भागसूचना
एकोनसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्गके विषयमें स्यूमरश्मि-कपिल-संवाद
मूलम् (वचनम्)
कपिल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदनुपश्यन्ति यतयो यान्ति मार्गगाः।
नैषां सर्वेषु लोकेषु कश्चिदस्ति व्यतिक्रमः ॥ १ ॥
मूलम्
एतावदनुपश्यन्ति यतयो यान्ति मार्गगाः।
नैषां सर्वेषु लोकेषु कश्चिदस्ति व्यतिक्रमः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपिलने कहा— यम-नियमोंका पालन करनेवाले संन्यासी ज्ञानमार्गका आश्रय लेकर परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। वे इस दृश्य प्रपंचको नश्वर समझते हैं। सम्पूर्ण लोकोंमें उनकी गतिका कहीं कोई अवरोध नहीं होता॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्द्वन्द्वा निर्नमस्कारा निराशीर्बन्धना बुधाः।
विमुक्ताः सर्वपापेभ्यश्चरन्ति शुचयोऽमलाः ॥ २ ॥
मूलम्
निर्द्वन्द्वा निर्नमस्कारा निराशीर्बन्धना बुधाः।
विमुक्ताः सर्वपापेभ्यश्चरन्ति शुचयोऽमलाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्व विचलित नहीं करते। वे न तो किसीको प्रणाम करते हैं और न आशीर्वाद ही देते हैं। इतना ही नहीं, वे विद्वान् पुरुष कामनाओंके बन्धनमें भी नहीं बँधते हैं। सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त, पवित्र और निर्मल होकर सर्वत्र विचरते रहते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपवर्गेऽथ संत्यागे बुद्धौ च कृतनिश्चयाः।
ब्रह्मिष्ठा ब्रह्मभूताश्च ब्रह्मण्येव कृतालयाः ॥ ३ ॥
मूलम्
अपवर्गेऽथ संत्यागे बुद्धौ च कृतनिश्चयाः।
ब्रह्मिष्ठा ब्रह्मभूताश्च ब्रह्मण्येव कृतालयाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे मोक्षकी प्राप्ति और सर्वस्वके त्यागके लिये अपनी बुद्धिमें दृढ़ निश्चय रखते हैं। ब्रह्मके ध्यानमें तत्पर एवं ब्रह्मस्वरूप होकर ब्रह्ममें ही निवास करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशोका नष्टरजसस्तेषां लोकाः सनातनाः।
तेषां गतिं परां प्राप्य गार्हस्थ्ये किं प्रयोजनम् ॥ ४ ॥
मूलम्
विशोका नष्टरजसस्तेषां लोकाः सनातनाः।
तेषां गतिं परां प्राप्य गार्हस्थ्ये किं प्रयोजनम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें वे सनातन लोक प्राप्त होते हैं, जहाँ शोक और दुःखका सर्वथा अभाव है तथा जहाँ रजोगुण (काम-क्रोध आदि) का दर्शन नहीं होता। उस परम गतिको पाकर उन्हें गार्हस्थ्य-आश्रममें रहने और यहाँके धर्मोंके पालन करनेकी क्या आवश्यकता रह जाती है?॥
मूलम् (वचनम्)
स्यूमरश्मिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येषा परमा काष्ठा यद्येषा परमा गतिः।
गृहस्थानव्यपाश्रित्य नाश्रमोऽन्यः प्रवर्तते ॥ ५ ॥
मूलम्
यद्येषा परमा काष्ठा यद्येषा परमा गतिः।
गृहस्थानव्यपाश्रित्य नाश्रमोऽन्यः प्रवर्तते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्यूमरश्मिने कहा— ज्ञान प्राप्त करके परब्रह्ममें स्थित हो जाना ही यदि पुरुषार्थकी चरम सीमा है, यदि वही उत्तम गति है, तब तो गृहस्थ-धर्मका महत्त्व और भी बढ़ जाता है; क्योंकि गृहस्थोंका सहारा लिये बिना कोई भी आश्रम न तो चल सकता है और न तो ज्ञानकी निष्ठा ही प्रदान कर सकता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः।
एवं गार्हस्थ्यमाश्रित्य वर्तन्त इतराश्रमाः ॥ ६ ॥
मूलम्
यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः।
एवं गार्हस्थ्यमाश्रित्य वर्तन्त इतराश्रमाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे समस्त प्राणी माताकी गोदका सहारा पाकर ही जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ-आश्रमका आश्रय लेकर ही दूसरे आश्रम टिके हुए हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहस्थ एव यजते गृहस्थस्तप्यते तपः।
गार्हस्थ्यमस्य धर्मस्य मूलं यत्किंचिदेजते ॥ ७ ॥
मूलम्
गृहस्थ एव यजते गृहस्थस्तप्यते तपः।
गार्हस्थ्यमस्य धर्मस्य मूलं यत्किंचिदेजते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थ ही यज्ञ करता है, गृहस्थ ही तप करता है। मनुष्य जो कुछ भी चेष्टा करता है—जिस किसी भी शुभ कर्मका आचरण करता है, उस धर्मका मूल कारण गार्हस्थ्य-आश्रम ही है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजनाद्यभिनिर्वृत्ताः सर्वे प्राणभृतो जनाः।
प्रजनं चाप्युतान्यत्र न कथंचन विद्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
प्रजनाद्यभिनिर्वृत्ताः सर्वे प्राणभृतो जनाः।
प्रजनं चाप्युतान्यत्र न कथंचन विद्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणधारी जीव संतानके उत्पादन आदिसे सुखका अनुभव करते हैं, परंतु संतान गार्हस्थ्य-आश्रमके सिवा अन्यत्र किसी तरह सुलभ नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यास्तु स्युर्बर्हिरोषध्यो बहिरन्यास्तथाद्रिजाः ।
ओषधिभ्यो बहिर्यस्मात् प्राणात् कश्चिन्न दृश्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
यास्तु स्युर्बर्हिरोषध्यो बहिरन्यास्तथाद्रिजाः ।
ओषधिभ्यो बहिर्यस्मात् प्राणात् कश्चिन्न दृश्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुश-काश आदि तृण, धान-जौ आदि ओषधि, नगरके बाहर उत्पन्न होनेवाली दूसरी ओषधियाँ तथा पर्वतपर होनेवाली जो ओषधियाँ हैं, उन सबका मूल भी गार्हस्थ्य-आश्रम ही है (क्योंकि वहींके यज्ञसे पर्जन्य (मेघ) की उत्पत्ति होती है, जिससे वर्षा आदिके द्वारा तृण-लता, ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं)। प्राणस्वरूप जो ओषधियाँ हैं; उससे बाहर कोई दिखायी नहीं देता॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्यैषा वाग् भवेत् सत्या मोक्षो नास्ति गृहादिति।
अश्रद्दधानैरप्राज्ञैः सूक्ष्मदर्शनवर्जितैः ॥ १० ॥
निरासैरलसैः श्रान्तैस्तप्यमानैः स्वकर्मभिः ।
शमस्योपरमो दृष्टः प्रव्रज्यायामपण्डितैः ॥ ११ ॥
मूलम्
कस्यैषा वाग् भवेत् सत्या मोक्षो नास्ति गृहादिति।
अश्रद्दधानैरप्राज्ञैः सूक्ष्मदर्शनवर्जितैः ॥ १० ॥
निरासैरलसैः श्रान्तैस्तप्यमानैः स्वकर्मभिः ।
शमस्योपरमो दृष्टः प्रव्रज्यायामपण्डितैः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थाश्रमके धर्मोंका पालन करनेसे मोक्ष नहीं होता है, ऐसी किसकी वाणी सत्य होगी। जो श्रद्धारहित, मूढ़ और सूक्ष्मदृष्टिसे वंचित हैं, अस्थिर, आलसी, श्रान्त और अपने पूर्वकृत कर्मोंसे संतप्त हैं, वे अज्ञानी पुरुष ही संन्यास-मार्गका आश्रय ले गृहस्थाश्रममें शान्तिका अभाव देखते हैं॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्यस्यैव हेतुर्हि मर्यादा शाश्वती ध्रुवा।
ब्राह्मणो नाम भगवान् जन्मप्रभृति पूज्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
त्रैलोक्यस्यैव हेतुर्हि मर्यादा शाश्वती ध्रुवा।
ब्राह्मणो नाम भगवान् जन्मप्रभृति पूज्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैदिक धर्मकी सनातन मर्यादा तीनों लोकोंका हित करनेवाली एवं ध्रुव है। ब्राह्मण पूजनीय है और जन्म-कालसे ही उसका सबके द्वारा समादर होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राग्गर्भाधानान्मन्त्रा हि प्रवर्तन्ते द्विजातिषु।
अविश्रम्भेषु वर्तन्ते विश्रम्भेष्वप्यसंशयम् ॥ १३ ॥
मूलम्
प्राग्गर्भाधानान्मन्त्रा हि प्रवर्तन्ते द्विजातिषु।
अविश्रम्भेषु वर्तन्ते विश्रम्भेष्वप्यसंशयम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—तीनों वर्णोंमें गर्भाधानसे पहले वेदमन्त्रोंका उच्चारण किया जाता है। फिर लौकिक और पारलौकिक सभी कार्योंमें निस्संदेह उन वेदमन्त्रोंकी प्रवृत्ति होती है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दाहे पुनः संश्रयणे संश्रिते पात्रभोजने।
दाने गवां पशूनां वा पिण्डानामप्सु मज्जने ॥ १४ ॥
मूलम्
दाहे पुनः संश्रयणे संश्रिते पात्रभोजने।
दाने गवां पशूनां वा पिण्डानामप्सु मज्जने ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृतकके दाह-संस्कारमें, पुनः देह धारण करनेमें, देह धारण कर लेनेपर, मृत व्यक्तिकी तृप्तिके लिये प्रतिदिन तर्पण और श्राद्ध करनेमें, वैतरणीके निमित्त गौओं अथवा अन्य पशुओंका दान करनेमें तथा श्राद्धकर्ममें दिये हुए पिण्डोंका जलके भीतर विसर्जन करनेमें भी वैदिक मन्त्रोंका उपयोग होता है—इन सब कार्योंके मूल वेद-मन्त्र हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्चिष्मन्तो बर्हिषदः कव्यादाः पितरस्तथा।
मृतस्याप्यनुमन्यन्ते मन्त्रान् मन्त्राश्च कारणम् ॥ १५ ॥
मूलम्
अर्चिष्मन्तो बर्हिषदः कव्यादाः पितरस्तथा।
मृतस्याप्यनुमन्यन्ते मन्त्रान् मन्त्राश्च कारणम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्चिष्मत्, बर्हिषद् तथा कव्यवाह संज्ञक पितर भी मृत व्यक्तिके (सुख-शान्ति एवं प्रसन्नता) के लिये मन्त्र-पाठकी अनुमति देते हैं। मन्त्र ही सब धर्मोंके कारण हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं क्रोशत्सु वेदेषु कुतो मोक्षोऽस्ति कस्यचित्।
ऋणवन्तो यदा मर्त्याः पितृदेवद्विजातिषु ॥ १६ ॥
मूलम्
एवं क्रोशत्सु वेदेषु कुतो मोक्षोऽस्ति कस्यचित्।
ऋणवन्तो यदा मर्त्याः पितृदेवद्विजातिषु ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही वेद-मन्त्र जब पुकार-पुकारकर कहते हैं कि मनुष्य देवताओं, पितरों और ऋषियोंके जन्मसे ही ऋणी होते हैं, तब गृहस्थाश्रममें रहकर उन ऋणोंको चुकाये बिना किसीका भी मोक्ष कैसे हो सकता है?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रिया विहीनैरलसैः पण्डितैः सम्प्रवर्तितम्।
वेदवादापरिज्ञानं सत्याभासमिवानृतम् ॥ १७ ॥
मूलम्
श्रिया विहीनैरलसैः पण्डितैः सम्प्रवर्तितम्।
वेदवादापरिज्ञानं सत्याभासमिवानृतम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीहीन और आलसी पण्डितोंने कर्मोंके त्यागसे मोक्ष मिलता है—ऐसा मत चलाया है। यह सुननेमें सत्य-सा आभासित होता है, परंतु है मिथ्या। इस मार्गमें किसीको वेदके सिद्धान्तोंका तनिक भी ज्ञान नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वै पापैर्ह्रियते कृष्यते वा
यो ब्राह्मणो यजते वेदशास्तैः।
ऊर्ध्वं यज्ञैः पशुभिः सार्धमेति
संतर्पितस्तर्पयते च कामैः ॥ १८ ॥
मूलम्
न वै पापैर्ह्रियते कृष्यते वा
यो ब्राह्मणो यजते वेदशास्तैः।
ऊर्ध्वं यज्ञैः पशुभिः सार्धमेति
संतर्पितस्तर्पयते च कामैः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण वेद-शास्त्रोंके अनुसार यज्ञका अनुष्ठान करता है, उसपर पापोंका आक्रमण नहीं हो सकता और न पाप उसे अपनी ओर खींच ही सकते हैं। वह अपने किये हुए यज्ञों और उनमें उपयोगी पशुओंके साथ ऊपरके पुण्यलोकोंमें जाता है और स्वयं सब प्रकारके भोगोंसे तृप्त होकर दूसरोंको भी तृप्त करता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वेदानां परिभवान्न शाठ्येन न मायया।
महत् प्राप्नोति पुरुषो ब्रह्मणि ब्रह्म विन्दति ॥ १९ ॥
मूलम्
न वेदानां परिभवान्न शाठ्येन न मायया।
महत् प्राप्नोति पुरुषो ब्रह्मणि ब्रह्म विन्दति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंका अनादर करनेसे, शठतासे तथा छल-कपटसे कोई भी मनुष्य परब्रह्म परमात्माको नहीं पाता है। वेदों तथा उनमें बताये हुए कर्मोंका आश्रय लेनेपर ही उसे परब्रह्मकी प्राप्ति होती है॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
कपिल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शं च पौर्णमासं च अग्निहोत्रं च धीमतः।
चातुर्मास्यानि चैवासंस्तेषु धर्मः सनातनः ॥ २० ॥
मूलम्
दर्शं च पौर्णमासं च अग्निहोत्रं च धीमतः।
चातुर्मास्यानि चैवासंस्तेषु धर्मः सनातनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपिलजीने कहा— बुद्धिमान् पुरुषके लिये दर्श, पौर्णमास, अग्निहोत्र तथा चातुर्मास्य आदिके अनुष्ठानका विधान है; क्योंकि उनमें सनातनधर्मकी स्थिति है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनारम्भाः सुधृतयः शुचयो ब्रह्मसंज्ञिताः।
ब्रह्मणैव स्म ते देवांस्तर्पयन्त्यमृतैषिणः ॥ २१ ॥
मूलम्
अनारम्भाः सुधृतयः शुचयो ब्रह्मसंज्ञिताः।
ब्रह्मणैव स्म ते देवांस्तर्पयन्त्यमृतैषिणः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जो संन्यास धर्म स्वीकार करके कर्मानुष्ठानसे निवृत्त हो गये हैं तथा धीर, पवित्र एवं ब्रह्मस्वरूपमें स्थित हैं, वे अविनाशी ब्रह्मको चाहनेवाले महात्मा पुरुष ब्रह्मज्ञानसे ही देवताओंको तृप्त करते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः ।
देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः ॥ २२ ॥
मूलम्
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः ।
देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण भूतोंके आत्मारूपसे स्थित हैं और सम्पूर्ण प्राणियोंको आत्मभावसे ही देखते हैं, जिनका कोई विशेष पद नहीं है, उन ज्ञानी पुरुषका पदचिह्न ढूँढ़नेवाले—उनकी गतिका पता लगानेवाले देवता भी मार्गमें मोहित हो जाते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्द्वारं पुरुषं चतुर्मुखं
चतुर्धा चैनमुपयाति वाचा ।
बाहुभ्यां वाच उदरादुपस्थात्
तेषां द्वारं द्वारपालो बुभूषेत् ॥ २३ ॥
मूलम्
चतुर्द्वारं पुरुषं चतुर्मुखं
चतुर्धा चैनमुपयाति वाचा ।
बाहुभ्यां वाच उदरादुपस्थात्
तेषां द्वारं द्वारपालो बुभूषेत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंके हाथ-पैर, वाणी, उदर और उपस्थ—ये चार द्वार हैं। इनका द्वारपाल होनेकी इच्छा करे अर्थात् इनपर संयम रखे। वह शास्त्रवाक्योंके अनुसार इन चारों द्वारोंके संयमसे प्राप्य ऋक्, यजुः, साम, अथर्वरूप चार मुखोंसे युक्त परमपुरुषको भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं अष्टाङ्गयोग—इन चार उपायोंसे प्राप्त करता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाक्षैर्दीव्येन्नाददीतान्यवित्तं
न वायोनीयस्य शृतं प्रगृह्णात्।
क्रुद्धो न चैव प्रहरेत धीमां-
स्तथास्य तत्पाणिपादं सुगुप्तम् ॥ २४ ॥
मूलम्
नाक्षैर्दीव्येन्नाददीतान्यवित्तं
न वायोनीयस्य शृतं प्रगृह्णात्।
क्रुद्धो न चैव प्रहरेत धीमां-
स्तथास्य तत्पाणिपादं सुगुप्तम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् पुरुष जूआ न खेले, दूसरोंका धन न ले, नीच पुरुषका बनाया हुआ अन्न न ग्रहण करे और क्रोधमें आकर किसीको मार न बैठे—ऐसा करनेसे उसके हाथ-पैर सुरक्षित रहते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाक्रोशमृच्छेन्न वृथा वदेच्च
न पैशुनं जनवादं च कुर्यात्।
सत्यव्रतो मितभाषोऽप्रमत्त-
स्तथास्य वाग्द्वारमथो सुगुप्तम् ॥ २५ ॥
मूलम्
नाक्रोशमृच्छेन्न वृथा वदेच्च
न पैशुनं जनवादं च कुर्यात्।
सत्यव्रतो मितभाषोऽप्रमत्त-
स्तथास्य वाग्द्वारमथो सुगुप्तम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसीको गाली न दे, व्यर्थ न बोले, दूसरोंकी चुगली या निन्दा न करे, मितभाषी हो, सत्य वचन बोले तथा इसके लिये सदा सावधान रहे—ऐसा करनेसे वाक्-इन्द्रियरूप द्वारकी रक्षा होती है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाशनः स्यान्न महाशनः स्या-
दलोलुपः साधुभिरागतः स्यात् ।
यात्रार्थमाहारमिहाददीत
तथास्य स्याज्जाठरी द्वारगुप्तिः ॥ २६ ॥
मूलम्
नानाशनः स्यान्न महाशनः स्या-
दलोलुपः साधुभिरागतः स्यात् ।
यात्रार्थमाहारमिहाददीत
तथास्य स्याज्जाठरी द्वारगुप्तिः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपवास न करे, किंतु बहुत अधिक भी न खाय, सदा भोजनके लिये लालायित न रहे। सज्जनोंका संग करे और जीवननिर्वाहके लिये जितना आवश्यक हो, उतना ही अन्न पेटमें डाले—इससे उदरद्वारका संरक्षण होता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वीर पत्नीं विहरेत नारीं
न चापि नारीमनृतावाह्वयीत ।
भार्याव्रतं ह्यात्मनि धारयीत
तथास्योपस्थद्वारगुप्तिर्भवेत ॥ २७ ॥
मूलम्
न वीर पत्नीं विहरेत नारीं
न चापि नारीमनृतावाह्वयीत ।
भार्याव्रतं ह्यात्मनि धारयीत
तथास्योपस्थद्वारगुप्तिर्भवेत ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर युधिष्ठिर! अपनी धर्मपत्नीके साथ ही विहार करे, परायी स्त्रीके साथ नहीं, अपनी स्त्रीको भी जबतक वह ऋतुस्नाता न हुई हो, समागमके लिये अपने पास न बुलाये और मनमें एकपत्नीव्रत धारण करे। ऐसा करनेसे उसके उपस्थ-द्वारकी रक्षा हो सकती है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वाराणि यस्य सर्वाणि सुगुप्तानि मनीषिणः।
उपस्थमुदरं बाहू वाक् चतुर्थी स वै द्विजः ॥ २८ ॥
मूलम्
द्वाराणि यस्य सर्वाणि सुगुप्तानि मनीषिणः।
उपस्थमुदरं बाहू वाक् चतुर्थी स वै द्विजः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस मनीषी पुरुषके उपस्थ, उदर, हाथ-पैर और वाणी—ये सभी द्वार पूर्णतः रक्षित हैं, वही वास्तवमें ब्राह्मण है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोघान्यगुप्तद्वारस्य सर्वाण्येव भवन्त्युत ।
किं तस्य तपसा कार्यं किं यज्ञेन किमात्मना ॥ २९ ॥
मूलम्
मोघान्यगुप्तद्वारस्य सर्वाण्येव भवन्त्युत ।
किं तस्य तपसा कार्यं किं यज्ञेन किमात्मना ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके ये द्वार सुरक्षित नहीं हैं, उसके सारे शुभ-कर्म निष्फल होते हैं, ऐसे मनुष्यको तपस्या, यज्ञ तथा आत्मचिन्तनसे क्या लाभ हो सकता है?॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुत्तरीयवसनमनुपस्तीर्णशायिनम् ।
बाहूपधानं शाम्यन्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३० ॥
मूलम्
अनुत्तरीयवसनमनुपस्तीर्णशायिनम् ।
बाहूपधानं शाम्यन्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके पास वस्त्रके नामपर एक लंगोटी मात्र है, ओढ़नेके लिये एक चादरतक नहीं है, जो बिना बिछौनेके ही सोता है, बाँहोंका ही तकिया लगाता है और सदा शान्तभावसे रहता है, उसीको देवता ब्राह्मण मानते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वन्द्वारामेषु सर्वेषु य एको रमते मुनिः।
परेषामननुध्यायंस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३१ ॥
मूलम्
द्वन्द्वारामेषु सर्वेषु य एको रमते मुनिः।
परेषामननुध्यायंस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मुनि शीत-उष्ण आदि सम्पूर्ण द्वन्द्वरूपी उपवनोंमें अकेला ही आनन्दपूर्वक रहता है और दूसरोंका चिन्तन नहीं करता, उसे देवतालोग ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) समझते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन सर्वमिदं बुद्धं प्रकृतिर्विकृतिश्च या।
गतिज्ञः सर्वभूतानां तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३२ ॥
मूलम्
येन सर्वमिदं बुद्धं प्रकृतिर्विकृतिश्च या।
गतिज्ञः सर्वभूतानां तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसको इस सम्पूर्ण जगत्की नश्वरताका ज्ञान है, जो प्रकृति और उसके विकारोंसे परिचित है तथा जिसे सम्पूर्ण भूतोंकी गतिका ज्ञान है, उसे देवतालोग ब्रह्मज्ञानी मानते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभयं सर्वभूतेभ्यः सर्वेषामभयं यतः।
सर्वभूतात्मभूतो यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अभयं सर्वभूतेभ्यः सर्वेषामभयं यतः।
सर्वभूतात्मभूतो यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण भूतोंसे निर्भय है, जिससे समस्त प्राणी भय नहीं मानते हैं तथा जो सब भूतोंका आत्मा है, उसीको देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्तरेणानुजानन्ति दानयज्ञक्रियाफलम् ।
अविज्ञाय च तत् सर्वमन्यद् रोचयते फलम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
नान्तरेणानुजानन्ति दानयज्ञक्रियाफलम् ।
अविज्ञाय च तत् सर्वमन्यद् रोचयते फलम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु मूढ़ मानव दान और यज्ञ-कर्मके फलके सिवा योग आदिके फलका अनुमोदन नहीं करते। वे उन मोक्षप्रद समस्त साधनोंके महत्त्वको न जाननेके कारण स्वर्ग आदि अन्य फलोंमें ही रुचि रखते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकर्मभिः संश्रितानां तपो घोरत्वमागतम्।
तं सदाचारमाश्रित्य पुराणं शाश्वतं ध्रुवम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
स्वकर्मभिः संश्रितानां तपो घोरत्वमागतम्।
तं सदाचारमाश्रित्य पुराणं शाश्वतं ध्रुवम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु उस पुराण, शाश्वत एवं ध्रुव यौगिक सदाचारका आश्रय लेकर अपने कर्तव्य कर्मोंमें परायण रहनेवाले ज्ञानियोंका तप उत्तरोत्तर तीव्रताको प्राप्त होता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशक्नुवन्तश्चरितुं किंचिद् धर्मेषु सूत्रितम्।
निरापद्धर्म आचारो ह्यप्रमादोऽपराभवः ॥ ३६ ॥
मूलम्
अशक्नुवन्तश्चरितुं किंचिद् धर्मेषु सूत्रितम्।
निरापद्धर्म आचारो ह्यप्रमादोऽपराभवः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रवृत्तिमार्गी मनुष्य योगशास्त्रके सूत्रोंमें कथित यम-नियमादिका अनुष्ठान नहीं कर सकते। वह यौगिक आचार आपत्तिशून्य, प्रमादरहित है। वह कामादिसे पराभवको नहीं प्राप्त होता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलवन्ति च कर्माणि व्युष्टिमन्ति ध्रुवाणि च।
विगुणानि च पश्यन्ति तथानैकान्तिकानि च ॥ ३७ ॥
मूलम्
फलवन्ति च कर्माणि व्युष्टिमन्ति ध्रुवाणि च।
विगुणानि च पश्यन्ति तथानैकान्तिकानि च ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगशास्त्रमें कथित कर्म श्रेष्ठ फल देनेवाले, उन्नति करनेवाले एवं स्थायी हैं; तो भी प्रवृत्तिमार्गी मनुष्य उनको गुणरहित (निष्फल) और अस्थिर समझते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणाश्चात्र सुदुर्ज्ञेया ज्ञाताश्चात्र सुदुष्कराः।
अनुष्ठिताश्चान्तवन्त इति त्वमनुपश्यसि ॥ ३८ ॥
मूलम्
गुणाश्चात्र सुदुर्ज्ञेया ज्ञाताश्चात्र सुदुष्कराः।
अनुष्ठिताश्चान्तवन्त इति त्वमनुपश्यसि ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुणोंके कार्यभूत जो यज्ञ-यागादि हैं, उनके स्वरूप और विधि-विधानको समझना बहुत कठिन है। समझ लेनेपर भी उनका अनुष्ठान करना तो और भी कठिन है। यदि अनुष्ठान भी किया जाय तो भी उनसे नाशवान् फलकी ही प्राप्ति होती है। इन सब बातोंको तुम भी देखते और समझते हो॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
स्यूमरश्मिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च वेदप्रामाण्यं त्यागश्च सफलो यथा।
तौ पन्थानावुभौ व्यक्तौ भगवंस्तद् वदस्व मे ॥ ३९ ॥
मूलम्
यथा च वेदप्रामाण्यं त्यागश्च सफलो यथा।
तौ पन्थानावुभौ व्यक्तौ भगवंस्तद् वदस्व मे ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्यूमरश्मिने कहा— भगवन्! ‘कर्म करो’ और ‘कर्म छोड़ो’ ये जो परस्परविरुद्ध दो स्पष्ट मार्ग हैं, इनका उपदेश करनेवाले वेदकी प्रामाणिकताका निर्वाह कैसे हो? तथा त्याग कैसे सफल होता है? यह आप मुझको बताइये॥३९॥
मूलम् (वचनम्)
कपिल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षमिह पश्यन्ति भवन्तः सत्पथे स्थिताः।
प्रत्यक्षं तु किमत्रास्ति यद् भवन्त उपासते ॥ ४० ॥
मूलम्
प्रत्यक्षमिह पश्यन्ति भवन्तः सत्पथे स्थिताः।
प्रत्यक्षं तु किमत्रास्ति यद् भवन्त उपासते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपिलने कहा— आपलोग सन्मार्गमें स्थित रहकर यहाँ योगमार्गके फलका प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं; परंतु कर्ममार्गमें रहकर आपलोग जिस यज्ञकी उपासना करते हैं, उससे यहाँ कौन-सा प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है?॥४०॥
मूलम् (वचनम्)
स्यूमरश्मिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्यूमरश्मिरहं ब्रह्मन् जिज्ञासार्थमिहागतः ।
श्रेयस्कामः प्रत्यवोचमार्जवान्न विवक्षया ॥ ४१ ॥
मूलम्
स्यूमरश्मिरहं ब्रह्मन् जिज्ञासार्थमिहागतः ।
श्रेयस्कामः प्रत्यवोचमार्जवान्न विवक्षया ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्यूमरश्मिने कहा— ब्रह्मन्! मेरा नाम स्यूमरश्मि है। मैं ज्ञान-प्राप्तिकी इच्छासे यहाँ आया हूँ। मैंने कल्याणकी इच्छा रखकर सरल भावसे ही अपनी बातें आपकी सेवामें उपस्थित की हैं, वाद-विवादकी इच्छासे नहीं॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं च संशयं घोरं भगवान् प्रब्रवीतु मे।
प्रत्यक्षमिह पश्यन्तो भवन्तः सत्यथे स्थिताः।
किमत्र प्रत्यक्षतमं भवन्तो यदुपासते ॥ ४२ ॥
अन्यत्र तर्कशास्त्रेभ्य आगमार्थं यथागमम्।
मूलम्
इमं च संशयं घोरं भगवान् प्रब्रवीतु मे।
प्रत्यक्षमिह पश्यन्तो भवन्तः सत्यथे स्थिताः।
किमत्र प्रत्यक्षतमं भवन्तो यदुपासते ॥ ४२ ॥
अन्यत्र तर्कशास्त्रेभ्य आगमार्थं यथागमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे मनमें एक भयानक संशय उठ खड़ा हुआ है, इसे आप ही मिटा सकते हैं। आपने कहा था कि तुम सन्मार्गमें स्थित रहकर यहाँ योगमार्गके फलका प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हो। मैं पूछता हूँ कि आप जिसकी उपासना करते हैं, यहाँ उसका अत्यन्त प्रत्यक्ष फल क्या है? आप उसका तर्कका सहारा न लेकर प्रतिपादन कीजिये, जिससे मैं आगमके अर्थको जान सकूँ॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगमो वेदवादास्तु तर्कशास्त्राणि चागमः ॥ ४३ ॥
मूलम्
आगमो वेदवादास्तु तर्कशास्त्राणि चागमः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदमतका अनुसरण करनेवाले शास्त्र तो आगम हैं ही, तर्कशास्त्र (वेदोंके अर्थका निर्णय करनेवाले पूर्वोत्तर मीमांसा आदि) भी आगम हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाश्रममुपासीत आगमस्तत्र सिध्यति ।
सिद्धिः प्रत्यक्षरूपा च दृश्यत्यागमनिश्चयात् ॥ ४४ ॥
मूलम्
यथाश्रममुपासीत आगमस्तत्र सिध्यति ।
सिद्धिः प्रत्यक्षरूपा च दृश्यत्यागमनिश्चयात् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस-जिस आश्रममें जो-जो धर्म विहित है, वहाँ-वहाँ उसी-उसी धर्मकी उपासना करनी चाहिये। उस-उस स्थानपर उसी-उसी धर्मका आचरण करनेसे वहाँ आगम सफल होता है। एवं शास्त्रके निश्चयसे ही सिद्धिका प्रत्यक्ष दर्शन होता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नौर्नावीव निबद्धा हि स्रोतसा सनिबन्धना।
ह्रियमाणा कथं विप्र कुबुद्धींस्तारयिष्यति।
एतद् ब्रवीतु भगवानुपपन्नोऽस्म्यधीहि भोः ॥ ४५ ॥
मूलम्
नौर्नावीव निबद्धा हि स्रोतसा सनिबन्धना।
ह्रियमाणा कथं विप्र कुबुद्धींस्तारयिष्यति।
एतद् ब्रवीतु भगवानुपपन्नोऽस्म्यधीहि भोः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे एक जगह जानेवाली नावमें दूसरी जगह जानेवाली नाव बाँध दी जाय तो वह जलके स्रोतसे अपहृत हो किसीको गन्तव्य स्थानतक नहीं पहुँचा सकती, उसी प्रकार पूर्वजन्मके कर्मोंकी वासनासे बँधी हुई हमारी कर्ममयी नौका हम कुबुद्धि पुरुषोंको कैसे भवसागरसे पार उतारेगी? भगवन्! यह आप मुझे बताइये, मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मुझे उपदेश दीजिये॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव त्यागी न संतुष्टो नाशोको न निरामयः।
न निर्विधित्सो नावृत्तो नापवृत्तोऽस्ति कश्चन ॥ ४६ ॥
मूलम्
नैव त्यागी न संतुष्टो नाशोको न निरामयः।
न निर्विधित्सो नावृत्तो नापवृत्तोऽस्ति कश्चन ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वास्तवमें इस जगत्के भीतर न कोई त्यागी है न संतुष्ट, न शोकहीन है न नीरोग। न तो कोई पुरुष कर्म करनेकी इच्छासे सर्वथा शून्य है, न आसक्तिसे रहित है और न सर्वथा कर्मका त्यागी ही है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्तोऽपि च हृष्यन्ति शोचन्ति च यथा वयम्।
इन्द्रियार्थाश्च भवतां समानाः सर्वजन्तुषु ॥ ४७ ॥
मूलम्
भवन्तोऽपि च हृष्यन्ति शोचन्ति च यथा वयम्।
इन्द्रियार्थाश्च भवतां समानाः सर्वजन्तुषु ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप भी हमलोगोंकी ही भाँति हर्ष और शोक प्रकट करते हैं। समस्त प्राणियोंके समान आपके समक्ष भी शब्द, स्पर्श आदि विषय उपस्थित और गृहीत होते हैं॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां प्रवृत्तिषु।
एकमालम्बमानानां निर्णये किं निरामयम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
एवं चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां प्रवृत्तिषु।
एकमालम्बमानानां निर्णये किं निरामयम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार चारों वर्णों और आश्रमोंके लोग सभी प्रवृत्तियोंमें एकमात्र सुखका ही आश्रय लेते हैं—उसीको अपना लक्ष्य बनाकर चलते हैं, अतः सिद्धान्ततः अक्षय सुख क्या है, यह बताइये॥४८॥
मूलम् (वचनम्)
कपिल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यदाचरते शास्त्रमर्थ्यं सर्वप्रवृत्तिषु।
यस्य यत्र ह्यनुष्ठानं तत्र तत्र निरामयम् ॥ ४९ ॥
मूलम्
यद् यदाचरते शास्त्रमर्थ्यं सर्वप्रवृत्तिषु।
यस्य यत्र ह्यनुष्ठानं तत्र तत्र निरामयम् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपिलने कहा— जो-जो शास्त्र जिस-जिस अर्थका आचरण—प्रतिपादन करता है, वह-वह सभी प्रवृत्तियोंमें सफल होता है। जिस साधनका जहाँ अनुष्ठान होता है, वहाँ-वहाँ अक्षय सुखकी प्राप्ति होती है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानं प्लावयते सर्वं यो ज्ञानं ह्यनुवर्तते।
ज्ञानादपेत्य या वृत्तिः सा विनाशयति प्रजाः ॥ ५० ॥
मूलम्
ज्ञानं प्लावयते सर्वं यो ज्ञानं ह्यनुवर्तते।
ज्ञानादपेत्य या वृत्तिः सा विनाशयति प्रजाः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ज्ञानका अनुसरण करता है, ज्ञान उसके समस्त संसारबन्धनका नाश कर देता है। बिना ज्ञानकी जो प्रवृत्ति होती है, वह प्रजाको जन्म और मरणके चक्करमें डालकर उसका विनाश कर देती है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्तो ज्ञानिनो व्यक्तं सर्वतश्च निरामयाः।
ऐकात्म्यं नाम कश्चिद्धि कदाचिदुपपद्यते ॥ ५१ ॥
मूलम्
भवन्तो ज्ञानिनो व्यक्तं सर्वतश्च निरामयाः।
ऐकात्म्यं नाम कश्चिद्धि कदाचिदुपपद्यते ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपलोग ज्ञानी हैं, यह बात सर्वविदित है। आप सब ओरसे नीरोग भी हैं; परंतु क्या आपलोगोंमेंसे कोई भी किसी भी कालमें एकात्मताको प्राप्त हुआ है? (जब एकमात्र अद्वितीय आत्मा अर्थात् ब्रह्मकी ही सत्ताका सर्वत्र बोध होने लगे, तब उसे एकात्मताका ज्ञान कहते हैं)॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शास्त्रं ह्यबुद्ध्वा तत्त्वेन केचिद् वादबलाज्जनाः।
कामद्वेषाभिभूतत्वादहङ्कारवशं गताः ॥ ५२ ॥
मूलम्
शास्त्रं ह्यबुद्ध्वा तत्त्वेन केचिद् वादबलाज्जनाः।
कामद्वेषाभिभूतत्वादहङ्कारवशं गताः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रको यथार्थरूपसे न जानकर कुछ लोग वितण्डावादके ही बलसे राग-द्वेषसे अभिभूत होनेके कारण अहंकारके अधीन हो गये हैं॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याथातथ्यमविज्ञाय शास्त्राणां शास्त्रदस्यवः ।
ब्रह्मस्तेना निरारम्भा दम्भमोहवशानुगाः ॥ ५३ ॥
मूलम्
याथातथ्यमविज्ञाय शास्त्राणां शास्त्रदस्यवः ।
ब्रह्मस्तेना निरारम्भा दम्भमोहवशानुगाः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे शास्त्रोंके यथार्थ तात्पर्यको न जाननेके कारण शास्त्रदस्यु (शास्त्रोंके अर्थपर डाका डालनेवाले लुटेरे) कहे जाते हैं। सर्वव्यापी ब्रह्मका भी अपलाप करनेके कारण ब्रह्मचोरकी पदवीसे विभूषित होते हैं। शम-दम आदि साधनोंका कभी अनुष्ठान नहीं करते हैं तथा दम्भ और मोहके वशमें पड़े रहते हैं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैर्गुण्यमेव पश्यन्ति न गुणाननुयुञ्जते।
तेषां तमःशरीराणां तम एव परायणम् ॥ ५४ ॥
मूलम्
नैर्गुण्यमेव पश्यन्ति न गुणाननुयुञ्जते।
तेषां तमःशरीराणां तम एव परायणम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे शम-दम आदि साधनोंको सदा निष्फल ही देखते और समझते हैं। ज्ञान, ऐश्वर्य आदि सद्गुणोंकी जिज्ञासा नहीं करते हैं। उन तमोमय शरीरवाले पुरुषोंका तमोगुण ही सबसे बड़ा अवलम्ब है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो यथाप्रकृतिर्जन्तुः प्रकृतेः स्याद् वशानुगः।
तस्य द्वेषश्च कामश्च क्रोधो दम्भोऽनृतं मदः।
नित्यमेवाभिवर्तन्ते गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ॥ ५५ ॥
मूलम्
यो यथाप्रकृतिर्जन्तुः प्रकृतेः स्याद् वशानुगः।
तस्य द्वेषश्च कामश्च क्रोधो दम्भोऽनृतं मदः।
नित्यमेवाभिवर्तन्ते गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्राणीकी जैसी प्रकृति होती है, उस प्रकृतिके वह अधीन होता है। उसके भीतर द्वेष, काम, क्रोध, दम्भ, असत्य और मद—ये प्रकृतिजनित गुण सदा ही विद्यमान रहते हैं॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ध्यात्वानुपश्यन्तः संत्यजेयुः शुभाशुभम्।
परां गतिमभीप्सन्तो यतयः संयमे रताः ॥ ५६ ॥
मूलम्
एवं ध्यात्वानुपश्यन्तः संत्यजेयुः शुभाशुभम्।
परां गतिमभीप्सन्तो यतयः संयमे रताः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम गति प्राप्त करनेकी इच्छावाले संयमशील यति इस प्रकार सोच-विचारकर शुभ और अशुभ दोनोंका परित्याग कर देते हैं॥५६॥
मूलम् (वचनम्)
स्यूमरश्मिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमेतन्मया ब्रह्मन् शास्त्रतः परिकीर्तितम्।
न ह्यविज्ञाय शास्त्रार्थं प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः ॥ ५७ ॥
मूलम्
सर्वमेतन्मया ब्रह्मन् शास्त्रतः परिकीर्तितम्।
न ह्यविज्ञाय शास्त्रार्थं प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्यूमरश्मिने कहा— ब्रह्मन्! मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, वह सब शास्त्रसे प्रतिपादित है; क्योंकि शास्त्रके अर्थको जाने बिना किसीकी किसी भी कार्यमें प्रवृत्ति नहीं होती॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः कश्चिन्न्याय्य आचारः सर्वं शास्त्रमिति श्रुतिः।
यदन्याय्यमशास्त्रं तदित्येषा श्रूयते श्रुतिः ॥ ५८ ॥
मूलम्
यः कश्चिन्न्याय्य आचारः सर्वं शास्त्रमिति श्रुतिः।
यदन्याय्यमशास्त्रं तदित्येषा श्रूयते श्रुतिः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कोई भी न्यायोचित आचार है, वह सब शास्त्र है, ऐसा श्रुतिका कथन है। जो अन्यायपूर्ण बर्ताव है, वह अशास्त्रीय है, ऐसी श्रुति भी सुनी जाती है॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न प्रवृत्तिर्ऋते शास्त्रात् काचिदस्तीति निश्चयः।
यदन्यद् वेदवादेभ्यस्तदशास्त्रमिति श्रुतिः ॥ ५९ ॥
मूलम्
न प्रवृत्तिर्ऋते शास्त्रात् काचिदस्तीति निश्चयः।
यदन्यद् वेदवादेभ्यस्तदशास्त्रमिति श्रुतिः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रके बिना अर्थात् शास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन करके कोई प्रवृत्ति सफल नहीं हो सकती, यह विद्वानोंका निश्चय है। जो वैदिक वचनोंके विरुद्ध है, वह सब अशास्त्रीय है, ऐसा श्रुतिका कथन है॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शास्त्रादपेतं पश्यन्ति बहवो व्यक्तमानिनः।
शास्त्रदोषान् न पश्यन्ति शोचन्ति च यथा वयम्।
इन्द्रियार्थाश्च भवतां समानाः सर्वजन्तुषु ॥ ६० ॥
मूलम्
शास्त्रादपेतं पश्यन्ति बहवो व्यक्तमानिनः।
शास्त्रदोषान् न पश्यन्ति शोचन्ति च यथा वयम्।
इन्द्रियार्थाश्च भवतां समानाः सर्वजन्तुषु ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से मनुष्य प्रत्यक्षको ही माननेवाले हैं। वे शास्त्रसे पृथक् इहलोकपर ही दृष्टि रखते हैं। शास्त्रोक्त दोषोंको नहीं देखते हैं और जैसे हमलोग शोक करते हैं, वैसे ही वे भी अवैदिकमतका आश्रय लेकर शोक किया करते हैं। आप-जैसे ज्ञानियोंको भी सब जन्तुओंके समान ही इन्द्रियोंके विषयोंका अनुभव होता है॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां प्रवृत्तिषु।
एकमालम्बमानानां निर्णये सर्वतोदिशम् ॥ ६१ ॥
आनन्त्यं वदमानेन शक्तेनावर्जितात्मना ।
अविज्ञानहतप्रज्ञा हीनप्रज्ञास्तमोवृताः ॥ ६२ ॥
मूलम्
एवं चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां प्रवृत्तिषु।
एकमालम्बमानानां निर्णये सर्वतोदिशम् ॥ ६१ ॥
आनन्त्यं वदमानेन शक्तेनावर्जितात्मना ।
अविज्ञानहतप्रज्ञा हीनप्रज्ञास्तमोवृताः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार चारों वर्णों और आश्रमोंकी जो प्रवृत्तियाँ हैं, उनमें लगे हुए मनुष्य एकमात्र सुखका ही आश्रय लेते हैं—उसे ही प्राप्त करना चाहते हैं। उनमेंसे हम-जैसे लोग अज्ञानसे हतबुद्धि, तुच्छ विषयोंमें मन लगानेवाले तथा तमोगुणसे आवृत हैं। आप ऊहापोह करनेमें समर्थ-कुशल हैं, अतः सार्वदेशिक सिद्धान्तके रूपमें मोक्षसुखकी अनन्तता बताकर आपने मनसे हमें शान्ति पहुँचायी है॥६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्यं त्वेकेन युक्तेन कृतकृत्येन सर्वशः।
पिण्डमात्रं व्यपाश्रित्य चरितुं विजितात्मना ॥ ६३ ॥
वेदवादं व्यपाश्रित्य मोक्षोऽस्तीति प्रभाषितुम्।
अपेतन्यायशास्त्रेण सर्वलोकविगर्हिणा ॥ ६४ ॥
मूलम्
शक्यं त्वेकेन युक्तेन कृतकृत्येन सर्वशः।
पिण्डमात्रं व्यपाश्रित्य चरितुं विजितात्मना ॥ ६३ ॥
वेदवादं व्यपाश्रित्य मोक्षोऽस्तीति प्रभाषितुम्।
अपेतन्यायशास्त्रेण सर्वलोकविगर्हिणा ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आपके समान एकाकी, योगयुक्त, कृतकृत्य और मनपर विजय पानेवाला है तथा जो केवल शरीरका अथवा उसकी रक्षाके लिये स्वल्प भिक्षान्नमात्रका सहारा लेकर सम्पूर्ण दिशाओंमें विचरण कर सकता है, जिसने न्यायशास्त्रका परित्याग कर दिया है तथा जो सम्पूर्ण संसारको नाशवान् होनेके कारण गर्हित समझता है, ऐसा पुरुष ही वेद-वाक्योंका आश्रय लेकर ‘मोक्ष है’ यह साधिकार कह सकता है॥६३-६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं तु दुष्करं कर्म कुटुम्बमभिसंश्रितम्।
दानमध्ययनं यज्ञः प्रजासंतानमार्जवम् ॥ ६५ ॥
मूलम्
इदं तु दुष्करं कर्म कुटुम्बमभिसंश्रितम्।
दानमध्ययनं यज्ञः प्रजासंतानमार्जवम् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थाश्रमके अनुसार जो यह कुटुम्बके भरण-पोषणसे सम्बन्ध रखनेवाला कार्य है तथा दान, स्वाध्याय, यज्ञ, संतानोत्पादन एवं सदा सरल और कोमल भावसे बर्ताव करना रूप जो कर्म है, यह सब मनुष्यके लिये अत्यन्त दुष्कर है॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येतदेवं कृत्वापि न विमोक्षोऽस्ति कस्यचित्।
धिक् कर्तारं च कार्यं च श्रमश्चायं निरर्थकः ॥ ६६ ॥
मूलम्
यद्येतदेवं कृत्वापि न विमोक्षोऽस्ति कस्यचित्।
धिक् कर्तारं च कार्यं च श्रमश्चायं निरर्थकः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यह सब दुष्कर कर्म करके भी किसीको मोक्ष नहीं प्राप्त हुआ तो कर्ताको धिक्कार है। उसके उस कार्यको धिक्कार है। और इसमें जो परिश्रम हुआ, वह व्यर्थ हो गया॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्तिक्यमन्यथा च स्याद् वेदानां पृष्ठतः क्रिया।
एतस्यानन्त्यमिच्छामि भगवन् श्रोतुमञ्जसा ॥ ६७ ॥
मूलम्
नास्तिक्यमन्यथा च स्याद् वेदानां पृष्ठतः क्रिया।
एतस्यानन्त्यमिच्छामि भगवन् श्रोतुमञ्जसा ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कर्मकाण्डको व्यर्थ समझकर छोड़ दिया जाय तो यह नास्तिकता और वेदोंकी अवहेलना होगी; अतः भगवन्! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि कर्मकाण्ड किस प्रकार सुगमतापूर्वक मोक्षका साधक होगा?॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वं वदस्व मे ब्रह्मन्नुपसन्नोऽस्म्यधीहि भोः।
यथा ते विदितो मोक्षस्तथेच्छाम्युपशिक्षितुम् ॥ ६८ ॥
मूलम्
तत्त्वं वदस्व मे ब्रह्मन्नुपसन्नोऽस्म्यधीहि भोः।
यथा ते विदितो मोक्षस्तथेच्छाम्युपशिक्षितुम् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! आप मुझे तत्त्वकी बात बताइये। मैं शिष्यभावसे आपकी शरणमें आया हूँ। गुरुदेव! मुझे उपदेश कीजिये। आपको मोक्षके स्वरूपका जैसा ज्ञान है, वैसा ही मैं भी सीखना और जानना चाहता हूँ॥६८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि गोकपिलीये एकोनसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें गोकपिलीयोपाख्यानविषयक दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६९॥