२७७ पितापुत्रसंवादे

भागसूचना

सप्तसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शरीर और संसारकी अनित्यता तथा आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषके कर्तव्यका निर्देश—पिता-पुत्रका संवाद

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिक्रामति कालेऽस्मिन् सर्वभूतभयावहे ।
किं श्रेयः प्रतिपद्येत तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

अतिक्रामति कालेऽस्मिन् सर्वभूतभयावहे ।
किं श्रेयः प्रतिपद्येत तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! सम्पूर्ण प्राणियोंको भय देनेवाला यह काल धीरे-धीरे बीता जा रहा है। (कौन कबतक जीवित रहेगा, इसका कुछ निश्चय नहीं है।) ऐसी दशामें मनुष्य किस कार्यको अपने लिये कल्याणकारी समझे, यह मुझे बताइये?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
पितुः पुत्रेण संवादं तं निबोध युधिष्ठिर ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
पितुः पुत्रेण संवादं तं निबोध युधिष्ठिर ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष पिता-पुत्र-संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विजातेः कस्यचित् पार्थ स्वाध्यायनिरतस्य वै।
पुत्रो बभूव मेधावी मेधावी नाम नामतः ॥ ३ ॥

मूलम्

द्विजातेः कस्यचित् पार्थ स्वाध्यायनिरतस्य वै।
पुत्रो बभूव मेधावी मेधावी नाम नामतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! प्राचीनकालमें किसी स्वाध्यायपरायण ब्राह्मणके एक बड़ा मेधावी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम ‘मेधावी’ ही था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽब्रवीत् पितरं पुत्रः स्वाध्यायकरणे रतम्।
मोक्षधर्मेष्वकुशलं मोक्षधर्मविचक्षणः ॥ ४ ॥

मूलम्

सोऽब्रवीत् पितरं पुत्रः स्वाध्यायकरणे रतम्।
मोक्षधर्मेष्वकुशलं मोक्षधर्मविचक्षणः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके पिता सदा स्वाध्यायमें ही तत्पर रहते थे, किंतु मोक्षधर्ममें इतने निपुण नहीं थे। पुत्र मोक्षधर्मके ज्ञानमें कुशल था; अतः उसने अपने पितासे पूछा॥४॥

मूलम् (वचनम्)

पुत्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धीरः किंस्वित्‌ तात कुर्यात् प्रजानन्
क्षिप्रं ह्यायुर्भ्रश्यते मानवानाम् ।
पितस्तथाऽऽख्याहि यथार्थयोगं
ममानुपूर्व्या येन धर्मं चरेयम् ॥ ५ ॥

मूलम्

धीरः किंस्वित्‌ तात कुर्यात् प्रजानन्
क्षिप्रं ह्यायुर्भ्रश्यते मानवानाम् ।
पितस्तथाऽऽख्याहि यथार्थयोगं
ममानुपूर्व्या येन धर्मं चरेयम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्र बोला— तात! मनुष्योंकी आयु तीव्रगतिसे बीती जा रही है। इस बातको अच्छी तरह जाननेवाला धीर पुरुष किस धर्मका अनुष्ठान करे? पिताजी! यह सब क्रमशः और यथार्थरूपसे आप मुझे बताइये, जिससे मैं भी उस धर्मका आचरण कर सकूँ॥५॥

मूलम् (वचनम्)

पितोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधीत्य वेदान् ब्रह्मचर्येषु पुत्र
पुत्रानिच्छेत् पावनाय पितॄणाम् ।
अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो
वनं प्रविश्याथ मुनिर्बुभूषेत् ॥ ६ ॥

मूलम्

अधीत्य वेदान् ब्रह्मचर्येषु पुत्र
पुत्रानिच्छेत् पावनाय पितॄणाम् ।
अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो
वनं प्रविश्याथ मुनिर्बुभूषेत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताने कहा— बेटा! द्विजको चाहिये कि वह पहले ब्रह्मचर्य-आश्रममें रहकर वेदोंका अध्ययन कर ले, फिर पितरोंका उद्धार करनेके लिये गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करके पुत्रोत्पादनकी इच्छा करे। वहाँ विधिपूर्वक अग्नियोंकी स्थापना करके उनमें विधिवत् अग्निहोत्र करे। इस प्रकार यज्ञकर्मका सम्पादन करके वानप्रस्थ-आश्रममें प्रविष्ट हो मुनिवृत्तिसे रहनेकी इच्छा करे॥६॥

मूलम् (वचनम्)

पुत्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमभ्याहते लोके सर्वतः परिवारिते।
अमोघासु पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे ॥ ७ ॥

मूलम्

एवमभ्याहते लोके सर्वतः परिवारिते।
अमोघासु पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रने पूछा— पिताजी! यह लोक तो किसीके द्वारा अत्यन्त ताड़ित और सब ओरसे घिरा हुआ जान पड़ता है। यहाँ ये अमोघ वस्तुएँ निरन्तर हमलोगोंपर टूटी पड़ती हैं। ऐसी दशामें आप धीर पुरुषके समान कैसे बातचीत कर रहे हैं?॥७॥

मूलम् (वचनम्)

पितोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथमभ्याहतो लोकः केन वा परिवारितः।
अमोघाः काः पतन्तीह किं नु भीषयसीव माम् ॥ ८ ॥

मूलम्

कथमभ्याहतो लोकः केन वा परिवारितः।
अमोघाः काः पतन्तीह किं नु भीषयसीव माम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिता बोले— पुत्र! तुम मुझे डरानेकी चेष्टा क्यों करते हो? भला, यह लोक कैसे ताड़ित होता है अथवा किसने इसे घेर रखा है? और यहाँ कौन-सी अमोघ वस्तुएँ हमपर टूटी पड़ती हैं?॥८॥

मूलम् (वचनम्)

पुत्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्युनाभ्याहतो लोको जरया परिवारितः।
अहोरात्राः पतन्तीमे तच्च कस्मान्न बुद्ध्यसे ॥ ९ ॥

मूलम्

मृत्युनाभ्याहतो लोको जरया परिवारितः।
अहोरात्राः पतन्तीमे तच्च कस्मान्न बुद्ध्यसे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्र बोला— पिताजी! देखिये, मृत्यु सारे जगत्‌को पीट रही है। बुढ़ापेने इसे घेर लिया है। ये दिन और रात्रियाँ हमपर टूटी पड़ती हैं। इस बातको आप समझ क्यों नहीं रहे हैं?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाहमेव जानामि न मृत्युस्तिष्ठतीति ह।
सोऽहं कथं प्रतीक्षिष्ये ज्ञानेनापिहितश्चरन् ॥ १० ॥

मूलम्

यदाहमेव जानामि न मृत्युस्तिष्ठतीति ह।
सोऽहं कथं प्रतीक्षिष्ये ज्ञानेनापिहितश्चरन् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि मौत मेरे कहनेसे क्षणभर भी रुक नहीं सकती और मैं ज्ञानरूपी कवचसे अपनेको बिना ढके हुए ही विचर रहा हूँ, तब यह समझकर भी मैं अपने कल्याणसाधनमें एक क्षणकी भी प्रतीक्षा कैसे करूँगा?॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रात्र्यां रात्र्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा।
गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा ॥ ११ ॥

मूलम्

रात्र्यां रात्र्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा।
गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब प्रत्येक रात बीतनेके बाद आयु क्षीण होकर कुछ-न-कुछ थोड़ी होती चली जा रही है, तब छिछले पानीमें रहनेवाली मछलीके समान कौन सुख पा सकता है?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पाणीव विचिन्वन्तमन्यत्र गतमानसम् ।
अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम् ॥ १२ ॥

मूलम्

पुष्पाणीव विचिन्वन्तमन्यत्र गतमानसम् ।
अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मनुष्य वनमें फूल चुन रहा हो, उसी बीचमें कोई हिंसक जीव उसपर आक्रमण कर दे; उसी प्रकार जब मनुष्यका मन दूसरी ओर (विषयभोगोंमें) लगा होता है, उसी समय उसकी इच्छा पूर्ण होनेके पहले ही सहसा मौत आकर उसे दबोच लेती है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वास्य न वा कृतम्॥१३॥

मूलम्

श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वास्य न वा कृतम्॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये जिस कामको कल करना हो, उसे आज ही कर ले। जिसे अपराह्णमें करना हो, उसे पूर्वाह्णमें ही कर डाले; क्योंकि मृत्यु इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करती कि इसका काम पूरा हो गया या नहीं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्यैव कुरु यच्छ्रेयो मा त्वां कालोऽत्यगान्महान्।
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति ॥ १४ ॥

मूलम्

अद्यैव कुरु यच्छ्रेयो मा त्वां कालोऽत्यगान्महान्।
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कल्याणकारी कार्य है, उसे आप आज ही कर डालिये। यह महान् काल आपको लाँघ न जाय; क्योंकि कौन जानता है कि आज किसकी मृत्युकी घड़ी आ पहुँचेगी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृतेष्वेव कार्येषु मृत्युर्वै सम्प्रकर्षति।
युवैव धर्मशीलः स्यादनिमित्तं हि जीवितम् ॥ १५ ॥

मूलम्

अकृतेष्वेव कार्येषु मृत्युर्वै सम्प्रकर्षति।
युवैव धर्मशीलः स्यादनिमित्तं हि जीवितम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारे काम अधूरे ही रह जाते हैं और मौत अपनी ओर खींच लेती है, इसलिये युवावस्थामें ही मनुष्यको धर्मका आचरण करना चाहिये, क्योंकि जीवनका कुछ ठिकाना नहीं है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृते धर्मे भवेत् प्रीतिरिह प्रेत्य च शाश्वती।
मोहेन हि समाविष्टः पुत्रदारार्थमुद्यतः ॥ १६ ॥
कृत्वा कार्यमकार्यं वा तुष्टिमेषां प्रयच्छति।
तं पुत्रपशुसम्पन्नं व्यासक्तमनसं नरम् ॥ १७ ॥
सुप्तं व्याघ्रं महौघो वा मृत्युरादाय गच्छति।

मूलम्

कृते धर्मे भवेत् प्रीतिरिह प्रेत्य च शाश्वती।
मोहेन हि समाविष्टः पुत्रदारार्थमुद्यतः ॥ १६ ॥
कृत्वा कार्यमकार्यं वा तुष्टिमेषां प्रयच्छति।
तं पुत्रपशुसम्पन्नं व्यासक्तमनसं नरम् ॥ १७ ॥
सुप्तं व्याघ्रं महौघो वा मृत्युरादाय गच्छति।

अनुवाद (हिन्दी)

धर्माचरण करनेसे इस लोकमें प्रसन्नता प्राप्त होती है और मृत्युके पश्चात् परलोकमें अक्षय सुखकी प्राप्ति होती है। जिसपर मोहका आवेश होता है, वही स्त्री-पुत्रोंके लिये तरह-तरहके काम-धंधोंकी खटपटमें लगा रहता है। वह करने और न करने योग्य काम करके भी इन सबको संतोष देता है। पुत्रों और पशुओंसे सम्पन्न हो जब मनुष्यका मन उन्हींमें आसक्त रहता है, उसी समय जैसे नदीका महान् जलप्रवाह अपने तटपर सोये हुए व्याघ्रको बहा ले जाता है, उसी प्रकार मृत्यु उस मनुष्यको लेकर चल देती है॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संचिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम् ॥ १८ ॥
वृकीवोरणमासाद्य मृत्युरादाय गच्छति ।

मूलम्

संचिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम् ॥ १८ ॥
वृकीवोरणमासाद्य मृत्युरादाय गच्छति ।

अनुवाद (हिन्दी)

वह भोग-सामग्रियोंका संयम करता और कामनाओंसे अतृप्त ही रहता है। तभी मृत्यु आकर उसे उसी तरह उठा ले जाती है, जैसे बाघिन भेड़के पास पहुँचकर उसे दबोच लेती है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत् कृताकृतम् ॥ १९ ॥
एवमीहासमायुक्तं मृत्युरादाय गच्छति ।

मूलम्

इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत् कृताकृतम् ॥ १९ ॥
एवमीहासमायुक्तं मृत्युरादाय गच्छति ।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य सोचता है कि यह काम तो मैंने कर लिया, इस कामको अभी करना है और यह दूसरा कार्य कुछ हदतक हो गया है और शेष बाकी पड़ा है। इस प्रकार मनसूबे बाँधनेमें लगे हुए उस मनुष्यको मौत लेकर चल देती है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतानां फलमप्राप्तं कार्याणां कर्मसङ्गिनाम् ॥ २० ॥
क्षेत्रापणगृहासक्तं मृत्युरादाय गच्छति ।

मूलम्

कृतानां फलमप्राप्तं कार्याणां कर्मसङ्गिनाम् ॥ २० ॥
क्षेत्रापणगृहासक्तं मृत्युरादाय गच्छति ।

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपने खेत, दूकान और घरके ही चक्करमें पड़ा रहता है। उनके लिये तरह-तरहके कर्मोंमें फँसता है; परंतु उनका फल मिलने भी नहीं पाता कि मौत उसको इस संसारसे उठा ले जाती है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्बलं बलवन्तं च प्राज्ञं शूरं जडं कविम् ॥ २१ ॥
अप्राप्तसर्वकामार्थं मृत्युरादाय गच्छति ।

मूलम्

दुर्बलं बलवन्तं च प्राज्ञं शूरं जडं कविम् ॥ २१ ॥
अप्राप्तसर्वकामार्थं मृत्युरादाय गच्छति ।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य दुर्बल हो या बलवान्, बुद्धिमान् हो या शूरवीर अथवा मूर्ख हो या विद्वान्—मृत्यु उसकी समस्त कामनाओंके पूर्ण होनेसे पहले ही उसे उठा ले जाती है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्युर्जरा च व्याधिश्च दुःखं चानेककारणम् ॥ २२ ॥
असंत्याज्यं यदा मर्त्यैः किं स्वस्थ इव तिष्ठसि।

मूलम्

मृत्युर्जरा च व्याधिश्च दुःखं चानेककारणम् ॥ २२ ॥
असंत्याज्यं यदा मर्त्यैः किं स्वस्थ इव तिष्ठसि।

अनुवाद (हिन्दी)

पिताजी! जब इस शरीरमें मृत्यु, जरा, व्याधि और अनेक कारणोंसे होनेवाले दुःखोंका ताँता बँधा ही रहता है और मनुष्य किसी प्रकार भी उनसे अपना पिण्ड नहीं छुड़ा सकते, तब ऐसी दशामें आप निश्चिन्त-से क्यों बैठे हैं?॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातमेवान्तकोऽन्ताय जरा चाभ्येति देहिनम् ॥ २३ ॥
अनुषक्ता द्वयेनैते भावाः स्थावरजङ्गमाः।

मूलम्

जातमेवान्तकोऽन्ताय जरा चाभ्येति देहिनम् ॥ २३ ॥
अनुषक्ता द्वयेनैते भावाः स्थावरजङ्गमाः।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यके जन्म लेते ही उसका अन्त कर डालनेके लिये अन्तक (यमराज) उसके पीछे लग जाता है और बुढ़ापा भी देहधारीके पास आता ही है। समस्त चराचर पदार्थ इन दोनोंसे बँधे हुए हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मृत्युसेनामायान्तीं जातु कश्चित् प्रबाधते ॥ २४ ॥
बलात् सत्यमृते त्वेकं सत्ये ह्यमृतमाश्रितम्।

मूलम्

न मृत्युसेनामायान्तीं जातु कश्चित् प्रबाधते ॥ २४ ॥
बलात् सत्यमृते त्वेकं सत्ये ह्यमृतमाश्रितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

एकमात्र सत्यके बिना कोई भी मनुष्य कभी सामने आती हुई मृत्युकी सेनाको बलपूर्वक नहीं दबा सकता (अतः असत्यको त्यागकर सत्यका ही आश्रय लेना चाहिये)। क्योंकि सत्यमें ही अमृत (ब्रह्म) प्रतिष्ठित है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्योर्वा गृहमेतद् वै या ग्रामे वसतो रतिः ॥ २५ ॥
देवानामेष वै गोष्ठो यदरण्यमिति श्रुतिः।

मूलम्

मृत्योर्वा गृहमेतद् वै या ग्रामे वसतो रतिः ॥ २५ ॥
देवानामेष वै गोष्ठो यदरण्यमिति श्रुतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

गाँव या नगरमें रहकर स्त्री-पुत्रोंमें आसक्ति रखना—यह मृत्युका घर ही है। ‘यदरण्यम्’ इस श्रुतिके अनुसार जो वानप्रस्थ-आश्रम है, यह देवताओंकी गोशालाके समान है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः ॥ २६ ॥
छित्त्वैनां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः।

मूलम्

निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः ॥ २६ ॥
छित्त्वैनां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः।

अनुवाद (हिन्दी)

गाँवोंमें रहकर विषय-भोगोंमें आसक्त होना—यह जीवको बाँधनेवाली रस्सीके समान है। केवल पुण्यात्मा पुरुष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरुष इसे नहीं काट सकते॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो न हिंसति सत्त्वानि मनोवाक्कर्महेतुभिः ॥ २७ ॥
जीवितार्थापनयनैः प्राणिभिर्न स बद्ध्यते।

मूलम्

यो न हिंसति सत्त्वानि मनोवाक्कर्महेतुभिः ॥ २७ ॥
जीवितार्थापनयनैः प्राणिभिर्न स बद्ध्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

जो मन, वाणी, क्रिया तथा अन्य कारणोंद्वारा किसी भी प्राणीकी जीविकाका अपहरण करके उसकी हिंसा नहीं करता, उसको दूसरे प्राणी भी वध या बन्धनके कष्टमें नहीं डालते॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सत्यव्रताचारः सत्यव्रतपरायणः ॥ २८ ॥
सत्यकामः समो दान्तः सत्येनैवान्तकं जयेत्।

मूलम्

तस्मात् सत्यव्रताचारः सत्यव्रतपरायणः ॥ २८ ॥
सत्यकामः समो दान्तः सत्येनैवान्तकं जयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मनुष्यको सत्यव्रतका आचरण करना चाहिये। सत्यरूपी व्रतके पालनमें तत्पर रहना चाहिये। वह सत्यकी कामना करे। सबके प्रति समान भाव रखे। जितेन्द्रिय बने और सत्यके द्वारा ही मृत्युपर विजय प्राप्त करे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमृतं चैव मृत्युश्च द्वयं देहे प्रतिष्ठितम् ॥ २९ ॥
मृत्युरापद्यते मोहात् सत्येनापद्यतेऽमृतम् ।

मूलम्

अमृतं चैव मृत्युश्च द्वयं देहे प्रतिष्ठितम् ॥ २९ ॥
मृत्युरापद्यते मोहात् सत्येनापद्यतेऽमृतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

अमृत और मृत्यु—ये दोनों इस शरीरमें ही विद्यमान हैं। मोहसे मृत्यु प्राप्त होती है और सत्यसे अमृतपदकी उपलब्धि होती है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं सत्यमहिसार्थी कामक्रोधबहिष्कृतः ॥ ३० ॥
समाश्रित्य सुखं क्षेमी मृत्युं हास्याम्यमृत्युवत्।

मूलम्

सोऽहं सत्यमहिसार्थी कामक्रोधबहिष्कृतः ॥ ३० ॥
समाश्रित्य सुखं क्षेमी मृत्युं हास्याम्यमृत्युवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः अब मैं काम और क्रोधको त्यागकर अहिंसाधर्मके पालनकी इच्छा करूँगा। सत्यका आश्रय लेकर कल्याणका भागी बनूँगा और अमरकी भाँति मृत्युको दूर हटा दूँगा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्तियज्ञरतो दान्तो ब्रह्मयज्ञे स्थितो मुनिः ॥ ३१ ॥
वाङ्‌मनःकर्मयज्ञश्च भविष्याम्युदगायने ।

मूलम्

शान्तियज्ञरतो दान्तो ब्रह्मयज्ञे स्थितो मुनिः ॥ ३१ ॥
वाङ्‌मनःकर्मयज्ञश्च भविष्याम्युदगायने ।

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यके उत्तरायण होनेपर शान्तिमय यज्ञमें तत्पर, जितेन्द्रिय, ब्रह्मयज्ञपरायण एवं मननशील होकर मैं जप-स्वाध्यायरूप वाग्यज्ञ, ध्यानरूप मनोयज्ञ और शास्त्रविहित कर्मोंका निष्कामभावसे आचरणरूप कर्मयज्ञका अनुष्ठान करूँगा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पशुयज्ञैः कथं हिंस्रैर्मादृशो यष्टुमर्हति ॥ ३२ ॥
अन्तवद्भिरुत प्राज्ञः क्षत्रयज्ञैः पिशाचवत्।

मूलम्

पशुयज्ञैः कथं हिंस्रैर्मादृशो यष्टुमर्हति ॥ ३२ ॥
अन्तवद्भिरुत प्राज्ञः क्षत्रयज्ञैः पिशाचवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे-जैसा ज्ञानवान् पुरुष हिंसाप्रधान पशुयज्ञोंद्वारा कैसे यजन कर सकता है? अथवा पिशाचके समान विनाशशील क्षत्रिय—यज्ञोंके अनुष्ठानमें कैसे प्रवृत्त हो सकता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मन्येवात्मना जात आत्मनिष्ठोऽप्रजः पितः ॥ ३३ ॥
आत्मयज्ञो भविष्यामि न मां तारयति प्रजा।

मूलम्

आत्मन्येवात्मना जात आत्मनिष्ठोऽप्रजः पितः ॥ ३३ ॥
आत्मयज्ञो भविष्यामि न मां तारयति प्रजा।

अनुवाद (हिन्दी)

पिताजी! मैं आत्मासे अपने आपमें ही उत्पन्न हुआ हूँ। अपने आपमें ही स्थित हूँ। मेरे कोई संतान नहीं है। मैं आत्मयज्ञका ही यजमान होऊँगा। मुझे संतान नहीं तार सकती है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य वाङ्‌मनसी स्यातां सम्यक् प्रणिहिते सदा ॥ ३४ ॥
तपस्यागश्च योगश्च स तैः सर्वमवाप्नुयात्।

मूलम्

यस्य वाङ्‌मनसी स्यातां सम्यक् प्रणिहिते सदा ॥ ३४ ॥
तपस्यागश्च योगश्च स तैः सर्वमवाप्नुयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी वाणी और मन सदा एकाग्र रहते हैं तथा जिसमें तप, त्याग और योग—तीनोंका समावेश है, वह उनके द्वारा सब कुछ पा लेता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति विद्यासमं फलम् ॥ ३५ ॥
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति विद्यासमं फलम् ॥ ३५ ॥
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें ब्रह्मविद्याके समान कोई नेत्र नहीं है, ब्रह्मविद्याके समान कोई फल नहीं है, रागके समान कोई दुःख नहीं है और त्यागके समान कोई सुख नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं
यथैकता समता सत्यता च।
शीले स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं
ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः ॥ ३७ ॥

मूलम्

नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं
यथैकता समता सत्यता च।
शीले स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं
ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्ममें एकीभाव, समता, सत्यपरायणता, सदाचार-निष्ठा, दण्डका त्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकारके सकाम कर्मोंसे निवृत्ति—इनके समान ब्राह्मणका दूसरा कोई धर्म नहीं है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं ते धनैर्बान्धवैर्वापि किं ते
किं ते दारैर्ब्राह्मण यो मरिष्यसि।
आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं
पितामहास्ते क्व गताः पिता च ॥ ३८ ॥

मूलम्

किं ते धनैर्बान्धवैर्वापि किं ते
किं ते दारैर्ब्राह्मण यो मरिष्यसि।
आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं
पितामहास्ते क्व गताः पिता च ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणदेव (पिताजी)! जब एक दिन आपको मरना ही है, तब इन धन-वैभव, बन्धु-बान्धव तथा स्त्री-पुत्रोंसे क्या प्रयोजन है? अपनी हृदयगुहामें विराजमान आत्माकी खोज कीजिये। सोचिये तो सही, आज आपके पिताजी कहाँ हैं, दादा-बाबा कहाँ चले गये॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रस्यैतद् वचः श्रुत्वा तथाकार्षीत् पिता नृप।
तथा त्वमपि वर्तस्व सत्यधर्मपरायणः ॥ ३९ ॥

मूलम्

पुत्रस्यैतद् वचः श्रुत्वा तथाकार्षीत् पिता नृप।
तथा त्वमपि वर्तस्व सत्यधर्मपरायणः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— नरेश्वर! पुत्रका यह वचन सुनकर उसके पिताने सब कुछ उसके कथनानुसार किया। उसी प्रकार तुम भी सत्य और धर्ममें तत्पर होकर उसी प्रकार आचरण करो॥३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पितापुत्रसंवादे सप्तसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पिता और पुत्रका संवादविषयक दो सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७७॥