भागसूचना
द्विषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जाजलि और तुलाधारका धर्मके विषयमें संवाद
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स तदा तेन तुलाधारेण धीमता।
प्रोवाच वचनं धीमान् जाजलिर्जपतां वरः ॥ १ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स तदा तेन तुलाधारेण धीमता।
प्रोवाच वचनं धीमान् जाजलिर्जपतां वरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! उस समय बुद्धिमान् तुलाधारके इस प्रकार कहनेपर जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ मतिमान् जाजलिने यह बात कही॥१॥
मूलम् (वचनम्)
जाजलिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्रीणतः सर्वरसान् सर्वगन्धांश्च वाणिज।
वनस्पतीनोषधीश्च तेषां मूलफलानि च ॥ २ ॥
मूलम्
विक्रीणतः सर्वरसान् सर्वगन्धांश्च वाणिज।
वनस्पतीनोषधीश्च तेषां मूलफलानि च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाजलि बोले— वैश्यपुत्र! तुम तो सब प्रकारके रस, गन्ध, वनस्पति, ओषधि, मूल और फल आदि बेचा करते हो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यगा नैष्ठिकीं बुद्धिं कुतस्त्वामिदमागतम्।
एतदाचक्ष्व मे सर्वं निखिलेन महामते ॥ ३ ॥
मूलम्
अध्यगा नैष्ठिकीं बुद्धिं कुतस्त्वामिदमागतम्।
एतदाचक्ष्व मे सर्वं निखिलेन महामते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! तुम्हें यह धर्ममें निष्ठा रखनेवाली बुद्धि कहाँसे प्राप्त हुई? तुम्हें यह ज्ञान कैसे सुलभ हुआ? यह सब पूर्णरूपसे मुझे बताओ॥३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तुलाधारो ब्राह्मणेन यशस्विना ।
उवाच धर्मसूक्ष्माणि वैश्यो धर्मार्थतत्त्ववित् ॥ ४ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तुलाधारो ब्राह्मणेन यशस्विना ।
उवाच धर्मसूक्ष्माणि वैश्यो धर्मार्थतत्त्ववित् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! यशस्वी ब्राह्मण जाजलिके इस प्रकार पूछनेपर धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले तुलाधार वैश्यने उन्हें धर्म-सम्बन्धी सूक्ष्म बातोंको इस तरह बताना आरम्भ किया॥४॥
मूलम् (वचनम्)
तुलाधार उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।
सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः ॥ ५ ॥
मूलम्
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।
सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलाधार बोले— जाजले! जो समस्त प्राणियोंके लिये हितकारी और सबके प्रति मैत्रीभावकी स्थापना करनेवाला है, जिसे सब लोग पुरातन धर्मके रूपमें जानते हैं, गूढ़ रहस्योंसहित उस सनातन धर्मका मुझे ज्ञान है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः।
या वृत्तिः स परो धर्मस्तेन जीवामि जाजले ॥ ६ ॥
मूलम्
अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः।
या वृत्तिः स परो धर्मस्तेन जीवामि जाजले ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें किसी भी प्राणीके साथ द्रोह न करना पड़े अथवा कम-से-कम द्रोह करनेसे काम चल जाय, ऐसी जो जीवन-वृत्ति है, वही उत्तम धर्म है। जाजले! मैं उसीसे जीवन निर्वाह करता हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परच्छिन्नैः काष्ठतृणैर्मयेदं शरणं कृतम्।
अलक्तं पद्मकं तुङ्गं गन्धांश्चोच्चावचांस्तथा ॥ ७ ॥
मूलम्
परच्छिन्नैः काष्ठतृणैर्मयेदं शरणं कृतम्।
अलक्तं पद्मकं तुङ्गं गन्धांश्चोच्चावचांस्तथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने दूसरोंके द्वारा काटे गये काठ और घास-फूससे यह घर तैयार किया है। अलक्तक (वृक्षविशेषकी छाल), पद्मक (पद्माख), तुंगकाष्ठ तथा चन्दनादि गन्धद्रव्य एवं अन्य छोटी-बड़ी वस्तुओंको मैं दूसरोंसे खरीदकर बेचता हूँ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसांश्च तांस्तान् विप्रर्षे मद्यवर्ज्यान् बहूनहम्।
क्रीत्वा वै प्रतिविक्रीणे परहस्तादमायया ॥ ८ ॥
मूलम्
रसांश्च तांस्तान् विप्रर्षे मद्यवर्ज्यान् बहूनहम्।
क्रीत्वा वै प्रतिविक्रीणे परहस्तादमायया ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रर्षे! मेरे यहाँ मदिरा नहीं बेची जाती, उसे छोड़कर बहुत-से पीनेयोग्य रसोंको दूसरोंसे खरीदकर बेचता हूँ। माल बेचनेमें छल-कपट एवं असत्यसे काम नहीं लेता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले ॥ ९ ॥
मूलम्
सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाजले! जो सब जीवोंका सुहृद् होता और मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा सदा सबके हितमें लगा रहता है, वही वास्तवमें धर्मको जानता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानुरुद्ध्ये निरुध्ये वा न द्वेष्मि न च कामये।
समोऽहं सर्वभूतेषु पश्य मे जाजले व्रतम्।
तुला मे सर्वभूतेषु समा तिष्ठति जाजले ॥ १० ॥
मूलम्
नानुरुद्ध्ये निरुध्ये वा न द्वेष्मि न च कामये।
समोऽहं सर्वभूतेषु पश्य मे जाजले व्रतम्।
तुला मे सर्वभूतेषु समा तिष्ठति जाजले ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं न किसीसे अनुरोध करता हूँ न विरोध ही करता हूँ और न कहीं मेरा द्वेष है, न किसीसे कुछ कामना करता हूँ। समस्त प्राणियोंके प्रति मेरा समभाव है। जाजले! यही मेरा व्रत और नियम है, इसपर दृष्टिपात करो। मुने! मेरी तराजू सब मनुष्योंके लिये सम है—सबके लिये बराबर तौलती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं परेषां कृत्यानि प्रशंसामि न गर्हये।
आकाशस्येव विप्रेन्द्र पश्यल्ँलोकस्य चित्रताम् ॥ ११ ॥
मूलम्
नाहं परेषां कृत्यानि प्रशंसामि न गर्हये।
आकाशस्येव विप्रेन्द्र पश्यल्ँलोकस्य चित्रताम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! मैं आकाशकी भाँति असंग रहकर जगत्के कार्योंकी विचित्रताको देखता हुआ दूसरोंके कार्योंकी न तो प्रशंसा करता हूँ और न निन्दा ही॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति मां त्वं विजानीहि सर्वलोकस्य जाजले।
समं मतिमतां श्रेष्ठ समलोष्टाश्मकाञ्चनम् ॥ १२ ॥
मूलम्
इति मां त्वं विजानीहि सर्वलोकस्य जाजले।
समं मतिमतां श्रेष्ठ समलोष्टाश्मकाञ्चनम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जाजले! इस प्रकार तुम मुझे सब लोगोंके प्रति समता रखनेवाला और मिट्टीके ढेले, पत्थर तथा सुवर्णको समान समझनेवाला जानो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथान्धबधिरोन्मत्ता उच्छ्वासपरमाः सदा ।
देवैरपिहितद्वाराः सोपमा पश्यतो मम ॥ १३ ॥
मूलम्
यथान्धबधिरोन्मत्ता उच्छ्वासपरमाः सदा ।
देवैरपिहितद्वाराः सोपमा पश्यतो मम ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अन्धे, बहरे और उन्मत्त (पागल) मनुष्य, जिनके नेत्र, कान आदि द्वार देवताओंने सदाके लिये बंद कर दिये हैं, सदा केवल साँस लेते रहते हैं, मुझ द्रष्टा पुरुषकी भी वैसी ही उपमा है (अर्थात् मैं देखकर भी नहीं देखता, सुनकर भी नहीं सुनता और विषयोंकी ओर मन नहीं ले जाता, केवल साक्षीरूपसे देखता हुआ श्वास-प्रश्वासमात्रकी क्रिया करता रहता हूँ)॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वृद्धातुरकृशा निःस्पृहा विषयान् प्रति।
तथार्थकामभोगेषु ममापि विगता स्पृहा ॥ १४ ॥
मूलम्
यथा वृद्धातुरकृशा निःस्पृहा विषयान् प्रति।
तथार्थकामभोगेषु ममापि विगता स्पृहा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वृद्ध, रोगी और दुर्बल मनुष्य विषयभोगोंकी स्पृहा नहीं रखते, उसी प्रकार मेरे मनसे भी धन और विषय-भोगोंकी इच्छा दूर हो गयी है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १५ ॥
मूलम्
यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह पुरुष दूसरेसे भयभीत नहीं होता, जब दूसरे प्राणी भी इससे भयभीत नहीं होते तथा जब यह न तो किसीकी इच्छा रखता है और न किसीसे द्वेष ही करता है, तब ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १६ ॥
मूलम्
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब समस्त प्राणियोंके प्रति मन, वाणी और क्रियाद्वारा भी बुरे भाव नहीं होते हैं तब मनुष्य ब्रह्मभावको प्राप्त होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भूतो न भविष्योऽस्ति न च धर्मोऽस्ति कश्चन।
योऽभयः सर्वभूतानां स प्राप्नोत्यभयं पदम् ॥ १७ ॥
मूलम्
न भूतो न भविष्योऽस्ति न च धर्मोऽस्ति कश्चन।
योऽभयः सर्वभूतानां स प्राप्नोत्यभयं पदम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका भूत या भविष्यमें कोई कार्य नहीं है तथा जिसके लिये कोई धर्म करना शेष नहीं है, साथ ही सम्पूर्ण भूतोंको अभय प्रदान करता है, वही निर्भय पदको प्राप्त होता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मादुद्विजते लोकः सर्वो मृत्युमुखादिव।
वाक् क्रूराद् दण्डपरुषात् स प्राप्नोति महद् भयम् ॥ १८ ॥
मूलम्
यस्मादुद्विजते लोकः सर्वो मृत्युमुखादिव।
वाक् क्रूराद् दण्डपरुषात् स प्राप्नोति महद् भयम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सब लोग मौतके मुखमें जानेसे डरते हैं, उसी प्रकार जिसके स्मरणमात्रसे सब लोग उद्विग्न हो उठते हैं तथा जो कटुवचन बोलनेवाला और दण्ड देनेमें कठोर है, ऐसे मनुष्यको महान् भयका सामना करना पड़ता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथावद् वर्तमानानां वृद्धानां पुत्रपौत्रिणाम्।
अनुवर्तामहे वृत्तमहिंस्राणां महात्मनाम् ॥ १९ ॥
मूलम्
यथावद् वर्तमानानां वृद्धानां पुत्रपौत्रिणाम्।
अनुवर्तामहे वृत्तमहिंस्राणां महात्मनाम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वृद्ध हैं, पुत्र और पौत्रोंसे सम्पन्न हैं, शास्त्रके अनुसार यथोचित आचरण करते हैं और किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करते हैं, उन्हीं महात्माओंके बर्तावका मैं भी अनुसरण करता हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणष्टः शाश्वतो धर्मस्त्वनाचारेण मोहितः।
तेन वैद्यस्तपस्वी वा बलवान् वा विमुह्यते ॥ २० ॥
मूलम्
प्रणष्टः शाश्वतो धर्मस्त्वनाचारेण मोहितः।
तेन वैद्यस्तपस्वी वा बलवान् वा विमुह्यते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनाचारसे सनातन धर्म मोहयुक्त होकर नष्ट हो जाता है। उसके द्वारा विद्वान्, तपस्वी तथा काम-क्रोधको जीतनेवाला बलवान् पुरुष भी मोहमें पड़ जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचाराज्जाजले प्राज्ञः क्षिप्रं धर्ममवाप्नुयात्।
एवं यः साधुभिर्दान्तश्चरेदद्रोहचेतसा ॥ २१ ॥
मूलम्
आचाराज्जाजले प्राज्ञः क्षिप्रं धर्ममवाप्नुयात्।
एवं यः साधुभिर्दान्तश्चरेदद्रोहचेतसा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाजले! जो जितेन्द्रिय पुरुष अपने चित्तमें दूसरोंके प्रति द्रोह न रखकर, इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा पालित आचारको अपने आचरणमें लाता है, वह विद्वान् वेदबोधित सदाचारका पालन करनेसे शीघ्र ही धर्मके रहस्यको जान लेता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नद्यां चेह यथा काष्ठमुह्यमानं यदृच्छया।
यदृच्छयैव काष्ठेन सन्धिं गच्छेत केनचित् ॥ २२ ॥
तत्रापराणि दारूणि संसृज्यन्ते परस्परम्।
तृणकाष्ठकरीषाणि कदाचिन्न समीक्षया ॥ २३ ॥
मूलम्
नद्यां चेह यथा काष्ठमुह्यमानं यदृच्छया।
यदृच्छयैव काष्ठेन सन्धिं गच्छेत केनचित् ॥ २२ ॥
तत्रापराणि दारूणि संसृज्यन्ते परस्परम्।
तृणकाष्ठकरीषाणि कदाचिन्न समीक्षया ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे यहाँ नदीकी धारामें दैवेच्छासे बहता हुआ काठ अकस्मात् किसी दूसरे काठसे संयुक्त हो जाता है; फिर वहाँ दूसरे-दूसरे काष्ठ, तिनके, छोटी-छोटी लकड़ियाँ और सूखे गोबर भी आकर एक-दूसरेसे जुड़ जाते हैं, परंतु इन सबका वह संयोग आकस्मिक ही होता है, समझ-बूझकर नहीं (इसी प्रकार संसारके प्राणियोंके भी परस्पर संयोग-वियोग होते रहते हैं)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित् कथंचन।
अभयं सर्वभूतेभ्यः स प्राप्नोति सदा मुने ॥ २४ ॥
मूलम्
यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित् कथंचन।
अभयं सर्वभूतेभ्यः स प्राप्नोति सदा मुने ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुने! जिससे कोई भी प्राणी कभी किसी तरह भी उद्विग्न नहीं होता, वह सदा सम्पूर्ण भूतोंसे अभय प्राप्त कर लेता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मादुद्विजते विद्वन् सर्वलोको वृकादिव।
क्रोशतस्तीरमासाद्य यथा सर्वे जलेचराः ॥ २५ ॥
स भयं सर्वभूतेभ्यः सम्प्राप्नोति महामते।
मूलम्
यस्मादुद्विजते विद्वन् सर्वलोको वृकादिव।
क्रोशतस्तीरमासाद्य यथा सर्वे जलेचराः ॥ २५ ॥
स भयं सर्वभूतेभ्यः सम्प्राप्नोति महामते।
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! विद्वन्! जैसे नदीके तीरपर आकर कोलाहल करनेवाले मनुष्यके डरसे सभी जलचर जन्तु भयके मारे छिप जाते हैं तथा जिस प्रकार भेड़ियेको देखकर सभी थर्रा उठते हैं, उसी प्रकार जिससे सब लोग डरते हैं, उसे भी सम्पूर्ण प्राणियोंसे भय प्राप्त होता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेवायमाचारः प्रादुर्भूतो यतस्ततः ।
सहायवान् द्रव्यवान् यः सुभगोऽथपरस्तथा ॥ २६ ॥
मूलम्
एवमेवायमाचारः प्रादुर्भूतो यतस्ततः ।
सहायवान् द्रव्यवान् यः सुभगोऽथपरस्तथा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार यह अभयदानरूप आचार प्रकट हुआ है, जो सभी उपायोंसे साध्य है—जैसे बने वैसे इसका पालन करना चाहिये। जो इसे आचरणमें लाता है वह सहायवान्, द्रव्यवान्, सौभाग्यशाली तथा श्रेष्ठ समझा जाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तानेव कवयः शास्त्रेषु प्रवदन्त्युत।
कीर्त्यर्थमल्पहृल्लेखाः पटवः कृत्स्ननिर्णयाः ॥ २७ ॥
मूलम्
ततस्तानेव कवयः शास्त्रेषु प्रवदन्त्युत।
कीर्त्यर्थमल्पहृल्लेखाः पटवः कृत्स्ननिर्णयाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जो अभयदान देनेमें समर्थ होते हैं, उन्हींको विद्वान् पुरुष शास्त्रोंमें श्रेष्ठ बताते हैं। उनमेंसे जो बहिर्मुख होकर अपने हृदयमें क्षणभंगुर विषय-सुखोंकी इच्छा रखते हैं, वे तो कीर्ति और मान-बड़ाईके लिये ही अभयदानरूप व्रतका पालन करते हैं; परंतु जो पटु या प्रवीण पुरुष हैं, वे पूर्णस्वरूप परब्रह्मकी प्राप्तिके लिये ही इस व्रतका आश्रय लेते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपोभिर्यज्ञदानैश्च वाक्यैः प्रज्ञाश्रितैस्तथा ।
प्राप्नोत्यभयदानस्य यद् यत् फलमिहाश्नुते ॥ २८ ॥
मूलम्
तपोभिर्यज्ञदानैश्च वाक्यैः प्रज्ञाश्रितैस्तथा ।
प्राप्नोत्यभयदानस्य यद् यत् फलमिहाश्नुते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तप, यज्ञ, दान और ज्ञान-सम्बन्धी उपदेशके द्वारा मनुष्य यहाँ जो-जो फल प्राप्त करता है, वह सब उसे केवल अभय दानसे मिल जाता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोके यः सर्वभूतेभ्यो ददात्यभयदक्षिणाम्।
स सर्वयज्ञैरीजानः प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम् ॥ २९ ॥
मूलम्
लोके यः सर्वभूतेभ्यो ददात्यभयदक्षिणाम्।
स सर्वयज्ञैरीजानः प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जगत्में सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयकी दक्षिणा देता है, वह मानो समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान कर लेता है तथा उसे भी सब ओरसे अभय दान प्राप्त हो जाता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोऽस्ति कश्चन।
यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित् कथंचन।
सोऽभयं सर्वभूतेभ्यः सम्प्राप्नोति महामुने ॥ ३० ॥
मूलम्
न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोऽस्ति कश्चन।
यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित् कथंचन।
सोऽभयं सर्वभूतेभ्यः सम्प्राप्नोति महामुने ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणियोंकी हिंसा न करनेसे जिस धर्मकी सिद्धि होती है, उससे बढ़कर महान् धर्म कोई नहीं है। महामुने! जिससे कभी कोई भी प्राणी किसी तरह उद्विग्न नहीं होता, वह भी सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय प्राप्त कर लेता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद् वेश्मगतादिव।
न स धर्ममवाप्नोति इहलोके परत्र च ॥ ३१ ॥
मूलम्
यस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद् वेश्मगतादिव।
न स धर्ममवाप्नोति इहलोके परत्र च ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घरके भीतर रहनेवाले सर्पके समान जिस पुरुषसे सब लोग भयभीत रहते हैं, वह इहलोक और परलोकमें भी कभी धर्मके फलको नहीं पाता॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः ।
देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः ॥ ३२ ॥
मूलम्
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः ।
देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो समस्त प्राणियोंका आत्मा हो गया है और सम्पूर्ण भूतोंको अपनेसे अभिन्न देखता है, उसे किसी विशेष स्थानकी प्राप्ति नहीं होती। वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। उसके पदचिह्नकी खोज करनेवाले देवता भी उस ज्ञानी पुरुषके मार्गके विषयमें मोहित हो जाते हैं—उसकी गतिका पता नहीं पाते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानं भूताभयस्याहुः सर्वदानेभ्य उत्तमम्।
ब्रवीमि ते सत्यमिदं श्रद्दधस्व च जाजले ॥ ३३ ॥
मूलम्
दानं भूताभयस्याहुः सर्वदानेभ्य उत्तमम्।
ब्रवीमि ते सत्यमिदं श्रद्दधस्व च जाजले ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणियोंको अभयदान देना सब दानोंसे उत्तम बताया गया है। जाजले! मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ, तुम इसपर विश्वास करो॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव सुभगो भूत्वा पुनर्भवति दुर्भगः।
व्यापत्तिं कर्मणां दृष्ट्वा जुगुप्सन्ति जनाः सदा ॥ ३४ ॥
मूलम्
स एव सुभगो भूत्वा पुनर्भवति दुर्भगः।
व्यापत्तिं कर्मणां दृष्ट्वा जुगुप्सन्ति जनाः सदा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्वर्गादिकी कामना करके धर्मकार्य करते हैं, वे ही स्वर्गादि फलोंको पाकर सौभाग्यवान् कहलाते हैं, फिर वे ही पुण्यक्षीण होनेके पश्चात् जब स्वर्गसे नीचे गिरते हैं, तब दुर्भाग्यसे दूषित माने जाते हैं, इस प्रकार कर्मोंका विनाश देखकर विज्ञ पुरुष सदा ही सकाम कर्मोंकी निन्दा करते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकारणो हि नैवास्ति धर्मः सूक्ष्मो हि जाजले।
भूतभव्यार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
अकारणो हि नैवास्ति धर्मः सूक्ष्मो हि जाजले।
भूतभव्यार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाजले! कोई भी धर्म निष्प्रयोजन या निष्फल नहीं है, उसका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, स्वर्ग या ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये ही यहाँ धर्मकी व्याख्या की गयी है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूक्ष्मत्वान्न स विज्ञातुं शक्यते बहुनिह्नवः।
उपलभ्यान्तरा चान्यानाचारानवबुध्यते ॥ ३६ ॥
मूलम्
सूक्ष्मत्वान्न स विज्ञातुं शक्यते बहुनिह्नवः।
उपलभ्यान्तरा चान्यानाचारानवबुध्यते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण वह सबकी समझमें नहीं आ सकता; क्योंकि उसके स्वरूपको छिपानेवाली बहुत-सी बातें हैं। बीच-बीचमें विभिन्न सत्पुरुषोंके आचारोंको देखकर मनुष्य वास्तविक धर्मका ज्ञान प्राप्त करता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च च्छिन्दन्ति वृषणान् ये च भिन्दन्ति नस्तकान्।
वहन्ति महतो भारान् बध्नन्ति दमयन्ति च ॥ ३७ ॥
हत्वा सत्त्वानि खादन्ति तान् कथं न विगर्हसे।
मानुषा मानुषानेव दासभावेन भुञ्जते ॥ ३८ ॥
मूलम्
ये च च्छिन्दन्ति वृषणान् ये च भिन्दन्ति नस्तकान्।
वहन्ति महतो भारान् बध्नन्ति दमयन्ति च ॥ ३७ ॥
हत्वा सत्त्वानि खादन्ति तान् कथं न विगर्हसे।
मानुषा मानुषानेव दासभावेन भुञ्जते ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग बैलोंको बधिया करके बाँधते-नाथते, उनसे भारी बोझ ढुलाते और उनका दमन करके उन्हें कामपर निकालते हैं, जो कितने ही जीवोंको मारकर खा जाते हैं, मनुष्य होकर मनुष्योंको दास बनाकर और उनके परिश्रमका फल आप भोगते हैं, उनकी तुम निन्दा क्यों नहीं करते हो?॥३७-३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधबन्धनिरोधेन कारयन्ति दिवानिशम् ।
आत्मनश्चापि जानाति यद् दुःखं वधबन्धने ॥ ३९ ॥
मूलम्
वधबन्धनिरोधेन कारयन्ति दिवानिशम् ।
आत्मनश्चापि जानाति यद् दुःखं वधबन्धने ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग वध और बन्धनकी दशामें अपनेको कितना कष्ट होता है, इस बातको जानते हैं तो भी दूसरोंको वध, बन्धन और कैदके कष्टमें डालकर उनसे दिन-रात काम कराते हैं, उनकी निन्दा तुम क्यों नहीं करते हो?॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चेन्द्रियेषु भूतेषु सर्वं वसति दैवतम्।
आदित्यश्चन्द्रमा वायुर्ब्रह्मा प्राणः क्रतुर्यमः ॥ ४० ॥
तानि जीवानि वक्रीय का मृतेषु विचारणा।
मूलम्
पञ्चेन्द्रियेषु भूतेषु सर्वं वसति दैवतम्।
आदित्यश्चन्द्रमा वायुर्ब्रह्मा प्राणः क्रतुर्यमः ॥ ४० ॥
तानि जीवानि वक्रीय का मृतेषु विचारणा।
अनुवाद (हिन्दी)
पाँच इन्द्रियोंवाले समस्त प्राणियोंमें सूर्य, चन्द्र, वायु, ब्रह्मा, प्राण, यज्ञ और यमराज—इन सब देवताओंका निवास है, जो उन्हें जीते-जी बेचकर जीविका चलाते हैं, उन्हें अधर्मकी प्राप्ति होती है। फिर मृत जीवोंका विक्रय करनेवालोंके विषयमें तो कहा ही क्या जाय?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजोऽग्निर्वरुणो मेषः सूर्योऽश्वः पृथिवी विराट् ॥ ४१ ॥
धेनुर्वत्सश्च सोमो वै विक्रीयैतन्न सिध्यति।
मूलम्
अजोऽग्निर्वरुणो मेषः सूर्योऽश्वः पृथिवी विराट् ॥ ४१ ॥
धेनुर्वत्सश्च सोमो वै विक्रीयैतन्न सिध्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
बकरा अग्निका, भेड़ वरुणका, घोड़ा सूर्यका और पृथ्वी विराट्का रूप है तथा गाय और बछड़े चन्द्रमाके स्वरूप हैं, इनको बेचनेसे कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
का तैले का घृते ब्रह्मन् मधुन्यप्यौषधेषु वा ॥ ४२ ॥
अदंशमशके देशे सुखसंवर्धितान् पशून्।
तांश्च मातुः प्रियाञ्जानन्नाक्रम्य बहुधा नराः ॥ ४३ ॥
बहुदंशाकुलान् देशान् नयन्ति बहुकर्दमान्।
वाहसम्पीडिता धुर्याः सीदन्त्यविधिना परे ॥ ४४ ॥
मूलम्
का तैले का घृते ब्रह्मन् मधुन्यप्यौषधेषु वा ॥ ४२ ॥
अदंशमशके देशे सुखसंवर्धितान् पशून्।
तांश्च मातुः प्रियाञ्जानन्नाक्रम्य बहुधा नराः ॥ ४३ ॥
बहुदंशाकुलान् देशान् नयन्ति बहुकर्दमान्।
वाहसम्पीडिता धुर्याः सीदन्त्यविधिना परे ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु ब्रह्मन्! तेल, घी, शहद और दवाओंकी बिक्री करनेमें क्या हानि है, बहुत-से मनुष्य तो दंश और मच्छरोंसे रहित देशमें उत्पन्न और सुखसे पले हुए पशुओंको यह जानते हुए भी कि ये अपनी माताओंको बहुत प्रिय हैं और इनके बिछुड़नेसे उन्हें बहुत कष्ट होगा, जबरदस्ती आक्रमण करके ऐसे देशोंमें ले जाते हैं जहाँ दंश, मच्छर और कीचड़की अधिकता होती है। कितने ही बोझ ढोनेवाले पशु भारी भारसे पीड़ित हो लोगोंद्वारा अनुचित रूपसे सताये जाते हैं॥४२—४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मन्ये भ्रूणहत्यापि विशिष्टा तेन कर्मणा।
कृषिं साध्विति मन्यन्ते सा च वृत्तिः सुदारुणा ॥ ४५ ॥
मूलम्
न मन्ये भ्रूणहत्यापि विशिष्टा तेन कर्मणा।
कृषिं साध्विति मन्यन्ते सा च वृत्तिः सुदारुणा ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं समझता हूँ कि उस क्रूर कर्मसे बढ़कर भ्रूणहत्याका पाप भी नहीं है। कुछ लोग खेतीको अच्छा मानते हैं, परंतु वह वृत्ति भी अत्यन्त कठोर है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिं भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठमयोमुखम्।
तथैवानडुहो युक्तान् समवेक्षस्व जाजले ॥ ४६ ॥
मूलम्
भूमिं भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठमयोमुखम्।
तथैवानडुहो युक्तान् समवेक्षस्व जाजले ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाजले! जिसके मुखपर फाल जुड़ा हुआ है, वह हल पृथ्वीको पीड़ा देता है और उसके भीतर रहनेवाले जीवोंका भी वध कर डालता है और उसमें जो बैल जोते जाते हैं, उनकी दुर्दशापर भी दृष्टिपात करो॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अघ्न्या इति गवां नाम क एता हन्तुमर्हति।
महच्चकाराकुशलं वृषं गां वाऽऽलभेत् तु यः ॥ ४७ ॥
मूलम्
अघ्न्या इति गवां नाम क एता हन्तुमर्हति।
महच्चकाराकुशलं वृषं गां वाऽऽलभेत् तु यः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रुतिमें गौओंको अघ्न्या (अवध्य) कहा गया है, फिर कौन उन्हें मारनेका विचार करेगा? जो पुरुष गाय और बैलोंको मारता है, वह महान् पाप करता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयो यतयो ह्येतन्नहुषे प्रत्यवेदयन्।
गां मातरं चाप्यवधीर्वृषभं च प्रजापतिम् ॥ ४८ ॥
अकार्यं नहुषाकार्षीर्लप्स्यामस्त्वत्कृते व्यथाम् ।
शतं चैकं च रोगाणां सर्वभूतेष्वपातयन् ॥ ४९ ॥
ऋषयस्ते महाभागाः प्रजास्वेव हि जाजले।
भ्रूणहं नहुषं त्वाहुर्न ते होष्यामहे हविः ॥ ५० ॥
मूलम्
ऋषयो यतयो ह्येतन्नहुषे प्रत्यवेदयन्।
गां मातरं चाप्यवधीर्वृषभं च प्रजापतिम् ॥ ४८ ॥
अकार्यं नहुषाकार्षीर्लप्स्यामस्त्वत्कृते व्यथाम् ।
शतं चैकं च रोगाणां सर्वभूतेष्वपातयन् ॥ ४९ ॥
ऋषयस्ते महाभागाः प्रजास्वेव हि जाजले।
भ्रूणहं नहुषं त्वाहुर्न ते होष्यामहे हविः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, ऋषियों और यतियोंने राजा नहुषके पास जाकर निवेदन किया कि तुमने माता गौ और प्रजापति वृषभका वध किया है, नहुष! यह तुम्हारे द्वारा न करनेयोग्य पापकर्म किया गया है, तुम्हारे इस कुकृत्यके कारण हम सब लोगोंको बड़ी व्यथा हो रही है। जाजले! ऐसा कहकर नहुषके द्वारा प्रशंसित उन महाभाग ऋषियोंने पापको एक सौ एक रोगोंके रूपमें परिणत करके समस्त प्राणियोंपर डाल दिया, राजा नहुषको भ्रूणहत्यारा बताया और स्पष्ट कह दिया कि हमलोग तुम्हारे यज्ञमें हविष्यकी आहुति नहीं देंगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा ते महात्मानः सर्वे तत्त्वार्थदर्शिनः।
ऋषयो यतयः शान्तास्तपसा प्रत्यवेदयन् ॥ ५१ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा ते महात्मानः सर्वे तत्त्वार्थदर्शिनः।
ऋषयो यतयः शान्तास्तपसा प्रत्यवेदयन् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर उन समस्त तत्त्वार्थदर्शी महात्माओंने तपस्या (ध्यान) द्वारा सारी बातें जान लीं और नहुषके अज्ञानवश वह पाप होनेके कारण उन्हें निर्दोष पाकर वे सब ऋषि और यति शान्त हो गये॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईदृशानशिवान् घोरानाचारानिह जाजले ।
केवलाचरितत्वात् तु निपुणो नावबुद्ध्यसे ॥ ५२ ॥
मूलम्
ईदृशानशिवान् घोरानाचारानिह जाजले ।
केवलाचरितत्वात् तु निपुणो नावबुद्ध्यसे ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाजले! इस तरहके अमंगलकारी और भयंकर आचार इस जगत्में बहुत-से प्रचलित हैं; केवल इसलिये कि अमुक कर्म पूर्वजोंद्वारा भी किया गया है, तुम चतुर होते हुए भी उसकी बुराईपर ध्यान नहीं देते॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारणाद् धर्ममन्विच्छेन्न लोकचरितं चरेत्।
यो हन्याद् यश्च मां स्तौति तत्रापि शृणु जाजले॥५३॥
समौ तावपि मे स्यातां न हि मेऽस्ति प्रियाप्रियम्।
एतदीदृशकं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः ॥ ५४ ॥
मूलम्
कारणाद् धर्ममन्विच्छेन्न लोकचरितं चरेत्।
यो हन्याद् यश्च मां स्तौति तत्रापि शृणु जाजले॥५३॥
समौ तावपि मे स्यातां न हि मेऽस्ति प्रियाप्रियम्।
एतदीदृशकं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस कर्मका हेतु या परिणाम क्या है? इसपर विचार करके ही तुम्हें किसी भी धर्मको स्वीकार करना चाहिये। लोगोंने किया है या कर रहे हैं, यह जानकर उनका अन्धानुकरण नहीं करना चाहिये। जाजले! अब मैं अपने विषयमें कुछ निवेदन करता हूँ, उसे सुनो, जो मुझे मारता है तथा जो मेरी प्रशंसा करता है, वे दोनों ही मेरे लिये बराबर हैं। उनमेंसे कोई भी मेरे लिये प्रिय या अप्रिय नहीं है, मनीषी पुरुष ऐसे ही धर्मकी प्रशंसा करते हैं॥५३-५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपत्त्या हि सम्पन्नो यतिभिश्चैव सेव्यते।
सततं धर्मशीलैश्च निपुणेनोपलक्षितः ॥ ५५ ॥
मूलम्
उपपत्त्या हि सम्पन्नो यतिभिश्चैव सेव्यते।
सततं धर्मशीलैश्च निपुणेनोपलक्षितः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही युक्तिसंगत है, यति भी इसीका सेवन करते हैं तथा धर्मात्मा मनुष्य अच्छी तरह विचारकर सदा इसी धर्मका अनुष्ठान करते हैं॥५५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि तुलाधारजाजलिसंवादे द्विषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तुलाधार और जाजलिका संवादविषयक दो सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६२॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ५५ श्लोक हैं)