भागसूचना
द्विसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
यज्ञमें हिंसाकी निन्दा और अहिंसाकी प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहूनां यज्ञतपसामेकार्थानां पितामह ।
धर्मार्थं न सुखार्थार्थं कथं यज्ञः समाहितः ॥ १ ॥
मूलम्
बहूनां यज्ञतपसामेकार्थानां पितामह ।
धर्मार्थं न सुखार्थार्थं कथं यज्ञः समाहितः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यज्ञ और तप तो बहुत हैं और वे सब एकमात्र भगवत्प्रीतिके लिये किये जा सकते हैं; परंतु उनमेंसे जिस यज्ञका प्रयोजन केवल धर्म हो, स्वर्ग-सुख अथवा धनकी प्राप्ति न हो, उसका सम्पादन कैसे होता है?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते वर्तयिष्यामि नारदेनानुकीर्तितम्।
उञ्छवृत्तेः पुरावृत्तं यज्ञार्थे ब्राह्मणस्य च ॥ २ ॥
मूलम्
अत्र ते वर्तयिष्यामि नारदेनानुकीर्तितम्।
उञ्छवृत्तेः पुरावृत्तं यज्ञार्थे ब्राह्मणस्य च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! पूर्वकालमें उञ्छवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करनेवाले एक ब्राह्मणका यज्ञके सम्बन्धमें जैसा वृत्तान्त है और जिसे नारदजीने मुझसे कहा था, वही प्राचीन इतिहास मैं यहाँ तुम्हें बता रहा हूँ॥२॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राष्ट्रे धर्मोत्तरे श्रेष्ठे विदर्भेष्वभवद् द्विजः।
उञ्छवृत्तिर्ऋषिः कश्चिद् यज्ञं यष्टुं समादधे ॥ ३ ॥
मूलम्
राष्ट्रे धर्मोत्तरे श्रेष्ठे विदर्भेष्वभवद् द्विजः।
उञ्छवृत्तिर्ऋषिः कश्चिद् यज्ञं यष्टुं समादधे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— जहाँ धर्मकी ही प्रधानता है, उस उत्तम राष्ट्र विदर्भमें कोई ब्राह्मण ऋषि निवास करता था। वह कटे हुए खेत या खलिहानसे अन्नके बिखरे हुए दानोंको बीन लाता और उसीसे जीवन-निर्वाह करता था। एक बार उसने यज्ञ करनेका निश्चय किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्यामाकमशनं तत्र सूर्यपर्णी सुवर्चला।
तिक्तं च विरसं शाकं तपसा स्वादुतां गतम् ॥ ४ ॥
मूलम्
श्यामाकमशनं तत्र सूर्यपर्णी सुवर्चला।
तिक्तं च विरसं शाकं तपसा स्वादुतां गतम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ वह रहता था, वहाँ अन्नके नामपर साँवाँ मिलता था। दाल बनानेके लिये सूर्यपर्णी (जंगली उड़द) मिलती थी और शाक-भाजीके लिये सुवर्चला (ब्राह्मी लता) तथा अन्य प्रकारके तिक्त एवं रसहीन शाक उपलब्ध होते थे; परंतु ब्राह्मणकी तपस्यासे उपर्युक्त सभी वस्तुएँ सुस्वादु हो गयी थीं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपगम्य वने सिद्धिं सर्वभूताविहिंसया।
अपि मूलफलैरिष्टो यज्ञः स्वर्ग्यः परंतप ॥ ५ ॥
मूलम्
उपगम्य वने सिद्धिं सर्वभूताविहिंसया।
अपि मूलफलैरिष्टो यज्ञः स्वर्ग्यः परंतप ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप युधिष्ठिर! उस ब्राह्मणने वनमें तपस्याद्वारा सिद्धि लाभ करके समस्त प्राणियोंमेंसे किसीकी भी हिंसा न करते हुए मूल और फलोंद्वारा भी स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाले यज्ञका अनुष्ठान किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य भार्या व्रतकृशा शुचिः पुष्करधारिणी।
यज्ञपत्नी समानीता सत्येनानुविधीयते ॥ ६ ॥
मूलम्
तस्य भार्या व्रतकृशा शुचिः पुष्करधारिणी।
यज्ञपत्नी समानीता सत्येनानुविधीयते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस ब्राह्मणके एक पत्नी थी, जिसका नाम था पुष्करधारिणी। उसके आचार-विचार परम पवित्र थे। वह व्रत-उपवास करते-करते दुर्बल हो गयी थी। ब्राह्मणका नाम सत्य था। यद्यपि वह ब्राह्मणी अपने पति सत्यके हिंसाप्रधान यज्ञकी इच्छा प्रकट करनेपर उसके अनुकूल नहीं होती थी, तो भी ब्राह्मण उसे यज्ञपत्नीके स्थानपर आग्रहपूर्वक बुला ही लाता था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तु शापपरित्रस्ता तत्स्वभावानुवर्तिनी।
मायूरजीर्णपर्णानां वस्त्रं तस्याश्च वर्णितम् ॥ ७ ॥
मूलम्
सा तु शापपरित्रस्ता तत्स्वभावानुवर्तिनी।
मायूरजीर्णपर्णानां वस्त्रं तस्याश्च वर्णितम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणी शापसे डरकर पतिके स्वभावका सर्वथा अनुसरण करती थी। ऐसा कहा जाता है कि वह मोरोंकी टूटकर गिरी पुरानी पाँखोंको जोड़कर उनसे ही अपना शरीर ढँकती थी॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकामया कृतस्तत्र यज्ञो होत्रनुशासनात्।
शुक्रस्य पुनराजातिः पर्णादो नाम धर्मवित् ॥ ८ ॥
मूलम्
अकामया कृतस्तत्र यज्ञो होत्रनुशासनात्।
शुक्रस्य पुनराजातिः पर्णादो नाम धर्मवित् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
होताके आदेशसे इच्छा न होनेपर भी ब्राह्मण-पत्नीने उस यज्ञका कार्य सम्पन्न किया। होताका कार्य पर्णाद नामसे प्रसिद्ध एक धर्मज्ञ ऋषि करते थे, जो शुक्राचार्यके वंशज थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् वने समीपस्थो मृगोऽभूत् सहवासिकः।
वचोभिरब्रवीत् सत्यं त्वयेदं दुष्कृतं कृतम् ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्मिन् वने समीपस्थो मृगोऽभूत् सहवासिकः।
वचोभिरब्रवीत् सत्यं त्वयेदं दुष्कृतं कृतम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वनमें सत्यका सहवासी एक मृग था, जो वहाँ पास ही रहता था। एक दिन उसने मनुष्यकी बोलीमें सत्यसे कहा—‘ब्राह्मण! तुमने यज्ञके नामपर यह दुष्कर्म किया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मन्त्राङ्गहीनोऽयं यज्ञो भवति वै कृतः।
मां भोः प्रक्षिप होत्रे त्वं गच्छ स्वर्गमनिन्दितः ॥ १० ॥
मूलम्
यदि मन्त्राङ्गहीनोऽयं यज्ञो भवति वै कृतः।
मां भोः प्रक्षिप होत्रे त्वं गच्छ स्वर्गमनिन्दितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि किया हुआ यज्ञ मन्त्र और अंगसे हीन हो तो वह यजमानके लिये दुष्कर्म ही है। ब्राह्मणदेव! तुम मुझे होताको सौंप दो और स्वयं निन्दारहित होकर स्वर्गलोकमें जाओ’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु यज्ञे सावित्री साक्षात् तं संन्यमन्त्रयत्।
निमन्त्रयन्ती प्रत्युक्ता न हन्यां सहवासिनम् ॥ ११ ॥
मूलम्
ततस्तु यज्ञे सावित्री साक्षात् तं संन्यमन्त्रयत्।
निमन्त्रयन्ती प्रत्युक्ता न हन्यां सहवासिनम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उस यज्ञमें साक्षात् सावित्रीने पधारकर उस ब्राह्मणको मृगकी आहुति देनेकी सलाह दी। ब्राह्मणने यह कहकर कि मैं अपने सहवासी मृगका वध नहीं कर सकता, सावित्रीकी आज्ञा माननेसे इनकार कर दी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता निवृत्ता सा प्रविष्टा यज्ञपावकम्।
किं नु दुश्चरितं यज्ञे दिदृक्षुः सा रसातलम् ॥ १२ ॥
मूलम्
एवमुक्ता निवृत्ता सा प्रविष्टा यज्ञपावकम्।
किं नु दुश्चरितं यज्ञे दिदृक्षुः सा रसातलम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणसे इस प्रकार कोरा जवाब मिल जानेपर सावित्रीदेवी लौट पड़ीं और यज्ञाग्निमें प्रविष्ट हो गयीं। यज्ञमें कौन-सा दुष्कर्म या त्रुटि है—यही देखनेकी इच्छासे वे आयी थीं और फिर रसातलमें चली गयीं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु बद्धाञ्जलिं सत्यमयाचद्धरिणः पुनः।
सत्येन स परिष्वज्य संदिष्टो गम्यतामिति ॥ १३ ॥
मूलम्
स तु बद्धाञ्जलिं सत्यमयाचद्धरिणः पुनः।
सत्येन स परिष्वज्य संदिष्टो गम्यतामिति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्य सावित्रीदेवीकी ओर हाथ जोड़कर खड़ा था। इतनेहीमें उस हरिणने पुनः अपनी आहुति देनेके लिये याचना की। सत्यने मृगको हृदयसे लगा लिया और बड़े प्यारसे कहा—‘तुम यहाँसे चले जाओ’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स हरिणो गत्वा पदान्यष्टौ न्यवर्तत।
साधु हिंसय मां सत्य हतो यास्यामि सद्गतिम् ॥ १४ ॥
मूलम्
ततः स हरिणो गत्वा पदान्यष्टौ न्यवर्तत।
साधु हिंसय मां सत्य हतो यास्यामि सद्गतिम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वह हरिण आठ पग आगे जाकर लौट पड़ा और बोला—‘सत्य! तुम विधिपूर्वक मेरी हिंसा करो। मैं यज्ञमें वधको प्राप्त होकर उत्तम गति पा लूँगा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य ह्यप्सरसो दिव्य मया दत्तेन चक्षुषा।
विमानानि विचित्राणि गन्धर्वाणां महात्मनाम् ॥ १५ ॥
मूलम्
पश्य ह्यप्सरसो दिव्य मया दत्तेन चक्षुषा।
विमानानि विचित्राणि गन्धर्वाणां महात्मनाम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने तुम्हें दिव्यदृष्टि प्रदान की है; उससे देखो, आकाशमें वे दिव्य अप्सराएँ खड़ी हैं। महात्मा गन्धर्वोंके विचित्र विमान भी शोभा पा रहे हैं’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स सुचिरं दृष्ट्वा स्पृहालग्नेन चक्षुषा।
मृगमालोक्य हिंसायां स्वर्गवासं समर्थयत् ॥ १६ ॥
मूलम्
ततः स सुचिरं दृष्ट्वा स्पृहालग्नेन चक्षुषा।
मृगमालोक्य हिंसायां स्वर्गवासं समर्थयत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यकी आँखें बड़ी चाहसे उधर ही जा लगीं। उसने बड़ी देरतक वह रमणीय दृश्य देखा, फिर मृगकी ओर दृष्टिपात करके ‘हिंसा करनेपर ही मुझे स्वर्गवासका सुख मिल सकता है’ यह मन-ही-मन निश्चय किया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु धर्मो मृगो भूत्वा बहुवर्षोषितो वने।
तस्य निष्कृतिमाधत्त न त्वसौ यज्ञसंविधिः ॥ १७ ॥
मूलम्
स तु धर्मो मृगो भूत्वा बहुवर्षोषितो वने।
तस्य निष्कृतिमाधत्त न त्वसौ यज्ञसंविधिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वास्तवमें उस मृगके रूपमें साक्षात् धर्म थे, जो मृगका शरीर धारण करके बहुत वर्षोंसे वनमें निवास करते थे। पशुहिंसा यज्ञकी विधिके प्रतिकूल कर्म है। भगवान् धर्मने उस ब्राह्मणका उद्धार करनेका विचार किया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तेनानुभावेन मृगहिंसात्मनस्तदा ।
तपो महत्समुच्छिन्नं तस्माद्धिंसा न यज्ञिया ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्य तेनानुभावेन मृगहिंसात्मनस्तदा ।
तपो महत्समुच्छिन्नं तस्माद्धिंसा न यज्ञिया ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं उस पशुका वध करके स्वर्गलोक प्राप्त करूँगा; यह सोचकर मृगकी हिंसा करनेके लिये उद्यत उस ब्राह्मणका महान् तप तत्काल नष्ट हो गया। इसलिये हिंसा यज्ञके लिये हितकर नहीं है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं भगवान् धर्मो यज्ञं याजयतः स्वयम्।
समाधानं च भार्याया लेभे स तपसा परम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततस्तं भगवान् धर्मो यज्ञं याजयतः स्वयम्।
समाधानं च भार्याया लेभे स तपसा परम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भगवान् धर्मने स्वयं सत्यका यज्ञ कराया। फिर सत्यने तपस्या करके अपनी पत्नी पुष्करधारिणीके मनकी जैसी स्थिति थी, वैसा ही उत्तम समाधान प्राप्त किया (उसे यह दृढ़ निश्चय हो गया कि हिंसासे बड़ी हानि होती है, अहिंसा ही परम कल्याणका साधन है)॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा सकलो धर्मो हिंसाधर्मस्तथाहितः।
सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि यो धर्मः सत्यवादिनाम् ॥ २० ॥
मूलम्
अहिंसा सकलो धर्मो हिंसाधर्मस्तथाहितः।
सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि यो धर्मः सत्यवादिनाम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहिंसा ही सम्पूर्ण धर्म है। हिंसा अधर्म है और अधर्म अहितकारक होता है। अब मैं तुम्हें सत्यका महत्त्व बताऊँगा, जो सत्यवादी पुरुषोंका परम धर्म है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि यज्ञनिन्दानाम द्विसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें हिंसात्मक यज्ञकी निन्दा नामक दो सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७२॥