२७६ माण्डव्यजनकसंवादे

भागसूचना

षट्‌सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

तृष्णाके परित्यागके विषयमें माण्डव्य मुनि और जनकका संवाद

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातरः पितरः पौत्रा ज्ञातयः सुहृदः सुताः।
अर्थहेतोर्हताः क्रूरैरस्माभिः पापकर्मभिः ॥ १ ॥
येयमर्थोद्भवा तृष्णा कथमेतां पितामह।
निवर्तयेयं पापानि तृष्णया कारिता वयम् ॥ २ ॥

मूलम्

भ्रातरः पितरः पौत्रा ज्ञातयः सुहृदः सुताः।
अर्थहेतोर्हताः क्रूरैरस्माभिः पापकर्मभिः ॥ १ ॥
येयमर्थोद्भवा तृष्णा कथमेतां पितामह।
निवर्तयेयं पापानि तृष्णया कारिता वयम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! हमलोग बड़े पापी और क्रूर हैं। हमने धनके लिये ही भाई, पिता, पौत्र, कुटुम्बीजन, सुहृद् और पुत्र—इन सबका संहार कर डाला। यह जो धनजनित तृष्णा है, इसीने हमसे बड़े-बड़े पाप करवाये हैं। हम इस तृष्णाको किस तरह दूर करें?॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गीतं विदेहराजेन माण्डव्यायानुपृच्छते ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गीतं विदेहराजेन माण्डव्यायानुपृच्छते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— राजन्! एक बार माण्डव्य मुनिने विदेहराज जनकसे ऐसा ही प्रश्न किया था, उसके उत्तरमें विदेहराजने जो उद्‌गार प्रकट किया था, उसी प्राचीन इतिहासको विज्ञ पुरुष ऐसे अवसरोंपर उदाहरणके तौरपर दुहराया करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुसुखं बत जीवामि यस्य मे नास्ति किंचन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन ॥ ४ ॥

मूलम्

सुसुखं बत जीवामि यस्य मे नास्ति किंचन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जनकने कहा था कि मैं बड़े सुखसे जीवन व्यतीत करता हूँ; क्योंकि इस जगत्‌की कोई भी वस्तु मेरी नहीं है। किसीपर भी मेरा ममत्व नहीं है। यदि सारी मिथिलामें आग लग जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थाः खलु समृद्धा हि बाढं दुःखं विजानताम्।
असमृद्धास्त्वपि सदा मोहयन्त्यविचक्षणान् ॥ ५ ॥
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥ ६ ॥

मूलम्

अर्थाः खलु समृद्धा हि बाढं दुःखं विजानताम्।
असमृद्धास्त्वपि सदा मोहयन्त्यविचक्षणान् ॥ ५ ॥
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विवेकी हैं, उन्हें बड़े समृद्धिसम्पन्न विषय भी दुःखरूप ही जान पड़ते हैं। परंतु अज्ञानियोंको तुच्छ विषय भी सदा मोहमें डाले रहते हैं। लोकमें जो कामजनित सुख है तथा जो स्वर्गका दिव्य एवं महान् सुख है, वे दोनों तृष्णाक्षयसे होनेवाले सुखकी सोलहवीं कलाकी भी तुलना पानेके योग्य नहीं हैं॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैव शृङ्गं गोः काले वर्धमानस्य वर्धते।
तथैव तृष्णा वित्तेन वर्धमानेन वर्धते ॥ ७ ॥

मूलम्

यथैव शृङ्गं गोः काले वर्धमानस्य वर्धते।
तथैव तृष्णा वित्तेन वर्धमानेन वर्धते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार समयानुसार बड़े होते हुए बछड़ेका सींग भी उसके शरीरके साथ ही बढ़ता है, उसी प्रकार बढ़ते हुए धनके साथ उसकी तृष्णा भी बढ़ती जाती है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंचिदेव ममत्वेन यदा भवति कल्पितम्।
तदेव परितापाय नाशे सम्पद्यते पुनः ॥ ८ ॥

मूलम्

किंचिदेव ममत्वेन यदा भवति कल्पितम्।
तदेव परितापाय नाशे सम्पद्यते पुनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई भी वस्तु क्यों न हो, जब उसके प्रति ममता कर ली जाती है—वह वस्तु अपनी मान ली जाती है, तब नष्ट होनेपर वही संतापका कारण बन जाती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कामाननुरुद्ध्येत दुःखं कामेषु वै रतिः।
प्राप्यार्थमुपयुञ्जीत धर्मं कामान् विसर्जयेत् ॥ ९ ॥

मूलम्

न कामाननुरुद्ध्येत दुःखं कामेषु वै रतिः।
प्राप्यार्थमुपयुञ्जीत धर्मं कामान् विसर्जयेत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये कामनाओं या भोगोंकी वृद्धिके लिये आग्रह नहीं रखना चाहिये। भोगोंमें जो आसक्ति होती है, वह दुःखरूप ही है। धन पाकर भी उसे धर्ममें ही लगा देना चाहिये। काम-भोगोंको तो सर्वथा त्याग ही देना चाहिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्वान् सर्वेषु भूतेषु आत्मना सोपमो भवेत्।
कृतकृत्यो विशुद्धात्मा सर्वं त्यजति चैव ह ॥ १० ॥

मूलम्

विद्वान् सर्वेषु भूतेषु आत्मना सोपमो भवेत्।
कृतकृत्यो विशुद्धात्मा सर्वं त्यजति चैव ह ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष सभी प्राणियोंके प्रति अपने समान ही भाव रखे। इससे वह कृतकृत्य और शुद्धचित्त होकर समस्त दोषोंको त्याग देता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभे सत्यानृते त्यक्त्वा शोकानन्दौ प्रियाप्रिये।
भयाभयं च संत्यज्य स प्रशान्तो निरामयः ॥ ११ ॥

मूलम्

उभे सत्यानृते त्यक्त्वा शोकानन्दौ प्रियाप्रिये।
भयाभयं च संत्यज्य स प्रशान्तो निरामयः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सत्य-असत्य, हर्ष-शोक, प्रिय-अप्रिय तथा भय-अभय आदि सभी द्वन्द्वोंको त्यागकर अत्यन्त शान्त और निर्विकार हो जाता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ १२ ॥

मूलम्

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खोटी बुद्धिवाले मूढ़ पुरुषोंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो शरीरके जराजीर्ण हो जानेपर भी स्वयं जीर्ण न होकर नयी-नवेली ही बनी रहती है तथा जिसे प्राणान्तकालतक रहनेवाला रोग माना गया है, उस तृष्णाको जो त्याग देता है, उसीको परम सुख मिलता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारित्रमात्मनः पश्यंश्चन्द्रशुद्धमनामयम् ।
धर्मात्मा लभते कीर्तिं प्रेत्य चेह यथासुखम् ॥ १३ ॥

मूलम्

चारित्रमात्मनः पश्यंश्चन्द्रशुद्धमनामयम् ।
धर्मात्मा लभते कीर्तिं प्रेत्य चेह यथासुखम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने सदाचारको चन्द्रमाके समान विशुद्ध, उज्ज्वल एवं निर्विकार देखता है, वह धर्मात्मा पुरुष इहलोक और परलोकमें कीर्ति एवं उत्तम सुख पाता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञस्तद् वचनं श्रुत्वा प्रीतिमानभवद् द्विजः।
पूजयित्वा च तद् वाक्यं माण्डव्यो मोक्षमाश्रितः ॥ १४ ॥

मूलम्

राज्ञस्तद् वचनं श्रुत्वा प्रीतिमानभवद् द्विजः।
पूजयित्वा च तद् वाक्यं माण्डव्यो मोक्षमाश्रितः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके ये वचन सुनकर ब्रह्मर्षि माण्डव्य बड़े प्रसन्न हुए। उनके कथनकी प्रशंसा करके मुनिने मोक्षमार्गका आश्रय लिया॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि माण्डव्यजनकसंवादे षट्‌सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें माण्डव्य और जनकका संवादविषयक दो सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७६॥