२६५ विचख्नुगीतायाम्

भागसूचना

पञ्चषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा विचख्नुके द्वारा अहिंसा-धर्मकी प्रशंसा

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रजानामनुकम्पार्थं गीतं राज्ञा विचख्नुना ॥ १ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रजानामनुकम्पार्थं गीतं राज्ञा विचख्नुना ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! प्राचीन कालमें राजा विचख्नुने समस्त प्राणियोंपर दया करनेके लिये जो उद्‌गार प्रकट किया था, उस प्राचीन इतिहासका इस प्रसंगमें जानकार मनुष्य उदाहरण दिया करते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन्नस्थूणं वृषं दृष्ट्‌वा विलापं च गवां भृशम्।
गोग्रहे यज्ञवाटस्य प्रेक्षमाणः स पार्थिवः ॥ २ ॥

मूलम्

छिन्नस्थूणं वृषं दृष्ट्‌वा विलापं च गवां भृशम्।
गोग्रहे यज्ञवाटस्य प्रेक्षमाणः स पार्थिवः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समय किसी यज्ञशालामें राजाने देखा कि एक बैलकी गरदन कटी हुई है और वहाँ बहुत-सी गौएँ आर्तनाद कर रही हैं। यज्ञशालाके प्रांगणमें कितनी ही गौएँ खड़ी हैं। यह सब देखकर राजा बोले—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्ति गोभ्योऽस्तु लोकेषु ततो निर्वचनं कृतम्।
हिंसायां हि प्रवृत्तायामाशीरेषा तु कल्पिता ॥ ३ ॥

मूलम्

स्वस्ति गोभ्योऽस्तु लोकेषु ततो निर्वचनं कृतम्।
हिंसायां हि प्रवृत्तायामाशीरेषा तु कल्पिता ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संसारमें समस्त गौओंका कल्याण हो।’ जब हिंसा आरम्भ होने जा रही थी, उस समय उन्होंने गौओंके लिये यह शुभ कामना प्रकट की और उस हिंसाका निषेध करते हुए कहा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यवस्थितमर्यादैर्विमूढैर्नास्तिकैर्नरैः ।
संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिंसा समनुवर्णिता ॥ ४ ॥

मूलम्

अव्यवस्थितमर्यादैर्विमूढैर्नास्तिकैर्नरैः ।
संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिंसा समनुवर्णिता ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो धर्मकी मर्यादासे भ्रष्ट हो चुके हैं, मूर्ख हैं, नास्तिक हैं तथा जिन्हें आत्माके विषयमें संदेह है एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है, ऐसे लोगोंने ही हिंसाका समर्थन किया है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत्।
कामकाराद् विहिंसन्ति बहिर्वेद्यां पशून् नराः ॥ ५ ॥

मूलम्

सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत्।
कामकाराद् विहिंसन्ति बहिर्वेद्यां पशून् नराः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्मा मनुने सम्पूर्ण कर्मोंमें अहिंसाका ही प्रतिपादन किया है। मनुष्य अपनी ही इच्छासे यज्ञकी बाह्यवेदीपर पशुओंका बलिदान करते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता।
अहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्मात् प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता।
अहिंसा सर्वभूतेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः विज्ञ पुरुषको उचित है कि वह वैदिक प्रमाणसे धर्मके सूक्ष्म स्वरूपका निर्णय करे। सम्पूर्ण भूतोंके लिये जिन धर्मोंका विधान किया गया है, उनमें अहिंसा ही सबसे बड़ी मानी गयी है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपोष्य संशितो भूत्वा हित्वा वेदकृताः श्रुतीः।
आचार इत्यनाचारः कृपणाः फलहेतवः ॥ ७ ॥

मूलम्

उपोष्य संशितो भूत्वा हित्वा वेदकृताः श्रुतीः।
आचार इत्यनाचारः कृपणाः फलहेतवः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उपवासपूर्वक कठोर नियमोंका पालन करे। वेदकी फलश्रुतियोंका परित्याग कर दे अर्थात् काम्य कर्मोंको छोड़ दे, सकाम कर्मोंके आचरणको अनाचार समझकर उनमें प्रवृत्त न हो। कृपण (क्षुद्र) मनुष्य ही फलकी इच्छासे कर्म करते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि यज्ञांश्च वृक्षांश्च यूपांश्चोद्दिश्य मानवाः।
वृथा मांसं न खादन्ति नैष धर्मः प्रशस्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

यदि यज्ञांश्च वृक्षांश्च यूपांश्चोद्दिश्य मानवाः।
वृथा मांसं न खादन्ति नैष धर्मः प्रशस्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कहें कि मनुष्य यूपनिर्माणके उद्देश्यसे जो वृक्ष काटते और यज्ञके उद्देश्यसे पशुबलि देकर जो मांस खाते हैं, वह व्यर्थ नहीं है। अपितु धर्म ही है तो यह ठीक नहीं; क्योंकि ऐसे धर्मकी कोई प्रशंसा नहीं करते॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरा मत्स्या मधु मांसमासवं कृसरौदनम्।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ ९ ॥

मूलम्

सुरा मत्स्या मधु मांसमासवं कृसरौदनम्।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुरा, आसव, मधु, मांस और मछली तथा तिल और चावलकी खिचड़ी—इन सब वस्तुओंको धूर्तोंने यज्ञमें प्रचलित कर दिया है। वेदोंमें इनके उपयोगका विधान नहीं है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानान्मोहाच्च लोभाच्च लौल्यमेतत्प्रकल्पितम् ।

मूलम्

मानान्मोहाच्च लोभाच्च लौल्यमेतत्प्रकल्पितम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन धूर्तोंने अभिमान, मोह और लोभके वशीभूत होकर उन वस्तुओंके प्रति अपनी यह लोलुपता ही प्रकट की है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुमेवाभिजानन्ति सर्वयज्ञेषु ब्राह्मणाः ॥ १० ॥
पायसैः सुमनोभिश्च तस्यापि यजनं स्मृतम्।

मूलम्

विष्णुमेवाभिजानन्ति सर्वयज्ञेषु ब्राह्मणाः ॥ १० ॥
पायसैः सुमनोभिश्च तस्यापि यजनं स्मृतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण तो सम्पूर्ण यज्ञोंमें भगवान् विष्णुका ही आदरभाव मानते हैं और खीर तथा फूल आदिसे ही उनकी पूजाका विधान है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञियाश्चैव ये वृक्षा वेदेषु परिकल्पिताः ॥ ११ ॥
यच्चापि किंचित्‌ कर्तव्यमन्यच्चोक्षैः सुसंस्कृतम्।
महासत्त्वैः शुद्धभावैः सर्वं देवार्हमेव तत् ॥ १२ ॥

मूलम्

यज्ञियाश्चैव ये वृक्षा वेदेषु परिकल्पिताः ॥ ११ ॥
यच्चापि किंचित्‌ कर्तव्यमन्यच्चोक्षैः सुसंस्कृतम्।
महासत्त्वैः शुद्धभावैः सर्वं देवार्हमेव तत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंमें जो यज्ञ-सम्बन्धी वृक्ष बताये गये हैं, उन्हींका यज्ञोंमें उपयोग होना चाहिये। शुद्ध आचार-विचारवाले महान् सत्त्वगुणी पुरुष अपनी विशुद्ध भावनासे प्रोक्षण आदिके द्वारा उत्तम संस्कार करके जो कोई भी हविष्य या नैवेद्य तैयार करते हैं, वह सब देवताओंको अर्पण करनेके योग्य ही होता है॥११-१२॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरमापदश्चापि विवदन्त्यविहिंसतः ।
कथं यात्रा शरीरस्य निरारम्भस्य सेत्स्यते ॥ १३ ॥

मूलम्

शरीरमापदश्चापि विवदन्त्यविहिंसतः ।
कथं यात्रा शरीरस्य निरारम्भस्य सेत्स्यते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो हिंसासे अत्यन्त दूर रहनेवाला है, उस पुरुषका शरीर और आपत्तियाँ परस्पर विवाद करने लगती हैं—आपत्तियाँ शरीरका शोषण करती हैं और शरीर आपत्तियोंका नाश चाहता है; अतः सूक्ष्म हिंसाके भयसे कृषि आदि किसी कार्यका आरम्भ न करनेवाले पुरुषकी शरीरयात्राका निर्वाह कैसे होगा?॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा शरीरं न ग्लायेन्नेयान्मृत्युवशं यथा।
तथा कर्मसु वर्तेत समर्थो धर्ममाचरेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

यथा शरीरं न ग्लायेन्नेयान्मृत्युवशं यथा।
तथा कर्मसु वर्तेत समर्थो धर्ममाचरेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! कर्मोंमें इस प्रकार प्रवृत्त होना चाहिये, जिससे शरीरकी शक्ति सर्वथा क्षीण न हो जाय, जिससे वह मृत्युके अधीन न हो जाय; क्योंकि मनुष्य शरीरके समर्थ होनेपर ही धर्मका पालन कर सकता है॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि विचख्नुगीतायां पञ्चषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें विचख्नुगीताविषयक दो सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६५॥