भागसूचना
अष्टषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
स्यूमरश्मि और कपिलका संवाद—स्यूमरश्मिके द्वारा यज्ञकी अवश्यकर्तव्यताका निरूपण
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविरोधेन भूतानां योगः षाड्गुण्यकारकः।
यः स्यादुभयभाग्धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
अविरोधेन भूतानां योगः षाड्गुण्यकारकः।
यः स्यादुभयभाग्धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! प्राणियोंका विरोध (अहित) न करते हुए मनुष्योंको शम-दमादि छहों गुणोंकी प्राप्ति करानेवाला जो योग है तथा जो भोग और मोक्ष दोनों फलोंको प्राप्त करानेवाला धर्म है, वह मुझे बतलाइये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गार्हस्थ्यस्य च धर्मस्य योगधर्मस्य चोभयोः।
अदूरसम्प्रस्थितयोः किंस्विच्छ्रेयः पितामह ॥ २ ॥
मूलम्
गार्हस्थ्यस्य च धर्मस्य योगधर्मस्य चोभयोः।
अदूरसम्प्रस्थितयोः किंस्विच्छ्रेयः पितामह ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दादाजी! गार्हस्थ्यधर्म और योगधर्म दोनों एक दूसरेसे दूर नहीं हैं, तथापि उन दोनोंमेंसे कौन श्रेष्ठ है? यह बतानेकी कृपा करें॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभौ धर्मौ महाभागावुभौ परमदुश्चरौ।
उभौ महाफलौ तौ तु सद्भिराचरितावुभौ ॥ ३ ॥
मूलम्
उभौ धर्मौ महाभागावुभौ परमदुश्चरौ।
उभौ महाफलौ तौ तु सद्भिराचरितावुभौ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! गार्हस्थ्य और योगधर्म दोनों महान् सौभाग्य प्रदान करनेवाले हैं, दोनों अत्यन्त दुष्कर हैं। दोनोंके ही फल महान् हैं और दोनोंका ही श्रेष्ठ पुरुषोंने आचरण किया है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते वर्तयिष्यामि प्रामाण्यमुभयोस्तयोः।
शृणुष्वैकमनाः पार्थ च्छिन्नधर्मार्थसंशयम् ॥ ४ ॥
मूलम्
अत्र ते वर्तयिष्यामि प्रामाण्यमुभयोस्तयोः।
शृणुष्वैकमनाः पार्थ च्छिन्नधर्मार्थसंशयम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! मैं तुम्हें इन दोनों धर्मोंकी प्रामाणिकताका प्रतिपादन करूँगा और तुम्हारे धर्म तथा अर्थविषयक संदेहको मिटा दूँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
कपिलस्य गोश्च संवादं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ५ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
कपिलस्य गोश्च संवादं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार लोग महर्षि कपिल और गौके भीतर आविष्ट हुए स्यूमरश्मिके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आम्नायमनुपश्यन् हि पुराणं शाश्वतं ध्रुवम्।
नहुषः पूर्वमालेभे त्वष्टुर्गामिति नः श्रुतम् ॥ ६ ॥
मूलम्
आम्नायमनुपश्यन् हि पुराणं शाश्वतं ध्रुवम्।
नहुषः पूर्वमालेभे त्वष्टुर्गामिति नः श्रुतम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने सुना है कि पूर्वकालमें राजा नहुषने वेदके अनुशासनको प्राचीन, सनातन एवं नित्य समझकर अपने घरपर आये हुए अतिथि त्वष्टाके लिये एक गायका आलम्भ करनेका विचार किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां नियुक्तामदीनात्मा सत्त्वस्थः संयमे रतः।
ज्ञानवान् नियताहारो ददर्श कपिलस्तथा ॥ ७ ॥
मूलम्
तां नियुक्तामदीनात्मा सत्त्वस्थः संयमे रतः।
ज्ञानवान् नियताहारो ददर्श कपिलस्तथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सत्त्वगुणमें स्थित, संयमपरायण, मिताहारी, उदारचित्त और ज्ञानवान् कपिलमुनिने त्वष्टाके लिये नियुक्त हुई उस गायको देखा॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बुद्धिमुत्तमां प्राप्तो नैष्ठिकीमकुतोभयाम्।
सतीमशिथिलां सत्यां वेदा३ इत्यब्रवीत् सकृत् ॥ ८ ॥
मूलम्
स बुद्धिमुत्तमां प्राप्तो नैष्ठिकीमकुतोभयाम्।
सतीमशिथिलां सत्यां वेदा३ इत्यब्रवीत् सकृत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उत्तम, निर्भय, सुस्थिर, सत्य, सद्भावयुक्त एवं उत्साहयुक्त बुद्धिको प्राप्त हुए महर्षि कपिलने केवल एक बार इतना ही कहा—हा वेद! (जो तुम्हारे नामपर लोग ऐसा अनाचार करते हैं)॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां गामृषिः स्यूमरश्मि प्रविश्य यतिमब्रवीत्।
हंहो वेदा३ यदि मता धर्माः केनापरे मताः ॥ ९ ॥
मूलम्
तां गामृषिः स्यूमरश्मि प्रविश्य यतिमब्रवीत्।
हंहो वेदा३ यदि मता धर्माः केनापरे मताः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय स्यूमरश्मि नामक एक ऋषिने उस गायके भीतर प्रवेश करके कपिलमुनिसे कहा—‘अहो! यदि वेदोंकी प्रामाणिकतापर आपको संदेह है तो अन्य धर्मशास्त्रोंको किस आधारपर प्रमाणभूत माना जा सकता है?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्विनो धृतिमन्तः श्रुतिविज्ञानचक्षुषः ।
सर्वमार्षं हि मन्यन्ते व्याहृतं विदितात्मनः ॥ १० ॥
मूलम्
तपस्विनो धृतिमन्तः श्रुतिविज्ञानचक्षुषः ।
सर्वमार्षं हि मन्यन्ते व्याहृतं विदितात्मनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तपस्वी, धैर्यवान्, वेद एवं विज्ञानरूप दृष्टिवाले ऋषिमुनि वेदको नित्यज्ञानसम्पन्न परमेश्वरकी निःश्वासभूत वाणी मानते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैवं गततृष्णस्य विज्वरस्य निराशिषः।
का विवक्षास्ति वेदेषु निरारम्भस्य सर्वतः ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्यैवं गततृष्णस्य विज्वरस्य निराशिषः।
का विवक्षास्ति वेदेषु निरारम्भस्य सर्वतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो तृष्णारहित, उद्वेगशून्य, निष्काम तथा सब प्रकारके आरम्भोंसे रहित है, उस परमेश्वरके निःश्वाससे निःसृत वेदोंके विषयमें आप विपरीत वचन क्यों कह रहे हैं?’॥११॥
मूलम् (वचनम्)
कपिल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं वेदान् विनिन्दामि न विवक्ष्यामि कर्हिचित्।
पृथगाश्रमिणां कर्माण्येकार्थानीति नः श्रुतम् ॥ १२ ॥
मूलम्
नाहं वेदान् विनिन्दामि न विवक्ष्यामि कर्हिचित्।
पृथगाश्रमिणां कर्माण्येकार्थानीति नः श्रुतम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपिलने कहा— मैं न तो वेदोंकी निन्दा करता हूँ और न कभी उन्हें विपरीत बात बतानेवाला बताता हूँ। पृथक्-पृथक् आश्रमवालोंके जो कर्म हैं, उन सबके उद्देश्य एक ही हैं—ऐसा हमने सुन रखा है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छत्येव परित्यागी वानप्रस्थश्च गच्छति।
गृहस्थो ब्रह्मचारी च उभौ तावपि गच्छतः ॥ १३ ॥
मूलम्
गच्छत्येव परित्यागी वानप्रस्थश्च गच्छति।
गृहस्थो ब्रह्मचारी च उभौ तावपि गच्छतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासी परमपदको प्राप्त कर सकता है, वानप्रस्थ भी वहीं जा सकता है। गृहस्थ और ब्रह्मचारी—ये दोनों भी उसी पदको प्राप्त हो सकते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवयाना हि पन्थानश्चत्वारः शाश्वता मताः।
एषां ज्यायः कनीयस्त्वं फलेषूक्तं बलाबलम् ॥ १४ ॥
मूलम्
देवयाना हि पन्थानश्चत्वारः शाश्वता मताः।
एषां ज्यायः कनीयस्त्वं फलेषूक्तं बलाबलम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चारों आश्रम ही देवयाननामक चार सनातन मार्ग माने गये हैं। इनमें कौन बड़ा है कौन छोटा; अतः कौन प्रबल है, कौन दुर्बल—यह उनके फलोंको निमित्त बनाकर बताया गया है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विदित्वा सर्वार्थानारभेतेति वैदिकम्।
नारभेतेति चान्यत्र नैष्ठिकी श्रूयते श्रुतिः ॥ १५ ॥
मूलम्
एवं विदित्वा सर्वार्थानारभेतेति वैदिकम्।
नारभेतेति चान्यत्र नैष्ठिकी श्रूयते श्रुतिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा जानकर समस्त कार्योंका आरम्भ करे, यह वैदिक मत है। अन्यत्र यह सिद्धान्तभूत श्रुति भी सुनी जाती है कि कर्मोंका आरम्भ ही न करे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनालम्भे ह्यदोषः स्यादालम्भे दोष उत्तमः।
एवं स्थितस्य शास्त्रस्य दुर्विज्ञेयं बलाबलम् ॥ १६ ॥
मूलम्
अनालम्भे ह्यदोषः स्यादालम्भे दोष उत्तमः।
एवं स्थितस्य शास्त्रस्य दुर्विज्ञेयं बलाबलम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि यज्ञ आदि कार्योंमें आलम्भन न करनेपर दोषकी प्राप्ति नहीं होती है और आलम्भन करनेपर महान् दोष प्राप्त होता है। ऐसी स्थितिमें वेदवचनोंके बलाबलको जानना अत्यन्त कठिन है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यत्र किंचित् प्रत्यक्षमहिंसायाः परं मतम्।
ऋते त्वागमशास्त्रेभ्यो ब्रूहि तद् यदि पश्यसि ॥ १७ ॥
मूलम्
यद्यत्र किंचित् प्रत्यक्षमहिंसायाः परं मतम्।
ऋते त्वागमशास्त्रेभ्यो ब्रूहि तद् यदि पश्यसि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदों और तदनुकूल आगमोंको छोड़कर अन्यत्र अहिंसासे भिन्न हिंसाबोधक शास्त्रका कोई फल यदि युक्तिसे भी प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाला प्रतीत होता हो अथवा तुम अनुभवमें उसका साक्षात्कार कर रहे हो तो उसे स्पष्ट बताओ॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
स्यूमरश्मिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गकामो यजेतेति सततं श्रूयते श्रुतिः।
फलं प्रकल्प्य पूर्वं हि ततो यज्ञः प्रतायते ॥ १८ ॥
मूलम्
स्वर्गकामो यजेतेति सततं श्रूयते श्रुतिः।
फलं प्रकल्प्य पूर्वं हि ततो यज्ञः प्रतायते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्यूमरश्मिने कहा— ‘स्वर्गकी इच्छा रखनेवाला पुरुष यज्ञ करे’ यह श्रुति सदा ही सुनी जाती है। अतः मनुष्य पहले स्वर्गरूप फलकी कल्पना (संकल्प) करके फिर यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ करता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजश्चाश्वश्च मेषश्च गौश्च पक्षिगणाश्च ये।
ग्राम्यारण्याश्चौषधयः प्राणस्यान्नमिति श्रुतिः ॥ १९ ॥
मूलम्
अजश्चाश्वश्च मेषश्च गौश्च पक्षिगणाश्च ये।
ग्राम्यारण्याश्चौषधयः प्राणस्यान्नमिति श्रुतिः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बकरा, घोड़ा, भेड़, गाय, पक्षी, ग्राम्य अन्न तथा जंगली अन्न आदि सारी वस्तुएँ प्राणके लिये अन्न हैं—ऐसा श्रुतिका कथन है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवान्नं ह्यहरहः सायंप्रातर्निरूप्यते ।
पशवश्चाथ धान्यं च यज्ञस्याङ्गमिति श्रुतिः ॥ २० ॥
मूलम्
तथैवान्नं ह्यहरहः सायंप्रातर्निरूप्यते ।
पशवश्चाथ धान्यं च यज्ञस्याङ्गमिति श्रुतिः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतिदिन सबेरे-शाम अन्नको प्राणका भोज्य बताया गया है। पशु और धान्य—ये यज्ञके अंग हैं, ऐसा श्रुति कहती है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतानि सह यज्ञेन प्रजापतिरकल्पयत्।
तेन प्रजापतिर्देवान् यज्ञेनायजत प्रभुः ॥ २१ ॥
मूलम्
एतानि सह यज्ञेन प्रजापतिरकल्पयत्।
तेन प्रजापतिर्देवान् यज्ञेनायजत प्रभुः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् प्रजापतिने यज्ञके साथ-साथ इन सबकी सृष्टि की। फिर उन प्रजापतिने ही इन यज्ञसामग्रियोंद्वारा देवताओंसे यज्ञका अनुष्ठान कराया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदन्योन्यवराः सर्वे प्राणिनः सप्त सप्तधा।
यज्ञेषूपाकृतं विश्वं प्राहुरुत्तमसंज्ञितम् ॥ २२ ॥
मूलम्
तदन्योन्यवराः सर्वे प्राणिनः सप्त सप्तधा।
यज्ञेषूपाकृतं विश्वं प्राहुरुत्तमसंज्ञितम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सात-सात प्रकारके जो ग्राम्य और आरण्य (जंगली) प्राणी हैं, वे सब एक-दूसरेकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। इन सबमें ‘उत्तम’ नामसे प्रसिद्ध जो सब-के-सब पुरुष या मनुष्यसंज्ञक प्राणी हैं, उन्हें भी यज्ञके लिये नियुक्त बताया गया है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्चैवाभ्यनुज्ञातं पूर्वैः पूर्वतरैस्तथा ।
को जातु न विचिन्वीत विद्वान् स्वां शक्तिमात्मनः ॥ २३ ॥
मूलम्
एतच्चैवाभ्यनुज्ञातं पूर्वैः पूर्वतरैस्तथा ।
को जातु न विचिन्वीत विद्वान् स्वां शक्तिमात्मनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्ववर्ती तथा अधिक पूर्ववर्ती पुरुषोंने इन समस्त द्रव्योंको यज्ञका अंग माना है, अतः कौन विद्वान् मनुष्य अपनी शक्तिके अनुसार कभी किसी यज्ञको अपने लिये नहीं चुनेगा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पशवश्च मनुष्याश्च द्रुमाश्चौषधिभिः सह।
स्वर्गमेवाभिकांक्षन्ते न च स्वर्गस्ततो मखात् ॥ २४ ॥
मूलम्
पशवश्च मनुष्याश्च द्रुमाश्चौषधिभिः सह।
स्वर्गमेवाभिकांक्षन्ते न च स्वर्गस्ततो मखात् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पशु, मनुष्य, वृक्ष और ओषधियाँ—ये सब-के-सब स्वर्ग चाहते हैं, परंतु यज्ञको छोड़कर और किसी साधनसे वह विशाल स्वर्गलोक सुलभ नहीं हो सकता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओषध्यः पशवो वृक्षा वीरुदाज्यं पयो दधि।
हविर्भूमिर्दिशः श्रद्धा कालश्चैतानि द्वादश ॥ २५ ॥
मूलम्
ओषध्यः पशवो वृक्षा वीरुदाज्यं पयो दधि।
हविर्भूमिर्दिशः श्रद्धा कालश्चैतानि द्वादश ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ओषधि (अन्न आदि), पशु, वृक्ष, लता, घी, दूध, दही, अन्यान्य हविष्य, भूमि, दिशा, श्रद्धा और काल—ये बारह यज्ञके अंग हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋचो यजूंषि सामानि यजमानश्च षोडश।
अग्निर्ज्ञेयो गृहपतिः स सप्तदश उच्यते ॥ २६ ॥
मूलम्
ऋचो यजूंषि सामानि यजमानश्च षोडश।
अग्निर्ज्ञेयो गृहपतिः स सप्तदश उच्यते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और यजमान—ये चार मिलकर सोलह यज्ञांग होते हैं तथा गार्हपत्य अग्निको सत्रहवाँ यज्ञांग समझना चाहिये। इस प्रकार ये सत्रह अंग बताये जाते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गान्येतानि यज्ञस्य यज्ञो मूलमिति श्रुतिः।
आज्येन पयसा दध्ना शकृताऽऽमिक्षया त्वचा ॥ २७ ॥
बालैः शृङ्गेण पादेन सम्भवत्येव गौर्मखम्।
एवं प्रत्येकशः सर्वं यद् यदस्य विधीयते ॥ २८ ॥
मूलम्
अङ्गान्येतानि यज्ञस्य यज्ञो मूलमिति श्रुतिः।
आज्येन पयसा दध्ना शकृताऽऽमिक्षया त्वचा ॥ २७ ॥
बालैः शृङ्गेण पादेन सम्भवत्येव गौर्मखम्।
एवं प्रत्येकशः सर्वं यद् यदस्य विधीयते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब यज्ञके अंग हैं और यज्ञ इस जगत्की स्थितिका मूल कारण है; ऐसा श्रुतिका कथन है। घी, दूध, दही, छाछ, गोबर, चमड़ा, बाल, सींग और पैर—इन सबके द्वारा गौ यज्ञकर्मका सम्पादन करती है। इस प्रकार इनमेंसे प्रत्येक वस्तुका, जो-जो विहित है, संग्रह करना चाहिये॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञं वहन्ति सम्भूय सहर्त्विग्भिः सदक्षिणैः।
संहृत्यैतानि सर्वाणि यज्ञं निर्वर्तयन्त्युत ॥ २९ ॥
मूलम्
यज्ञं वहन्ति सम्भूय सहर्त्विग्भिः सदक्षिणैः।
संहृत्यैतानि सर्वाणि यज्ञं निर्वर्तयन्त्युत ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋत्विक् और दक्षिणाओंके साथ ये सब मिलकर यज्ञका निर्वाह करते हैं। यजमान इन सारी वस्तुओंका संग्रह करके यज्ञका अनुष्ठान करते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञार्थानि हि सृष्टानि यथार्था श्रूयते श्रुतिः।
एवं पूर्वतराः सर्वे प्रवृत्ताश्चैव मानवाः ॥ ३० ॥
मूलम्
यज्ञार्थानि हि सृष्टानि यथार्था श्रूयते श्रुतिः।
एवं पूर्वतराः सर्वे प्रवृत्ताश्चैव मानवाः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सारी वस्तुएँ यज्ञके लिये रची गयी हैं; यह श्रुतिका कथन यथार्थ ही है। पहलेके सभी मनुष्य इसी प्रकार यज्ञानुष्ठानमें प्रवृत्त होते आये हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हिनस्ति नारभते नाभिद्रुह्यति किंचन।
यज्ञो यष्टव्य इत्येव यो यजत्यफलेप्सया ॥ ३१ ॥
मूलम्
न हिनस्ति नारभते नाभिद्रुह्यति किंचन।
यज्ञो यष्टव्य इत्येव यो यजत्यफलेप्सया ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञका अनुष्ठान अपना कर्तव्य है—ऐसा समझकर जो फलकी इच्छा न रखते हुए यज्ञ करता है, वह न तो हिंसा करता है, न किसीसे द्रोह करता है और न अहंकारपूर्वक किसी कर्मका आरम्भ ही करता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञाङ्गान्यपि चैतानि यज्ञोक्तान्यनुपूर्वशः ।
विधिना विधियुक्तानि धारयन्ति परस्परम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
यज्ञाङ्गान्यपि चैतानि यज्ञोक्तान्यनुपूर्वशः ।
विधिना विधियुक्तानि धारयन्ति परस्परम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञशास्त्रमें क्रमशः वर्णित ये सम्पूर्ण यज्ञांग विधि-पूर्वक यज्ञमें प्रयुक्त हो एक दूसरेको धारण करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आम्नायमार्षं पश्यामि यस्मिन् वेदाः प्रतिष्ठिताः।
तं विद्वांसोऽनुपश्यन्ति ब्राह्मणस्यानुदर्शनात् ॥ ३३ ॥
मूलम्
आम्नायमार्षं पश्यामि यस्मिन् वेदाः प्रतिष्ठिताः।
तं विद्वांसोऽनुपश्यन्ति ब्राह्मणस्यानुदर्शनात् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ऋषियोंद्वारा कथित आम्नाय (धर्मशास्त्र) को देखता हूँ, जिसमें सारे वेद प्रतिष्ठित हैं। कर्ममें प्रवृत्ति करानेवाले ब्राह्मणग्रन्थके वाक्योंका उसमें दर्शन होनेसे विद्वान् पुरुष उस आर्षग्रन्थको प्रमाणभूत मानते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणप्रभवो यज्ञो ब्राह्मणार्पण एव च।
अनुयज्ञं जगत् सर्वं यज्ञश्चानुजगत् सदा ॥ ३४ ॥
मूलम्
ब्राह्मणप्रभवो यज्ञो ब्राह्मणार्पण एव च।
अनुयज्ञं जगत् सर्वं यज्ञश्चानुजगत् सदा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंके ब्राह्मणभागसे यज्ञका प्राकट्य हुआ है। वह यज्ञ ब्राह्मणोंको ही अर्पित किया जाता है। यज्ञके पीछे सारा जगत् और जगत्के पीछे सदा यज्ञ रहता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओमिति ब्रह्मणो योनिर्नमः स्वाहा स्वधा वषट्।
यस्यैतानि प्रयुज्यन्ते यथाशक्ति कृतान्यपि ॥ ३५ ॥
मूलम्
ओमिति ब्रह्मणो योनिर्नमः स्वाहा स्वधा वषट्।
यस्यैतानि प्रयुज्यन्ते यथाशक्ति कृतान्यपि ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ॐ’ यह वेदका मूल कारण है। वह ॐ तथा नमः, स्वाहा, स्वधा और वषट्—ये पद यथाशक्ति जिसके यज्ञमें प्रयुक्त होते हैं, उसीका यज्ञ सांगोपांग सम्पन्न होता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तस्य त्रिषु लोकेषु परलोकभयं विदुः।
इति वेदा वदन्तीह सिद्धाश्च परमर्षयः ॥ ३६ ॥
मूलम्
न तस्य त्रिषु लोकेषु परलोकभयं विदुः।
इति वेदा वदन्तीह सिद्धाश्च परमर्षयः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे मनुष्यको तीनों लोकोंमें किसी भी प्राणीसे भय नहीं होता है। यह बात यहाँ सम्पूर्ण वेद तथा सिद्ध महर्षि भी कहते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋचो यजूंषि सामानि स्तोभाश्च विधिचोदिताः।
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि भवन्तीह स वै द्विजः ॥ ३७ ॥
मूलम्
ऋचो यजूंषि सामानि स्तोभाश्च विधिचोदिताः।
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि भवन्तीह स वै द्विजः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और विधिविहित स्तोभ1—ये सब जिसमें विद्यमान होते हैं, वही इस जगत्में द्विज कहलानेका अधिकारी है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्न्याधेये यद् भवति यच्च सोमे सुते द्विज।
यच्चेतरैर्महायज्ञैर्वेद तद् भगवान् पुनः ॥ ३८ ॥
मूलम्
अग्न्याधेये यद् भवति यच्च सोमे सुते द्विज।
यच्चेतरैर्महायज्ञैर्वेद तद् भगवान् पुनः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! अग्न्याधान, (अग्निहोत्र) तथा सोमयाग करनेसे जो फल मिलता है और अन्यान्य महायज्ञोंके अनुष्ठानसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसे आप जानते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् ब्रह्मन् यजेच्चैव याजयेच्चाविचारयन्।
यजतः स्वर्गविधिना प्रेत्य स्वर्गफलं महत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
तस्माद् ब्रह्मन् यजेच्चैव याजयेच्चाविचारयन्।
यजतः स्वर्गविधिना प्रेत्य स्वर्गफलं महत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः विप्रवर! प्रत्येक द्विजको चाहिये कि वह बिना किसी विचारके यज्ञ करे और करावे। जो स्वर्गदायक विधिसे यज्ञ करता है, उसे देहत्यागके पश्चात् महान् स्वर्गफलकी प्राप्ति होती है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञानां परश्चेति विनिश्चयः।
वेदवादविदश्चैव प्रमाणमुभयं तदा ॥ ४० ॥
मूलम्
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञानां परश्चेति विनिश्चयः।
वेदवादविदश्चैव प्रमाणमुभयं तदा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह निश्चय है कि जो यज्ञ नहीं करते हैं, ऐसे पुरुषोंके लिये न तो यह लोक सुखदायक होता है और न स्वर्ग ही। जो वेदोक्त विषयोंके जानकार हैं, वे प्रवृत्ति और निवृत्ति—दोनोंको ही प्रमाणभूत मानते हैं॥४०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि गोकपिलीये अष्टषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें गोकपिलीयोपाख्यानविषयक दो सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६८॥
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सामगानके जो ‘हाऽऽयि, हाऽऽवु’ इत्यादि पूरक अक्षर हैं, उन्हें ‘स्तोभ’ कहते हैं। ↩︎