भागसूचना
षट्षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
महर्षि गौतम और चिरकारीका उपाख्यान—दीर्घकालतक सोच-विचारकर कार्य करनेकी प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं कार्यं परीक्षेत शीघ्रं वाथ चिरेण वा।
सर्वथा कार्यदुर्गेऽस्मिन् भवान् नः परमो गुरुः ॥ १ ॥
मूलम्
कथं कार्यं परीक्षेत शीघ्रं वाथ चिरेण वा।
सर्वथा कार्यदुर्गेऽस्मिन् भवान् नः परमो गुरुः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! आप मेरे परम गुरु हैं। कृपया यह बतलाइये कि यदि कभी सर्वथा ऐसा कार्य उपस्थित हो जाय, जो गुरुजनोंकी आज्ञाके कारण अवश्य कर्तव्य हो, परंतु हिंसायुक्त होनेके कारण दुष्कर एवं अनुचित प्रतीत होता हो तो ऐसे अवसरपर उस कार्यकी परख कैसे करनी चाहिये? उसे शीघ्र कर डाले या देरतक उसपर विचार करता रहे॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
चिरकारेस्तु यत् पूर्वं वृत्तमाङ्गिरसे कुले ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
चिरकारेस्तु यत् पूर्वं वृत्तमाङ्गिरसे कुले ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! इस विषयमें जानकार लोग इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जो पहले आंगिरस-कुलमें उत्पन्न चिरकारीपर बीत चुका है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरकारिक भद्रं ते भद्रं ते चिरकारिक।
चिरकारी हि मेधावी नापराध्यति कर्मसु ॥ ३ ॥
मूलम्
चिरकारिक भद्रं ते भद्रं ते चिरकारिक।
चिरकारी हि मेधावी नापराध्यति कर्मसु ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘चिरकारी! तुम्हारा कल्याण हो। चिरकारी! तुम्हारा मंगल हो। चिरकारी बड़ा बुद्धिमान् है। चिरकारी कर्तव्योंके पालनमें कभी अपराध नहीं करता है।’ (यह बात चिरकारीकी प्रशंसा करते हुए उसके पिताने कही थी)॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरकारी महाप्राज्ञो गौतमस्याभवत् सुतः।
चिरेण सर्वकार्याणि विमृश्यार्थान् प्रपद्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
चिरकारी महाप्राज्ञो गौतमस्याभवत् सुतः।
चिरेण सर्वकार्याणि विमृश्यार्थान् प्रपद्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहते हैं, महर्षि गौतमके एक महाज्ञानी पुत्र था, जिसका नाम था चिरकारी। वह कर्तव्य-विषयोंका भलीभाँति विचार करके सारे कार्य विलम्बसे किया करता था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरं स चिन्तयत्यर्थांश्चिरं जाग्रच्चिरं स्वपन्।
चिरं कार्याभिपत्तिं च चिरकारी तथोच्यते ॥ ५ ॥
मूलम्
चिरं स चिन्तयत्यर्थांश्चिरं जाग्रच्चिरं स्वपन्।
चिरं कार्याभिपत्तिं च चिरकारी तथोच्यते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सभी विषयोंपर बहुत देरतक विचार करता था, चिरकालतक जागता था और चिरकालतक सोता था तथा चिर-विलम्बके बाद ही कार्य पूर्ण करता था; इसलिये सब लोग उसे चिरकारी कहने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलसग्रहणं प्राप्तो दुर्मेधावी तथोच्यते।
बुद्धिलाघवयुक्तेन जनेनादीर्घदर्शिना ॥ ६ ॥
मूलम्
अलसग्रहणं प्राप्तो दुर्मेधावी तथोच्यते।
बुद्धिलाघवयुक्तेन जनेनादीर्घदर्शिना ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दूरतककी बात नहीं सोच सकते, ऐसे मन्दबुद्धि मानवोंने उसे आलसीकी उपाधि दे दी। उसे दुर्बुद्धि कहा जाने लगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यभिचारे तु कस्मिंश्चिद् व्यतिक्रम्यापरान् सुतान्।
पित्रोक्तः कुपितेनाथ जहीमां जननीमिति ॥ ७ ॥
मूलम्
व्यभिचारे तु कस्मिंश्चिद् व्यतिक्रम्यापरान् सुतान्।
पित्रोक्तः कुपितेनाथ जहीमां जननीमिति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिनकी बात है, गौतमने अपनी स्त्रीके द्वारा किये गये किसी व्यभिचारपर कुपित हो अपने दूसरे पुत्रोंको न कहकर चिरकारीसे कहा—बेटा! तू अपनी इस पापिनी माताको मार डाल’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा स तदा विप्रो गौतमो जपतां वरः।
अविमृश्य महाभागो वनमेव जगाम सः ॥ ८ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा स तदा विप्रो गौतमो जपतां वरः।
अविमृश्य महाभागो वनमेव जगाम सः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय बिना बिचारे ही ऐसी आज्ञा देकर जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि महाभाग गौतम वनमें चले गये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथेति चिरेणोक्त्वा स्वभावाच्चिरकारिकः।
विमृश्य चिरकारित्वाच्चिन्तयामास वै चिरम् ॥ ९ ॥
मूलम्
स तथेति चिरेणोक्त्वा स्वभावाच्चिरकारिकः।
विमृश्य चिरकारित्वाच्चिन्तयामास वै चिरम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चिरकारीने अपने स्वभावके अनुसार देर करके कहा, ‘बहुत अच्छा’। चिरकारी तो वह था ही, चिरकालतक उस बातपर विचार करता रहा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितुराज्ञां कथं कुर्यां न हन्यां मातरं कथम्।
कथं धर्मच्छलेनास्मिन् निमज्जेयमसाधुवत् ॥ १० ॥
मूलम्
पितुराज्ञां कथं कुर्यां न हन्यां मातरं कथम्।
कथं धर्मच्छलेनास्मिन् निमज्जेयमसाधुवत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने सोचा कि ‘मैं किस उपायसे काम लूँ जिससे पिताकी आज्ञाका पालन भी हो जाय और माताका वध भी न करना पड़े। धर्मके बहाने यह मेरे ऊपर महान् संकट आ गया है। भला, अन्य असाधु पुरुषोंकी भाँति मैं भी इसमें डूबनेका कैसे साहस करूँ?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितुराज्ञा परो धर्मः स्वधर्मो मातृरक्षणम्।
अस्वतन्त्रं च पुत्रत्वं किं तु मां नानुपीडयेत् ॥ ११ ॥
मूलम्
पितुराज्ञा परो धर्मः स्वधर्मो मातृरक्षणम्।
अस्वतन्त्रं च पुत्रत्वं किं तु मां नानुपीडयेत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताकी आज्ञाका पालन परम धर्म है और माताकी रक्षा करना पुत्रका प्रधान धर्म है। पुत्र कभी स्वतन्त्र नहीं होता, वह सदा माता-पिताके अधीन ही रहता है, अतः क्या करूँ जिससे मुझे धर्मकी हानिरूप पीड़ा न हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियं हत्वा मातरं च को हि जातु सुखी भवेत्।
पितरं चाप्यवज्ञाय कः प्रतिष्ठामवाप्नुयात् ॥ १२ ॥
मूलम्
स्त्रियं हत्वा मातरं च को हि जातु सुखी भवेत्।
पितरं चाप्यवज्ञाय कः प्रतिष्ठामवाप्नुयात् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक तो स्त्री-जाति, दूसरे माताका वध करके कौन पुत्र कभी भी सुखी हो सकता है? पिताकी अवहेलना करके भी कौन प्रतिष्ठा पा सकता है?॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनवज्ञा पितुर्युक्ता धारणं मातृरक्षणम्।
युक्तक्षमावुभावेतौ नातिवर्तेत मां कथम् ॥ १३ ॥
मूलम्
अनवज्ञा पितुर्युक्ता धारणं मातृरक्षणम्।
युक्तक्षमावुभावेतौ नातिवर्तेत मां कथम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताका अनादर उचित नहीं है, साथ ही माताकी रक्षा करना भी पुत्रका धर्म है। ये दोनों ही धर्म उचित और योग्य हैं। मैं किस प्रकार इनका उल्लंघन न करूँ?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता ह्यात्मानमाधत्ते जायायां जज्ञिवानिति।
शीलचारित्रगोत्रस्य धारणार्थं कुलस्य च ॥ १४ ॥
मूलम्
पिता ह्यात्मानमाधत्ते जायायां जज्ञिवानिति।
शीलचारित्रगोत्रस्य धारणार्थं कुलस्य च ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिता स्वयं अपने शील, सदाचार, कुल और गोत्रकी रक्षाके लिये स्त्रीके गर्भमें अपना ही आधान करता और पुत्ररूपमें उत्पन्न होता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं मात्रा स्वयं पित्रा पुत्रत्वे प्रकृतः पुनः।
विज्ञानं मे कथं न स्याद् द्वौ बुद्ध्ये चात्मसम्भवम्॥१५॥
मूलम्
सोऽहं मात्रा स्वयं पित्रा पुत्रत्वे प्रकृतः पुनः।
विज्ञानं मे कथं न स्याद् द्वौ बुद्ध्ये चात्मसम्भवम्॥१५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः मुझे माता और पिता—दोनोंने ही पुत्रके रूपमें जन्म दिया है। मैं इन दोनोंको ही अपनी उत्पत्तिका कारण समझता हूँ। मेरा ऐसा ही ज्ञान क्यों न सदा बना रहे?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातकर्मणि यत् प्राह पिता यच्चोपकर्मणि।
पर्याप्तः स दृढीकारः पितुर्गौरवनिश्चये ॥ १६ ॥
मूलम्
जातकर्मणि यत् प्राह पिता यच्चोपकर्मणि।
पर्याप्तः स दृढीकारः पितुर्गौरवनिश्चये ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जातकर्म-संस्कार और उपनयन-संस्कारके समय पिताने जो आशीर्वाद दिया है, वह पिताके गौरवका निश्चय करानेमें पर्याप्त एवं सुदृढ़ प्रमाण है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुरग्र्यः परो धर्मः पोषणाध्यापनान्वितः।
पिता यदाह धर्मः स वेदेष्वपि सुनिश्चितः ॥ १७ ॥
मूलम्
गुरुरग्र्यः परो धर्मः पोषणाध्यापनान्वितः।
पिता यदाह धर्मः स वेदेष्वपि सुनिश्चितः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिता भरण-पोषण करने तथा शिक्षा देनेके कारण पुत्रका प्रधान गुरु है। वह परम धर्मका साक्षात् स्वरूप है। पिता जो कुछ आज्ञा दे, उसे ही धर्म समझकर स्वीकार करना चाहिये। वेदोंमें भी उसीको धर्म निश्चित किया गया है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतिमात्रं पितुः पुत्रः सर्वं पुत्रस्य वै पिता।
शरीरादीनि देयानि पिता त्वेकः प्रयच्छति ॥ १८ ॥
मूलम्
प्रीतिमात्रं पितुः पुत्रः सर्वं पुत्रस्य वै पिता।
शरीरादीनि देयानि पिता त्वेकः प्रयच्छति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्र पिताकी सम्पूर्ण प्रीतिरूप है और पिता पुत्रका सर्वस्व है। केवल पिता ही पुत्रको देह आदि सम्पूर्ण देने योग्य वस्तुओंको देता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् पितुर्वचः कार्यं न विचार्यं कदाचन।
पातकान्यपि पूयन्ते पितुः शासनकारिणः ॥ १९ ॥
मूलम्
तस्मात् पितुर्वचः कार्यं न विचार्यं कदाचन।
पातकान्यपि पूयन्ते पितुः शासनकारिणः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसलिये पिताके आदेशका पालन करना चाहिये। उसपर कभी कोई विचार नहीं करना चाहिये। जो पिताकी आज्ञाका पालन करनेवाला है, उसके पातक भी नष्ट हो जाते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोग्ये भोज्ये प्रवचने सर्वलोकनिदर्शने।
भर्त्रा चैव समायोगे सीमन्तोन्नयने तथा ॥ २० ॥
मूलम्
भोग्ये भोज्ये प्रवचने सर्वलोकनिदर्शने।
भर्त्रा चैव समायोगे सीमन्तोन्नयने तथा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्रके भोग्य (वस्त्र आदि), भोज्य (अन्न आदि), प्रवचन (वेदाध्ययन), सम्पूर्ण लोक-व्यवहारकी शिक्षा तथा गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्तोन्नयन आदि समस्त संस्कारोंके सम्पादनमें पिता ही प्रभु है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवताः ॥ २१ ॥
मूलम्
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवताः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसलिये पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सबसे बड़ी तपस्या है। पिताके प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशिषस्ता भजन्त्येनं परुषं प्राह यत् पिता।
निष्कृतिः सर्वपापानां पिता यच्चाभिनन्दति ॥ २२ ॥
मूलम्
आशिषस्ता भजन्त्येनं परुषं प्राह यत् पिता।
निष्कृतिः सर्वपापानां पिता यच्चाभिनन्दति ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिता पुत्रसे यदि कुछ कठोर बातें कह देता है तो वे आशीर्वाद बनकर उसे अपना लेती हैं और पिता यदि पुत्रका अभिनन्दन करता है—मीठे वचन बोलकर उसके प्रति प्यार और आदर दिखाता है तो इससे पुत्रके सम्पूर्ण पापोंका प्रायश्चित्त हो जाता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुच्यते बन्धनात् पुष्पं फलं वृक्षात् प्रमुच्यते।
क्लिश्यन्नपि सुतं स्नेहैः पिता पुत्रं न मुञ्चति ॥ २३ ॥
मूलम्
मुच्यते बन्धनात् पुष्पं फलं वृक्षात् प्रमुच्यते।
क्लिश्यन्नपि सुतं स्नेहैः पिता पुत्रं न मुञ्चति ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फूल डंठलसे अलग हो जाता है, फल वृक्षसे अलग हो जाता है; परंतु पिता कितने ही कष्टमें क्यों न हो, लाड़-प्यारसे पाले हुए अपने पुत्रको कभी नहीं छोड़ता है अर्थात् पुत्र कभी पितासे अलग नहीं हो सकता॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् विचिन्तितं तावत् पुत्रस्य पितृगौरवम्।
पिता नाल्पतरं स्थानं चिन्तयिष्यामि मातरम् ॥ २४ ॥
मूलम्
एतद् विचिन्तितं तावत् पुत्रस्य पितृगौरवम्।
पिता नाल्पतरं स्थानं चिन्तयिष्यामि मातरम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्रके निकट पिताका कितना गौरव होना चाहिये, इस बातपर पहले विचार किया है। विचार करनेसे यह बात स्पष्ट हो गयी कि पिता पुत्रके लिये कोई छोटा-मोटा आश्रय नहीं है। अब मैं माताके विषयमें सोचता हूँ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो ह्ययं मयि संघातो मर्त्यत्वे पाञ्चभौतिकः।
अस्य मे जननी हेतुः पावकस्य यथारणिः ॥ २५ ॥
मूलम्
यो ह्ययं मयि संघातो मर्त्यत्वे पाञ्चभौतिकः।
अस्य मे जननी हेतुः पावकस्य यथारणिः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे लिये जो यह पाञ्चभौतिक मनुष्यशरीर मिला है, इसके उत्पन्न होनेमें मेरी माता ही मुख्य हेतु है। जैसे अग्निके प्रकट होनेका मुख्य आधार अरणी-काष्ठ है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माता देहारणिः पुंसां सर्वस्यार्तस्य निर्वृतिः।
मातृलाभे सनाथत्वमनाथत्वं विपर्यये ॥ २६ ॥
मूलम्
माता देहारणिः पुंसां सर्वस्यार्तस्य निर्वृतिः।
मातृलाभे सनाथत्वमनाथत्वं विपर्यये ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माता मनुष्योंके शरीररूपी अग्निको प्रकट करनेवाली अरणी है। संसारके समस्त आर्त प्राणियोंको सुख और सान्त्वना प्रदान करनेवाली माता ही है। जबतक माता जीवित रहती है, मनुष्य अपनेको सनाथ समझता है और उसके न रहनेपर वह अनाथ हो जाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च शोचति नाप्येनं स्थाविर्यमपकर्षति।
श्रिया हीनोऽपि यो गेहमम्बेति प्रतिपद्यते ॥ २७ ॥
मूलम्
न च शोचति नाप्येनं स्थाविर्यमपकर्षति।
श्रिया हीनोऽपि यो गेहमम्बेति प्रतिपद्यते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माताके रहते मनुष्यको कभी चिन्ता नहीं होती है, बुढ़ापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता है। जो अपनी माँको पुकारता हुआ घरमें जाता है, वह निर्धन होनेपर भी मानो माता अन्नपूर्णाके पास चला जाता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रपौत्रोपपन्नोऽपि जननीं यः समाश्रितः।
अपि वर्षशतस्यान्ते स द्विहायनवच्चरेत् ॥ २८ ॥
मूलम्
पुत्रपौत्रोपपन्नोऽपि जननीं यः समाश्रितः।
अपि वर्षशतस्यान्ते स द्विहायनवच्चरेत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्र और पौत्रोंसे सम्पन्न होनेपर भी जो अपनी माताके आश्रयमें रहता है, वह सौ वर्षकी अवस्थाके बाद भी उसके पास दो वर्षके बच्चेके समान आचरण करता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्थं वासमर्थं वा कृशं वाप्यकृशं तथा।
रक्षत्येव सुतं माता नान्यः पोष्टा विधानतः ॥ २९ ॥
मूलम्
समर्थं वासमर्थं वा कृशं वाप्यकृशं तथा।
रक्षत्येव सुतं माता नान्यः पोष्टा विधानतः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्र असमर्थ हो या समर्थ, दुर्बल हो या हृष्ट-पुष्ट, माता उसका पालन करती ही है। माताके सिवा दूसरा कोई विधिपूर्वक पुत्रका पालन-पोषण नहीं कर सकता॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा स वृद्धो भवति तदा भवति दुःखितः।
तदा शून्यं जगत् तस्य यदा मात्रा वियुज्यते ॥ ३० ॥
मूलम्
तदा स वृद्धो भवति तदा भवति दुःखितः।
तदा शून्यं जगत् तस्य यदा मात्रा वियुज्यते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब मातासे विछोह हो जाता है, उसी समय मनुष्य अपनेको बूढ़ा समझने लगता है, दुखी हो जाता है और उसके लिये सारा संसार सूना प्रतीत होने लगता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रिया ॥ ३१ ॥
मूलम्
नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रिया ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माताके समान दूसरी कोई छाया नहीं है अर्थात् माताकी छत्रछायामें जो सुख है, वह कहीं नहीं है। माताके तुल्य दूसरा सहारा नहीं है, माताके सदृश अन्य कोई रक्षक नहीं है तथा बच्चेके लिये माँके समान दूसरी कोई प्रिय वस्तु नहीं है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुक्षिसंधारणाद् धात्री जननाज्जननी स्मृता।
अङ्गानां वर्धनादम्बा वीरसूत्वेन वीरसूः ॥ ३२ ॥
मूलम्
कुक्षिसंधारणाद् धात्री जननाज्जननी स्मृता।
अङ्गानां वर्धनादम्बा वीरसूत्वेन वीरसूः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह गर्भाशयमें धारण करनेके कारण धात्री, जन्म देनेके कारण जननी, शिशुका अङ्गवर्धन (पालन-पोषण) करनेसे अम्बा तथा वीर-संतानका प्रसव करनेके कारण वीरसू कही गयी है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिशोः शुश्रूषणाच्छुश्रूर्माता देहमनन्तरम् ।
चेतनावान् नरो हन्याद् यस्य नासुषिरं शिरः ॥ ३३ ॥
मूलम्
शिशोः शुश्रूषणाच्छुश्रूर्माता देहमनन्तरम् ।
चेतनावान् नरो हन्याद् यस्य नासुषिरं शिरः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह शिशुकी शुश्रूषा करके शुश्रू नाम धारण करती है। माता अपना निकटतम शरीर है। जिसका मस्तिष्क विचार शून्य नहीं हो गया है, ऐसा कोई सचेतन मनुष्य कभी अपनी माताकी हत्या नहीं कर सकता॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दम्पत्योः प्राणसंश्लेषे योऽभिसंधिः कृतः किल।
तं माता च पिता चेति भूतार्थो मातरि स्थितः॥३४॥
मूलम्
दम्पत्योः प्राणसंश्लेषे योऽभिसंधिः कृतः किल।
तं माता च पिता चेति भूतार्थो मातरि स्थितः॥३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पति और पत्नी मैथुनकालमें सुयोग्य पुत्र होनेके लिये जो अभिलाषा करते हैं, उसे यद्यपि पिता और माता—दोनों धारण करते हैं तथापि वास्तवमें वह अभिलाषा मातामें ही प्रतिष्ठित होती है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माता जानाति यद्गोत्रं माता जानाति यस्य सः।
मातुर्भरणमात्रेण प्रीतिः स्नेहः पितुः प्रजाः ॥ ३५ ॥
मूलम्
माता जानाति यद्गोत्रं माता जानाति यस्य सः।
मातुर्भरणमात्रेण प्रीतिः स्नेहः पितुः प्रजाः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्रका गोत्र क्या है? यह माता जानती है। वह किस पिताका पुत्र है? यह भी माता ही जानती है। माता बालकको अपने गर्भमें धारण करती है, इसलिये उसीका उसपर अधिक स्नेह और प्रेम होता है। पिताका तो अपनी संतानपर प्रभुत्वमात्र है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाणिबन्धं स्वयं कृत्वा सह धर्ममुपेत्य च।
यदा यास्यन्ति पुरुषाः स्त्रियो नार्हन्ति वाच्यताम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
पाणिबन्धं स्वयं कृत्वा सह धर्ममुपेत्य च।
यदा यास्यन्ति पुरुषाः स्त्रियो नार्हन्ति वाच्यताम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब स्वयं ही पत्नीका पाणिग्रहण करके साथ-साथ धर्माचरण करनेकी प्रतिज्ञा लेकर भी पुरुष परायी स्त्रियोंके पास जायँगे (और उनपर बलात्कार करेंगे), तब इसके लिये स्त्रियोंको दोषी नहीं ठहराया जा सकता॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरणाद्धि स्त्रियो भर्ता पालनाद्धि पतिस्तथा।
गुणस्यास्य निवृत्तौ तु न भर्ता न पुनः पतिः॥३७॥
मूलम्
भरणाद्धि स्त्रियो भर्ता पालनाद्धि पतिस्तथा।
गुणस्यास्य निवृत्तौ तु न भर्ता न पुनः पतिः॥३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुष अपनी स्त्रीका भरण-पोषण करनेसे भर्ता और पालन करनेके कारण पति कहलाता है। इन गुणोंके न रहनेपर वह न तो भर्ता है और न पति ही कहलाने योग्य है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्त्री नापराध्नोति नर एवापराध्यति।
व्युच्चरंश्च महादोषं नर एवापराध्यति ॥ ३८ ॥
मूलम्
एवं स्त्री नापराध्नोति नर एवापराध्यति।
व्युच्चरंश्च महादोषं नर एवापराध्यति ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वास्तवमें स्त्रीका कोई अपराध नहीं होता है, पुरुष ही अपराध करता है। व्यभिचारका महान् पाप पुरुष ही करता है, इसलिये वही अपराधी है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रिया हि परमो भर्ता दैवतं परमं स्मृतम्।
तस्यात्मना तु सदृशमात्मानं परमं ददौ ॥ ३९ ॥
मूलम्
स्त्रिया हि परमो भर्ता दैवतं परमं स्मृतम्।
तस्यात्मना तु सदृशमात्मानं परमं ददौ ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्त्रीके लिये पति ही परम आदरणीय है, वही उसका सबसे बड़ा देवता माना गया है। मेरी माताने ऐसे पुरुषको आत्मसमर्पण किया है, जो शरीरसे, वेशभूषासे पिताजीके समान ही था॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नापराधोऽस्ति नारीणां नर एवापराध्यति।
सर्वकार्यापराध्यत्वान्नापराध्यन्ति चाङ्गनाः ॥ ४० ॥
मूलम्
नापराधोऽस्ति नारीणां नर एवापराध्यति।
सर्वकार्यापराध्यत्वान्नापराध्यन्ति चाङ्गनाः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसे अवसरोंपर स्त्रियोंका अपराध नहीं होता, पुरुष ही अपराधी होता है। सभी कार्योंमें अबला होनेके कारण स्त्रियोंको अपराधके लिये विवश कर दिया जाता है, अतः पराधीन होनेके कारण वे अपराधिनी नहीं हैं॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्च नोक्तोऽथ निर्देशः स्त्रिया मैथुनतृप्तये।
तस्य स्मारयतो व्यक्तमधर्मो नास्ति संशयः ॥ ४१ ॥
मूलम्
यश्च नोक्तोऽथ निर्देशः स्त्रिया मैथुनतृप्तये।
तस्य स्मारयतो व्यक्तमधर्मो नास्ति संशयः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्त्रीके द्वारा मैथुनजनित सुखसे तृप्त होनेके लिये कोई संकेत न करनेपर भी उसके कामको उद्दीप्त करनेवाले पुरुषको स्पष्ट ही अधर्मकी प्राप्ति होती है। इसमें संशय नहीं है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं नारीं मातरं च गौरवे चाधिके स्थिताम्।
अवध्यां तु विजानीयुः पशवोऽप्यविचक्षणाः ॥ ४२ ॥
मूलम्
एवं नारीं मातरं च गौरवे चाधिके स्थिताम्।
अवध्यां तु विजानीयुः पशवोऽप्यविचक्षणाः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार विचार करनेसे एक तो वह नारी होनेके कारण ही अवध्य है, दूसरे मेरी पूजनीया माता है। माताका गौरव पितासे भी बढ़कर है, जिसमें मेरी माँ प्रतिष्ठित है। नासमझ पशु भी स्त्री और माताको अवध्य मानते हैं (फिर मैं समझदार मनुष्य होकर भी उसका वध कैसे करूँ?)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतानां समावायमेकस्थं पितरं विदुः।
मर्त्यानां देवतानां च स्नेहादभ्येति मातरम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
देवतानां समावायमेकस्थं पितरं विदुः।
मर्त्यानां देवतानां च स्नेहादभ्येति मातरम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनीषी पुरुष यह जानते हैं कि पिता एक स्थानपर स्थित सम्पूर्ण देवताओंका समूह है; परंतु माताके भीतर उसके स्नेहवश समस्त मनुष्यों और देवताओंका समुदाय स्थित रहता है (अतः माताका गौरव पितासे भी अधिक है)॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विमृशतस्तस्य चिरकारितया बहु।
दीर्घःकालो व्यतिक्रान्तस्ततोऽस्याभ्यागमत् पिता ॥ ४४ ॥
मूलम्
एवं विमृशतस्तस्य चिरकारितया बहु।
दीर्घःकालो व्यतिक्रान्तस्ततोऽस्याभ्यागमत् पिता ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विलम्ब करनेका स्वभाव होनेके कारण चिरकारी इस प्रकार सोचता-विचारता रहा। इसी सोच-विचारमें बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया। इतनेमें ही उसके पिता वनसे लौट आये॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थितः ।
विमृश्य तेन कालेन पत्न्याः संस्थाव्यतिक्रमम् ॥ ४५ ॥
सोऽब्रवीद् भृशसंतप्तो दुःखेनाश्रूणि वर्तयन्।
श्रुतधैर्यप्रसादेन पश्चात्तापमुपागतः ॥ ४६ ॥
मूलम्
मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थितः ।
विमृश्य तेन कालेन पत्न्याः संस्थाव्यतिक्रमम् ॥ ४५ ॥
सोऽब्रवीद् भृशसंतप्तो दुःखेनाश्रूणि वर्तयन्।
श्रुतधैर्यप्रसादेन पश्चात्तापमुपागतः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाज्ञानी तपोनिष्ठ मेधातिथि गौतम उस समय पत्नीके वधके अनौचित्यपर विचार करके अधिक संतप्त हो गये। वे दुःखसे आँसू बहाते हुए वेदाध्ययन और धैर्यके प्रभावसे किसी तरह अपनेको सँभाले रहे और पश्चात्ताप करते हुए मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगे—॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमं मम सम्प्राप्तस्त्रिलोकेशः पुरंदरः।
अतिथिव्रतमास्थाय ब्राह्मणं रूपमास्थितः ॥ ४७ ॥
स मया सान्त्वितो वाग्भिः स्वागतेनाभिपूजितः।
अर्घ्यं पाद्यं यथान्यायं मया च प्रतिपादितः ॥ ४८ ॥
मूलम्
आश्रमं मम सम्प्राप्तस्त्रिलोकेशः पुरंदरः।
अतिथिव्रतमास्थाय ब्राह्मणं रूपमास्थितः ॥ ४७ ॥
स मया सान्त्वितो वाग्भिः स्वागतेनाभिपूजितः।
अर्घ्यं पाद्यं यथान्यायं मया च प्रतिपादितः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! त्रिभुवनका स्वामी इन्द्र ब्राह्मणका रूप धारण करके मेरे आश्रमपर आया था। मैंने अतिथि-सत्कारके गृहस्थोचित व्रतका आश्रय लेकर उसे मीठे वचनोंद्वारा सान्त्वना दी, उसका स्वागत-सत्कार किया और यथोचित रूपसे अर्घ्य-पाद्य आदि निवेदन करके मैंने स्वयं ही उसकी विधिवत् पूजा की॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परवानस्मि चेत्युक्तः प्रणयिष्यति तेन च।
अत्र चाकुशले जाते स्त्रिया नास्ति व्यतिक्रमः ॥ ४९ ॥
मूलम्
परवानस्मि चेत्युक्तः प्रणयिष्यति तेन च।
अत्र चाकुशले जाते स्त्रिया नास्ति व्यतिक्रमः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने विनयपूर्वक कहा—‘भगवन्! मैं आपके अधीन हूँ। आपके पदार्पणसे मैं सनाथ हो गया।’ मुझे आशा थी कि मेरे इस सद्व्यवहारसे संतुष्ट होकर अतिथिदेवता मुझसे प्रेम करेंगे; परंतु यहाँ इन्द्रकी विषयलोलुपताके कारण दुःखद घटना घटित हो गयी। इसमें मेरी स्त्रीका कोई अपराध नहीं॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं न स्त्री न चैवाहं नाध्वगस्त्रिदशेश्वरः।
अपराध्यति धर्मस्य प्रमादस्त्वपराध्यति ॥ ५० ॥
मूलम्
एवं न स्त्री न चैवाहं नाध्वगस्त्रिदशेश्वरः।
अपराध्यति धर्मस्य प्रमादस्त्वपराध्यति ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार न तो स्त्री अपराधिनी है, न मैं अपराधी हूँ और न एक पथिक ब्राह्मणके वेशमें आया हुआ देवताओंका राजा इन्द्र ही अपराधी है। मेरे द्वारा धर्मके विषयमें जो स्त्रीवधरूप प्रमाद हुआ है, वही इस अपराधकी जड़ है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईर्ष्याजं व्यसनं प्राहुस्तेन चैवोर्ध्वरेतसः।
ईर्ष्यया त्वहमाक्षिप्तो मग्नो दुष्कृतसागरे ॥ ५१ ॥
मूलम्
ईर्ष्याजं व्यसनं प्राहुस्तेन चैवोर्ध्वरेतसः।
ईर्ष्यया त्वहमाक्षिप्तो मग्नो दुष्कृतसागरे ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऊर्ध्वरेता मुनि उस प्रमादके ही कारण ईर्ष्याजनित संकटकी प्राप्ति बताते हैं; ईर्ष्याने मुझे पापके समुद्रमें ढकेल दिया है और मैं उसमें डूब गया हूँ॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा साध्वीं च नारीं च व्यसनित्वाच्च वासिताम्।
भर्तव्यत्वेन भार्यां च को नु मां तारयिष्यति ॥ ५२ ॥
मूलम्
हत्वा साध्वीं च नारीं च व्यसनित्वाच्च वासिताम्।
भर्तव्यत्वेन भार्यां च को नु मां तारयिष्यति ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसे मैंने पत्नीके रूपमें अपने घरमें आश्रय दिया था। जो एक सती-साध्वी नारी थी और भार्या होनेके कारण मुझसे भरण-पोषण पानेकी अधिकारिणी थी, उसीका मैंने प्रमादरूपी व्यसनके वशीभूत होनेके कारण वध करा डाला। अब इस पापसे मेरा कौन उद्धार करेगा?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरेण मयाऽऽज्ञप्तश्चिरकारीत्युदारधीः ।
यद्यद्य चिरकारी स्यात् स मां त्रायेत पातकात् ॥ ५३ ॥
मूलम्
अन्तरेण मयाऽऽज्ञप्तश्चिरकारीत्युदारधीः ।
यद्यद्य चिरकारी स्यात् स मां त्रायेत पातकात् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु मैंने उदारबुद्धि चिरकारीको उसकी माताके वधके लिये आज्ञा दी थी। यदि उसने इस कार्यमें विलम्ब करके अपने नामको सार्थक किया हो तो वही मुझे स्त्रीहत्याके पापसे बचा सकता है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरकारिक भद्रं ते भद्रं ते चिरकारिक।
यद्यद्य चिरकारी त्वं ततोऽसि चिरकारिकः ॥ ५४ ॥
मूलम्
चिरकारिक भद्रं ते भद्रं ते चिरकारिक।
यद्यद्य चिरकारी त्वं ततोऽसि चिरकारिकः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा चिरकारी! तेरा कल्याण हो। चिरकारी! तेरा मंगल हो। यदि आज भी तूने विलम्बसे कार्य करनेके अपने स्वभावका अनुसरण किया हो तभी तेरा चिरकारी नाम सफल हो सकता है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्राहि मां मातरं चैव तपो यच्चार्जितं मया।
आत्मानं पातकेभ्यश्च भवाद्य चिरकारिकः ॥ ५५ ॥
मूलम्
त्राहि मां मातरं चैव तपो यच्चार्जितं मया।
आत्मानं पातकेभ्यश्च भवाद्य चिरकारिकः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! आज विलम्ब करके तू वास्तवमें चिरकारी बन और मेरी, अपनी माताकी तथा मैंने जो तपका उपार्जन किया है, उसकी भी रक्षा कर। साथ ही अपने-आपको भी पातकोंसे बचा ले॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजं चिरकारित्वमतिप्रज्ञतया तव ।
सफलं तत् तथा तेऽस्तु भवाद्य चिरकारिकः ॥ ५६ ॥
मूलम्
सहजं चिरकारित्वमतिप्रज्ञतया तव ।
सफलं तत् तथा तेऽस्तु भवाद्य चिरकारिकः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अत्यन्त बुद्धिमान् होनेके कारण तुझमें जो चिरकारिताका सहज गुण है, वह इस समय सफल हो। आज तू वास्तवमें चिरकारी बन॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरमाशंसितो मात्रा चिरं गर्भेण धारितः।
सफलं चिरकारित्वं कुरु त्वं चिरकारिक ॥ ५७ ॥
मूलम्
चिरमाशंसितो मात्रा चिरं गर्भेण धारितः।
सफलं चिरकारित्वं कुरु त्वं चिरकारिक ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तेरी माता चिरकालसे तेरे जन्मकी आशा लगाये बैठी थी। उसने चिरकालतक तुझे गर्भमें धारण किया है, अतः बेटा चिरकारी! आज तू अपनी माताकी रक्षा करके चिरकारिताको सफल कर ले॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरायते च संतापाच्चिरं स्वपिति वारितः।
आवयोश्चिरसंतापादवेक्ष्य चिरकारिकः ॥ ५८ ॥
मूलम्
चिरायते च संतापाच्चिरं स्वपिति वारितः।
आवयोश्चिरसंतापादवेक्ष्य चिरकारिकः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरा बेटा चिरकारी कोई दुःख या संताप प्राप्त होनेपर भी कार्य करनेमें विलम्ब करनेका स्वभाव नहीं छोड़ता है। मना करनेपर भी चिरकालतक सोता रहता है। आज हम दोनों माता-पिताका चिरसंताप देखकर वह अवश्य चिरकारी बने’॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स दुःखितों राजन् महर्षिर्गौतमस्तदा।
चिरकारिं ददर्शाथ पुत्रं स्थितमथान्तिके ॥ ५९ ॥
मूलम्
एवं स दुःखितों राजन् महर्षिर्गौतमस्तदा।
चिरकारिं ददर्शाथ पुत्रं स्थितमथान्तिके ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार दुखी हुए महर्षि गौतमने घर आनेपर अपने पुत्र चिरकारीको पास ही खड़ा देखा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरकारी तु पितरं दृष्ट्वा परमदुःखितः।
शस्त्रं त्यक्त्वा ततो मूर्ध्ना प्रसादायोपचक्रमे ॥ ६० ॥
मूलम्
चिरकारी तु पितरं दृष्ट्वा परमदुःखितः।
शस्त्रं त्यक्त्वा ततो मूर्ध्ना प्रसादायोपचक्रमे ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताको उपस्थित देख चिरकारी बहुत दुखी हुआ। वह हथियार फेंककर उनके चरणोंमें मस्तक झुका उन्हें प्रसन्न करनेकी चेष्टा करने लगा॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौतमस्तं ततो दृष्ट्वा शिरसा पतितं भुवि।
पत्नीं चैव निराकारां परामभ्यागमन्मुदम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
गौतमस्तं ततो दृष्ट्वा शिरसा पतितं भुवि।
पत्नीं चैव निराकारां परामभ्यागमन्मुदम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमने देखा, चिरकारी पृथ्वीपर माथा टेककर पड़ा है और पत्नी लज्जाके मारे निश्चेष्ट खड़ी है। यह देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि सा तेन सम्भेदं पत्नी नीता महात्मना।
विजने चाश्रमस्थेन पुत्रश्चापि समाहितः ॥ ६२ ॥
मूलम्
न हि सा तेन सम्भेदं पत्नी नीता महात्मना।
विजने चाश्रमस्थेन पुत्रश्चापि समाहितः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एकान्त वनमें उस आश्रमके भीतर रहनेवाले महामना गौतमने अपनी पत्नी तथा एकाग्रचित्त पुत्र चिरकारीको कभी अपनेसे अलग नहीं किया॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्या इति समादेशः शस्त्रपाणौ सुते स्थिते।
विनीते प्रसवत्यर्थे विवासे चात्मकर्मसु ॥ ६३ ॥
मूलम्
हन्या इति समादेशः शस्त्रपाणौ सुते स्थिते।
विनीते प्रसवत्यर्थे विवासे चात्मकर्मसु ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने आवश्यक कर्म जप-ध्यान आदिके लिये महर्षि गौतमके बाहर चले जानेपर उनका पुत्र चिरकारी यद्यपि हाथमें हथियार लेकर खड़ा था तथापि माताकी रक्षाके लिये वह विनीतभावसे कुछ सोचता-विचारता रहा। इसीलिये माताको मार डालनेका जो आदेश प्राप्त हुआ था, वह पालित न हो सका॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिश्चासीत् सुतं दृष्ट्वा पितुश्चरणयोर्नतम्।
शस्त्रग्रहणचापल्यं संवृणोति भयादिति ॥ ६४ ॥
मूलम्
बुद्धिश्चासीत् सुतं दृष्ट्वा पितुश्चरणयोर्नतम्।
शस्त्रग्रहणचापल्यं संवृणोति भयादिति ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रको अपने चरणोंमें नतमस्तक हुआ देख गौतमके मनमें यह विचार हुआ कि सम्भवतः चिरकारी भयके मारे हथियार उठानेकी चपलताको छिपा रहा है॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पित्रा चिरं स्तुत्वा चिरं चाघ्राय मूर्धनि।
चिरं दोर्भ्यां परिष्वज्य चिरं जीवेत्युदाहृतः ॥ ६५ ॥
मूलम्
ततः पित्रा चिरं स्तुत्वा चिरं चाघ्राय मूर्धनि।
चिरं दोर्भ्यां परिष्वज्य चिरं जीवेत्युदाहृतः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पिताने चिरकालतक उसकी प्रशंसा करके देरतक उसका मस्तक सूँघा और चिरकालतक दोनों भुजाओंसे खींचकर उसे हृदयसे लगाये रखा और आशीर्वाद देते हुए कहा—‘बेटा! चिरंजीवी हो’॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स गौतमः पुत्रं प्रीतिहर्षगुणैर्युतः।
अभिनन्द्य महाप्राज्ञ इदं वचनमब्रवीत् ॥ ६६ ॥
मूलम्
एवं स गौतमः पुत्रं प्रीतिहर्षगुणैर्युतः।
अभिनन्द्य महाप्राज्ञ इदं वचनमब्रवीत् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! इस प्रकार प्रेम और हर्षसे भरे हुए गौतमने पुत्रका अभिनन्दन करके यह बात कही—॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरकारिक भद्रं ते चिरकारी चिरं भव।
चिराय यदि ते सौम्य चिरमस्मि न दुःखितः ॥ ६७ ॥
मूलम्
चिरकारिक भद्रं ते चिरकारी चिरं भव।
चिराय यदि ते सौम्य चिरमस्मि न दुःखितः ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा चिरकारी! तेरा कल्याण हो। तू चिरकालतक चिरकारी एवं चिरंजीवी बना रह। सौम्य! यदि तू चिरकालतक ऐसे ही स्वभावका बना रहा तो मैं दीर्घकालतक कभी दुखी नहीं होऊँगा’॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाथाश्चाप्यब्रवीद् विद्वान् गौतमो मुनिसत्तमः।
चिरकारिषु धीरेषु गुणोद्देशसमाश्रयाः ॥ ६८ ॥
मूलम्
गाथाश्चाप्यब्रवीद् विद्वान् गौतमो मुनिसत्तमः।
चिरकारिषु धीरेषु गुणोद्देशसमाश्रयाः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर विद्वान् मुनिश्रेष्ठ गौतमने कुछ गाथाएँ गायीं। चिरकालतक सोच-विचारकर काम करनेवाले धीर पुरुषोंमें जो गुण होते हैं, उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वे गाथाएँ इस प्रकार हैं—॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरेण मित्रं बध्नीयाच्चिरेण च कृतं त्यजेत्।
चिरेण हि कृतं मित्रं चिरं धारणमर्हति ॥ ६९ ॥
मूलम्
चिरेण मित्रं बध्नीयाच्चिरेण च कृतं त्यजेत्।
चिरेण हि कृतं मित्रं चिरं धारणमर्हति ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चिरकालतक सोच-विचार करके किसीके साथ मित्रता जोड़नी चाहिये और जिसे मित्र बना लिया, उसे सहसा नहीं छोड़ना चाहिये। यदि छोड़नेकी आवश्यकता पड़ ही जाय तो उसके परिणामपर चिरकालतक विचार कर लेना चाहिये। दीर्घकालतक सोच-विचार करके बनाया हुआ जो मित्र है, उसीकी मैत्री चिरकालतक टिक पाती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि।
अप्रिये चैव कर्तव्ये चिरकारी प्रशस्यते ॥ ७० ॥
मूलम्
रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि।
अप्रिये चैव कर्तव्ये चिरकारी प्रशस्यते ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राग, दर्द, अभिमान, द्रोह, पापाचरण और किसीका अप्रिय करनेमें जो विलम्ब करता है, उसकी प्रशंसा की जाती है॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धूनां सुहृदां चैव भृत्यानां स्त्रीजनस्य च।
अव्यक्तेष्वपराधेषु चिरकारी प्रशस्यते ॥ ७१ ॥
मूलम्
बन्धूनां सुहृदां चैव भृत्यानां स्त्रीजनस्य च।
अव्यक्तेष्वपराधेषु चिरकारी प्रशस्यते ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बन्धुओं, सुहृदों, सेवकों और स्त्रियोंके छिपे हुए अपराधोंके विषयमें कुछ निर्णय करनेमें भी जो जल्दबाजी न करके दीर्घकालतक सोच-विचार करता है, उसीकी प्रशंसा की जाती है’॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स गौतमस्तत्र प्रीतः पुत्रस्य भारत।
कर्मणा तेन कौरव्य चिरकारितया तथा ॥ ७२ ॥
मूलम्
एवं स गौतमस्तत्र प्रीतः पुत्रस्य भारत।
कर्मणा तेन कौरव्य चिरकारितया तथा ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कुरुनन्दन! इस प्रकार गौतम वहाँ अपने पुत्रके विलम्बपूर्वक कार्य करनेके कारण बहुत प्रसन्न हुए थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सर्वेषु कार्येषु विमृश्य पुरुषस्ततः।
चिरेण निश्चयं कृत्वा चिरं न परितप्यते ॥ ७३ ॥
मूलम्
एवं सर्वेषु कार्येषु विमृश्य पुरुषस्ततः।
चिरेण निश्चयं कृत्वा चिरं न परितप्यते ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सभी कार्योंमें विचार करके चिर-कालके पश्चात् किसी निश्चयपर पहुँचनेवाले पुरुषको दीर्घकालतक पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरं धारयते रोषं चिरं कर्म नियच्छति।
पश्चात्तापकरं कर्म न किंचिदुपपद्यते ॥ ७४ ॥
मूलम्
चिरं धारयते रोषं चिरं कर्म नियच्छति।
पश्चात्तापकरं कर्म न किंचिदुपपद्यते ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो चिरकालतक रोषको अपने भीतर ही दबाये रखता है और रोषपूर्वक किये जानेवाले कर्मको देरतक रोके रहता है, उसके द्वारा कोई कर्म ऐसा नहीं बनता, जो पश्चात्ताप करानेवाला हो॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरं वृद्धानुपासीत चिरमन्वास्य पूजयेत्।
चिरं धर्मं निषेवेत कुर्याच्चान्वेषणं चिरम् ॥ ७५ ॥
मूलम्
चिरं वृद्धानुपासीत चिरमन्वास्य पूजयेत्।
चिरं धर्मं निषेवेत कुर्याच्चान्वेषणं चिरम् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीर्घकालतक बड़े-बूढ़ोंकी सेवा करे। दीर्घकालतक उनका संग करके उनकी पूजा (आदर-सत्कार) करे। चिरकालतक धर्मका सेवन और दीर्घकालतक उसका अनुसंधान करे॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरमन्वास्य विदुषश्चिरं शिष्टान् निषेव्य च।
चिरं विनीय चात्मानं चिरं यात्यनवज्ञताम् ॥ ७६ ॥
मूलम्
चिरमन्वास्य विदुषश्चिरं शिष्टान् निषेव्य च।
चिरं विनीय चात्मानं चिरं यात्यनवज्ञताम् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अधिक समयतक विद्वानोंका संग करके चिरकालतक शिष्ट पुरुषोंकी सेवामें रहे तथा चिरकालतक अपने मनको वशमें रखे। इससे मनुष्य चिरकालतक अवज्ञाका नहीं किंतु सम्मानका भागी होता है॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रुवतश्च परस्यापि वाक्यं धर्मोपसंहितम्।
चिरं पृष्टोऽपि च ब्रूयाच्चिरं न परितप्यते ॥ ७७ ॥
मूलम्
ब्रुवतश्च परस्यापि वाक्यं धर्मोपसंहितम्।
चिरं पृष्टोऽपि च ब्रूयाच्चिरं न परितप्यते ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मोपदेश करनेवाले पुरुषसे यदि कोई प्रश्न करे तो उसे देरतक सोच-विचार कर ही उत्तर देना चाहिये। ऐसा करनेसे उसको देरतक पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपास्य बहुलास्तस्मिन्नाश्रमे सुमहातपाः ।
समाः स्वर्गं गतो विप्रः पुत्रेण सहितस्तदा ॥ ७८ ॥
मूलम्
उपास्य बहुलास्तस्मिन्नाश्रमे सुमहातपाः ।
समाः स्वर्गं गतो विप्रः पुत्रेण सहितस्तदा ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महातपस्वी ब्रह्मर्षि गौतम उस आश्रममें बहुत वर्षोंतक रहकर अन्तमें पुत्र चिरकारीके साथ ही स्वर्गलोकको सिधारे॥७८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चिरकारिकोपाख्याने षट्षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें चिरकारीका उपाख्यानविषयक दो सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६६॥