२६३ तुलाधारजाजलिसंवादे

भागसूचना

त्रिषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जाजलिको तुलाधारका आत्मयज्ञविषयक धर्मका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

जाजलिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं प्रवर्तितो धर्मस्तुलां धारयता त्वया।
स्वर्गद्वारं च वृत्तिं च भूतानामवरोत्स्यते ॥ १ ॥

मूलम्

अयं प्रवर्तितो धर्मस्तुलां धारयता त्वया।
स्वर्गद्वारं च वृत्तिं च भूतानामवरोत्स्यते ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाजलिने कहा— वणिक् महोदय! तुम हाथमें तराजू लेकर सौदा तौलते हुए जिस धर्मका उपदेश करते हो, उससे तो स्वर्गका दरवाजा ही बंद किये देते हो और प्राणियोंकी जीविकावृत्तिमें भी रुकावट पैदा करते हो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्या ह्यन्नं प्रभवति ततस्त्वमपि जीवसि।
पशुभिश्चौषधीभिश्च मर्त्या जीवन्ति वाणिज ॥ २ ॥

मूलम्

कृष्या ह्यन्नं प्रभवति ततस्त्वमपि जीवसि।
पशुभिश्चौषधीभिश्च मर्त्या जीवन्ति वाणिज ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैश्यपुत्र! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि खेतीसे ही अन्न पैदा होता है, जिससे तुम भी जी रहे हो। अन्न और पशुओंसे ही मनुष्यका जीवन-निर्वाह होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो यज्ञः प्रभवति नास्तिक्यमपि जल्पसि।
न हि वर्तेदयं लोको वार्तामुत्सृज्य केवलाम् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततो यज्ञः प्रभवति नास्तिक्यमपि जल्पसि।
न हि वर्तेदयं लोको वार्तामुत्सृज्य केवलाम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हींसे यज्ञकार्य सम्पन्न होता है। तुम तो नास्तिकताकी भी बातें करते हो। यदि पशुओंके कष्टका ख्याल करके खेती आदि वृत्तियोंका त्याग कर दिया जाय, तो इस संसारका जीवन ही समाप्त हो जायगा॥३॥

मूलम् (वचनम्)

तुलाधार उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्ष्यामि जाजले वृत्तिं नास्मि ब्राह्मण नास्तिकः।
न यज्ञं च विनिन्दामि यज्ञवित् तु सुदुर्लभः ॥ ४ ॥

मूलम्

वक्ष्यामि जाजले वृत्तिं नास्मि ब्राह्मण नास्तिकः।
न यज्ञं च विनिन्दामि यज्ञवित् तु सुदुर्लभः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलाधारने कहा— जाजले! मैं तुम्हें हिंसातिरिक्त जीविका-वृत्ति बताऊँगा। ब्राह्मणदेव! मैं नास्तिक नहीं हूँ और न यज्ञकी ही निन्दा करता हूँ; परंतु यज्ञके यथार्थ स्वरूपको समझनेवाला पुरुष अत्यन्त दुर्लभ है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमो ब्राह्मणयज्ञाय ये च यज्ञविदो जनाः।
स्वयज्ञं ब्राह्मणा हित्वा क्षत्रयज्ञमिहास्थिताः ॥ ५ ॥

मूलम्

नमो ब्राह्मणयज्ञाय ये च यज्ञविदो जनाः।
स्वयज्ञं ब्राह्मणा हित्वा क्षत्रयज्ञमिहास्थिताः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्र! ब्राह्मणोंके लिये जिस यज्ञका विधान है, उसको तो मैं नमस्कार करता हूँ और जो लोग उस यज्ञको ठीक-ठीक जानते हैं, उनके चरणोंमें भी मस्तक झुकाता हूँ, किंतु खेद है, इस समय ब्राह्मणलोग अपने यज्ञका परित्याग करके क्षत्रियोचित यज्ञोंके अनुष्ठानमें प्रवृत्त हो रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लुब्धैर्वित्तपरैर्ब्रह्मन् नास्तिकैः सम्प्रवर्तितम् ।
वेदवादानविज्ञाय सत्याभासमिवानृतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

लुब्धैर्वित्तपरैर्ब्रह्मन् नास्तिकैः सम्प्रवर्तितम् ।
वेदवादानविज्ञाय सत्याभासमिवानृतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! धन कमानेके प्रयत्नमें लगे हुए बहुत-से लोभी और नास्तिक पुरुषोंने वैदिक वचनोंका तात्पर्य न समझकर सत्य-से प्रतीत होनेवाले मिथ्या यज्ञोंका प्रचार कर दिया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं देयमिदं देयमिति चायं प्रशस्यते।
अतः स्तैन्यं प्रभवति विकर्माणि च जाजले ॥ ७ ॥

मूलम्

इदं देयमिदं देयमिति चायं प्रशस्यते।
अतः स्तैन्यं प्रभवति विकर्माणि च जाजले ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाजले! श्रुतियों और स्मृतियोंमें कहा गया है कि अमुक कर्मके लिये यह दक्षिणा देनी चाहिये, वह दक्षिणा देनी चाहिये, उसके अनुसार वैसी दक्षिणा देनेसे भी यह यज्ञ श्रेष्ठ माना जाता है; अन्यथा शक्ति रहते हुए यदि यज्ञकर्ताने लोभ दिखाया तो उसको चोरी करनेका पाप लगता है और उस कर्ममें भी विपरीतता आ जाती है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेव सुकृतं हव्यं तेन तुष्यन्ति देवताः।
नमस्कारेण हविषा स्वाध्यायैरौषधैस्तथा ॥ ८ ॥
पूजा स्याद् देवतानां हि यथा शास्त्रनिदर्शनम्।

मूलम्

यदेव सुकृतं हव्यं तेन तुष्यन्ति देवताः।
नमस्कारेण हविषा स्वाध्यायैरौषधैस्तथा ॥ ८ ॥
पूजा स्याद् देवतानां हि यथा शास्त्रनिदर्शनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

शुभ कर्मके द्वारा जिस हविष्यका संग्रह किया जाता है, उसीके होमसे देवता संतुष्ट होते हैं। शास्त्रके कथनानुसार नमस्कार, स्वाध्याय, घी और अन्न—इन सबके द्वारा देवताओंकी पूजा हो सकती है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टापूर्तादसाधूनां विगुणा जायते प्रजा ॥ ९ ॥

मूलम्

इष्टापूर्तादसाधूनां विगुणा जायते प्रजा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग कामनाके वशीभूत होकर यज्ञ करते, तालाब खुदवाते या बगीचे लगवाते हैं, उन (सकाम-भावयुक्त) असाधु पुरुषोंसे उन्हींके समान गुणहीन संतान उत्पन्न होती है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लुब्धेभ्यो जायते लुब्धः समेभ्यो जायते समः।
यजमाना यथाऽऽत्मानमृत्विजश्च तथा प्रजाः ॥ १० ॥

मूलम्

लुब्धेभ्यो जायते लुब्धः समेभ्यो जायते समः।
यजमाना यथाऽऽत्मानमृत्विजश्च तथा प्रजाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभी पुरुषोंसे लोभीका जन्म होता है और समदर्शी पुरुषोंसे समदर्शी पुत्र उत्पन्न होता है। यजमान और ऋत्विज् स्वयं जैसे होते हैं, उनकी प्रजा भी वैसी ही होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञात् प्रजा प्रभवति नभसोऽम्भ इवामलम्।
अग्नौ प्रास्ताहुतिर्ब्रह्मन्नादित्यमुपगच्छति ॥ ११ ॥
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।

मूलम्

यज्ञात् प्रजा प्रभवति नभसोऽम्भ इवामलम्।
अग्नौ प्रास्ताहुतिर्ब्रह्मन्नादित्यमुपगच्छति ॥ ११ ॥
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार आकाशसे निर्मल जलकी वर्षा होती है उसी प्रकार शुद्ध भावसे किये हुए यज्ञसे योग्य प्रजाकी उत्पत्ति होती है। विप्रवर! अग्निमें डाली हुई आहुति सूर्यमण्डलको प्राप्त होती है, सूर्यसे जलकी वृष्टि होती है, वृष्टिसे अन्न उपजता है और अन्नसे सम्पूर्ण प्रजा जन्म तथा जीवन धारण करती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्‌ सुनिष्ठिताः पूर्वे सर्वान्‌ कामांश्च लेभिरे ॥ १२ ॥
अकृष्टपच्या पृथिवी आशीर्भिर्वीरुधोऽभवन् ।

मूलम्

तस्मात्‌ सुनिष्ठिताः पूर्वे सर्वान्‌ कामांश्च लेभिरे ॥ १२ ॥
अकृष्टपच्या पृथिवी आशीर्भिर्वीरुधोऽभवन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेके लोग कर्तव्य समझकर यज्ञमें श्रद्धापूर्वक प्रवृत्त होते थे और उस यज्ञसे उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ स्वतः पूर्ण हो जाती थीं। पृथ्वीसे बिना जोते-बोये ही काफी अन्न पैदा होता तथा जगत्‌की भलाईके लिये उनके शुभ संकल्पसे ही वृक्षों और लताओंमें फल-फूल लगते थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते यज्ञेष्वात्मसु वा फलं पश्यन्ति किंचन ॥ १३ ॥
शङ्कमानाः फलं यज्ञे ये यजेरन् कथंचन।
जायन्तेऽसाधवो धूर्ता लुब्धा वित्तप्रयोजनाः ॥ १४ ॥

मूलम्

न ते यज्ञेष्वात्मसु वा फलं पश्यन्ति किंचन ॥ १३ ॥
शङ्कमानाः फलं यज्ञे ये यजेरन् कथंचन।
जायन्तेऽसाधवो धूर्ता लुब्धा वित्तप्रयोजनाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे यज्ञोंमें अपने लिये किसी फलकी ओर दृष्टि नहीं रखते थे। जो मनुष्य यज्ञसे कोई फल मिलता है या नहीं, इस प्रकारका संदेह मनमें लेकर किसी तरह यज्ञोंमें प्रवृत्त होते हैं, वे धन चाहनेवाले लोभी, धूर्त और दुष्ट होते हैं॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स स्म पापकृतां लोकान् गच्छेदशुभकर्मणा।
प्रमाणमप्रमाणेन यः कुर्यादशुभं नरः ॥ १५ ॥
पापात्मा सोऽकृतप्रज्ञः सदैवेह द्विजोत्तम।

मूलम्

स स्म पापकृतां लोकान् गच्छेदशुभकर्मणा।
प्रमाणमप्रमाणेन यः कुर्यादशुभं नरः ॥ १५ ॥
पापात्मा सोऽकृतप्रज्ञः सदैवेह द्विजोत्तम।

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! जो मनुष्य प्रमाणभूत वेदको अपने अप्रामाणिक कुतर्कद्वारा अमंगलकारी सिद्ध करता है, उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है, उसका मन सदा यहाँ पापोंमें ही लगा रहता है और वह अपने अशुभ कर्मके कारण पापाचारियोंके लोकों (नरकों) में ही जाता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्तव्यमिति कर्तव्यं वेत्ति वै ब्राह्मणो भयम् ॥ १६ ॥
ब्रह्मैव वर्तते लोके नैव कर्तव्यतां पुनः।

मूलम्

कर्तव्यमिति कर्तव्यं वेत्ति वै ब्राह्मणो भयम् ॥ १६ ॥
ब्रह्मैव वर्तते लोके नैव कर्तव्यतां पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो करने योग्य कर्मोंको अपना कर्तव्य समझता है और उसका पालन न होनेपर भय मानता है, जिसकी दृष्टिमें (ऋत्विक्, हविष्य, मन्त्र और अग्नि आदि) सब कुछ ब्रह्म ही है तथा जो किसी भी कर्तव्यको अपना नहीं मानता—कर्तापनका अभिमान नहीं रखता—वही सच्चा ब्राह्मण है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विगुणं च पुनः कर्म ज्याय इत्यनुशुश्रुम ॥ १७ ॥
सर्वभूतोपघातश्च फलभावे च संयमः।

मूलम्

विगुणं च पुनः कर्म ज्याय इत्यनुशुश्रुम ॥ १७ ॥
सर्वभूतोपघातश्च फलभावे च संयमः।

अनुवाद (हिन्दी)

हमने सुना है कि यदि कर्ममें किसी प्रकारकी त्रुटि हो जानेके कारण वह गुणहीन हो जाय तो भी यदि वह निष्कामभावसे किया जा रहा है तो श्रेष्ठ ही है अर्थात् वह कल्याणकारी ही होता है। निष्कामभावसे किये जानेवाले कर्ममें यदि कुत्ते आदि अपवित्र पशुओंके द्वारा स्पर्श हो जानेसे कोई बाधा भी आ जाय तथापि वह कर्म नष्ट नहीं होता, वह श्रेष्ठतम ही माना जाता है, अतः प्रत्येक कर्ममें फलकी भावना या कामनापर संयम—नियन्त्रण रखना आवश्यक है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्ययज्ञा दमयज्ञा अर्थलुब्धार्थतृप्तयः ॥ १८ ॥
उत्पन्नत्यागिनः सर्वे जना आसन्नमत्सराः।

मूलम्

सत्ययज्ञा दमयज्ञा अर्थलुब्धार्थतृप्तयः ॥ १८ ॥
उत्पन्नत्यागिनः सर्वे जना आसन्नमत्सराः।

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन कालके ब्राह्मण सत्यभाषण और इन्द्रिय-संयमरूप यज्ञका अनुष्ठान करते थे। वे परम पुरुषार्थ (मोक्ष)के प्रति लोभ रखते थे, उन्हें लौकिक धनकी प्यास नहीं रहती थी, वे उस ओरसे सदा तृप्त रहते थे। वे सब लोग प्राप्त वस्तुका त्याग करनेवाले और ईर्ष्या-द्वेषसे रहित थे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षेत्रक्षेत्रज्ञतत्त्वज्ञाः स्वयज्ञपरिनिष्ठिताः ॥ १९ ॥
ब्राह्मं वेदमधीयन्तस्तोषयन्त्यपरानपि ।

मूलम्

क्षेत्रक्षेत्रज्ञतत्त्वज्ञाः स्वयज्ञपरिनिष्ठिताः ॥ १९ ॥
ब्राह्मं वेदमधीयन्तस्तोषयन्त्यपरानपि ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के तत्त्वको जाननेवाले और आत्मयज्ञ-परायण थे। उपनिषदोंके अध्ययनमें तत्पर रहते तथा स्वयं संतुष्ट होकर दूसरोंको भी संतोष देते थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अखिलं दैवतं सर्वं ब्रह्म ब्रह्मणि संश्रितम् ॥ २० ॥
तुष्यन्ति तृप्यतो देवास्तृप्तास्तृप्तस्य जाजले।

मूलम्

अखिलं दैवतं सर्वं ब्रह्म ब्रह्मणि संश्रितम् ॥ २० ॥
तुष्यन्ति तृप्यतो देवास्तृप्तास्तृप्तस्य जाजले।

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्म सर्वस्वरूप है, सम्पूर्ण देवता उसीके रूप हैं, वह ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणके भीतर विराजमान है। इसलिये जाजले! इसके तृप्त होनेपर सम्पूर्ण देवता तृप्त एवं संतुष्ट हो जाते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सर्वरसैस्तृप्तो नाभिनन्दति किंचन ॥ २१ ॥
तथा प्रज्ञानतृप्तस्य नित्यतृप्तिः सुखोदया।

मूलम्

यथा सर्वरसैस्तृप्तो नाभिनन्दति किंचन ॥ २१ ॥
तथा प्रज्ञानतृप्तस्य नित्यतृप्तिः सुखोदया।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सब प्रकारके रसोंसे तृप्त हुआ मनुष्य किसी भी रसका अभिनन्दन नहीं करता, उसी प्रकार जो ज्ञानानन्दसे परितृप्त है, उसे अक्षय सुख देनेवाली नित्य तृप्ति बनी रहती है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्माधारा धर्मसुखाः कृत्स्नव्यवसितास्तथा ॥ २२ ॥
अस्ति नस्तत्त्वतो भूय इति प्राज्ञस्त्ववेक्षते।

मूलम्

धर्माधारा धर्मसुखाः कृत्स्नव्यवसितास्तथा ॥ २२ ॥
अस्ति नस्तत्त्वतो भूय इति प्राज्ञस्त्ववेक्षते।

अनुवाद (हिन्दी)

हममेंसे बहुत लोग ऐसे हैं, जिनका धर्म ही आधार है, जो धर्ममें ही सुख मानते हैं तथा जिन्होंने सम्पूर्ण कर्तव्य-अकर्तव्यका निश्चय कर लिया है; परंतु हमलोगोंका जो यथार्थरूप है, उसकी अपेक्षा बहुत महान् और व्यापक परमात्मा सर्वत्र सर्वात्मा रूपसे विराजमान है—ऐसा ज्ञानी पुरुष देखता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानविज्ञानिनः केचित् परं पारं तितीर्षवः ॥ २३ ॥
अतीव पुण्यदं पुण्यं पुण्याभिजनसंहितम्।
यत्र गत्वा न शोचन्ति न च्यवन्ति व्यथन्ति च॥२४॥

मूलम्

ज्ञानविज्ञानिनः केचित् परं पारं तितीर्षवः ॥ २३ ॥
अतीव पुण्यदं पुण्यं पुण्याभिजनसंहितम्।
यत्र गत्वा न शोचन्ति न च्यवन्ति व्यथन्ति च॥२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भवसागरसे पार उतरनेकी इच्छावाले कोई-कोई ज्ञान-विज्ञानसम्पन्न महात्मा पुरुष ही अत्यन्त पवित्र और पुण्यात्माओंसे सेवित पुण्यदायक ब्रह्मलोकको प्राप्त होते हैं, जहाँ जाकर वे न तो शोक करते हैं, न वहाँसे नीचे गिरते हैं और न मनमें किसी प्रकारकी व्यथाका ही अनुभव करते हैं॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु तद् ब्रह्मणः स्थानं प्राप्नुवन्तीह सात्त्विकाः।
नैव ते स्वर्गमिच्छन्ति न यजन्ति यशोधनैः ॥ २५ ॥
सतां वर्त्मानुवर्तन्ते यजन्ते चाविहिंसया।
वनस्पतीनोषधीश्च फलं मूलं च ते विदुः ॥ २६ ॥
न चैतानृत्विजो लुब्धा याजयन्ति फलार्थिनः।

मूलम्

ते तु तद् ब्रह्मणः स्थानं प्राप्नुवन्तीह सात्त्विकाः।
नैव ते स्वर्गमिच्छन्ति न यजन्ति यशोधनैः ॥ २५ ॥
सतां वर्त्मानुवर्तन्ते यजन्ते चाविहिंसया।
वनस्पतीनोषधीश्च फलं मूलं च ते विदुः ॥ २६ ॥
न चैतानृत्विजो लुब्धा याजयन्ति फलार्थिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

वे सात्त्विक महापुरुष उस ब्रह्मधामको ही प्राप्त होते हैं, उन्हें स्वर्गकी इच्छा नहीं होती, वे यश और धनके लिये यज्ञ नहीं करते, सत्पुरुषोंके मार्गपर चलते और हिंसारहित यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं। वनस्पति, अन्न और फल-मूलको ही वे हविष्य मानते हैं, धनकी इच्छा रखनेवाले लोभी ऋत्विज् इनका यज्ञ नहीं कराते हैं॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वमेव चार्थं कुर्वाणा यज्ञं चक्रुः पुनर्द्विजाः ॥ २७ ॥
परिनिष्ठितकर्माणः प्रजानुग्रहकाम्यया ।

मूलम्

स्वमेव चार्थं कुर्वाणा यज्ञं चक्रुः पुनर्द्विजाः ॥ २७ ॥
परिनिष्ठितकर्माणः प्रजानुग्रहकाम्यया ।

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानी ब्राह्मणोंने अपनेको ही यज्ञका उपकरण मानकर मानसिक यज्ञका अनुष्ठान किया है। उन्होंने प्रजाहितकी कामनासे ही मानसिक यज्ञका अनुष्ठान किया है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्‌ तानृत्विजो लुब्धा याजयन्त्यशुभान्‌ नरान् ॥ २८ ॥
प्रापयेयुः प्रजाः स्वर्गे स्वधर्माचरणेन वै।
इति मे वर्तते बुद्धिः समा सर्वत्र जाजले ॥ २९ ॥

मूलम्

तस्मात्‌ तानृत्विजो लुब्धा याजयन्त्यशुभान्‌ नरान् ॥ २८ ॥
प्रापयेयुः प्रजाः स्वर्गे स्वधर्माचरणेन वै।
इति मे वर्तते बुद्धिः समा सर्वत्र जाजले ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभी ऋत्विज् तो ऐसे लोगोंका ही यज्ञ कराते हैं, जो अशुभ (मोक्षकी इच्छासे रहित) होते हैं, श्रेष्ठ पुरुष तो स्वधर्मका आचरण करते हुए ही प्रजाको स्वर्गमें पहुँचा देते हैं। जाजले! यही सोचकर मेरी बुद्धि भी सर्वत्र समान भाव ही रखती है॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि यज्ञेष्विहेज्यन्ति सदा प्राज्ञा द्विजर्षभाः।
तेन ते देवयानेन पथा यान्ति महामुने ॥ ३० ॥

मूलम्

यानि यज्ञेष्विहेज्यन्ति सदा प्राज्ञा द्विजर्षभाः।
तेन ते देवयानेन पथा यान्ति महामुने ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामुने! श्रेष्ठ विद्वान् ब्राह्मण सदा ही जिन द्रव्योंको लेकर उनका यज्ञोंमें उपयोग करते हैं, उन्हींके द्वारा वे दिव्य मार्गसे पुण्य लोकोंमें जाते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवृत्तिस्तस्य चैकस्य नास्त्यावृत्तिर्मनीषिणः ।
उभौ तौ देवयानेन गच्छतो जाजले यथा ॥ ३१ ॥

मूलम्

आवृत्तिस्तस्य चैकस्य नास्त्यावृत्तिर्मनीषिणः ।
उभौ तौ देवयानेन गच्छतो जाजले यथा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाजले! जो कामनाओंमें आसक्त है, उसी मनुष्यकी इस संसारमें पुनरावृत्ति होती है। ज्ञानीका पुनः यहाँ जन्म नहीं होता। यद्यपि दोनों दिव्यमार्गसे ही पुण्यलोकोंमें जाते हैं, तथापि संकल्प-भेदसे ही उनकी आवृत्ति और अनावृत्ति होती है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं चैषामनडुहो युज्यन्ति च वहन्ति च।
स्वयमुस्राश्च दुह्यन्ते मनःसंकल्पसिद्धिभिः ॥ ३२ ॥

मूलम्

स्वयं चैषामनडुहो युज्यन्ति च वहन्ति च।
स्वयमुस्राश्च दुह्यन्ते मनःसंकल्पसिद्धिभिः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानी महात्माओंकी इच्छा होते ही उनके मानसिक संकल्पकी सिद्धियोंके अनुसार बैल स्वयं गाड़ीमें जुतकर उनकी सवारी ढोने लगते हैं, दूध देनेवाली गौएँ स्वयं ही सब प्रकारके मनोरथोंकी सिद्धिरूप दुग्ध प्रदान करती हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं यूपानुपादाय यजन्ते स्वाप्तदक्षिणैः।
यस्तथा भावितात्मा स्यात् स गामालब्धुमर्हति ॥ ३३ ॥

मूलम्

स्वयं यूपानुपादाय यजन्ते स्वाप्तदक्षिणैः।
यस्तथा भावितात्मा स्यात् स गामालब्धुमर्हति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगसिद्ध पुरुषोंके पास स्वयं यज्ञयूप उपस्थित हो जाते हैं और उन्हें लेकर वे पर्याप्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञोंद्वारा यजन करते हैं। उनके ऋत्विजोंके पास दक्षिणा भी स्वतः उपस्थित हो जाती है। जिसका अन्तःकरण इस प्रकार शुद्ध एवं सिद्ध हो गया है, वही पृथ्वीको उपलब्ध कर सकता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओषधीभिस्तथा ब्रह्मन् यजेरंस्ते न तादृशाः।
इति त्यागं पुरस्कृत्य तादृशं प्रब्रवीमि ते ॥ ३४ ॥

मूलम्

ओषधीभिस्तथा ब्रह्मन् यजेरंस्ते न तादृशाः।
इति त्यागं पुरस्कृत्य तादृशं प्रब्रवीमि ते ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! इसलिये वे योगसिद्ध पुरुष ओषधियों—अन्न आदिके द्वारा यज्ञ कर सकते हैं। जो पहले बताये अनुसार मूढ़ लोग हैं, वे उस तरहका यज्ञ नहीं कर सकते। कर्मफलका त्याग करनेवाले महात्माओंका ऐसा अद्‌भुत माहात्म्य है, इसलिये मैं त्यागको आगे रखकर तुमसे ऐसी बात कह रहा हूँ॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निराशिषमनारम्भं निर्नमस्कारमस्तुतिम् ।
अक्षीणं क्षीणकर्माणं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३५ ॥

मूलम्

निराशिषमनारम्भं निर्नमस्कारमस्तुतिम् ।
अक्षीणं क्षीणकर्माणं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जो किसी फलकी इच्छासे कर्मोंका आरम्भ नहीं करता, नमस्कार और स्तुतिसे अलग रहता है, जिसका धर्म नहीं क्षीण हुआ है, कर्म-बन्धन क्षीण हो गया है, उसी पुरुषको देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न श्रावयन् न च यजन् न ददद् ब्राह्मणेषु च।
काम्यां वृत्तिं लिप्समानः कां गतिं याति जाजले।
इदं तु दैवतं कृत्वा यथा यज्ञमवाप्नुयात् ॥ ३६ ॥

मूलम्

न श्रावयन् न च यजन् न ददद् ब्राह्मणेषु च।
काम्यां वृत्तिं लिप्समानः कां गतिं याति जाजले।
इदं तु दैवतं कृत्वा यथा यज्ञमवाप्नुयात् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाजले! जो ब्राह्मण वेदाध्ययन, यजन और ब्राह्मणोंको दान देना आदि वर्णोचित कर्म नहीं करता और मनोहर भोग-पदार्थोंकी लिप्सा रखता है, वह कुत्सित गतिको प्राप्त होता है। किंतु निष्काम धर्मको देवताके समान आराध्य बनानेवाला मनुष्य यज्ञके यथार्थ फल—मोक्षको प्राप्त कर लेता है॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

जाजलिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वै मुनीनां शृणुमः स्म तत्त्वं
पृच्छामि ते वाणिज कष्टमेतत्।
पूर्वे पूर्वे चास्य नावेक्षमाणा
नातः परं तमृषयः स्थापयन्ति ॥ ३७ ॥

मूलम्

न वै मुनीनां शृणुमः स्म तत्त्वं
पृच्छामि ते वाणिज कष्टमेतत्।
पूर्वे पूर्वे चास्य नावेक्षमाणा
नातः परं तमृषयः स्थापयन्ति ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाजलिने पूछा— वैश्यप्रवर! मैंने आत्मयाजी मुनियोंके समीप तुम्हारेद्वारा प्रतिपादित तत्त्वको कभी नहीं सुना। सम्भवतः यह समझनेमें कठिन भी है, क्योंकि पूर्वकालीन महर्षियोंने उसके ऊपर विशेष विचार नहीं किया है। जिन्होंने विचार किया है, उन्होंने भी उत्तम होनेपर भी इस धर्मकी जगत्‌में स्थापना नहीं की है; अतः मैं तुमसे ही पूछता हूँ॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन्नेवात्मतीर्थे न पशवः प्राप्नुयुर्मखम्।
अथ स्म कर्मणा केन वाणिज प्राप्नुयात् सुखम् ॥ ३८ ॥
शंस मे तन्महाप्राज्ञ भृशं वै श्रद्दधामि ते।

मूलम्

यस्मिन्नेवात्मतीर्थे न पशवः प्राप्नुयुर्मखम्।
अथ स्म कर्मणा केन वाणिज प्राप्नुयात् सुखम् ॥ ३८ ॥
शंस मे तन्महाप्राज्ञ भृशं वै श्रद्दधामि ते।

अनुवाद (हिन्दी)

वणिक्‌पुत्र! यदि इस प्रकार आत्मतीर्थमें पशु अर्थात् अज्ञानी मानव आत्मयज्ञका सौभाग्य नहीं पा सकते तो किस कर्मसे उन्हें सुखकी प्राप्ति हो सकती है? महामते! यह बात मुझे बताओ। मैं तुम्हारे कथनपर अधिक श्रद्धा रखता हूँ॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

तुलाधार उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत यज्ञा उतायज्ञा मखं नार्हन्ति ते क्वचित् ॥ ३९ ॥
आज्येन पयसा दध्ना पूर्णाहुत्या विशेषतः।
वालैः शृङ्गेण पादेन सम्भरत्येव गौर्मखम् ॥ ४० ॥

मूलम्

उत यज्ञा उतायज्ञा मखं नार्हन्ति ते क्वचित् ॥ ३९ ॥
आज्येन पयसा दध्ना पूर्णाहुत्या विशेषतः।
वालैः शृङ्गेण पादेन सम्भरत्येव गौर्मखम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलाधारने कहा— ब्रह्मन्! जिन दम्भी पुरुषोंके यज्ञ अश्रद्धा आदि दोषोंके कारण यज्ञ कहलानेयोग्य नहीं रह जाते, वे न तो मानसिक यज्ञके अधिकारी हैं और न क्रियात्मक यज्ञके ही। श्रद्धालु पुरुष तो घी, दूध, दही और विशेषतः पूर्णाहुतिसे ही अपना यज्ञ पूर्ण करते हैं। श्रद्धालुओंमें जो असमर्थ हैं, उनका यज्ञ गाय अपनी पूँछके बालोंके स्पर्शसे, शृंगजलसे और पैरोंकी धूलसे ही पूर्ण कर देती है॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्नीं चानेन विधिना प्रकरोति नियोजयन्।
इष्टं तु दैवतं कृत्वा यथा यज्ञमवाप्नुयात् ॥ ४१ ॥

मूलम्

पत्नीं चानेन विधिना प्रकरोति नियोजयन्।
इष्टं तु दैवतं कृत्वा यथा यज्ञमवाप्नुयात् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी विधिसे देवताके लिये घी आदि द्रव्य समर्पित करनेके लिये श्रद्धाको ही पत्नी बनाये और यज्ञको ही देवताके समान आराध्य बनाकर यथावत् रूपसे यज्ञपुरुष भगवान् विष्णुको प्राप्त करे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरोडाशो हि सर्वेषां पशूनां मेध्य उच्यते।
सर्वा नद्यः सरस्वत्यः सर्वे पुण्याः शिलोच्चयाः ॥ ४२ ॥

मूलम्

पुरोडाशो हि सर्वेषां पशूनां मेध्य उच्यते।
सर्वा नद्यः सरस्वत्यः सर्वे पुण्याः शिलोच्चयाः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञविहित समस्त पशुओंके दुग्ध आदिसे निर्मित पुरोडाशको ही पवित्र बताया जाता है। सारी नदियाँ ही सरस्वतीका रूप हैं और समस्त पर्वत ही पुण्यमय प्रदेश हैं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाजले तीर्थमात्मैव मा स्म देशातिथिर्भव।
एतानीदृशकान् धर्मानाचरन्निह जाजले ॥ ४३ ॥
कारणैर्धर्ममन्विच्छन् स लोकानाप्नुते शुभान्।

मूलम्

जाजले तीर्थमात्मैव मा स्म देशातिथिर्भव।
एतानीदृशकान् धर्मानाचरन्निह जाजले ॥ ४३ ॥
कारणैर्धर्ममन्विच्छन् स लोकानाप्नुते शुभान्।

अनुवाद (हिन्दी)

जाजले! यह आत्मा ही प्रधान तीर्थ है। आप तीर्थसेवनके लिये देश-देशमें मत भटकिये। जो यहाँ मेरे बताये हुए अहिंसाप्रधान धर्मोंका आचरण करता है तथा विशेष कारणोंसे धर्मका अनुसंधान करता है, वह कल्याणकारी लोकोंको प्राप्त होता है॥४३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतानीदृशकान् धर्मांस्तुलाधारः प्रशंसति ॥ ४४ ॥
उपपत्त्याभिसम्पन्नान् नित्यं सद्भिर्निषेवितान् ॥ ४५ ॥

मूलम्

एतानीदृशकान् धर्मांस्तुलाधारः प्रशंसति ॥ ४४ ॥
उपपत्त्याभिसम्पन्नान् नित्यं सद्भिर्निषेवितान् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार हिंसारहित, युक्तिसंगत तथा श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा सेवित धर्मोंकी ही तुलाधार वैश्यने सदा प्रशंसा की थी॥४४-४५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि तुलाधारजाजलिसंवादे त्रिषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तुलाधार और जाजलिका संवादविषयक दो सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६३॥