२८२ ब्रह्महत्याविभागे

भागसूचना

द्व्यशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वृत्रासुरका वध और उससे प्रकट हुई ब्रह्महत्याका ब्रह्माजीके द्वारा चार स्थानोंमें विभाजन

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्रस्य तु महाराज ज्वराविष्टस्य सर्वशः।
अभवन् यानि लिङ्गानि शरीरे तानि मे शृणु ॥ १ ॥

मूलम्

वृत्रस्य तु महाराज ज्वराविष्टस्य सर्वशः।
अभवन् यानि लिङ्गानि शरीरे तानि मे शृणु ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— महाराज! ज्वरसे आविष्ट हुए वृत्रासुरके शरीरमें जो लक्षण प्रकट हुए थे, उन्हें मुझसे सुनो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्वलितास्योऽभवद् घोरो वैवर्ण्यं चागमत् परम्।
गात्रकम्पश्च सुमहान् श्वासश्चाप्यभवन्महान् ॥ २ ॥

मूलम्

ज्वलितास्योऽभवद् घोरो वैवर्ण्यं चागमत् परम्।
गात्रकम्पश्च सुमहान् श्वासश्चाप्यभवन्महान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके मुखमें विशेष जलन होने लगी। उसकी आकृति बड़ी भयानक हो गयी। अंगकान्ति बहुत फीकी पड़ गयी। शरीर जोर-जोरसे काँपने लगा तथा बड़े वेगसे साँस चलने लगी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोमहर्षश्च तीव्रोऽभून्निःश्वासश्च महान् नृप।
शिवा चाशिवसंकाशा तस्य वक्त्रात् सुदारुणा ॥ ३ ॥
निष्पपात महाघोरा स्मृतिः सा तस्य भारत।

मूलम्

रोमहर्षश्च तीव्रोऽभून्निःश्वासश्च महान् नृप।
शिवा चाशिवसंकाशा तस्य वक्त्रात् सुदारुणा ॥ ३ ॥
निष्पपात महाघोरा स्मृतिः सा तस्य भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उसके सारे शरीरमें तीव्र रोमांच हो आया। वह लंबी साँस खींचने लगा। भरतनन्दन! वृत्रासुरके मुखसे अत्यन्त भयंकर अकल्याणस्वरूपा महाघोर गीदड़ीके रूपमें उसकी स्मरणशक्ति ही बाहर निकल पड़ी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उल्काश्च ज्वलितास्तस्य दीप्ताः पार्श्वे प्रपेदिरे ॥ ४ ॥
गृध्राः कङ्का बलाकाश्च वाचोऽमुञ्चन् सुदारुणाः।
वृत्रस्योपरि संसृष्टाश्चक्रवत् परिबभ्रमुः ॥ ५ ॥

मूलम्

उल्काश्च ज्वलितास्तस्य दीप्ताः पार्श्वे प्रपेदिरे ॥ ४ ॥
गृध्राः कङ्का बलाकाश्च वाचोऽमुञ्चन् सुदारुणाः।
वृत्रस्योपरि संसृष्टाश्चक्रवत् परिबभ्रमुः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके पार्श्वभागमें प्रज्वलित एवं प्रकाशित उल्काएँ गिरने लगीं। गीध, कंक, बगले आदि भयंकर पक्षी अपनी बोली सुनाने लगे और एक-दूसरेसे सटकर वृत्रासुरके ऊपर चक्रकी भाँति घूमने लगे॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं रथमास्थाय देवाप्यायित आहवे।
वज्रोद्यतकरः शक्रस्तं दैत्यं समवैक्षत ॥ ६ ॥

मूलम्

ततस्तं रथमास्थाय देवाप्यायित आहवे।
वज्रोद्यतकरः शक्रस्तं दैत्यं समवैक्षत ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महादेवजीके तेजसे परिपुष्ट हो वज्र हाथमें लिये हुए इन्द्रने रथपर बैठकर युद्धमें उस दैत्यकी ओर देखा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमानुषमथो नादं स मुमोच महासुरः।
व्यजृम्भच्चैव राजेन्द्र तीव्रज्वरसमन्वितः ॥ ७ ॥

मूलम्

अमानुषमथो नादं स मुमोच महासुरः।
व्यजृम्भच्चैव राजेन्द्र तीव्रज्वरसमन्वितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! इसी समय तीव्र ज्वरसे पीड़ित हो उस महान् असुरने अमानुषी गर्जना की और बारंबार जँभाई ली॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथास्य जृम्भतः शक्रस्ततो वज्रमवासृजत्।
स वज्रः सुमहातेजाः कालाग्निसदृशोपमः ॥ ८ ॥

मूलम्

अथास्य जृम्भतः शक्रस्ततो वज्रमवासृजत्।
स वज्रः सुमहातेजाः कालाग्निसदृशोपमः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जँभाई लेते समय ही इन्द्रने उसके ऊपर वज्रका प्रहार किया। वह महातेजस्वी वज्र कालाग्निके समान जान पड़ता था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षिप्रमेव महाकायं वृत्रं दैत्यमपातयत्।
ततो नादः समभवत् पुनरेव समन्ततः ॥ ९ ॥
वृत्रं विनिहतं दृष्ट्‌वा देवानां भरतर्षभः।

मूलम्

क्षिप्रमेव महाकायं वृत्रं दैत्यमपातयत्।
ततो नादः समभवत् पुनरेव समन्ततः ॥ ९ ॥
वृत्रं विनिहतं दृष्ट्‌वा देवानां भरतर्षभः।

अनुवाद (हिन्दी)

उसने उस महाकाय दैत्य वृत्रासुरको तुरंत ही धराशायी कर दिया1। भरतश्रेष्ठ! फिर तो वृत्रासुरको मारा गया देख चारों ओरसे देवताओंका सिंहनाद वहाँ ‘बारबार गूँजने लगा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्रं तु हत्वा मघवा दानवारिर्महायशाः ॥ १० ॥
वज्रेण विष्णुयुक्तेन दिवमेव समाविशत्।

मूलम्

वृत्रं तु हत्वा मघवा दानवारिर्महायशाः ॥ १० ॥
वज्रेण विष्णुयुक्तेन दिवमेव समाविशत्।

अनुवाद (हिन्दी)

दानवशत्रु महायशस्वी इन्द्रने विष्णुके तेजसे व्याप्त हुए वज्रके द्वारा वृत्रासुरका वध करके पुनः स्वर्गलोकमें ही प्रवेश किया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वृत्रस्य कौरव्य शरीरादभिनिःसृता ॥ ११ ॥
ब्रह्मवध्या महाघोरा रौद्रा लोकभयावहा।
करालदशना भीमा विकृता कृष्णपिङ्गला ॥ १२ ॥

मूलम्

अथ वृत्रस्य कौरव्य शरीरादभिनिःसृता ॥ ११ ॥
ब्रह्मवध्या महाघोरा रौद्रा लोकभयावहा।
करालदशना भीमा विकृता कृष्णपिङ्गला ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! तदनन्तर वृत्रासुरके मृत शरीरसे सम्पूर्ण जगत्‌को भय देनेवाली महाघोर एवं क्रूर स्वभाववाली ब्रह्महत्या प्रकट हुई। उसके दाँत बड़े विकराल थे। उसकी आकृति कृष्ण और पिंगल वर्णकी थी। वह देखनेमें बड़ी भयानक और विकृत रूपवाली थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकीर्णमूर्धजा चैव घोरनेत्रा च भारत।
कपालमालिनी चैव कृत्येव भरतर्षभ ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रकीर्णमूर्धजा चैव घोरनेत्रा च भारत।
कपालमालिनी चैव कृत्येव भरतर्षभ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! उसके बाल बिखरे हुए थे, नेत्र बड़े भयावने थे। उसके गलेमें नरमुण्डोंकी माला थी। भरतश्रेष्ठ! वह कृत्या-सी जान पड़ती थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुधिरार्द्रा च धर्मज्ञ चीरवल्कलवासिनी।
साभिनिष्क्रम्य राजेन्द्र तादृग्रूपा भयावहा ॥ १४ ॥
वज्रिणं मृगयामास तदा भरतसत्तम।

मूलम्

रुधिरार्द्रा च धर्मज्ञ चीरवल्कलवासिनी।
साभिनिष्क्रम्य राजेन्द्र तादृग्रूपा भयावहा ॥ १४ ॥
वज्रिणं मृगयामास तदा भरतसत्तम।

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मज्ञ राजेन्द्र! भरतसत्तम! उसके सारे अंग रक्तसे भींगे हुए थे। उसने चीर और वल्कल पहन रखे थे। ऐसे विकराल रूपवाली वह भयानक ब्रह्महत्या वृत्रके शरीरसे निकलकर तत्काल ही वज्रधारी इन्द्रको खोजने लगी॥१४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्यचित् त्वथ कालस्य वृत्रहा कुरुनन्दन ॥ १५ ॥
स्वर्गायाभिमुखः प्रायाल्लोकानां हितकाम्यया ।
सा विनिःसरमाणं तु दृष्ट्वा शक्रं महौजसम् ॥ १६ ॥

मूलम्

कस्यचित् त्वथ कालस्य वृत्रहा कुरुनन्दन ॥ १५ ॥
स्वर्गायाभिमुखः प्रायाल्लोकानां हितकाम्यया ।
सा विनिःसरमाणं तु दृष्ट्वा शक्रं महौजसम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! उस समय वृत्रविनाशक इन्द्र लोक-हितकी कामनासे स्वर्गकी ओर जा रहे थे। महातेजस्वी इन्द्रको युद्धभूमिसे निकलकर जाते देख ब्रह्महत्या कुछ ही कालमें उनके पास जा पहुँची॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जग्राह वध्या देवेन्द्रं सुलग्ना चाभवत् तदा।
स हि तस्मिन् समुत्पन्ने ब्रह्मवध्याकृते भये ॥ १७ ॥
नलिन्या बिसमध्यस्थ उवासाब्दगणान् बहून्।

मूलम्

जग्राह वध्या देवेन्द्रं सुलग्ना चाभवत् तदा।
स हि तस्मिन् समुत्पन्ने ब्रह्मवध्याकृते भये ॥ १७ ॥
नलिन्या बिसमध्यस्थ उवासाब्दगणान् बहून्।

अनुवाद (हिन्दी)

उस ब्रह्महत्याने देवेन्द्रको पकड़ लिया और वह तुरंत ही उनके शरीरसे सट गयी। वह ब्रह्महत्याजनित भय उपस्थित होनेपर इन्द्र उससे पिण्ड छुड़ानेके लिये भागे और कमलकी नालके भीतर घुसकर उसीमें बहुत वर्षोंतक छिपे रहे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुसृत्य तु यत्नात् स तथा वै ब्रह्महत्यया ॥ १८ ॥
तदा गृहीतः कौरव्य निस्तेजाः समपद्यत।

मूलम्

अनुसृत्य तु यत्नात् स तथा वै ब्रह्महत्यया ॥ १८ ॥
तदा गृहीतः कौरव्य निस्तेजाः समपद्यत।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु उस ब्रह्महत्याने यत्नपूर्वक उनका पीछा करके वहाँ भी उन्हें जा पकड़ा। कुरुनन्दन! ब्रह्महत्याद्वारा पकड़ लिये जानेपर इन्द्र निस्तेज हो गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या व्यपोहने शक्रः परं यत्नं चकार ह ॥ १९ ॥
न चाशकत् तां देवेन्द्रो ब्रह्मवध्यां व्यपोहितुम्।

मूलम्

तस्या व्यपोहने शक्रः परं यत्नं चकार ह ॥ १९ ॥
न चाशकत् तां देवेन्द्रो ब्रह्मवध्यां व्यपोहितुम्।

अनुवाद (हिन्दी)

देवेन्द्रने उसके निवारणके लिये महान् प्रयत्न किया; परंतु किसी तरह भी वे उसे दूर न कर सके॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीत एव तु तया देवेन्द्रो भरतर्षभ ॥ २० ॥
पितामहमुपागम्य शिरसा प्रत्यपूजयत् ।

मूलम्

गृहीत एव तु तया देवेन्द्रो भरतर्षभ ॥ २० ॥
पितामहमुपागम्य शिरसा प्रत्यपूजयत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! ब्रह्महत्याने देवराज इन्द्रको अपना बंदी बना ही लिया। वे उसी अवस्थामें ब्रह्माजीके पास गये और मस्तक झुकाकर उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञात्वा गृहीतं शक्रं स द्विजप्रवरवध्यया ॥ २१ ॥
ब्रह्मा स चिन्तयामास तदा भरतसत्तम।

मूलम्

ज्ञात्वा गृहीतं शक्रं स द्विजप्रवरवध्यया ॥ २१ ॥
ब्रह्मा स चिन्तयामास तदा भरतसत्तम।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतसत्तम! एक श्रेष्ठ ब्राह्मणके वधसे पैदा हुई ब्रह्महत्याने इन्द्रको पकड़ लिया है—यह जानकर ब्रह्माजी विचार करने लगे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामुवाच महाबाहो ब्रह्मवध्यां पितामहः ॥ २२ ॥
स्वरेण मधुरेणाथ सान्त्वयन्निव भारत।

मूलम्

तामुवाच महाबाहो ब्रह्मवध्यां पितामहः ॥ २२ ॥
स्वरेण मधुरेणाथ सान्त्वयन्निव भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु भारत! तब ब्रह्माजीने उस ब्रह्महत्याको अपनी मीठी वाणीद्वारा सान्त्वना देते हुए-से उससे कहा—॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुच्यतां त्रिदशेन्द्रोऽयं मत्प्रियं कुरु भाविनि ॥ २३ ॥
ब्रूहि किं ते करोम्यद्य कामं किं त्वमिहेच्छसि ॥ २४ ॥

मूलम्

मुच्यतां त्रिदशेन्द्रोऽयं मत्प्रियं कुरु भाविनि ॥ २३ ॥
ब्रूहि किं ते करोम्यद्य कामं किं त्वमिहेच्छसि ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भाविनि! ये देवताओंके राजा इन्द्र हैं, इन्हें छोड़ दो। मेरा यह प्रिय कार्य करो। बोलो, मैं तुम्हारी कौन-सी अभिलाषा पूर्ण करूँ। तुम जिस किसी मनोरथको पाना चाहो उसे बताओ’॥२३-२४॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मवध्योवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिलोकपूजिते देवे प्रीते त्रैलोक्यकर्तरि।
कृतमेव हि मन्यामि निवासं तु विधत्स्व मे ॥ २५ ॥

मूलम्

त्रिलोकपूजिते देवे प्रीते त्रैलोक्यकर्तरि।
कृतमेव हि मन्यामि निवासं तु विधत्स्व मे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्महत्या बोली— तीनों लोकोंकी सृष्टि करने-वाले त्रिभुवनपूजित आप परमदेवके प्रसन्न हो जानेपर मैं अपने सारे मनोरथोंको पूर्ण हुआ ही मानती हूँ। अब आप मेरे लिये केवल निवासस्थानका प्रबन्ध कर दीजिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया कृतेयं मर्यादा लोकसंरक्षणार्थिना।
स्थापना वै सुमहती त्वया देव प्रवर्तिता ॥ २६ ॥

मूलम्

त्वया कृतेयं मर्यादा लोकसंरक्षणार्थिना।
स्थापना वै सुमहती त्वया देव प्रवर्तिता ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये यह धर्मकी मर्यादा बाँधी है। देव! आपहीने इस महत्त्वपूर्ण मर्यादाकी स्थापना करके इसे चलाया है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीते तु त्वयि धर्मज्ञ सर्वलोकेश्वर प्रभो।
शक्रादपगमिष्यामि निवासं संविधत्स्व मे ॥ २७ ॥

मूलम्

प्रीते तु त्वयि धर्मज्ञ सर्वलोकेश्वर प्रभो।
शक्रादपगमिष्यामि निवासं संविधत्स्व मे ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मके ज्ञाता सर्वलोकेश्वर प्रभो! जब आप प्रसन्न हैं तो मैं इन्द्रको छोड़कर हट जाऊँगी; परंतु आप मेरे लिये निवास-स्थानकी व्यवस्था कर दीजिये॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति तां प्राह तदा ब्रह्मवध्यां पितामहः।
उपायतः स शक्रस्य ब्रह्मवध्यां व्यपोहत ॥ २८ ॥

मूलम्

तथेति तां प्राह तदा ब्रह्मवध्यां पितामहः।
उपायतः स शक्रस्य ब्रह्मवध्यां व्यपोहत ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तब ब्रह्माजीने ब्रह्महत्यासे कहा—‘बहुत अच्छा, मैं तुम्हारे रहनेकी व्यवस्था करता हूँ’ ऐसा कहकर उन्होंने उपायद्वारा इन्द्रकी ब्रह्महत्याको दूर किया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्वयम्भुवा ध्यातस्तत्र वह्निर्महात्मना।
ब्रह्माणमुपसंगम्य ततो वचनमब्रवीत् ॥ २९ ॥

मूलम्

ततः स्वयम्भुवा ध्यातस्तत्र वह्निर्महात्मना।
ब्रह्माणमुपसंगम्य ततो वचनमब्रवीत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महात्मा स्वयम्भूने वहाँ अग्निदेवका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही वे ब्रह्माजीके पास आ गये और इस प्रकार बोले—॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्तोऽस्मि भगवन् देव त्वत्सकाशमनिन्दित।
यत् कर्तव्यं मया देव तद् भवान् वक्तुमर्हसि ॥ ३० ॥

मूलम्

प्राप्तोऽस्मि भगवन् देव त्वत्सकाशमनिन्दित।
यत् कर्तव्यं मया देव तद् भवान् वक्तुमर्हसि ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! अनिन्द्य देव! मैं आपके निकट आया हूँ। प्रभो! मुझे जो कार्य करना हो, उसके लिये आप मुझे आज्ञा दें’॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुधा विभजिष्यामि ब्रह्मवध्यामिमामहम् ।
शक्रस्याघविमोक्षार्थं चतुर्भागं प्रतीच्छ वै ॥ ३१ ॥

मूलम्

बहुधा विभजिष्यामि ब्रह्मवध्यामिमामहम् ।
शक्रस्याघविमोक्षार्थं चतुर्भागं प्रतीच्छ वै ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— अग्निदेव! मैं इन्द्रको पापमुक्त करनेके लिये इस ब्रह्महत्याके कई भाग करूँगा। इसका एक चतुर्थांश तुम भी ग्रहण कर लो॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

अग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम मोक्षस्य कोऽन्तो वै ब्रह्मन् ध्यायस्व वै प्रभो।
एतदिच्छामि विज्ञातुं तत्त्वतो लोकपूजित ॥ ३२ ॥

मूलम्

मम मोक्षस्य कोऽन्तो वै ब्रह्मन् ध्यायस्व वै प्रभो।
एतदिच्छामि विज्ञातुं तत्त्वतो लोकपूजित ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निने कहा— ब्रह्मन्! प्रभो! मेरे लिये आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, परंतु मैं भी इस ब्रह्महत्यासे मुक्त हो सकूँ, इसके लिये इसकी अन्तिम अवधि क्या होगी, इसपर आप विचार करें। विश्ववन्द्य पितामह! मैं इस बातको ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वां ज्वलन्तमासाद्य स्वयं वै मानवः क्वचित्।
बीजौषधिरसैर्वह्ने न यक्ष्यति तमोवृतः ॥ ३३ ॥
तमेषा यास्यति क्षिप्रं तत्रैव च निवत्स्यति।
ब्रह्मवध्या हव्यवाह व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ ३४ ॥

मूलम्

यस्त्वां ज्वलन्तमासाद्य स्वयं वै मानवः क्वचित्।
बीजौषधिरसैर्वह्ने न यक्ष्यति तमोवृतः ॥ ३३ ॥
तमेषा यास्यति क्षिप्रं तत्रैव च निवत्स्यति।
ब्रह्मवध्या हव्यवाह व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— अग्निदेव! यदि किसी स्थानपर तुम प्रज्वलित हो रहे हो, वहाँ पहुँचकर कोई अधिकारी मानव तमोगुणसे आवृत होनेके कारण बीज, ओषधि या रसोंसे स्वयं ही तुम्हारा पूजन नहीं करेगा तो उसीपर तुरंत यह ब्रह्महत्या चली जायगी और उसीके भीतर निवास करने लगेगी; अतः हव्यवाहन! तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः प्रतिजग्राह तद् वचो हव्यकव्यभुक्।
पितामहस्य भगवांस्तथा च तदभूत् प्रभो ॥ ३५ ॥

मूलम्

इत्युक्तः प्रतिजग्राह तद् वचो हव्यकव्यभुक्।
पितामहस्य भगवांस्तथा च तदभूत् प्रभो ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर हव्य और कव्यके भोक्ता भगवान् अग्निदेवने उन पितामहकी वह आज्ञा स्वीकार कर ली। इस प्रकार ब्रह्महत्याका एक चौथाई भाग अग्निमें चला गया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वृक्षौषधितृणं समाहूय पितामहः।
इममर्थं महाराज वक्तुं समुपचक्रमे ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततो वृक्षौषधितृणं समाहूय पितामहः।
इममर्थं महाराज वक्तुं समुपचक्रमे ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इसके बाद पितामह वृक्ष, तृण और ओषधियोंको बुलाकर उनसे भी वही बात कहने लगे॥

मूलम् (वचनम्)

(ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं वृत्रादनुप्राप्ता ब्रह्महत्या महाभया।
पुरुहूतं चतुर्थांशमस्या यूयं प्रतीच्छथ॥)

मूलम्

इयं वृत्रादनुप्राप्ता ब्रह्महत्या महाभया।
पुरुहूतं चतुर्थांशमस्या यूयं प्रतीच्छथ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी बोले— वृत्रासुरके वधसे यह महाभयंकर ब्रह्महत्या प्रकट होकर इन्द्रके पीछे लगी है। तुमलोग उसका एक चौथाई भाग स्वयं ग्रहण कर लो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वृक्षौषधितृणं तथैवोक्तं यथातथम्।
व्यथितं वह्निवद् राजन् ब्रह्माणमिदमब्रवीत् ॥ ३७ ॥

मूलम्

ततो वृक्षौषधितृणं तथैवोक्तं यथातथम्।
व्यथितं वह्निवद् राजन् ब्रह्माणमिदमब्रवीत् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ब्रह्माजीने जब उसी प्रकार सब बातें ठीक-ठीक सामने रख दीं, तब अग्निके ही समान वृक्ष, तृण और ओषधियोंका समुदाय भी व्यथित हो उठा और उन सबने ब्रह्माजीसे इस प्रकार कहा—॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्माकं ब्रह्मवध्यायाः कोऽन्तो लोकपितामह।
दैवेनाभिहतानस्मान् न पुनर्हन्तुमर्हसि ॥ ३८ ॥

मूलम्

अस्माकं ब्रह्मवध्यायाः कोऽन्तो लोकपितामह।
दैवेनाभिहतानस्मान् न पुनर्हन्तुमर्हसि ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोकपितामह! हमारी इस ब्रह्महत्याका अन्त क्या होगा? हम तो यों ही दैवके मारे हुए स्थावर योनिमें पड़े हैं; अतः अब आप पुनः हमें न मारें॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयमग्निं तथा शीतं वर्षं च पवनेरितम्।
सहामः सततं देव तथा च्छेदनभेदने ॥ ३९ ॥
ब्रह्मवध्यामिमामद्य भवतः शासनाद् वयम्।
ग्रहीष्यामस्त्रिलोकेश मोक्षं चिन्तयतां भवान् ॥ ४० ॥

मूलम्

वयमग्निं तथा शीतं वर्षं च पवनेरितम्।
सहामः सततं देव तथा च्छेदनभेदने ॥ ३९ ॥
ब्रह्मवध्यामिमामद्य भवतः शासनाद् वयम्।
ग्रहीष्यामस्त्रिलोकेश मोक्षं चिन्तयतां भवान् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देव! त्रिलोकीनाथ! हमलोग सदा अग्नि और धूपका ताप, सर्दी, वर्षा, आँधी और अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा भेदन-छेदनका कष्ट सहते रहते हैं। आज आपकी आज्ञासे इस ब्रह्महत्याको भी ग्रहण कर लेंगे; किंतु आप इनसे हमारे छुटकारेका उपाय भी तो सोचिये’॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्वकाले तु सम्प्राप्ते यो वै च्छेदनभेदनम्।
करिष्यति नरो मोहात् तमेषानुगमिष्यति ॥ ४१ ॥

मूलम्

पर्वकाले तु सम्प्राप्ते यो वै च्छेदनभेदनम्।
करिष्यति नरो मोहात् तमेषानुगमिष्यति ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— संक्रान्ति, ग्रहण, पूर्णिमा, अमावास्या आदि पर्वकाल प्राप्त होनेपर जो मनुष्य मोहवश तुम्हारा भेदन-छेदन करेगा, उसीके पीछे तुम्हारी यह ब्रह्महत्या लग जायगी॥४१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वृक्षौषधितृणमेवमुक्तं महात्मना ।
ब्रह्माणमभिसम्पूज्य जगामाशु यथागतम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

ततो वृक्षौषधितृणमेवमुक्तं महात्मना ।
ब्रह्माणमभिसम्पूज्य जगामाशु यथागतम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! महात्मा ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वृक्ष, ओषधि और तृणका समुदाय उनकी पूजा करके जैसे आया था, वैसे ही शीघ्र लौट गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहूयाप्सरसो देवस्ततो लोकपितामहः ।
वाचा मधुरया प्राह सान्त्वयन्निव भारत ॥ ४३ ॥

मूलम्

आहूयाप्सरसो देवस्ततो लोकपितामहः ।
वाचा मधुरया प्राह सान्त्वयन्निव भारत ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तत्पश्चात् लोकपितामह ब्रह्माजीने अप्सराओंको बुलाकर उन्हें मीठे वचनोंद्वारा सान्त्वना देते हुए-से कहा—॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयमिन्द्रादनुप्राप्ता ब्रह्मवध्या वराङ्गनाः ।
चतुर्थमस्या भागांशं मयोक्ताः सम्प्रतीच्छत ॥ ४४ ॥

मूलम्

इयमिन्द्रादनुप्राप्ता ब्रह्मवध्या वराङ्गनाः ।
चतुर्थमस्या भागांशं मयोक्ताः सम्प्रतीच्छत ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दरियो! यह ब्रह्महत्या इन्द्रके पाससे आयी है। तुमलोग मेरे कहनेसे इसका एक चतुर्थांश ग्रहण कर लो’॥

मूलम् (वचनम्)

अप्सरस ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रहणे कृतबुद्धीनां देवेश तव शासनात्।
मोक्षं समयतोऽस्माकं चिन्तयस्व पितामह ॥ ४५ ॥

मूलम्

ग्रहणे कृतबुद्धीनां देवेश तव शासनात्।
मोक्षं समयतोऽस्माकं चिन्तयस्व पितामह ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अप्सराएँ बोलीं— देवेश पितामह! आपकी आज्ञासे हमने इस ब्रह्महत्याको ग्रहण कर लेनेका विचार किया है, किंतु इससे हमारे छुटकारेके समयका भी विचार करनेकी कृपा करें॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजस्वलासु नारीषु यो वै मैथुनमाचरेत्।
तमेषा यास्यति क्षिप्रं व्येतु वो मानसो ज्वरः ॥ ४६ ॥

मूलम्

रजस्वलासु नारीषु यो वै मैथुनमाचरेत्।
तमेषा यास्यति क्षिप्रं व्येतु वो मानसो ज्वरः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— जो पुरुष रजस्वला स्त्रियोंके साथ मैथुन करेगा, उसपर यह ब्रह्महत्या शीघ्र चली जायगी; अतः तुम्हारी यह मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये॥४६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति हृष्टमनस इत्युक्त्वाप्सरसां गणाः।
स्वानि स्थानानि सम्प्राप्य रेमिरे भरतर्षभ ॥ ४७ ॥

मूलम्

तथेति हृष्टमनस इत्युक्त्वाप्सरसां गणाः।
स्वानि स्थानानि सम्प्राप्य रेमिरे भरतर्षभ ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भरतश्रेष्ठ! यह सुनकर अप्सराओंका मन प्रसन्न हो गया। वे ‘बहुत अच्छा’ कहकर अपने-अपने स्थानोंमें जाकर विहार करने लगीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्रिलोककृद् देवः पुनरेव महातपाः।
अपःसंचिन्तयामास ध्यातास्ताश्चाप्यथागमन् ॥ ४८ ॥

मूलम्

ततस्त्रिलोककृद् देवः पुनरेव महातपाः।
अपःसंचिन्तयामास ध्यातास्ताश्चाप्यथागमन् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब त्रिभुवनकी सृष्टि करनेवाले महातपस्वी भगवान् ब्रह्माने पुनः जलका चिन्तन किया। उनके स्मरण करते ही तुरंत जलदेवता वहाँ उपस्थित हो गये॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तास्तु सर्वाः समागम्य ब्रह्माणममितौजसम्।
इदमूचुर्वचो राजन् प्रणिपत्य पितामहम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

तास्तु सर्वाः समागम्य ब्रह्माणममितौजसम्।
इदमूचुर्वचो राजन् प्रणिपत्य पितामहम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे सब अमित तेजस्वी पितामह ब्रह्माजीके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार बोले—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमाः स्म देव सम्प्राप्तास्त्वत्सकाशमरिंदम।
शासनात् तव लोकेश समाज्ञापय नः प्रभो ॥ ५० ॥

मूलम्

इमाः स्म देव सम्प्राप्तास्त्वत्सकाशमरिंदम।
शासनात् तव लोकेश समाज्ञापय नः प्रभो ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंका दमन करनेवाले प्रभो! देव! लोकनाथ! हम आपकी आज्ञासे सेवामें उपस्थित हुए हैं। हमें आज्ञा दीजिये, हम कौन-सी सेवा करें?’॥५०॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं वृत्रादनुप्राप्ता पुरुहूतं महाभया।
ब्रह्मवध्या चतुर्थांशमस्या यूयं प्रतीच्छत ॥ ५१ ॥

मूलम्

इयं वृत्रादनुप्राप्ता पुरुहूतं महाभया।
ब्रह्मवध्या चतुर्थांशमस्या यूयं प्रतीच्छत ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— वृत्रासुरके वधसे इन्द्रको यह महाभयंकर ब्रह्महत्या प्राप्त हुई है। तुमलोग इसका एक चौथाई भाग ग्रहण कर लो॥५१॥

मूलम् (वचनम्)

आप ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं भवतु लोकेश यथा वदसि नः प्रभो।
मोक्षं समयतोऽस्माकं संचिन्तयितुमर्हसि ॥ ५२ ॥

मूलम्

एवं भवतु लोकेश यथा वदसि नः प्रभो।
मोक्षं समयतोऽस्माकं संचिन्तयितुमर्हसि ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जलदेवताने कहा— लोकेश्वर! प्रभो! आप जैसा कहते हैं, ऐसा ही होगा; परंतु हम इस ब्रह्महत्यासे किस समय छुटकारा पायेंगे, इसका भी विचार कर लें॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि देवेश सर्वस्य जगतः परमा गतिः।
कोऽन्यः प्रसादो हि भवेद् यन्नः कृच्छ्रात्‌ समुद्धरेत् ॥ ५३ ॥

मूलम्

त्वं हि देवेश सर्वस्य जगतः परमा गतिः।
कोऽन्यः प्रसादो हि भवेद् यन्नः कृच्छ्रात्‌ समुद्धरेत् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वर! आप ही इस सम्पूर्ण जगत्‌के परम आश्रय हैं। आप हमारा इस संकटसे उद्धार कर दें, इससे बढ़कर हम लोगोंपर दूसरा कौन अनुग्रह होगा॥५३॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पा इति मतिं कृत्वा यो नरो बुद्धिमोहितः।
श्लेष्ममूत्रपुरीषाणि युष्मासु प्रतिमोक्ष्यति ॥ ५४ ॥
तमियं यास्यति क्षिप्रं तत्रैव च निवत्स्यति।
तथा वो भविता मोक्ष इति सत्यं ब्रवीमि वः॥५५॥

मूलम्

अल्पा इति मतिं कृत्वा यो नरो बुद्धिमोहितः।
श्लेष्ममूत्रपुरीषाणि युष्मासु प्रतिमोक्ष्यति ॥ ५४ ॥
तमियं यास्यति क्षिप्रं तत्रैव च निवत्स्यति।
तथा वो भविता मोक्ष इति सत्यं ब्रवीमि वः॥५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— जो मनुष्य अपनी बुद्धिकी मन्दतासे मोहित होकर जलमें तुच्छ बुद्धि करके तुम्हारे भीतर थूक, खँखार या मल-मूत्र डालेगा, तुम्हें छोड़कर यह ब्रह्महत्या तुरंत उसीपर चली जायगी और उसीके भीतर निवास करेगी। इस प्रकार तुमलोगोंका ब्रह्महत्यासे उद्धार हो जायगा, यह मैं सत्य कहता हूँ॥५४-५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विमुच्य देवेन्द्रं ब्रह्मवध्या युधिष्ठिर।
यथा विसृष्टं तं वासमगमद् देवशासनात् ॥ ५६ ॥

मूलम्

ततो विमुच्य देवेन्द्रं ब्रह्मवध्या युधिष्ठिर।
यथा विसृष्टं तं वासमगमद् देवशासनात् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! तदनन्तर देवराज इन्द्रको छोड़कर वह ब्रह्महत्या ब्रह्माजीकी आज्ञासे उनके दिये हुए पूर्वोक्त निवास-स्थानोंको चली गयी॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं शक्रेण सम्प्राप्ता ब्रह्मवध्या जनाधिप।
पितामहमनुज्ञाप्य सोऽश्वमेधमकल्पयत् ॥ ५७ ॥

मूलम्

एवं शक्रेण सम्प्राप्ता ब्रह्मवध्या जनाधिप।
पितामहमनुज्ञाप्य सोऽश्वमेधमकल्पयत् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इस प्रकार इन्द्रको ब्रह्महत्या प्राप्त हुई थी, फिर उन्होंने ब्रह्माजीकी आज्ञा लेकर अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किया॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रूयते च महाराज सम्प्राप्ता वासवेन वै।
ब्रह्मवध्या ततः शुद्धिं हयमेधेन लब्धवान् ॥ ५८ ॥

मूलम्

श्रूयते च महाराज सम्प्राप्ता वासवेन वै।
ब्रह्मवध्या ततः शुद्धिं हयमेधेन लब्धवान् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! सुननेमें आता है कि इन्द्रको जो ब्रह्महत्या लगी थी, उससे उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करके ही शुद्धि लाभ की थी॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समवाप्य श्रियं देवो हत्वारींश्च सहस्रशः।
प्रहर्षमतुलं लेभे वासवः पृथिवीपते ॥ ५९ ॥

मूलम्

समवाप्य श्रियं देवो हत्वारींश्च सहस्रशः।
प्रहर्षमतुलं लेभे वासवः पृथिवीपते ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! देवराज इन्द्रने सहस्रों शत्रुओंका वध करके अपनी खोयी हुई राजलक्ष्मीको पाकर अनुपम आनन्द प्राप्त किया॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्रस्य रुधिराच्चैव शिखण्डाः पार्थ जज्ञिरे।
द्विजातिभिरभक्ष्यास्ते दीक्षितैश्च तपोधनैः ॥ ६० ॥

मूलम्

वृत्रस्य रुधिराच्चैव शिखण्डाः पार्थ जज्ञिरे।
द्विजातिभिरभक्ष्यास्ते दीक्षितैश्च तपोधनैः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! वृत्रासुरके रक्तसे बहुतेरे छत्रक उत्पन्न हुए थे, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यके लिये तथा यज्ञकी दीक्षा लेनेवालोंके लिये और तपस्वियोंके लिये अभक्षणीय हैं॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वावस्थं त्वमप्येषां द्विजातीनां प्रियं कुरु।
इमे हि भूतले देवाः प्रथिताः कुरुनन्दन ॥ ६१ ॥

मूलम्

सर्वावस्थं त्वमप्येषां द्विजातीनां प्रियं कुरु।
इमे हि भूतले देवाः प्रथिताः कुरुनन्दन ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! तुम भी इन ब्राह्मणोंका सभी अवस्थाओंमें प्रिय करो। ये इस पृथ्वीपर देवताके रूपमें विख्यात हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं शक्रेण कौरव्य बुद्धिसौक्ष्म्यान्महासुरः।
उपायपूर्वं निहतो वृत्रो ह्यमिततेजसा ॥ ६२ ॥

मूलम्

एवं शक्रेण कौरव्य बुद्धिसौक्ष्म्यान्महासुरः।
उपायपूर्वं निहतो वृत्रो ह्यमिततेजसा ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलभूषण! इस तरह अमित तेजस्वी देवराज इन्द्रने अपनी सूक्ष्म बुद्धिसे काम लेकर उपायपूर्वक महान् असुर वृत्रका वध किया था॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं त्वमपि कौन्तेय पृथिव्यामपराजितः।
भविष्यसि यथा देवः शतक्रतुरमित्रहा ॥ ६३ ॥

मूलम्

एवं त्वमपि कौन्तेय पृथिव्यामपराजितः।
भविष्यसि यथा देवः शतक्रतुरमित्रहा ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार! जैसे स्वर्गलोकमें शत्रुसूदन इन्द्रदेव विजयी हुए थे, उसी प्रकार तुम भी इस पृथ्वीपर किसीसे पराजित होनेवाले नहीं हो॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये तु शक्रकथां दिव्यामिमां पर्वसु पर्वसु।
विप्रमध्ये वदिष्यन्ति न ते प्राप्स्यन्ति किल्बिषम् ॥ ६४ ॥

मूलम्

ये तु शक्रकथां दिव्यामिमां पर्वसु पर्वसु।
विप्रमध्ये वदिष्यन्ति न ते प्राप्स्यन्ति किल्बिषम् ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रत्येक पर्वके दिन ब्राह्मणोंकी सभामें इस दिव्य कथाका प्रवचन करेंगे, उन्हें किसी प्रकारका पाप नहीं प्राप्त होगा॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतद् वृत्रमाश्रित्य शक्रस्यात्यद्भुतं महत्।
कथितं कर्म ते तात किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६५ ॥

मूलम्

इत्येतद् वृत्रमाश्रित्य शक्रस्यात्यद्भुतं महत्।
कथितं कर्म ते तात किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! इस प्रकार वृत्रासुरके प्रसंगसे मैंने तुम्हें यह इन्द्रका अत्यन्त अद्‌भुत चरित्र सुना दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?॥६५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि ब्रह्महत्याविभागे द्व्यशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें ब्रह्महत्याका विभाजनविषयक दो सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६६ श्लोक हैं)


  1. अध्याय २८० के ५९ वें श्लोकमें आया है कि ‘वृत्रासुरने अपने आत्माको परमात्मामें लगाकर उन्हींका चिन्तन करते हुए प्राण त्याग दिये और परमेश्वरके परम धामको प्राप्त कर लिया’—यहाँ भी इतनी बात और समझ लेनी चाहिये। ↩︎