२८० वृत्रगीतासु

भागसूचना

अशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वृत्रासुरको सनत्कुमारका अध्यात्मविषयक उपदेश देना और उसकी परमगति तथा भीष्मद्वारा युधिष्ठिरकी शंकाका निवारण

मूलम् (वचनम्)

उशनोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्तस्मै भगवते देवाय प्रभविष्णवे।
यस्य पृथ्वीतलं तात साकाशं बाहुगोचरः ॥ १ ॥

मूलम्

नमस्तस्मै भगवते देवाय प्रभविष्णवे।
यस्य पृथ्वीतलं तात साकाशं बाहुगोचरः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्राचार्यने कहा— तात! आकाशसहित यह सारी पृथ्वी जिनकी भुजाओंके बलपर स्थित है, महान् प्रभावशाली उन भगवान् विष्णुदेवको नमस्कार है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्धा यस्य त्वनन्तं च स्थानं दानवसत्तम।
तस्याहं ते प्रवक्ष्यामि विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् ॥ २ ॥

मूलम्

मूर्धा यस्य त्वनन्तं च स्थानं दानवसत्तम।
तस्याहं ते प्रवक्ष्यामि विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दानवश्रेष्ठ! जिनका मस्तक और स्थान भी अनन्त है, उन भगवान् विष्णुका उत्तम माहात्म्य मैं तुम्हें बताऊँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः संवदतोरेवमाजगाम महामुनिः ।
सनत्कुमारो धर्मात्मा संशयच्छेदनाय वै ॥ ३ ॥

मूलम्

तयोः संवदतोरेवमाजगाम महामुनिः ।
सनत्कुमारो धर्मात्मा संशयच्छेदनाय वै ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्राचार्य और वृत्रासुरमें ये बातें हो ही रही थीं कि वहाँ महामुनि धर्मात्मा सनत्कुमार उनके संशयका निवारण करनेके लिये आ पहुँचे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पूजितोऽसुरेन्द्रेण मुनिनोशनसा तथा।
निषसादासने राजन् महार्हे मुनिपुङ्गवः ॥ ४ ॥

मूलम्

स पूजितोऽसुरेन्द्रेण मुनिनोशनसा तथा।
निषसादासने राजन् महार्हे मुनिपुङ्गवः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! असुरराज वृत्र और मुनि शुक्राचार्यके द्वारा पूजित हो मुनिवर सनत्कुमार एक बहुमूल्य सिंहासनपर विराजमान हुए॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमासीनं महाप्रज्ञमुशना वाक्यमब्रवीत् ।
ब्रूह्यस्मै दानवेन्द्राय विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तमासीनं महाप्रज्ञमुशना वाक्यमब्रवीत् ।
ब्रूह्यस्मै दानवेन्द्राय विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब महाज्ञानी सनत्कुमार आरामसे बैठ गये, तब शुक्राचार्यने उनसे कहा—‘भगवन्! आप इस दानवराजको भगवान् विष्णुका उत्तम माहात्म्य बताइये’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनत्कुमारस्तु ततः श्रुत्वा प्राह वचोऽर्थवत्।
विष्णोर्माहात्म्यसंयुक्तं दानवेन्द्राय धीमते ॥ ६ ॥

मूलम्

सनत्कुमारस्तु ततः श्रुत्वा प्राह वचोऽर्थवत्।
विष्णोर्माहात्म्यसंयुक्तं दानवेन्द्राय धीमते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर सनत्कुमारजीने बुद्धिमान् दानवराज वृत्रासुरके प्रति भगवान् विष्णुकी महिमासे युक्त यह सार्थक वचन कहा—॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु सर्वमिदं दैत्य विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम्।
विष्णौ जगत् स्थितं सर्वमिति विद्धि परंतप ॥ ७ ॥

मूलम्

शृणु सर्वमिदं दैत्य विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम्।
विष्णौ जगत् स्थितं सर्वमिति विद्धि परंतप ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले दैत्य! भगवान् विष्णुका यह सम्पूर्ण उत्तम माहात्म्य सुनो—तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि यह समस्त संसार भगवान् विष्णुमें ही स्थित है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृजत्येष महाबाहो भूतग्रामं चराचरम्।
एष चाक्षिपते काले काले विसृजते पुनः ॥ ८ ॥

मूलम्

सृजत्येष महाबाहो भूतग्रामं चराचरम्।
एष चाक्षिपते काले काले विसृजते पुनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पर महाबाहो! ये श्रीविष्णु ही सम्पूर्ण चराचर प्राणिसमुदायकी सृष्टि करते हैं और ये ही समय आनेपर उसका विनाश करते हैं एवं समय आनेपर पुनः सृष्टि भी करते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् गच्छन्ति विलयमस्माच्च प्रभवन्त्युत।
नैष ज्ञानवता शक्यस्तपसा नैव चेज्यया।
सम्प्राप्तुमिन्द्रियाणां तु संयमेनैव शक्यते ॥ ९ ॥

मूलम्

अस्मिन् गच्छन्ति विलयमस्माच्च प्रभवन्त्युत।
नैष ज्ञानवता शक्यस्तपसा नैव चेज्यया।
सम्प्राप्तुमिन्द्रियाणां तु संयमेनैव शक्यते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समस्त प्राणी इन्हींमें लयको प्राप्त होते हैं और इन्हींसे प्रकट भी होते हैं। इन्हें कोई शास्त्रज्ञान, तपस्या और यज्ञके द्वारा भी नहीं पा सकता। केवल इन्द्रियोंके संयमसे ही उनकी उपलब्धि हो सकती है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्ये चाभ्यन्तरे चैव कर्मणोर्मनसि स्थितः।
निर्मलीकुरुते बुद्ध्या सोऽमुत्रानन्त्यमश्नुते ॥ १० ॥

मूलम्

बाह्ये चाभ्यन्तरे चैव कर्मणोर्मनसि स्थितः।
निर्मलीकुरुते बुद्ध्या सोऽमुत्रानन्त्यमश्नुते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो बाह्य (यज्ञ आदि) और आभ्यन्तर (शम, दम आदि) कर्मोंमें प्रवृत्त होकर मनके विषयमें स्थिरता प्राप्त करके अर्थात् मनको स्थिर करके बुद्धिके द्वारा उसे निर्मल बनाता है, वह परलोकमें अक्षय सुख (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हिरण्यकर्ता वै रूप्यमग्नौ विशोधयेत्।
बहुशोऽतिप्रयत्नेन महताऽऽत्मकृतेन ह ॥ ११ ॥
तद्वज्जातिशतैर्जीवः शुद्ध्यतेऽनेन कर्मणा ।
यत्नेन महता चैवाप्येकजातौ विशुद्ध्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

यथा हिरण्यकर्ता वै रूप्यमग्नौ विशोधयेत्।
बहुशोऽतिप्रयत्नेन महताऽऽत्मकृतेन ह ॥ ११ ॥
तद्वज्जातिशतैर्जीवः शुद्ध्यतेऽनेन कर्मणा ।
यत्नेन महता चैवाप्येकजातौ विशुद्ध्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे सोनार बारंबार किये हुए अपने महान् प्रयत्नके द्वारा चाँदीको आगमें डालकर उसे शुद्ध करता है, उसी प्रकार जीव सैकड़ों जन्मोंमें अपने मनको शुद्ध कर पाता है; परंतु इस यज्ञ आदि और शम-दम आदि कर्मोंद्वारा यदि वह महान् प्रयत्न करे तो एक ही जन्ममें शुद्ध हो जाता है॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लीलयाल्पं यथा गात्रात् प्रमृज्यादात्मनो रजः।
बहुयत्नेन महता दोषनिर्हरणं तथा ॥ १३ ॥

मूलम्

लीलयाल्पं यथा गात्रात् प्रमृज्यादात्मनो रजः।
बहुयत्नेन महता दोषनिर्हरणं तथा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे अपने शरीरमें लगी हुई थोड़ी-सी धूलको मनुष्य साधारण चेष्टासे खेल-खेलमें ही झाड़-पोछ देता है, उसी प्रकार बारंबार किये हुए महान् प्रयत्नसे वह अपने राग-द्वेष आदि दोषोंको भी दूर कर सकता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा चाल्पेन माल्येन वासितं तिलसर्षपम्।
न मुञ्चति स्वकं गन्धं तद्वत् सूक्ष्मस्य दर्शनम् ॥ १४ ॥

मूलम्

यथा चाल्पेन माल्येन वासितं तिलसर्षपम्।
न मुञ्चति स्वकं गन्धं तद्वत् सूक्ष्मस्य दर्शनम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे थोड़े-से पुष्प एवं मालाद्वारा वासित किया हुआ तिल और सरसोंका तेल अपनी गन्ध नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार थोड़े-से प्रयत्नसे न तो दोष दूर होते हैं और न सूक्ष्म ब्रह्मका साक्षात्कार ही हो पाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेव बहुभिर्माल्यैर्वास्यमानं पुनः पुनः।
विमुञ्चति स्वकं गन्धं माल्यगन्धे च तिष्ठति ॥ १५ ॥
एवं जातिशतैर्युक्तो गुणैरेव प्रसङ्गिषु।
बुद्ध्या निवर्तते दोषो यत्नेनाभ्यासजेन ह ॥ १६ ॥

मूलम्

तदेव बहुभिर्माल्यैर्वास्यमानं पुनः पुनः।
विमुञ्चति स्वकं गन्धं माल्यगन्धे च तिष्ठति ॥ १५ ॥
एवं जातिशतैर्युक्तो गुणैरेव प्रसङ्गिषु।
बुद्ध्या निवर्तते दोषो यत्नेनाभ्यासजेन ह ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वही तिल या सरसोंका तेल बहुत-से सुगन्धित पुष्पोंद्वारा बारंबार वासित होनेपर अपनी गन्धको छोड़ देता है और उस फूलकी गन्धमें ही स्थित हो जाता है। उसी प्रकार सैकड़ों जन्मोंमें स्त्री-पुत्र आदिके संसर्गसे युक्त तथा सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंद्वारा प्रवर्तित दोषसमूह बुद्धि तथा अभ्यासजनित यत्नसे निवृत्त हो पाता है॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा स्वनुरक्तानि विरक्तानि च दानव।
यथा कर्मविशेषांश्च प्राप्नुवन्ति तथा शृणु ॥ १७ ॥

मूलम्

कर्मणा स्वनुरक्तानि विरक्तानि च दानव।
यथा कर्मविशेषांश्च प्राप्नुवन्ति तथा शृणु ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दनुनन्दन! कर्मसे अनुरक्त और कर्मसे विरक्त होनेवाले प्राणिसमूह जिस प्रकार राग और विरागके हेतुभूत विभिन्न कर्मोंको प्राप्त होते हैं, वह सुनो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथावत् सम्प्रवर्तन्ते यस्मिंस्तिष्ठन्ति वा विभो।
तत् तेऽनुपूर्व्या व्याख्यास्ये तदिहैकमनाः शृणु ॥ १८ ॥

मूलम्

यथावत् सम्प्रवर्तन्ते यस्मिंस्तिष्ठन्ति वा विभो।
तत् तेऽनुपूर्व्या व्याख्यास्ये तदिहैकमनाः शृणु ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! जिस प्रकार वे कर्ममें प्रवृत्त होते तथा जिस निमित्तसे उसमें स्थित होते हैं और जिस अवस्थामें उससे निवृत्त हो जाते हैं, वह सब मैं तुमसे क्रमशः बताऊँगा। तुम उसे यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनादिनिधनः श्रीमान् हरिर्नारायणः प्रभुः।
देवः सृजति भूतानि स्थावराणि चराणि च ॥ १९ ॥

मूलम्

अनादिनिधनः श्रीमान् हरिर्नारायणः प्रभुः।
देवः सृजति भूतानि स्थावराणि चराणि च ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीमान् भगवान् नारायण हरि आदि और अन्तसे रहित हैं। वे ही चराचर प्राणियोंकी रचना करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै सर्वेषु भूतेषु क्षरश्चाक्षर एव च।
एकादशविकारात्मा जगत् पिबति रश्मिभिः ॥ २० ॥

मूलम्

स वै सर्वेषु भूतेषु क्षरश्चाक्षर एव च।
एकादशविकारात्मा जगत् पिबति रश्मिभिः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे ही सम्पूर्ण प्राणियोंमें क्षर और अक्षररूपसे विद्यमान हैं। ग्यारह इन्द्रियोंका जो वैकारिक1 सर्ग है, वह भी उन्हींका स्वरूप है। वे अपनी चैतन्यमयी किरणोंद्वारा सम्पूर्ण जगत्‌में व्याप्त हो रहे हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादौ तस्य महीं विद्धि मूर्धानं दिवमित्युत।
बाहवस्तु दिशो दैत्य श्रोत्रमाकाशमेव च ॥ २१ ॥
तस्य तेजोमयः सूर्यो मनश्चन्द्रमसि स्थितम्।
बुद्धिर्ज्ञानगता नित्यं रसस्त्वप्सु प्रतिष्ठितः ॥ २२ ॥

मूलम्

पादौ तस्य महीं विद्धि मूर्धानं दिवमित्युत।
बाहवस्तु दिशो दैत्य श्रोत्रमाकाशमेव च ॥ २१ ॥
तस्य तेजोमयः सूर्यो मनश्चन्द्रमसि स्थितम्।
बुद्धिर्ज्ञानगता नित्यं रसस्त्वप्सु प्रतिष्ठितः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दैत्यराज! पृथ्वीको भगवान् विष्णुके दोनों चरण समझो, स्वर्गलोकको मस्तक जानो, ये चारों दिशाएँ उनकी चार भुजाएँ हैं, आकाश कान है, तेजस्वी सूर्य उनका नेत्र है, मन चन्द्रमा है, बुद्धि (महत्तत्त्व) उनकी नित्य ज्ञानवृत्ति है और जल रसनेन्द्रिय है॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रुवोरनन्तरास्तस्य ग्रहा दानवसत्तम ।
नक्षत्रचक्रं नेत्राभ्यां पादयोर्भूश्च दानव ॥ २३ ॥

मूलम्

भ्रुवोरनन्तरास्तस्य ग्रहा दानवसत्तम ।
नक्षत्रचक्रं नेत्राभ्यां पादयोर्भूश्च दानव ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दानवप्रवर! सम्पूर्ण ग्रह उनकी दोनों भौंहोंके बीचमें स्थित हैं। नक्षत्रमण्डल नेत्रोंसे प्रकट हुआ है। दनुनन्दन! यह पृथ्वी उनके दोनों चरणोंमें स्थित है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(तं विद्धि भूतं विश्वादिं परमं विद्धि चेश्वरम्।)
रजस्तमश्च सत्त्वं च विद्धि नारायणात्मकम्।
सोऽऽश्रमाणां फलं तात कर्मणस्तत् फलं विदुः ॥ २४ ॥

मूलम्

(तं विद्धि भूतं विश्वादिं परमं विद्धि चेश्वरम्।)
रजस्तमश्च सत्त्वं च विद्धि नारायणात्मकम्।
सोऽऽश्रमाणां फलं तात कर्मणस्तत् फलं विदुः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन्हें तुम सम्पूर्ण भूतस्वरूप, इस जगत्‌का आदिकारण और परमेश्वर समझो। रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण—इन तीनोंको नारायणमय ही मानो। तात! समस्त आश्रमोंका फल वे ही हैं। विद्वान् पुरुष समस्त कर्मोंद्वारा प्राप्तव्य फल उन्हींको मानते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकमर्णः फलं चैव स एव परमव्ययः।
छन्दांसि यस्य रोमाणि ह्यक्षरं च सरस्वती ॥ २५ ॥

मूलम्

अकमर्णः फलं चैव स एव परमव्ययः।
छन्दांसि यस्य रोमाणि ह्यक्षरं च सरस्वती ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्मोंका त्यागरूप जो संन्यास है, उसका फल भी वे ही अविनाशी परमात्मा हैं। वेद-मन्त्र उनके रोम हैं तथा प्रणव उनकी वाणी है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बह्वाश्रयो बहुमुखो धर्मो हृदि समाश्रितः।
स ब्रह्म परमो धर्मस्तपश्च सदसच्च सः ॥ २६ ॥

मूलम्

बह्वाश्रयो बहुमुखो धर्मो हृदि समाश्रितः।
स ब्रह्म परमो धर्मस्तपश्च सदसच्च सः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बहुत-से वर्ण और आश्रम उनके आश्रय हैं, उनके अनेक मुख हैं। हृदयमें आश्रित धर्म भी उन्हींका स्वरूप है। वे ही ब्रह्म हैं। वे ही आत्मदर्शनरूप परम धर्म हैं। वे ही तप और सदसत्स्वरूप हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतिशास्त्रग्रहोपेतः षोडशर्त्विक् क्रतुश्च सः।
पितामहश्च विष्णुश्च सोऽश्विनौ स पुरंदरः।
मित्रोऽथ वरुणश्चैव यमोऽथ धनदस्तथा ॥ २७ ॥

मूलम्

श्रुतिशास्त्रग्रहोपेतः षोडशर्त्विक् क्रतुश्च सः।
पितामहश्च विष्णुश्च सोऽश्विनौ स पुरंदरः।
मित्रोऽथ वरुणश्चैव यमोऽथ धनदस्तथा ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रुति (वेद), शास्त्र और सोमपात्रसहित सोलह1 ऋत्विजोंवाला यज्ञ भी वे ही हैं। वे ही ब्रह्मा, विष्णु, अश्विनीकुमार, इन्द्र, मित्र, वरुण, यम और कुबेर हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते पृथग्दर्शनास्तस्य संविदन्ति तथैकताम्।
एकस्य विद्धि देवस्य सर्वं जगदिदं वशे ॥ २८ ॥

मूलम्

ते पृथग्दर्शनास्तस्य संविदन्ति तथैकताम्।
एकस्य विद्धि देवस्य सर्वं जगदिदं वशे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनका दर्शन पृथक्-पृथक् होनेपर भी वे अपनी एकताको जानते हैं। तुम भी इस सम्पूर्ण जगत्‌को एक परमात्मदेवके ही अधीन समझो॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानाभूतस्य दैत्येन्द्र तस्यैकत्वं वदत्ययम्।
जन्तुः पश्यति विज्ञानात् ततो ब्रह्म प्रकाशते ॥ २९ ॥

मूलम्

नानाभूतस्य दैत्येन्द्र तस्यैकत्वं वदत्ययम्।
जन्तुः पश्यति विज्ञानात् ततो ब्रह्म प्रकाशते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दैत्यराज! अनेक रूपोंमें प्रकट हुए उन परमात्माकी एकताका यह वेद प्रतिपादन करता है। जीव विज्ञानबलसे ही ब्रह्मका साक्षात्कार करता है। उस समय उसकी बुद्धिमें वह ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहारविक्षेपसहस्रकोटी-
स्तिष्ठन्ति जीवाः प्रचरन्ति चान्ये।
प्रजाविसर्गस्य च पारिमाण्यं
वापीसहस्राणि बहूनि दैत्य ॥ ३० ॥

मूलम्

संहारविक्षेपसहस्रकोटी-
स्तिष्ठन्ति जीवाः प्रचरन्ति चान्ये।
प्रजाविसर्गस्य च पारिमाण्यं
वापीसहस्राणि बहूनि दैत्य ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कितने ही जीव करोड़ों कल्पोंतक स्थावररूपसे एक स्थानमें स्थित रहते हैं और कितने ही उतने समयतक इधर-उधर विचरते रहते हैं। दैत्यप्रवर! प्रजाके सृष्टिका परिमाण कई हजार बावड़ियोंकी संख्याके समान है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाप्यः पुनर्योजनविस्तृतास्ताः
क्रोशं च गम्भीरतयावगाढाः ।
आयामतः पञ्चशताश्च सर्वाः
प्रत्येकशो योजनतः प्रवृद्धाः ॥ ३१ ॥
वाप्या जलं क्षिप्यति वालकोट्या
त्वह्ना सकृच्चाप्यथ न द्वितीयम्।
तासां क्षये विद्धि परं विसर्गं
संहारमेकं च तथा प्रजानाम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

वाप्यः पुनर्योजनविस्तृतास्ताः
क्रोशं च गम्भीरतयावगाढाः ।
आयामतः पञ्चशताश्च सर्वाः
प्रत्येकशो योजनतः प्रवृद्धाः ॥ ३१ ॥
वाप्या जलं क्षिप्यति वालकोट्या
त्वह्ना सकृच्चाप्यथ न द्वितीयम्।
तासां क्षये विद्धि परं विसर्गं
संहारमेकं च तथा प्रजानाम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे सारी बावड़ियाँ पाँच सौ योजन चौड़ी, पाँच सौ योजन लंबी और एक-एक कोस गहरी हों। गहराई इतनी हो कि कोई उनमें प्रवेश न कर सके। तात्पर्य यह कि प्रत्येक बावड़ी बहुत लंबी-चौड़ी और गहरी हो—उनमेंसे एक बावड़ीके जलको कोई दिनभरमें एक ही बार एक बालकी नोकसे उलीचे, दूसरी बार न उलीचे। इस प्रकार उलीचनेसे उन सारी बावड़ियोंका जल जितने समयमें समाप्त हो सकता है, उतने ही समयमें प्राणियोंकी सृष्टि और संहारके क्रमकी समाप्ति हो सकती है (अर्थात् जैसे उक्त प्रकारसे उलीचनेपर उन बावड़ियोंका जल सूखना असम्भव है, वैसे ही बिना ज्ञानके संसारका उच्छेद होना असम्भव है।)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षड् जीववर्णाः परमं प्रमाणं
कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम्।
रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु
हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

षड् जीववर्णाः परमं प्रमाणं
कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम्।
रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु
हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राणियोंके वर्ण छः प्रकारके हैं—कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हरिद्रा (पीला) और शुक्ल1। इनमेंसे कृष्ण, धूम्र और नील वर्णका सुख मध्यम होता है। रक्तवर्ण विशेष रूपसे सहन करने योग्य होता है। हरिद्राकी-सी कान्ति सुख देनेवाली होती है और शुक्लवर्ण अत्यन्त सुखदायक होता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं तु शुक्लं विमलं विशोकं
गतक्लमं सिद्ध्यति दानवेन्द्र ।
गत्वा तु योनिप्रभवाणि दैत्य
सहस्रशः सिद्धिमुपैति जीवः ॥ ३४ ॥

मूलम्

परं तु शुक्लं विमलं विशोकं
गतक्लमं सिद्ध्यति दानवेन्द्र ।
गत्वा तु योनिप्रभवाणि दैत्य
सहस्रशः सिद्धिमुपैति जीवः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दानवराज! शुक्लवर्ण निर्मल, शोकहीन, परिश्रम-शून्य होनेके कारण सिद्धिकारक होता है। दितिकुलनन्दन! जीव सहस्रों योनियोंमें जन्म ग्रहण करनेके बाद मनुष्ययोनिमें आकर कभी सिद्धि लाभ करता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतिं च यां दर्शनमाह देवो
गत्वा शुभं दर्शनमेव चापि।
गतिः पुनर्वर्णकृता प्रजानां
वर्णस्तथा कालकृतोऽसुरेन्द्र ॥ ३५ ॥

मूलम्

गतिं च यां दर्शनमाह देवो
गत्वा शुभं दर्शनमेव चापि।
गतिः पुनर्वर्णकृता प्रजानां
वर्णस्तथा कालकृतोऽसुरेन्द्र ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘असुरेन्द्र! देवराज इन्द्रने मंगलमय तत्त्वज्ञान प्राप्त करके हमारे निकट जिस गति और दर्शन-शास्त्रका वर्णन किया है, वह प्राणियोंकी वर्णजनित गति है अर्थात् शुक्लवर्णवालोंको वही सिद्धि प्राप्त होती है। वह वर्ण कालकृत माना गया है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतं सहस्राणि चतुर्दशेह
परागतिर्जीवगणस्य दैत्य ।
आरोहणं तत्कृतमेव विद्धि
स्थानं तथा निःसरणं च तेषाम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

शतं सहस्राणि चतुर्दशेह
परागतिर्जीवगणस्य दैत्य ।
आरोहणं तत्कृतमेव विद्धि
स्थानं तथा निःसरणं च तेषाम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दैत्यप्रवर! इस जगत्‌में समस्त जीव-समुदायकी परागति चौदह लाख बतायी गयी है। (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार—ये चौदह करण हैं। इन्हींके भेदसे चौदह प्रकारकी गति होती है। फिर विषयभेदसे वृत्तिभेद होनेके कारण चौदह लाख प्रकारकी गति होती है।) जीवका जो ऊर्ध्वलोकोंमें गमन होता है, वह भी उन्हीं चौदह करणोंद्वारा सम्पादित होता है। विभिन्न स्थानोंमें जो स्थिरतापूर्वक निवास है, वह और उन स्थानोंसे जो उन जीवोंका अधःपतन होता है, वह भी उन्हींके सम्बन्धसे होता है। इस बातको तुम अच्छी तरह जान लो (अतः इन चौदह करणोंको सात्त्विक मार्गाभिमुखी बनाना चाहिये)॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णस्य वर्णस्य गतिर्निकृष्टा
स सज्जते नरके पच्यमानः।
स्थानं तथा दुर्गतिभिस्तु तस्य
प्रजाविसर्गान् सुबहून् वदन्ति ॥ ३७ ॥

मूलम्

कृष्णस्य वर्णस्य गतिर्निकृष्टा
स सज्जते नरके पच्यमानः।
स्थानं तथा दुर्गतिभिस्तु तस्य
प्रजाविसर्गान् सुबहून् वदन्ति ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कृष्णवर्णकी गति नीच बतायी गयी है। वह नरक प्रदान करनेवाले निषिद्ध कर्मोंमें आसक्त होता है, इसीलिये नरककी आगमें पकाया जाता है। वह कुमार्गमें प्रवृत्त हुए पूर्वोक्त चौदह करणोंद्वारा पापाचार करनेके कारण अनेक कल्पोंतक नरकमें ही निवास करता है—ऐसा ऋषि-मुनि कहते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतं सहस्राणि ततश्चरित्वा
प्राप्नोति वर्णं हरितं तु पश्चात्।
स चैव तस्मिन् निवसत्यनीशो
युगक्षये तपसा संवृतात्मा ॥ ३८ ॥

मूलम्

शतं सहस्राणि ततश्चरित्वा
प्राप्नोति वर्णं हरितं तु पश्चात्।
स चैव तस्मिन् निवसत्यनीशो
युगक्षये तपसा संवृतात्मा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तदनन्तर वह जीव लाखों बार (या लाखों वर्षोंतक) नरकमें विचरण करके फिर धूम्रवर्ण पाता है (पशु-पक्षी आदिकी योनिमें जन्म लेता है)। उस योनिमें भी वह विवश होकर बड़े दुःखसे निवास करता है। फिर युगक्षय होनेपर वह तप (पुरातन पुण्यकर्म या विवेक) के प्रभावसे सुरक्षित होकर उस संकटसे उद्धार पा जाता है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै यदा सत्त्वगुणेन युक्त-
स्तमो व्यपोहन् घटते स्वबुद्ध्या।
स लोहितं वर्णमुपैति नीलान्
मनुष्यलोके परिवर्तते च ॥ ३९ ॥

मूलम्

स वै यदा सत्त्वगुणेन युक्त-
स्तमो व्यपोहन् घटते स्वबुद्ध्या।
स लोहितं वर्णमुपैति नीलान्
मनुष्यलोके परिवर्तते च ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वही जीव जब सत्त्वगुणसे युक्त होता है, तब अपनी बुद्धिके द्वारा तमोगुणकी प्रवृत्तिको दूर हटाता हुआ अपने कल्याणके लिये प्रयत्न करता है। उस समय सत्त्वगुणके बढ़ जानेपर वह रक्तवर्णको प्राप्त होता है (इसीको अनुग्रह सर्ग कहा गया है, चित्तकी विभिन्न वृत्तियोंपर अनुग्रह करनेवाले देवविशेषका ही नाम ‘अनुग्रह’ है)। जब सत्त्वगुणमें कुछ कमी रह जाती है, तब वह जीव नीलवर्णको प्राप्त होकर मनुष्यलोकमें आवागमन करने लगता है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्र संहारविसर्गमेकं
स्वधर्मजैर्बन्धनैः क्लिश्यमानः ।
ततः स हारिद्रमुपैति वर्णं
संहारविक्षेपशते व्यतीते ॥ ४० ॥

मूलम्

स तत्र संहारविसर्गमेकं
स्वधर्मजैर्बन्धनैः क्लिश्यमानः ।
ततः स हारिद्रमुपैति वर्णं
संहारविक्षेपशते व्यतीते ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तत्पश्चात् वह मनुष्यलोकमें एक कल्पतक स्वधर्मजनित बन्धनोंसे बँधकर क्लेश उठाता हुआ जब धीरे-धीरे अपनी तपस्याको बढ़ाता है, तब हल्दीकी-सी कान्तिवाले पीतवर्ण—देवताभावको प्राप्त होता है। वहाँ भी सैकड़ों कल्प व्यतीत कर लेनेपर वह पुनः पुण्यक्षयके पश्चात् मनुष्य होता है (इस प्रकार वह देवतासे मनुष्य और मनुष्यसे देवता होता रहता है)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हारिद्रवर्णस्तु प्रजाविसर्गात्
सहस्रशस्तिष्ठति संचरन् वै ।
अविप्रमुक्तो निरये च दैत्य
ततः सहस्राणि दशापराणि ॥ ४१ ॥
गतीः सहस्राणि च पञ्च तस्य
चत्वारि संवर्तकृतानि चैव ।
विमुक्तमेनं निरयाच्च विद्धि
सर्वेषु चान्येषु च सम्भवेषु ॥ ४२ ॥

मूलम्

हारिद्रवर्णस्तु प्रजाविसर्गात्
सहस्रशस्तिष्ठति संचरन् वै ।
अविप्रमुक्तो निरये च दैत्य
ततः सहस्राणि दशापराणि ॥ ४१ ॥
गतीः सहस्राणि च पञ्च तस्य
चत्वारि संवर्तकृतानि चैव ।
विमुक्तमेनं निरयाच्च विद्धि
सर्वेषु चान्येषु च सम्भवेषु ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दैत्य! सहस्रों कल्पोंतक देवरूपसे विचरते रहनेपर भी जीव विषयभोगसे मुक्त नहीं होता तथा प्रत्येक कल्पमें किये हुए अशुभ कर्मोंके फलोंको नरकमें रहकर भोगता हुआ जीव उन्नीस1 हजार विभिन्न गतियोंको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् उसे नरकसे छुटकारा मिलता है। मनुष्यके सिवा अन्य सभी योनियोंमें केवल सुख-दुःखके भोग प्राप्त होते हैं। मोक्षका सुयोग हाथ नहीं लगता है। इस बातको तुम्हें भलीभाँति समझ लेना चाहिये॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स देवलोके विहरत्यभीक्ष्णं
ततश्च्युतो मानुषतामुपैति ।
संहारविक्षेपशतानि चाष्टौ
मर्त्येषु तिष्ठत्यमृतत्वमेति ॥ ४३ ॥

मूलम्

स देवलोके विहरत्यभीक्ष्णं
ततश्च्युतो मानुषतामुपैति ।
संहारविक्षेपशतानि चाष्टौ
मर्त्येषु तिष्ठत्यमृतत्वमेति ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह जीव निरन्तर देवलोकमें विहार करता है और वहाँसे भ्रष्ट होनेपर मनुष्ययोनिको प्राप्त होता है। मर्त्यलोकमें वह आठ सौ कल्पोंतक बारंबार जन्म लेता रहता है। तत्पश्चात् शुभकर्म करके वह पुनः देवभावको प्राप्त करता है (यह आवागमनका चक्र तभीतक चलता है, जबतक जीवको परमज्ञान या अनन्य भक्तिकी प्राप्ति नहीं हो जाती, उसकी प्राप्ति होनेपर तो वह मुक्त या परमात्माको प्राप्त हो जाता है।)॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽस्मादथ भ्रश्यति कालयोगात्
कृष्णे तले तिष्ठति सर्वकृष्टे।
यथा त्वयं सिद्ध्यति जीवलोक-
स्तत् तेऽभिधास्याम्यसुरप्रवीर ॥ ४४ ॥

मूलम्

सोऽस्मादथ भ्रश्यति कालयोगात्
कृष्णे तले तिष्ठति सर्वकृष्टे।
यथा त्वयं सिद्ध्यति जीवलोक-
स्तत् तेऽभिधास्याम्यसुरप्रवीर ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘असुरोंके प्रमुख वीर! वह जीव कालक्रमसे अशुभ कर्म करके कभी-कभी मर्त्यलोकसे भी नीचे गिर जाता है और सबसे निकृष्ट, तलप्रदेशकी भाँति निम्नतम, कृष्णवर्ण (स्थावर योनि) में जन्म ग्रहण करके स्थित होता है। इस प्रकार उत्थान-पतनके चक्रमें पड़े हुए इस जीवसमूहको जिस प्रकार सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त होती है, वह मैं तुम्हें बता रहा हूँ॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवानि स व्यूहशतानि सप्त
रक्तो हरिद्रोऽथ तथैव शुक्लः।
संश्रित्य संधावति शुक्लमेत-
मष्टावरानर्च्यतमान् स लोकान् ॥ ४५ ॥

मूलम्

दैवानि स व्यूहशतानि सप्त
रक्तो हरिद्रोऽथ तथैव शुक्लः।
संश्रित्य संधावति शुक्लमेत-
मष्टावरानर्च्यतमान् स लोकान् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्रमशः रक्तवर्ण (अनुग्राहक देवता), हरिद्रावर्ण (देवता) तथा शुक्लवर्ण (सनकादिकुमारों-जैसा सिद्ध शरीरधारी) होकर वह जीव बारी-बारीसे सात सौ दिव्य शरीरोंका आश्रय ले भू आदि सात उत्तमोत्तम लोकोंमें विचरण करके पूर्व पुण्यके प्रभावसे वेगपूर्वक विशुद्ध ब्रह्मलोकमें चला जाता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टौ च षष्टिं च शतानि चैव
मनोनिरुद्धानि महाद्युतीनाम् ।
शुक्लस्य वर्णस्य परा गतिर्या
त्रीण्येव रुद्धानि महानुभाव ॥ ४६ ॥

मूलम्

अष्टौ च षष्टिं च शतानि चैव
मनोनिरुद्धानि महाद्युतीनाम् ।
शुक्लस्य वर्णस्य परा गतिर्या
त्रीण्येव रुद्धानि महानुभाव ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महानुभाव वृत्रासुर! प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ—ये आठ, तथा दूसरे साठ1 तत्त्व और इनकी जो सैकड़ों वृत्तियाँ हैं—ये सब महातेजस्वी योगियोंके मनके द्वारा अवरुद्ध की हुई होती हैं तथा सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंको भी वे अवरुद्ध कर देते हैं। अतः शुक्लवर्णवाले (सनकादिकोंके समान सिद्ध) पुरुषको जो उत्तम गति प्राप्त होती है, वही उन योगियोंको मिलती है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहारविक्षेपमनिष्टमेकं
चत्वारि चान्यानि वसत्यनीशः ।
षष्ठस्य वर्णस्य परा गतिर्या
सिद्धावसिद्धस्य गतक्लमस्य ॥ ४७ ॥

मूलम्

संहारविक्षेपमनिष्टमेकं
चत्वारि चान्यानि वसत्यनीशः ।
षष्ठस्य वर्णस्य परा गतिर्या
सिद्धावसिद्धस्य गतक्लमस्य ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो परमगति छठे (शुक्ल) वर्णके साधकको मिलती है, उसे पानेका अधिकार भ्रष्ट करके भी जो असिद्ध हो रहा है एवं जिसके समस्त पाप नष्ट हो चुके हैं ऐसा योगी भी यदि योगजनित ऐश्वर्यके सुखभोगकी वासनाका त्याग करनेमें असमर्थ है तो वह न चाहनेपर भी एक कल्पतक अपनी साधनाके फलरूप महर्, जन, तप और सत्य—इन चारों लोकोंमें क्रमशः निवास करता है (और कल्पके अन्तमें मुक्त हो जाता है)॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तोत्तरं तत्र वसत्यनीशः
संहारविक्षेपशतं सशेषम् ।
तस्मादुपावृत्य मनुष्यलोके
ततो महान् मानुषतामुपैति ॥ ४८ ॥

मूलम्

सप्तोत्तरं तत्र वसत्यनीशः
संहारविक्षेपशतं सशेषम् ।
तस्मादुपावृत्य मनुष्यलोके
ततो महान् मानुषतामुपैति ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किंतु जो भलीभाँति योगसाधनमें असमर्थ है, वह योगभ्रष्ट पुरुष सौ कल्पोंतक ऊपरके सात लोकोंमें निवास करता है। फिर बचे हुए कर्मसंस्कारोंके सहित वहाँसे लौटकर मनुष्यलोकमें पहलेसे बढ़कर महत्त्व-सम्पन्न हो मनुष्यशरीरको पाता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादुपावृत्य ततः क्रमेण
सोऽग्रेण संतिष्ठति भूतसर्गम् ।
स सप्तकृत्वश्च परैति लोकान्
संहारविक्षेपकृतप्रभावः ॥ ४९ ॥

मूलम्

तस्मादुपावृत्य ततः क्रमेण
सोऽग्रेण संतिष्ठति भूतसर्गम् ।
स सप्तकृत्वश्च परैति लोकान्
संहारविक्षेपकृतप्रभावः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तदनन्तर मनुष्ययोनिसे निकलकर वह उत्तरोत्तर श्रेष्ठ देवादि योनियोंकी ओर अग्रसर होता है एवं सातों लोकोंमें प्रभावशाली होकर एक कल्पतक निवास करता है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तैव संहारमुपप्लवानि
सम्भाव्य संतिष्ठति जीवलोके ।
ततोऽव्ययं स्थानमनन्तमेति
देवस्य विष्णोरथ ब्रह्मणश्च ।
शेषस्य चैवाथ नरस्य चैव
देवस्य विष्णोः परमस्य चैव ॥ ५० ॥

मूलम्

सप्तैव संहारमुपप्लवानि
सम्भाव्य संतिष्ठति जीवलोके ।
ततोऽव्ययं स्थानमनन्तमेति
देवस्य विष्णोरथ ब्रह्मणश्च ।
शेषस्य चैवाथ नरस्य चैव
देवस्य विष्णोः परमस्य चैव ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर वह योगी भू आदि सात लोकोंको विनाशशील क्षणभंगुर समझकर पुनः मनुष्यलोकमें भलीभाँति (शोक-मोहसे रहित होकर) निवास करता है। तदनन्तर शरीरका अन्त होनेपर वह अव्यय (अविनाशी या निर्विकार) एवं अनन्त (देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेदसे शून्य) स्थान (परब्रह्मपद) को प्राप्त होता है। वह अव्यय एवं अनन्त स्थान किसीके मतमें महादेवजीका कैलासधाम है। किसीके मतमें भगवान् विष्णुका वैकुण्ठधाम है। किसीके मतमें ब्रह्माजीका सत्यलोक है। कोई-कोई उसे भगवान् शेष या अनन्तका धाम बताते हैं। कोई वह जीवका ही परमधाम है—ऐसा कहते हैं और कोई-कोई उसे सर्वव्यापी चिन्मय प्रकाशसे युक्त परब्रह्मका स्वरूप बताते हैं॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहारकाले परिदग्धकाया
ब्रह्माणमायान्ति सदा प्रजा हि।
चेष्टात्मनो देवगणाश्च सर्वे
ये ब्रह्मलोकादपराः स्म तेऽपि ॥ ५१ ॥

मूलम्

संहारकाले परिदग्धकाया
ब्रह्माणमायान्ति सदा प्रजा हि।
चेष्टात्मनो देवगणाश्च सर्वे
ये ब्रह्मलोकादपराः स्म तेऽपि ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ज्ञानाग्निके द्वारा जिनके सूक्ष्म, स्थूल और कारण-शरीर दग्ध हो गये हैं, वे प्रजाजन अर्थात् योगीलोग प्रलयकालमें सदा परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं एवं जो ब्रह्मलोकसे नीचेके लोकोंमें रहनेवाले साधनशील दैवी प्रकृतिसे सम्पन्न साधक हैं, वे सब परब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजाविसर्गं तु सशेषकाले
स्थानानि स्वान्येव सरन्ति जीवाः।
निःशेषतस्तत्पदं यान्ति चान्ते
सर्वे देवा ये सदृशा मनुष्याः ॥ ५२ ॥

मूलम्

प्रजाविसर्गं तु सशेषकाले
स्थानानि स्वान्येव सरन्ति जीवाः।
निःशेषतस्तत्पदं यान्ति चान्ते
सर्वे देवा ये सदृशा मनुष्याः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रलयकालमें जो जीव देवभावको प्राप्त थे, वे यदि अपने सम्पूर्ण कर्मफलोंका उपभोग समाप्त करनेसे पहले ही लयको प्राप्त हो जाते हैं तो कल्पान्तरमें पुनः प्रजाकी सृष्टि होनेपर वे शेष फलका उपभोग करनेके लिये उन्हीं स्थानोंको प्राप्त होते हैं, जो उन्हें पूर्वकल्पमें प्राप्त थे; किंतु जो कल्पान्तमें उस योनिसम्बन्धी कर्मफल-भोगको पूर्ण कर चुके हैं, वे स्वर्गलोकका नाश हो जानेपर दूसरे कल्पमें उनके जैसे कर्म हैं, उसीके सदृश अन्य प्राणियोंकी भाँति मनुष्य-योनिको ही प्राप्त होते हैं॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये तु च्युताः सिद्धलोकात् क्रमेण
तेषां गतिं यान्ति तथाऽऽनुपूर्व्या।
जीवाः परे तद्बलतुल्यरूपाः
स्वं स्वं विधिं यान्ति विपर्ययेण ॥ ५३ ॥

मूलम्

ये तु च्युताः सिद्धलोकात् क्रमेण
तेषां गतिं यान्ति तथाऽऽनुपूर्व्या।
जीवाः परे तद्बलतुल्यरूपाः
स्वं स्वं विधिं यान्ति विपर्ययेण ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो योगी सिद्धलोकसे गिरकर मृत्युलोकमें आये हैं, उनके समान साधनबलसे सम्पन्न जो अन्य योगी हैं, वे भी एक लोकसे दूसरे लोकमें ऊपर उठते हुए क्रमशः उन सिद्ध पुरुषोंकी ही गतिको प्राप्त होते हैं। परंतु जो वैसे नहीं हैं, वे विपरीतभावके कारण अपनी-अपनी गतिको प्राप्त होते हैं॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स यावदेवास्ति सशेषभुक् ते
प्रजाश्च देव्यौ च तथैव शुक्ले।
तावत् तदङ्गेषु विशुद्धभावः
संयम्य पञ्चेन्द्रियरूपमेतत् ॥ ५४ ॥

मूलम्

स यावदेवास्ति सशेषभुक् ते
प्रजाश्च देव्यौ च तथैव शुक्ले।
तावत् तदङ्गेषु विशुद्धभावः
संयम्य पञ्चेन्द्रियरूपमेतत् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विशुद्धभावसे सम्पन्न सिद्ध पुरुष जबतक पंचेन्द्रियरूप इस करणसमुदायका संयम करके शेष प्रारब्ध कर्मका उपभोग करता है, तबतक उसके शरीरमें समस्त प्रजागणोंका अर्थात् इन्द्रियोंके देवताओंका तथा अपरा और परा विद्याका निवास रहता है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुद्धां गतिं तां परमां परैति
शुद्धेन नित्यं मनसा विचिन्वन्।
ततोऽव्ययं स्थानमुपैति ब्रह्म
दुष्प्रापमभ्येति स शाश्वतं वै ॥ ५५ ॥

मूलम्

शुद्धां गतिं तां परमां परैति
शुद्धेन नित्यं मनसा विचिन्वन्।
ततोऽव्ययं स्थानमुपैति ब्रह्म
दुष्प्रापमभ्येति स शाश्वतं वै ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो साधक सदा शुद्ध मनसे उस विशुद्ध परमगतिका अनुसंधान करता है, वह उसे अवश्य प्राप्त कर लेता है। तदनन्तर अविकारी, दुर्लभ एवं सनातन ब्रह्मपदको प्राप्त करके वह उसीमें प्रतिष्ठित हो जाता है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतदाख्यातमहीनसत्त्व
नारायणस्येह बलं मया ते ॥ ५६ ॥

मूलम्

इत्येतदाख्यातमहीनसत्त्व
नारायणस्येह बलं मया ते ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उत्कृष्ट बलशाली दैत्यराज! इस प्रकार यहाँ मैंने तुमसे यह भगवान् नारायणका बल एवं प्रभाव बताया है’॥५६॥

मूलम् (वचनम्)

वृत्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं गते मे न विषादोऽस्ति कश्चित्
सम्यक् च पश्यामि वचस्तथैतत्।
श्रुत्वा तु ते वाचमदीनसत्त्व
विकल्मषोऽस्म्यद्य तथा विपाप्मा ॥ ५७ ॥

मूलम्

एवं गते मे न विषादोऽस्ति कश्चित्
सम्यक् च पश्यामि वचस्तथैतत्।
श्रुत्वा तु ते वाचमदीनसत्त्व
विकल्मषोऽस्म्यद्य तथा विपाप्मा ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृत्रासुर बोला— उदारचित्त महात्मा सनत्कुमारजी! यदि ऐसी बात है तो मुझे कोई विषाद नहीं है। मैं आपके वचनको अच्छी तरह समझता और इसे यथार्थ मानता हूँ। आज मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि आपकी इस वाणीको सुनकर मेरे सारे पाप और कलुष दूर हो गये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवृत्तमेतद् भगवन् महर्षे
महाद्युतेश्चक्रमनन्तवीर्यम् ।
विष्णोरनन्तस्य सनातनं तत्
स्थानं सर्गा यत्र सर्वे प्रवृत्ताः।
स वै महात्मा पुरुषोत्तमो वै
तस्मिन् जगत्‌ सर्वमिदं प्रतिष्ठितम् ॥ ५८ ॥

मूलम्

प्रवृत्तमेतद् भगवन् महर्षे
महाद्युतेश्चक्रमनन्तवीर्यम् ।
विष्णोरनन्तस्य सनातनं तत्
स्थानं सर्गा यत्र सर्वे प्रवृत्ताः।
स वै महात्मा पुरुषोत्तमो वै
तस्मिन् जगत्‌ सर्वमिदं प्रतिष्ठितम् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! महर्षे! महातेजस्वी, अनन्त एवं सर्वव्यापी भगवान् विष्णुका यह अमित शक्तिशाली संसारचक्र चल रहा है। यह भगवान् विष्णुका वह सनातन स्थान है, जहाँसे सारी सृष्टियोंका आरम्भ होता है। महात्मा विष्णु पुरुषोत्तम हैं। उन्हींमें यह सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है॥५८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा स कौन्तेय वृत्रः प्राणानवासृजत्।
योजयित्वा तथाऽऽत्मानं परं स्थानमवाप्तवान् ॥ ५९ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा स कौन्तेय वृत्रः प्राणानवासृजत्।
योजयित्वा तथाऽऽत्मानं परं स्थानमवाप्तवान् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— कुन्तीनन्दन! ऐसा कहकर वृत्रासुरने अपने आत्माको परमात्मामें लगाकर उन्हींका ध्यान करते हुए प्राण त्याग दिये और परमेश्वरके परमधामको प्राप्त कर लिया॥५९॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स भगवान् देवः पितामह जनार्दनः।
सनत्कुमारो वृत्राय यत्तदाख्यातवान् पुरा ॥ ६० ॥

मूलम्

अयं स भगवान् देवः पितामह जनार्दनः।
सनत्कुमारो वृत्राय यत्तदाख्यातवान् पुरा ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! पूर्वकालमें महात्मा सनत्कुमारने वृत्रासुरसे जिनके स्वरूपका वर्णन किया था, वे भगवान् विष्णु—ये हमारे जनार्दन श्रीकृष्ण ही तो हैं?॥६०॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलस्थायी महादेवो भगवान् स्वेन तेजसा।
तत्स्थःसृजति तान् भावान्‌ नानारूपान्‌ महामनाः ॥ ६१ ॥

मूलम्

मूलस्थायी महादेवो भगवान् स्वेन तेजसा।
तत्स्थःसृजति तान् भावान्‌ नानारूपान्‌ महामनाः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! मूल-कारणरूपसे स्थित, महान् देव, महामनस्वी भगवान् नारायण हैं। वे अपने उस चिन्मय स्वरूपमें स्थित होकर अपने प्रभावसे नाना प्रकारके सम्पूर्ण पदार्थोंकी सृष्टि करते हैं॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुरीयांशेन तस्येमं विद्धि केशवमच्युतम्।
तुरीयार्धेन लोकांस्त्रीन् भावयत्येव बुद्धिमान् ॥ ६२ ॥

मूलम्

तुरीयांशेन तस्येमं विद्धि केशवमच्युतम्।
तुरीयार्धेन लोकांस्त्रीन् भावयत्येव बुद्धिमान् ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले इन भगवान् श्रीकृष्णको तुम उस श्रीनारायणके एक चतुर्थ अंशसे सम्पन्न समझो। बुद्धिमान् श्रीकृष्ण अपने उस चतुर्थ अंशसे ही तीनों लोकोंकी रचना करते हैं॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाक् स्थितस्तु यः स्थायी कल्पान्ते परिवर्तते।
स शेते भगवानप्सु योऽसावतिबलः प्रभुः।
तान् विधाता प्रसन्नात्मा लोकांश्चरति शाश्वतान् ॥ ६३ ॥

मूलम्

अवाक् स्थितस्तु यः स्थायी कल्पान्ते परिवर्तते।
स शेते भगवानप्सु योऽसावतिबलः प्रभुः।
तान् विधाता प्रसन्नात्मा लोकांश्चरति शाश्वतान् ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो परवर्ती सनातन नारायण प्रलयकालमें भी विद्यमान हैं, वे ही अत्यन्त बलशाली और सबके अधीश्वर भगवान् श्रीहरि कल्पान्तमें जलके भीतर शयन करते हैं तथा वे प्रसन्नात्मा सृष्टिकर्ता ईश्वर उन समस्त शाश्वत लोकोंमें विचरण करते हैं॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वाण्यशून्यानि करोत्यनन्तः
सनातनः संचरते च लोकान्।
स चानिरुद्धः सृजते महात्मा
तत्स्थं जगत् सर्वमिदं विचित्रम् ॥ ६४ ॥

मूलम्

सर्वाण्यशून्यानि करोत्यनन्तः
सनातनः संचरते च लोकान्।
स चानिरुद्धः सृजते महात्मा
तत्स्थं जगत् सर्वमिदं विचित्रम् ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनन्त एवं सनातन भगवान् श्रीहरि समस्त कारणोंको सत्ता और स्फूर्ति देकर परिपूर्ण करते और लीलावपु धारण करके लोकोंमें विचरण करते हैं। उन महापुरुषकी गतिको कोई रोक नहीं सकता। वे ही इस जगत्‌की सृष्टि करते हैं। उन्हींमें यह सम्पूर्ण विचित्र विश्व प्रतिष्ठित है॥६४॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्रेण परमार्थज्ञ दृष्टा मन्येऽऽत्मनो गतिः।
शुभा तस्मात् स सुखितो न शोचति पितामह ॥ ६५ ॥

मूलम्

वृत्रेण परमार्थज्ञ दृष्टा मन्येऽऽत्मनो गतिः।
शुभा तस्मात् स सुखितो न शोचति पितामह ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— परमार्थतत्त्वके ज्ञाता पितामह! मैं समझता हूँ कि वृत्रासुरने आत्माके शुभ एवं यथार्थ स्वरूपका साक्षात्कार कर लिया था; इसीलिये वह सुखी था, शोक नहीं करता था॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्लः शुक्लाभिजातीयः साध्यो नावर्ततेऽनघ।
तिर्यग्गतेश्च निर्मुक्तो निरयाच्च पितामह ॥ ६६ ॥

मूलम्

शुक्लः शुक्लाभिजातीयः साध्यो नावर्ततेऽनघ।
तिर्यग्गतेश्च निर्मुक्तो निरयाच्च पितामह ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप पितामह! वह शुद्ध कुलमें उत्पन्न हुआ था और स्वभावसे भी शुद्ध था। जान पड़ता है वह साध्य नामक देवता ही था; इसीलिये पुनः संसारमें नहीं लौटा। वह पशु-पक्षियोंकी योनि तथा नरकसे छुटकारा पा गया॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हारिद्रवर्णे रक्ते वा वर्तमानस्तु पार्थिव।
तिर्यगेवानुपश्येत कर्मभिस्तामसैर्वृतः ॥ ६७ ॥

मूलम्

हारिद्रवर्णे रक्ते वा वर्तमानस्तु पार्थिव।
तिर्यगेवानुपश्येत कर्मभिस्तामसैर्वृतः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! पीतवर्णवाले देवसर्गमें तथा रक्तवर्णवाले अनुग्रहसर्गमें विद्यमान प्राणी कभी तामस कर्मोंसे आवृत होकर तिर्यग्योनिका भी दर्शन कर सकता है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं तु भृशमापन्ना रक्ता दुःखसुखेऽसुखे।
कां गतिं प्रतिपत्स्यामो नीलां कृष्णाधमामथ ॥ ६८ ॥

मूलम्

वयं तु भृशमापन्ना रक्ता दुःखसुखेऽसुखे।
कां गतिं प्रतिपत्स्यामो नीलां कृष्णाधमामथ ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग तो और भी अधिक आपत्तिसे घिरे हुए हैं। दुःख-सुखसे मिश्रित भावमें अथवा केवल दुःखमय भावमें आसक्त हैं। ऐसी दशामें पता नहीं हमें किस गतिकी प्राप्ति होगी। हम नीलवर्णवाली मानव-योनिमें पड़ेंगे या कृष्णवर्णवाली स्थावर योनिसे भी हीन दशाको जा पहुँचेंगे॥६८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुद्धाभिजनसम्पन्नाः पाण्डवाः संशितव्रताः ।
विहृत्य देवलोकेषु पुनर्मानुषमेष्यथ ॥ ६९ ॥

मूलम्

शुद्धाभिजनसम्पन्नाः पाण्डवाः संशितव्रताः ।
विहृत्य देवलोकेषु पुनर्मानुषमेष्यथ ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! तुम सभी पाण्डव विशुद्ध कुलसे सम्पन्न और तीक्ष्ण व्रतोंका भलीभाँति पालन करनेवाले हो; अतः देवताओंके लोकोंमें विहार करके पुनः मनुष्य-शरीरको ही प्राप्त करोगे॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजाविसर्गं च सुखेन काले
प्रत्येत्य देवेषु सुखानि भुक्त्वा।
सुखेन संयास्यथ सिद्धसंख्यां
मा वो भयं भूद् विमलाः स्थ सर्वे ॥ ७० ॥

मूलम्

प्रजाविसर्गं च सुखेन काले
प्रत्येत्य देवेषु सुखानि भुक्त्वा।
सुखेन संयास्यथ सिद्धसंख्यां
मा वो भयं भूद् विमलाः स्थ सर्वे ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम सब लोग यथासमय सुखसे संतानोत्पादन करके देवलोकोंमें जाकर सुख भोगोगे। तत्पश्चात् सुखपूर्वक सिद्धि प्राप्त करके सिद्धोंमें गिने जाओगे। तुम्हारे मनमें दुर्गतिका भय नहीं होना चाहिये; क्योंकि तुम सब लोग निर्मल एवं निष्पाप हो॥७०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वृत्रगीतासु अशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २८० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वृत्रगीताविषयक दो सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ७० श्लोक हैं)


  1. श्रीविष्णुपुराणमें तीन प्रकारकी प्राकृत सृष्टि बतायी गयी है—पहली महत्तत्त्वकी सृष्टि है, जिसे यहाँ ‘क्षर’ शब्दसे कहा गया है। दूसरी भूत-सृष्टि मानी गयी है, जो तन्मात्राओंकी सृष्टि है। यहाँ ‘भूतेषु’ पदके द्वारा उसीकी ओर संकेत किया गया है। ‘एकादशविकारात्मा’ इस पदके द्वारा तीसरी सृष्टिका निर्देश किया गया है, जिसे वैकारिक अथवा ऐन्द्रियक सर्ग भी कहते हैं। इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—इन ग्यारह तत्त्वोंकी रचना हुई है। ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎