२७३ चतुःप्राश्निकः

भागसूचना

त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्षके विषयमें युधिष्ठिरके चार प्रश्न और उनका उत्तर

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं भवति पापात्मा कथं धर्मं करोति वा।
केन निर्वेदमादत्ते मोक्षं वा केन गच्छति ॥ १ ॥

मूलम्

कथं भवति पापात्मा कथं धर्मं करोति वा।
केन निर्वेदमादत्ते मोक्षं वा केन गच्छति ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! मनुष्य पापात्मा कैसे हो जाता है? वह धर्मका आचरण किस प्रकार करता है? किस हेतुसे उसे वैराग्य प्राप्त होता है और किस साधनसे वह मोक्ष पाता है?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदिताः सर्वधर्मास्ते स्थित्यर्थं त्वं तु पृच्छसि।
शृणु मोक्षं सनिर्वेदं पापं धर्मं च मूलतः ॥ २ ॥

मूलम्

विदिताः सर्वधर्मास्ते स्थित्यर्थं त्वं तु पृच्छसि।
शृणु मोक्षं सनिर्वेदं पापं धर्मं च मूलतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! तुम्हें सब धर्मोंका ज्ञान है। तुम तो लोकमर्यादाकी रक्षा तथा मेरी प्रतिष्ठा बढ़ानेके लिये मुझसे प्रश्न कर रहे हो। अच्छा अब तुम मोक्ष, वैराग्य, पाप और धर्मका मूल क्या है, इसको श्रवण करो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विज्ञानार्थं हि पञ्चानामिच्छा पूर्वं प्रवर्तते।
प्राप्यैकं जायते कामो द्वेषो वा भरतर्षभ ॥ ३ ॥

मूलम्

विज्ञानार्थं हि पञ्चानामिच्छा पूर्वं प्रवर्तते।
प्राप्यैकं जायते कामो द्वेषो वा भरतर्षभ ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! मनुष्यको (शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध—इन) पाँचों विषयोंका अनुभव करनेके लिये पहले इच्छा होती है। फिर उन पाँचों विषयोंमेंसे किसी एकको पाकर उसके प्रति राग या द्वेष हो जाता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तदर्थं यतते कर्म चारभते महत्।
इष्टानां रूपगन्धानामभ्यासं च चिकीर्षति ॥ ४ ॥

मूलम्

ततस्तदर्थं यतते कर्म चारभते महत्।
इष्टानां रूपगन्धानामभ्यासं च चिकीर्षति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् जिसके प्रति राग होता है, उसे पानेके लिये वह प्रयत्न करता है। बड़े-बड़े कार्योंका आरम्भ करता है। वह अपने इच्छित रूप और गन्ध आदिका बारंबार सेवन करना चाहता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रागः प्रभवति द्वेषश्च तदनन्तरम्।
ततो लोभः प्रभवति मोहश्च तदनन्तरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततो रागः प्रभवति द्वेषश्च तदनन्तरम्।
ततो लोभः प्रभवति मोहश्च तदनन्तरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे उन विषयोंके प्रति उसके मनमें राग उत्पन्न हो जाता है। तदनन्तर प्रतिकूल विषयसे द्वेष होता है। फिर अनुकूल विषयके लिये लोभ होता है और लोभके बाद उसके मनपर मोह अधिकार जमा लेता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभमोहाभिभूतस्य रागद्वेषान्वितस्य च ।
न धर्मे जायते बुद्धिर्व्याजाद् धर्मं करोति च ॥ ६ ॥

मूलम्

लोभमोहाभिभूतस्य रागद्वेषान्वितस्य च ।
न धर्मे जायते बुद्धिर्व्याजाद् धर्मं करोति च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभ और मोहसे घिरे हुए तथा राग-द्वेषके वशीभूत हुए मनुष्यकी बुद्धि धर्ममें नहीं लगती है। वह किसी-न-किसी बहानेसे दिखाऊ धर्मका आचरण करता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याजेन चरते धर्ममर्थं व्याजेन रोचते।
व्याजेन सिद्ध्यमानेषु धनेषु कुरुनन्दन ॥ ७ ॥
तत्रैव कुरुते बुद्धिं ततः पापं चिकीर्षति।
सुहृद्भिर्वार्यमाणोऽपि पण्डितैश्चापि भारत ॥ ८ ॥
उत्तरं न्यायसम्बद्धं ब्रवीति विधिचोदितम्।

मूलम्

व्याजेन चरते धर्ममर्थं व्याजेन रोचते।
व्याजेन सिद्ध्यमानेषु धनेषु कुरुनन्दन ॥ ७ ॥
तत्रैव कुरुते बुद्धिं ततः पापं चिकीर्षति।
सुहृद्भिर्वार्यमाणोऽपि पण्डितैश्चापि भारत ॥ ८ ॥
उत्तरं न्यायसम्बद्धं ब्रवीति विधिचोदितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! वह कोई बहाना लेकर ही धर्म करता है, कपटसे ही धन कमानेकी रुचि रखता है और यदि कपटसे धन प्राप्त करनेमें सफलता मिल गयी तो वह उसीमें अपनी सारी बुद्धि लगा देता है। भरतनन्दन! फिर तो विद्वानों और सुहृदोंके मना करनेपर भी वह केवल पाप ही करना चाहता है तथा मना करनेवालोंको धर्मशास्त्रके वाक्योंके द्वारा प्रतिपादित न्याययुक्त उत्तर दे देता है॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मस्त्रिविधस्तस्य वर्धते रागमोहजः ॥ ९ ॥
पापं चिन्तयते चैव प्रब्रवीति करोति च।

मूलम्

अधर्मस्त्रिविधस्तस्य वर्धते रागमोहजः ॥ ९ ॥
पापं चिन्तयते चैव प्रब्रवीति करोति च।

अनुवाद (हिन्दी)

उसका राग और मोहजनित तीन प्रकारका अधर्म बढ़ता है। वह मनसे पापकी ही बात सोचता है, वाणीसे पाप ही बोलता है और क्रियाद्वारा पाप ही करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याधर्मप्रवृत्तस्य दोषान् पश्यन्ति साधवः ॥ १० ॥
एकशीलाश्च मित्रत्वं भजन्ते पापकर्मिणः।
स नेह सुखमाप्नोति कुत एव परत्र वै ॥ ११ ॥

मूलम्

तस्याधर्मप्रवृत्तस्य दोषान् पश्यन्ति साधवः ॥ १० ॥
एकशीलाश्च मित्रत्वं भजन्ते पापकर्मिणः।
स नेह सुखमाप्नोति कुत एव परत्र वै ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ पुरुष तो अधर्ममें प्रवृत्त हुए मनुष्यके दोष जानते हैं; परंतु उस पापीके समान स्वभाववाले पापाचारी मनुष्य उसके साथ मित्रता स्थापित करते हैं। ऐसा पुरुष इस लोकमें ही सुख नहीं पाता है, फिर परलोकमें तो पा ही कैसे सकता है॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं भवति पापात्मा धर्मात्मानं तु मे शृणु।
यथा कुशलधर्मा स कुशलं प्रतिपद्यते ॥ १२ ॥
कुशलेनैव धर्मेण गतिमिष्टां प्रपद्यते।

मूलम्

एवं भवति पापात्मा धर्मात्मानं तु मे शृणु।
यथा कुशलधर्मा स कुशलं प्रतिपद्यते ॥ १२ ॥
कुशलेनैव धर्मेण गतिमिष्टां प्रपद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मनुष्य पापात्मा हो जाता है। अब धर्मात्माके विषयमें मुझसे सुनो। वह जिस प्रकार परहित-साधक कल्याणकारी धर्मका आचरण करता है, उसी प्रकार कल्याणका भागी होता है। वह क्षेमकारक धर्मके प्रभावसे ही अभीष्ट गतिको प्राप्त होता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतान् प्रज्ञया दोषान् पूर्वमेवानुपश्यति ॥ १३ ॥
कुशलः सुखदुःखानां साधूंश्चाप्यथ सेवते।
तस्य साधुसमाचारादभ्यासाच्चैव वर्धते ॥ १४ ॥

मूलम्

य एतान् प्रज्ञया दोषान् पूर्वमेवानुपश्यति ॥ १३ ॥
कुशलः सुखदुःखानां साधूंश्चाप्यथ सेवते।
तस्य साधुसमाचारादभ्यासाच्चैव वर्धते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष अपनी बुद्धिसे राग आदि दोषोंको पहले ही देख लेता है, वह सुख-दुःखको समझनेमें कुशल होता है। फिर वह श्रेष्ठ पुरुषोंका सेवन करता है। सत्पुरुषोंकी सेवा या सत्संगसे और सत्कर्मोंके अभ्याससे उस पुरुषकी बुद्धि बढ़ती है॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञा धर्मे च रमते धर्मं चैवोपजीवति।
सोऽथ धर्मादवाप्तेषु धनेषु कुरुते मनः ॥ १५ ॥

मूलम्

प्रज्ञा धर्मे च रमते धर्मं चैवोपजीवति।
सोऽथ धर्मादवाप्तेषु धनेषु कुरुते मनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बढ़ी हुई बुद्धि धर्ममें ही सुख मानती और उसीका सहारा लेती है। वह पुरुष धर्मसे प्राप्त होनेवाले धनमें मन लगाता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैव सिञ्चते मूलं गुणान् पश्यति तत्र वै।
धर्मात्मा भवति ह्येवं मित्रं च लभते शुभम् ॥ १६ ॥

मूलम्

तस्यैव सिञ्चते मूलं गुणान् पश्यति तत्र वै।
धर्मात्मा भवति ह्येवं मित्रं च लभते शुभम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह जहाँ गुण देखता है, उसीके मूलको सींचता है। ऐसा करनेसे वह पुरुष धर्मात्मा होता है और शुभकारक मित्र प्राप्त करता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मित्रधनलाभात् तु प्रेत्य चेह च नन्दति।
शब्दे स्पर्शे रसे रूपे तथा गन्धे च भारत॥१७॥
प्रभुत्वं लभते जन्तुर्धर्मस्यैतत् फलं विदुः।
स तु धर्मफलं लब्ध्वा न हृष्यति युधिष्ठिर ॥ १८ ॥

मूलम्

स मित्रधनलाभात् तु प्रेत्य चेह च नन्दति।
शब्दे स्पर्शे रसे रूपे तथा गन्धे च भारत॥१७॥
प्रभुत्वं लभते जन्तुर्धर्मस्यैतत् फलं विदुः।
स तु धर्मफलं लब्ध्वा न हृष्यति युधिष्ठिर ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उत्तम मित्र और धनके लाभसे वह इहलोक और परलोकमें भी आनन्दित होता है। ऐसा पुरुष शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध—इन पाँचों विषयोंपर प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है। इसे धर्मका फल माना जाता है। युधिष्ठिर! वह धर्मका फल पाकर भी हर्षसे फूल नहीं उठता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतृप्यमाणो निर्वेदमादत्ते ज्ञानचक्षुषा ।
प्रज्ञाचक्षुर्यदा कामे रसे गन्धे न रज्यते ॥ १९ ॥
शब्दे स्पर्शे तथा रूपे न च भावयते मनः।
विमुच्यते तदा कामान्न च धर्मं विमुञ्चति ॥ २० ॥

मूलम्

अतृप्यमाणो निर्वेदमादत्ते ज्ञानचक्षुषा ।
प्रज्ञाचक्षुर्यदा कामे रसे गन्धे न रज्यते ॥ १९ ॥
शब्दे स्पर्शे तथा रूपे न च भावयते मनः।
विमुच्यते तदा कामान्न च धर्मं विमुञ्चति ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह इससे तृप्त न होनेके कारण विवेकदृष्टिसे वैराग्यको ही ग्रहण करता है, बुद्धिरूप नेत्रके खुल जानेके कारण जब वह कामोपभोग, रस और गन्धमें अनुरक्त नहीं होता तथा शब्द, स्पर्श और रूपमें भी उसका चित्त नहीं फँसता, तब वह सब कामनाओंसे मुक्त हो जाता है और धर्मका त्याग नहीं करता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वत्यागे च यतते दृष्ट्वा लोकं क्षयात्मकम्।
ततो मोक्षाय यतते नानुपायादुपायतः ॥ २१ ॥
शनैर्निर्वेदमादत्ते पापं कर्म जहाति च।
धर्मात्मा चैव भवति मोक्षं च लभते परम् ॥ २२ ॥

मूलम्

सर्वत्यागे च यतते दृष्ट्वा लोकं क्षयात्मकम्।
ततो मोक्षाय यतते नानुपायादुपायतः ॥ २१ ॥
शनैर्निर्वेदमादत्ते पापं कर्म जहाति च।
धर्मात्मा चैव भवति मोक्षं च लभते परम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण लोकोंको नाशवान् समझकर वह सर्वस्वका मनसे त्याग कर देनेका यत्न करता है। तदनन्तर वह अयोग्य उपायसे नहीं किंतु योग्य उपायसे मोक्षके लिये यत्नशील हो जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे मनुष्यको वैराग्यकी प्राप्ति होनेपर वह पापकर्म तो छोड़ देता है और धर्मात्मा बन जाता है। तत्पश्चात् परम मोक्षको प्राप्त कर लेता है॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
पापं धर्मस्तथा मोक्षो निर्वेदश्चैव भारत ॥ २३ ॥

मूलम्

एतत् ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
पापं धर्मस्तथा मोक्षो निर्वेदश्चैव भारत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! भरतनन्दन! तुमने मुझसे पाप, धर्म, वैराग्य और मोक्षके विषयमें जो प्रश्न किया था, वह सब मैंने कह सुनाया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् धर्मे प्रवर्तेथाः सर्वावस्थं युधिष्ठिर।
धर्मे स्थितानां कौन्तेय सिद्धिर्भवति शाश्वती ॥ २४ ॥

मूलम्

तस्माद् धर्मे प्रवर्तेथाः सर्वावस्थं युधिष्ठिर।
धर्मे स्थितानां कौन्तेय सिद्धिर्भवति शाश्वती ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! तुम सभी अवस्थाओंमें धर्मका ही आचरण करो; क्योंकि जो लोग धर्ममें स्थित रहते हैं, उन्हें सदा रहनेवाली मोक्षरूप परम सिद्धि प्राप्त होती है॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुःप्राश्निको नाम त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२७३॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें चार प्रश्न और उनका उत्तर नामक दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७३॥