२६४ तुलाधारजाजलिसंवादे

भागसूचना

चतुःषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जाजलिको पक्षियोंका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

तुलाधार उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद्भिर्वा यदि वासद्भि पन्थानमिममास्थितम्।
प्रत्यक्षं क्रियतां साधु ततो ज्ञास्यसि तद् यथा ॥ १ ॥

मूलम्

सद्भिर्वा यदि वासद्भि पन्थानमिममास्थितम्।
प्रत्यक्षं क्रियतां साधु ततो ज्ञास्यसि तद् यथा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलाधारने कहा— ब्रह्मन्! मैंने धर्मके जिस मार्गका दर्शन कराया है, उसपर सज्जन पुरुष चलते हैं या दुर्जन? इस बातको अच्छी तरह जाँचकर प्रत्यक्ष कर लो। तब तुम्हें इसकी यथार्थताका ज्ञान होगा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते शकुन्ता बहवः समन्ताद् विचरन्ति ह।
तवोत्तमाङ्गे सम्भूताः श्येनाश्चान्याश्च जातयः ॥ २ ॥

मूलम्

एते शकुन्ता बहवः समन्ताद् विचरन्ति ह।
तवोत्तमाङ्गे सम्भूताः श्येनाश्चान्याश्च जातयः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो! आकाशमें ये जो बहुत-से श्येन एवं दूसरी जातियोंके पक्षी चारों ओर विचरण कर रहे हैं, इनमें तुम्हारे सिरपर उत्पन्न हुए पक्षी भी हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहूयैनान् महाब्रह्मन् विशमानांस्ततस्ततः ।
पश्येमान् हस्तपादैश्च श्लिष्टान् देहेषु सर्वशः ॥ ३ ॥

मूलम्

आहूयैनान् महाब्रह्मन् विशमानांस्ततस्ततः ।
पश्येमान् हस्तपादैश्च श्लिष्टान् देहेषु सर्वशः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! ये यत्र-तत्र घोंसलोंमें घुस रहे हैं। देखो, इन सबके हाथ-पैर सिकुड़कर शरीरोंसे सट गये हैं। इन सबको बुलाकर पूछो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भावयन्ति पितरं त्वया सम्भाविताः खगाः।
असंशयं पिता वै त्वं पुत्रानाहूय जाजले ॥ ४ ॥

मूलम्

सम्भावयन्ति पितरं त्वया सम्भाविताः खगाः।
असंशयं पिता वै त्वं पुत्रानाहूय जाजले ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये पक्षी तुम्हारे द्वारा पालित और समादृत हुए हैं। अतः तुम्हारा पिताके समान सम्मान करते हैं। जाजले! इसमें संदेह नहीं कि तुम इनके पिता ही हो; अतः इन पुत्रोंको बुलाकर प्रश्न करो॥४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो जाजलिना तेन समाहूताः पतत्त्रिणः।
वाचमुच्चारयन्ति स्म धर्मस्य वचनात् किल ॥ ५ ॥

मूलम्

ततो जाजलिना तेन समाहूताः पतत्त्रिणः।
वाचमुच्चारयन्ति स्म धर्मस्य वचनात् किल ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर जाजलिने उन पक्षियोंको बुलाया। उनका धर्मयुक्त वचन सुनकर वे पक्षी वहाँ आये और उनसे मनुष्यके समान स्पष्ट वाणीमें बोलने लगे—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहिंसादिकृतं कर्म इह चैव परत्र च।
श्रद्धां निहन्ति वै ब्रह्मन् सा हता हन्ति तं नरम्॥६॥

मूलम्

अहिंसादिकृतं कर्म इह चैव परत्र च।
श्रद्धां निहन्ति वै ब्रह्मन् सा हता हन्ति तं नरम्॥६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहिंसा और दया आदि भावोंसे प्रेरित होकर किया हुआ कर्म इहलोक और परलोकमें भी उत्तम फल देनेवाला है। ब्रह्मन्! यदि मनमें हिंसाकी भावना हो तो वह श्रद्धाका नाश कर देती है। फिर नष्ट हुई श्रद्धा कर्म करनेवाले इस हिंसक मनुष्यका ही सर्वनाश कर डालती है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समानां श्रद्दधानानां संयतानां सुचेतसाम्।
कुर्वतां यज्ञ इत्येव न यज्ञो जातु नेष्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

समानां श्रद्दधानानां संयतानां सुचेतसाम्।
कुर्वतां यज्ञ इत्येव न यज्ञो जातु नेष्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो हानि और लाभमें समान भाव रखनेवाले, श्रद्धालु, संयमी और शुद्ध चित्तवाले पुरुष हैं तथा यज्ञको कर्तव्य समझकर करते हैं, उनका यज्ञ कभी असफल नहीं होता॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रद्धा वैवस्वती सेयं सूर्यस्य दुहिता द्विज।
सावित्री प्रसवित्री च बहिर्वाङ्‌मनसी ततः ॥ ८ ॥

मूलम्

श्रद्धा वैवस्वती सेयं सूर्यस्य दुहिता द्विज।
सावित्री प्रसवित्री च बहिर्वाङ्‌मनसी ततः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! श्रद्धा सूर्यकी पुत्री है, इसलिये उसे वैवस्वती, सावित्री और प्रसवित्री (विशुद्ध जन्मदायिनी) भी कहते हैं। वाणी और मन भी श्रद्धाकी अपेक्षा बहिरंग हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाग्वृद्धं त्रायते श्रद्धा मनोवृद्धं च भारत।
श्रद्धावृद्धं वाङ्‌मनसी न कर्म त्रातुमर्हति ॥ ९ ॥

मूलम्

वाग्वृद्धं त्रायते श्रद्धा मनोवृद्धं च भारत।
श्रद्धावृद्धं वाङ्‌मनसी न कर्म त्रातुमर्हति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! यदि वाणीके दोषसे मन्त्रके उच्चारणमें त्रुटि रह जाय और मनकी चंचलताके कारण इष्टदेवताका ध्यान आदि कर्म सम्पन्न न हो सके तो भी यदि श्रद्धा हो तो वह वाणी और मनके दोषको दूर करके उस कर्मकी रक्षा कर सकती है। परंतु यदि श्रद्धा न होनेके कारण कर्ममें त्रुटि रह जाय तो वाणी और मन (मन्त्रोच्चारण और ध्यान) उस कर्मकी रक्षा नहीं कर सकते॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गाथा ब्रह्मगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
शुचेरश्रद्दधानस्य श्रद्दधानस्य चाशुचेः ॥ १० ॥
देवा वित्तममन्यन्त सदृशं यज्ञकर्मणि।
श्रोत्रियस्य कदर्यस्य वदान्यस्य च वार्धुषेः ॥ ११ ॥
मीमांसित्वोभयं देवाः सममन्नमकल्पयन् ।

मूलम्

अत्र गाथा ब्रह्मगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
शुचेरश्रद्दधानस्य श्रद्दधानस्य चाशुचेः ॥ १० ॥
देवा वित्तममन्यन्त सदृशं यज्ञकर्मणि।
श्रोत्रियस्य कदर्यस्य वदान्यस्य च वार्धुषेः ॥ ११ ॥
मीमांसित्वोभयं देवाः सममन्नमकल्पयन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें प्राचीन वृत्तान्तोंको जाननेवाले लोग ब्रह्माजीकी गायी हुई गाथाका वर्णन किया करते हैं, जो इस प्रकार है—पहले देवतालोग श्रद्धाहीन पवित्र और पवित्रतारहित श्रद्धालुके द्रव्यको यज्ञकर्मके लिये एक-सा ही समझते थे। इसी प्रकार वे कृपण वेदवेत्ता और महादानी सूदखोरके अन्नमें भी कोई अन्तर नहीं मानते थे। देवताओंने खूब सोच-विचारकर दोनों प्रकारके अन्नोंको समान निश्चित किया था॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजापतिस्तानुवाच विषमं कृतमित्युत ॥ १२ ॥
श्रद्धापूतं वदान्यस्य हतमश्रद्धयेतरत् ।

मूलम्

प्रजापतिस्तानुवाच विषमं कृतमित्युत ॥ १२ ॥
श्रद्धापूतं वदान्यस्य हतमश्रद्धयेतरत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘किंतु एक बार यज्ञमें प्रजापतिने उनके इस बर्तावको देखकर कहा—‘देवताओ! तुमने यह अनुचित किया है। वास्तवमें उदारका अन्न उसकी श्रद्धाके कारण पवित्र होता है और कंजूसका अश्रद्धाके कारण अपवित्र एवं नष्टप्राय समझा जाता है1॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोज्यमन्नं वदान्यस्य कदर्यस्य न वार्धुषेः ॥ १३ ॥
अश्रद्दधान एवैको देवानां नार्हते हविः।
तस्यैवान्नं न भोक्तव्यमिति धर्मविदो विदुः ॥ १४ ॥

मूलम्

भोज्यमन्नं वदान्यस्य कदर्यस्य न वार्धुषेः ॥ १३ ॥
अश्रद्दधान एवैको देवानां नार्हते हविः।
तस्यैवान्नं न भोक्तव्यमिति धर्मविदो विदुः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सारांश यह कि उदारका ही अन्न भोजन करना चाहिये; कृपण, श्रोत्रिय एवं केवल सूदखोरका नहीं। जिसमें श्रद्धा नहीं है, एकमात्र वही देवताओंको हविष्य अर्पण करनेका अधिकार नहीं रखता है। उसीका अन्न नहीं खाना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुष ऐसा ही मानते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पापप्रमोचिनी।
जहाति पापं श्रद्धावान् सर्पो जीर्णामिव त्वचम् ॥ १५ ॥

मूलम्

अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पापप्रमोचिनी।
जहाति पापं श्रद्धावान् सर्पो जीर्णामिव त्वचम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अश्रद्धा सबसे बड़ा पाप है और श्रद्धा पापसे छुटकारा दिलानेवाली है। जैसे साँप अपने पुरानी केंचुलको छोड़ देता है, उसी प्रकार श्रद्धालु पुरुष पापका परित्याग कर देता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्यायसी या पवित्राणां निवृत्तिः श्रद्धया सह।
निवृत्तशीलदोषो यः श्रद्धावान् पूत एव सः ॥ १६ ॥

मूलम्

ज्यायसी या पवित्राणां निवृत्तिः श्रद्धया सह।
निवृत्तशीलदोषो यः श्रद्धावान् पूत एव सः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रद्धा होनेके साथ-ही-साथ पापोंसे निवृत्त हो जाना समस्त पवित्रताओंसे बढ़कर है। जिसके शील-सम्बन्धी दोष दूर हो गये हैं, वह श्रद्धालु पुरुष सदा पवित्र ही है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं तस्य तपसा कार्यं किं वृत्तेन किमात्मना।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ १७ ॥

मूलम्

किं तस्य तपसा कार्यं किं वृत्तेन किमात्मना।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसे तपस्याद्वारा क्या लेना है? आचार-व्यवहार अथवा आत्मचिन्तनद्वारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करना है? यह पुरुष श्रद्धामय है, जिसकी जैसी सात्त्विकी, राजसी या तामसी श्रद्धा होती है, वह वैसा सात्त्विक, राजस या तामस होता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति धर्मः समाख्यातः सद्भिर्धर्मार्थदर्शिभिः।
वयं जिज्ञासमानास्तु सम्प्राप्ता धर्मदर्शनात् ॥ १८ ॥

मूलम्

इति धर्मः समाख्यातः सद्भिर्धर्मार्थदर्शिभिः।
वयं जिज्ञासमानास्तु सम्प्राप्ता धर्मदर्शनात् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्म और अर्थका साक्षात्कार करनेवाले सत्पुरुषोंने इसी प्रकार धर्मकी व्याख्या की है। हमलोगोंने धर्मदर्शन नामक मुनिसे जिज्ञासा प्रकट करनेपर उस धर्मका ज्ञान प्राप्त किया है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रद्धां कुरु महाप्राज्ञ ततः प्राप्स्यसि यत् परम्।
श्रद्धावान् श्रद्दधानश्च धर्मश्चैव हि जाजले।
स्ववर्त्मनि स्थितश्चैव गरीयानेव जाजले ॥ १९ ॥

मूलम्

श्रद्धां कुरु महाप्राज्ञ ततः प्राप्स्यसि यत् परम्।
श्रद्धावान् श्रद्दधानश्च धर्मश्चैव हि जाजले।
स्ववर्त्मनि स्थितश्चैव गरीयानेव जाजले ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाज्ञानी जाजलि! तुम इसपर श्रद्धा करो। तदनन्तर इसके अनुसार आचरण करनेसे तुम्हें परमगतिकी प्राप्ति होगी। श्रद्धा करनेवाला श्रद्धालु पुरुष साक्षात् धर्मका स्वरूप है। जाजले! जो श्रद्धापूर्वक अपने धर्मपर स्थित है, वही सबसे श्रेष्ठ माना गया है’॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽचिरेण कालेन तुलाधारः स एव च।
दिवं गत्वा महाप्राज्ञौ विहरेतां यथासुखम् ॥ २० ॥
स्वं स्वं स्थानमुपागम्य स्वकर्मफलनिर्जितम्।

मूलम्

ततोऽचिरेण कालेन तुलाधारः स एव च।
दिवं गत्वा महाप्राज्ञौ विहरेतां यथासुखम् ॥ २० ॥
स्वं स्वं स्थानमुपागम्य स्वकर्मफलनिर्जितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर थोड़े ही समयमें तुलाधार और जाजलि दोनों महाज्ञानी पुरुष परमधाममें जाकर अपने शुभ कर्मोंके फलस्वरूप अपने-अपने स्थानको पाकर वहाँ सुखपूर्वक विहार करने लगे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुविधार्थं च तुलाधारेण भाषितम् ॥ २१ ॥
सम्यक् चेदमुपालब्धो धर्मश्चोक्तः सनातनः।
तस्य विख्यातवीर्यस्य श्रुत्वा वाक्यानि स द्विजः ॥ २२ ॥

मूलम्

एवं बहुविधार्थं च तुलाधारेण भाषितम् ॥ २१ ॥
सम्यक् चेदमुपालब्धो धर्मश्चोक्तः सनातनः।
तस्य विख्यातवीर्यस्य श्रुत्वा वाक्यानि स द्विजः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार तुलाधारने नाना प्रकारके वक्तव्य विषयोंसे युक्त उत्तम भाषण किया। उन्होंने सनातन धर्मका भी वर्णन किया। ब्राह्मण जाजलिने विख्यात प्रभावशाली तुलाधारके वे वचन सुनकर उनके इस तात्पर्यको भलीभाँति हृदयंगम किया॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलाधारस्य कौन्तेय शान्तिमेवान्वपद्यत ।
एवं बहुमतार्थं च तुलाधारेण भाषितम्।
यथौपम्योपदेशेन किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २३ ॥

मूलम्

तुलाधारस्य कौन्तेय शान्तिमेवान्वपद्यत ।
एवं बहुमतार्थं च तुलाधारेण भाषितम्।
यथौपम्योपदेशेन किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! तुलाधारने जो उपदेश दिया था, वह बहुजनसम्मत अर्थसे युक्त था। उसे सुनकर जाजलिको परम शान्ति प्राप्त हुई। उसे यथावत् दृष्टान्तपूर्वक समझाया गया है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि तुलाधारजाजलिसंवादे चतुःषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तुलाधार-जाजलि-संवादविषयक दो सौ चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६४॥


  1. अतः श्रद्धाहीन पवित्रकी अपेक्षा पवित्रताहीन श्रद्धालुका ही अन्न ग्रहण करनेयोग्य है। इसी प्रकार कृपण वेदवेत्ता और दानी सूदखोरमेंसे दानी सूदखोरका ही अन्न श्रद्धापूत एवं ग्राह्य है। केवल सूदखोर और केवल कृपणका अन्न तो त्याज्य है ही। ↩︎