भागसूचना
सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
स्यूमरश्मि-कपिल-संवाद—चारों आश्रमोंमें उत्तम साधनोंके द्वारा ब्रह्मकी प्राप्तिका कथन
मूलम् (वचनम्)
कपिल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाः प्रमाणं लोकानां न वेदाः पृष्ठतः कृताः।
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ॥ १ ॥
मूलम्
वेदाः प्रमाणं लोकानां न वेदाः पृष्ठतः कृताः।
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपिलने कहा— स्यूमरश्मे! सम्पूर्ण लोकोंके लिये वेद ही प्रमाण हैं। अतः वेदोंकी अवहेलना नहीं की गयी है। ब्रह्मके दो रूप समझने चाहिये—शब्दब्रह्म (वेद) और परब्रह्म (सच्चिदानन्दघन परमात्मा)॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।
शरीरमेतत् कुरुते यद् वेदे कुरुते तनुम् ॥ २ ॥
कृतशुद्धशरीरो हि पात्रं भवति ब्राह्मणः।
आनन्त्यमत्र बुद्ध्येदं कर्मणां तद् ब्रवीमि ते ॥ ३ ॥
मूलम्
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।
शरीरमेतत् कुरुते यद् वेदे कुरुते तनुम् ॥ २ ॥
कृतशुद्धशरीरो हि पात्रं भवति ब्राह्मणः।
आनन्त्यमत्र बुद्ध्येदं कर्मणां तद् ब्रवीमि ते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष शब्दब्रह्ममें पारंगत (वेदोक्त कर्मोंके अनुष्ठानसे शुद्धचित्त हो चुका) है, वह परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है। पिता और माता वेदोक्त गर्भाधानकी विधिसे बालकके जिस शरीरको जन्म देते हैं, वे उस बालकके उस शरीरका ही संस्कार करते हैं। इस प्रकार जिसका शरीर वैदिक संस्कारसे शुद्ध हो जाता है, वही ब्रह्मज्ञानका पात्र होता है। अब मैं अपनी बुद्धिके अनुसार तुम्हें यह बता रहा हूँ कि कर्म किस प्रकार अक्षय मोक्ष-सुखकी प्राप्ति करानेमें कारण होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनागममनैतिह्यं प्रत्यक्षं लोकसाक्षिकम् ।
धर्म इत्येव ये यज्ञान् वितन्वन्ति निराशिषः ॥ ४ ॥
मूलम्
अनागममनैतिह्यं प्रत्यक्षं लोकसाक्षिकम् ।
धर्म इत्येव ये यज्ञान् वितन्वन्ति निराशिषः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपना धर्म (कर्तव्य) समझकर बिना किसी प्रकारकी भोगेच्छाके यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं, उनके उस यज्ञका फल वेद या इतिहासद्वारा नहीं जाना जाता है। वह प्रत्यक्ष है और उसे सब लोग अपनी आँखों देखते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पन्नत्यागिनोऽलुब्धाः कृपासूयाविवर्जिताः ।
धनानामेष वै पन्थास्तीर्थेषु प्रतिपादनम् ॥ ५ ॥
अनाश्रिताः पापकर्म कदाचित् कर्मयोगिनः।
मनः संकल्पसंसिद्धा विशुद्धज्ञाननिश्चयाः ॥ ६ ॥
मूलम्
उत्पन्नत्यागिनोऽलुब्धाः कृपासूयाविवर्जिताः ।
धनानामेष वै पन्थास्तीर्थेषु प्रतिपादनम् ॥ ५ ॥
अनाश्रिताः पापकर्म कदाचित् कर्मयोगिनः।
मनः संकल्पसंसिद्धा विशुद्धज्ञाननिश्चयाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्राप्त हुए पदार्थोंका त्याग सब प्रकारके लालचको छोड़कर करते हैं, जो कृपणता और असूयासे रहित हैं और ‘धनके उपयोगका यही सर्वोत्तम मार्ग है’ ऐसा समझकर सत्पात्रोंको दान करते हैं, कभी पापकर्मका आश्रय नहीं लेते तथा सदा कर्मयोगके साधनमें ही लगे रहते हैं, उनके मानसिक संकल्पकी सिद्धि होने लगती है और उन्हें विशुद्ध ज्ञानस्वरूप परब्रह्मके विषयमें दृढ़ निश्चय हो जाता है॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्रुध्यन्तोऽनसूयन्तो निरहङ्कारमत्सराः ।
ज्ञाननिष्ठास्त्रिशुक्लाश्च सर्वभूतहिते रताः ॥ ७ ॥
मूलम्
अक्रुध्यन्तोऽनसूयन्तो निरहङ्कारमत्सराः ।
ज्ञाननिष्ठास्त्रिशुक्लाश्च सर्वभूतहिते रताः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे किसीपर क्रोध नहीं करते, कहीं दोषदृष्टि नहीं रखते, अहंकार तथा मात्सर्यसे दूर रहते हैं, ज्ञानके साधनोंमें उनकी निष्ठा होती है, उनके जन्म, कर्म और विद्या—तीनों ही शुद्ध होते हैं तथा वे समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसन् गृहस्था भूयिष्ठा अव्युत्क्रान्ताः स्वकर्मसु।
राजानश्च तथा युक्ता ब्राह्मणाश्च यथाविधि ॥ ८ ॥
मूलम्
आसन् गृहस्था भूयिष्ठा अव्युत्क्रान्ताः स्वकर्मसु।
राजानश्च तथा युक्ता ब्राह्मणाश्च यथाविधि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें बहुत-से ब्राह्मण और राजा ऐसे हो गये हैं, जो गृहस्थ आश्रममें ही रहते हुए अपने-अपने कर्मोंका त्याग न करके उनमें निष्काम भावसे विधिपूर्वक लगे रहे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समा ह्यार्जवसम्पन्नाः संतुष्टा ज्ञाननिश्चयाः।
प्रत्यक्षधर्माः शुचयः श्रद्दधानाः परावरे ॥ ९ ॥
मूलम्
समा ह्यार्जवसम्पन्नाः संतुष्टा ज्ञाननिश्चयाः।
प्रत्यक्षधर्माः शुचयः श्रद्दधानाः परावरे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब प्राणियोंपर समान दृष्टि रखते थे। सरल, संतुष्ट, ज्ञाननिष्ठ, प्रत्यक्ष फल देनेवाले धर्मके अनुष्ठाता और शुद्धचित्त होते थे तथा शब्दब्रह्म एवं परब्रह्म-दोनोंमें ही श्रद्धा रखते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरस्ताद् भावितात्मानो यथावच्चरितव्रताः ।
चरन्ति धर्मं कृच्छ्रेऽपि दुर्गे चैवापि संहताः ॥ १० ॥
संहत्य धर्मं चरतां पुराऽऽसीत् सुखमेव तत्।
तेषां नासीद् विधातव्यं प्रायश्चित्तं कथंचन ॥ ११ ॥
मूलम्
पुरस्ताद् भावितात्मानो यथावच्चरितव्रताः ।
चरन्ति धर्मं कृच्छ्रेऽपि दुर्गे चैवापि संहताः ॥ १० ॥
संहत्य धर्मं चरतां पुराऽऽसीत् सुखमेव तत्।
तेषां नासीद् विधातव्यं प्रायश्चित्तं कथंचन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे आवश्यक नियमोंका यथावत् पालन करके पहले अपने चित्तको शुद्ध करते थे और कठिनाई तथा दुर्गम स्थानोंमें पड़ जानेपर भी परस्पर मिलकर धर्मानुष्ठानमें तत्पर रहते थे। संघ-बद्ध होकर धर्मानुष्ठान करनेवाले उन पूर्ववर्ती पुरुषोंको इसमें सुखका ही अनुभव होता था। उन्हें किसी प्रकारका प्रायश्चित्त करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती थी॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं हि धर्ममास्थाय दुराधर्षतमा मताः।
न मात्रामनुरुध्यन्ते न धर्मच्छलमन्ततः ॥ १२ ॥
मूलम्
सत्यं हि धर्ममास्थाय दुराधर्षतमा मताः।
न मात्रामनुरुध्यन्ते न धर्मच्छलमन्ततः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सत्यधर्मका आश्रय लेकर ही अत्यन्त दुर्धर्ष माने जाते थे। लेशमात्र भी पाप नहीं करते थे और प्राणान्तका अवसर उपस्थित होनेपर भी धर्मके विषयमें छलसे काम नहीं लेते थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एव प्रथमः कल्पस्तमेवाभ्याचरन् सह।
तेषां नासीद् विधातव्यं प्रायश्चित्तं कदाचन ॥ १३ ॥
मूलम्
य एव प्रथमः कल्पस्तमेवाभ्याचरन् सह।
तेषां नासीद् विधातव्यं प्रायश्चित्तं कदाचन ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रथम श्रेणीका धर्म माना जाता था, उसीका वे सब लोग साथ रहकर आचरण करते थे, अतः उनके सामने कभी प्रायश्चित्त करनेका अवसर नहीं आता था॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् विधौ स्थितानां हि प्रायश्चित्तं न विद्यते।
दुर्बलात्मन उत्पन्नं प्रायश्चित्तमिति श्रुतिः ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्मिन् विधौ स्थितानां हि प्रायश्चित्तं न विद्यते।
दुर्बलात्मन उत्पन्नं प्रायश्चित्तमिति श्रुतिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मकी उस उत्तम श्रेणीमें स्थित हुए उन शुद्धचित्त पुरुषोंके लिये प्रायश्चित्त हैं ही नहीं। जिनका हृदय दुर्बल है, उन्हींसे पाप होता है और उन्हींके लिये प्रायश्चित्तका विधान किया गया है—ऐसा सुननेमें आता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बहुविधा विप्राः पुराणा यज्ञवाहनाः।
त्रैविद्यवृद्धाः शुचयो वृत्तवन्तो यशस्विनः ॥ १५ ॥
मूलम्
एवं बहुविधा विप्राः पुराणा यज्ञवाहनाः।
त्रैविद्यवृद्धाः शुचयो वृत्तवन्तो यशस्विनः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बहुत-से ब्राह्मण पूर्वकालमें यज्ञका निर्वाह करते थे। वे वेदविद्याके ज्ञानमें बढ़े-चढ़े, पवित्र, सदाचारी और यशस्वी थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजन्तोऽहरहर्यज्ञैर्निराशीर्बन्धना बुधाः ।
तेषां यज्ञाश्च वेदाश्च कर्माणि च यथागमम् ॥ १६ ॥
मूलम्
यजन्तोऽहरहर्यज्ञैर्निराशीर्बन्धना बुधाः ।
तेषां यज्ञाश्च वेदाश्च कर्माणि च यथागमम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे विद्वान् पुरुष प्रतिदिन कामनाओंके बन्धनसे मुक्त हो यज्ञोंद्वारा भगवान्का यजन करते थे। उनके वे यज्ञ, वेदाध्ययन तथा अन्यान्य कर्म शास्त्रविधिके अनुसार सम्पन्न होते थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगमाश्च यथाकाले संकल्पाश्च यथाक्रमम्।
अपेतकामक्रोधानां दुश्चराचारकर्मणाम् ॥ १७ ॥
मूलम्
आगमाश्च यथाकाले संकल्पाश्च यथाक्रमम्।
अपेतकामक्रोधानां दुश्चराचारकर्मणाम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने काम और क्रोधको त्याग दिया था। उनके आचार-कर्म दूसरोंके लिये आचरणमें लाने अत्यन्त कठिन थे। उनके हृदयमें यथासमय शास्त्र-ज्ञान और सत्यंकल्पका क्रमशः उदय होता था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकर्मभिः शंसितानां प्रकृत्या शंसितात्मनाम्।
ऋजूनां शमनित्यानां स्वेषु कर्मसु वर्तताम् ॥ १८ ॥
मूलम्
स्वकर्मभिः शंसितानां प्रकृत्या शंसितात्मनाम्।
ऋजूनां शमनित्यानां स्वेषु कर्मसु वर्तताम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने उत्तम कर्मोंके कारण उनकी बड़ी प्रशंसा होती थी। वे स्वभावसे ही पवित्रचित्त, सरल, शान्तिपरायण और स्वधर्मनिष्ठ होते थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमानन्त्यमेवासीदिति नः शाश्वती श्रुतिः।
तेषामदीनसत्त्वानां दुश्चराचारकर्मणाम् ॥ १९ ॥
मूलम्
सर्वमानन्त्यमेवासीदिति नः शाश्वती श्रुतिः।
तेषामदीनसत्त्वानां दुश्चराचारकर्मणाम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके हृदय बड़े उदार थे, उनके आचार और कर्म दूसरोंके लिये आचरणमें लानेमें अत्यन्त कठिन थे, अतः उनका सारा शुभ कर्म ही अक्षय मोक्षरूप फल देनेवाला था। यह बात सदा हमारे सुननेमें आयी है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकर्मभिः सम्भृतानां तपो घोरत्वमागतम्।
तं सदाचारमाश्चर्यं पुराणं शाश्वतं ध्रुवम् ॥ २० ॥
मूलम्
स्वकर्मभिः सम्भृतानां तपो घोरत्वमागतम्।
तं सदाचारमाश्चर्यं पुराणं शाश्वतं ध्रुवम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने-अपने कर्मोंसे ही परिपुष्ट थे। उनकी तपस्या घोर रूप धारण कर चुकी थी। वे आश्चर्यजनक सदाचारका पालन करते थे और उसका उन्हें पुरातन, शाश्वत एवं अविनाशी ब्रह्मरूप फल प्राप्त होता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशक्नुवद्भिश्चरितुं किंचिद् धर्मेषु सूक्ष्मताम्।
निरापद्धर्म आचारो ह्यप्रमादोऽपराभवः ॥ २१ ॥
मूलम्
अशक्नुवद्भिश्चरितुं किंचिद् धर्मेषु सूक्ष्मताम्।
निरापद्धर्म आचारो ह्यप्रमादोऽपराभवः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मोंमें जो किंचित् सूक्ष्मता है, उसका आचरण करनेमें कितने ही लोग असमर्थ हो जाते हैं। वास्तवमें वेदोक्त आचार और धर्म आपत्तिसे रहित है। उसमें न तो प्रमाद है और न पराभव ही है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्ववर्णेषु जातेषु नासीत् कश्चिद् व्यतिक्रमः।
व्यस्तमेकं चतुर्धा हि ब्राह्मणा आश्रमं विदुः ॥ २२ ॥
मूलम्
सर्ववर्णेषु जातेषु नासीत् कश्चिद् व्यतिक्रमः।
व्यस्तमेकं चतुर्धा हि ब्राह्मणा आश्रमं विदुः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें सब वर्णोंकी उत्पत्ति हो जानेपर आश्रमके विषयमें कोई वैषम्य नहीं था। तदनन्तर एक ही आश्रमको अवस्था-भेदसे चार भागोंमें विभक्त किया गया। इस बातको सभी ब्राह्मण जानते रहे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं सन्तो विधिवत् प्राप्य गच्छन्ति परमां गतिम्।
गृहेभ्य एव निष्क्रम्य वनमन्ये समाश्रिताः ॥ २३ ॥
गृहमेवाभिसंश्रित्य ततोऽन्ये ब्रह्मचारिणः ।
त एते दिवि दृश्यन्ते ज्योतिर्भूता द्विजातयः ॥ २४ ॥
नक्षत्राणीव धिष्ण्येषु बहवस्तारकागणाः ।
आनन्त्यमुपसम्प्राप्ताः संतोषादिति वैदिकम् ॥ २५ ॥
मूलम्
तं सन्तो विधिवत् प्राप्य गच्छन्ति परमां गतिम्।
गृहेभ्य एव निष्क्रम्य वनमन्ये समाश्रिताः ॥ २३ ॥
गृहमेवाभिसंश्रित्य ततोऽन्ये ब्रह्मचारिणः ।
त एते दिवि दृश्यन्ते ज्योतिर्भूता द्विजातयः ॥ २४ ॥
नक्षत्राणीव धिष्ण्येषु बहवस्तारकागणाः ।
आनन्त्यमुपसम्प्राप्ताः संतोषादिति वैदिकम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ पुरुष विधिपूर्वक उन सब आश्रमोंमें प्रवेश करके उनके धर्मका पालन करते हुए परम-गतिको प्राप्त होते हैं। उनमेंसे कुछ लोग तो घरसे निकलकर (अर्थात् संन्यासी होकर), कुछ लोग वानप्रस्थका आश्रय लेकर, कुछ मानव गृहस्थ ही रहकर और कोई ब्रह्मचर्य आश्रमका सेवन करते हुए ही उस आश्रमधर्मका पालन करके परमपदको प्राप्त होते हैं। उस समय वे ही द्विजगण आकाशमें ज्योति-र्मयरूपसे दिखायी देते हैं, जो कि नक्षत्रोंके समान ही आकाशके विभिन्न स्थानोंमें अनेक तारागण हैं—इन सबने संतोषके द्वारा ही यह अनन्त पद प्राप्त किया है, ऐसा वैदिक सिद्धान्त है॥२३—२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यागच्छन्ति संसारं पुनर्योनिषु तादृशाः।
न लिप्यन्ते पापकृत्यैः कदाचित् कर्मयोनितः ॥ २६ ॥
मूलम्
यद्यागच्छन्ति संसारं पुनर्योनिषु तादृशाः।
न लिप्यन्ते पापकृत्यैः कदाचित् कर्मयोनितः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे पुण्यात्मा पुरुष यदि कभी पुनः संसारकी कर्माधिकार युक्त योनियोंमें आते या जन्म ग्रहण करते हैं तो वे उस योनिके सम्बन्धसे पापकर्मोंद्वारा लिप्त नहीं होते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेव ब्रह्मचारी शुश्रूषुर्घोरनिश्चयः ।
एवं युक्तो ब्राह्मणः स्यादन्यो ब्राह्मणको भवेत् ॥ २७ ॥
मूलम्
एवमेव ब्रह्मचारी शुश्रूषुर्घोरनिश्चयः ।
एवं युक्तो ब्राह्मणः स्यादन्यो ब्राह्मणको भवेत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार गुरुकी सेवामें तत्पर रहनेवाला, ब्रह्मचर्य-परायण, दृढ़ निश्चयवाला तथा योगयुक्त ब्रह्मचारी ही उत्तम ब्राह्मण हो सकता है। उससे भिन्न अन्य प्रकारका ब्राह्मण निम्न कोटिका अथवा नाममात्रका ब्राह्मण समझा जाता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मैवं पुरुषस्याह शुभं वा यदि वाशुभम्।
एवं पक्वकषायाणामानन्त्येन श्रुतेन च ॥ २८ ॥
सर्वमानन्त्यमासीद् वै एवं नः शाश्वती श्रुतिः।
तेषामपेततृष्णानां निर्णिक्तानां शुभात्मनाम् ॥ २९ ॥
मूलम्
कर्मैवं पुरुषस्याह शुभं वा यदि वाशुभम्।
एवं पक्वकषायाणामानन्त्येन श्रुतेन च ॥ २८ ॥
सर्वमानन्त्यमासीद् वै एवं नः शाश्वती श्रुतिः।
तेषामपेततृष्णानां निर्णिक्तानां शुभात्मनाम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार शुभ अथवा अशुभ कर्म ही पुरुषका तदनु-रूप नाम नियत करता है। जिनके राग-द्वेष आदि कषाय पक गये हैं, जिनके मनसे तृष्णा निकल गयी है, जो बाहर-भीतरसे शुद्ध हैं तथा जिनकी बुद्धि कल्याणस्वरूप मोक्षमें लगी हुई है, उन तत्त्वज्ञानी पुरुषोंकी दृष्टिमें अनन्त ब्रह्मज्ञान तथा शास्त्रज्ञानके प्रभावसे सब कुछ ब्रह्मस्वरूप हो गया था; यह बात सदा ही हमारे सुननेमें आयी है॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्थोपनिषद् धर्मः साधारण इति स्मृतिः।
संसिद्धैः साध्यते नित्यं ब्राह्मणैर्नियतात्मभिः ॥ ३० ॥
मूलम्
चतुर्थोपनिषद् धर्मः साधारण इति स्मृतिः।
संसिद्धैः साध्यते नित्यं ब्राह्मणैर्नियतात्मभिः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुरीय ब्रह्मसे सम्बन्ध रखनेवाली जो उपनिषद्-विद्या है, उसकी प्राप्ति करानेवाले शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा तथा समाधानरूप जो धर्म हैं, वह सभी वर्ण और आश्रमके लोगोंके लिये साधारण हैं—ऐसा स्मृतिका कथन है। परंतु जो संयतचित्त और तपःसिद्ध ब्रह्मनिष्ठ पुरुष हैं, वे ही सदा उस धर्मका साधन कर पाते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतोषमूलस्त्यागात्मा ज्ञानाधिष्ठानमुच्यते ।
अपवर्गमतिर्नित्यो यतिधर्मः सनातनः ॥ ३१ ॥
मूलम्
संतोषमूलस्त्यागात्मा ज्ञानाधिष्ठानमुच्यते ।
अपवर्गमतिर्नित्यो यतिधर्मः सनातनः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संतोष ही जिसके सुखका मूल है, त्याग ही जिसका स्वरूप है, जो ज्ञानका आश्रय कहा जाता है, जिसमें मोक्षदायिनी बुद्धि—ब्रह्मसाक्षात्काररूप वृत्ति नित्य आवश्यक है, वह संन्यास-आश्रमरूप धर्म सनातन है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधारणः केवलो वा यथाबलमुपासते।
गच्छतां गच्छतां क्षेमं दुर्बलोऽत्रावसीदति।
ब्रह्मणः पदमन्विच्छन् संसारान्मुच्यते शुचिः ॥ ३२ ॥
मूलम्
साधारणः केवलो वा यथाबलमुपासते।
गच्छतां गच्छतां क्षेमं दुर्बलोऽत्रावसीदति।
ब्रह्मणः पदमन्विच्छन् संसारान्मुच्यते शुचिः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह यतिधर्म अन्य आश्रमके धर्मोंसे मिला हुआ हो या स्वतन्त्र हो, जो अपने वैराग्य-बलके अनुसार इसका आश्रय लेते हैं, वे कल्याणके भागी होते हैं। इस मार्गसे जानेवाले सभी पथिकोंका परम कल्याण होता है; परंतु जो दुर्बल है—मन और इन्द्रियोंको वशमें न रखनेके कारण जो इसके साधनमें असमर्थ है, वही यहाँ शिथिल होकर बैठ रहता है। जो बाहर और भीतरसे पवित्र है, वह ब्रह्मपदका अनुसंधान करता हुआ संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
स्यूमरश्मिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये भुञ्जते ये ददते यजन्तेऽधीयते च ये।
मात्राभिरुपलब्धाभिर्ये वा त्यागं समाश्रिताः ॥ ३३ ॥
एतेषां प्रेत्यभावे तु कतमः स्वर्गजित्तमः।
एतदाचक्ष्व मे ब्रह्मन् यथातत्त्वेन पृच्छतः ॥ ३४ ॥
मूलम्
ये भुञ्जते ये ददते यजन्तेऽधीयते च ये।
मात्राभिरुपलब्धाभिर्ये वा त्यागं समाश्रिताः ॥ ३३ ॥
एतेषां प्रेत्यभावे तु कतमः स्वर्गजित्तमः।
एतदाचक्ष्व मे ब्रह्मन् यथातत्त्वेन पृच्छतः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्यूमरश्मिने पूछा —ब्रह्मन्! जो लोग प्राप्त हुए धनके द्वारा केवल भोग भोगते हैं, जो दान करते हैं, जो उस धनको यज्ञमें लगाते हैं, जो स्वाध्याय करते हैं अथवा जो त्यागका आश्रय लेते हैं, इनमेंसे कौन पुरुष मृत्युके पश्चात् प्रधानरूपसे स्वर्गलोकपर विजय पाता है? मैं जिज्ञासुभावसे पूछ रहा हूँ; आप मुझे यह सब यथार्थरूपसे बताइये॥३३-३४॥
मूलम् (वचनम्)
कपिल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिग्रहाः शुभाः सर्वे गुणतोऽभ्युदयाश्च ये।
न तु त्यागसुखं प्राप्ता एतत् त्वमपि पश्यसि ॥ ३५ ॥
मूलम्
परिग्रहाः शुभाः सर्वे गुणतोऽभ्युदयाश्च ये।
न तु त्यागसुखं प्राप्ता एतत् त्वमपि पश्यसि ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपिलजीने कहा— जिनका सात्त्विक गुणसे प्राकट्य हुआ है, ऐसे सभी परिग्रह शुभ हैं; परंतु त्यागमें जो सुख है, उसे इनमेंसे कोई भी नहीं पा सके हैं। इस बातको तुम भी देखते ही हो॥३५॥
मूलम् (वचनम्)
स्यूमरश्मिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्तो ज्ञाननिष्ठा वै गृहस्थाः कर्मनिश्चयाः।
आश्रमाणां च सर्वेषां निष्ठायामैक्यमुच्यते ॥ ३६ ॥
एकत्वेन पृथक्त्वेन विशेषो नात्र दृश्यते।
तद् यथावद् यथान्यायं भगवान् प्रब्रवीतु मे ॥ ३७ ॥
मूलम्
भवन्तो ज्ञाननिष्ठा वै गृहस्थाः कर्मनिश्चयाः।
आश्रमाणां च सर्वेषां निष्ठायामैक्यमुच्यते ॥ ३६ ॥
एकत्वेन पृथक्त्वेन विशेषो नात्र दृश्यते।
तद् यथावद् यथान्यायं भगवान् प्रब्रवीतु मे ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्यूमरश्मिने पूछा— भगवन्! आप तो ज्ञाननिष्ठ हैं और गृहस्थलोग कर्मनिष्ठ होते हैं; परंतु आप इस समय निष्ठामें सभी आश्रमोंकी एकताका प्रतिपादन कर रहे हैं। इस प्रकार ज्ञान और कर्मकी एकता और पृथक्ता—दोनोंका भ्रम होनेसे इनका ठीक-ठीक अन्तर समझमें नहीं आता है। इसलिये आप मुझे उसे यथोचित एवं यथार्थरीतिसे बतानेकी कृपा करें॥३६-३७॥
मूलम् (वचनम्)
कपिल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरपक्तिः कर्माणि ज्ञानं तु परमा गतिः।
कषाये कर्मभिः पक्वे रसज्ञाने च तिष्ठति ॥ ३८ ॥
मूलम्
शरीरपक्तिः कर्माणि ज्ञानं तु परमा गतिः।
कषाये कर्मभिः पक्वे रसज्ञाने च तिष्ठति ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपिलजीने कहा— कर्म स्थूल और सूक्ष्म शरीरकी शुद्धि करनेवाले हैं, किंतु ज्ञान परम गतिरूप है। जब कर्मोंद्वारा चित्तके रागादि दोष जल जाते हैं, तब मनुष्य रस-स्वरूप ज्ञानमें स्थित हो जाता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनृशंस्यं क्षमा शान्तिरहिंसा सत्यमार्जवम्।
अद्रोहोऽनभिमानश्च ह्रीस्तितिक्षा शमस्तथा ॥ ३९ ॥
पन्थानो ब्रह्मणस्त्वेते एतैः प्राप्नोति यत्परम्।
तद् विद्वाननुबुद्ध्येत मनसा कर्मनिश्चयम् ॥ ४० ॥
मूलम्
आनृशंस्यं क्षमा शान्तिरहिंसा सत्यमार्जवम्।
अद्रोहोऽनभिमानश्च ह्रीस्तितिक्षा शमस्तथा ॥ ३९ ॥
पन्थानो ब्रह्मणस्त्वेते एतैः प्राप्नोति यत्परम्।
तद् विद्वाननुबुद्ध्येत मनसा कर्मनिश्चयम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंपर दया, क्षमा, शान्ति, अहिंसा, सत्य, सरलता, अद्रोह, निरभिमानता, लज्जा, तितिक्षा और शम—ये परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिके मार्ग हैं। इनके द्वारा पुरुष परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार विद्वान् पुरुषको मनके द्वारा कर्मके वास्तविक परिणामका निश्चय समझना चाहिये॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यां विप्राः सर्वतः शान्ता विशुद्धा ज्ञाननिश्चयाः।
गतिं गच्छन्ति संतुष्टास्तामाहुः परमां गतिम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
यां विप्राः सर्वतः शान्ता विशुद्धा ज्ञाननिश्चयाः।
गतिं गच्छन्ति संतुष्टास्तामाहुः परमां गतिम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब ओरसे शान्त, संतुष्ट, विशुद्धचित्त और ज्ञाननिष्ठ विप्र जिस गतिको प्राप्त होते हैं, उसीको परमगति कहते हैं॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदांश्च वेदितव्यं च विदित्वा च यथास्थितिम्।
एवं वेदविदित्याहुरतोऽन्यो वातरेचकः ॥ ४२ ॥
मूलम्
वेदांश्च वेदितव्यं च विदित्वा च यथास्थितिम्।
एवं वेदविदित्याहुरतोऽन्यो वातरेचकः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वेदों और उनके द्वारा जानने योग्य परब्रह्मको ठीक-ठीक जानता है, उसीको वेदवेत्ता कहते हैं। उससे भिन्न जो दूसरे लोग हैं, वे मुँहसे वेद नहीं पढ़ते, धौंकनीके समान केवल हवा छोड़ते हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं विदुर्वेदविदो वेदे सर्वं प्रतिष्ठितम्।
वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च॥४३॥
मूलम्
सर्वं विदुर्वेदविदो वेदे सर्वं प्रतिष्ठितम्।
वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च॥४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदज्ञ पुरुष सभी विषयोंको जानते हैं; क्योंकि वेदमें सब कुछ प्रतिष्ठित है। जो-जो वस्तु है और जो नहीं है, उन सबकी स्थिति वेदमें बतायी गयी है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषैव निष्ठा सर्वत्र यत् तदस्ति च नास्ति च।
एतदन्त च मध्यं च सच्चासच्च विजानतः ॥ ४४ ॥
मूलम्
एषैव निष्ठा सर्वत्र यत् तदस्ति च नास्ति च।
एतदन्त च मध्यं च सच्चासच्च विजानतः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण शास्त्रोंकी एकमात्र निष्ठा यही है कि जो-जो दृश्य पदार्थ है वह प्रतीतिकालमें तो विद्यमान है, परंतु परमार्थ ज्ञानकी स्थितिमें बाधित हो जानेपर वह नहीं है। ज्ञानी पुरुषकी दृष्टिमें सदसत् स्वरूप ब्रह्म ही इस जगत्का आदि, मध्य और अन्त है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाप्तं त्याग इत्येव सर्ववेदेषु निष्ठितम्।
संतोष इत्यनुगतमपवर्गे प्रतिष्ठितम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
समाप्तं त्याग इत्येव सर्ववेदेषु निष्ठितम्।
संतोष इत्यनुगतमपवर्गे प्रतिष्ठितम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब कुछ त्याग देनेपर ही उस ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। यही बात सम्पूर्ण वेदोंमें निश्चित की गयी है। वह अपने आनन्दस्वरूपसे सबमें अनुगत तथा अपवर्ग (मोक्ष) में प्रतिष्ठित है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतं सत्यं विदितं वेदितव्यं
सर्वस्यात्मा स्थावरं जङ्गमं च।
सर्वं सुखं यच्छिवमुत्तरं च
ब्रह्माव्यक्तं प्रभवश्चाव्ययं च ॥ ४६ ॥
मूलम्
ऋतं सत्यं विदितं वेदितव्यं
सर्वस्यात्मा स्थावरं जङ्गमं च।
सर्वं सुखं यच्छिवमुत्तरं च
ब्रह्माव्यक्तं प्रभवश्चाव्ययं च ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः वह ब्रह्म ऋत, सत्य, ज्ञात, ज्ञातव्य, सबका आत्मा, स्थावर-जंगमरूप, सम्पूर्ण सुखरूप, कल्याणमय, सर्वोत्कृष्ट, अव्यक्त, सबकी उत्पत्तिका कारण और अविनाशी है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजः क्षमा शान्तिरनामयं शुभं
तथाविधं व्योम सनातनं ध्रुवम्।
एतैः सर्वैर्गम्यते बुद्धिनेत्रै-
स्तस्मै नमो ब्रह्मणे ब्राह्मणाय ॥ ४७ ॥
मूलम्
तेजः क्षमा शान्तिरनामयं शुभं
तथाविधं व्योम सनातनं ध्रुवम्।
एतैः सर्वैर्गम्यते बुद्धिनेत्रै-
स्तस्मै नमो ब्रह्मणे ब्राह्मणाय ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आकाशके समान असंग, अविनाशी और सदा एकरस तत्त्वका ज्ञान-नेत्रोंवाले सभी पुरुष तेज, क्षमा और शान्तिरूप शुभ साधनोंके द्वारा साक्षात्कार करते हैं। जो वास्तवमें ब्रह्मवेत्तासे अभिन्न है, उस परब्रह्म परमात्माको नमस्कार है॥४७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि गोकपिलीये सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २७० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें गोकपिलीयोपाख्यानविषयक दो सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७०॥