भागसूचना
सप्तषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्युमत्सेन और सत्यवान्का संवाद—अहिंसापूर्वक राज्यशासनकी श्रेष्ठताका कथन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं राजा प्रजा रक्षेन्न च किंचित् प्रघातयेत्।
पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
कथं राजा प्रजा रक्षेन्न च किंचित् प्रघातयेत्।
पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! मैं आपसे यह पूछ रहा हूँ कि राजा किस प्रकार प्रजाकी रक्षा करे, जिससे उसको किसीकी हिंसा न करनी पड़े, वह आप मुझे बतानेकी कृपा करें॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
द्युमत्सेनस्य संवादं राज्ञा सत्यवता सह ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
द्युमत्सेनस्य संवादं राज्ञा सत्यवता सह ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें राजा सत्यवान्के साथ उनके पिता द्युमत्सेनका जो संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्याहृतं व्याजहार सत्यवानिति नः श्रुतम्।
वधायोन्नीयमानेषु पितुरेवानुशासनात् ॥ ३ ॥
मूलम्
अव्याहृतं व्याजहार सत्यवानिति नः श्रुतम्।
वधायोन्नीयमानेषु पितुरेवानुशासनात् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने सुना है कि एक दिन सत्यवान्ने देखा कि पिताकी आज्ञासे बहुत-से अपराधी शूलीपर चढ़ा देनेके लिये ले जाये जा रहे हैं। उस समय उन्होंने पिताके पास जाकर ऐसी बात कही, जो पहले किसीने नहीं कही थी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मतां याति धर्मो यात्यधर्मश्च धर्मताम्।
वधो नाम भवेद् धर्मो नैतद् भवितुमर्हति ॥ ४ ॥
मूलम्
अधर्मतां याति धर्मो यात्यधर्मश्च धर्मताम्।
वधो नाम भवेद् धर्मो नैतद् भवितुमर्हति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी! यह सत्य है कि कभी ऊपरसे धर्म-सा दिखायी देनेवाला कार्य अधर्मरूप हो जाता है और अधर्म भी धर्मके रूपमें परिणत हो जाता है, तथापि किसी प्राणीका वध करना भी धर्म हो—ऐसा कदापि नहीं हो सकता’॥४॥
मूलम् (वचनम्)
द्युमत्सेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ चेदवधो धर्मोऽधर्मः को जातु चिद् भवेत्।
दस्यवश्चेन्न हन्येरन् सत्यवन् संकरो भवेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
अथ चेदवधो धर्मोऽधर्मः को जातु चिद् भवेत्।
दस्यवश्चेन्न हन्येरन् सत्यवन् संकरो भवेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्युमत्सेनने कहा— बेटा सत्यवान्! यदि अपराधीका वध न करना भी कभी धर्म हो तो अधर्म क्या हो सकता है? यदि चोर-डाकू मारे न जायँ तो प्रजामें वर्णसंकरता और धर्मसंकरता फैल जाय॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममेदमिति नास्यैतत् प्रवर्तेत कलौ युगे।
लोकयात्रा न चैव स्यादथ चेद् वेत्थ शंस नः॥६॥
मूलम्
ममेदमिति नास्यैतत् प्रवर्तेत कलौ युगे।
लोकयात्रा न चैव स्यादथ चेद् वेत्थ शंस नः॥६॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलियुग आनेपर तो लोग ‘यह वस्तु मेरी है, इसकी नहीं है’ ऐसा कहकर सीधे ही दूसरोंका धन हड़प लेंगे। इस तरह लोकयात्राका निर्वाह असम्भव हो जायगा। यदि तुम इसका कोई समाधान जानते हो, तो मुझसे बताओ॥६॥
मूलम् (वचनम्)
सत्यवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व एते त्रयो वर्णाः कार्या ब्राह्मणबन्धनाः।
धर्मपाशनिबद्धानामन्योऽप्येवं चरिष्यति ॥ ७ ॥
मूलम्
सर्व एते त्रयो वर्णाः कार्या ब्राह्मणबन्धनाः।
धर्मपाशनिबद्धानामन्योऽप्येवं चरिष्यति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवान् बोले— पिताजी! क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र—इन तीनों वर्णोंको ब्राह्मणोंके अधीन कर देना चाहिये। जब चारों वर्णोंके लोग धर्मके बन्धनमें बँधकर उसका पालन करने लगेंगे तो उनकी देखा-देखी दूसरे मनुष्य सूत-मागध आदि भी धर्मका आचरण करेंगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो यस्तेषामपचरेत् तमाचक्षीत वै द्विजः।
अयं मे न शृणोतीति तस्मिन् राजा प्रधारयेत् ॥ ८ ॥
मूलम्
यो यस्तेषामपचरेत् तमाचक्षीत वै द्विजः।
अयं मे न शृणोतीति तस्मिन् राजा प्रधारयेत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनमेंसे जो भी ब्राह्मणकी आज्ञाके विपरीत आचरण करे, उसके विषयमें ब्राह्मणको राजाके पास जाकर कहना चाहिये कि ‘अमुक मनुष्य मेरी बात नहीं सुनता है।’ तब राजा उसी व्यक्तिको दण्ड दे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्वाभेदेन यच्छास्त्रं तत् कार्यं नान्यथाविधम्।
असमीक्ष्यैव कर्माणि नीतिशास्त्रं यथाविधि ॥ ९ ॥
मूलम्
तत्त्वाभेदेन यच्छास्त्रं तत् कार्यं नान्यथाविधम्।
असमीक्ष्यैव कर्माणि नीतिशास्त्रं यथाविधि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दण्ड-विधान शरीरके पाँचों तत्त्वोंको अलग-अलग न कर सके अर्थात् किसीके प्राण न ले, उसीका प्रयोग करना चाहिये। नीतिशास्त्रकी आलोचना और अपराधीके कार्यपर भलीभाँति विचार किये बिना ही इसके विपरीत कोई दण्ड नहीं देना चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दस्यून् निहन्ति वै राजा भूयसो वाप्यनागसः।
भार्या माता पिता पुत्रो हन्यन्ते पुरुषेण ते।
परेणापकृतो राजा तस्मात् सम्यक् प्रधारयेत् ॥ १० ॥
मूलम्
दस्यून् निहन्ति वै राजा भूयसो वाप्यनागसः।
भार्या माता पिता पुत्रो हन्यन्ते पुरुषेण ते।
परेणापकृतो राजा तस्मात् सम्यक् प्रधारयेत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा डाकुओं अथवा दूसरे बहुत-से निरपराध मनुष्योंको मार डालता है और इस प्रकार उसके द्वारा मारे गये पुरुषके पिता-माता, स्त्री और पुत्र आदि भी जीविकाका कोई उपाय न रह जानेके कारण मानो मार दिये जाते हैं, अतः किसी दूसरेके अपकार करनेपर राजाको भलीभाँति विचार करना चाहिये (जल्दबाजी करके किसीको प्राणदण्ड नहीं देना चाहिये)॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असाधुश्चैव पुरुषो लभते शीलमेकदा।
साधोश्चापि ह्यसाधुभ्यः शोभना जायते प्रजा ॥ ११ ॥
मूलम्
असाधुश्चैव पुरुषो लभते शीलमेकदा।
साधोश्चापि ह्यसाधुभ्यः शोभना जायते प्रजा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्ट पुरुष भी कभी साधुसंगसे सुधरकर सुशील बन जाता है तथा बहुत-से दुष्ट पुरुषोंकी संतानें भी अच्छी निकल जाती हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मूलघातः कर्तव्यो नैष धर्मः सनातनः।
अपि स्वल्पवधेनैव प्रायश्चित्तं विधीयते ॥ १२ ॥
मूलम्
न मूलघातः कर्तव्यो नैष धर्मः सनातनः।
अपि स्वल्पवधेनैव प्रायश्चित्तं विधीयते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये दुष्टोंको प्राणदण्ड देकर उनका मूलोच्छेद नहीं करना चाहिये। किसीकी जड़ उखाड़ना सनातन धर्म नहीं है। अपराधके अनुरूप साधारण दण्ड देना चाहिये, उसीसे अपराधीके पापोंका प्रायश्चित हो जाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्वेजनेन बन्धेन विरूपकरणेन च।
वधदण्डेन ते क्लिश्या न पुरोहितसंसदि ॥ १३ ॥
मूलम्
उद्वेजनेन बन्धेन विरूपकरणेन च।
वधदण्डेन ते क्लिश्या न पुरोहितसंसदि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपराधीको उसका सर्वस्व छीन लेनेका भय दिखाया जाय अथवा उसे कैद कर लिया जाय या उसके किसी अंगको भंग करके उसे कुरूप बना दिया जाय; परंतु प्राणदण्ड देकर उनके कुटुम्बियोंको क्लेश पहुँचाना उचित नहीं है। इसी तरह यदि वे पुरोहित ब्राह्मणकी शरणमें जा चुके हों तो भी राजा उन्हें दण्ड न दे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा पुरोहितं वा ते पर्येयुः शरणैषिणः।
करिष्यामः पुनर्ब्रह्मन् न पापमिति वादिनः ॥ १४ ॥
तदा विसर्गमर्हाः स्युरितीदं धातृशासनम्।
बिभ्रद् दण्डाजिनं मुण्डो ब्राह्मणोऽर्हति शासनम् ॥ १५ ॥
मूलम्
यदा पुरोहितं वा ते पर्येयुः शरणैषिणः।
करिष्यामः पुनर्ब्रह्मन् न पापमिति वादिनः ॥ १४ ॥
तदा विसर्गमर्हाः स्युरितीदं धातृशासनम्।
बिभ्रद् दण्डाजिनं मुण्डो ब्राह्मणोऽर्हति शासनम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि शरण चाहनेवाले डाकू या दुष्ट पुरुष पुरोहितकी शरणमें चले जायँ और यह प्रतिज्ञा करें कि ‘ब्रह्मन्! अब हम फिर ऐसा पाप नहीं करेंगे’ तो उन्हें छोड़ देना चाहिये। यह ब्रह्माजीका उपदेश है। सिर मुड़ाकर दण्ड और मृगचर्म धारण करनेवाला संन्यासी ब्राह्मण भी यदि पाप करे तो दण्ड पानेका अधिकारी है॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरीयांसो गरीयांसमपराधे पुनः पुनः।
तदा विसर्गमर्हन्ति न यथा प्रथमे तथा ॥ १६ ॥
मूलम्
गरीयांसो गरीयांसमपराधे पुनः पुनः।
तदा विसर्गमर्हन्ति न यथा प्रथमे तथा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मनुष्य बार-बार अपराध करे, तो प्रमुख विचारकगण उसके अपराधके लिये गुरुतर दण्ड प्रदान करें। उस अवस्थामें पहले बारके अपराधकी भाँति वे बिना दण्ड दिये छोड़ देनेके योग्य नहीं रह जाते हैं॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
द्युमत्सेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्रैव शक्येरन् संयन्तुं समये प्रजाः।
स तावान् प्रोच्यते धर्मो यावन्न प्रतिलङ्घ्यते ॥ १७ ॥
मूलम्
यत्र यत्रैव शक्येरन् संयन्तुं समये प्रजाः।
स तावान् प्रोच्यते धर्मो यावन्न प्रतिलङ्घ्यते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्युमत्सेनने कहा— बेटा! जहाँ-जहाँ भी प्रजाको धर्मकी मर्यादाके भीतर नियन्त्रित करके रखा जा सके वहाँ-वहाँ वैसा करना धर्म ही बताया जाता है। जबतक कि धर्मका उल्लंघन नहीं किया जाता (तबतक ही वहाँ ऐसी व्यवस्था कर लेनी चाहिये)॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहन्यमानेषु पुनः सर्वमेव पराभवेत्।
पूर्वे पूर्वतरे चैव सुशास्या ह्यभवन् जनाः ॥ १८ ॥
मृदवः सत्यभूयिष्ठा अल्पद्रोहाल्पमन्यवः ।
पुराधिग्दण्ड एवासीद् वाग्दण्डस्तदनन्तरम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अहन्यमानेषु पुनः सर्वमेव पराभवेत्।
पूर्वे पूर्वतरे चैव सुशास्या ह्यभवन् जनाः ॥ १८ ॥
मृदवः सत्यभूयिष्ठा अल्पद्रोहाल्पमन्यवः ।
पुराधिग्दण्ड एवासीद् वाग्दण्डस्तदनन्तरम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि धर्मका उल्लंघन करनेपर भी लुटेरोंका वध न किया जाय तो उनसे सारी प्रजाको कष्ट पहुँच सकता है। पहले और बहुत पहलेके लोगोंपर शासन करना सुगम था, क्योंकि उनका स्वभाव कोमल था, सत्यमें उनकी विशेष रुचि थी और द्रोह तथा क्रोधकी मात्रा उनमें बहुत कम थी। पहले अपराधीको धिक्कार देना ही बड़ा भारी दण्ड समझा जाता था। तदनन्तर अपराधकी मात्रा बढ़नेपर वाग्दण्डका प्रचार हुआ—अपराधीको कटुवचन सुनाकर छोड़ दिया जाने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीदादानदण्डोऽपि वधदण्डोऽद्य वर्तते ।
वधेनापि न शक्यन्ते नियन्तुमपरे जनाः ॥ २० ॥
मूलम्
आसीदादानदण्डोऽपि वधदण्डोऽद्य वर्तते ।
वधेनापि न शक्यन्ते नियन्तुमपरे जनाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद आवश्यकता समझकर अर्थदण्ड भी चालू किया गया और आजकल तो वधका दण्ड भी प्रचलित हो गया है। बहुत-से दुष्टात्मा मनुष्योंको तो प्राणदण्डके द्वारा भी काबूमें लाना या मर्यादाके भीतर रखना असम्भव-सा हो रहा है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव दस्युर्मनुष्याणां न देवानामिति श्रुतिः।
न गन्धर्वपितॄणां च कः कस्येह न कश्चन ॥ २१ ॥
मूलम्
नैव दस्युर्मनुष्याणां न देवानामिति श्रुतिः।
न गन्धर्वपितॄणां च कः कस्येह न कश्चन ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुननेमें आया है कि डाकू मनुष्यों, देवताओं, गन्धर्वों अथवा पितरोंमेंसे किसीका आत्मीय नहीं होता। इतना ही नहीं, इस संसारमें कौन लुटेरा किसका है, यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता। कोई डाकू किसीका नहीं होता है, यही कहना यथार्थ है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मं श्मशानादादत्ते पिशाचाच्चापि दैवतम्।
तेषु यः समयं कश्चित् कुर्वीत हतबुद्धिषु ॥ २२ ॥
मूलम्
पद्मं श्मशानादादत्ते पिशाचाच्चापि दैवतम्।
तेषु यः समयं कश्चित् कुर्वीत हतबुद्धिषु ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह तो मरघटमें जाकर मृत शरीरसे चिह्नभूत वस्त्र आदि उतार लाता है और देवताओंकी सम्पत्तिको भी लूट लेता है। जिनकी बुद्धि मारी गयी है, उन डाकुओंपर जो कोई विश्वास करता है, वह मूर्ख है॥
मूलम् (वचनम्)
सत्यवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् न शक्नोषि चेत् साधून् परित्रातुमहिंसया।
कस्यचिद् भूतभव्यस्य लाभेनान्तं तथा कुरु ॥ २३ ॥
मूलम्
तान् न शक्नोषि चेत् साधून् परित्रातुमहिंसया।
कस्यचिद् भूतभव्यस्य लाभेनान्तं तथा कुरु ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यवान्ने कहा— पिताजी! यदि आप लुटेरोंका वध न करके साधुओंकी रक्षा करनेमें असमर्थ हैं, अथवा उन दस्युओंको ही साधु बनाकर अहिंसाद्वारा उनकी प्राणरक्षा नहीं कर सकते तो भूत, वर्तमान और भविष्यमें उनके पारमार्थिक लाभका उद्देश्य सामने रखकर किसी उत्तम उपायसे उनका या उनकी दस्युवृत्तिका अन्त कर दीजिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानो लोकयात्रार्थं तप्यन्ते परमं तपः।
तेऽपत्रपन्ति तादृग्भ्यस्तथावृत्ता भवन्ति च ॥ २४ ॥
मूलम्
राजानो लोकयात्रार्थं तप्यन्ते परमं तपः।
तेऽपत्रपन्ति तादृग्भ्यस्तथावृत्ता भवन्ति च ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से नरेश, लोगोंकी जीवनयात्राका यथावत् रूपसे निर्वाह हो, इस उद्देश्यसे बड़ी भारी तपस्या करते हैं। वे राजा अपने राज्यमें चोर-डाकुओंके होनेसे लज्जाका अनुभव करते हैं। इसीलिये प्रजाको शुद्ध, सदाचारी एवं सुखी बनानेकी इच्छासे वैसी तपस्यामें प्रवृत्त होते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वित्रास्यमानाः सुकृतो न कामाद्घ्नन्ति दुष्कृतीन्।
सुकृतेनैव राजानो भूयिष्ठं शासते प्रजाः ॥ २५ ॥
मूलम्
वित्रास्यमानाः सुकृतो न कामाद्घ्नन्ति दुष्कृतीन्।
सुकृतेनैव राजानो भूयिष्ठं शासते प्रजाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब प्रजामें दण्डका भय उत्पन्न किया जाता है, तब वह सत्कर्मपरायण होती है; अतः भय दिखाकर प्रजाको धर्ममें लगाना ही दण्डका उद्देश्य है, किसीका प्राण लेना नहीं। राजालोग अपनी इच्छासे दुष्टोंका वध नहीं करते हैं। श्रेष्ठ नरेश प्रायः सत्कर्मों और सद्व्यवहारों-द्वारा ही दीर्घकालतक प्रजापर शासन करते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रेयसः श्रेयसोऽप्येवं वृत्तं लोकोऽनुवर्तते।
सदैव हि गुरोर्वृत्तमनुवर्तन्ति मानवाः ॥ २६ ॥
मूलम्
श्रेयसः श्रेयसोऽप्येवं वृत्तं लोकोऽनुवर्तते।
सदैव हि गुरोर्वृत्तमनुवर्तन्ति मानवाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार परम श्रेष्ठ राजाके सद्व्यवहारका सब लोग अनुसरण करते हैं। मनुष्य स्वभावसे ही सदा बड़ोंके आचरणोंका अनुकरण करते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानमसमाधाय समाधित्सति यः परान्।
विषयेष्विन्द्रियवशं मानवाः प्रहसन्ति तम् ॥ २७ ॥
मूलम्
आत्मानमसमाधाय समाधित्सति यः परान्।
विषयेष्विन्द्रियवशं मानवाः प्रहसन्ति तम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा स्वयं विषय भोगनेके लिये इन्द्रियोंका दास हो रहा है, अपने मनको काबूमें नहीं रख पाता, वह यदि दूसरोंको सदाचारका उपदेश देने लगे तो लोग उसकी हँसी उड़ाते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो राज्ञो दम्भमोहेन किंचित् कुर्यादसाम्प्रतम्।
सर्वोपायैर्नियम्यः स तथा पापान्निवर्तते ॥ २८ ॥
मूलम्
यो राज्ञो दम्भमोहेन किंचित् कुर्यादसाम्प्रतम्।
सर्वोपायैर्नियम्यः स तथा पापान्निवर्तते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई मनुष्य दम्भ या मोहके कारण राजाके साथ किंचिन्मात्र भी कोई अनुचित बर्ताव करने लगे तो सभी उपायोंसे उसका दमन करना चाहिये। ऐसा करनेपर वह पापकर्मसे दूर हट जाता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मैवादौ नियन्तव्यो दुष्कृतं संनियच्छता।
दण्डयेच्च महादण्डैरपि बन्धूननन्तरान् ॥ २९ ॥
मूलम्
आत्मैवादौ नियन्तव्यो दुष्कृतं संनियच्छता।
दण्डयेच्च महादण्डैरपि बन्धूननन्तरान् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा पापकी प्रवृत्तिको रोकना चाहता हो, उसे पहले अपने मनको ही वशमें करना चाहिये। फिर अपने सगे बन्धु-बान्धव भी अपराध करें तो उनको भी भारी-से-भारी दण्ड देना चाहिये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र वै पापकृन्नीचो न महद् दुःखमर्च्छति।
वर्धन्ते तत्र पापानि धर्मो ह्रसति च ध्रुवम् ॥ ३० ॥
मूलम्
यत्र वै पापकृन्नीचो न महद् दुःखमर्च्छति।
वर्धन्ते तत्र पापानि धर्मो ह्रसति च ध्रुवम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ पाप करनेवाले नीचको महान् दुःख नहीं भोगना पड़ता है, वहाँ निश्चय ही पाप बढ़ता है और धर्मका ह्रास होता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति कारुण्यशीलस्तु विद्वान् वै ब्राह्मणोऽन्वशात्।
इति चैवानुशिष्टोऽस्मि पूर्वैस्तात पितामहैः ॥ ३१ ॥
आश्वासयद्भिः सुभृशमनुक्रोशात् तथैव च।
एतत् प्रथमकल्पेन राजा कृतयुगे जयेत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
इति कारुण्यशीलस्तु विद्वान् वै ब्राह्मणोऽन्वशात्।
इति चैवानुशिष्टोऽस्मि पूर्वैस्तात पितामहैः ॥ ३१ ॥
आश्वासयद्भिः सुभृशमनुक्रोशात् तथैव च।
एतत् प्रथमकल्पेन राजा कृतयुगे जयेत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताजी! एक दयालु एवं विद्वान् ब्राह्मणने मुझे यह सब उपदेश दिया था। उस समय उसने कहा था कि ‘तात सत्यवान्! मेरे पूर्वज पितामहोंने मुझे आश्वासन देते हुए अत्यन्त कृपापूर्वक ऐसी शिक्षा दी थी। इसलिये राजाको सत्ययुगमें जब कि धर्म अपने चारों चरणोंसे मौजूद रहता है, पूर्वोक्त प्रथम श्रेणीके (अहिंसामय) दण्डद्वारा ही प्रजाको वशमें करना चाहिये॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादोनेनापि धर्मेण गच्छेत् त्रेतायुगे तथा।
द्वापरे तु द्विपादेन पादेन त्वधरे युगे ॥ ३३ ॥
मूलम्
पादोनेनापि धर्मेण गच्छेत् त्रेतायुगे तथा।
द्वापरे तु द्विपादेन पादेन त्वधरे युगे ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘त्रेतायुग आनेपर धर्मका प्रचार एक चौथाई कम हो जाता है, द्वापरमें धर्मके दो ही पैर रह जाते हैं; परंतु कलियुगमें तो धर्मका चतुर्थ भाग ही शेष रह जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा कलियुगे प्राप्ते राज्ञो दुश्चरितेन ह।
भवेत् कालविशेषेण कला धर्मस्य षोडशी ॥ ३४ ॥
मूलम्
तथा कलियुगे प्राप्ते राज्ञो दुश्चरितेन ह।
भवेत् कालविशेषेण कला धर्मस्य षोडशी ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार कलियुग उपस्थित होनेपर राजाके दुर्व्यवहारसे तथा उस कालविशेषका प्रभाव पड़नेसे सम्पूर्ण धर्मकी सोलहवीं कलामात्र शेष रह जायगी॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ प्रथमकल्पेन सत्यवन् संकरो भवेत्।
आयुः शक्तिं च कालं च निर्दिश्य तप आदिशेत्॥३५॥
मूलम्
अथ प्रथमकल्पेन सत्यवन् संकरो भवेत्।
आयुः शक्तिं च कालं च निर्दिश्य तप आदिशेत्॥३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्यवान्! यदि प्रथम श्रेणीके अहिंसात्मक दण्डसे धर्म और अधर्मका सम्मिश्रण होने लगे, तब दण्डनीय व्यक्तिकी आयु, शक्ति और कालको ध्यानमें रखते हुए राजा यथोचित दण्डके लिये आज्ञा प्रदान करे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्याय हि यथा नेह जह्याद् धर्मफलं महत्।
भूतानामनुकम्पार्थं मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ ३६ ॥
मूलम्
सत्याय हि यथा नेह जह्याद् धर्मफलं महत्।
भूतानामनुकम्पार्थं मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्वायम्भुव मनुने प्राणियोंपर अनुग्रह करनेके लिये धर्मका उपदेश किया है, जिससे इस जगत्में वह सत्यस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले धर्मके महान् फलसे वंचित न रह जाय’॥३६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्युमत्सेनसत्यवत्संवादे सप्तषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें द्युमत्सेन और सत्यवान्का संवादविषयक दो सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६७॥