भागसूचना
एकोनाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय तथा उस विषयमें वृत्र-शुक्र-संवादक आरम्भ
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्या धन्या इति जनाः सर्वेऽस्मान् प्रवदन्त्युत।
न दुःखिततरः कश्चित् पुमानस्माभिरस्ति ह ॥ १ ॥
मूलम्
धन्या धन्या इति जनाः सर्वेऽस्मान् प्रवदन्त्युत।
न दुःखिततरः कश्चित् पुमानस्माभिरस्ति ह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— पितामह! सभी लोग हमलोगोंको धन्य-धन्य कहते हैं, परंतु हमलोगोंसे बढ़कर अत्यन्त दुखी दूसरा कोई मनुष्य नहीं है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकसम्भावितैर्दुःखं यत् प्राप्तं कुरुसत्तम।
प्राप्य जातिं मनुष्येषु देवैरपि पितामह ॥ २ ॥
मूलम्
लोकसम्भावितैर्दुःखं यत् प्राप्तं कुरुसत्तम।
प्राप्य जातिं मनुष्येषु देवैरपि पितामह ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ पितामह! देवताओंद्वारा मानवलोकमें जन्म पाकर तथा सब लोगोंद्वारा सम्मानित होकर भी हमें यहाँ महान् दुःख प्राप्त हुआ है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदा वयं करिष्यामः संन्यासं दुःखसंज्ञकम्।
दुःखमेतच्छरीराणां धारणं कुरुसत्तम ॥ ३ ॥
मूलम्
कदा वयं करिष्यामः संन्यासं दुःखसंज्ञकम्।
दुःखमेतच्छरीराणां धारणं कुरुसत्तम ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! संसारी मनुष्य जिसे दुःख कहते हैं, उस संन्यासका अवलम्बन हमलोग कब करेंगे? हमें तो इन शरीरोंका धारण करना ही दुःख जान पड़ता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुक्ताः सप्तदशभिर्हेतुभूतैश्च पञ्चभिः ।
इन्द्रियार्थैर्गुणैश्चैव अष्टाभिश्च पितामह ॥ ४ ॥
न गच्छन्ति पुनर्भावं मुनयः संशितव्रताः।
कदा वयं गमिष्यामो राज्यं हित्वा परंतप ॥ ५ ॥
मूलम्
विमुक्ताः सप्तदशभिर्हेतुभूतैश्च पञ्चभिः ।
इन्द्रियार्थैर्गुणैश्चैव अष्टाभिश्च पितामह ॥ ४ ॥
न गच्छन्ति पुनर्भावं मुनयः संशितव्रताः।
कदा वयं गमिष्यामो राज्यं हित्वा परंतप ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह! पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय, पंच प्राण, मन और बुद्धि—ये सत्रह तत्त्व; काम, क्रोध, लोभ, भय और स्वप्न—ये संसारके पाँच हेतु; शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये पाँच विषय; सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण तथा पाँच भूतोंसहित अविद्या, अहंकार और कर्म—ये आठ तत्त्वोंके समुदाय सब मिलाकर अड़तीस तत्त्व होते हैं। इन सबसे मुक्त हुए तीक्ष्ण व्रतधारी मुनि पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होते हैं। परंतप पितामह! हमलोग भी कब अपना राज्य छोड़कर इसी स्थितिको प्राप्त होंगे॥४-५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्त्यनन्तं महाराज सर्वं संख्यानगोचरः।
पुनर्भावोऽपि विख्यातो नास्ति किंचिदिहाचलम् ॥ ६ ॥
मूलम्
नास्त्यनन्तं महाराज सर्वं संख्यानगोचरः।
पुनर्भावोऽपि विख्यातो नास्ति किंचिदिहाचलम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— महाराज! दुःख अनन्त नहीं हैं। जगत्की सभी वस्तुएँ संख्याकी सीमामें ही हैं—असंख्य नहीं हैं। पुनर्जन्म भी नश्वरताके लिये विख्यात ही है। तात्पर्य यह कि इस जगत्में कोई भी वस्तु अचल या स्थायी नहीं है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि मन्यसे राजन्नेष दोषः प्रसङ्गतः।
उद्योगादेव धर्मज्ञाः कालेनैव गमिष्यथ ॥ ७ ॥
मूलम्
न चापि मन्यसे राजन्नेष दोषः प्रसङ्गतः।
उद्योगादेव धर्मज्ञाः कालेनैव गमिष्यथ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम जो ऐसा मानते हो कि ऐश्वर्य दोषकारक होता है, क्योंकि वह आसक्तिका हेतु होनेके कारण मोक्षका प्रतिबन्धक है तो तुम्हारी यह मान्यता ठीक नहीं है; क्योंकि तुम सब लोग धर्मके ज्ञाता हो। स्वयं ही उद्योग करके शम, दम आदि साधनोंद्वारा कुछ ही कालमें मोक्ष प्राप्त कर सकते हो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेशेऽयं सततं देही नृपते पुण्यपापयोः।
तत एव समुत्थेन तमसा रुध्यतेऽपि च ॥ ८ ॥
मूलम्
नेशेऽयं सततं देही नृपते पुण्यपापयोः।
तत एव समुत्थेन तमसा रुध्यतेऽपि च ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! यह जीवात्मा पुण्य और पापके फल सुख और दुःख भोगनेमें स्वतन्त्र नहीं है, उन पुण्य और पापोंसे उत्पन्न संस्काररूप अन्धकारसे यह आच्छन्न हो जाता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाञ्जनमयो वायुः पुनर्मानःशिलं रजः।
अनुप्रविश्य तद्वर्णो दृश्यते रञ्जयन् दिशः ॥ ९ ॥
तथा कर्मफलैर्देही रञ्जितस्तमसाऽऽवृतः ।
विवर्णो वर्णमाश्रित्य देहेषु परिवर्तते ॥ १० ॥
मूलम्
यथाञ्जनमयो वायुः पुनर्मानःशिलं रजः।
अनुप्रविश्य तद्वर्णो दृश्यते रञ्जयन् दिशः ॥ ९ ॥
तथा कर्मफलैर्देही रञ्जितस्तमसाऽऽवृतः ।
विवर्णो वर्णमाश्रित्य देहेषु परिवर्तते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अन्धकारमयी वायु मैनसिलके लाल-पीले चूर्णमें प्रवेश करके उसीके रंगसे युक्त हो सम्पूर्ण दिशाओंको रँगती दिखायी देती है, उसी प्रकार स्वभावतः वर्णविहीन यह जीवात्मा तमोमय अज्ञानसे आवृत और कर्मफलसे रंजित हो वही वर्ण ग्रहण कर अर्थात् विभिन्न शरीरोंके धर्मोंको स्वीकार करके समस्त प्राणियोंके शरीरोंमें घूमता रहता है॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानेन हि यदा जन्तुरज्ञानप्रभवं तमः।
व्यपोहति तदा ब्रह्म प्रकाशति सनातनम् ॥ ११ ॥
मूलम्
ज्ञानेन हि यदा जन्तुरज्ञानप्रभवं तमः।
व्यपोहति तदा ब्रह्म प्रकाशति सनातनम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब जीव तत्त्वज्ञानद्वारा अज्ञानजनित अन्धकारको दूर कर देता है, तब उसके हृदयमें सनातन ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयत्नसाध्यं मुनयो वदन्ति
ये चापि मुक्तास्त उपासितव्याः।
त्वया च लोकेन च सामरेण
तस्मान्नमस्यामि महर्षिसङ्घान् ॥ १२ ॥
मूलम्
अयत्नसाध्यं मुनयो वदन्ति
ये चापि मुक्तास्त उपासितव्याः।
त्वया च लोकेन च सामरेण
तस्मान्नमस्यामि महर्षिसङ्घान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि-मुनि कहते हैं कि ब्रह्मकी प्राप्ति किसी क्रियात्मक यत्नसे साध्य नहीं है। इसके लिये तो देवताओंसहित सम्पूर्ण जगत्को और तुमको उन पुरुषोंकी उपासना करनी चाहिये, जो जीवन्मुक्त हैं; अतएव मैं महर्षियोंके समुदायको नमस्कार करता हूँ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन्नर्थे पुरा गीतं शृणुष्वैकमना नृप।
यथा दैत्येन वृत्रेण भ्रष्टैश्वर्येण चेष्टितम् ॥ १३ ॥
निर्जितेनासहायेन हृतराज्येन भारत ।
अशोचता शत्रुमध्ये बुद्धिमास्थाय केवलाम् ॥ १४ ॥
मूलम्
अस्मिन्नर्थे पुरा गीतं शृणुष्वैकमना नृप।
यथा दैत्येन वृत्रेण भ्रष्टैश्वर्येण चेष्टितम् ॥ १३ ॥
निर्जितेनासहायेन हृतराज्येन भारत ।
अशोचता शत्रुमध्ये बुद्धिमास्थाय केवलाम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास कहा जाता है। उसे एकचित्त होकर सुनो। भरतनन्दन! पूर्वकालमें वृत्रासुर पराजित और ऐश्वर्य-भ्रष्ट हो गया था। उसका कोई सहायक नहीं रह गया था। देवताओंने उसका राज्य छीन लिया था। उस दशामें पड़कर भी उस असुरने जैसी चेष्टा की थी, उसीका इस कथामें वर्णन है। वह शत्रुओंके बीचमें रहकर भी आसक्तिशून्य बुद्धिका आश्रय ले शोक नहीं करता था॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रष्टैश्वर्यं पुरा वृत्रमुशना वाक्यमब्रवीत्।
काचित् पराजितस्याद्य न व्यथा तेऽस्ति दानव ॥ १५ ॥
मूलम्
भ्रष्टैश्वर्यं पुरा वृत्रमुशना वाक्यमब्रवीत्।
काचित् पराजितस्याद्य न व्यथा तेऽस्ति दानव ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालकी बात है कि वृत्रासुरको ऐश्वर्यभ्रष्ट हुआ देख शुक्राचार्यने उससे पूछा—‘दानवराज! तुम्हें देवताओंने पराजित कर दिया है तो भी आजकल तुम्हारे चित्तमें किसी प्रकारकी व्यथा नहीं है; इसका क्या कारण है?’॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
वृत्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्येन तपसा चैव विदित्वासंशयं ह्यहम्।
न शोचामि न हृष्यामि भूतानामागतिं गतिम् ॥ १६ ॥
मूलम्
सत्येन तपसा चैव विदित्वासंशयं ह्यहम्।
न शोचामि न हृष्यामि भूतानामागतिं गतिम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृत्रासुरने कहा— ब्रह्मन्! मैंने सत्य और तपके प्रभावसे जीवोंके आवागमनका रहस्य निश्चितरूपसे जान लिया है; इसलिये मैं उसके विषयमें हर्ष और शोक नहीं करता हूँ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालसंचोदिता जीवा मज्जन्ति नरकेऽवशाः।
परितुष्टानि सर्वाणि दिव्यान्याहुर्मनीषिणः ॥ १७ ॥
मूलम्
कालसंचोदिता जीवा मज्जन्ति नरकेऽवशाः।
परितुष्टानि सर्वाणि दिव्यान्याहुर्मनीषिणः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालसे प्रेरित हुए जीव अपने पापकर्मोंके फलस्वरूप विवश होकर नरकमें डूबते हैं और पुण्यके फलसे वे सब-के-सब स्वर्गलोकमें जाकर वहाँ आनन्द भोगते हैं। ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षपयित्वा तु तं कालं गणितं कालचोदिताः।
सावशेषेण कालेन सम्भवन्ति पुनः पुनः ॥ १८ ॥
मूलम्
क्षपयित्वा तु तं कालं गणितं कालचोदिताः।
सावशेषेण कालेन सम्भवन्ति पुनः पुनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार स्वर्ग अथवा नरकमें कर्मफलभोगद्वारा निश्चित समय व्यतीत करके भोगनेसे बचे हुए कर्म-सहित कालकी प्रेरणासे वे बारंबार इस संसारमें जन्म लेते रहते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिर्यग्योनिसहस्राणि गत्वा नरकमेव च।
निर्गच्छन्त्यवशा जीवाः कामबन्धनबन्धनाः ॥ १९ ॥
मूलम्
तिर्यग्योनिसहस्राणि गत्वा नरकमेव च।
निर्गच्छन्त्यवशा जीवाः कामबन्धनबन्धनाः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कामनाओंके बन्धनमें बँधकर विवश हुए कितने ही जीव सहस्रों बार तिर्यक्योनि तथा नरकमें पड़कर पुनः वहाँसे निकलते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संसरमाणानि जीवान्यहमदृष्टवान् ।
यथा कर्म तथा लाभ इति शास्त्रनिदर्शनम् ॥ २० ॥
मूलम्
एवं संसरमाणानि जीवान्यहमदृष्टवान् ।
यथा कर्म तथा लाभ इति शास्त्रनिदर्शनम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैंने सभी जीवोंको जन्म-मरणके चक्करमें पड़ा हुआ देखा है। शास्त्रका भी ऐसा सिद्धान्त है कि जैसा कर्म होता है, वैसा ही फल मिलता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिर्यग् गच्छन्ति नरकं मानुष्यं दैवमेव च।
सुखदुःखे प्रिये द्वेष्ये चरित्वा पूर्वमेव ह ॥ २१ ॥
मूलम्
तिर्यग् गच्छन्ति नरकं मानुष्यं दैवमेव च।
सुखदुःखे प्रिये द्वेष्ये चरित्वा पूर्वमेव ह ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणी पहले ही सुख-दुःख तथा प्रिय और अप्रिय विषयोंमें विचरण करके कर्मके अनुसार नरक, तिर्यग्योनि, मनुष्ययोनि अथवा देवयोनिमें जाते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतान्तविधिसंयुक्तः सर्वो लोकः प्रपद्यते।
गतं गच्छन्ति चाध्वानं सर्वभूतानि सर्वदा ॥ २२ ॥
मूलम्
कृतान्तविधिसंयुक्तः सर्वो लोकः प्रपद्यते।
गतं गच्छन्ति चाध्वानं सर्वभूतानि सर्वदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त जीव जगत्-विधाताके विधानसे ही परिचालित हो सुख-दुःख पाता है और समस्त प्राणी सदा चले हुए मार्गपर ही चलते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालसंख्यानसंख्यातं सृष्टिस्थितिपरायणम् ।
तं भाषमाणं भगवानुशना प्रत्यभाषत।
धीमान् दुष्टप्रलापांस्त्वं तात कस्मात् प्रभाषसे ॥ २३ ॥
मूलम्
कालसंख्यानसंख्यातं सृष्टिस्थितिपरायणम् ।
तं भाषमाणं भगवानुशना प्रत्यभाषत।
धीमान् दुष्टप्रलापांस्त्वं तात कस्मात् प्रभाषसे ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो काल नामसे प्रसिद्ध एवं सृष्टि और पालनके परम आश्रय हैं, उन परमात्माका प्रतिपादन करते हुए वृत्रासुरकी बात सुनकर भगवान् शुक्राचार्यने उससे कहा—‘तात! तुम तो बड़े बुद्धिमान् हो, फिर ये असुरभावके विपरीत दोषयुक्त निरर्थक वचन कैसे कह रहे हो?॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
वृत्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षमेतद् भवतस्तथान्येषां मनीषिणाम् ।
मया यज्जयलुब्धेन पुरा तप्तं महत् तपः ॥ २४ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षमेतद् भवतस्तथान्येषां मनीषिणाम् ।
मया यज्जयलुब्धेन पुरा तप्तं महत् तपः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृत्रासुरने कहा— ब्रह्मन्! आपने तथा दूसरे मनीषी महानुभावोंने यह तो प्रत्यक्ष देखा है कि मैंने पहले विजयके लोभसे बड़ी भारी तपस्या की थी॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धानादाय भूतानां रसांश्च विविधानपि।
अवर्धं त्रीन् समाक्रम्य लोकान् वै स्वेन तेजसा ॥ २५ ॥
मूलम्
गन्धानादाय भूतानां रसांश्च विविधानपि।
अवर्धं त्रीन् समाक्रम्य लोकान् वै स्वेन तेजसा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं बलमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था; अतः मैंने अपने ही तेजसे तीनों लोकोंपर आक्रमण करके दूसरे प्राणियोंको धूलमें मिलाकर उनके उपभोगकी गन्ध और रस आदि विविध वस्तुएँ छीन ली थीं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्वालामालापरिक्षिप्तो वैहायसचरस्तथा ।
अजेयः सर्वभूतानामासं नित्यमपेतभीः ॥ २६ ॥
मूलम्
ज्वालामालापरिक्षिप्तो वैहायसचरस्तथा ।
अजेयः सर्वभूतानामासं नित्यमपेतभीः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे शरीरसे आगकी लपटें निकलती थीं और मैं ज्वालामालाओंसे घिरकर सदा आकाशमें निर्भय विचरता हुआ समस्त प्राणियोंके लिये अजेय हो गया था॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐश्वर्यं तपसा प्राप्तं भ्रष्टं तच्च स्वकर्मभिः।
धृतिमास्थाय भगवन् न शोचामि ततस्त्वहम् ॥ २७ ॥
मूलम्
ऐश्वर्यं तपसा प्राप्तं भ्रष्टं तच्च स्वकर्मभिः।
धृतिमास्थाय भगवन् न शोचामि ततस्त्वहम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! इस प्रकार मैंने तपस्याके प्रभावसे जो ऐश्वर्य प्राप्त किया था, वह मेरे अपने ही कर्मोंसे नष्ट हो गया। तथापि मैं धैर्य धारण करके उसके लिये शोक नहीं करता हूँ॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युयुत्सुना महेन्द्रेण पुंसा सार्धं महात्मना।
ततो मे भगवान् दृष्टो हरिर्नारायणः प्रभुः ॥ २८ ॥
मूलम्
युयुत्सुना महेन्द्रेण पुंसा सार्धं महात्मना।
ततो मे भगवान् दृष्टो हरिर्नारायणः प्रभुः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामनस्वी पुरुषप्रवर देवराज इन्द्र जब युद्धकी इच्छासे मेरे सामने आये, उस समय उनके साथ उन्हींकी सहायताके लिये आये हुए सबके प्रभु भगवान् श्रीनारायण हरिका मैंने दर्शन किया था॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैकुण्ठः पुरुषोऽनन्तः शुक्लो विष्णुः सनातनः।
मुञ्जकेशो हरिश्मश्रुः सर्वभूतपितामहः ॥ २९ ॥
मूलम्
वैकुण्ठः पुरुषोऽनन्तः शुक्लो विष्णुः सनातनः।
मुञ्जकेशो हरिश्मश्रुः सर्वभूतपितामहः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे भगवान् वैकुण्ठ, पुरुष, अनन्त, शुक्ल, विष्णु, सनातन, मुंजकेश, हरिश्मश्रु तथा सम्पूर्ण भूतोंके पितामह हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं तु तस्य तपसः सावशेषमिहास्ति वै।
यदहं प्रष्टुमिच्छामि भगवन् कर्मणः फलम् ॥ ३० ॥
मूलम्
नूनं तु तस्य तपसः सावशेषमिहास्ति वै।
यदहं प्रष्टुमिच्छामि भगवन् कर्मणः फलम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! अवश्य ही मेरी उस तपस्याका कोई अंश अब भी शेष रह गया है, अतः मैं उस कर्मफलके विषयमें प्रश्न करना चाहता हूँ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐश्वर्यं वै महद् ब्रह्म वर्णे कस्मिन् प्रतिष्ठितम्।
निवर्तते चापि पुनः कथमैश्वर्यमुत्तमम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
ऐश्वर्यं वै महद् ब्रह्म वर्णे कस्मिन् प्रतिष्ठितम्।
निवर्तते चापि पुनः कथमैश्वर्यमुत्तमम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अणिमा आदि ऐश्वर्य और महद् ब्रह्म किस वर्णमें प्रतिष्ठित हैं? तथा वह उत्तम ऐश्वर्य कैसे नष्ट हो जाता है?॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्माद् भूतानि जीवन्ति प्रवर्तन्ते तथा पुनः।
किं वा फलं परं प्राप्य जीवस्तिष्ठति शाश्वतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
कस्माद् भूतानि जीवन्ति प्रवर्तन्ते तथा पुनः।
किं वा फलं परं प्राप्य जीवस्तिष्ठति शाश्वतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणी किस हेतुसे जीवन धारण करते हैं? तथा किस कारणसे कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं? जीव किस परम फलको पाकर अविनाशी एवं सनातनरूपसे प्रतिष्ठित होता है?॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन वा कर्मणा शक्यमथ ज्ञानेन केन वा।
तदवाप्तुं फलं विप्र तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३३ ॥
मूलम्
केन वा कर्मणा शक्यमथ ज्ञानेन केन वा।
तदवाप्तुं फलं विप्र तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! किस कर्म अथवा ज्ञानसे उस फलको प्राप्त किया जा सकता है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतीदमुक्तः स मुनिस्तदानीं
प्रत्याह यत् तच्छृणु राजसिंह।
मयोच्यमानं पुरुषर्षभ त्व-
मनन्यचित्तः सह सोदरीयैः ॥ ३४ ॥
मूलम्
इतीदमुक्तः स मुनिस्तदानीं
प्रत्याह यत् तच्छृणु राजसिंह।
मयोच्यमानं पुरुषर्षभ त्व-
मनन्यचित्तः सह सोदरीयैः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजसिंह! पुरुषप्रवर युधिष्ठिर! उसके ऐसा प्रश्न करनेपर मुनिवर शुक्राचार्यने उस समय उसे जो उत्तर दिया, उसे मैं बता रहा हूँ, तुम अपने भाइयोंके साथ एकाग्रचित्त होकर सुनो॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि वृत्रगीतासु एकोनाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वृत्र-गीताविषयक दो सौ उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७९॥