भागसूचना
पञ्चसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जीवात्माके देहाभिमानसे मुक्त होनेके विषयमें नारद और असितदेवलका संवाद
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदस्य च संवादं देवलस्यासितस्य च ॥ १ ॥
मूलम्
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
नारदस्य च संवादं देवलस्यासितस्य च ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस विषयमें देवर्षि नारद तथा ब्रह्मर्षि असितदेवलके संवादरूप प्राचीन इतिहासका विद्वान् पुरुष उदाहरण दिया करते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीनं देवलं वृद्धं बुद्ध्वा बुद्धिमतां वरम्।
नारदः परिपप्रच्छ भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ २ ॥
मूलम्
आसीनं देवलं वृद्धं बुद्ध्वा बुद्धिमतां वरम्।
नारदः परिपप्रच्छ भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ बूढ़े असितदेवलको आसनपर बैठा हुआ जान नारदजीने उनसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके विषयमें प्रश्न किया॥२॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतः सृष्टमिदं विश्वं ब्रह्मन् स्थावरजङ्गमम्।
प्रलये च कमभ्येति तद् भवान् प्रब्रवीतु मे ॥ ३ ॥
मूलम्
कुतः सृष्टमिदं विश्वं ब्रह्मन् स्थावरजङ्गमम्।
प्रलये च कमभ्येति तद् भवान् प्रब्रवीतु मे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने पूछा— ब्रह्मन्! इस समस्त चराचर जगत्की सृष्टि किससे हुई है तथा यह प्रलयके समय किसमें लीन हो जाता है, यह आप मुझे बताइये?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
असित उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
येभ्यः सृजति भूतानि काले भावप्रचोदितः।
महाभूतानि पञ्चेति तान्याहुर्भूतचिन्तकाः ॥ ४ ॥
मूलम्
येभ्यः सृजति भूतानि काले भावप्रचोदितः।
महाभूतानि पञ्चेति तान्याहुर्भूतचिन्तकाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
असितदेवलने कहा— देवर्षे! सृष्टिके समय परमात्मा प्राणियोंकी वासनाओंसे प्रेरित हो समयपर जिन तत्त्वोंसे सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करते हैं, उन्हें भूतचिन्तक (भौतिक विज्ञानवादी) विद्वान् पंचमहाभूत कहते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेभ्यः सृजति भूतानि काल आत्मप्रचोदितः।
एतेभ्यो यः परं ब्रूयादसद् ब्रूयादसंशयम् ॥ ५ ॥
मूलम्
तेभ्यः सृजति भूतानि काल आत्मप्रचोदितः।
एतेभ्यो यः परं ब्रूयादसद् ब्रूयादसंशयम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमात्माकी प्रेरणासे काल इन पाँच तत्त्वोंद्वारा समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करता है। जो इनसे भिन्न किसी अन्य तत्त्वको प्राणियोंके शरीरोंका उपादान कारण बताता है, वह निस्संदेह झूठी बात कहता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्धि नारद पञ्चैतान् शाश्वतानचलान् ध्रुवान्।
महतस्तेजसो राशीन् कालषष्ठान् स्वभावतः ॥ ६ ॥
मूलम्
विद्धि नारद पञ्चैतान् शाश्वतानचलान् ध्रुवान्।
महतस्तेजसो राशीन् कालषष्ठान् स्वभावतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारद! पाँच भूत और छठा काल—इन छः तत्त्वोंको तुम प्रवाहरूपसे शाश्वत, अविचल और ध्रुव समझो। ये तेजोमय महत्तत्त्वकी स्वाभाविक कलाएँ हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपश्चैवान्तरिक्षं च पृथिवी वायुपावकौ।
नासीद्धि परमं तेभ्यो भूतेभ्यो मुक्तसंशयम् ॥ ७ ॥
मूलम्
आपश्चैवान्तरिक्षं च पृथिवी वायुपावकौ।
नासीद्धि परमं तेभ्यो भूतेभ्यो मुक्तसंशयम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जल, आकाश, पृथ्वी, वायु और अग्नि—इन भूतोंसे भिन्न कोई तत्त्व कभी नहीं था; इसमें संशय नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोपपत्त्या न वा युक्त्या त्वसद् ब्रूयादसंशयम्।
वेत्थैतानभिनिर्वृत्तान् षडेते यस्य राशयः ॥ ८ ॥
मूलम्
नोपपत्त्या न वा युक्त्या त्वसद् ब्रूयादसंशयम्।
वेत्थैतानभिनिर्वृत्तान् षडेते यस्य राशयः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी भी युक्ति या प्रमाणसे इन छःके अतिरिक्त और कोई तत्त्व नहीं बताया जा सकता। इसलिये जो कोई दूसरी बात कहता है, वह निस्संदेह झूठ बोलता है। तुम सभी कार्योंमें अनुगत हुए इन छः तत्त्वोंको और जिसके ये कार्य हैं, उस कारणको भी जानते हो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चैव तानि कालश्च भावाभावौ च केवलौ।
अष्टौ भूतानि भूतानां शाश्वतानि भवात्ययौ ॥ ९ ॥
मूलम्
पञ्चैव तानि कालश्च भावाभावौ च केवलौ।
अष्टौ भूतानि भूतानां शाश्वतानि भवात्ययौ ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँच महाभूत, काल तथा विशुद्ध भाव और अभाव अर्थात् नित्य आत्मतत्त्व और परिवर्तनशील महत्तत्त्व—ये आठ तत्त्व नित्य हैं। ये ही चराचर प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके अधिष्ठान हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभावं यान्ति तेष्वेव तेभ्यश्च प्रभवन्त्यपि।
विनष्टोऽप्यनु तान्येव जन्तुर्भवति पञ्चधा ॥ १० ॥
मूलम्
अभावं यान्ति तेष्वेव तेभ्यश्च प्रभवन्त्यपि।
विनष्टोऽप्यनु तान्येव जन्तुर्भवति पञ्चधा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब प्राणी उन्हींमें लीन होते हैं और उन्हींसे उनका प्राकट्य भी होता है। जीवोंका शरीर नष्ट हो जानेपर पाँच भागोंमें विभक्त होकर अपने-अपने कारणमें विलीन हो जाता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य भूमिमयो देहः श्रोत्रमाकाशसम्भवम्।
सूर्याच्चक्षुरसुर्वायोरद्भ्यस्तु खलु शोणितम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्य भूमिमयो देहः श्रोत्रमाकाशसम्भवम्।
सूर्याच्चक्षुरसुर्वायोरद्भ्यस्तु खलु शोणितम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणियोंका शरीर पृथ्वीका विकार है, श्रोत्रेन्द्रिय आकाशसे उत्पन्न हुई है, नेत्रेन्द्रिय सूर्यसे, प्राण वायुसे और रक्त जलसे उत्पन्न हुए हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुषी नासिकाकर्णौ त्वक् जिह्वेति च पञ्चमी।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थानां ज्ञानानि कवयो विदुः ॥ १२ ॥
मूलम्
चक्षुषी नासिकाकर्णौ त्वक् जिह्वेति च पञ्चमी।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थानां ज्ञानानि कवयो विदुः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष ऐसा मानते हैं कि नेत्र, नासिका, कर्ण, त्वचा और पाँचवीं जिह्वा—से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही विषयोंको ग्रहण करनेवाली हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शनं श्रवणं घ्राणं स्पर्शनं रसनं तथा।
उपपत्त्या गुणान् विद्धि पञ्च पञ्चसु पञ्चधा ॥ १३ ॥
मूलम्
दर्शनं श्रवणं घ्राणं स्पर्शनं रसनं तथा।
उपपत्त्या गुणान् विद्धि पञ्च पञ्चसु पञ्चधा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाह्य पदार्थोंको देखना, सुनना, सूँघना, छूना तथा रस लेना—ये क्रमशः नेत्र आदि पाँच इन्द्रियोंके कार्य हैं। उन्हें युक्तिसे तुम इन इन्द्रियोंके गुण ही समझो। पाँचों इन्द्रियाँ पाँचों विषयोंमें पाँच प्रकारसे (दर्शन आदि क्रियाओंके रूपमें) विद्यमान हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपं गन्धो रसः स्पर्शः शब्दश्चैवाथ तद्गुणाः।
इन्द्रियैरुपलभ्यन्ते पञ्चधा पञ्च पञ्चभिः ॥ १४ ॥
मूलम्
रूपं गन्धो रसः स्पर्शः शब्दश्चैवाथ तद्गुणाः।
इन्द्रियैरुपलभ्यन्ते पञ्चधा पञ्च पञ्चभिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नेत्र आदि पाँच इन्द्रियोंद्वारा रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और शब्द—ये पाँच गुण दर्शन आदि पाँच प्रकारोंसे उपलब्ध किये जाते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपं गन्धं रसं स्पर्शं शब्दं चैवाथ तद्गुणान्।
इन्द्रियाणि न बुध्यन्ते क्षेत्रज्ञस्तैस्तु बुध्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
रूपं गन्धं रसं स्पर्शं शब्दं चैवाथ तद्गुणान्।
इन्द्रियाणि न बुध्यन्ते क्षेत्रज्ञस्तैस्तु बुध्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और शब्द—इन्द्रियोंके इन पाँचों गुणोंको स्वयं इन्द्रियाँ नहीं जानती हैं। उन इन्द्रियोंद्वारा क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) ही उनका अनुभव करता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्तमिन्द्रियसंघातात् परं तस्मात् परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिः क्षेत्रज्ञो बुद्धितः परः ॥ १६ ॥
मूलम्
चित्तमिन्द्रियसंघातात् परं तस्मात् परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिः क्षेत्रज्ञो बुद्धितः परः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीर और इन्द्रियोंके संघातसे चित्त श्रेष्ठ है, चित्तसे मन श्रेष्ठ है, मनसे बुद्धि श्रेष्ठ है और बुद्धिसे भी क्षेत्रज्ञ श्रेष्ठ है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं चेतयते जन्तुरिन्द्रियैर्विषयान् पृथक्।
विचार्य मनसा पश्चादथ बुद्ध्या व्यवस्यति।
इन्द्रियैरुपलब्धार्थान् बुद्धिमांस्तु व्यवस्यति ॥ १७ ॥
मूलम्
पूर्वं चेतयते जन्तुरिन्द्रियैर्विषयान् पृथक्।
विचार्य मनसा पश्चादथ बुद्ध्या व्यवस्यति।
इन्द्रियैरुपलब्धार्थान् बुद्धिमांस्तु व्यवस्यति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव पहले तो इन्द्रियोंद्वारा उनके अलग-अलग विषयोंको प्रकाशित करता है, फिर मनसे विचार करके बुद्धिद्वारा उसका निश्चय करता है। बुद्धियुक्त जीव ही इन्द्रियोंद्वारा उपलब्ध विषयोंका निश्चितरूपसे अनुभव करता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्तमिन्द्रियसंघातं मनो बुद्धिस्तथाष्टमी ।
अष्टौ ज्ञानेन्द्रियाण्याहुरेतान्यध्यात्मचिन्तकाः ॥ १८ ॥
मूलम्
चित्तमिन्द्रियसंघातं मनो बुद्धिस्तथाष्टमी ।
अष्टौ ज्ञानेन्द्रियाण्याहुरेतान्यध्यात्मचिन्तकाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अध्यात्मतत्त्वोंका चिन्तन करनेवाले पुरुष पाँच इन्द्रिय तथा चित्त, मन और आठवीं बुद्धि—इन आठोंको ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाणिपादं च पायुश्च मेहनं पञ्चमं मुखम्।
इति संशब्द्यमानानि शृणु कर्मेन्द्रियाण्यपि ॥ १९ ॥
मूलम्
पाणिपादं च पायुश्च मेहनं पञ्चमं मुखम्।
इति संशब्द्यमानानि शृणु कर्मेन्द्रियाण्यपि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथ, पैर, पायु और उपस्थ तथा पाँचवाँ मुख—ये सब-के-सब कर्मेन्द्रिय कहे जाते हैं। तुम इनका भी विवरण सुनो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जल्पनाभ्यवहारार्थं मुखमिन्द्रियमुच्यते ।
गमनेन्द्रियं तथा पादौ कर्मणः करणे करौ ॥ २० ॥
मूलम्
जल्पनाभ्यवहारार्थं मुखमिन्द्रियमुच्यते ।
गमनेन्द्रियं तथा पादौ कर्मणः करणे करौ ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुख-इन्द्रियका उपयोग बोलने और भोजन करनेके लिये बताया जाता है। पैर चलनेकी और हाथ काम करनेकी इन्द्रियाँ हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पायूपस्थं विसर्गार्थमिन्द्रिये तुल्यकर्मणी ।
विसर्गे च पुरीषस्य विसर्गे चापि कामिके ॥ २१ ॥
मूलम्
पायूपस्थं विसर्गार्थमिन्द्रिये तुल्यकर्मणी ।
विसर्गे च पुरीषस्य विसर्गे चापि कामिके ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पायु और उपस्थ—ये दो इन्द्रियाँ क्रमशः मल और मूत्रका त्याग करनेके लिये हैं। इन दोनोंके त्यागरूप कर्म समान ही हैं। इनमेंसे पायु-इन्द्रिय मलका त्याग करती है और उपस्थ मैथुनके समय वीर्यका भी त्याग करता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलं षष्ठं षडेतानि वाचा सम्यग्यथा मम।
ज्ञानचेष्टेन्द्रियगुणाः सर्वेषां शब्दिता मया ॥ २२ ॥
मूलम्
बलं षष्ठं षडेतानि वाचा सम्यग्यथा मम।
ज्ञानचेष्टेन्द्रियगुणाः सर्वेषां शब्दिता मया ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके सिवा छठी कर्मेन्द्रिय बल अर्थात् प्राणसमूह है। इस प्रकार मैंने अपनी वाणीद्वारा तुम्हें समस्त इन्द्रियाँ और उनके ज्ञान, कर्म एवं गुण सुना दिये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणां स्वकर्मेभ्यः श्रमादुपरमो यदा।
भवतीन्द्रियसंत्यागादथ स्वपिति वै नरः ॥ २३ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणां स्वकर्मेभ्यः श्रमादुपरमो यदा।
भवतीन्द्रियसंत्यागादथ स्वपिति वै नरः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अपने-अपने कर्मोंसे थककर इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं, तब इन्द्रियोंका त्याग करके जीवात्मा सो जाता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणां व्युपरमे मनोऽव्युपरतं यदि।
सेवते विषयानेव तं विद्यात् स्वप्नदर्शनम् ॥ २४ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणां व्युपरमे मनोऽव्युपरतं यदि।
सेवते विषयानेव तं विद्यात् स्वप्नदर्शनम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंके उपरत हो जानेपर भी यदि मन निवृत्त न होकर विषयोंका ही सेवन करता है तो उसे स्वप्नदर्शनकी अवस्था समझना चाहिये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्त्विकाश्चैव ये भावास्तथा तामसराजसाः।
कर्मयुक्तान् प्रशंसन्ति सात्त्विकानितरांस्तथा ॥ २५ ॥
मूलम्
सात्त्विकाश्चैव ये भावास्तथा तामसराजसाः।
कर्मयुक्तान् प्रशंसन्ति सात्त्विकानितरांस्तथा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सात्त्विक, राजस और तामसभाव प्रसिद्ध हैं, वे ही जब भोग प्रदान करनेवाले कर्मोंसे संयुक्त होते हैं, तब उन सात्त्विक आदि भावोंकी मनुष्य प्रशंसा करते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनन्दः कर्मणां सिद्धिः प्रतिपत्तिः परा गतिः।
सात्त्विकस्य निमित्तानि भावान् संश्रयते स्मृतिः ॥ २६ ॥
मूलम्
आनन्दः कर्मणां सिद्धिः प्रतिपत्तिः परा गतिः।
सात्त्विकस्य निमित्तानि भावान् संश्रयते स्मृतिः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आनन्द, सुख, कर्मोंकी सिद्धि जाननेकी सामर्थ्य और उत्तम गति—ये चार सात्त्विक भाव हैं। सात्त्विक पुरुषकी स्मृति इन्हीं चार निमित्तोंका आश्रय लेती है अर्थात् सात्त्विक पुरुष जाग्रत् कालकी भाँति स्वप्नमें भी आनन्द आदि भावोंका ही स्मरण करता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्तुष्वेकतमेष्वेवं भावा ये विधिमास्थिताः।
भावयोरीप्सितं नित्यं प्रत्यक्षं गमनं तयोः ॥ २७ ॥
मूलम्
जन्तुष्वेकतमेष्वेवं भावा ये विधिमास्थिताः।
भावयोरीप्सितं नित्यं प्रत्यक्षं गमनं तयोः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनसे भिन्न राजस और तामस—प्राणियोंमेंसे जिस किसी एक श्रेणीके जीवोंमें जो-जो भाव (वासनाएँ), विधि (कर्मगति) का आश्रय लेकर स्थित हैं, उन्हीं भावोंको उनकी स्मृति ग्रहण करती है। अर्थात् जाग्रत् और स्वप्न—दोनों ही अवस्थाओंमें उन मनुष्योंको अपनी-अपनी रुचिके अनुसार राजस और तामस पदार्थोंका सदा प्रत्यक्ष दर्शन होता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि च भावाश्च गुणाः सप्तदश स्मृताः।
तेषामष्टादशो देही यः शरीरे स शाश्वतः ॥ २८ ॥
अथवा सशरीरास्ते गुणाः सर्वे शरीरिणाम्।
संश्रितास्तद् वियोगे हि सशरीरा न सन्ति ते ॥ २९ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि च भावाश्च गुणाः सप्तदश स्मृताः।
तेषामष्टादशो देही यः शरीरे स शाश्वतः ॥ २८ ॥
अथवा सशरीरास्ते गुणाः सर्वे शरीरिणाम्।
संश्रितास्तद् वियोगे हि सशरीरा न सन्ति ते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, चित्त, मन, बुद्धि, प्राण तथा सात्त्विक आदि तीन भाव—ये सत्रह गुण माने गये हैं। इनका अधिष्ठाता देहाभिमानी जीवात्मा अठारहवाँ है, जो इस शरीरके भीतर निवास करता है। उसे सनातन माना गया है। अथवा शरीरसहित वे सभी गुण देहधारियोंके आश्रित रहते हैं। जब जीवका वियोग हो जाता है, तब शरीर और उसमें रहनेवाले वे तत्त्व भी नहीं रह जाते॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा संनिपातोऽयं शरीरं पाञ्चभौतिकम्।
एकश्च दश चाष्टौ च गुणाः सह शरीरिणा ॥ ३० ॥
मूलम्
अथवा संनिपातोऽयं शरीरं पाञ्चभौतिकम्।
एकश्च दश चाष्टौ च गुणाः सह शरीरिणा ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा इन सबका समुदाय ही पाञ्चभौतिक शरीर है। एक महत्तत्त्व और जीवसहित पूर्वोक्त अठारह गुण—ये सभी इस समुदायके अन्तर्गत हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊष्मणा सह विंशो वा संघातः पाञ्चभौतिकः।
महान् संधारयत्येतच्छरीरं वायुना सह ॥ ३१ ॥
मूलम्
ऊष्मणा सह विंशो वा संघातः पाञ्चभौतिकः।
महान् संधारयत्येतच्छरीरं वायुना सह ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जठरानलके साथ-साथ उक्त तत्त्वोंकी गणना करनेपर यह पाञ्चभौतिक संघात बीस तत्त्वोंका समूह है। महत्तत्त्व प्राणवायुके साथ इस शरीरको धारण करता है। यह वायु शरीरका भेदन करनेमें प्रभावशाली महत्तत्त्वका उपकरणमात्र है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य प्रभावयुक्तस्य निमित्तं देहभेदने।
यथैवोत्पद्यते किंचित् पञ्चत्वं गच्छते तथा ॥ ३२ ॥
पुण्यपापविनाशान्ते पुण्यपापसमीरितः ।
देहं विशति कालेन ततोऽयं कर्मसम्भवम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
तस्य प्रभावयुक्तस्य निमित्तं देहभेदने।
यथैवोत्पद्यते किंचित् पञ्चत्वं गच्छते तथा ॥ ३२ ॥
पुण्यपापविनाशान्ते पुण्यपापसमीरितः ।
देहं विशति कालेन ततोऽयं कर्मसम्भवम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे इस जगत्में घट आदि कोई वस्तु उत्पन्न होती और फिर नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार प्रारब्ध, पुण्य और पापका क्षय होनेपर शरीर पञ्चत्वको प्राप्त हो जाता है तथा संचित पुण्य और पापसे प्रेरित हो जीव समयानुसार कर्मजनित दूसरे शरीरमें प्रवेश करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हित्वा हित्वा ह्ययं प्रैति देहाद् देहं कृताश्रयः।
कालसंचोदितः क्षेत्री विशीर्णाद् वा गृहाद् गृहम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
हित्वा हित्वा ह्ययं प्रैति देहाद् देहं कृताश्रयः।
कालसंचोदितः क्षेत्री विशीर्णाद् वा गृहाद् गृहम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार घरमें रहनेवाला पुरुष एक घरके गिरनेपर दूसरेमें और दूसरेके गिरनेपर तीसरेमें चला जाता है, उसी प्रकार कालसे प्रेरित हुआ जीव क्रमशः एक-एक शरीरको छोड़कर पूर्वसंकल्पके द्वारा निर्मित दूसरे-दूसरे शरीरमें जाता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र नैवानुतप्यन्ते प्राज्ञा निश्चितनिश्चयाः।
कृपणास्त्वनुतप्यन्ते जनाः सम्बन्धदर्शिनः ॥ ३५ ॥
मूलम्
तत्र नैवानुतप्यन्ते प्राज्ञा निश्चितनिश्चयाः।
कृपणास्त्वनुतप्यन्ते जनाः सम्बन्धदर्शिनः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष यह निश्चितरूपसे जानते हैं कि आत्मा शरीरसे सर्वथा भिन्न, असंग और अविनाशी है, अतः शरीरका वियोग होनेपर उन्हें तनिक भी संताप नहीं होता; परंतु अज्ञानीजन देहसे अपना सम्बन्ध मानते हैं; इसलिये देह छूटनेसे उन्हें बड़ा दुःख होता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्ययं कस्यचित् कश्चिन्नास्य कश्चन विद्यते।
भवत्येको ह्ययं नित्यं शरीरे सुखदुःखभाक् ॥ ३६ ॥
मूलम्
न ह्ययं कस्यचित् कश्चिन्नास्य कश्चन विद्यते।
भवत्येको ह्ययं नित्यं शरीरे सुखदुःखभाक् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जीव वास्तवमें किसीका कोई नहीं है और न कोई दूसरा ही उसका कुछ है। वास्तवमें यह तो सदा अकेला ही है। परंतु शरीरमें रहकर उसे अपना माननेके कारण ही यह सुख-दुःखका भागी होता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव संजायते जन्तुर्न च जातु विपद्यते।
याति देहमयं मुक्त्वा कदाचित्परमां गतिम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
नैव संजायते जन्तुर्न च जातु विपद्यते।
याति देहमयं मुक्त्वा कदाचित्परमां गतिम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव न कभी उत्पन्न होता है, न मरता है। जब कभी इसे तत्त्वज्ञान होता है, तब यह शरीर—अभिमान छोड़कर परमगतिको प्राप्त कर लेता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यपापमयं देहं क्षपयन् कर्मसंक्षयात्।
क्षीणदेहः पुनर्देही ब्रह्मत्वमुपगच्छति ॥ ३८ ॥
मूलम्
पुण्यपापमयं देहं क्षपयन् कर्मसंक्षयात्।
क्षीणदेहः पुनर्देही ब्रह्मत्वमुपगच्छति ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर पुण्य-पापमय है। देहधारी जीव प्रारब्ध कर्मोंके क्षयके साथ-साथ इस शरीरको क्षीण करता रहता है। इस प्रकार शरीरका नाश हो जानेपर वह मुक्त पुरुष ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यपापक्षयार्थं हि सांख्यज्ञानं विधीयते।
तत्क्षये ह्यस्य पश्यन्ति ब्रह्मभावे परां गतिम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
पुण्यपापक्षयार्थं हि सांख्यज्ञानं विधीयते।
तत्क्षये ह्यस्य पश्यन्ति ब्रह्मभावे परां गतिम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुण्य और पापोंके क्षयके लिये ही ज्ञानयोगको साधन बताया गया है। उनका क्षय हो जानेपर जब जीवात्माको ब्रह्मभावकी प्राप्ति हो जाती है, तब विद्वान्लोग उसकी परमगति मानते हैं॥३९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारदासितसंवादे पञ्चसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नारद और असितदेवलका संवादविषयक दो सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७५॥