकर्ण पाणिकर्ण नमोऽस्तु ते।
अनुवाद (हिन्दी)
आपके कान भी सब ओर हैं। संसारमें जो कुछ है, सबको व्याप्त करके आप स्थित हैं। शंकुकर्ण, महाकर्ण, कुम्भकर्ण, अर्णवालय, गजेन्द्रकर्ण, गोकर्ण और पाणिकर्ण—ये सात पार्षद् आपके ही स्वरूप हैं। इन सबके रूपमें आपको नमस्कार है॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतोदर शतावर्त शतजिह्व नमोऽस्तु ते ॥ ७२ ॥
गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः ।
ब्रह्माणं त्वा शतक्रतुमूर्ध्वं खमिव मेनिरे ॥ ७३ ॥
मूलम्
शतोदर शतावर्त शतजिह्व नमोऽस्तु ते ॥ ७२ ॥
गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः ।
ब्रह्माणं त्वा शतक्रतुमूर्ध्वं खमिव मेनिरे ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके सैकड़ों उदर, सैकड़ों आवर्त और सैकड़ों जिह्वाएँ होनेके कारण आप क्रमशः शतोदर, शतावर्त और शतजिह्व नामसे प्रसिद्ध हैं। आपको प्रणाम है। गायत्री-मन्त्रका जप करनेवाले द्विज आपकी ही महिमाका गान करते हैं और सूर्योपासक सूर्यके रूपमें आपकी ही आराधना करते हैं। ऋषिगण आपको ही ब्रह्मा, शतक्रतु इन्द्र और आकाशके समान सर्वोच्च पद मानते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्तौ हि ते महामूर्ते समुद्राम्बरसंनिभ।
सर्वा वै देवता ह्यस्मिन् गावो गोष्ठ इवासते ॥ ७४ ॥
मूलम्
मूर्तौ हि ते महामूर्ते समुद्राम्बरसंनिभ।
सर्वा वै देवता ह्यस्मिन् गावो गोष्ठ इवासते ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्र और आकाशके समान अपार, अनन्त रूप धारण करनेवाले महामूर्तिधारी महेश्वर! जैसे गोशालामें गौएँ निवास करती हैं, उसी प्रकार आपकी भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा एवं यजमानरूप आठ प्रकारकी मूर्तियोंमें सम्पूर्ण देवताओंका निवास है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवच्छरीरे पश्यामि सोममग्निं जलेश्वरम्।
आदित्यमथ वै विष्णुं ब्रह्माणं च बृहस्पतिम् ॥ ७५ ॥
मूलम्
भवच्छरीरे पश्यामि सोममग्निं जलेश्वरम्।
आदित्यमथ वै विष्णुं ब्रह्माणं च बृहस्पतिम् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपके शरीरमें सोम, अग्नि, वरुण, सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा तथा बृहस्पतिको भी देख रहा हूँ॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवान् कारणं कार्यं क्रिया करणमेव च।
असतश्च सतश्चैव तथैव प्रभवाप्ययौ ॥ ७६ ॥
मूलम्
भगवान् कारणं कार्यं क्रिया करणमेव च।
असतश्च सतश्चैव तथैव प्रभवाप्ययौ ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही कारण, कार्य, क्रिया (प्रयत्न) और करण हैं। सत् और असत् पदार्थोंकी उत्पत्ति और प्रलयके स्थान भी आप ही हैं॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च।
पशूनां पतये नित्यं नमोऽस्त्वन्धकघातिने ॥ ७७ ॥
मूलम्
नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च।
पशूनां पतये नित्यं नमोऽस्त्वन्धकघातिने ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सबके उद्भवका स्थान होनेसे भव, संहार करनेके कारण शर्व, ‘रु’ अर्थात् पाप एवं दुःखको दूर करनेसे रुद्र, वरदाता होनेसे वरद तथा पशुओं (जीवों) के पालक होनेके कारण सदा पशुपति कहलाते हैं। आपने ही अन्धकासुरका वध किया है, इसलिये आपका नाम अन्धकघाती है। आपको बारंबार नमस्कार है॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिजटाय त्रिशीर्षाय त्रिशूलवरपाणिने ।
त्र्यम्बकाय त्रिनेत्राय त्रिपुरघ्नाय वै नमः ॥ ७८ ॥
मूलम्
त्रिजटाय त्रिशीर्षाय त्रिशूलवरपाणिने ।
त्र्यम्बकाय त्रिनेत्राय त्रिपुरघ्नाय वै नमः ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप तीन जटा और तीन मस्तक धारण करनेवाले हैं। आपके हाथमें श्रेष्ठ त्रिशूल शोभा पाता है। आप त्र्यम्बक, त्रिनेत्रधारी तथा त्रिपुरासुरका विनाश करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमश्चण्डाय कुण्डाय अण्डायाण्डधराय च।
दण्डिने समकर्णाय दण्डिमुण्डाय वै नमः ॥ ७९ ॥
मूलम्
नमश्चण्डाय कुण्डाय अण्डायाण्डधराय च।
दण्डिने समकर्णाय दण्डिमुण्डाय वै नमः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप दुष्टोंपर अत्यन्त क्रोध करनेके कारण चण्ड हैं। कुण्डमें जलकी भाँति आपके उदरमें सम्पूर्ण जगत् स्थित है, इसलिये आपको कुण्ड कहते हैं। आप अण्ड (ब्रह्माण्ड स्वरूप) और अण्डधर (ब्रह्माण्डको धारण करनेवाले) हैं। आप दण्डधारी (सबको दण्ड देनेवाले) और समकर्ण (सबकी समान रूपसे सुननेवाले) हैं। दण्डधारण करके मूँड़ मुँड़ानेवाले संन्यासी भी आपके ही स्वरूप हैं, इसलिये आपका नाम दण्डिमुण्ड है। आपको नमस्कार है॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोर्ध्वदंष्ट्रकेशाय शुक्लायावतताय च ।
विलोहिताय धूम्राय नीलग्रीवाय वै नमः ॥ ८० ॥
मूलम्
नमोर्ध्वदंष्ट्रकेशाय शुक्लायावतताय च ।
विलोहिताय धूम्राय नीलग्रीवाय वै नमः ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी दाढें बड़ी-बड़ी और सिरके बाल ऊपरकी ओर उठे हुए हैं, इसलिये आप ऊर्ध्वदंष्ट्र तथा ऊर्ध्वकेश कहलाते हैं। आप ही शुक्ल (विशुद्ध ब्रह्म) और आप ही अवतत (जगत्के रूपमें विस्तृत) हैं। आप रजोगुणको अपनानेपर विलोहित और तमोगुणका आश्रय लेनेपर धूम्र कहलाते हैं। आपकी ग्रीवामें नीले रंगका चिह्न है, इसलिये आपको नीलग्रीव कहते हैं। आपको नमस्कार है॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोऽस्त्वप्रतिरूपाय विरूपाय शिवाय च।
सूर्याय सूर्यमालाय सूर्यध्वजपताकिने ॥ ८१ ॥
मूलम्
नमोऽस्त्वप्रतिरूपाय विरूपाय शिवाय च।
सूर्याय सूर्यमालाय सूर्यध्वजपताकिने ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके रूपकी कहीं भी समता नहीं है, इसलिये आप अप्रतिरूप हैं। विविध रूप धारण करनेके कारण आपका नाम विरूप है। आप ही परम कल्याणकारी शिव हैं। आप ही सूर्य हैं, आप ही सूर्यमण्डलके भीतर सुशोभित होते हैं। आप अपनी ध्वजा और पताकापर सूर्यका चिह्न धारण करते हैं। आपको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः प्रमथनाथाय वृषस्कन्धाय धन्विने।
शत्रुंदमाय दण्डाय पर्णचीरपटाय च ॥ ८२ ॥
मूलम्
नमः प्रमथनाथाय वृषस्कन्धाय धन्विने।
शत्रुंदमाय दण्डाय पर्णचीरपटाय च ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप प्रमथगणोंके अधीश्वर हैं। वृषभके कंधोंके समान आपके कंधे भरे हुए हैं। आप पिनाक धनुष धारण करते हैं। शत्रुओंका दमन करनेवाले और दण्डस्वरूप हैं। किरात या तपस्वीके रूपमें विचरते समय आप भोजपत्र और वल्कलवस्त्र धारण करते हैं। आपको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो हिरण्यगर्भाय हिरण्यकवचाय च।
हिरण्यकृतचूडाय हिरण्यपतये नमः ॥ ८३ ॥
मूलम्
नमो हिरण्यगर्भाय हिरण्यकवचाय च।
हिरण्यकृतचूडाय हिरण्यपतये नमः ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हिरण्य (सुवर्ण) को उत्पन्न करनेके कारण हिरण्यगर्भ कहलाते हैं। सुवर्णके ही कवच और मुकुट धारण करनेसे आपको हिरण्यकवच और हिरण्यचूड कहा गया है। आप सुवर्णके अधिपति हैं। आपको सादर नमस्कार है॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः स्तुताय स्तुत्याय स्तूयमानाय वै नमः।
सर्वाय सर्वभक्षाय सर्वभूतान्तरात्मने ॥ ८४ ॥
मूलम्
नमः स्तुताय स्तुत्याय स्तूयमानाय वै नमः।
सर्वाय सर्वभक्षाय सर्वभूतान्तरात्मने ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी स्तुति हो चुकी है, वे आप हैं। जो स्तुतिके योग्य हैं, वे भी आप हैं और जिनकी स्तुति हो रही है, वे भी आप ही हैं। आप सर्वस्वरूप, सर्वभक्षी और सम्पूर्ण भूतोंके अन्तरात्मा हैं। आपको बारंबार नमस्कार है॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो होत्रेऽथ मन्त्राय शुक्लध्वजपताकिने।
नमो नाभाय नाभ्याय नमः कटकटाय च ॥ ८५ ॥
मूलम्
नमो होत्रेऽथ मन्त्राय शुक्लध्वजपताकिने।
नमो नाभाय नाभ्याय नमः कटकटाय च ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही होता और मन्त्र हैं। आपको नमस्कार है। आपकी ध्वजा और पताकाका रंग श्वेत है। आपको नमस्कार है। आप नाभ (नाभिमें सम्पूर्ण जगत्को धारण करनेवाले), नाभ्य (संसार-चक्रके नाभि-स्थान) तथा कट-कट (आवरणके भी आवरण) हैं। आपको नमस्कार है॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोऽस्तु कृशनासाय कृशाङ्गाय कृशाय च।
संहृष्टाय विहृष्टाय नमः किलकिलाय च ॥ ८६ ॥
मूलम्
नमोऽस्तु कृशनासाय कृशाङ्गाय कृशाय च।
संहृष्टाय विहृष्टाय नमः किलकिलाय च ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी नासिका कृश (पतली) है, इसलिये आप कृशनस कहलाते हैं। आपके अवयव कृश होनेसे आपको कृशांग तथा शरीर दुबला होनेसे कृश कहते हैं। आप अत्यन्त हर्षोल्लाससे परिपूर्ण, विशेष हर्षका अनुभव करनेवाले और हर्षकी किल-किल ध्वनि हैं। आपको नमस्कार है॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोऽस्तु शयमानाय शयितायोत्थिताय च।
स्थिताय धावमानाय मुण्डाय जटिलाय च ॥ ८७ ॥
मूलम्
नमोऽस्तु शयमानाय शयितायोत्थिताय च।
स्थिताय धावमानाय मुण्डाय जटिलाय च ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप समस्त प्राणियोंके भीतर शयन करनेवाले अन्तर्यामी पुरुष हैं। प्रलयकालमें योगनिद्राका आश्रय लेकर सोते और सृष्टिके प्रारम्भकालमें कल्पान्त निद्रासे जागते हैं। आप ब्रह्मरूपसे सर्वत्र स्थित और कालरूपसे सदा दौड़नेवाले हैं। मूँड़ मुँड़ानेवाले संन्यासी और जटाधारी तपस्वी भी आपके ही स्वरूप हैं। आपको नमस्कार है॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो नर्तनशीलाय मुखवादित्रवादिने ।
नाद्योपहारलुब्धाय गतिवादित्रशालिने ॥ ८८ ॥
मूलम्
नमो नर्तनशीलाय मुखवादित्रवादिने ।
नाद्योपहारलुब्धाय गतिवादित्रशालिने ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका ताण्डव-नृत्य बराबर चलता रहता है। आप मुखसे शृंगी आदि बाजे बजानेमें कुशल हैं। कमलपुष्पकी भेंट लेनेके लिये सदा उत्सुक रहते हैं। गाने और बजानेकी कलामें तत्पर रहकर आप बड़ी शोभा पाते हैं। आपको प्रणाम है॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो ज्येष्ठाय श्रेष्ठाय बलप्रमथनाय च।
कालनाथाय कल्याय क्षयायोपक्षयाय च ॥ ८९ ॥
मूलम्
नमो ज्येष्ठाय श्रेष्ठाय बलप्रमथनाय च।
कालनाथाय कल्याय क्षयायोपक्षयाय च ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अवस्थामें सबसे ज्येष्ठ और गुणोंमें भी सबसे श्रेष्ठ हैं। आपने बल नामक दैत्यको इन्द्ररूपसे मथ डाला था। आप कालके भी नियन्ता और सर्वशक्तिमान् हैं। महाप्रलय और अवान्तर-प्रलय भी आप ही हैं। आपको नमस्कार है॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमदुन्दुभिहासाय भीमव्रतधराय च ।
उग्राय च नमो नित्यं नमोऽस्तु दशबाहवे ॥ ९० ॥
मूलम्
भीमदुन्दुभिहासाय भीमव्रतधराय च ।
उग्राय च नमो नित्यं नमोऽस्तु दशबाहवे ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आपका अट्टहास भयंकर शब्द करनेवाली दुन्दुभिके समान जान पड़ता है। आप भीषण व्रतको धारण करनेवाले हैं। दस भुजाओंसे सुशोभित होनेवाले उग्ररूपधारी आपको मेरा नित्य बारंबार नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमःकपालहस्ताय चितिभस्मप्रियाय च ।
विभीषणाय भीष्माय भीमव्रतधराय च ॥ ९१ ॥
मूलम्
नमःकपालहस्ताय चितिभस्मप्रियाय च ।
विभीषणाय भीष्माय भीमव्रतधराय च ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके हाथमें कपाल है। चिताका भस्म आपको बहुत प्रिय है। आप सबको भयभीत करनेवाले और स्वयं निर्भय हैं तथा शम-दम आदि तीक्ष्ण व्रतोंको धारण करते हैं। आपको नमस्कार है॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो विकृतवक्त्राय खड्गजिह्वाय दंष्ट्रिणे।
पक्वाममांसलुब्धाय तुम्बीवीणाप्रियाय च ॥ ९२ ॥
मूलम्
नमो विकृतवक्त्राय खड्गजिह्वाय दंष्ट्रिणे।
पक्वाममांसलुब्धाय तुम्बीवीणाप्रियाय च ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका मुख विकृत है। जिह्वा खड्गके समान है। आपका मुख दाढ़ोंसे सुशोभित होता है। आप कच्चे-पक्के फलोंके गुद्देके लिये लुभायमान रहते हैं। तुम्बी और वीणा आपको विशेष प्रिय हैं। आपको प्रणाम है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो वृषाय वृष्याय गोवृषाय वृषाय च।
कटंकटाय दण्डाय नमः पचपचाय च ॥ ९३ ॥
मूलम्
नमो वृषाय वृष्याय गोवृषाय वृषाय च।
कटंकटाय दण्डाय नमः पचपचाय च ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप वृष (वृष्टिकर्ता), वृष्य (धर्मकी वृद्धि करनेवाले), गोवृष (नन्दी) और वृष (धर्म) आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। कटंकट (नित्य गतिशील), दण्ड (शासक) और पचपच (सम्पूर्ण भूतोंको पचानेवाला काल) भी आपके ही नाम हैं। आपको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः सर्ववरिष्ठाय वराय वरदाय च।
वरमाल्यगन्धवस्त्राय वरातिवरदे नमः ॥ ९४ ॥
मूलम्
नमः सर्ववरिष्ठाय वराय वरदाय च।
वरमाल्यगन्धवस्त्राय वरातिवरदे नमः ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सबसे श्रेष्ठ वरस्वरूप और वरदाता हैं। उत्तम वस्त्र, माल्य और गन्ध धारण करते हैं तथा भक्तको इच्छानुसार एवं उससे भी अधिक वर देनेवाले हैं। आपको प्रणाम है॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो रक्तविरक्ताय भावनायाक्षमालिने ।
सम्भिन्नाय विभिन्नाय छायायातपनाय च ॥ ९५ ॥
मूलम्
नमो रक्तविरक्ताय भावनायाक्षमालिने ।
सम्भिन्नाय विभिन्नाय छायायातपनाय च ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रागी और विरागी—दोनों जिनके स्वरूप हैं, जो ध्यानपरायण, रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाले, कारण-रूपसे सबमें व्याप्त और कार्यरूपसे पृथक्-पृथक् दिखायी देनेवाले हैं तथा जो सम्पूर्ण जगत्को छाया और धूप प्रदान करते हैं, उन भगवान् शंकरको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अघोरघोररूपाय घोरघोरतराय च ।
नमः शिवाय शान्ताय नमः शान्ततमाय च ॥ ९६ ॥
मूलम्
अघोरघोररूपाय घोरघोरतराय च ।
नमः शिवाय शान्ताय नमः शान्ततमाय च ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अघोर, घोर और घोरसे भी घोरतर रूप धारण करनेवाले हैं तथा जो शिव, शान्त एवं परमशान्तरूप हैं, उन भगवान् शंकरको मेरा बारंबार नमस्कार है॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकपाद्वहुनेत्राय एकशीर्ष्णे नमोऽस्तु ते।
रुद्राय क्षुद्रलुब्धाय संविभागप्रियाय च ॥ ९७ ॥
मूलम्
एकपाद्वहुनेत्राय एकशीर्ष्णे नमोऽस्तु ते।
रुद्राय क्षुद्रलुब्धाय संविभागप्रियाय च ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक पाद, अनेक नेत्र और एक मस्तकवाले आपको प्रणाम है। भक्तोंकी दी हुई छोटी-से-छोटी वस्तुके लिये भी लालायित रहनेवाले और उसके बदलेमें उन्हें अपार धनराशि बाँट देनेकी रुचि रखनेवाले आप भगवान् रुद्रको नमस्कार है॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चालाय सिताङ्गाय नमः शमशमाय च।
नमश्चण्डिकघण्टाय घण्टायाघण्टघण्टिने ॥ ९८ ॥
मूलम्
पञ्चालाय सिताङ्गाय नमः शमशमाय च।
नमश्चण्डिकघण्टाय घण्टायाघण्टघण्टिने ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इस विश्वका निर्माण करनेवाले कारीगर, गौरवर्णके शरीरवाले तथा सदा शान्तरूपसे रहनेवाले हैं, जिनकी घण्टाध्वनि शत्रुओंको भयभीत कर देती है तथा जो स्वयं ही घण्टानाद और अनाहतध्वनिके रूपमें श्रवण-गोचर होते हैं उन महेश्वरको प्रणाम है॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्राध्मातघण्टाय घण्टामालाप्रियाय च ।
प्राणघण्टाय गन्धाय नमः कलकलाय च ॥ ९९ ॥
मूलम्
सहस्राध्मातघण्टाय घण्टामालाप्रियाय च ।
प्राणघण्टाय गन्धाय नमः कलकलाय च ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके मन्दिरमें लगे हुए घण्टोंको सहस्रों आदमी बजाते हैं, घण्टोंकी माला जिन्हें प्रिय है, जिनके प्राण ही घण्टाके समान ध्वनि करते हैं, जो ग्रन्थ और कोलाहलरूप हैं, उन भगवान् शिवको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हूंहूंहूंकारपाराय हूंहूंकारप्रियाय च ।
नमः शमशमे नित्यं गिरिवृक्षालयाय च ॥ १०० ॥
मूलम्
हूंहूंहूंकारपाराय हूंहूंकारप्रियाय च ।
नमः शमशमे नित्यं गिरिवृक्षालयाय च ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप हूं (क्रोध), हूं (हिंकार), हूं (आकाश, सूर्य और ईश्वर)—इन सबसे परे विद्यमान शान्तस्वरूप परब्रह्म हैं, ‘हूं’ हूं’ करना आपको प्रिय लगता है, आप ‘शान्त रहो’ शान्त रहो’ ऐसा कहकर सदा सबको आश्वासन देनेवाले हैं तथा पर्वतोंपर और वृक्षोंके नीचे निवास करते हैं। आपको प्रणाम है॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्भमांससृगालाय तारकाय तराय च।
नमो यज्ञाय यजिने हुताय प्रहुताय च ॥ १०१ ॥
मूलम्
गर्भमांससृगालाय तारकाय तराय च।
नमो यज्ञाय यजिने हुताय प्रहुताय च ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप फलके भीतरके गुद्देरूप मांसके प्रलोभी शृगालरूप हैं। आप ही सबको तारनेवाले तथा तरण-तारणके साधन हैं। आप ही यज्ञ और आप ही यजमान हैं। आप ही हुत (हवन) और आप ही प्रहुत (अग्नि) हैं। आपको नमस्कार है॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञवाहाय दान्ताय तप्यायातपनाय च।
नमस्तटाय तट्याय तटानां पतये नमः ॥ १०२ ॥
मूलम्
यज्ञवाहाय दान्ताय तप्यायातपनाय च।
नमस्तटाय तट्याय तटानां पतये नमः ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही यज्ञके निर्वाहक अथवा उसे सब देवताओंतक पहुँचानेवाले अग्निदेव हैं। आप मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले हैं। आप ही भक्तोंका कष्ट देखकर संतप्त होनेवाले तथा शत्रुओंको संताप देनेवाले हैं। आप ही तट हैं। आप ही तटवर्ती नदी आदि हैं तथा आप ही तटोंके पालक हैं। आपको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नदायान्नपतये नमस्त्वन्नभुजे तथा ।
नमः सहस्रशीर्षाय सहस्रचरणाय च ॥ १०३ ॥
मूलम्
अन्नदायान्नपतये नमस्त्वन्नभुजे तथा ।
नमः सहस्रशीर्षाय सहस्रचरणाय च ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही अन्नदाता, अन्नपति और अन्नके भोक्ता हैं। आपके सहस्रों मस्तक और सहस्रों चरण हैं। आपको बारंबार प्रणाम है॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रोद्यतशूलाय सहस्रनयनाय च ।
नमो बालार्कवर्णाय बालरूपधराय च ॥ १०४ ॥
मूलम्
सहस्रोद्यतशूलाय सहस्रनयनाय च ।
नमो बालार्कवर्णाय बालरूपधराय च ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अपने सहस्रों हाथोंमें सहस्रों शूल लिये रहते हैं। आपके सहस्रों नेत्र हैं। आपकी अंगकान्ति प्रातःकालीन सूर्यके समान देदीप्यमान है। आप बालकरूप धारण करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालानुचरगोप्ताय बालक्रीडनकाय च ।
नमो वृद्धाय लुब्धाय क्षुब्धाय क्षोभणाय च ॥ १०५ ॥
मूलम्
बालानुचरगोप्ताय बालक्रीडनकाय च ।
नमो वृद्धाय लुब्धाय क्षुब्धाय क्षोभणाय च ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप श्रीकृष्णरूपसे संगी-साथी बालकोंके रक्षक तथा बालकोंके साथ खेल करनेवाले हैं। आप सबकी अपेक्षा वृद्ध हैं। भक्ति और प्रेमके लोभी हैं। दुष्टोंके पापाचारसे क्षुब्ध हो उठते है और दुराचारियोंको क्षोभमें डालनेवाले हैं। आपको नमस्कार है॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरङ्गाङ्कितकेशाय मुञ्जकेशाय वै नमः।
नमः षट्कर्मतुष्टाय त्रिकर्मनिरताय च ॥ १०६ ॥
मूलम्
तरङ्गाङ्कितकेशाय मुञ्जकेशाय वै नमः।
नमः षट्कर्मतुष्टाय त्रिकर्मनिरताय च ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके केश गंगाके तरंगोंसे अंकित तथा मुञ्जके समान हैं। आपको नमस्कार है। आप ब्राह्मणोंके छः कर्म—अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन तथा दान और प्रतिग्रहसे संतुष्ट रहते हैं; स्वयं यजन, अध्ययन और दानरूप तीन कर्मोंमें ही तत्पर रहते हैं। आपको मेरा प्रणाम है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णाश्रमाणां विधिवत् पृथक्कर्मनिवर्तिने ।
नमो घुष्याय घोषाय नमः कलकलाय च ॥ १०७ ॥
मूलम्
वर्णाश्रमाणां विधिवत् पृथक्कर्मनिवर्तिने ।
नमो घुष्याय घोषाय नमः कलकलाय च ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप वर्ण और आश्रमोंके भिन्न-भिन्न कर्मोंका विधिवत् विभाग करनेवाले, जपनीय मन्त्ररूप, घोषस्वरूप तथा कोलाहलमय हैं। आपको बारंबार नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वेतपिङ्गलनेत्राय कृष्णरक्तेक्षणाय च ।
प्राणभग्नाय दण्डाय स्फोटनाय कृशाय च ॥ १०८ ॥
मूलम्
श्वेतपिङ्गलनेत्राय कृष्णरक्तेक्षणाय च ।
प्राणभग्नाय दण्डाय स्फोटनाय कृशाय च ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके नेत्र श्वेत पिङ्गलवर्णके हैं, काले और लाल रंगके हैं। आप प्राणवायु (श्वास)को जीतनेवाले, दण्ड (आयुध) रूप, ब्रह्माण्डरूपी घटको फोड़नेवाले तथा कृश-शरीरधारी हैं। आपको नमस्कार है॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मकामार्थमोक्षाणां कथनीयकथाय च ।
सांख्याय सांख्यमुख्याय सांख्ययोगप्रवर्तिने ॥ १०९ ॥
मूलम्
धर्मकामार्थमोक्षाणां कथनीयकथाय च ।
सांख्याय सांख्यमुख्याय सांख्ययोगप्रवर्तिने ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष देनेके विषयमें आपकी कीर्तिकथा वर्णन करनेके योग्य है। आप सांख्यस्वरूप, सांख्ययोगियोंमें प्रधान तथा सांख्यशास्त्रको प्रवृत्त करनेवाले हैं। आपको प्रणाम है॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो रथ्यविरथ्याय चतुष्पथरथाय च।
कृष्णाजिनोत्तरीयाय व्यालयज्ञोपवीतिने ॥ ११० ॥
मूलम्
नमो रथ्यविरथ्याय चतुष्पथरथाय च।
कृष्णाजिनोत्तरीयाय व्यालयज्ञोपवीतिने ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप रथपर बैठकर तथा बिना रथके भी घूमनेवाले हैं। जल, अग्नि, वायु तथा आकाश—इन चारों मार्गोंपर आपकी गति है। आप काले मृगचर्मको दुपट्टेकी भाँति ओढ़नेवाले तथा सर्पमय यज्ञोपवीत धारण करनेवाले हैं। आपको प्रणाम है॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईशान वज्रसंघात हरिकेश नमोऽस्तु ते।
त्र्यम्बकाम्बिकनाथाय व्यक्ताव्यक्त नमोऽस्तु ते ॥ १११ ॥
मूलम्
ईशान वज्रसंघात हरिकेश नमोऽस्तु ते।
त्र्यम्बकाम्बिकनाथाय व्यक्ताव्यक्त नमोऽस्तु ते ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ईशान! आपका शरीर वज्रके समान कठोर है। हरिकेश! आपको नमस्कार है। व्यक्ताव्यक्तस्वरूप परमेश्वर! आप त्रिनेत्रधारी तथा अम्बिकाके स्वामी हैं। आपको नमस्कार है॥१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम कामद कामघ्न तृप्तातृप्तविचारिणे।
सर्व सर्वद सर्वघ्न संध्याराग नमोऽस्तु ते ॥ ११२ ॥
मूलम्
काम कामद कामघ्न तृप्तातृप्तविचारिणे।
सर्व सर्वद सर्वघ्न संध्याराग नमोऽस्तु ते ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप कामस्वरूप, कामनाओंको पूर्ण करनेवाले, कामदेवके नाशक, तृप्त और अतृप्तका विचार करनेवाले, सर्वस्वरूप, सब कुछ देनेवाले, सबके संहारक और संध्याकालके समान रंगवाले हैं। आपको प्रणाम है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाबल महाबाहो महासत्त्व महाद्युते।
महामेघचयप्रख्य महाकाल नमोऽस्तु ते ॥ ११३ ॥
मूलम्
महाबल महाबाहो महासत्त्व महाद्युते।
महामेघचयप्रख्य महाकाल नमोऽस्तु ते ॥ ११३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबल! महाबाहो! महासत्त्व! महाद्युते! आप महान् मेघोंकी घटाके समान रंगवाले महाकालस्वरूप हैं। आपको नमस्कार है॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थूल जीर्णाङ्ग जटिले वल्कलाजिनधारिणे।
दीप्तसूर्याग्निजटिले वल्कलाजिनवाससे ।
सहस्रसूर्यप्रतिम तपोनित्य नमोऽस्तु ते ॥ ११४ ॥
मूलम्
स्थूल जीर्णाङ्ग जटिले वल्कलाजिनधारिणे।
दीप्तसूर्याग्निजटिले वल्कलाजिनवाससे ।
सहस्रसूर्यप्रतिम तपोनित्य नमोऽस्तु ते ॥ ११४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका श्रीविग्रह स्थूल और जीर्ण है। आप जटाधारी हैं। वल्कल और मृगचर्म धारण करते हैं। देदीप्यमान सूर्य और अग्निके समान ज्योतिर्मयी जटासे सुशोभित हैं। वल्कल और मृगचर्म ही आपके वस्त्र हैं। आप सहस्रों सूर्योंके समान प्रकाशमान और सदा तपस्यामें संलग्न रहनेवाले हैं। आपको नमस्कार है॥११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्मादन शतावर्त गङ्गातोयार्द्रमूर्धज ।
चन्द्रावर्त युगावर्त मेघावर्त नमोऽस्तु ते ॥ ११५ ॥
मूलम्
उन्मादन शतावर्त गङ्गातोयार्द्रमूर्धज ।
चन्द्रावर्त युगावर्त मेघावर्त नमोऽस्तु ते ॥ ११५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप जगत्को उन्माद (मोह)-में डालनेवाले हैं। आपके मस्तकपर गंगाजीकी सैकड़ों लहरें और भँवरें उठती रहती हैं। आपके केश सदा गंगाजलसे भीगे रहते हैं। आप चन्द्रमाको क्षय-वृद्धिके चक्करमें डालनेवाले हैं। आप ही युगोंकी पुनरावृत्ति करनेवाले और मेघोंके प्रवर्तक हैं। आपको नमस्कार है॥११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमन्नमन्नभोक्ता च अन्नदोऽन्नभुगेव च।
अन्नस्रष्टा च पक्ता च पक्वभुक्पवनोऽनलः ॥ ११६ ॥
मूलम्
त्वमन्नमन्नभोक्ता च अन्नदोऽन्नभुगेव च।
अन्नस्रष्टा च पक्ता च पक्वभुक्पवनोऽनलः ॥ ११६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही अन्न, अन्नके भोक्ता, अन्नदाता, अन्नका पालन करनेवाले, अन्नस्रष्टा, पाचक, पक्वान्नभोजी, प्राणवायु तथा जठरानलरूप हैं॥११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरायुजाण्डजाश्चैव स्वेदजाश्च तथोद्भिजाः ।
त्वमेव देवदेवेश भूतग्रामश्चतुर्विधः ॥ ११७ ॥
मूलम्
जरायुजाण्डजाश्चैव स्वेदजाश्च तथोद्भिजाः ।
त्वमेव देवदेवेश भूतग्रामश्चतुर्विधः ॥ ११७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवदेवेश्वर! जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज—ये चार प्रकारके प्राणिसमूह आप ही हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चराचरस्य स्रष्टा त्वं प्रतिहर्ता तथैव च।
त्वामाहुर्ब्रह्मविदुषो ब्रह्म ब्रह्मविदां वर ॥ ११८ ॥
मूलम्
चराचरस्य स्रष्टा त्वं प्रतिहर्ता तथैव च।
त्वामाहुर्ब्रह्मविदुषो ब्रह्म ब्रह्मविदां वर ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! आप ही चराचर जीवोंकी सृष्टि तथा संहार करनेवाले हैं। ब्रह्मज्ञानी पुरुष आपहीको ब्रह्म कहते हैं॥११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसः परमा योनिः खं वायुर्ज्योतिषां निधिः।
ऋक्सामानि तथोङ्कारमाहुस्त्वां ब्रह्मवादिनः ॥ ११९ ॥
मूलम्
मनसः परमा योनिः खं वायुर्ज्योतिषां निधिः।
ऋक्सामानि तथोङ्कारमाहुस्त्वां ब्रह्मवादिनः ॥ ११९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदवादी विद्वान् आपको ही मनका परम कारण, आकाश, वायु, तेजकी निधि, ऋक्, साम तथा ॐकार बताते हैं॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हायिहायिहुवाहायिहावुहायि तथाऽसकृत् ।
गायन्ति त्वां सुरश्रेष्ठ सामगा ब्रह्मवादिनः ॥ १२० ॥
मूलम्
हायिहायिहुवाहायिहावुहायि तथाऽसकृत् ।
गायन्ति त्वां सुरश्रेष्ठ सामगा ब्रह्मवादिनः ॥ १२० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरश्रेष्ठ! सामगान करनेवाले वेदवेत्ता पुरुष ‘हा ३ यि, हा ३ यि, हू ३ वा, हा ३ यि, हा ३ वु, हा ३ यि’ आदिका बारंबार उच्चारण करके निरन्तर आपकी ही महिमाका गान करते हैं॥१२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजुर्मयो ऋङ्मयश्च त्वमाहुतिमयस्तथा ।
पठ्यसे स्तुतिभिश्चैव वेदोपनिषदां गणैः ॥ १२१ ॥
मूलम्
यजुर्मयो ऋङ्मयश्च त्वमाहुतिमयस्तथा ।
पठ्यसे स्तुतिभिश्चैव वेदोपनिषदां गणैः ॥ १२१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यजुर्वेद और ऋग्वेद आपके ही स्वरूप हैं। आप ही हविष्य हैं। वेदों और उपनिषदोंके समूह अपनी स्तुतियोंद्वारा आपकी ही महिमाका प्रतिपादन करते हैं॥१२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा वर्णावराश्च ये।
त्वमेव मेघसंघाश्च विद्युत्स्तनितगर्जितः ॥ १२२ ॥
मूलम्
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा वर्णावराश्च ये।
त्वमेव मेघसंघाश्च विद्युत्स्तनितगर्जितः ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्त्यज—ये आपके ही स्वरूप हैं। मेघोंकी घटा, बिजली, गर्जना और गड़गड़ाहट भी आप ही हैं॥१२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरस्त्वमृतवो मासो मासार्धमेव च।
युगं निमेषाः काष्ठास्त्वं नक्षत्राणि ग्रहाः कलाः ॥ १२३ ॥
मूलम्
संवत्सरस्त्वमृतवो मासो मासार्धमेव च।
युगं निमेषाः काष्ठास्त्वं नक्षत्राणि ग्रहाः कलाः ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, युग, निमेष, काष्ठा, नक्षत्र, ग्रह और कला भी आप ही हैं॥१२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृक्षाणां ककुदोऽसि त्वं गिरीणां शिखराणि च।
व्याघ्रो मृगाणां पततां तार्क्ष्योऽनन्तश्च भोगिनाम् ॥ १२४ ॥
मूलम्
वृक्षाणां ककुदोऽसि त्वं गिरीणां शिखराणि च।
व्याघ्रो मृगाणां पततां तार्क्ष्योऽनन्तश्च भोगिनाम् ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृक्षोंमें प्रधान वट-पीपल आदि, पर्वतोंमें उनके शिखर, वन-जन्तुओंमें व्याघ्र, पक्षियोंमें गरुड़ तथा सर्पोंमें अनन्त आप ही हैं॥१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीरोदो ह्युदधीनां च यन्त्राणां धनुरेव च।
वज्रः प्रहरणानां च व्रतानां सत्यमेव च ॥ १२५ ॥
मूलम्
क्षीरोदो ह्युदधीनां च यन्त्राणां धनुरेव च।
वज्रः प्रहरणानां च व्रतानां सत्यमेव च ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्रोंमें क्षीरसागर, यन्त्रों (अस्त्रों)-में धनुष, चलाये जानेवाले आयुधोंमें वज्र और व्रतोंमें सत्य भी आप ही हैं॥१२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव द्वेष इच्छा च रागो मोहः क्षमाक्षमे।
व्यवसायो धृतिर्लोभः कामक्रोधौ जयाजयौ ॥ १२६ ॥
मूलम्
त्वमेव द्वेष इच्छा च रागो मोहः क्षमाक्षमे।
व्यवसायो धृतिर्लोभः कामक्रोधौ जयाजयौ ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही द्वेष, इच्छा, राग, मोह, क्षमा, अक्षमा, व्यवसाय, धैर्य, लोभ, काम, क्रोध, जय तथा पराजय हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं गदी त्वं शरी चापी खट्वाङ्गी झर्झरी तथा।
छेत्ता भेत्ता प्रहर्ता त्वं नेता मन्ता पिता मतः॥१२७॥
मूलम्
त्वं गदी त्वं शरी चापी खट्वाङ्गी झर्झरी तथा।
छेत्ता भेत्ता प्रहर्ता त्वं नेता मन्ता पिता मतः॥१२७॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप गदा, बाण, धनुष, खाटका अंग तथा झर्झर नामक अस्त्र धारण करनेवाले हैं। आप छेदन, भेदन और प्रहार करनेवाले हैं। सत्पथपर ले जानेवाले, शुभका मनन करनेवाले तथा पिता माने गये हैं॥१२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशलक्षणसंयुक्तो धर्मोऽर्थः काम एव च।
गङ्गा समुद्राः सरितः पल्वलानि सरांसि च ॥ १२८ ॥
लता वल्यस्तृणौषध्यः पशवो मृगपक्षिणः।
द्रव्यकर्मसमारम्भः कालः पुष्पफलप्रदः ॥ १२९ ॥
मूलम्
दशलक्षणसंयुक्तो धर्मोऽर्थः काम एव च।
गङ्गा समुद्राः सरितः पल्वलानि सरांसि च ॥ १२८ ॥
लता वल्यस्तृणौषध्यः पशवो मृगपक्षिणः।
द्रव्यकर्मसमारम्भः कालः पुष्पफलप्रदः ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दस लक्षणोंवाला धर्म तथा अर्थ और काम भी आप ही हैं। गंगा, समुद्र, नदियाँ, गड़हे, तालाब, लता, वल्ली, तृण, ओषधि, पशु, मृग, पक्षी, द्रव्य और कर्मोंके आरम्भ तथा फूल और फल देनेवाला काल भी आप ही हैं॥१२८-१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदिश्चान्तश्च देवानां गायत्र्योंकार एव च।
हरितो रोहितो नीलः कृष्णो रक्तस्तथारुणः।
कद्रुश्च कपिलश्चैव कपोतो मेचकस्तथा ॥ १३० ॥
मूलम्
आदिश्चान्तश्च देवानां गायत्र्योंकार एव च।
हरितो रोहितो नीलः कृष्णो रक्तस्तथारुणः।
कद्रुश्च कपिलश्चैव कपोतो मेचकस्तथा ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप देवताओंके आदि और अन्त हैं। गायत्री-मन्त्र और ॐकार भी आप ही हैं। हरित, लोहित, नील, कृष्ण, रक्त, अरुण, कद्रु, कपिल, कबूतरके समान तथा मेचक (श्याम मेघके समान)—ये दस प्रकारके रंग भी आपके ही स्वरूप हैं॥१३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवर्णश्च सुवर्णश्च वर्णकारो घनोपमः।
सुवर्णनामा च तथा सुवर्णप्रिय एव च ॥ १३१ ॥
मूलम्
अवर्णश्च सुवर्णश्च वर्णकारो घनोपमः।
सुवर्णनामा च तथा सुवर्णप्रिय एव च ॥ १३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप वर्णरहित होनेके कारण अवर्ण और अच्छे वर्णवाले होनेसे सुवर्ण कहलाते हैं। आप वर्णोंके निर्माता और मेघके समान हैं। आपके नाममें सुन्दर वर्णों (अक्षरों)-का उपयोग हुआ है, इसलिये आप सुवर्णनामा हैं तथा आपको श्रेष्ठ वर्ण प्रिय है॥१३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमिन्द्रश्च यमश्चैव वरुणो धनदोऽनलः।
उपप्लवश्चित्रभानुः स्वर्भानुर्भानुरेव च ॥ १३२ ॥
मूलम्
त्वमिन्द्रश्च यमश्चैव वरुणो धनदोऽनलः।
उपप्लवश्चित्रभानुः स्वर्भानुर्भानुरेव च ॥ १३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, अग्नि, सूर्य-चन्द्रका ग्रहण, चित्रभानु (सूर्य), राहु और भानु हैं॥१३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होत्रं होता च होम्यं च हुतं चैव तथा प्रभुः।
त्रिसौपर्णं तथा ब्रह्म यजुषां शतरुद्रियम् ॥ १३३ ॥
मूलम्
होत्रं होता च होम्यं च हुतं चैव तथा प्रभुः।
त्रिसौपर्णं तथा ब्रह्म यजुषां शतरुद्रियम् ॥ १३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
होत्र (स्रुवा), होता, हवनीय पदार्थ, हवन-क्रिया तथा (उसके फल देनेवाले) परमेश्वर भी आप ही हैं। वेदकी त्रिसौपर्ण नामक श्रुतियोंमें तथा यजुर्वेदके शतरुद्रिय-प्रकरणमें जो बहुत-से वैदिक नाम हैं, वे सब आपहीके नाम हैं॥१३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवित्रं च पवित्राणां मङ्गलानां च मङ्गलम्।
गिरिको हिंडुको वृक्षो जीवः पुद्गल एव च ॥ १३४ ॥
प्राणः सत्त्वं रजश्चैव तमश्चाप्रमदस्तथा।
प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च ॥ १३५ ॥
उन्मेषश्च निमेषश्च क्षुतं जृम्भितमेव च।
लोहितान्तर्गता दृष्टिर्महावक्त्रो महोदरः ॥ १३६ ॥
मूलम्
पवित्रं च पवित्राणां मङ्गलानां च मङ्गलम्।
गिरिको हिंडुको वृक्षो जीवः पुद्गल एव च ॥ १३४ ॥
प्राणः सत्त्वं रजश्चैव तमश्चाप्रमदस्तथा।
प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च ॥ १३५ ॥
उन्मेषश्च निमेषश्च क्षुतं जृम्भितमेव च।
लोहितान्तर्गता दृष्टिर्महावक्त्रो महोदरः ॥ १३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप पवित्रोंके भी पवित्र और मंगलोंके भी मंगल हैं। आप ही गिरिक (अचेतनको भी चेतन करनेवाले), हिंडुक (गमनागमन करनेवाले), संसार-वृक्ष, जीव, शरीर, प्राण, सत्त्व, रज, तम, अप्रमद (स्त्रीरहित—ऊर्ध्वरेता), प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, उन्मेष, निमेष (आँखोंका खोलना-मींचना), छींकना और जँभाई लेना आदि चेष्टाएँ भी आप ही हैं। आपकी अग्निमयी लाल रंगकी दृष्टि भीतर छिपी हुई है। आपके मुख और उदर महान् हैं॥१३४—१३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूचीरोमा हरिश्मश्रुरूर्ध्वकेशश्चलाचलः ।
गीतवादित्रतत्त्वज्ञो गीतवादनकप्रियः ॥ १३७ ॥
मूलम्
सूचीरोमा हरिश्मश्रुरूर्ध्वकेशश्चलाचलः ।
गीतवादित्रतत्त्वज्ञो गीतवादनकप्रियः ॥ १३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रोएँ सूईके समान हैं। दाढ़ी-मूछ काली है। सिरके बाल ऊपरकी ओर उठे हुए हैं। आप चराचर-स्वरूप हैं। गाने-बजानेके तत्त्वको जाननेवाले हैं। गाना-बजाना आपको अधिक प्रिय है॥१३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्स्यो जलचरो जाल्योऽकलः केलिकलः कलिः।
अकालश्चातिकालश्च दुष्कालः काल एव च ॥ १३८ ॥
मूलम्
मत्स्यो जलचरो जाल्योऽकलः केलिकलः कलिः।
अकालश्चातिकालश्च दुष्कालः काल एव च ॥ १३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप मत्स्य, जलचर और जालधारी घड़ियाल हैं। फिर भी अकल (बन्धनसे परे) हैं। आप केलिकलासे युक्त और कलहरूप हैं। आपही अकाल, अतिकाल, दुष्काल तथा काल हैं॥१३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्युः क्षुरश्च कृत्यश्च पक्षोऽपक्षक्षयंकरः।
मेघकालो महादंष्ट्रः संवर्तकबलाहकः ॥ १३९ ॥
मूलम्
मृत्युः क्षुरश्च कृत्यश्च पक्षोऽपक्षक्षयंकरः।
मेघकालो महादंष्ट्रः संवर्तकबलाहकः ॥ १३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृत्यु, क्षुर (छेदन करनेका शस्त्र), कृत्य (छेदन करने योग्य), पक्ष (मित्र) तथा अपक्ष-क्षयंकर (शत्रुपक्षका नाश करनेवाले) भी आप ही हैं। आप मेघके समान काले, बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले और प्रलयकालीन मेघ हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घण्टोऽघण्टो घटी घण्टी चरुचेली मिलीमिली।
ब्रह्मकायिकमग्नीनां दण्डी मुण्डस्त्रिदण्डधृक् ॥ १४० ॥
मूलम्
घण्टोऽघण्टो घटी घण्टी चरुचेली मिलीमिली।
ब्रह्मकायिकमग्नीनां दण्डी मुण्डस्त्रिदण्डधृक् ॥ १४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घण्ट (प्रकाशवान्), अघण्ट (अव्यक्त प्रकाशवाले), घटी (कर्मफलसे युक्त करनेवाले), घण्टी (घण्टावाले), चरुचेली (जीवोंके साथ क्रीडा करनेवाले) तथा मिली-मिली (कारणरूपसे सबमें व्याप्त)—ये सब आप ही हैं। आप ही ब्रह्म, अग्नियोंके स्वरूप, दण्डी, मुण्ड तथा त्रिदण्डधारी हैं॥१४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्युगश्चतुर्वेदश्चातुर्होत्रप्रवर्तकः ।
चातुराश्रम्यनेता च चातुर्वर्ण्यकरश्च यः ॥ १४१ ॥
मूलम्
चतुर्युगश्चतुर्वेदश्चातुर्होत्रप्रवर्तकः ।
चातुराश्रम्यनेता च चातुर्वर्ण्यकरश्च यः ॥ १४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चार युग और चार वेद आपके ही स्वरूप हैं तथा चार प्रकारके होतृ-कर्मोंके प्रवर्तक आप ही हैं। आप चारों आश्रमोंके नेता तथा चारों वर्णोंकी सृष्टि करनेवाले हैं॥१४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा चाक्षप्रियो धूर्तो गणाध्यक्षो गणाधिपः।
रक्तमाल्याम्बरधरो गिरिशो गिरिकप्रियः ॥ १४२ ॥
मूलम्
सदा चाक्षप्रियो धूर्तो गणाध्यक्षो गणाधिपः।
रक्तमाल्याम्बरधरो गिरिशो गिरिकप्रियः ॥ १४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही अक्षप्रिय, धूर्त, गणाध्यक्ष और गणाधिप आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। आप रक्त वस्त्र तथा लाल फूलोंकी माला पहनते हैं, पर्वतपर शयन करते और गेरुए वस्त्रसे प्रेम रखते हैं॥१४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिल्पिकः शिल्पिनां श्रेष्ठः सर्वशिल्पप्रवर्तकः।
भगनेत्राङ्कुशश्चण्डः पूष्णो दन्तविनाशनः ॥ १४३ ॥
मूलम्
शिल्पिकः शिल्पिनां श्रेष्ठः सर्वशिल्पप्रवर्तकः।
भगनेत्राङ्कुशश्चण्डः पूष्णो दन्तविनाशनः ॥ १४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही शिल्पियोंमें सर्वश्रेष्ठ शिल्पी (कारीगर) तथा सब प्रकारकी शिल्पकलाके प्रवर्तक हैं। आप भगदेवताकी आँख फोड़नेके लिये अंकुश, चण्ड (अत्यन्त कोप करनेवाले) और पूषाके दाँत नष्ट करनेवाले हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाहा स्वधा वषट्कारो नमस्कारो नमो नमः।
गूढव्रतो गुह्यतपास्तारकस्तारकामयः ॥ १४४ ॥
मूलम्
स्वाहा स्वधा वषट्कारो नमस्कारो नमो नमः।
गूढव्रतो गुह्यतपास्तारकस्तारकामयः ॥ १४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वाहा, स्वधा, वषट्-नमस्कार और नमो नमः आदि पद आपके ही नाम हैं। आप गूढ़ व्रतधारी, गुप्त तपस्या करनेवाले, तारकमन्त्र और ताराओंसे भरे हुए आकाश हैं॥१४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धाता विधाता संधाता विधाता धारणोऽधरः।
ब्रह्मा तपश्च सत्यं च ब्रह्मचर्यमथार्जवम् ॥ १४५ ॥
भूतात्मा भूतकृद्भूतो भूतभव्यभवोद्भवः ।
भूर्भुवः स्वरितश्चैव ध्रुवो दान्तो महेश्वरः ॥ १४६ ॥
मूलम्
धाता विधाता संधाता विधाता धारणोऽधरः।
ब्रह्मा तपश्च सत्यं च ब्रह्मचर्यमथार्जवम् ॥ १४५ ॥
भूतात्मा भूतकृद्भूतो भूतभव्यभवोद्भवः ।
भूर्भुवः स्वरितश्चैव ध्रुवो दान्तो महेश्वरः ॥ १४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धाता (धारण करनेवाले), विधाता (सृष्टि करनेवाले), संधाता (जोड़नेवाले), विधाता, धारण और अधर (आधाररहित) भी आपहीके नाम हैं। आप ब्रह्मा, तप, सत्य, ब्रह्मचर्य आर्जव (सरलता), भूतात्मा (प्राणियोंके आत्मा), भूतोंकी सृष्टि करनेवाले, भूत (नित्यसिद्ध), भूत, भविष्य और वर्तमानकी उत्पत्तिके कारण, भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, ध्रुव (स्थिर), दान्त (दमनशील) और महेश्वर हैं॥१४५-१४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीक्षितोऽदीक्षितः क्षान्तो दुर्दान्तोऽदान्तनाशनः ।
चन्द्रावर्तो युगावर्तः संवर्तः सम्प्रवर्तकः ॥ १४७ ॥
मूलम्
दीक्षितोऽदीक्षितः क्षान्तो दुर्दान्तोऽदान्तनाशनः ।
चन्द्रावर्तो युगावर्तः संवर्तः सम्प्रवर्तकः ॥ १४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीक्षित (यज्ञकी दीक्षा लेनेवाले), अदीक्षित, क्षमावान्, दुर्दान्त, उद्दण्ड प्राणियोंका नाश करनेवाले, चन्द्रमाकी आवृत्ति करनेवाले (मास), युगोंकी आवृत्ति करनेवाले (कल्प), संवर्त (प्रलय) तथा सम्प्रवर्तक (पुनः सृष्टि-संचालन करनेवाले) भी आप ही हैं॥१४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामो बिन्दुरणुः स्थूलः कर्णिकारस्रजप्रियः।
नन्दीमुखो भीममुखः सुमुखो दुर्मुखोऽमुखः ॥ १४८ ॥
चतुर्मुखो बहुमुखो रणेष्वग्निमुखस्तथा ।
हिरण्यगर्भः शकुनिर्महोरगपतिर्विराट् ॥ १४९ ॥
मूलम्
कामो बिन्दुरणुः स्थूलः कर्णिकारस्रजप्रियः।
नन्दीमुखो भीममुखः सुमुखो दुर्मुखोऽमुखः ॥ १४८ ॥
चतुर्मुखो बहुमुखो रणेष्वग्निमुखस्तथा ।
हिरण्यगर्भः शकुनिर्महोरगपतिर्विराट् ॥ १४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही काम, बिन्दु, अणु (सूक्ष्म) और स्थूलरूप हैं। आप कनेरके फूलकी माला अधिक पसंद करते हैं। आप ही नन्दीमुख, भीममुख (भयंकर मुखवाले), सुमुख, दुर्मुख, अमुख (मुखरहित), चतुर्मुख, बहुमुख तथा युद्धके समय शत्रुका संहार करनेके कारण अग्निमुख (अग्निके समान मुखवाले) हैं। हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शकुनि (पक्षीके समान असंग), महान् सर्पोंके स्वामी (शेषनाग) और विराट् भी आप ही हैं॥१४८-१४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्महा महापार्श्वश्चण्डधारो गणाधिपः ।
गोनर्दो गोप्रतारश्च गोवृषेश्वरवाहनः ॥ १५० ॥
त्रैलोक्यगोप्ता गोविन्दो गोमार्गोऽमार्ग एव च।
श्रेष्ठः स्थिरश्च स्थाणुश्च निष्कम्पः कम्प एव च ॥ १५१ ॥
दुर्वारणो दुर्विषहो दुःसहो दुरतिक्रमः।
दुर्घर्षो दुष्प्रकम्पश्च दुर्विषो दुर्जयो जयः ॥ १५२ ॥
शशः शशाङ्कः शमनः शीतोष्णक्षुज्जराधिकृत्।
आधयो व्याधयश्चैव व्याधिहा व्याधिरेव च ॥ १५३ ॥
मूलम्
अधर्महा महापार्श्वश्चण्डधारो गणाधिपः ।
गोनर्दो गोप्रतारश्च गोवृषेश्वरवाहनः ॥ १५० ॥
त्रैलोक्यगोप्ता गोविन्दो गोमार्गोऽमार्ग एव च।
श्रेष्ठः स्थिरश्च स्थाणुश्च निष्कम्पः कम्प एव च ॥ १५१ ॥
दुर्वारणो दुर्विषहो दुःसहो दुरतिक्रमः।
दुर्घर्षो दुष्प्रकम्पश्च दुर्विषो दुर्जयो जयः ॥ १५२ ॥
शशः शशाङ्कः शमनः शीतोष्णक्षुज्जराधिकृत्।
आधयो व्याधयश्चैव व्याधिहा व्याधिरेव च ॥ १५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अधर्मके नाशक, महापार्श्व, चण्डधार, गणाधिप, गोनर्द, गौओंको आपत्तिसे बचानेवाले, नन्दीकी सवारी करनेवाले, त्रैलोक्यरक्षक, गोविन्द (श्रीकृष्णरूप), गोमार्ग (इन्द्रियोंके संचालक), अमार्ग (इन्द्रियोंके अगोचर), श्रेष्ठ, स्थिर, स्थाणु, निष्कम्प, कम्प, दुर्वारण (जिनका सामना करना कठिन है, ऐसे), दुर्विषह (असह्य वेगवाले), दुःसह, दुर्लङ्घ्य, दुर्द्धर्ष, दुष्प्रकम्प, दुर्विष, दुर्जय, जय, शश (शीघ्रगामी), शशांक (चन्द्रमा) तथा शमन (यमराज) हैं। सर्दी-गर्मी, क्षुधा, वृद्धावस्था तथा मानसिक चिन्ताको दूर करनेवाले भी आप ही हैं। आप ही आधि-व्याधि तथा उसे दूर करनेवाले हैं॥१५०—१५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम यज्ञमृगव्याधो व्याधीनामागमो गमः।
शिखण्डी पुण्डरीकाक्षः पुण्डरीकवनालयः ॥ १५४ ॥
दण्डधारस्त्र्यम्बकश्च उग्रदण्डोऽण्डनाशनः ।
विषाग्निपाः सुरश्रेष्ठः सोमपास्त्वं मरुत्पतिः ॥ १५५ ॥
मूलम्
मम यज्ञमृगव्याधो व्याधीनामागमो गमः।
शिखण्डी पुण्डरीकाक्षः पुण्डरीकवनालयः ॥ १५४ ॥
दण्डधारस्त्र्यम्बकश्च उग्रदण्डोऽण्डनाशनः ।
विषाग्निपाः सुरश्रेष्ठः सोमपास्त्वं मरुत्पतिः ॥ १५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे यज्ञरूपी मृगके वधिक तथा व्याधियोंको लाने और मिटानेवाले भी आप ही हैं। (कृष्णरूपमें) मस्तकपर शिखण्ड (मोरपंख) धारण करनेके कारण आप शिखण्डी हैं। आप कमलके समान नेत्रोंवाले, कमलके वनमें निवास करनेवाले, दण्ड धारण करनेवाले, त्र्यम्बक, उग्रदण्ड और ब्रह्माण्डके संहारक हैं। विषाग्निको पी जानेवाले, देवश्रेष्ठ, सोमरसका पान करनेवाले और मरुद्गणोंके स्वामी हैं॥१५४-१५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतपास्त्वं जगन्नाथ देवदेव गणेश्वरः।
विषाग्निपा मृत्युपाश्च क्षीरपाः सोमपास्तथा।
मधुश्च्युतानामग्रपास्त्वमेव तुषिताद्यपाः ॥ १५६ ॥
मूलम्
अमृतपास्त्वं जगन्नाथ देवदेव गणेश्वरः।
विषाग्निपा मृत्युपाश्च क्षीरपाः सोमपास्तथा।
मधुश्च्युतानामग्रपास्त्वमेव तुषिताद्यपाः ॥ १५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवाधिदेव! जगन्नाथ! आप अमृत पान करनेवाले और गणोंके स्वामी हैं। विषाग्नि तथा मृत्युसे रक्षा करनेवाले और दूध एवं सोमरसका पान करनेवाले हैं। आप सुखसे भ्रष्ट हुए जीवोंके प्रधान रक्षक तथा तुषितनामक देवताओंके आदिभूत ब्रह्माजीका भी पालन करनेवाले हैं॥१५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यरेताः पुरुषस्त्वमेव
त्वं स्त्री पुमांस्त्वं च नपुंसकं च।
बालो युवा स्थविरो जीर्णदंष्ट्र-
स्त्वं नागेन्द्र शक्रस्त्वं विश्वकृद्विश्वकर्ता ॥ १५७ ॥
विश्वकृद् विश्वकृतां वरेण्यस्त्वं विश्ववाहो
विश्वरूपस्तेजस्वी विश्वतोमुखः ।
चन्द्रादित्यौ चक्षुषी ते हृदयं च पितामहः ॥ १५८ ॥
मूलम्
हिरण्यरेताः पुरुषस्त्वमेव
त्वं स्त्री पुमांस्त्वं च नपुंसकं च।
बालो युवा स्थविरो जीर्णदंष्ट्र-
स्त्वं नागेन्द्र शक्रस्त्वं विश्वकृद्विश्वकर्ता ॥ १५७ ॥
विश्वकृद् विश्वकृतां वरेण्यस्त्वं विश्ववाहो
विश्वरूपस्तेजस्वी विश्वतोमुखः ।
चन्द्रादित्यौ चक्षुषी ते हृदयं च पितामहः ॥ १५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही हिरण्यरेता (अग्नि), पुरुष (अन्तर्यामी) तथा आप ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक हैं। बालक-युवा और वृद्ध भी आप ही हैं। नागेश्वर! आप जीर्ण दाढ़ोंवाले और इन्द्र हैं। आप विश्वकृत् (जगत्के संहारक), विश्वकर्ता (प्रजापति), विश्वकृत् (ब्रह्माजी), विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियोंमें श्रेष्ठ, विश्वका भार वहन करनेवाले, विश्वरूप, तेजस्वी और सब ओर मुखवाले हैं। चन्द्रमा और सूर्य आपके नेत्र तथा पितामह ब्रह्मा आपके हृदय हैं॥१५७-१५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महोदधिः सरस्वती वाग् बलमनलो-
ऽनिलःअहोरात्रं निमेषोन्मेषकर्म ॥ १५९ ॥
मूलम्
महोदधिः सरस्वती वाग् बलमनलो-
ऽनिलःअहोरात्रं निमेषोन्मेषकर्म ॥ १५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही समुद्र हैं, सरस्वती आपकी वाणी हैं, अग्नि और वायु बल हैं तथा आपके नेत्रोंका खुलना और बंद होना ही दिन और रात्रि है॥१५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्रह्मा न च गोविन्दः पौराणा ऋषयो न ते।
माहात्म्यं वेदितुं शक्ता याथातथ्येन ते शिव ॥ १६० ॥
मूलम्
न ब्रह्मा न च गोविन्दः पौराणा ऋषयो न ते।
माहात्म्यं वेदितुं शक्ता याथातथ्येन ते शिव ॥ १६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिव! आपके माहात्म्यको ठीक-ठीक जाननेमें ब्रह्मा, विष्णु तथा प्राचीन ऋषि भी समर्थ नहीं हैं॥१६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या मूर्तयः सुसूक्ष्मास्ते न मह्यं यान्ति दर्शनम्।
त्राहि मां सततं रक्ष पिता पुत्रमिवौरसम् ॥ १६१ ॥
मूलम्
या मूर्तयः सुसूक्ष्मास्ते न मह्यं यान्ति दर्शनम्।
त्राहि मां सततं रक्ष पिता पुत्रमिवौरसम् ॥ १६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके जो सूक्ष्म रूप हैं वे हमलोगोंकी दृष्टिमें नहीं आते। भगवन्! जैसे पिता अपने औरस पुत्रकी रक्षा करता है, उसी तरह आप सर्वदा मेरी रक्षा करें॥१६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्ष मां रक्षणीयोऽहं तवानघ नमोऽस्तु ते।
भक्तानुकम्पी भगवान् भक्तश्चाहं सदा त्वयि ॥ १६२ ॥
मूलम्
रक्ष मां रक्षणीयोऽहं तवानघ नमोऽस्तु ते।
भक्तानुकम्पी भगवान् भक्तश्चाहं सदा त्वयि ॥ १६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! मैं आपके द्वारा रक्षित होने योग्य हूँ, आप अवश्य मेरी रक्षा करें, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप भक्तोंपर दया करनेवाले भगवान् हैं और मैं सदाके लिये आपका भक्त हूँ॥१६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सहस्राण्यनेकानि पुंसामावृत्य दुर्दृशः।
तिष्ठत्येकः समुद्रान्ते स मे गोप्तास्तु नित्यशः ॥ १६३ ॥
मूलम्
यः सहस्राण्यनेकानि पुंसामावृत्य दुर्दृशः।
तिष्ठत्येकः समुद्रान्ते स मे गोप्तास्तु नित्यशः ॥ १६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो हजारों मनुष्योंपर मायाका परदा डालकर सबके लिये दुर्बोध हो रहे हैं, अद्वितीय हैं तथा समुद्रके समान कामनाओंका अन्त होनेपर प्रकाशमें आते हैं, वे परमेश्वर नित्य मेरी रक्षा करें॥१६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं विनिद्रा जितश्वासाः सत्त्वस्थाः संयतेन्द्रियाः।
ज्योतिः पश्यन्ति युञ्जानास्तस्मै योगात्मने नमः ॥ १६४ ॥
मूलम्
यं विनिद्रा जितश्वासाः सत्त्वस्थाः संयतेन्द्रियाः।
ज्योतिः पश्यन्ति युञ्जानास्तस्मै योगात्मने नमः ॥ १६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निद्राके वशीभूत न होकर प्राणोंपर विजय पा चुके हैं और इन्द्रियोंको जीतकर सत्त्वगुणमें स्थित हैं, ऐसे योगीलोग ध्यानमें जिस ज्योतिर्मय तत्त्वका साक्षात्कार करते हैं, उस योगात्मा परमेश्वरको नमस्कार है॥१६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटिले दण्डिने नित्यं लम्बोदरशरीरिणे।
कमण्डलुनिषङ्गाय तस्मै ब्रह्मात्मने नमः ॥ १६५ ॥
मूलम्
जटिले दण्डिने नित्यं लम्बोदरशरीरिणे।
कमण्डलुनिषङ्गाय तस्मै ब्रह्मात्मने नमः ॥ १६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदा जटा और दण्ड धारण किये रहते हैं, जिनका उदर और शरीर विशाल है तथा कमण्डलु ही जिनके लिये तरकसका काम देता है, ऐसे ब्रह्माजीके रूपमें विराजमान भगवान् शिवको प्रणाम है॥१६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य केशेषु जीमूता नद्यः सर्वाङ्गसंधिषु।
कुक्षौ समुद्राश्चत्वारस्तस्मै तोयात्मने नमः ॥ १६६ ॥
मूलम्
यस्य केशेषु जीमूता नद्यः सर्वाङ्गसंधिषु।
कुक्षौ समुद्राश्चत्वारस्तस्मै तोयात्मने नमः ॥ १६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके केशोंमें बादल, शरीरकी संधियोंमें नदियाँ और उदरमें चारों समुद्र हैं, उन जलस्वरूप परमात्माको नमस्कार है॥१६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भक्ष्य सर्वभूतानि युगान्ते पर्युपस्थिते।
यः शेते जलमध्यस्थस्तं प्रपद्येऽम्बुशायिनम् ॥ १६७ ॥
मूलम्
सम्भक्ष्य सर्वभूतानि युगान्ते पर्युपस्थिते।
यः शेते जलमध्यस्थस्तं प्रपद्येऽम्बुशायिनम् ॥ १६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रलयकाल उपस्थित होनेपर सब प्राणियोंका संहार करके एकार्णवके जलमें शयन करते हैं, उन जलशायी भगवान्की मैं शरण लेता हूँ॥१६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य वदनं राहोर्यः सोमं पिबते निशि।
ग्रसत्यर्कं च स्वर्भानुर्भूत्वा मां सोऽभिरक्षतु ॥ १६८ ॥
मूलम्
प्रविश्य वदनं राहोर्यः सोमं पिबते निशि।
ग्रसत्यर्कं च स्वर्भानुर्भूत्वा मां सोऽभिरक्षतु ॥ १६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो रातमें राहुके मुखमें प्रवेश करके स्वयं चन्द्रमाके अमृतका पान करते हैं; तथा स्वयं ही राहु बनकर सूर्यपर ग्रहण लगाते हैं, वे परमात्मा मेरी रक्षा करें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चानुपतिता गर्भा यथा भागानुपासते।
नमस्तेभ्यः स्वधा स्वाहा प्राप्नुवन्तु मुदन्तु ते ॥ १६९ ॥
मूलम्
ये चानुपतिता गर्भा यथा भागानुपासते।
नमस्तेभ्यः स्वधा स्वाहा प्राप्नुवन्तु मुदन्तु ते ॥ १६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीके बाद उत्पन्न होनेवाले जो देवता और पितर बालककी भाँति यज्ञमें अपने-अपने भाग ग्रहण करते हैं, उन्हें नमस्कार है। वे ‘स्वाहा और स्वधा’ के द्वारा अपने भाग प्राप्त करके प्रसन्न हों॥१६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येऽङ्गुष्ठमात्राः पुरुषा देहस्थाः सर्वदेहिनाम्।
रक्षन्तु ते हि मां नित्यं नित्यं चाप्याययन्तु माम्॥१७०॥
मूलम्
येऽङ्गुष्ठमात्राः पुरुषा देहस्थाः सर्वदेहिनाम्।
रक्षन्तु ते हि मां नित्यं नित्यं चाप्याययन्तु माम्॥१७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अंगुष्ठमात्र जीवके रूपमें सम्पूर्ण देहधारियोंके भीतर विराजमान हैं, वे सदा मेरी रक्षा और वृद्धि करें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये न रोदन्ति देहस्था देहिनो रोदयन्ति च।
हर्षयन्ति न हृष्यन्ति नमस्तेभ्योऽस्तु नित्यशः ॥ १७१ ॥
मूलम्
ये न रोदन्ति देहस्था देहिनो रोदयन्ति च।
हर्षयन्ति न हृष्यन्ति नमस्तेभ्योऽस्तु नित्यशः ॥ १७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देहके भीतर रहते हुए स्वयं न रोकर देहधारियोंको ही रुलाते हैं, स्वयं हर्षित न होकर उन्हें ही हर्षित करते हैं, उन सब रुद्रोंको मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥१७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये नदीषु समुद्रेषु पर्वतेषु गुहासु च।
वृक्षमूलेषु गोष्ठेषु कान्तारे गहनेषु च ॥ १७२ ॥
चतुष्पथेषु रथ्यासु चत्वरेषु तटेषु च।
हस्त्यश्वरथशालासु जीर्णोद्यानालयेषु च ॥ १७३ ॥
येषु पञ्चसु भूतेषु दिशासु विदिशासु च।
चन्द्रार्कयोर्मध्यगता ये च चन्द्रार्करश्मिषु ॥ १७४ ॥
रसातलगता ये च ये च तस्मै परं गताः।
नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्योऽस्तु नित्यशः ॥ १७५ ॥
मूलम्
ये नदीषु समुद्रेषु पर्वतेषु गुहासु च।
वृक्षमूलेषु गोष्ठेषु कान्तारे गहनेषु च ॥ १७२ ॥
चतुष्पथेषु रथ्यासु चत्वरेषु तटेषु च।
हस्त्यश्वरथशालासु जीर्णोद्यानालयेषु च ॥ १७३ ॥
येषु पञ्चसु भूतेषु दिशासु विदिशासु च।
चन्द्रार्कयोर्मध्यगता ये च चन्द्रार्करश्मिषु ॥ १७४ ॥
रसातलगता ये च ये च तस्मै परं गताः।
नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्योऽस्तु नित्यशः ॥ १७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नदी, समुद्र, पर्वत, गुहा, वृक्षोंकी जड़, गोशाला, दुर्गम पथ, वन, चौराहे, सड़क, चौतरे, किनारे, हस्तिशाला, अश्वशाला, रथशाला, पुराने बगीचे, जीर्ण गृह, पञ्चभूत, दिशा, विदिशा, चन्द्रमा, सूर्य तथा उन-उनकी किरणोंमें, रसातलमें और उससे भिन्न स्थानोंमें भी जो अधिष्ठातृ देवताके रूपमें व्याप्त हैं, उन सबको सदा नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है॥१७२—१७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां न विद्यते संख्या प्रमाणं रूपमेव च।
असंख्येयगुणा रुद्रा नमस्तेभ्योऽस्तु नित्यशः ॥ १७६ ॥
मूलम्
येषां न विद्यते संख्या प्रमाणं रूपमेव च।
असंख्येयगुणा रुद्रा नमस्तेभ्योऽस्तु नित्यशः ॥ १७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी संख्या, प्रमाण और रूपकी सीमा नहीं है, जिनके गुणोंकी गिनती नहीं हो सकती, उन रुद्रोंको मैं सदा नमस्कार करता हूँ॥१७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतकरो यस्मात् सर्वभूतपतिर्हरः ।
सर्वभूतान्तरात्मा च तेन त्वं न निमन्त्रितः ॥ १७७ ॥
मूलम्
सर्वभूतकरो यस्मात् सर्वभूतपतिर्हरः ।
सर्वभूतान्तरात्मा च तेन त्वं न निमन्त्रितः ॥ १७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सम्पूर्ण भूतोंके जन्मदाता, सबके पालक और संहारक हैं; तथा आप ही समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा हैं। इसीलिये मैंने आपको पृथक् निमन्त्रण नहीं दिया॥१७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव हीज्यसे यस्माद् यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
त्वमेव कर्ता सर्वस्य तेन त्वं न निमन्त्रितः ॥ १७८ ॥
मूलम्
त्वमेव हीज्यसे यस्माद् यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
त्वमेव कर्ता सर्वस्य तेन त्वं न निमन्त्रितः ॥ १७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाना प्रकारकी दक्षिणाओंवाले यज्ञोंद्वारा आपहीका यजन किया जाता है और आप ही सबके कर्ता हैं, इसीलिये मैंने आपको अलग निमन्त्रण नहीं दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा मायया देव सूक्ष्मया तव मोहितः।
एतस्मात् कारणाद् वापि तेन त्वं न निमन्त्रितः ॥ १७९ ॥
मूलम्
अथवा मायया देव सूक्ष्मया तव मोहितः।
एतस्मात् कारणाद् वापि तेन त्वं न निमन्त्रितः ॥ १७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा देव! आपकी सूक्ष्म मायासे मैं मोहमें पड़ गया था, इस कारणसे भी मैंने आपको निमन्त्रण नहीं दिया॥१७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसीद मम भद्रं ते भव भावगतस्य मे।
त्वयि मे हृदयं देव त्वयि बुद्धिर्मनस्त्वयि ॥ १८० ॥
मूलम्
प्रसीद मम भद्रं ते भव भावगतस्य मे।
त्वयि मे हृदयं देव त्वयि बुद्धिर्मनस्त्वयि ॥ १८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन् भव! आपका भला हो, मैं भक्तिभावके साथ आपकी शरणमें आया हूँ, इसलिये अब मुझपर प्रसन्न होइये। मेरा हृदय, मेरी बुद्धि और मेरा मन सब आपमें समर्पित हैं॥१८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तुत्वैवं स महादेवं विरराम प्रजापतिः।
भगवानपि सुप्रीतः पुनर्दक्षमभाषत ॥ १८१ ॥
मूलम्
स्तुत्वैवं स महादेवं विरराम प्रजापतिः।
भगवानपि सुप्रीतः पुनर्दक्षमभाषत ॥ १८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार महादेवजीकी स्तुति करके प्रजापति दक्ष चुप हो गये। तब भगवान् शिवने भी बहुत प्रसन्न होकर दक्षसे कहा—॥१८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परितुष्टोऽस्मि ते दक्ष स्तवेनानेन सुव्रत।
बहुनात्र किमुक्तेन मत्समीपे भविष्यसि ॥ १८२ ॥
मूलम्
परितुष्टोऽस्मि ते दक्ष स्तवेनानेन सुव्रत।
बहुनात्र किमुक्तेन मत्समीपे भविष्यसि ॥ १८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दक्ष! तुम्हारे द्वारा की हुई इस स्तुतिसे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। यहाँ अधिक क्या कहूँ, तुम मेरे निकट निवास करोगे॥१८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वमेधसहस्रस्य वाजपेयशतस्य च ।
प्रजापते मत्प्रसादात् फलभागी भविष्यसि ॥ १८३ ॥
मूलम्
अश्वमेधसहस्रस्य वाजपेयशतस्य च ।
प्रजापते मत्प्रसादात् फलभागी भविष्यसि ॥ १८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रजापते! मेरे प्रसादसे तुम्हें एक हजार अश्वमेध तथा एक सौ वाजपेय यज्ञका फल मिलेगा’॥१८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनमब्रवीद् वाक्यं लोकस्याधिपतिर्भवः ।
आश्वासनकरं वाक्यं वाक्यविद्वाक्य सम्मतम् ॥ १८४ ॥
मूलम्
अथैनमब्रवीद् वाक्यं लोकस्याधिपतिर्भवः ।
आश्वासनकरं वाक्यं वाक्यविद्वाक्य सम्मतम् ॥ १८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वाक्यविशारद, लोकनाथ भगवान् शिवने प्रजापतिको सान्त्वना देनेवाला युक्तियुक्त एवं उत्तम वचन कहा—॥१८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्ष दक्ष न कर्तव्यो मन्युर्विघ्नमिमं प्रति।
अहं यज्ञहरस्तुभ्यं दृष्टमेतत् पुरातनम् ॥ १८५ ॥
मूलम्
दक्ष दक्ष न कर्तव्यो मन्युर्विघ्नमिमं प्रति।
अहं यज्ञहरस्तुभ्यं दृष्टमेतत् पुरातनम् ॥ १८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दक्ष! दक्ष! इस यज्ञमें जो विघ्न डाला गया है, इसके लिये तुम खेद न करना। मैंने पहले कल्पमें भी तुम्हारे यज्ञका विध्वंस किया था। यह घटना भी पूर्वकल्पके अनुसार ही हुई है॥१८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयश्च ते वरं दद्मि तं त्वं गृह्णीष्व सुव्रत।
प्रसन्नवदनो भूत्वा तदिहैकमनाः शृणु ॥ १८६ ॥
मूलम्
भूयश्च ते वरं दद्मि तं त्वं गृह्णीष्व सुव्रत।
प्रसन्नवदनो भूत्वा तदिहैकमनाः शृणु ॥ १८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुव्रत! मैं पुनः तुम्हें वरदान देता हूँ, तुम इसे स्वीकार करो और प्रसन्नवदन तथा एकाग्रचित्त होकर यहाँ मेरी यह बात सुनो॥१८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदात् षडङ्गादुद्धृत्य सांख्ययोगाच्च युक्तितः।
तपः सुतप्तं विपुलं दुश्चरं देवदानवैः ॥ १८७ ॥
मूलम्
वेदात् षडङ्गादुद्धृत्य सांख्ययोगाच्च युक्तितः।
तपः सुतप्तं विपुलं दुश्चरं देवदानवैः ॥ १८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पूर्वकालमें षडङ्ग वेद, सांख्ययोग और तर्कसे निश्चित करके देवताओं और दानवोंने जिस विशाल एवं दुष्कर तपका अनुष्ठान किया था (उससे भी उत्तम व्रत मैं तुम्हें बता रहा हूँ)॥१८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपूर्वं सर्वतोभद्रं सर्वतोमुखमव्ययम् ।
अब्दैर्दशाहसंयुक्तं गूढमप्राज्ञनिन्दितम् ॥ १८८ ॥
वर्णाश्रमकृतैर्धर्मैर्विपरीतं क्वचित्समम् ।
गतान्तैरध्यवसितमत्याश्रममिदं व्रतम् ॥ १८९ ॥
मया पाशुपतं दक्ष शुभमुत्पादितं पुरा।
तस्य चीर्णस्य तत् सम्यक् फलं भवति पुष्कलम्।
तच्चास्तु ते महाभाग त्यज्यतां मानसो ज्वरः ॥ १९० ॥
मूलम्
अपूर्वं सर्वतोभद्रं सर्वतोमुखमव्ययम् ।
अब्दैर्दशाहसंयुक्तं गूढमप्राज्ञनिन्दितम् ॥ १८८ ॥
वर्णाश्रमकृतैर्धर्मैर्विपरीतं क्वचित्समम् ।
गतान्तैरध्यवसितमत्याश्रममिदं व्रतम् ॥ १८९ ॥
मया पाशुपतं दक्ष शुभमुत्पादितं पुरा।
तस्य चीर्णस्य तत् सम्यक् फलं भवति पुष्कलम्।
तच्चास्तु ते महाभाग त्यज्यतां मानसो ज्वरः ॥ १९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दक्ष! मैंने पूर्वकालमें एक शुभकारक पाशुपत नामक व्रतको प्रकट किया था, जो अपूर्व है। साधन और सिद्धि सभी अवस्थाओंमें सब प्रकारसे कल्याणकारी, सर्वतोमुखी (सभी वर्णों और आश्रमोंके अनुकूल) तथा मोक्षका साधक होनेके कारण अविनाशी है। वर्षोंतक पुण्यकर्म करने और यम-नियम नामक दस साधनोंको अभ्यासमें लानेसे उसकी उपलब्धि होती है। वह गूढ़ है। मूर्ख मनुष्य उसकी निन्दा करते हैं। वह समस्त वर्णधर्म और आश्रम-धर्मके अनुकूल, सम और किसी-किसी अंशमें विपरीत भी है। जिन्हें सिद्धान्तका ज्ञान है उन्होंने इसे अपनानेका पूर्ण निश्चय कर लिया है। यह व्रत सभी आश्रमोंसे बढ़कर है। इसके अनुष्ठानसे उत्तम एवं प्रचुर फलकी प्राप्ति होती है। महाभाग! उस पाशुपत व्रतके अनुष्ठानका फल तुम्हें प्राप्त हो। अब तुम अपनी मानसिक चिन्ताका परित्याग कर दो’॥१८८—१९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महादेवः सपत्नीकः सहानुगः।
अदर्शनमनुप्राप्तो दक्षस्यामितविक्रमः ॥ १९१ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महादेवः सपत्नीकः सहानुगः।
अदर्शनमनुप्राप्तो दक्षस्यामितविक्रमः ॥ १९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दक्षसे ऐसा कहकर पत्नी और पार्षदोंसहित अमित पराक्रमी महादेवजी वहीं अन्तर्धान हो गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षप्रोक्तं स्तवमिमं कीर्तयेद् यः शृणोति वा।
नाशुभं प्राप्नुयात् किंचिद् दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥ १९२ ॥
मूलम्
दक्षप्रोक्तं स्तवमिमं कीर्तयेद् यः शृणोति वा।
नाशुभं प्राप्नुयात् किंचिद् दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥ १९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य दक्षके द्वारा कहे हुए इस स्तोत्रका कीर्तन अथवा श्रवण करेगा, उसे कोई अमंगल नहीं प्राप्त होगा। वह दीर्घ आयु प्राप्त करता है॥१९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सर्वेषु देवेषु वरिष्ठो भगवान् शिवः।
तथा स्तवो वरिष्ठोऽयं स्तवानां ब्रह्मसम्मितः ॥ १९३ ॥
मूलम्
यथा सर्वेषु देवेषु वरिष्ठो भगवान् शिवः।
तथा स्तवो वरिष्ठोऽयं स्तवानां ब्रह्मसम्मितः ॥ १९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे भगवान् शिव सब देवताओंमें श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार यह वेदतुल्य स्तोत्र सभी स्तुतियोंमें श्रेष्ठ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यशोराज्यसुखैश्वर्यकामार्थधनकांक्षिभिः ।
श्रोतव्यो भक्तिमास्थाय विद्याकामैश्च यत्नतः ॥ १९४ ॥
मूलम्
यशोराज्यसुखैश्वर्यकामार्थधनकांक्षिभिः ।
श्रोतव्यो भक्तिमास्थाय विद्याकामैश्च यत्नतः ॥ १९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यश, राज्य, सुख, ऐश्वर्य, काम, अर्थ, धन और विद्याकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको भक्तिभावका आश्रय लेकर यत्नपूर्वक इस स्तोत्रका श्रवण करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याधितो दुःखितो दीनश्चोरग्रस्तो भयार्दितः।
राजकार्याभियुक्तो वा मुच्यते महतो भयात् ॥ १९५ ॥
मूलम्
व्याधितो दुःखितो दीनश्चोरग्रस्तो भयार्दितः।
राजकार्याभियुक्तो वा मुच्यते महतो भयात् ॥ १९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रोगी, दुखी, दीन, चोरके हाथमें पड़ा हुआ, भयभीत तथा राजकार्यका अपराधी मनुष्य भी इस स्तोत्रका पाठ करनेसे महान् भयसे छुटकारा पा जाता है॥१९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेनैव तु देहेन गणानां समतां व्रजेत्।
तेजसा यशसा चैव युक्तो भवति निर्मलः ॥ १९६ ॥
मूलम्
अनेनैव तु देहेन गणानां समतां व्रजेत्।
तेजसा यशसा चैव युक्तो भवति निर्मलः ॥ १९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, वह इसी शरीरसे भगवान् शिवके गणोंकी समानता प्राप्त कर लेता है तथा तेज और यशसे सम्पन्न होकर निर्मल हो जाता है॥१९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न राक्षसाः पिशाचा वा न भूता न विनायकाः।
विघ्नं कुर्युर्गृहे तस्य यत्रायं पठ्यते स्तवः ॥ १९७ ॥
मूलम्
न राक्षसाः पिशाचा वा न भूता न विनायकाः।
विघ्नं कुर्युर्गृहे तस्य यत्रायं पठ्यते स्तवः ॥ १९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके यहाँ इस स्तोत्रका पाठ होता है, उसके घरमें राक्षस, पिशाच, भूत और विनायक कभी कोई विघ्न नहीं करते हैं॥१९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणुयाच्चैव या नारी तद्भक्ता ब्रह्मचारिणी।
पितृपक्षे भर्तृपक्षे पूज्या भवति देववत् ॥ १९८ ॥
मूलम्
शृणुयाच्चैव या नारी तद्भक्ता ब्रह्मचारिणी।
पितृपक्षे भर्तृपक्षे पूज्या भवति देववत् ॥ १९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो नारी भगवान् शंकरमें भक्तिभाव रखकर ब्रह्मचर्यका पालन करती हुई इस स्तोत्रको सुनती है, वह पितृकुल और पतिकुलमें देवताके समान आदरणीय होती है॥१९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणुयाद् यः स्तवं कृत्स्नं कीर्तयेद् वा समाहितः।
तस्य सर्वाणि कर्माणि सिद्धिं गच्छन्त्यभीक्ष्णशः ॥ १९९ ॥
मूलम्
शृणुयाद् यः स्तवं कृत्स्नं कीर्तयेद् वा समाहितः।
तस्य सर्वाणि कर्माणि सिद्धिं गच्छन्त्यभीक्ष्णशः ॥ १९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो एकाग्रचित्त होकर इस सम्पूर्ण स्तोत्रको सुनता अथवा पढ़ता है, उसके सारे कार्य सदा ही सिद्ध होते रहते हैं॥१९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसा चिन्तितं यच्च यच्च वाचानुकीर्तितम्।
सर्वं सम्पद्यते तस्य स्तवस्यास्यानुकीर्तनात् ॥ २०० ॥
मूलम्
मनसा चिन्तितं यच्च यच्च वाचानुकीर्तितम्।
सर्वं सम्पद्यते तस्य स्तवस्यास्यानुकीर्तनात् ॥ २०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मनसे जिस वस्तुके लिये चिन्तन करता है अथवा वाणीसे जिस मनोरथकी याचना करता है, उसका वह सारा अभीष्ट इस स्तोत्रके बार-बार पाठसे सिद्ध हो जाता है॥२००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवस्य च गुहस्यापि देव्या नन्दीश्वरस्य च।
बलिं सुविहितं कृत्वा दमेन नियमेन च ॥ २०१ ॥
ततस्तु युक्तो गृह्णीयान्नामान्याशु यथाक्रमम्।
ईप्सितान् लभते सोऽर्थान् भोगान् कामांश्च मानवः ॥ २०२ ॥
मृतश्च स्वर्गमाप्नोति तिर्यक्षु च न जायते।
इत्याह भगवान् व्यासः पराशरसुतः प्रभुः ॥ २०३ ॥
मूलम्
देवस्य च गुहस्यापि देव्या नन्दीश्वरस्य च।
बलिं सुविहितं कृत्वा दमेन नियमेन च ॥ २०१ ॥
ततस्तु युक्तो गृह्णीयान्नामान्याशु यथाक्रमम्।
ईप्सितान् लभते सोऽर्थान् भोगान् कामांश्च मानवः ॥ २०२ ॥
मृतश्च स्वर्गमाप्नोति तिर्यक्षु च न जायते।
इत्याह भगवान् व्यासः पराशरसुतः प्रभुः ॥ २०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको चाहिये कि वह इन्द्रियोंको संयममें रखकर शौच-संतोष आदि नियमोंका पालन करते हुए महादेवजी, कार्तिकेय, पार्वतीदेवी और नन्दिकेश्वरको विधिपूर्वक पूजोपहार समर्पित करे, फिर एकाग्रचित्त होकर क्रमशः इन सहस्र नामोंका पाठ करे। ऐसा करनेसे मनुष्य शीघ्र ही मनोवाञ्छित पदार्थों, भोगों और कामनाओंको प्राप्त कर लेता है तथा मृत्युके पश्चात् स्वर्गमें जाता है। उसे पशु-पक्षी आदिकी योनिमें जन्म नहीं लेना पड़ता है। इस प्रकार सर्वसमर्थ पराशरनन्दन भगवान् व्यासजीने इस स्तोत्रका माहात्म्य बतलाया है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि दक्षप्रोक्तशिवसहस्रनामस्तवे चतुरशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें दक्षद्वारा कथित शिवसहस्रनामस्तोत्रविषयक दो सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८४॥